प्राचीन भारत

उत्तर-वैदिक काल : राज्य और सामाजिक व्यवस्था की शुरुआत

उत्तर-वैदिक काल : राज्य और सामाजिक व्यवस्था की शुरुआत

उत्तर-वैदिक काल में सामाजिक ढांचे का विस्तार (1000-500 ई.पू.)

उत्तर-वैदिक काल का इतिहास वैदिक ग्रन्थों पर आधारित है, जिन्हें ऋग्वेद काल के बाद संग्रहित किया गया था। वैदिक श्लोक या मन्त्रों का संग्रह संहिता कहलाता है। ऋग्वेद संहिता सबसे पुराना वैदिक ग्रन्थ है, जिसके आधार पर हमने प्रारम्भिक वैदिक
काल का वर्णन किया है। इसे गाया जा सके इस उद्देश्य से ऋग्वेद के सूक्तों को चुनकर इसे लयबद्ध किया गया इस संशोधित संग्रह को सामवेद कहा गया। उत्तर वैदिक काल में दो और संकलन तैयार किए गए जिन्हें यजुर्वेद संहिता और अथर्ववेद संहिता के नाम से जाना गया। यजुर्वेद में न केवल श्लोक हैं बल्कि उनके पाठ किए जाने वाले अनुष्ठान भी बताए गए हैं, जो उस वक्त के सामाजिक और राजनीतिक परिवेश और स्थिति को भी दर्शाते हैं। अथर्ववेद में बाधाओं और बुराइयों को दूर करने वाले मन्त्र हैं। इसके जरिए हमें अनार्यों के विश्वासों और प्रथाओं का पता चलता है। वैदिक संहिता के बाद कई खण्डी में रचित ब्राह्मण नामक ग्रन्थ आता है। ये वैदिक अनुष्ठान की विधियों के बारे में बताते हैं साथ ही इनसे सामाजिक एवं धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में भी पता चलता है। इन सभी उत्तर-वैदिक ग्रन्थों को ऊपरी गंगा की घाटी में अनुमानत: 1000-500 ई.पू. में रचा और
संकलित किया गया था। इस क्षेत्र की खुदाई और पड़ताल करने से उस दौर के तकरीबन 700 बस्तियों का पता चला है। इन्हें चित्रित भूरे बर्तन वाला (पीजीडब्ल्यू) स्थल कहा जाता है, क्योंकि वहाँ रहने वाले लोग ऐसे मिट्टी के बर्तन और कटोरे का इस्तेमाल करते थे, जो भूरे रंग में रंगे होते थे। उन्होंने लोहे के हथियार का भी इस्तेमाल किया। उत्तर-वैदिक ग्रन्थों
और पीजीडब्ल्यू लौह काल के संयुक्त पुरातत्विक साक्ष्य से ई.पू. पहली सहस्राब्दि के पूर्वाद्ध में पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के आस-पास रहने वाले लोगों के जीवन के बारे में पता चलता है। इन ग्रन्थों से पता चलता है कि आर्य लोगों ने पंजाब से लेकर गंगा-यमुना दोआब के साथ पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक अपना विस्तार कर लिया था। भरत और पुरु, दो प्रमुख कबीलों  के मिलने से कुरु समुदाय का गठन हुआ। प्रारम्भ में वे सरस्वती और दृशद्वती नदी के दोआब में रहते थे। जल्द ही कुरु लोगों ने दिल्ली और दोआब के ऊपरी इलाके पर कब्जा कर लिया, जिसे कुरुक्षेत्र या कुरु की भूमि कहा जाता था। धीरे-धीरे वे पांचाल नामक लोगों के साथ रहने लगे, जिन्होंने दोआब के केन्द्रीय हिस्सों पर कब्जा कर रखा था। कुरु और पांचाल लोगों का साम्राज्य दिल्ली और दोआब के ऊपरी और मध्य भाग तक फैल गया। उन्होंने अपनी राजधानी हस्तिनापुर में स्थापित की जो मेरठ जिले में पड़ता है। कुरु कबीले का इतिहास भारत की लड़ाई के लिए प्रसिद्ध है, जो महाभारत नामक महाकाव्य का मुख्य विषय बना।
माना जाता है कि यह युद्ध ई.पू. 950 में कौरवों और पाण्डवों के बीच लड़ा गया। चूंकि ये दोनों कुरु कबीले के थे, युद्ध के परिणामस्वरूप पूरे कुरु कबीले का सफाया हो गया। हस्तिनापुर में खुदाई से ई.पू. 900 से 500 तक के शहरी जीवन एवं बस्तियों की मामूली शुरुआत का पता चला है। हालाँकि, महाभारत में हस्तिनापुर का जो वर्णन है उससे यह मेल नहीं खाता क्योंकि इस महाकाव्य का रचना काल लगभग चौथी शताब्दी के आस-पास का है। जब यह काव्य लिखा गया तब तक जीवन काफी उन्नत हो चुका था। उत्तर-वैदिक काल में लोगों को शायद ही पकी हुई ईंटों के उपयोग के बारे में पता था। हस्तिनापुर में प्राप्त मिट्टी की संरचना को स्थायी और पुख्ता नहीं माना जा सकता है। लोकमान्यता से अनुसार, हस्तिनापुर बाढ़ में तबाह हो चुका था और कुरु कबीले के बचे खुचे लोग इलाहाबाद के निकट कौशाम्बी चले गए थे।
उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में उल्लिखित पांचाल साम्राज्य जो वर्तमान में बसे बरेली, बदायूँ और फर्रुखाबाद जिले में फैला हुआ था। यह राज्य अपने दार्शनिक राजाओं और ब्राह्मण धर्मशास्त्रियों के लिए प्रसिद्ध था।
उत्तर-वैदिक काल के अन्त तक, ई.पू. 500 के आस-पास वैदिक लोग बड़ी संख्या में दोआब से पूरब की ओर, पूर्वी उत्तर-प्रदेश के कोसल और उत्तर बिहार के विदेह तक फैल गए। हालाँकि कोसल का सम्बन्ध रामकथा से जुड़ा है, लेकिन वैदिक साहित्य में राम कथा का कोई उल्लेख नहीं है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तर बिहार में, वैदिक लोगों को ताम्बे के औजारों और काली एवं लाल मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल करने वाले लोगों से संघर्ष करना पड़ता था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उन्हें ऐसे लोगों का सामना करना पड़ा जो ताम्बे के औजारों के साथ गेरू या लाल रंग के बर्तन का इस्तेमाल करते थे। कुछ जगहों पर उन्हें उत्तर-हड़प्पाई संस्कृति के लोगों का भी सामना करना पड़ा। कई मुण्डा शब्द उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में मिलते हैं, जो ऊपरी गंगा घाटी में संकलित किए गए थे। इससे पता चलता है कि र-वैदिक लोगों ने इस क्षेत्र में मुण्डा भाषियों का भी सामना किया। उत्तर-वैदिक लोगों
को चाहे जिनके विरोध का सामना करना पड़ा हो पर किसी एक जगह पर और बड़े पैमाने पर उन्होंने न तो साशन किया न ही स्थापित हुए। गंगा के ऊपरी मैदानों में भी उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं थी। वैदिक लोग अपने विस्तार के दूसरे चरण में सफल हुए क्योंकि तब उन्होंने लोहे के हथियार और घोड़े के रथों का इस्तेमाल किया।
लोहे का उपयोग
लोहे के उपयोग की कहानी घोड़े के जैसी ही है। घोड़े का पालतू बनाया जाना सबसे पहले ई.पू. छठी सहसान्दि में काले सागर के पास देखा गया, लेकिन ई.पू. दूसरी सहस्राब्दि में घोड़े को पाला जाना आम तौर पर पाया जाने लगा। इसी प्रकार लोहा लम्बे समय के बाद इस्तेमाल लायक बन पाया। पत्थर और लोहे के पिंड जब वायुमंडल के संपर्क में आते तो उल्का बाकर जमीन पर गिर जाते। ऐसे टुकड़े प्राचीन मिस्त्र में तकरीबन 3000 ई.प. में पाए गए। इसकी पहचान लोहे के रूप में हुई और उसे मित्र की भाषा में स्वर्ग से गिरा काला ताम्बा कहा जाता था।
कई तास खनिजों में लौह अयस्क होते हैं। इन खनिजों से लौह अयस्कों को अलग करने और शुद्ध पातु बनाने में कई वर्ष लगे। शुद्ध धातु के रूप में लोहा सबसे पहले ई.पू. 5000 में मेसोपोटामिया में बनाया गया और बाद में ई.पू. तीसरी सहस्त्राब्दि में अनातोलिया में। हालाँकि, ई.पू. 1200 तक, पश्चिमी एशिया में लोहा एक बहुमूल्य धातु था और शासकों द्वारा उपहार के रूप में इस्तेमाल किया जाता था।
भारतीय उपमहाद्वीप में लोहे को कभी-कभी लोथल और हड़प्या काल में अफगानिस्तान के कुछ स्थानों पर पाया गया बताया जाता है। इनमें से कोई भी शुद्ध लौह धातु या लोहे के काम को नहीं दर्शाता। वे वास्तव में लौह अयस्क युक्त ताम्र वस्तुएँ हैं। इन अयस्कों को ताम्बा से अलग नहीं किया गया और न ही शुद्ध लौह धातु के रूप में अलग पहचान दी गई।
भारत में ताम्र-पाषाण काल में राजस्थान के कुछ स्थलों पर शुद्ध लोहे के मिलने की – जानकारी मिलती है और इसके अंतिम चरण में कर्नाटक में भी पाए जाने के साक्ष्य मिलते हैं। इस प्रकार लोहे को ई.पू. दूसरी सहस्राब्दि के उत्तरार्ध में देखा जा सकता है। इस काल में समय और स्थान के सन्दर्भ में इसके निरन्तर प्रयोग के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है।
ई.पू. 1000 के आस-पास पाकिस्तान के गान्धार इलाके में इसका इस्तेमाल होता था। मृत शरीर के साथ दफनाए गए लोहे यहाँ पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हुए है। इसी तरह बलूचिस्तान में भी इन्हें पाया गया है। लगभग उसी समय, पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी लोहे का इस्तेमाल किया जाता था। खुदाई से पता चला है कि ई.पू. 800 के आस-पास से ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोहे के हथियार, जैसे कि तीर और भाला, आम तौर पर इस्तेमाल हो रहे थे। लोहे के हथियारों से वैदिक लोगों ने दोआब के ऊपरी हिस्से में अपने कुछ शत्रुओं को हराया। गंगा घाटी के ऊपरी जंगलों को काटने के लिए लोहे की कुल्हाड़ी का उपयोग किया गया था, क्योंकि वहाँ वर्षा बेशक 35 सेंटीमीटर से 65 सेंटीमीटर के बीच होती थी, लेकिन जंगल बहुत घने नहीं थे। वैदिक काल के अन्त में लोहे का ज्ञान पूर्वी उत्तर प्रदेश और विदेह में फैला। इस क्षेत्र में सबसे पहले लौह उपकरण का पता ई.पू. सातवीं शताब्दी में लगा और उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में इस धातु को श्याम या कृष्ण अयस (काला धातु) कहा गया है।

कृषि

हालाँकि लोहे से बने बहुत कम कृषि उपकरण पाए गए हैं। जबकि इसमे कोई सन्देह नहीं कि कृषि उत्तर-वैदिक लोगों के जीवन का मुख्य साधन था। उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में छह, आठ, बारह और चौबीस बैलों से जुताई की जाती थी। यह अतिशयोक्ति भी हो सकता है।
जुताई एक लकड़ी के बने हल से की जाती थी। यह ऊपरी गंगा के मैदानों की हल्की मिट्टी होने के कारण आसान था। बलि प्रथा में पशु वध करने के कारण पर्याप्त बैल उपलब्ध नहीं होते थे। इसलिए कृषि आदिम तरीके से होती थी लेकिन यह व्यापक तौर पर होती थी इसमे कोई सन्देह नहीं। शतपथ ब्राह्मण में जुताई के अनुष्ठान पर विस्तृत चर्चा की गई है। प्राचीन किंवदन्तियों के अनुसार, विदेह के राजा और सीता के पिता, जनक ने अपने हाथों से जुताई की। उन दिनों, राजा और राजकुमार तक भी शारीरिक श्रम में संकोच नहीं करते थे। कृष्ण के भाई बलराम को हलधर या हल को धारण करने वाला कहा जाता है। गौतम बुद्ध को बोधगया मूर्ति में बैल के साथ जुताई करते दर्शाया गया है। अन्ततः जुताई, निचले तबके को सौंप दी गई और ऊँचे तबकों के लिए इसे निषिद्ध कर दिया गया।
वैदिक लोग जौ का उत्पादन करते रहे, लेकिन उत्तर- -वैदिक काल के दौरान चावल और गेहूँ उनकी मुख्य फसलें हुईं। आगे चलकर, गेहूँ पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोगों का मुख्य भोजन बन गया। वैदिक ग्रन्थों के अनुसार वैदिक लोग वृही, अर्थात् चावल से पहली बार दोआब में परिचित हुए। हस्तिनापुर से प्राप्त इसके अवशेष ई.पू. आठवीं शताब्दी के हैं। इसी समय एटा जिले के अत्रनजीखेरा में भी चावल उगाया जाता था। वैदिक अनुष्ठानों में चावल के उपयोग की बात कही गई है, लेकिन गेहूँ के उपयोग की चर्चा नाम मात्र भर है। उत्तर-वैदिक लोगों द्वारा विभिन्न प्रकार के मसूर दाल का उत्पादन भी किया जाता था।

कला और शिल्प

उत्तर-वैदिक काल में विविध कलाओं और शिल्प का भी उदय हुआ। कई लोहे के काम करने वाले और धातु पिघलाने वाले कारीगरों के बारे में पता चलता है, जो ई.पू. 1000 के आस-पास लोहे का काम करते थे। वैदिक लोग शुरुआती दौर से ही ताम्बे से परिचित थे।
ई.पू. 1000 से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार में पाए गए कई ताम्बे के औजार से गैर-वैदिक समाज में ताम्बे के कारीगरों के होने के भी संकेत मिले हैं। वैदिक लोगों ने राजस्थान में खेतड़ी के ताम्र-खदानों का इस्तेमाल किया, उनके द्वारा किसी धातु के तौर पर ताम्बे का पहली बार उपयोग किया गया। ताम्बे की वस्तुएँ चित्रित भूरे बर्तनों वाले स्थलों पर पाई गई हैं। इनका उपयोग मुख्य रूप से युद्ध और शिकार के लिए होता था और साथ ही गहने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता था।
बुनाई व्यापक पैमाने पर होती थी लेकिन महिलाओं तक ही सीमित थी। चमड़े का काम, बर्तन और बढ़ईगीरी के काम में भी काफी प्रगति हुई। उत्तर-वैदिक लोग चार प्रकार के मिट्टी के बर्तन-काले और लाल रंग के बर्तन, हल्के काले बर्तन, चित्रित भूरे बर्तन और लाल बर्तन से परिचित थे। लाल मिट्टी के बर्तन सबसे लोकप्रिय थे और ये लगभग पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाए जाते हैं। हालाँकि, उस समय के सबसे विशिष्ट बर्तनों को चित्रित भूरे बर्तन के रूप में जाना जाता है। इसमें कटोरे और थालियाँ होती थीं,
जिनका उपयोग शायद ऊँचे तबके के लोगों द्वारा अनुष्ठानों या खाने के लिए या दोनों के लिए किया जाता था। चित्रित भूरे बर्तन की परतों में मिले शीशे के ढेर और चूड़ियाँ सम्भवत: कुछ व्यक्तियों द्वारा प्रतिष्ठा की वस्तुओं के रूप में इस्तेमाल की गई होंगीं। कुल मिलाकर, वैदिक ग्रन्थ और उत्खनन दोनों से ही विशेष शिल्प निर्मिति का पता चलता है। उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में जौहरी का भी उल्लेख किया गया है और सम्भवतः वे समाज के समृद्ध वर्गों की जरूरतों को पूरा करते थे।

बस्तियाँ

यद्यपि चारो वेदों में जन शब्द या कबीलाई लोग आम है, पर वहाँ जनपद या लोगों के आवास का कोई उल्लेख नहीं है। यह सबसे पहले ब्राह्मण नामक उत्तर-वैदिक ग्रन्थ में मिलता है जो कि ई.पू. 800 से पहले का नहीं है। कृषि और विभिन्न तरह के शिल्प की कारीगरी उत्तर-वैदिक लोगों के जीवन को स्थिर करने में सहायक सिद्ध हुई। पुरातात्विक उत्खनन और अन्वेषण से हमें उत्तर-वैदिक काल के रहन-सहन के बारे में पता चलता है। चित्रित भूरे बर्तन के स्थल न केवल कुरु-पांचाल क्षेत्र के पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में मिले, बल्कि पंजाब एवं हरियाणा के आस-पास के हिस्सों में, मद्र क्षेत्र और राजस्थान के उन हिस्सों में भी मिले, जहाँ मत्स्य क्षेत्र का गठन हुआ।
यद्यपि गिनती के तौर पर ये 700 स्थल हैं परन्तु इनमें से ज्यादातर जो कि ऊपरी गंगा घाटी में, हस्तिनापुर, अत्रनजीखेरा और नोह जैसे कुछ स्थलों की ही खुदाई हुई है। इन पुरा आवासों के अवशेष की मोटाई एक से तीन मीटर तक की है, इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि ये बस्तियाँ एक से तीन शताब्दियों तक चली थीं। कुल मिलाकर, ये पूरी तरह से नई बस्तियाँ थीं, जिनके समकालीन कोई और नहीं थे। लोग मिट्टी के बने ईंटों के घरों में रहते थे या लकड़ी के खम्भों वाले झोपड़ीनुमा मकानों में रहते थे। यद्यपि ये संरचनाएँ काफी खराब और जर्जर हैं, इन स्थलों से प्राप्त चूल्हे और अनाज (चावल) से यह संकेत मिलता है कि चित्रित भूरे बर्तनों वाले दौर के लोग, जो शायद उत्तर-वैदिक लोगों के समतुल्य थे, वे किसान थे और स्थायी बसावट का जीवन जीते थे। क्योंकि वे हल से खेती करते थे और अन्य व्यवसाय के लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त उत्पादन करने में वे असमर्थ थे, इसलिए कस्बों के विकास में पर्याप्त योगदान नहीं दे पाते थे।
यद्यपि नगर शब्द उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में आते हैं, शहर की प्रारम्भिक शुरुआत उत्तर- वैदिक काल के अन्त में दिखाई देती है। हस्तिनापुर और कौशाम्बी (इलाहाबाद के पास)  वैदिक काल के अन्तिम दौर के कस्बों को दर्शाते हैं, उन्हें प्रोटो-शहर कहा जा सकता है। वैदिक ग्रन्थों में समुद्र और समुद्री यात्राओं का भी उल्लेख है। इस प्रकार नई कला और शिल्प के उदय से कुछ वाणिज्य व्यापार भी देखने को मिलते हैं।
उत्तर-वैदिक काल में लोगों के भौतिक जीवन में काफी विकास हुआ। खानाबदोश और घुमन्तू जीवन का अन्त होने लगा और कृषिकर्म, आजीविका के प्राथमिक स्रोत बन कर उभरे, जिससे जीवन स्थाई और स्थिर हो गया। विविध कलाओं और शिल्प-कौशल से सम्पन्न, वैदिक लोग ऊपरी गंगा के मैदानी इलाकों में स्थायी रूप से बस गए। मैदानी इलाकों में रहने वाले किसानों ने अपने लिए पर्याप्त उत्पादन किया, साथ ही वे प्रमुखों, राजकुमारों और पुजारियों को भी आंशिक हिस्सा देने में सक्षम थे।

राजनीतिक संगठन

उत्तर-वैदिक काल में ऋग्वैदिक कबीलाई सभाओं का महत्त्व कम हो गया और शाही सत्ता का विस्तार हुआ। विदत्त पूरी तरह से गायब हो गया; सभा और समिति ने खुद को तो बचाए रखा परन्तु उनके कार्य कलाप का ढांचा बदल गया। अब वे प्रमुखों और रईसों द्वारा नियन्त्रित होते थे, महिलाओं को अब सभा में बैठने की इजाजत नहीं थी, इसमें योद्धाओं और ब्राह्मणों का वर्चस्व हो गया था।
बड़े राज्यों के गठन ने प्रमुख या राजा की शक्ति बढ़ा दी। कबीले के अधिकार को सीमित कर दिया गया। प्रमुख कबीलों ने अपने नाम पर इलाकों का गठन किया, सम्भवतः यह उनके द्वारा नहीं बसाया गया था। शुरूआत में प्रत्येक क्षेत्र का नाम उस कबीले के नाम पर रखा गया जो वहाँ पहले बसे थे। मसलन शुरुआती दौर में पांचाल लोगों का नाम था और फिर यह एक क्षेत्र का नाम बन गया। राष्ट्र शब्द, जिसका अर्थ क्षेत्र है, इसी समय आया। लोगों को नियन्त्रित करने की अवधारणा भी इसी वक्त दिखी।
इसका संकेत राज्य शब्द के प्रयोग से मिलता है, जिसका मतलब सम्प्रभु शक्ति है। उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में राजा के चुनाव के संकेत मिलते हैं। शारीरिक और अन्य विशेषताओं में सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को राजा चुना जाता था। कबीले का जो व्यक्ति बस्तियाँ
बसाता था, खेती में कौशल दिखाता था, बहादुरी से लड़ता था, उसे ही उस कबीले का मुखिया चुना जाता था। राजा के साथ भी ऐसा ही होता था। वह विस नामक अपने परिजनों या आम लोगों से स्वैच्छिक उपहार के रूप में बलि प्राप्त करता था। धीरे-धीरे ये स्वैच्छिक उपहार आवश्यक हो गए, जिसे बलपूर्वक वसूला जाने लगा। शासकों ने इस स्वैच्छिक उपहार को अपना अधिकार बना लिया और वंशानुगत अपने पद का लाभ लेते रहे, जिसमें उनके बाद उनके बड़े बेटे को शासक बनाया जाता था। हालांकि, यह हस्तान्तरण हमेशा आसान नहीं था। महाभारत से हमें पता चलता है कि युधिष्ठिर के छोटे चचेरे भाई दुर्योधन ने राजगद्दी पर कब्जा कर लिया। साम्राज्य के लिए स्वयं लड़ते-लड़ते पाण्डवों और कौरवों के परिवार नष्ट हो गए। भारत की लड़ाई से स्पष्ट होता है कि सत्ता की लड़ाई में कोई रिश्तेदारी नहीं होती।
राजा के प्रभाव को अनुष्ठानों द्वारा सुदृढ़ किया जाता था। वे राजसूय यज्ञ करते थे, जिससे उन्हें सर्वोच्च शक्ति प्राप्त होती थी। वे अश्वमेध यज्ञ करते थे, जिसके अनुसार शाही घोड़े बिना किसी बाधा के जितने क्षेत्रों में पहुँच जाता, उन क्षेत्रों पर निर्विवाद नियन्त्रण हो जाता। वे वाजपेय या रथ दौड़ करते थे, जिसमें घोड़े द्वारा खींचे गए शाही रथ का उपयोग रिश्तेदारों पर विजय हासिल करने के लिए किया जाता था। इन सभी अनुष्ठानों द्वारा राजा की शक्ति और प्रतिष्ठा का प्रदर्शन कर लोगों को प्रभावित किया जाता था।
इस काल में, कर और नजराने का संग्रह सामान्य हो गया था। सम्भवतः इन्हें संग्रहित्री नामक अधिकारी के पास जमा किया जाता था, जो राजा के सहायक होते थे। महाकाव्यों से स्पष्ट होता है कि भव्य बलिदान के समय, राजा व्यापक स्तर पर दान करते थे, सभी वर्ग के लोगों को भोज कराया जाता था। राजा के कर्तव्यों के निर्वहन में पुजारी, सेनापति, महारानी और कुछ अन्य उच्च अधिकारी सहायता करते थे। निचले स्तर पर, प्रशासन सम्भवतः ग्रामीण सभाओं द्वारा संचालित होता था, जिसको प्रभावी समुदाय के प्रधान नियन्त्रित करते थे। इन सभाओं में स्थानीय मामलों की भी सुनवाई होती थी। हालाँकि, उत्तर-वैदिक काल में भी राजा के पास स्थायी सेना नहीं थी। युद्ध के समय कबीले की इकाइयों को एकट्ठा किया जाता था और युद्ध में सफलता के लिए एक अनुष्ठान के अनुसार, राजा जनता (विस) के साथ समान पत्तल में खाते थे।

सामाजिक संस्था

आर्वीकरण ने सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा दिया। उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में आर्य शब्द ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का द्योतक है। इस प्रकार, वैदिक आर्यों ने वर्ण व्यवस्था की शुरुआत की।
उत्तर-वैदिक समाज को चार वर्षों में विभाजित किया गया, जिसे ब्राह्मण, राजन्य या क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहते हैं। बलि प्रथा ने ब्राह्मणों की शक्ति में काफी वृद्धि की। शुरू में ब्राह्मण केवल पुरोहितों के सोलह वर्गों में से एक थे, लेकिन वे धीरे-धीरे दूसरे पुजारियों से अधिक महत्त्वपूर्ण वर्ग के रूप में उभरे। ब्राह्मणों का उदय एक आश्चर्यजनक विकास है, जो भारत से बाहर के आर्य समाज में नहीं दिखता। ऐसा लगता है कि गैर-आर्य तत्त्वों ने ब्राह्मण वर्ण के गठन में कुछ भूमिका निभाई। उन्होंने अपने याचकों और खुद के लिए रीति-रिवाज और बलिदान किया और कृषि से जुड़े त्योहारों में भी पूजा करवाई। उन्होंने युद्ध में अपने संरक्षक की सफलता के लिए प्रार्थना की और बदले में, राजा ने उनकी सुरक्षा का वचन दिया। सर्वश्रेष्ठता स्थापित करने के लिए कभी-कभी ब्राह्मण और राजन्यों, जो योद्धाओं का प्रतिनिधित्व करते थे, के बीच संघर्ष छिड़ जाते थे। हालाँकि, जब भी इन दोनों ऊँचे वर्ग के लोगों को निचले तबके से निपटना पढ़ता था, वे अपने आपसी मतभेद की दरकिनार कर देते थे। उत्तर वैदिक काल से अन्त तक, इस पर जोर दिया जाता था कि दीना ऊपरी तबकों को बाकी समाज पर शासन करने में एक दूसरे का सहयोग करना चाहिए।
वैश्य आम लोगों में आते थे और उन्हें कृषि, पशु प्रजनन जैसे कार्य अघि गए। उन से कुछ ने कारीगर के रूप में भी काम किया। वैदिक काल के अन्त मे व व्यापार से जुड़ गए। वैदिक काल में सिर्फ वैश्य आर्थिक सहायता कर चुकाते थे और वैश्यों में एकत्रित सहायता-कर पर ब्राह्मण और क्षत्रिय का जीवन यापन निर्धारित था। कबीले के समूहाँ से कर लेने की प्रक्रिया लम्बी और मुश्किल थी। विस या वैश्य लोगों की राजकुमार (राजा) या उनके परिवार, जिन्हें राजन्य कहा जाता था, के अधीन करने के लिए कई अनुष्ठान किए जाते थे। यह पुजारियों की सहायता से सम्भव हुआ, इससे वे खुद भी लाभान्वित हुए। इन तीन उच्च वर्णों की एक सामान्य विशेषता थी-वै उपनयन के हकदार थे अर्थात् वे वैदिक मन्त्र के अनुसार पवित्र धागा (जनेऊ) धारण कर सकते थे। उपनयन वेद शिक्षा की पहली शुरुआत होती थी। चौथा वर्ण जनेऊ संस्कार और गायत्री मन्त्र के उच्चारण से वंचित था।
गायत्री एक वैदिक मन्त्र था, जिसका उच्चारण शुद्र नहीं कर सकते थे, लिहाजा व वैदिक शिक्षा से वंचित हो जाते थे। इसी तरह, महिलाओं के लिए भी उपनयन और गायत्री मन्त्र वर्जित था। इस प्रकार, वैदिक काल के अन्त तक शूद्रों और महिलाओं पर द्रयम दर्जे का होने या अयोग्य कहने की शुरुआत हो चुकी थी।
राजकुमार, राजन्य पद का प्रतिनिधित्व करते थे और अन्य तीनों वर्गों पर अपने अधिकार जमाते थे। उत्तर-वैदिक ग्रन्थ, ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार ब्राह्मण, राजकुमार से जीवन- यापन और उपहार प्राप्ति की अपेक्षा रखता था; और उसे पदच्युत भी कर सकता था। वैश्य सहायता-कर देने वाला कहलाता था, जिसे इच्छानुसार दंडित और प्रताड़ित भी किया जा सकता था। सबसे बदतर स्थिति शूद्रों की थी। उन्हें दूसरों का दास कहा जाता था, जो दूसरों की इच्छानुसार काम करने को बाध्य होते थे, उन्हें प्रताड़ित भी किया जाता था।
सामान्यत: उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में, तीन उच्च वर्णों और शूद्रों के बीच विभाजन की रेखा खींच दी गई थी। फिर भी, राजा के राज्याभिषेक से जुड़े कई सार्वजनिक अनुष्ठानों में शूद्र हिस्सा लेते थे, सम्भवत: वे भी मूलतः आर्य समुदाय के वंशज माने जाते थे। रथकार या रथ निर्माता जैसे कुछ कारीगर वर्गों को उच्चाधिकार और जनेऊ धारण का अधिकार प्राप्त था। इस प्रकार, उत्तर-वैदिक काल में वर्ण विभेद उतना गहरा नहीं था।
परिवार से पिता की शक्ति का पता चलता था, जो अपने बेटे को भी अधिकार से वंचित कर सकता था। शाही परिवारों में, ज्येष्ठाधिकार यानि सबसे बड़े का अधिकार सबसे ज्यादा था। पुरुष पूर्वजों की पूजा होने लगी। महिलाएँ सामान्यतः निचले पायदान पर आती थीं। हालाँकि कुछ महिला धर्मशास्त्री दार्शनिक चर्चा में भाग लेती थी और कुछ रानियाँ राज्याभिषेक संस्कार में हिस्सा लेती थीं, लेकिन आम तौर पर महिलाओं को कमजोर और पुरुषों के अधीन माना जाता था।
उत्तर-वैदिक काल में गोत्र नामक संस्था आई। इसका शाब्दिक अर्थ गोशाला या वह स्थान है, जहाँ पूरे कबीले के पशु रखे जाते हैं, लेकिन समय के साथ यह एक ही पूर्वज के वंश का सूचक हो गया। लोगों ने गोत्र के अनुसार विजातीय विवाह प्रारम्भ कर दिया।
एक ही गोत्र या वंश से सम्बन्धित व्यक्तियों के बीच कोई विवाह नहीं हो सकता है। यानि सगोत्रीय विवाह प्रतिबंधित कर दिया गया। वैदिक काल में आश्रमों या जीवन के चार चरण स्थापित नहीं हुए थे। परवर्ती वैदिक ग्रन्थ में चार आश्रमों का वर्णन है : ब्रह्मचारी या विद्यार्थी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या साधू और संन्यास या तपस्वी यानि जो सम्पूर्ण रूप से सांसारिक जीवन को त्याग देते हैं। उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में केवल प्राथमिक तीन की ही स्पष्ट परिभाषा का उल्लेख है; अन्तिम या चौथा चरण पूर्णतः स्थापित नहीं हुआ था, हालाँकि तपस्वी जीवन अज्ञात नहीं था। परवर्ती-वैदिक काल में भी, सभी वर्गों के लोग गृहस्थ आश्रम का पालन करते थे।

देवता, रीति-रिवाज और दर्शन

उत्तर-वैदिक काल में, ब्राह्मणवादी प्रभाव के अन्तर्गत ऊपरी दोआब ने आर्य संस्कृति के लिए फलने-फूलने की जमीन तैयार की। ऐसा लगता है कि कुरु-पंचाल क्षेत्र में सभी वैदिक साहित्य संगृहीत किए गए। बलि प्रथा इस संस्कृति के मूल में थी, जो अनुष्ठानों और विधियों पर आधारित थी।
दो सर्वोत्कृष्ट ऋग्वैदिक देवता, इन्द्र और अग्नि, अपनी प्राचीन महत्ता खो चुके थे। दूसरी ओर, प्रजापति, विधाता, ने उत्तर-वैदिक देवताओं में सर्वोच्च स्थान ले लिया था। ऋग्वैदिक काल के अन्य छोटे देवता भी महत्त्वपूर्ण हो गए। पशुओं के देवता रुद्र, उत्तर-वैदिक काल में महत्त्वपूर्ण हो गए, विष्णु उन लोगों के संरक्षक माने गए, जिससे अर्ध-खानाबदोश जीवन के बजाय एक स्थायी जीवन की शुरुआत हुई। इसके अलावा, कुछ वस्तुओं की पूजा देवता की तरह होने लगी इस तरह से मूर्ति पूजा के लक्षण उत्तर-वैदिक काल में सामने आए। जैसे-जैसे समाज, ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र जैसे सामाजिक वर्गों में विभाजित हुआ, कुछ सामाजिक वर्गों ने अपने अलग देवता भी बनाए। पुषण, जो मवेशी पालन के लिए जाने जाते थे, शूद्रों के देवता हो गए, हालाँकि ऋग्वेद काल में पशुपालन आर्यों का मूल व्यवसाय था।
इस काल में लोगों ने उन्हीं भौतिक कारणों से देवताओं की पूजा की, जैसा वे पहले करते रहे थे। हालाँकि, पूजा की विधि और अनुष्ठान में काफी परिवर्तन हुए। प्रार्थनाएँ गाई जाती रहीं, परन्तु अब वे देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मुख्य नहीं थी। बलिदान अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए और उनका स्वरूप निजी और सार्वजनिक दोनों हो गया। सार्वजनिक बलिदान में राजा और पूरा समुदाय शामिल होता था, जो अब भी संयोगवश बहुत से समुदायों और जनजातियों में देखने को मिलता है। निजी या घरेलू बलिदान व्यक्तियों द्वारा अपने घरों में होते थे, क्योंकि इस काल में वैदिक लोग नियमित रूप से घरेलू काम करते थे। लोग अग्नि को भेंट अर्पित करते थे, जो एक अनुष्ठान या बलिदान के रूप में परिणत हो गया। बलि में व्यापक स्तर पर पशुओं की बलि दी जाती थी, जिसमें पशु धन नष्ट होते थे।
इसमें अतिथि को गोधना कहा जाता था जिन्हें इन पशुओं का माँस खिलाया जाता था। बलि देने वाला बलि की विधि को बड़े ध्यान से सम्पन्न करता था। इस बलिकर्ता को यजमान कहा जाता था यानि यज्ञ करने वाला और इसकी अधिकतम सफलता बलि के समय में शुद्धतापूर्वक उच्चारित शब्दों की जादुई शक्ति पर निर्भर होती थी। वैदिक आर्यों द्वारा सम्पन्न कुछ अनुष्ठान भारोपीय लोगों के बीच देखने को मिलते हैं, लेकिन उनमें से कई भारत भूमि पर विकसित हुए लगते हैं।
बलिदान की ये विधियाँ पुजारियों द्वारा आविष्कृत, अधिगृहीत और विस्तारित होती थीं; जिन्हें ब्राह्मण कहा जाता है और जो ज्ञान एवं विशेषज्ञता के एकाधिकार का दावा करते थे। उन्होंने कई अनुष्ठानों का आविष्कार किया, जिनमें से कुछ अनार्यों से भी लिए गए थे।
अनुष्ठानों के आविष्कार और विस्तार का कारण स्पष्ट नहीं है, लेकिन धनलोलुपता के उद्देश्य को नकारा नहीं जा सकता। कहा जाता है कि राजपुरोहित को राजसूय यज्ञ में 2,40,000 गायें दक्षिणा या उपहार के रूप दी गई थीं। स्वामी विवेकानन्द ने वैदिक काल के रूढ़िवादी और गोमांस खाने वाले ब्राह्मणों का वर्णन किया है, उन्होंने आधुनिक सन्दर्भ में हिन्दुओं को माँसाहार के लिए प्रेरित किया है।
बलि के उपहार स्वरूप दिए गए दान में, गायों के अलावा, सामान्यत: सोने, कपड़े और घोड़े भी होते थे। कभी-कभी पुरोहित दक्षिणा के रूप में क्षेत्र के कुछ हिस्सों की माँग करते थे, लेकिन उत्तर-वैदिक काल में बलि-शुल्क के रूप में भूमि या जमीन को देने के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार अश्वमेध यज्ञ में पुरोहित को उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम सभी दिशाओं से दान दिए जाने चाहिए। अगर वास्तव में ऐसा होता तो राजा के पास क्या बचता? अतः इससे पुरोहितों द्वारा अधिक से अधिक सम्पति पाने की मंशा का पता चलता है। स्पष्टत: पुरोहितों को पर्याप्त भूमि का हस्तान्तरण नहीं हुआ होगा। इस
बात का भी उल्लेख मिलता है कि जो भूमि पुरोहितों को दी जानी थी, उसके हस्तान्तरण से इनकार कर दिया गया।
वैदिक काल के अन्त में पौरोहित्य के वर्चस्व, पन्थों और अनुष्ठानों के प्रभाव का कड़ा विरोध हुआ, खासकर पांचाल और विदेह की धरती पर, जहाँ ई.पू. 600 के आस-पास उपनिषदों का संकलन हुआ। इन दार्शनिक ग्रन्थों ने अनुष्ठानों की आलोचना की तथा सही मत एवं ज्ञान के मूल्यों पर जोर दिया। उन्होंने जोर दिया कि आत्मा या स्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, आत्मा और ब्रम के सम्बन्ध को ठीक से समझा जाना चाहिए। इस अवधि के शक्तिशाली राजाओं की तुलना में, ब्रह्म सर्वश्रेष्ठ तत्व के रूप में उभरा।
पांचाल और विदेह के कुछ क्षत्रिय शासकों ने भी इस विचार को सराहा और पौरोहित्य-वर्चस्व वाले धर्म के सुधार के लिए वातावरण का निर्माण किया। उनके इस तरह से उपदेश ने स्थिरता और एकीकरण वाले कारकों को प्रभावी बनाया। आत्मा या जीव की स्थिरता, अनिष्टता और अमरता पर जोर देना क्षत्रिय राजा के नेतृत्व में राज्य की बढ़ती शक्ति को बनाए रखने में अनिवार्य स्थिरता का कारण बना। ब्रह्म के साथ आत्मा के सम्बन्ध पर बल देने से सर्वोच्च शक्ति के प्रति निष्ठा बढ़ी।
उत्तर-वैदिक काल में क्षत्रिय शासकों के अधीन कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव हुए, जैसे कि जनपद नामक प्रादेशिक साम्राज्य की शुरुआत हुई। युद्ध न केवल मवेशियों के लिए बल्कि क्षेत्र पर अधिकार के लिए भी हुए। कौरवों और पाण्डवों के बीच प्रसिद्ध युद्ध महाभारत इस काल में हुए।
प्रारम्भिक वैदिक काल का पशुचारी समाज मुख्यत: कृषि-प्रधान बन गया था। कबीलाई चरवाहे किसान बन गए, जो निरन्तर सहायता-कर देकर अपने प्रमुख को बनाए रख सकते थे। कबीले के किसानों की सहायता से राजा या जनपदीन नामक
प्रमुख उभरे।
उन्होंने वैश्य नामधारी सामान्य लोगों के विरुद्ध अपने संरक्षकों की मदद करने वाले पुरोहितों को पुरस्कृत किया। शूद्र अभी भी एक निम्न स्तर के सेवक ही थे। कबीलाई समाज एक वर्ण विभाजित समाज बन गया, लेकिन वर्ण विभेद बहुत देर तक नहीं चला।
ब्राह्मणों की सहायता के बावजूद, राजन्य या क्षत्रिय एक परिपक्व राज्य व्यवस्था स्थापित करने में असफल रहे। बिना किसी नियमित कर-प्रणाली और स्थायी सेना के राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। सेना सहित सम्पूर्ण प्रशासनिक संरचना, कर पर निर्भर करती है, लेकिन कृषि के मौजूदा तरीके नियमित करों और सहायता के अवसर प्रदान करने में निष्फल रहे।

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