प्रकाश किसे कहते हैं | प्रकाश कितने प्रकार के होते हैं | प्रकाश के परावर्तन के कितने नियम होते हैं
प्रकाश किसे कहते हैं | प्रकाश कितने प्रकार के होते हैं | प्रकाश के परावर्तन के कितने नियम होते हैं
प्रकाश
◆ प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है, जो विद्युत चुम्बकीय तरंगों के रूप में संचारित होती है। इसका ज्ञान हमें आँखों द्वारा प्राप्त होता है। इसक तरंगदैर्ध्य 3900A से 7800A के मध्य होता है।
◆ प्रकाश का विद्युत चुम्बकीय तरंग-सिद्धान्त प्रकाश के केवल कुछ गुणों की व्याख्या कर पाता है, जैसे- प्रकाश का परावर्तन, प्रकाश का अपवर्तन, प्रकाश का सीधी रेखा में गमन, प्रकाश का विवर्तन, प्रकाश का व्यतिकरण एवं प्रकाश का ध्रुवण।
◆ विद्युत चुम्बकीय तरंग अनुप्रस्थ (Transverse) होती है। अत: प्रकाश भी अनुप्रस्थ तरंग है।
◆ प्रकाश के कुछ गुण ऐसे हैं जिनकी व्याख्या तरंग सिद्धान्त नहीं कर पाता है, जैसे- प्रकाश विद्युत प्रभाव तथा क्रॉम्पटन सिद्धान्त।
◆ प्रकाश-विद्युत प्रभाव एवं क्रॉम्पटन सिद्धान्त की व्याख्या आइंसटीन द्वारा प्रतिपादित प्रकाश के फोटॉन सिद्धान्त द्वारा की जाती है। वास्तव में यह दोनों प्रभाव प्रकाश की कण प्रकृति को प्रकट करते हैं।
प्रकाश का फोटॉन सिद्धान्त : इसके अनुसार प्रकाश ऊर्जा के छोटे-छोटे बण्डलों या फैकटों के रूप में चलता है, जिन्हें फोटॉन कहते हैं।
◆ आज प्रकाश को कुछ घटनाओं में तरंग और कुछ में कण माना जाता है। इसी को प्रकाश की दोहरी प्रकृति (Dualistic Nature of Light) कहते हैं।
◆ प्रकाश के वेग की गणना सबसे पहले रोमर ने की थी।
◆ प्रकाश की चाल (Velocity of Light) माध्यम के अपवर्तनांक (u) पर निर्भर करता है। जिस माध्यम का अपवर्तनांक जितना अधिक होता है, उसमें प्रकाश की चाल उतनी ही कम होती है।
◆ प्रकाश को सूर्य से पृथ्वी तक आने में औसतन 499 सेकंड अर्थात् 8 मिनट का समय लगता है।
◆ चन्द्रमा से परावर्तित प्रकाश को पृथ्वी तक आने में 1.28 सेकंड का समय लगता है।
विभिन्न माध्यमों में प्रकाश की चाल
क्र. सं. | माध्यम | अपवर्तनांक (u) | प्रकाश की चाल (मीटर/सेकंड) |
1. | निर्वात्/वायु | 1.0 | 3.00×108 |
2. | पानी | 1.33 | 2.25X108 |
3. | काँच | 1.5 | 2.00X108 |
4. | तारपीन तेल | 1.47 | 2.04X108 |
5. | नॉयलन | 1.53 | 1.96X108 |
प्रकाश के स्रोत के आधार पर वस्तुओं का वर्गीकरण
(i) प्रवीप्त वस्तुएँ (Luminous Bodies) : प्रदीप्त वस्तुएँ वे वस्तुएँ हैं, जो अपने स्वयं के प्रकाश से प्रकाशित होती हैं। जैसे- सूर्य, विद्युत बल्ब आदि।
(ii) अप्रदीप्त वस्तुएँ (Non-luminous Bodies) : अप्रदीप्त वस्तुएँ वे वस्तुएँ हैं, जिनका अपना स्वयं का प्रकाश नहीं होता, लेकिन उन पर प्रकाश डालने पर वे दिखाई देने लगती हैं। जैसे- मेज, किताब, कुर्सी आदि।
(iii) पारदर्शक वस्तुएँ (Transparent Bodies) : पारदर्शक वस्तुएँ वे वस्तुएँ हैं, जिनमें होकर प्रकाश की किरणें निकल जाती हैं। जैसे- काँच आदि।
(iv) अर्धपारदर्शक वस्तएँ (Translucent Bodies) : कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं, जिन पर प्रकाश की किरणें पड़ने से उनका कुछ भाग तो अवशोषित हो जाता है तथा कुछ भाग बाहर निकल जाता है। ऐसी वस्तुओं को अर्धपारदर्शक वस्तुएँ कहते हैं। जैसे- तेल लगा हुए कागज।
(v) अपारदर्शक वस्तुएँ (Opaque Bodies) : अपारदर्शक वस्तुएँ वे वस्तुएँ हैं, जिनमें होकर प्रकाश की किरणे बाहर नहीं निकल पाती हैं। जैसे- धातुएँ आदि।
सूर्यग्रहण (Solar Eclipse) : जब चन्द्रमा सूर्य तथा पृथ्वी के बीच आ जाता है, तो सूर्य ग्रहण दिखलायी पड़ता है।
चन्द्रग्रहण (Lunar Eclipse) : जब पृथ्वी सूर्य तथा चन्द्रमा के बीच आ जाती है, तो चन्द्रग्रहण दिखलायी पड़ता है।
प्रकाश का परावर्तन (Reflection of Light)
◆ जब प्रकाश किसी चिकने व चमकदार पृष्ठ पर पड़ता है, तो इसका विभिन्न दिशाओं में अधि कांश भाग वापस लौट जाता है। इस प्रकार प्रकाश के चिकने पृष्ठ से टकराकर वापस लौटने की घटना को प्रकाश का परावर्तन कहते हैं। समतल दर्पण प्रकाश का सबसे अच्छा परावर्तक माना जाता है। प्रकाश का परावर्तन निम्नलिखित दो नियमों के अनुसार होता है-
(i) आपाती किरण, अभिलंब व परावर्तित किरण एक ही समतल में होते हैं।
(ii) आपतन कोण का मान परावर्तन कोण के बराबर होता है।
समतल दर्पण (Plan Mirror) से परावर्तन
◆ समतल दर्पण किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे उतनी दूरी पर बनाता है, जितनी दूरी पर वस्तु दर्पण के समाने रखी होती है। यह प्रतिबिम्ब काल्पनिक वस्तु के बराबर एवं पार्श्व उल्टा (Lateral Inverse) होता है।
◆ यदि कोई व्यक्ति v चाल से दर्पण की ओर चलता है, तो उसे दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब 2v चाल से अपनी ओर आता हुआ प्रतीत होगा।
◆ यदि आपतित/आपाती किरण (Incident Ray) को नियत रखते हुए दर्पण को 0° कोण से घुमा दिया जाये तो परावर्तित किरण 20° से घूम जाती है।
◆ समतल दर्पण में वस्तु का पूर्ण प्रतिबिम्ब देखने के लिए दर्पण की लंबाई वस्तु की लंबाई की कम से कम आधी होनी चाहिए।
◆ यदि दो समतल दर्पण 0° कोण पर झुके हों तो उनके बीच रखी वस्तु के प्रतिबिम्बों की संख्या 360° / 0° -1 होगी।
जैसे- 90° पर झुके दो समतल दर्पणों के बीच 360° / 90° -1 = 4-1= 3 प्रतिबिम्ब बनेंगे।
◆ यदि 360° / 90° का मान विषम संख्या यानि 3,5,7,… हो तो प्रतिबिम्ब की संख्या में से एक को नहीं घटाते हैं।
जैसे- 40° कोण पर झुके दो समतल दर्पण के बीच
360° / 40° = 9 प्रतिबिम्ब बनेंगे।
गोलीय दर्पण से परावर्तन (Reflection from Spherical Mirror)
गोलीय दर्पण दो प्रकार के होते हैं-
(i) अवतल दर्पण (Concave Mirror)
(ii) उत्तल दर्पण (Convex Mirror)
अवतल दर्पण के उपयोगः
(a) आकाशीय पिंडों, तारे आदि की फोटोग्राफी करने के लिए परावर्तक दूरदर्शी में।
(b) चिकित्सकों द्वारा कान, आँख एवं नाक के आंतरिक भागों की जाँच के लिए।
(c) गाड़ियों की सर्चलाइट (Search Light) तथा हेडलाइट (Head Light) में
(d) दाढ़ी बनाने वाले दर्पण के रूप में।
(e) सोलर कुकर (Solar Cooker) में।
उत्तल दर्पण के उपयोगः
(a) कार व बस आदि में चालक के बगल में (Side Mirror) पीछे का दृश्य देखने के लिए।
(b) सड़क में लगे परावर्तक लैंपों में सोडियम परावर्तक लैंप में।
प्रकाश का विवर्तन (Diffraction of Light)
◆ यदि किसी प्रकाश स्रोत व पर्दे के बीच कोई अपारदर्शी अवरोध (Obstacle) रख दिया जाये तो हमें पर्दे पर अवरोध की स्पष्ट छाया दिखलाई पड़ती है। इससे प्रतीत होता है कि प्रकाश का संचरण सीधी रेखा में होता है, लेकिन यदि अवरोध का आकार बहुत छोटा हो तो प्रकाश अपने सरल रेखीय संचरण से हट जाता है व अवरोध के किनारों पर मुड़कर छाया में प्रवेश
कर जाता है। प्रकाश के इस प्रकार अवरोध के किनारों पर मुड़ने की घटना को प्रकाश का विवर्तन कहते हैं।
प्रकाश का प्रकीर्णन (Scattering of Light)
◆ जब प्रकाश किसी ऐसे माध्यम से गुजरता है, जिसमें धूल तथा अन्य पदार्थों के अत्यंत सूक्ष्म कण होते हैं, तो इनके द्वारा प्रकाश सभी दिशाओं में प्रसारित हो जाता है। इस घटना को प्रकाश का प्रकीर्णन कहा जाता है
(a) आकाश का रंग नीला दिखायी देना।
(b) उगते व डूबते समय सूर्य का लाल दिखायी देना।
(c) समुद्र के पानी का नीला दिखायी देना।
(d) चन्द्रमा तल पर खड़े अंतरिक्षयात्री को आकाश काला दिखायी देना।
● प्रकाश का अपवर्तन (Refraction of Light)
◆ किसी समांग (Homogenous) माध्यम में प्रकाश किरणे एक सीध में संचरित होती है, लेकिन जब प्रकाश विभिन्न घनत्व वाले एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रवेश करता है तो यह अपने एक रेखीय पथ से विचलित हो जाता है। प्रकाश का इस प्रकार एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रवेश करते समय उनकी सीमा (Boundry) पर अपने रेखीय पथ से विचलित होना ही प्रकाश का अपवर्तन कहलाता है। जब प्रकाश की कोई किरण विरल माध्यम (Rarer Medium) से सघन माध्यम (Densor Medium) (जैसे- हवा से पानी) में प्रवेश करती है, तो वह दोनों माध्यमों के पृष्ठ पर खींचे गये अभिलंब की ओर झुक जाती है तथा जब किरण सघन माध्यम (पानी से हवा) में प्रवेश करती है, तो वह अभिलंब से दूर हट जाती है, लेकिन जो किरण अभिलंब के समांतर प्रवेश करती है, उनके पथ में कोई परिवर्तन नहीं होता एवं वे बिना झुके सीधी निकल जाती हैं। प्रकाश के अपवर्तन का कारण प्रकाश का भिन्न-भिन्न माध्यमों में वेग का भिन्न-भिन्न होना है। प्रकाश का अपवर्तन निम्न दो नियमों के अनुसार होता है-
(i) आपतित किरण, अभिलंब तथा अपवर्तित किरण तीनों एक ही समतल में स्थित होते हैं।
(ii) किन्हीं दो माध्यमों के लिए आपतन कोण के sine तथा अपवर्तन कोण के sine का अनुपात एक नियतांक होता है।
sinei / siner = नियतांक = u
नियतांक (u) को पहले माध्यम के सापेक्ष दूसरे माध्यम का अपवर्तनांक कहते हैं। इस नियम को स्नेल का नियम कहते हैं।
◆ किसी माध्यम का अपवर्तनांक भिन्न-भिन्न रंग के प्रकाश के लिए भिन्न-भिन्न होता है। तरंगदैर्ध्य बढ़ने के साथ अपवर्तनांक का मान कम हो जाता है। अतः लाल रंग का अपवर्तनांक सबसे कम तथा बैगनी रंग का अपवर्तनांक सबसे अधिक होता है।
◆ ताप बढ़ने पर भी सामान्यतः अपवर्तनांक घटता है, लेकिन यह परिवर्तन बहुत ही कम होता है।
◆ किसी माध्यम का निरपेक्ष अपवर्तनांक निर्वात् में प्रकाश की चाल तथा उस माध्यम में प्रकाश की चाल के अनुपात के बराबर होती है।
अर्थात्, निरपेक्ष अपवर्तनांक (u) = निर्वात में प्रकाश की चाल / माध्यम में प्रकाश की चाल
प्रकाश के अपवर्तन से सम्बद्ध घटनाएँ:
(i) पानी में अंशतः पड़ी हुई कोई लकड़ी, छड़ या चम्मच का टेढ़ा दिखायी देना।
(ii) रात्रि के समय तारों का टिमटिमाते (Twinkling of Stars) हुए दिखायी देना।
(iii) उगते एवं डुबते समय सूर्य का क्षितिज के नीचे होने पर भी दिखायी देना।
(iv) पानी से भरे किसी बर्तन की तली में पड़ा हुआ सिक्का का ऊपर उठा हुआ दिखायी पड़ना।
(v) जल के अंदर पड़ी हुई मछली का वास्तविक गहराई से कुछ ऊपर उठा हुआ दिखायी पड़ना।
प्रकाश का पूर्ण आंतरिक परावर्तन (Total Internal Reflection of Light)
◆ क्रांतिक कोण (Critical Angle): क्रांतिक कोण सघन माध्यम में बना वह आपतन कोण होता है, जिसके लिए विरल माध्यम में अपवर्तन कोण का मान 90° होता है।
◆ आपतन कोण का मान क्रांतिक कोण से थोड़ा-सा अधिक कर दें तो प्रकाश विरल माध्यम में बिल्कुल ही नहीं जाता, बल्कि सम्पूर्ण प्रकाश परावर्तित होकर सघन माध्यम में ही लौट आता है। इस घटना को प्रकाश का पूर्ण आंतरिक परार्वतन कहते हैं। इसमें प्रकाश का अपवर्तन बिल्कुल नहीं होता, सम्पूर्ण आपतित प्रकाश परावर्तित हो जाता है। किसी पृष्ठ के जिस भाग
में पूर्ण आंतरिक परावर्तन होता है, वह चमकने लगता है।
◆ प्रकाश के पूर्ण आंतरिक परावर्तन के लिए निम्न दो शर्तों का पूरा होना अनिवार्य है-
(i) प्रकाश की किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में जा रही हो।
(ii) आपतन कोण क्रांतिक कोण से बड़ा हो।
पूर्ण आंतरिक परावर्तन से सम्बद्ध घटनाएँ:
(i) हीरों का चमकना।
(ii) गर्मियों के मौसम में रेगिस्तान में मरीचिका (Mirage) का बनना।
(iii) जल में रखी हुई परखनली का चमकना।
(iv) काँच में आयी दरार का चमकना।
प्रकाशित तंतु (Optical Fibres)
प्रकाश सरल रेखा में गमन करता है, लेकिन पूर्ण आंतरिक परावर्तन का उपयोग करके प्रकाश को एक वक्रीय मार्ग में चलाया जा सकता है। प्रकाशित तंतु पूर्ण आंतरिक परावर्तन के सिद्धांत पर आधारित एक ऐसी युक्ति है जिसके द्वारा प्रकाश सिग्नल को इसकी तीव्रता में बिना क्षय के एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरित किया जा सकता है, चाहे मार्ग कितना भी टेढ़ा-मेढ़ा
हो। जब कभी प्रकाश को अधिक दूरी तक भेजना होता है, तो प्रकाशित तंतु का उपयोग किया जाता है, क्योंकि इसमें प्रकाश का अवशोषण (Absorption) बहुत कम होता है।
प्रकाशित तंतु के उपयोगः
(i) प्रकाशकीय सिग्नलों के संचरण के लिए।
(ii) मनुष्य के शरीर के आंतरिक भागों का परीक्षण करने के लिए।
(iii) विद्युत सिग्नलों को प्रकाश सिग्नल में बदलकर भेजने एवं प्राप्त करने में।
(iv) शरीर के अंदर लेसर किरणों को भेजने में।
प्रकाश का वर्ण-विक्षेपण (Dispersion of Light)
◆ जब सूर्य का प्रकाश किसी प्रिज्म से गुजरता है, तो यह अपवर्तन के पश्चात् प्रिज्म के आध पर की ओर झुकने के साथ-साथ विभिन्न रंगों के प्रकाश में बँट जाता है। इस प्रकार से प्राप्त रंगों के समूह को वर्ण-क्रम (Spectrum) कहते हैं तथा प्रकाश के इस प्रकार अवयवी रंगों में विभक्त होने की प्रक्रिया को वर्ण-विक्षेपण कहते हैं।
◆ सूर्य के प्रकाश से प्राप्त रंगों में बैंगनी रंग आधार की ओर सबसे नीचे व लाल रंग सबसे ऊपर होता है अर्थात् बैंगनी रंग का विक्षेपण सबसे अधिक एवं लाल रंग का विक्षेपण सबसे कम होता है।
◆ विभिन्न रंगों का आधार से ऊपर की ओर क्रम इस प्रकार है- बैंगनी (Violet), जामुनी (Indigo), नीला (Blue), हरा (Green), पीला (Yellow), नारंगी (Orange) तथा लाल (Red)।
◆ 1666 ई. में न्यूटन ने पाया कि भिन्न-भिन्न रंग भिन्न-भिन्न कोणों से विक्षेपित होते हैं। वर्ण-विक्षेपण किसी पारदर्शी पदार्थ में भिन्न-भिन्न रंगों के प्रकाश के भिन्न-भिन्न वेग होने के कारण होता है। हालाँकि निर्वात् या वायु में सभी रंगों का प्रकाश एक ही वेग (3x108 मीटर/सेकंड) से चलता है। अत: किसी पदार्थ का अपवर्तनांक भिन्न-भिन्न रंगों के लिए भिन्न-भिन्न होता है।
◆ पारदर्शी पदार्थ में जैसे-जैसे प्रकाश के रंगों का अपवर्तनांक बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उस पदार्थ में उसकी चाल कम होती जाती है। जैसे- काँच में बैंगनी रंग के प्रकाश का वेग सबसे कम तथा अपवर्तनांक सबसे अधिक होता है तथा लाल रंग में प्रकाश का वेग सबसे अधिक एवं अपवर्तनांक सबसे कम होता है।
इन्द्रधनुष (Rainbow)
◆ परावर्तन पूर्ण, आंतरिक परावर्तन तथा अपवर्तन द्वारा वर्ण-विक्षेपण (Dispersion) का सबसे अच्छा उदाहरण आकाश में वर्षा के बाद दिखायी देने वाला इन्द्रधनुष है। जब सूर्य की किरणें वायुमंडल में उपस्थित वर्षा की छोटी-छोटी बूंदों पर पड़ती है तो इन्द्रधनुष दिखायी देता है। इन्द्रधनुष मुख्यतः
दो प्रकार के होते हैं- (i) प्राथमिक इन्द्रधनुष व (ii) द्वितीयक इन्द्रधनुष।
(i) प्राथमिक इन्द्रधनुष (Primary Rainbow) : जब वर्षा की बूंदों पर आपतित होने वाली सूर्य की किरणों का दो बार अपवर्तन एवं एक बार परावर्तन होता है, तो प्राथमिक इन्द्रधनुष बनता है। प्राथमिक इन्द्रधनुष में लाल रंग बाहर की ओर और बैंगनी रंग अंदर की ओर होता है तथा शेष रंग इन दोनों रंगों के बीच होते हैं। प्राथमिक इन्द्रधनुष में अंदर वाली बैंगनी किरण आँख पर 40.8° तथा बाहर वाली लाल किरण आँख पर 42.8° का कोण बनाती है।
(ii) द्वितीयक इन्तधनुष (Secondary Rainbow) : जब वर्षा की बूंदों पर आपतित होने वाली सूर्य की किरणों का दो बार अपवर्तन व दो बार परावर्तन हो तो द्वितीयक इन्द्रधनुष दिखाई देता है। इसमें बाहर की ओर बैंगनी रंग और अंदर की ओर लाल रंग होता है। द्वितीयक इन्द्रधनुष में बाहर वाली बैंगनी किरण आँख पर 54.52° तथा अंदर वाली लाल किरण 50.8° का कोण बनाती है। द्वितीयक इन्द्रधनुष प्राथमिक इन्द्रधनुष की अपेक्षा कुछ धुंधला दिखलाई पड़ता है।
वस्तुओं के रंग (Colour of Objects)
◆ जब प्रकाश किरणें वस्तुओं पर आपतित होती हैं, तो वे उनसे परावर्तित होकर हमारी आँखों पर पड़ती हैं और वस्तुएँ हमें दिखायी देने लगती हैं। वस्तुएँ प्रकाश का कुछ भाग परावर्तित करती हैं तथा कुछ भाग अवशोषित (Absorb) भी करती हैं। प्रकाश का परावर्तित भाग ही वस्तुओं का रंग निर्धारित करता है। जैसे- जब हम किसी गुलाब के फूल को सफेद प्रकाश में देखते हैं, तो इसकी पंखुड़ियाँ लाल व पत्तियाँ हरी दिखायी देती हैं। पंखुड़ियाँ सफेद प्रकाश का लाल भाग परावर्तित करती हैं तथा हरे रंग की पत्तियाँ सफेद प्रकाश का हरा भाग परावर्तित करती हैं, शेष रंग अवशोषित हो जाते हैं। लेकिन यदि वही गुलाब का फूल हरे प्रकाश में देखा जाये, तो उसकी पत्तियाँ हरी दिखायी देगी, लेकिन पंखुड़ियाँ अब काली दिखायी देग। इस प्रकार कोई वस्तु जिस रंग की दिखायी देती है, वह उसको परावर्तित करती है तथा शेष रंगों को अवशोषित कर लेती है।
रंगों का मिश्रण (Mixing of Colours)
◆ नीले, हरे व लाल रंगों को परस्पर उपयुक्त मात्रा में मिलाकर अन्य रंग प्राप्त किये जा सकते
हैं तथा इनको बराबर-बराबर मात्रा में मिलने से श्वेत प्रकाश प्राप्त होते हैं। रंगों के मिश्रण के
आधार पर ये तीन तरह के होते हैं-
(i) प्राथमिक रंग (Primary Colour) : नीले, हरे व लाल रंगों को प्राथमिक रंग कहते हैं। रंगीन टेलीविजन में प्राथमिक रंग का उपयोग किया जाता है।
(ii) द्वितीयक रंग (Secondary Colour) : पीला, मैजेंटा और पीकॉक-ब्लू को द्वितीयक रंग कहते हैं। यह दो प्राथमिक रंगों को मिलाने से प्राप्त होता है। जैसे–
लाल + नीला → मैजेंटा, हरा + नीला → पीकॉक-ब्लू, लाल + हरा → पीला
(iii) पूरक रंग (Complementry Colours) : जब दो रंग परस्पर मिलाने से सफेद प्रकाश उत्पन्न करते हैं तो उन्हें पूरक रंग कहते हैं। जैसे–
लाल.+पीकॉक-ब्लू → सफेद, नीला + पीला → सफेद, हरा + मैजेंटा → सफेद लाल + हरा + नीला→ सफेद
प्रकाश तरंगों का व्यतिकरण (Interference of Light Waves)
◆ प्रकाश तरंगों के व्यतिकरण का सिद्धान्त प्रकाश के ‘तरंग-प्रकृति’ की पुष्टि करता है। सर्वप्रथम 1802 ई. में ‘थामस यंग’ ने प्रकाश के व्यतिकरण को प्रयोगात्मक रूप में दर्शाया। जब समान आवृत्ति व समान आयाम की दो प्रकाश तरंगें जो मूलत: एक ही प्रकाश स्रोत से एक ही दिशा में संचारित होती है, तो माध्यम के कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश की तीव्रता अधिकतम व कुछ
बिन्दुओं पर तीव्रता न्यूनतम या शून्य पायी जाती है अर्थात् कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश अधिकतम होता है व कुछ बिन्दुओं पर अंधेरा होता है। इस घटना को ही प्रकाश तरंगों का व्यतिकरण कहते हैं। व्यतिकरण दो प्रकार के होते हैं-
(i) संपोषी व्यतिकरण (Constructive Interference)
(ii) विनाशी व्यतिकरण (Destructive Interference)
◆ संपोषी व्यतिकरण : जिन बिन्दुओं पर प्रकाश की तीव्रता अधिकतम होती है, उन बिन्दुओं पर हुए व्यतिकरण को संपोषी व्यतिकरण कहा जाता है।
◆ विनाशी व्यतिकरण : जिन बिन्दुओं पर प्रकाश की तीव्रता न्यूनतम होती है, उन बिन्दुओं पर हुए व्यतिकरण को विनाशी व्यतिकरण कहते है।
◆ दो स्वतंत्र प्रकाश स्रोतों से निकली प्रकाश तरंगों में व्यतिकरण की घटना नहीं पायी जाती है।
प्रकाश के व्यतिकरण से सम्बद्ध घटनाएँ
(i) जल की सतह पर फैली हुई मिट्टी तेल की परत का सूर्य के प्रकाश में रंगीन दिखायी देना।
(ii) साबुन के बुलबुलों का रंगीन दिखायी देना।
प्रकाश तरंगों का ध्रुवण (Polarisation of Waves of Light)
ध्रुवण प्रकाश सम्बन्धी ऐसी घटना है, जो अनुदैर्ध्य तरंग (Longitudinal Wave) व अनुप्रस्थ तरंग (Transverse Wave) में अंतर स्पष्ट करती है। अनुदैर्ध्य तरंग में ध्रुवण की घटना नहीं होती, जबकि अनुप्रस्थ तरंग में ध्रुवण की घटना होती है। यदि प्रकाश तरंग के कंपन प्रकाश संचरण की दिशा के लम्बवत् तल में एक ही दिशा में हो, प्रत्येक दिशा में समान न हो, तो इस प्रकाश को समतल भूवित प्रकाश (Polarised Light) कहते हैं। प्रकाश सम्बन्धी यह घटना ध्रुवण कहलाती है। साधारण प्रकाश
में विद्युत क्षेत्र के कंपन प्रकाश संचरण की दिशा में लम्बवत् तल में प्रत्येक दिशा में समान रूप से होते हैं, ऐसे प्रकाश को अध्रुवित प्रकाश (Unpolarised Light) कहते हैं। प्रकाश स्रोतों, जैसे- विद्युत बल्ब, मोमबत्ती, ट्यूब लाइट आदि से उत्सर्जित प्रकाश अवित प्रकाश होते हैं।
◆ प्रकाश तरंगों का प्रकाशकीय प्रभाव केवल विद्युत क्षेत्र के कारण होता है।
मानव नेत्र (Human Eye)
◆ नेत्र के सामने वह निकटतम दूरी जहाँ पर रखी वस्तु नेत्र को स्पष्ट दिखायी देती है, नेत्र की स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी कहलाती है। सामान्य आँख के लिए यह दूरी 25 सेंटीमीटर होती है। इस दूरी को आँख का निकट बिन्दु (Near Point) की कहते हैं।
दृष्टि दोष (Defects of Vision)
◆ मनुष्य की आँख में दृष्टि सम्बन्धी दोष निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
(i) निकट दृष्टि दोष (Myopia) : इस रोग से पीड़ित व्यक्ति अपने पास की वस्तुओं को स्पष्ट देख लेना है, लेकिन एक निश्चित दूरी से अधिक दूरी पर रखी वस्तुओं को स्पष्ट नहीं देख पाता है।
कारण:
(a) लेंस की गोलाई बढ़ जाती है।
(b) लेंस की फोकस दूरी घट जाती है।
(c) लेंस की क्षमता बढ़ जाती है।
इस दृष्टि दोष में वस्तु का प्रतिविम्ब रेटिना पर न बनकर रेटिना के आगे बन जाता है।
◆ रोग का निदान : निकट दृष्टि दोष के निवारण के लिए उपयुक्त फोकस दूरी के अवतल लेंस (Cancave Lens) का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि यह लेंस अपसारी (Divergent) प्रकृति का होने के कारण किरणों को फैलाकर रेटिना पर केन्द्रित कर देता है।
(ii) दूर दृष्टि दोष (Hypermetropia) : इस रोग से पीड़ित व्यक्ति दूर की वस्तु को तो स्पष्ट देख लेता है, किन्तु पास की वस्तुएँ स्पष्ट नहीं देख पाता है।
कारण:
(a) लेंस की गोलाई कम हो जाती है।
(b) लेंस की फोकस दूरी बढ़ जाती है।
(c) लेंस की क्षमता घट जाती है।
इस दृष्टि दोष में निकट की वस्तु का प्रतिविम्ब रेटिना के पीछे बनता है।
◆ रोग का निदान : दूर दृष्टि दोष के निवारण के लिए व्यक्ति के चश्मे में उत्तल लेंस (Convex Lens) का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि यह अभिसारी (Convergent) प्रकृति का होने के कारण किरणों को सिकोड़कर पुनः रेटिना पर ला देता है।
(iii) जरा दृष्टि दोष (Prebyopia) : वृद्धावस्था के कारण आँख की सामंजस्य क्षमता घट जाती है या समाप्त हो जाती है, जिसके कारण व्यक्ति न तो दूर की वस्तु और न ही निकट की वस्तु देख पाता है।
◆ रोग का निदान : इस दृष्टि के दोष के निवारण के लिए द्विफोकसी लेंस (Bifocal Lens) या उभयावत्तल लेंस (Biconcave Lens) का उपयोग किया जाता है।
(iv) दृष्टि वैषम्य/अबिन्नुकता (Astigmatism) : इसमें नेत्र क्षैतिज दिशा में ठीक देख पाता है, परन्तु उर्ध्व दिशा में नहीं देख पाता है। इसके निवारण के लिए बेलनाकार लेंस (Cylindrical Lens) का प्रयोग किया जाता है।
कारण:
(a) रेटिना की शंकु (Cones) कोशिका से रंग का एवं छड़ (Rods) कोशिका से प्रकाश की तीव्रता का आभास होता है।
(b) जब आँख में धूल जाती है तो उसका नेत्र श्लेष्मता (Conjunctiva) अंग सूज जाता है और लाल हो जाता है।
(c) आँख के रंग से मतलब आइरिस के रंग से होता है।
सूक्ष्मदर्शी (Microscope)
सूक्ष्मदर्शी मुख्यतः दो प्रकार के होते है-
1. सरल सूक्ष्मदर्शी (Simple Microscope)
यह एक ऐसा यंत्र होता है, जिसकी सहायता से हम अत्यंत सूक्ष्म चीज को देखते हैं। इस सूक्ष्मदर्शी में छोटी फोकस दूरी का एक उत्तल लेंस होता है। इस लेंस को आवर्धक (Magnifying) लेंस भी कहते हैं। इस सूक्ष्मदर्शी में वस्तु का आकार वस्तु द्वारा नेत्र पर बनाये गये दर्शन कोण पर निर्भर करता है। दर्शन कोण जितना छोटा होता है, वस्तु उतनी ही छोटी दिखायी पड़ती है। इस सूक्ष्मदर्शी का उपयोग स्केल (Scale) के बने छोटे-छोटे खानों के बीच की दूरी पढ़ने, फिंगरप्रिंट की जाँच करने, सूक्ष्म
जीवाणुओं को देखने आदि के काम आता है।
2. संयुक्त सूक्ष्मदर्शी (Compound Microcope)
इससे हम वस्तुओं के आकार को लगभग दस गुना बड़ा करके देख सकते हैं। इस सूक्ष्मदर्शी में दो उत्तल लेंस होते हैं। इनमें से एक को अभिदृश्यक लेंस (Objective Lens) व दूसरे को अभिनेत्र लेंस (Eye Lens) कहते हैं। जो लेंस वस्तु की ओर होता है, उसे अभिदृश्यक लेंस (Objective Lens) और जो आँख के समीप होता है, उसे अभिनेत्र लेंस (Eye Lens) कहते हैं।
◆ अभिदृश्यक लेंस का द्वारक (Aperture) अभिनेत्र लेंस की अपेक्षा छोटा होता है।
◆ नेत्रिका तथा अभिदृश्यक में जितनी ही कम फोकस दूरी के लेंसों का उपयोग होता है, उसकी
आवर्धन क्षमता उतनी ही अधिक होती है।
◆ इस सूक्ष्मदर्शी का उपयोग प्रयोगशालाओं में सूक्ष्म जंतुओं, वनस्पतियों आदि के आकार को बड़ा करके देखने में होता है। इसके द्वारा खून तथा बलगम आदि की भी जाँच की जाती है।
दूरदर्शी (Telescope)
◆ इसमें दो उत्तल लेंस होते हैं- एक को अभिदृश्यक (Objective) व दूसरे को नेत्रिका (Eye Piece) कहते हैं। अभिदृश्यक की फोकस दूरी नेत्रिका से अधिक होती है।
◆ अभिदृश्यक लेंस अधिक द्वारक (Aperture) का होता है, जिससे यह दूर से आने वाले प्रकाश की अधिक मात्रा को एकत्रित करता है।
◆ अभिदृश्यक लेंस एक बेलनाकार नली के एक किनारे पर लगा होता है। नेत्रिका लेंस भी दूसरी बेलनाकार नली के एक किनारे पर लगा होता है।
◆ दूरदर्शी का उपयोग आकाशीय पिंडों, जैसे- चन्द्रमा, तारे व पृथ्वी की सतह पर दूर स्थित वस्तुओं को देखने में किया जाता है।