Social-science 9

UP Board Solutions for Class 9 Social Science Chapter 4

UP Board Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 4 वन्य-समाज और उपनिवेशवाद

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 9 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 4 वन्य-समाज और उपनिवेशवाद.

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर 

प्रश्न-1.
औपनिवेशिक काल के वन प्रबंधन में आए परिवर्तनों ने इन समूहों को कैसे प्रभावित किया :

  1. झूम खेती करने वालों को।
  2. घुमन्तू और घरवाही समुदायों को।
  3. लकड़ी और वन-उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को।
  4. बागान मालिकों को।
  5. शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज अफसरों को।

उत्तर:
(1) झूम खेती करने वालों को झूम कृषि पद्धति में वनों के कुछ भागों को बारी-बारी से काटा जाता है और जलाया जाता था। मानसून की पहली बारिश के बाद इस राख में बीज बो दिए जाते हैं और अक्टूबर-नवम्बर तक फसल काटी जाती है। इन खेतों पर दो-एक वर्ष कृषि करने के बाद इन भूखण्डों को 12 से 18 वर्ष के लिए परती छोड़ दिया जाता था। इन भूखण्डों में मिश्रित फसलें उगायी जाती थीं जैसे मध्य भारत और अफ्रीका में ज्वार-बाजरा, ब्राजील में कसावा और लैटिन अमेरिका के अन्य भागों में मक्का व फलियाँ।

औपनिवेशिक काल में यूरोपीय वन रक्षकों की नजर में यह तरीका वनों के लिए नुकसानदेह था। उन्होंने महसूस किया कि जहाँ कुछेक सालों के अंतर पर खेती की जा रही हो ऐसी जमीन पर रेलवे के लिए इमारती लकड़ी वाले पेड़ नहीं उगाए जा सकते। साथ ही, वनों को जलाते समय बाकी बेशकीमती पेड़ों के भी फैलती लपटों की चपेट में आ जाने का खतरा बना रहता है। झूम खेती के कारण सरकार के लिए लगान का हिसाब रखना भी मुश्किल था। इसलिए सरकार ने झूम खेती पर रोक लगाने का फैसला किया। इसके परिणामस्वरूप अनेक समुदायों को जंगलों में उनके घरों से जबरन विस्थापित कर दिया गया। कुछ को अपना पेशा बदलना पड़ा तो कुछ और ने छोटे-बड़े विद्रोहों के जरिए प्रतिरोध किया।

(2) घुमंतू और चरवाहा समुदायों को उनके दैनिक जीवन पर नए वन कानूनों का बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। वन प्रबंधन द्वारा लाए गए बदलावों के कारण नोमड एवं चरवाहा समुदाय के लोग वनों में पशु नहीं चरा सकते थे, कंदमूल व फल एकत्र नहीं कर सकते थे और शिकार तथा मछली नहीं पकड़ सकते थे। यह सब गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। इसके फलस्वरूप उन्हें लकड़ी चोरी करने को मजबूर होना पड़ता और यदि पकड़े जाते तो उन्हें वन रक्षकों को घूस देनी पड़ती। इनमें से कुछ समुदायों को अपराधी कबीले भी कहा जाता था।

(3) लकड़ी और वन-उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को-19वीं सदी की शुरुआत में इंग्लैण्ड के बलूत वन लुप्त होने लगे थे जिससे शाही नौ सेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति में कमी आयी। 1820 ई. तक अंग्रेज खोजी दस्ते भारत की वन संपदा का अन्वेषण करने के लिए भेजे गए। एक दशक के भीतर बड़ी संख्या में पेड़ों को काट डाला गया और अत्यधिक मात्रा में भारत से लकड़ी का निर्यात किया गया। लकड़ी निर्यात व्यापार पूरी तरह से सरकारी अधिनियम के अंतर्गत संचालित किया जाता था। ब्रिटिश प्रशासन ने यूरोपीय कंपनियों को विशेष अधिकार दिए कि वे ही कुछ निश्चित क्षेत्रों में वन्य उत्पादों में व्यापार कर सकेंगे। लकड़ी/वन्य उत्पादों का व्यापार करने वाली कुछ कंपनियों के लिए फायदेमंद साबित हुआ। वे अपने फायदे के लिए अंधाधुंध वन काटने में लग गए।

(4) बागान मालिकों को भारत में औपनिवेशिक काल में लागू की गयी विभिन्न वन नीतियों का बागान मालिकों पर उचित प्रभाव पड़ा। इस काल में वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर बड़े पैमाने पर जंगलों को साफ करके उस पर बागानी कृषि आरंभ की गयी। इन बागानों के मालिक अंग्रेज होते थे, जो भारत में चाय, कहवा, रबड़ आदि के बागानों को लगाते थे। इन बागानों में श्रमिकों की पूर्ति प्रायः वन क्षेत्रों को काटने से बेरोजगार हुए वन निवासियों द्वारा की जाती थी। बागान के मालिकों ने मजदूरों को लंबे समय तक और वह भी कम मजदूरी पर काम करवा कर बहुत लाभ कमाया। नए वन्य कानूनों के कारण मजदूर इसका विरोध भी नहीं कर सकते थे क्योंकि यही उनकी आजीविका कमाने का एकमात्र जरिया था।

(5) शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज अफसरों को औपनिवेशिक भारत में बनाए गए वन कानूनों ने वनवासियों के जीवन पर व्यापक प्रभाव डाला। पहले जंगल के निकटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोग हिरन, तीतर जैसे छोटे-मोटे शिकार करके अपना जीवन यापन करते थे। किन्तु शिकार की यह प्रथा अब गैर कानूनी हो गयी थी। शिकार करते हुए पकड़े जाने पर अवैध शिकार करने वालों को दण्डित किया जाने लगा। जहाँ एक ओर वन कानूनों ने लोगों को शिकार के परंपरागत अधिकार से वंचित किया, वहीं बड़े जानवरों का आखेट एक खेल बन गया। औपनिवेशिक शासन के दौरान शिकार का चलन इस पैमाने तक बढ़ा कि कई प्रजातियाँ लगभग पूरी तरह लुप्त हो गईं। अंग्रेजों की नजर में बड़े जानवर जंगली, बर्बर और आदि समाज के प्रतीक-चिह्न थे।

उनका मानना था कि खतरनाक जानवरों को मार कर वे हिंदुस्तान को सभ्य बनाएँगे। बाघ, भेड़िए और दूसरे बड़े जानवरों के शिकार पर यह कह कर इनाम दिए गए कि इनसे किसानों को खतरा है। 1875 से 1925 ई० के बीच इनाम के लालच में 80,000 से ज्यादा बाघ, 1,50,000 तेंदुए और 2,00,000 भेड़िये मार गिराए गए। धीरे-धीरे बाघ के शिकार को एक खेल की ट्रॉफी के रूप में देखा जाने लगा। अकेले जॉर्ज यूल नामक अंग्रेज अफसर ने 400 बाघों की हत्या ? की थी। प्रारंभ में वन के कुछ इलाके शिकार के लिए ही आरक्षित थे। सरगुजा के महाराज ने सन् 1957 तक अकेले ही 1,157 बाघों और 2,000 तेंदुओं का शिकार किया था।

प्रश्न 2.
बस्तर और जावा के औपनिवेशिक वन प्रबन्धन में क्या समानताएँ हैं?
उत्तर:
बस्तर में वन प्रबन्धन का उत्तरदायित्व अंग्रेजों के और जावा में डचों के हाथ में था। लेकिन अंग्रेज व डच दोनों सरकारों के उद्देश्य समान थे।
दोनों ही सरकारें अपनी जरूरतों के लिए लकड़ी चाहती थीं और उन्होंने अपने एकाधिकार के लिए काम किया। दोनों ने ही ग्रामीणों को घुमंतू खेती करने से रोका। दोनों ही औपनिवेशिक सरकारों ने स्थानीय समुदायों को विस्थापित करके वन्य उत्पादों का पूर्ण उपयोग कर उनको पारंपरिक आजीविका कमाने से रोका।

बस्तर के लोगों को आरक्षित वनों में इस शर्त पर रहने दिया या कि वे लकड़ी का काम करने वाली कंपनियों के लिए काम मुफ्त में किया करेंगे। इसी प्रकार के काम की माँग जावा में बेल्डाँगडिएन्स्टेन प्रणाली के अंतर्गत पेड़ काटने और लकड़ी ढोने के लिए ग्रामीणों से की गई। जब दोनों स्थानों पर जंगली समुदायों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ी तो विद्रोह हुआ जिन्हें अंततः कुचल दिया गया। जिस प्रकार 1770 ई० में आवा में कलंग विद्रोह को दबा दिया गया उसी प्रकार 1910 ई० में बस्तर का विद्रोह भी अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया।

प्रश्न 3.
सन् 1880 से 1920 ई0 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के वनाच्छादित क्षेत्र में 97 लाख हेक्टेयर की गिरावट आयी। पहले के 10.86 करोड़ हेक्टेयर से घटकर यह क्षेत्र 9.89 करोड़ हेक्टेयर रह गया था। इस गिरावट में निम्नलिखित कारकों की भूमिका बताएँ-

  1. रेलवे
  2. जहाज निर्माण
  3. कृषि-विस्तार
  4. व्यावसायिक खेती
  5. चाय-कॉफी के बागान
  6. आदिवासी और किसान

उत्तर:
(1) रेलवे – 1850 ई0 के दशक में रेल लाइनों के प्रसार ने लकड़ी के लिए एक नयी माँग को जन्म दिया। शाही सेना के आवागमन तथा औपनिवेशिक व्यापार हेतु रेलवे लाइनों की अनिवार्यता अनुभव की गयी। रेल इंजनों को चलाने के लिए ईंधन के तौर पर और रेल की पटरियों को जोड़े रखने के लिए स्लीपरों के रूप में लकड़ी की बड़े पैमाने पर आवश्यकता थी। एक मील लम्बी रेल की पटरी के लिए 1760 से 2000 स्लीपरों की आवश्यकता पड़ती थी। भारत में 1860 ई0 के दशक में रेल लाइनों का जाल तेजी से फैला। जैसे-जैसे रेलवे पटरियों का भारत में विस्तार हुआ, अधिकाधिक मात्रा में पेड़ काटे गए। 1850 ई0 के दशक में अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में स्लीपरों के लिए 35,000 पेड़ सालाना काटे जाते थे। आवश्यक संख्या में आपूर्ति के लिए सरकार ने निजी ठेके दिए। इन ठेकेदारों ने बिना सोचे-समझे पेड़ काटना शुरू कर दिया और रेल लाइनों के इर्द-गिर्द जंगल तेजी से गायब होने लगे।

(2) जहाज निर्माण – 19वीं सदी के प्रारंभ तक इग्लैण्ड में बलूत के जंगल समाप्त होने लगे थे। इससे इग्लैण्ड की शाही जलसेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति की समस्या उत्पन्न हो गयी क्योंकि समुद्री जहाजों के अभाव में शाही सत्ता को बनाए रखना संभव नहीं था। इसलिए, 1820 ई0 तक अंग्रेजी खोजी दस्ते भारत की वन-संपदा का अन्वेषण करने के लिए भेजे गए। एक दशक के अंदर बड़ी संख्या में पेड़ों को काट डाला गया और बहुत अधिक मात्रा में लकड़ी का भारत से निर्यात किया गया।

(3) कृषि विस्तार – 19वीं सदी की शुरुआत में औपनिवेशिक सरकार ने वनों को अनुत्पादक समझा। उनकी दृष्टि में इस व्यर्थ के वियावान पर कृषि करके उससे राजस्व और कृषि उत्पाद प्राप्त किया जा सकता है और इस तरह राज्य की अन्य की वृद्धि की जा सकती है। इसी सोच का परिणाम था कि 1880 से 1920 ई0 के बीच कृषि योग्य जमीन के क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई। उन्नीसवीं सदी में बढ़ती शहरी जनसंख्या के लिए वाणिज्यिक फसलों जैसे-जूट, चीनी, गेहूं एवं कपास की माँग बढ़ गई और औद्योगिक उत्पादन के लिए कच्चे माल की जरूरत पड़ी। इसलिए अंग्रेजों ने सीधे तौर पर वाणिज्यिक फसलों को बढ़ावा दिया। इस प्रकार भूमि को जुताई के अंतर्गत लाने के लिए वनों को काट दिया गया।

(4) व्यावसायिक कृषि – 19वीं शताब्दी में यूरोप की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई। इसलिए यूरोपीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय किसानों को व्यावसायिक कृषि फसलों यथा-गन्ना, पटसन, कपास आदि का उत्पादन करने हेतु प्रोत्साहित किया। इस कार्य हेतु अतिरिक्त भूमि प्राप्त करने के लिए वनों को बड़े पैमाने पर साफ किया गया।

(5) चाय-कॉफी के बागान – औपनिवेशिक सरकार ने यूरोपीय बाजार में चाय-कॉफी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए भारत में इनकी कृषि को प्रश्रय दिया। उत्तर-पूर्वी और दक्षिणी भारत के ढलानों पर वनों को काटकर चाय और कॉफी के बागानों के लिए भूमि प्राप्त की गयी।

(6) आदिवासी और किसान – आदिवासी सामान्यतः घुमंतू खेती करते थे जिसमें वनों के हिस्सों को बारी-बारी से काटा एवं जलाया जाता है। मानसून की पहली बरसात के बाद रखि में बीज बो दिए जाते हैं। यह प्रक्रिया वनों के लिए हानिकारक थी। इसमें हमेशा जंगल की आग का खतरा बना रहता था।

प्रश्न 4.
युद्धों से जंगल क्यों प्रभावित होते हैं?
उत्तर:
युद्ध से वनों पर निम्न प्रभाव पड़ता है-

  1. जावा में जापानियों के कब्जा करने से पहले, डचों ने ‘भस्म कर भागो नीति अपनाई जिसके तहत आरा-मशीनों और सागौन के विशाल लट्ठों के ढेर जला दिए गए जिससे वे जापानियों के हाथ न लगें। इसके बाद जापानियों ने वन्य-ग्रामवासियों को जंगल काटने के लिए बाध्य करके वनों का अपने युद्ध कारखानों के लिए निर्ममता से दोहन किया। बहुत से गाँव वालों ने इस अवसर का लाभ उठाकर जंगल में अपनी खेती का विस्तार किया। युद्ध के बाद इंडोनेशियाई वन सेवा के लिए इन जमीनों को वापस हासिल कर पाना कठिन था।
  2. भारत में वन विभाग ने ब्रिटेन की लड़ाई की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अंधा-धुंध वन काटे। इस अंधा धुंध विनाश एवं राष्ट्रीय लड़ाई की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों की कटाई वनों को प्रभावित करती है क्योंकि वे बहुत तेजी से खत्म होते हैं जबकि ये दोबारा पैदा होने में बहुत समय लेते हैं।
  3. स्थल सेना को अनेक आवश्यकताओं के लिए बड़े पैमाने पर लकड़ियों की आवश्यकता होती है।
  4. नौसेना की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनने वाले जहाजों के लिए बड़े पैमाने पर लकड़ी की आवश्यकता होती है जिसे जंगलों को काट कर पूरा किया जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ब्लैन्डाँगडिएन्स्टेन व्यवस्था क्या थी?
उत्तर:
डच लोगों ने जावा में कुछ गाँवों को इस शर्त पर मुक्त कर दिया कि वे सामूहिक रूप से पेड़ काटने तथा लकड़ी ढोने के लिए भैंसे उपलब्ध कराने का काम निःशुल्क में किया करेंगे। इसी व्यवस्था को ब्लैन्डाँगडिएन्स्टेन व्यवस्था कहते थे।

प्रश्न 2.
भारतीय वन अधिनियम कब लागू हुआ?
उत्तर:
1865 ई० में।

प्रश्न 3.
भारतीय वन सेवा की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
भारतीय वन सेवा की स्थापना सन् 1864 ई० में हुई।

प्रश्न 4.
बस्तर में निवास करने वाले प्रमुख आदिवासी समुदाय के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. मरिया समुदाय,
  2. मुरिया, गोंड समुदाय,
  3. धुरवा समुदाय,
  4. भतरा समुदाय,
  5. हलबा समुदाय।

प्रश्न 5.
मद्रास प्रेसीडेन्सी के किन्हीं तीन घुमन्तू समुदायों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. कोरावा समुदाय,
  2. कराचा समुदाय,
  3. मेरुकुला समुदाय।

प्रश्न 6.
इम्पीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना कब और कहाँ हुई?
उत्तर:
इम्पीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना 1906 ई० में देहरादून (उत्तराखण्ड) में हुई।

प्रश्न 7.
‘लेटेक्स’ किसे कहते हैं?
उत्तर:
रबड़ के वृक्ष से प्राप्त तरल पदार्थ को लेटेक्स कहते हैं। इसका उपयोग प्राकृतिक रबड़ बनाने में किया जाता है।

प्रश्न 8.
1890 ई0 तक भारत में रेल लाइनों का विस्तार कितना था?
उत्तर:
लगभग 25,500 किमी।

प्रश्न 9.
1948 ई० में भारत में रेल लाइनों की लंबाई क्या थी?
उत्तर:
7,65,000 किमी।

प्रश्न 10.
एक औसत कद के पेड़ से कितने स्लीपर बन सकते हैं?
उत्तर:
3 से 5 स्लीपर।

प्रश्न 11.
भारत के प्रथम वन महानिदेशक का नाम बताइए।
उत्तर:
डायट्रिच बैंडिस।

प्रश्न 12.
सन् 1600 में भारत के कितने भाग पर खेती की जाती थी?
उत्तर:
छठे भाग पर।

प्रश्न 13.
1880 से 1920 ई० के मध्य कृषि भूमि के क्षेत्रफल में कितनी वृद्धि हुई?
उत्तर:
इस काल में कृषि भूमि में 67 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई।

प्रश्न 14.
एक मील लंबी पटरी बिछाने के लिए कितने स्लीपरों की आवश्यकता पड़ती है?
उत्तर:
लगभग 1,760 से 2,000 स्लीपरों की।

प्रश्न 15.
गुंडा धूर कौन था?
उत्तर:
गुंडा धूर नेथानगर गाँव का एक आंदोलनकारी था जिसने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत में सक्रिय भाग लिया। इस आंदोलन को दबाने में अंग्रेजों को तीन माह का समय लगा किन्तु गुंडा धूर अंग्रेजों की पकड़ में कभी नहीं आया।

प्रश्न 16.
वन ग्राम किसे कहते थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार ने 1905 ई० में जंगल के दो-तिहाई हिस्से को आरक्षित कर दिया लेकिन कुछ गाँवों को आरक्षित वनों में इस शर्त पर रहने दिया गया कि वे वन विभाग के लिए पेड़ों की कटाई और ढुलाई का काम मुफ्त करेंगे और जंगल को आग से बचाए रखेंगे। बाद में इन्हीं गाँवों को वन ग्राम कहा जाने लगा।

प्रश्न 17.
देवसारी या दांड किसे कहते हैं?
उत्तर:
यह बस्तर के सीमावर्ती गाँव के लोगों द्वारा दिया जाने वाला एक शुल्क था। यदि एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के जंगल से लकड़ी लेना चाहते थे तो उन्हें एक छोटा-सा शुल्क अदा करना पड़ता था। इसे ही देवसारी या दांड कहते थे।

प्रश्न 18.
सुरोन्तिको सामिन ने कौन-सा आंदोलन चलाया?
उत्तर:
जावा द्वीप के निवासी सुरोन्तिको सामिन ने जैलों के राजकीय मालिकाने का विरोध किया। उसका तर्क था कि चूंकि हवा, पानी, जमीन और लकड़ी राज्य की बनायी हुई नहीं है इसलिए उन पर राज्य का अधिकार अनुचित है। शीघ्र ही यह विचार एक व्यापक आंदोलन में परिणत हो गया।

प्रश्न 19.
वन अधिनियम के प्रभावस्वरूप गाँव वालों को क्या दिक्कतें हुईं?
उत्तर:
वन अधिनियम के बाद घर के लिए लकड़ी काटनी, पशुओं को चराना, कंद-मूल, फल इकट्ठा करना आदि रोजमर्रा की गतिविधियाँ गैरकानूनी बन गई। जलावनी लकड़ी एकत्र करने वाली औरतें विशेष तौर से परेशान रहने लगीं।

प्रश्न 20.
1700 से 1995 ई० के बीच कितने वनों की कटाई हुई?
उत्तर:
1700 से 1995 ई0 की अवधि में 139 लाख वर्ग किमी जंगल अर्थात् विश्व के कुल क्षेत्रफल का 9.3 प्रतिशत भाग औद्योगिक उपयोग, कृषि, चरागाहों व ईंधन की लकड़ी के लिए साफ किया गया।

प्रश्न 21.
अंग्रेजों के विरुद्ध होने वाले वन विद्रोह के नाम बताइए।
उत्तर:
भारत और विश्व में स्थित वन समुदायों ने वन कानूनों के माध्यम से अपने ऊपर थोपे गए कानूनों के विरुद्ध आवाज उठाई। संथाल परगना में सिद्ध और कानू, छोटा नागपुर में बिरसा मुंडा और आंध्र प्रदेश में अल्लूरी सीताराम राजू को आज भी लोकगीतों एवं कथाओं के माध्यम से स्मरण किया जाता है?

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बस्तर विद्रोह की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
बस्तर विद्रोह की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. कांगेर वनों में रहने वाली धुरवा जनजाति ने इस विद्रोह का आरंभ किया। लेकिन यह एक संगठित विद्रोह नहीं था।
  2. इस विद्रोह का कोई मान्य नेता नहीं था परंतु इस विद्रोह पर सर्वाधिक प्रभाव नेथानगर गाँव के निवासी गुंडा धूर का था।
  3. 1910 में आंदोलनकारियों ने आम की टहनी, मिट्टी के ढेले, मिर्च तथा तीरों को गाँव-गाँव पहुँचा कर अपने विचारों का प्रसार आरंभ किया।
  4. इस आंदोलन पर हुए खर्चे में सभी गाँवों ने कुछ-न-कुछ मदद अवश्य की थी।
  5. आंदोलनकारियों ने जगदलपुर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में ब्रिटिश अफसरों और व्यापारियों के घरों, स्कूलों, पुलिस थानों तथा अन्य सरकारी भवनों को जला दिया। बाजारों को लूट लिया गया।

प्रश्न 2.
भारतीय वन अधिनियम, 1865 पर संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
इस अधिनियम के लागू होने के बाद इसमें दो बार पहले 1878 और फिर 1927 ई० में संशोधन किए गए। 1878 ई० वाले अधिनियम में वनों को तीन श्रेणियों-आरक्षित, सुरक्षित व ग्रामीण में बाँटा गया। सबसे अच्छे वनों को ‘आरक्षित वन कहा गया। गाँव वाले इन वनों से अपने उपयोग के लिए कुछ भी नहीं ले सकते थे। वे घर बनाने या ईंधन के लिए सुरक्षित या ग्रामीण वनों से ही लकड़ी ले सकते थे। वर्तमान में भारत के कुल वन क्षेत्र का 54.4% आरक्षित वन, 29.2% सुरक्षित वन तथा 16.4% ग्रामीण वन (अवर्गीकृत वन) हैं।

प्रश्न 3.
जावा के कलांग इतने बहुमूल्य क्यों थे?
उत्तर:
जावा के कलांग कुशल वन काटने वाले और भ्रमणशील कृषि करने वाले थे। उनकी दक्षता के बिना सागौन की कटाई करके राजाओं के महल बनाना कठिन होता था। जब अठारहवीं शताब्दी में डचों ने वनों पर नियंत्रण प्राप्त किया तो उन्होंने कलांगों को अपने अधीन करके उनसे काम लेने का प्रयास किया। 1770 ई० में कलांगों ने जोआना में एक डच किले पर आक्रमण करके विरोध जताने की कोशिश की किन्तु इसे विद्रोह को दबा दिया गया। वे इतने बहुमूल्य थे कि जब 1755 ई० में जावा की माताराम रियासत का विभाजन हुआ तो 6,000 कलांग परिवारों को दोनों राज्यों ने आपस में आधा-आधा बाँट लिया।

प्रश्न 4.
वन निवासियों के लिए वनोत्पाद किस प्रकार लाभदायक थे?
उत्तर:
वनवासियों के लिए वनोत्पादों का महत्त्व निम्न प्रकार से है-

  1. सूखे हुए कुम्हड़े के खोल का प्रयोग आसानी से ले जाए जा सकने वाली पानी की बोतल के रूप में किया जा सकता है।
  2. जंगलों में लगभग सब कुछ उपलब्ध है—पत्तों को जोड़-जोड़ कर ‘खाओं-फेंको’ किस्म के पत्तल और दोने बनाए जा सकते हैं।
  3. सियादी की लताओं से रस्सी बनायी जा सकती हैं।
  4. सेमूर (सूती रेशम) की काँटेदार छाल पर सब्जियाँ छीली जा सकती हैं।
  5. महुए के पेड़ से खाना पकाने और रोशनी के लिए तेल निकाला जा सकता है।
  6. फल और कंद अत्यंत पोषक खाद्य हैं, विशेषकर मॉनसून के दौरान जबकि फसल कट कर घर नहीं पहुँची हो।
  7. जड़ी-बूटियों का प्रयोग दवा के रूप में किया जाता है।
  8. लकड़ी का प्रयोग हल और जूए जैसे खेती के औजार बनाने में किया जाता है।
  9. बाँस से बेहतरीन बाड़े बनायी जा सकती हैं और इसका उपयोग छतरी तथा टोकरी बनाने के लिए भी किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
औपनिवेशिक सरकार द्वारा घुमन्तू कृषि पर प्रतिबन्ध लगाने के क्या कारण थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार द्वारा घुमंतू कृषि पर प्रतिबन्ध लगाने के प्रमुख कारण इस प्रकार थे-

  1. घुमंतू खेती में सरकार के लिए कर की गणना कर पाना कठिन था। इसलिए सरकार ने घुमंतू खेती को प्रतिबंधित कर दिया।
  2. औपनिवेशिक सरकार घुमंतू खेती को वनों के लिए हानिकारक मानती थी।
  3. वे भूमि को रेलवे के लिए लकड़ी पैदा करने के लिए तैयार करना चाहते थे न कि खेती के लिए।
  4. उन्हें डर था कि जलाने की प्रक्रिया खतरनाक साबित हो सकती है क्योंकि यह उनकी बहुमूल्य लकड़ी को भी जला सकती है।

प्रश्न 6.
‘अपराधी कबीले’ कौन थे?
उत्तर:
नोमड एवं चरवाहा समुदाय के लोगों को अपराधी कबीले कहा जाता था जिन्हें लकड़ी चुराते हुए पकड़ा जाता था। वन प्रबंधन द्वारा लाए गए बदलावों के कारण नोमड एवं चरवाहा समुदाय लकड़ी काटने, अपने पशुओं को चराने, कंद-मूल एकत्र करने, शिकार एवं मछली पकड़ने से वंचित हो गए। ये सभी गैरकानूनी घोषित कर दिए गए। इसके परिणामस्वरूप अब ये लोग वनों से लकड़ी चुराने पर बाध्य हो गए। उन्हें शिकार करने, लकड़ी एकत्र करने और अपने पशु चराने देने के लिए वन-रक्षकों को घूस देनी पड़ती थी।

प्रश्न 7.
वैज्ञानिक वानिकी पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
इसके अन्तर्गत विविध प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया तथा इनके स्थान पर सीधी पंक्ति में एक ही प्रजाति के वृक्ष लगा दिए गए। इसे बागान कहा गया। वन विभाग के अधिकारियों ने वनों का सर्वेक्षण कर विभिन्न किस्म के पेड़ों वाले क्षेत्रों का आकलन किया तथा वन प्रबन्धन की योजनाएँ बनायीं। उन्होंने यह भी निर्धारित किया कि बागान का कितना क्षेत्र प्रतिवर्ष काटा जाए तथा कटाई के बाद रिक्त हुई भूमि पर पुनः वृक्ष लगाए जाएँ जिससे कुछ वर्ष बाद उन्हें दोबारा काटा जा सके।

प्रश्न 8.
घुमंतू कृषि पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
घुमंतू (झूम) कृषि एशिया, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका की एक पारंपरिक कृषि पद्धति है। इस तरह की कृषि में वनों के हिस्सों को बारी-बारी से काटा और जलाया जाता है। मानसून की पहली बरसात के बाद राख में बीज बो दिए जाते हैं और अक्टूबर-नवम्बर में फसल काट ली जाती है। इन भूखण्डों पर दो-एक साल खेती करने के बाद इन्हें 12 से 18 साल तक के लिए परती छोड़ दिया जाता है जिससे वहाँ फिर से जंगल पनप जाएँ। इन भूखंडों में मिश्रित फसलें उगायी जाती हैं। इसके कई स्थानीय नाम हैं जैसे-दक्षिण-पूर्व एशिया में लादिंग, मध्य अमेरिका में मिलपा, अफ्रीका में चितमने या तावी व श्रीलंका में चेना। हिंदुस्तान में घुमंतू खेती के लिए धया, पेंदा, बेवर, नेवड़, झूम, पोडू, खंदाद और कुमरी ऐसे ही कुछ स्थानीय नाम हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जावा ( इंडोनेशिया) में वनों पर नियंत्रण पाने के लिए डचों ने कौन-सी नीति अपनायी?
उत्तर:
वर्तमान में जावा (डोनेशिया) एक चावल उत्पादक द्वीप के रूप में जाना जाता है। लेकिन पहले यह हरे-भरे जंगलों से आवृत्त था। डचों ने यहाँ वन प्रबन्धन व्यवस्था की शुरुआत की। अंग्रेजों की भाँति डचों को भी समुद्री जहाज बनाने के लिए लकड़ियों की आवश्यकता थी। सन् 1600 में जावा की अनुमानित जनसंख्या 34 लाख थी और जावा निवासी घुमंतू कृषि करते थे। जब अठारहवीं शताब्दी में डचों ने वनों पर नियंत्रण प्राप्त किया तो उन्होंने कलांगों को अपने अधीन करके उनसे काम लेने का प्रयास किया। 1770 ई0 में कलांगों ने जोआना में एक डच किले पर आक्रमण करके विरोध जताने की कोशिश की किन्तु इस विद्रोह को दबा दिया गया।

उन्नीसवीं सदी में डचों ने जावा में वनं कानून लागू किया जिसने ग्रामीणों की वनों में पहुँच पर प्रतिबंध लगा दिया। अब वनों को केवल कुछ विशिष्ट उद्देश्यों के लिए ही काटा जा सकता था जैसे कि नदी के लिए नाव बनाने, घर बनाने और वह भी कुछ विशेष वनों से तथा वह भी कड़ी निगरानी में। ग्रामीणों को पशु चराने, बिना परमिट के लकड़ी ढोने, जंगल की सड़कों पर घोड़ा-गाड़ी या पशुओं पर यात्रा करने पर दंडित किया जाता था। 1882 ई0 में अकेले जावा से दो लाख अस्सी हजार रेलवे स्लीपरों का निर्यात किया गया था। इचों ने पहले जंगलों में खेती की, जमीन पर कर लगा दिया और फिर कुछ गाँवों को इस कर से इस शर्त पर मुक्त कर दिया कि वे सामूहिक रूप से पेड़ काटने और लकड़ी ढोने के लिए भैंसे उपलब्ध कराने का काम मुफ्त में किया करेंगे। इसे ब्लैन्डाँगडिएन्स्टेन प्रणाली के नाम से जाना जाता था।

प्रश्न 2.
वन विनाश के प्रमुख कारणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वन का तेजी से काटा जाना या लुप्त होना वन विनाश कहलाता है। मानव प्राचीन काल से ही प्राकृतिक संसाधनों की प्राप्ति हेतु वनों पर निर्भर रहा है। वनों से उसे लकड़ी, जलावन, पशुचारण, शिकार तथा दुर्लभ जड़ी-बूटियों की प्राप्ति होती है। औपनिवेशिक शासनकाल में भारत में तेजी से वनों की कटाई और लकड़ी का निर्यात आरंभ हुआ।
वन विनाश के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

(1) व्यावसायिक वानिकी का आरंभ-भारत में अंग्रेज शासक 19वीं शताब्दी के मध्य में यह बात अच्छी तरह समझ गए कि यदि व्यापारियों और स्थानीय निवासियों द्वारा इसी तरह पेड़ों को काटा जाता रहा तो वन शीघ्र ही समाप्त हो जाएंगे। वनों की अंधाधुंध कटाई के स्थान पर एक व्यवस्थित प्रणाली की आवश्यकता महसूस की। अतः ब्रिटिश सरकार ने डायट्रिच बैंडिस नामक एक जर्मन वन विशेषज्ञ को भारत का पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया गया।

बैंडिस ने 1864 ई0 में भारतीय वन सेवा की स्थापना की और 1865 ई० के भारतीय वन अधिनियम को सूत्रबद्ध करने में सहयोग दिया। इम्पीरियल फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना 1906 ई0 में देहरादून में हुई। यहाँ जिस पद्धति की शिक्षा दी जाती थी उसे वैज्ञानिक वानिकी’ (साइंटिफ़िक फ़ॉरेस्ट्री) कहा गया। आज पारिस्थितिकी विशेषज्ञों सहित ज्यादातर लोग मानते हैं कि यह पद्धति कतई वैज्ञानिक नहीं है।
वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर विविध प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया। इनकी जगह सीधी पंक्ति में एक ही किस्म के पेड़ लगा दिए गए। इसे बागान कहा जाता है। वन विभाग के अधिकारियों ने वनों का सर्वेक्षण किया, विभिन्न किस्म के पेड़ों वाले क्षेत्र की नाप-जोख की और वन-प्रबंधन के लिए योजनाएँ बनायीं। उन्होंने यह भी तय किया कि बागान का कितना क्षेत्र प्रतिवर्ष काटा जाएगा।

(2) बागानी कृषि को प्रोत्साहन-यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए इन वस्तुओं के बागान बने और इनके लिए भी प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ किया गया। औपनिवेशिक सरकार ने वनों को अपने कब्जे में लेकर उनके विशाल हिस्सों को बहुत ही सस्ती दरों पर यूरोपीय बागानी मालिकों को सौंप दिया। इन इलाकों की बाड़ाबंदी करके वनों को साफ कर दिया गया और चाय-कॉफी की खेती की जाने लगी। पश्चिमी बंगाल, असोम, केरल, कर्नाटक में बड़े पैमाने पर वनों को काटा गया।

(3) कृषि भूमि का विस्तार–आधुनिक काल में भारत की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हुई। जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ खाद्य पदार्थों की माँग में भी तीव्र वृद्धि हुई। जिसकी पूर्ति के लिए सीमावर्ती वनों को साफ करके कृषि क्षेत्रों का विस्तार किया गया।
औपनिवेशिक शासन काल में स्थिति और बिगड़ गई क्योंकि भारतीय कृषि को भारतीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ-साथ यूरोपीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी बाध्य होना पड़ा।

19वीं शताब्दी तक कृषि ही राजस्व का प्रमुख स्रोत थी तथा वनों का, महत्त्व मानव समाज के लिए गौण था अतः कृषि क्षेत्रों को बढ़ाने के अत्यधिक प्रयास किए गए। सन् 1880 से 1920 के मध्य मात्र 40 वर्षों में ही कृषि योग्य भूमि के क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई।
मध्यकाल में कृषि का स्वरूप खाद्यान फसलों के उत्पादन तक ही सीमित था परंतु ब्रिटिश शासन में यूरोपीय उद्योगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए व्यवसायिक कृषि का प्रचलन आरंभ हुआ। पटसन, नील, कपास तथा गन्ना जैसी फसलों के उत्पादन को अधिक प्रोत्साहित किया गया जिसके कारण कृषि क्षेत्रों की वृद्धि की आवश्यकता पड़ी और अधिक से अधिक पेड़ काट कर भूमि प्राप्त करने के प्रयास किए गए।

(4) सैन्य आवश्यकता की पूर्ति–औपनिवेशिक काल में देश के विभिन्न भागों में सैनिक क्षेत्रों की स्थापना की गयी जिनके निर्माण के लिए बड़ी संख्या में पेड़ों को काटा गया। 19वीं सदी के आरंभ तक ब्रिटेन में ओक के वन प्रायः लुप्त होने लगे थे जिसके कारण सेना के लिए समुद्री जहाजों का निर्माण कार्य बाधित होने लगा था। ब्रिटिश सेना जो मुख्यतः एक समुद्री सेना ही थी उसके सम्मुख अस्तित्व को प्रश्न उपस्थित होने लगा। अतः ब्रिटिश नौसेना की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बड़ी मात्रा में कीमती भारतीय लकड़ी का विदेशों में निर्यात किया गया।

(5) रेल लाइनों का विकास-भारत में 1860 ई0 के दशक में रेलवे का विकास आरंभ हुआ। भारतीय कच्चे माल को बंदरगाहों तक पहुँचाने के लिए तथा भारत में ब्रिटिश शासन को मजबूती प्रदान करने के लिए सेना को देश के विभिन्न भागों में तेजी से पहुँचाने के लिए अंग्रेजों ने रेलवे के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। मात्र 30 वर्षों में ही (1860-1890) भारत । में 25,500 किमी रेलवे लाइनों का विस्तार किया गया। 1946 ई0 तक इन रेल लाइनों की लंबाई बढ़कर 7,65,000 किमी हो गई।

रेल की लाइन बिछाने के लिए रेल की दोनों पटरियों को जोड़ने के लिए उनके नीचे लकड़ी के स्लीपरों (लकड़ी के लगभग 10 फुट लंबे तथा 10 इंच x 5 इंच मोटे लट्टे) को बिछाया जाता था। एक मील लंबी रेल की पटरी बिछाने के लिए 1,760 से 2,000 तक स्लीपर की जरूरत होती थी। एक औसत कद के पेड़ से 3 से 5 स्लीपर तक बन सकते हैं। हिसाब लगाइए कि भारत में 7,65,000 किमी लंबी रेल लाइनों को बिछाने के लिए कितनी बड़ी मात्रा में पेड़ों को काटा गया होगा।

प्रश्न 3.
वनों से मानव को क्या लाभ होते हैं?
उत्तर:
वनों से मनुष्य को होने वाले लाभों का विवरण इस प्रकार है-

  1. इनसे हमें इमारती लकड़ी, रंग, पशु-पक्षी, फल-फूल, मसाले, दवाइयाँ, औद्योगिक लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, चारा तथा अन्य अनेक उत्पाद प्राप्त होते हैं।
  2. वन वन्य जीवन को प्राकृतिक पर्यावरण प्रदान करते हैं।
  3. वन पर्यावरण को स्थिरता प्रदान करते हैं तथा पारितंत्र को संतुलित बनाने में सहायता करते हैं।
  4. वन स्थानीय जलवायु को सुधारते हैं।
  5. ये मृदा अपरदन को नियंत्रित करते हैं।
  6. ये नदी प्रवाह को नियमित करते हैं।
  7. ये विभिन्न उद्योगों को कच्चा माल प्रदान करते हैं।
  8. कई समुदायों को ये वन आजीविका प्रदान करते हैं।
  9. ये मनोरंजन के अवसर प्रदान करते हैं?
  10. वायु की शक्ति को कम करते हैं और वायु के तापमान को प्रभावित करते हैं।
  11. वनों से भारी मात्रा में पत्तियाँ, कोपलें और शाखाएँ मिलती हैं जिनके विघटित होने पर मृदा को ह्युमस प्राप्त होती है जिससे वह उपजाऊ हो जाती है।

प्रश्न 4.
वन-विनाश और औपनिवेशिक वन कानूनों का भारतीयों के जन-जीवन पर प्रभाव बताइए।
उत्तर:
वनों की तेजी से कटाई तथा औपनिवेशिक सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों ने वनों में रहने वाली जनजातियों एवं वनों के सीमान्त क्षेत्रों में बसे ग्रामीण लोगों के जीवन को निम्न रूप से प्रभावित किया-
(i) व्यवसाय परिवर्तन-भारत में प्राचीन काल से वन उत्पादों का व्यापार बड़े पैमाने पर होता रहा है। घुमंतू समुदायों द्वारा वन उत्पादों जैसे बाँस, मसाले, गोंद, राल, खाल, सींग, हाथी दांत और रेशम के कोर्म आदि की बिक्री एक सामान्य प्रक्रिया थी परंतु औपनिवेशिक शासन में यह व्यवसाय पूरी तरह अंग्रेजों के नियंत्रण में चला गया। इस कारण अधिकांश घुमंतू कबीले अपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़ने के लिए बाध्य हुए। अब ये लोग नवीन व्यवसायों जैसे फैक्ट्रियों, खदानों अथवा बागानों में कार्य करने लगे। इन क्षेत्रों में काम करने से उनका जीवन और अधिक कठिन हो गया। उनकी जिंदगी की तुलना पिंजरे में बंद पक्षी से की जा सकती थी।

(ii) शिकार पर प्रतिबन्ध–ब्रिटिश सरकार ने वनों और सीमांत क्षेत्रों में शिकार पर पूर्ण पाबंदी लगा दी थी और विभिन्न वन कानूनों के द्वारा इसे गैर कानूनी घोषित किया गया। प्राचीन काल से ही वनवासी अपने भोजन के लिए छोटे-मोटे वन्य जीवों पर आश्रित थे परंतु वन कानूनों ने उनकी पारंपरिक प्रथा को गैर कानूनी बना दिया। शिकार करने का हक केवल राजाओं और अंग्रेजों तक ही सीमित रहा। उन्होंने बड़े पैमाने पर वन्य जीवों का शिकार किया। केवल 1875 से 1925 ई0 के बीच के 50 सालों में ही लगभग 80,000 बाघ, 1,50,000 तेंदुए और 2,00,000 भेड़ियों का शिकार किया गया। जॉर्ज मूल नामक एक अंग्रेज अफसर ने इस काल में 400 बाघों का शिकार किया था।

(iii) वनों का आरक्षण-नए वन कानूनों ने ग्रामवासियों की समस्याओं को बढ़ा दिया क्योंकि ग्रामवासी अपनी अधिकांश दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों पर आश्रित थे जबकि नए कानून के अनुसार आरक्षित वनों में लकड़ी काटना, कंदमूल, फल इकट्ठा करना तथा पशुचारण आदि गैर कानूनी घोषित किया गया।

(iv) स्थानान्तरित कृषि पर प्रतिबन्ध–स्थानान्तरित कृषि (घुमंतू कृषि) कृषि के सबसे पुराने स्वरूपों में से एक है। इस कृषि प्रणाली में जंगल के कुछ भागों को बारी-बारी से काटा जाता है। यूरोपीय वन रक्षक स्थानान्तरित कृषि के विरुद्ध थे क्योंकि निरंतर खेतों को बदलने के कारण उस क्षेत्र में कीमती इमारती लकड़ी के पेड़ों (जो 20 से 30 वर्षों में कटने लायक होते हैं) को लगाना कठिन था क्योंकि वन साफ करने की प्रक्रिया में लगाई जाने वाली आग से वृक्षों के जलने का खतरा बना रहता था। खेतों के निरंतर परिवर्तन से भू-राजस्व का निर्धारण एक दुष्कर कार्य था।
उपर्युक्त कारणों से सरकार ने लोगों को वनों से बाहर निकलने के लिए बाध्य किया जिसके कारण इन जनजातियों ने विद्रोह किए और उनमें असफल होने पर अपने मूल निवास से विस्थापित कर दिए गए अथवा व्यवसाय को छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा।

प्रश्न 5.
अंग्रेजों की वन नीतियों के प्रति बस्तर वासियों की प्रतिक्रिया और उसका परिणाम बताइए।
उत्तर:
1905 ई0 में औपनिवेशिक सरकार ने भारत के दो तिहाई वनों को आरक्षित करने और घुमंतू खेती, शिकार और वन्य उत्पादों के संग्रहण पर रोक लगा दी। मूलतः वनों पर जीवन-यापन करने वाले बस्तर-वासी सरकार के इस निर्णय से चिंतित हो उठे। काँगेर वन के धुरवा सम्प्रदाय के लोगों ने सबसे पहले सरकार की वन नीतियों का विरोध कर क्रान्ति की शुरुआत की।

1910 ई० में आम की टहनियाँ, मिट्टी का एक ढेला, लाल मिर्च और तीर गाँव-गाँव भेजे जाने लगे। प्रत्येक ग्रामीण ने क्रांति के खर्च में कुछ-न-कुछ योगदान दिया। बाजारों को लूटा गया, अधिकारियों व व्यापारियों के घरों, स्कूलों व पुलिस थानों को लूटा वे जलाया गया और अनाज का पुनर्वितरण किया गया। जिन पर हमले हुए उनमें से अधिकतर लोग औपनिवेशिक राज्य और इसके दमनकारी कानूनों से किसी-न-किसी तरह जुड़े हुए थे। अंग्रेजों ने इसका कड़ा

प्रत्युत्तर दिया और विद्रोह को दबाने के लिए सैनिक टुकड़ियाँ भेजीं। अंग्रेज फौज ने आदिवासियों के तंबुओं को घेरकर उन पर गोलियाँ चला दीं। जिन लोगों ने बगावत में भाग लिया था उन्हें पीटा गया और सजा दी गई। अधिकांश गाँव खाली हो गए क्योंकि लोग भाग कर जंगलों में चले गए थे। यद्यपि वे विद्रोह के मुखिया गुंडा धूर को कभी नहीं पकड़ सके। विद्रोहियों की सबसे बड़ी जीत यह रही कि आरक्षण का काम कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया और आरक्षित क्षेत्र को भी 1910 ई० से पहले की योजना से लगभग आधा कर दिया गया।

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