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प्रमुख जनजातीय आंदोलन और विद्रोह

प्रमुख जनजातीय आंदोलन और विद्रोह

18वीं और 19वीं शताब्दियों में भारत के विभित्र भागों में अनेक आदिवासी विद्रोह हुए। इनमें प्रमुख हैं-चुआर विद्रोह, पहाड़िया विद्रोह (तिलका माँझी का विद्रोह), खेरवार विद्रोह, कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह तथा बिरसा मुंडा का विद्रोह। 20वी शताब्दी में टाना भगत आंदोलन हुआ। झारखंड के आदिवासियों के ही समान भारत के अन्य भागों में भी आदिवासी आंदोलन हुए, जैसे असम में खासी विद्रोह तथा मध्य भारत में भीलों एवं बस्तर के आदिवासियों का विद्रोह, उड़ीसा में कंध विद्रोह इत्यादि। यहाँ कुछ विद्रोहों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।

प्रमुख जनजातीय आंदोलन और विद्रोह

1. चुआर विद्रोह
2. पहाड़िया विद्रोह (तिलका माँझी का विद्रोह)
3. तमार विद्रोह
4. चेरो विद्रोह
5. हो विद्रोह
6. कोल विद्रोह
7. भूमिज विद्रोह
8. संथाल विद्रोह (संथाल-हूल)
9. खेरवाड़ आंदोलन
10. सरदार आंदोलन
11. बिरसा मुंडा का विद्रोह
12. टाना भगत आंदोलन
13. कंध विद्रोह
14. आंध्र प्रदेश का विद्रोह
15. बस्तर के आदिवासियों का विद्रोह
प्रमुख जनजातीय आंदोलन और विद्रोह

1. चुआर विद्रोह

चुआर जनजाति तत्कालीन बंगाल के मिदनापुर, बाँकुड़ा तथा मानभूम क्षेत्र में बसी हुई थी। चुआर विद्रोह जनजातियों का पहला
व्यापक विद्रोह था। विभिन्न चरणों में 1768-69 से 1805 तक यह विद्रोह चला। अकाल एवं बढ़े हुए लगान दर के विरुद्ध यह
विद्रोह हुआ। मिदनापुर स्थित करणगढ़ की रानी सिरोमणि के नेतृत्व में चुआरों ने विद्रोह किया। विद्रोह लंबा खिंचा। 1799 में
रानी को गिरफ्तार कर कलकता भेज दिया गया, परंतु इससे विद्रोह की अग्नि शांत नहीं हुई। राजा जगन्नाथ के नेतृत्व में भी
चुआरों ने व्यापक विद्रोह किया। विद्रोह को दबाने के लिए सरकार को बलप्रयोग करना पड़ा। आगे चलकर चुआरों ने गंगानारायण के विद्रोह में भी भाग लिया। बार-बार होनेवाले विद्रोहों से बाध्य होकर और शांति-व्यवस्था की स्थापना के लिए 1805 में कंपनी सरकार ने जमींदारी घटवाली पुलिस-व्यवस्था स्थापित की। दारोगा के रूप में गैर-आदिवासियों के स्थान पर स्थानीय लोगों को नियुक्त किया गया। जंगल महाल जिला भी बनाया गया। परिणामस्वरूप 1830 तक मानभूम क्षेत्र में शांति बनी रही।

2. पहाड़िया विद्रोह (तिलका माँझी का विद्रोह)

पहाड़िया युद्धप्रिय जनजाति थी। यह भागलपुर के राजमहल की पहाड़ियों में बसी हुई थी। अँगरेजों की राजस्व-व्यवस्था और
लगान वसूली की नीति के कारण पहाड़ियों की आर्थिक व्यवस्था नष्ट हो गई। अतः, ये विद्रोह पर आमादा हो गए। यह विद्रोह
तिलका माँझी के नेतृत्व में हुआ। यह भारत का पहला संथाली (तत्कालीन संथाल परगना क्षेत्र का) विद्रोह था। झारखंड के
शहीदों में तिलका माँझी को प्रथम शहीद होने का गौरव प्राप्त है। तिलका माँझी का जन्म 1750 में सुलतानगंज (भागलपुर, बिहार) के तिलकपुर महीसी ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम सद्रा मुर्मु था। तिलका माँझी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उन्हें तीर चलाने में महारत हासिल थी। वे आदिवासियों की दयनीय स्थिति देखकर खिन्न रहा करते थे। वे कंपनी शासन और जमीदारी शोषण के प्रबल विरोधी थे। उनके विचारों से प्रभावित होकर अनेक युवक इनके साथ हो लिए। इन लोगों ने
सरकार-जमींदार विरोधी एक संगठन बना लिया एवं तिलका माँझी को अपना नेता एवं नायक चुन लिया। राजमहल, पाकुड़,
गोट्ठा एवं दुमका के निकटवर्ती क्षेत्र में बड़ी संख्या में पहाड़िया जनजाति के लोग रहते थे। कृषि इनका मुख्य व्यवसाय था। कुछ
लोग अर्धसरकारी सेना में भी नियुक्त किए गए थे। 1770 में बंगाल-बिहार में भीषण दुर्भिक्ष पड़ा जिससे पहाड़िया भी बुरी
तरह प्रभावित हुए। इसके बावजूद जबर्दस्ती मालगुजारी और जमीन बेदखली की प्रक्रिया चलती रही। इससे जमींदारों और
लगान वसूलनेवालों के विरुद्ध प्रतिक्रिया बढ़ी। इस स्थिति में तिलका माँझी और उनका संगठन आगे बढ़ा। जमींदारी
अत्याचारों का विरोध किया जाने लगा। जमींदार के मुंशी और लठैतों को अत्याचार करने के लिए दंडित किया जाने लगा।
इससे जमींदारों में भय व्याप्त गया। दूसरी ओर तिलका माँझी की लोकप्रियता बढ़ती गई। उन्होंने तिलापुर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाकर सशस्त्र संघर्ष आरंभ कर दिया। सरकार अब तक निष्क्रिय बनी हुई थी, परंतु जमींदारों की
शिकायत और मालगुजारी वसूली में होनेवाले व्यवधान को देखकर उसे इस ओर ध्यान देना पड़ा। 1778 में ऑगस्टस
क्लीवलैंड, जो झिलमीली साहव के नाम से विख्यात था, को भागलपुर जिला का कलक्टर नियुक्त किया गया। क्लीवलैंड ने
भागलपुर आने के पहले राजमहल की पहाड़िया जनजाति के बीच काम किया था। वह जानता था कि पहाड़िया स्वतंत्र और
उग्र प्रवृत्ति के हैं। अतः, इनपर नियंत्रण करने के लिए उसने कूटनीति एवं सैनिक बल दोनों का सहारा लिया। उसने बाहर से
संथालों को बुलाकर बसाना आरंभ किया तथा सुधार योजना भी बनाई जिसे लागू नहीं किया जा सका। उसने स्थानीय लोगों,
जिनमें पहाड़िया भी थे, की अर्धसरकारी सेना का गठन किया। इन सारी तैयारियों के बाद क्लीवलैंड ने तिलका माँझी को
पकड़ने के लिए पहाड़िया पलटन के साथ अपने अधिकारियों को भेजा। इनमें एक अधिकारी मिटफोर्ड था। जब वह आगे बढ़ रहा था तो उस पर तीरों और गुलेलों से आक्रमण किया गया। अधिकांश पहाड़िया पलटन के सैनिक तिलका माँझी के भय से
मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। अनेक सैनिक घायल हुए। पलटन की बंदूकें भी तिलका माँझी और उसके लड़ाकू योद्धाओं के सामने व्यर्थ हो गई। स्वयं मिटफोर्ड भी तीर से घायल होकर गिर पड़ा। उसकी पूरी सेना तितर-बितर हो गई। तिलका माँझी को पकड़ने का प्रयास विफल हो गया।
क्लीवलैंड ने अब नई योजना बनाई। उसने अर्धसरकारी पलटन के स्थान पर बंदूकचियों को तिलका माँझी को पकड़ने के
लिए भेजा। तिलका माँझी के गुप्तचर क्लीवलैंड की गतिविधियों पर नजर रखे हुए थे। तिलका माँझी ने भी पूरी तैयारी कर ली।
जैसे ही कंपनी की सेना जंगलों को पार कर बड़े घास के मैदान से गुजरने लगी सहसा उसपर तीरों की बौछार आरंभ हो गई। तीरों की मार इतनी तीव्र थी कि उनके सामने बंदूकधारी भी निःसहाय हो गए। सैनिकों की गोलियाँ समाप्त होने पर तीरों से भयंकर हमला किया गया। अनेक सैनिक मारे गए, कुछ घायल हुए तथा बाकी मैदान छोड़ कर भाग खड़े हुए। क्लीवलैंड का यह प्रयास भी विफल हो गया।
इधर अँगरेजों को लगातार शिकस्त देने से तिलका माँझी का सम्मान एवं गौरव बढ़ गया। आदिवासी जनमानस में तिलका
माँझी भगवान के रूप में देखे जाने लगे। दूसरी ओर जमींदार अब और भयभीत हो गए। वे क्लीवलैंड पर तिलका माँझी को
पकड़ने के लिए दबाव डालने लगे। स्वयं तिलका माँझी को भी अँगरेजों से घृणा थी। क्लीवलैंड तो उनका व्यक्तिगत दुश्मन बन
गया था, क्योंकि वह तिलका माँझी को जिंदा पकड़ना चाहता था या मुठभेड़ में मार देना चाहता था। अब तिलका माँझी ने
क्लीवलैंड को मारकर अँगरेजों में दहशत फैलाने की योजना बनाई। उसने क्लीवलैंड की दिनचर्या के अनुसार अपनी तैयारी
की। 13 जनवरी 1784 को तिलका माँझी सड़क के किनारे एक ताड़ के वृक्ष पर चढ़कर तीर-धनुष के साथ छिप गए। इसी बीच जब क्लीवलैंड घोड़ा पर सवार होकर उनके सामने से गुजरा तो तिलका माँझी ने तीर मारकर उसे घायल कर दिया। वह घोड़ा से गिर पड़ा तथा उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। तिलका माँझी पेड़ से उतरकर अपने साथियों के पास चले गए। वे पहले आदिवासी नेता थे जिन्होंने अँगरेज कलक्टर पर आक्रमण करने की हिम्मत दिखाई थी।
कलक्टर क्लीवलैंड की हत्या से अँगरेजी सरकार बौखला उठी। आयरकूट नामक अंगरेज पदाधिकारी ने घटना के बाद कुछ
आदिवासियों की सहायता से तिलका माँझी के ठिकाना पर रात्रि में छापा मारा। अचानक किए गए हमले में तिलका माँझी के कुछ साथी पकड़ में आ गए, परंतु वे स्वयं निकल भागे। उन्होंने सुलतानगंज की पहाड़ियों में शरण ली। उन्होंने यहाँ पहाड़ियों को पुनसंगठित किया एवं उन्हें गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया। सरकार भी उनके पीछे लगी हुई थी। एक आदिवासी सरदार
जौराह, जो क्लीवलैंड की अर्धसरकारी पलटन में सरदार था, ने धोखे से तिलका माँझी को गिरफ्तार कर भागलपुर के अधिकारियों को सौंप दिया। तिलका माँझी को अपमानित करने के लिए तथा जनता की निगाहों में गिराने के लिए उन्हें चार घोड़ों से रस्सी से बाँध कर भीड़ के सामने घसीटा गया। बाद में लहूलुहान तिलका माँझी को भागलपुर में बीच चौराहा पर बरगद के पेड़ की डाली में टाँगकर सरेआम फाँसी दे दी गई। यह घटना क्लीवलैंड की हत्या के कुछ महीनों बाद 1784 में घटी। तिलका माँझी की शहादत 1855-56 के संथाल-हूल का प्रेरणास्रोत बन गया। उनकी कुर्बानी जनजातीय जनमानस को सदैव आंदोलित करती रही। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात जिस स्थान पर तिलका माँझी को फाँसी पर लटकाया गया था वह स्थान तिलका माँझी चौक के नाम से विख्यात हुआ। वहाँ उनकी एक मूर्ति भी स्थापित की गई जो उनकी शहादत की याद दिलाती है।

3. तमार विद्रोह

यह विद्रोह 1789 में छोटानागपुर की उराँव जनजाति ने किया था। इसका मुख्य कारण जमींदारी शोषण था। यह विद्रोह करीब 1794 तक चला। यद्यपि कंपनी सरकार ने इसे जमींदारों की सहायता से कुचल दिया तथापि विद्रोह की ज्वाला शांत नहीं हुई। उराँवों ने आगे चलकर मुंडाओं और संथालों के साथ मिलकर विद्रोह किया। यद्यपि सरकार ने छोटानागपुर में शांति-व्यवस्था की स्थापना के लिए जमींदारी पुलिस बल की स्थापना की तथापि इससे विशेष लाभ नहीं हुआ।

4. चेरो विद्रोह

चेरो जनजाति तत्कालीन बिहार के पलामू क्षेत्र में निवास करती थी। यह विद्रोह चेरो राजा के अत्याचारों के खिलाफ हुआ।
1722-84 के मध्य चेरो राजवंश में सत्ता-संघर्ष चलता रहा। इसका खामियाजा भी गरीब किसानों को भुगतना पड़ा। 1783 में
चूड़ामन राय राजा बना। वह अँगरेजी सरकार का समर्थक था। उसकी नीतियों के विरुद्ध 1800 में भूषण सिंह ने चेरो लोगों को
नेतृत्व प्रदान किया एवं खुला विद्रोह कर दिया। विद्रोह को दबाने में चेरो राजा असमर्थ रहा। अतः, उसने सरकारी सहायता की
माँग की। सरकार ने कर्नल जोंस के अधीन सेना भेजी। दो वर्षों के संघर्ष के बाद सेना ने विद्रोह को कुचल दिया। 1802 में भूषण सिंह को फाँसी पर लटका दिया गया।

5. हो विद्रोह

1820-21 में छोटानागपुर के सिंहभूम क्षेत्र में यह विद्रोह हुआ। यह विद्रोह वहाँ के तत्कालीन राजा जगन्नाथ के विरुद्ध हुआ।
राजा अँगरेजों के संरक्षण में जनजातीय लोगों का शोषण करता था। उसकी नीतियों के विरुद्ध व्यापक विद्रोह हुआ। यह विद्रोह
लंबे समय तक चला। सरकार ने राजा की सहायता के लिए सेना भेजी। हो लोगों ने सेना का डटकर मुकाबला किया, परंतु वे सेना के सामने टिक नहीं पाए। आगे चलकर मुंडा विद्रोह में हो भी शरीक हो गए।

6. कोल विद्रोह

कोल विद्रोह (1831-32) आदिवासियों का जनआंदोलन था। इस आंदोलन का आरंभ दिकू’ के विरुद्ध हुआ, परंतु आगे चलकर
यह राजविरोधी आंदोलन बन गया। यह आंदोलन भी छोटानागपुर में हुआ। इसमें मुंडा, उराँव एवं अन्य जनजातियों ने भाग लिया। आंदोलन के कारण-पहाड़ी क्षेत्रों में आदिवासी सदियों से शांतिपूर्वक रहते आ रहे थे। इनका जीवन जमीन एवं जंगल पर
निर्भर था। जंगल और जमीन पर वे अपना नैसर्गिक अधिकार मानते थे। मुगल काल से कोलों की जीवनशैली में परिवर्तन आने
लगा। इस समय दिकू (बाहरी लोग) के रूप में व्यापारी और अन्य लोग आकर कोलों के इलाके में बसने लगे। इन बाहरी
लोगों ने आदिवासियों की जमीन पर कब्जा जमाना आरंभ किया। बंगाल में अँगरेजी शासन की स्थापना के साथ ही कोलों के
सामाजिक-आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आने लगा। स्थायी बंदोबस्ती के परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में नवोदित जमीदारों
(मानकी या महतो) एवं महाजनों का एक सशक्त वर्ग अपने कर्मचारियों एवं गुमाश्तों के साथ आकर बसने लगा। इन सब
लोगों ने मिलकर कोलों का शारीरिक एवं आर्थिक शोषण आरंभ किया। लगान के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की नाजायज वसूली
की जाने लगी। मालगुजारी नहीं चुकाने पर उनकी जमीन हड़प ली जाती तथा उनसे बेगार करवाई जाती। बाहरी लोगों ने
आदिवासियों की स्त्रियों की इज्जत लूटनी भी आरंभ कर दी। आदिवासियों द्वारा शिकायत किए जाने पर भी इनकी आवाज
कोई नहीं सुनता था। पुलिस और न्यायालय भी दिकुओ का ही साथ देती थी। फलतः, कोल आक्रोशित होकर विद्रोह के लिए
कटिबद्ध हो गए। विद्रोह का स्वरूप-1831 में सिंहभूम के सोनपुर परगना से कोलों का विद्रोह आरंभ हुआ। बगावत का तत्कालिक कारण था कुछ कोल महिलाओं का अपहरण। कोलों ने पुलिस से इस घटना की शिकायत की, परंतु उन्ने पुलिस से न्याय नहीं मिल सका। फलतः, कोलो ने विद्रोह आरंभ कर दिया। आरंभ में कोलो ने दिकुओ के पशु चुरा लिए एवं उन्हें परेशान करना आरंभ किया। जैसे-जैसे विद्रोह बढ़ता गया कोल उग्र होते गए। दिकुओं की हत्या की गई, उनके घरों में आग लगा दी गई एवं उनकी संपत्ति लूट ली गई। दिकुओं को आदिवासी क्षेत्रों से बाहर वापस जाने को कहा गया। समूचा आदिवासी क्षेत्र अशांत हो गया। हत्या एवं लूट-मार का आतंक व्याप्त गया। सिंहभूम, राँची, मानभूम और पलामू में भी यह विद्रोह फैल गया।
दूसरे चरण में आदिवासियों ने अंगरेजो को भी अपने क्रोध का निशाना बनाया। एक अँगरेज पदाधिकारी के अनुसार, कोलों
का उद्देश्य भारत में अँगरेजी सत्ता के केंद्र कलकत्ता (कोलकाता) पर अधिकार करना था। वास्तविकता ऐसी नहीं थी। कोल अपने आर्थिक शोषण के विरुद्ध विद्रोह कर रहे थे। परंतु, जब सरकारी तंत्र ने कोलों की सुरक्षा नहीं की तब उनका गुस्सा सरकार-विरोधी बन गया। सरकारी खजाना लूटा गया तथा आग लगाकर थाना-कचहरी नष्ट कर दिए गए। पुलिस-दारोगा
एवं चौकीदार की हत्या की गई तथा बचे हुए कर्मचारियों को भागने पर मजबूर किया गया। इसी प्रकार, स्थानीय राजाओं के
कर्मचारी भी कोलों के क्रोध के शिकार बने। उनकी हत्या की गई। सिखों एवं मुसलमानों के बागान एवं दुकान नष्ट कर दिए गए। बनियों और महाजनों का भी यही हाल हुआ। यहाँ तक कि हिंदू मंदिर एवं मूर्तियों को भी नष्ट कर दिया गया। कोल अपने
दुश्मनों की हत्या नृशंसतापूर्वक करते एवं मृतकों का अंतिम संस्कार भी नहीं करने देते। दिकू महिलाएँ भी कोलों के क्रोध से
नहीं बच सकी। अपनी जान एवं संपत्ति बचाने के लिए गैर-आदिवासियों ने कोलों को धन देकर उन्हें शांत करना चाहा। परंतु, इसमें वे सफल नहीं हो सके। ब्राह्मण, राजपूत जैसे उच्चवर्गीय हिंदू, जुलाहे, बनिए, कुर्मी, दुसाध, तेली एवं सिख कोलों के आतंक के सबसे बड़े शिकार बने। कोलों ने वैसे लोगों को छोड़ दिया जो उनकी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में सहायक
थे तथा विद्रोह में कोलों की सहायता करते थे, जैसे-लोहार, बढ़ई, ग्वाला इत्यादि। कोलों के निर्देश पर इन लोगो ने भी
विद्रोह में भाग लिया। विद्रोह के नेता-कोल विद्रोह किसी एक नेता के नेतृत्व में नहीं हुआ, बल्कि इसमें अनेक नेताओं का योगदान था। इनमें प्रमुख थे-बुद्ध भगत, जोआ भगत, केशो भगत, नरेंद्रशाह मानकी और मदरा महतो। कोलों को अपने संघर्ष में अन्य जनजातियों-चेरो, ओरॉव और मुंडा का भी सहयोग और समर्थन मिला।
विद्रोह का दमन-आरंभ में स्थानीय जमीदारों एवं दिकुओं ने कोल विद्रोह को अपनी शक्ति के बल पर दबाने का प्रयास
किया। परंतु, इस प्रयास में वे विफल रहे। इसलिए, इन लोगों ने विद्रोह को दबाने के लिए सरकार से अनुरोध किया। सरकारी
कर्मचारियों की विफलता से सरकार स्वयं चिंतित थी। इसलिए, उसने विद्रोह को शक्ति के बल पर दबाने का निश्चय किया।
कोलो के दमन के लिए दानापुर (पटना) छावनी से सेना भेजी गई। कोलो ने छापामार युद्ध द्वारा सेना को परेशान अवश्य किया। परंतु, शक्तिशाली सेना के सामने तीर-धनुष के साथ वे टिक नहीं पाए। सेना ने कोल और उनके नेताओं को नृशंसतापूर्वक मार डाला। बचे लोगों को बंदी बना लिया गया। बाद में उन पर मुकदमा चलाकर उन्हें दंडित किया गया। इस प्रकार, 1832 की गर्मियों तक कोल विद्रोह कुचल दिया गया। विद्रोह का महत्त्व-कोलों ने पहली बार संगठित होकर सरकार
और दिकुओं के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह किया। आगे चलकर कोल विद्रोह अन्य आदिवासियों के लिए प्रेरणा बन गया। शीघ्र ही इस क्षेत्र में संथालों का व्यापक विद्रोह हुआ। आदिवासियों ने असमानता और शोषण के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा। सरकार ने भी कोलों की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया। कोलों के लिए ‘शोषणविहीन शासन’ की स्थापना के लिए साउथ-वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी (South-West Frontier Agency) स्थापित की गई। न्याय-प्रक्रिया को सरल बनाया गया। आगे चलकर कोल विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का प्रेरणास्रोत बन गया।

7. भूमिज विद्रोह

भूमिज विद्रोह या गंगा नारायण का हंगामा 1832 में बीरभूम क्षेत्र में हुआ। यह विद्रोह वहाँ के तत्कालीन जमींदार गंगा नारायण के नेतृत्व में हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि कंपनी सरकार ने जमींदारों पर इतना अधिक राजस्व का बोझ डाल दिया था कि उसे पूरा करना असंभव था। राजस्व चुकाने के लिए वे महाजनों के कर्जदार बन गए थे। अतः, गंगा नारायण ने दीवान और सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इसमें उन्हें जनसमर्थन भी मिला। उनकी सहायता कोल एवं हो जनजाति के लोग कर रहे थे। गंगा नारायण ने राँची और डोरंडा के सरकारी खजाने को लूट लिया एवं जेल का फाटक खोलकर कैदियों को आजाद कर दिया। अँगरेजी सेना से भी उनका संघर्ष हुआ। परंतु, खरसावाँ के अँगरेज-भक्त जमींदार से संघर्ष करते हुए वे मारे गए। गंगा नारायण की मृत्यु के बाद विद्रोह समाप्त हो गया। अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए गंगा नारायण अपनी मृत्यु तक संघर्ष करते रहे।

8. संथाल विद्रोह (संथाल-हल)

कोलों के बाद संथालों का व्यापक विद्रोह हुआ। अँगरेजी सरकार के विरुद्ध 1857 के पूर्व होनेवाला यह सबसे बड़ा विद्रोह था। इस विद्रोह का प्रसार छोटानागपुर, सिंहभूम, संथाल परगना तथा बीरभूम और बाँकुड़ा जिलों तक था। संथाल इसे हल अथवा
मुक्ति संग्राम मानते थे। विद्रोह के कारण-संथाल विद्रोह और अन्य जनजातीय विद्रोहों के कारण में बहुत कुछ समानता थी। संथाल जनजातियों की तत्कालीन बिहार-बंगाल में बहुत बड़ी संख्या थी। ये मानभूम, सिंहभूम, हजारीबाग, मिदनापुर एवं बाँकुड़ा में बसे हुए थे। इनका जीवन जंगल और जमीन पर टिका हुआ था। स्थायी बंदोबस्ती के बाद संथालों के हाथ से उनकी जमीन निकलती गई। अतः, संथाल अपना इलाका छोड़कर राजमहल की पहाड़ियों में चले गए। वहाँ जंगलो की सफाई कर उसे कृषियोग्य बनाया और वही खेती आरंभ की। संथालों का यह नया इलाका दामिन-ई-कोह (भागलपुर से राजमहल के बीच का क्षेत्र) के नाम से विख्यात हुआ। सरकार ने नए इलाके में भी लगान वसूली की व्यवस्था लागू की। इसके साथ ही जमींदारों, महाजनों, साहूकारों और सरकारी कर्मचारियों का प्रभाव बढ़ने लगा। संथाल इनके शोषण और अत्याचार के शिकार बन गए। लगान एवं अवबाव इतना अधिक था कि गरीब संथाल उन्हें चुका नहीं सके। मालगुजारी चुकाने के लिए उन्हें महाजनों और सूदखोरों से ऊँची दर पर कर्ज लेना पड़ा। महाजन दिए गए कर्ज पर 50-500 प्रतिशत सूद वसूलते थे। ऐसी स्थिति में जमीदारों के अतिरिक्त महाजन और सूदखारों ने भी संथालों के पशुओं, घर और जमीन पर अधिकार कर लिया। फलतः, संथाल कृषक से मजदूर बन गए। उनमें से अनेक महाजन-जमींदार के गुलाम बन कर उनकी सेवा करने को बाध्य कर दिए गए। इलाके में जब रेलवे लाइन का विस्तार होने लगा (भागलपुर-वर्द्धमान रेल परियोजना) तब ठेकेदारों ने भी उनका शारीरिक और आर्थिक शोषण किया। सरकारी तंत्र, पुलिस और थानेदार भी जमींदारों-महाजनों का ही साथ देते और स्वयं भी उनका शोषण करते थे। ऐसी स्थिति में संथालों के समक्ष संघर्ष करने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं था। विद्रोह का स्वरूप एवं नेतृत्व-1855 तक संथालों की सहनशक्ति जवाब दे गई। उन लोगों ने विद्रोह का मन बना लिया। चार संथाल भाइयों-सिद्धू, कान्हू, चाँद और भैरव ने संथालों को संगठित किया। ये भगनाडीह गाँव के चुलू संथाल के पुत्र थे। संथालों को संगठित करने के लिए उनकी धार्मिक भावना को उभारा गया। सिद्धू ने अपने आपको दैवी पुरुष बताया और संथालों के भगवान ठाकुर का अवतार घोषित किया। 30 जून 1855 को सिद्धू और कान्हू ने भगनाडीह ग्राम में संथालों की एक आमसभा बुलाई। इसमें करीब दस हजार संथालों ने भाग लिया। यही ठाकुर का आदेश सुनाया गया। ठाकुर ने जमींदारी, महाजनी और सरकारी अत्याचारों का डटकर विरोध करने और अँगरेजी शासन को समाप्त करने का निर्देश दिया। ठाकुर का संदेश गाँव-गाँव में पहुँचाया गया। जुलाई 1855 में संथालों का विद्रोह विधिवत आरंभ हो गया। आरंभ में संथाल विद्रोह सरकार-विरोधी नहीं था। परंतु, जब संथालों ने देखा कि सरकार भी जमींदारों एवं महाजनों का ही साथ दे रही है तो वे सरकार-विरोधी भी बन गए। संथालों ने अत्याचारी दारोगा महेश लाल की हत्या कर दी। बाजार एवं दुकान लूट लिए गए तथा पुलिस थानों में आग लगा दी गई। भागलपुर और पूर्णिया से घोषणापत्र निकालकर संथालों को आदेश दिया गया कि वे अपने-अपने क्षेत्र में दिकुओं के अत्याचार को समाप्त करें। इसके बाद स्थान-स्थान पर सरकारी दफ्तरों, कर्मचारियों एवं महाजनों पर आक्रमण किए गए। भागलपुर और राजमहल के बीच रेल, डाक और तार सेवा भंग कर दी गई। इस प्रक्रिया में अनेक निरपराध लोग भी संथालों के कोध के शिकार बने। संथालों ने राजमहल की पहाड़ियों से लेकर बीरभूम जिला तक अँगरेजी शासन की समाप्ति की घोषणा कर दी और अपना स्वतंत्र शासन स्थापित किया। जहाँ-जहाँ भी संथाल थे वहाँ यही स्थिति बन गई। सरकारी प्रतिक्रिया और दमन-आरंभ में सरकार ने संथाल विद्रोह की गंभीरता नहीं समझी। परंतु, जैसे-जैसे विद्रोह बढ़ने लगा सरकार घबड़ा गई। उसने संथाल विद्रोह के दमन का निश्चय किया। सिद्धू-कान्हू को गिरफ्तार करने के लिए सरकार ने दस हजार रुपये के इनाम की घोषणा की। कलकत्ता से मेजर बरों के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी संथालों के दमन के लिए भेजी गई। पूर्णिया से सेना की दूसरी टुकड़ी भेजी गई। सेना ने क्रूरतापूर्वक संथालों का दमन आरंभ किया। संथालों ने भी अपने तीर-धनुषों एवं छापामार युद्ध-प्रणाली द्वारा सेना का वीरतापूर्वक सामना किया। परंतु, वे अधिक समय तक सेना को नहीं रोक सके। बड़ी संख्या में संथाल मारे गए। विलियम हंटर के अनुसार, ‘करीब बीस हजार संथाल इस संघर्ष में मारे गए’। गाँव के गाँव जलाकर राख कर दिए गए। इसके पूर्व जनजातियों का इतनी बड़ी संख्या में नरसंहार नहीं हुआ था। सिद्धू और कान्हू गिरफ्तार कर मार डाले गए। बचे हुए अन्य संथाल नेताओं का भी यही हाल हुआ। नेताओं की गिरफ्तारी से संथालों का मनोबल टूट गया तथा विद्रोह विफल हो गया।
संथाल विद्रोह का महत्त्व-संथाल-हूल विफल होकर भी निरर्थक नहीं हुआ। इसके दूरगामी परिणाम हुए। सरकार ने समझ लिया कि संथालों की उचित शिकायतों पर ध्यान दिए बिना उनपर शासन करना दुष्कर है। इसलिए, सरकार ने कुछ सुधार कार्य किए। संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (Santhal Pargana Tenancy Act) पारित कर संथालों की भूमि-व्यवस्था में सुधार किया गया। पुलिस और प्रशासन में भी सुधार किए गए। 1885 में पारित अधिनियम 37 द्वारा संथाल परगना जिला
बनाया गया एवं इसे बंगाल में प्रचलित कानूनों से अलग रखा गया (बहिर्गत क्षेत्र)। इस क्षेत्र को गवर्नर-जनरल के प्रत्यक्ष
शासन के अधीन रखा गया। नियमित पुलिस-व्यवस्था समाप्त कर दी गई। उनके स्थान पर पुलिस का कार्य परगनैत एवं गाँव
के मुखिया को सौंपा गया। इससे संथालों को कुछ राहत तो मिली। परंतु, उनकी समस्याओं का पूर्ण निराकरण नहीं हो सका। कुछ ही वर्षों बाद संथाल पुनः आदोलन पर आमादा हो गए। भागीरथ के नेतृत्व में संथालों ने 1874-75 में तथा 1880-81 में दुबिया गोसाई के नेतृत्व में एक बार पुनः आंदोलन किया। ये दोनों आंदोलन खेरवाड़ (संथालो का एक प्राचीन नाम) आंदोलन के नाम से विख्यात है। इन आंदोलनों का स्वरूप संथाल-हल से भिन्न था। यह पहले जैसा हिसक नहीं था। यद्यपि इन आंदोलनों में धर्म को मुख्य मुद्दा बनाया गया तथापि संथालों की सामाजिक-आर्थिक दुर्दशा एवं उनके निराकरण के उपायों की ओर भी ध्यान दिया गया।

9. खेरवाड़ आंदोलन

संथाल-हूल के बाद भी संथालों की स्थिति में विशेष परिवर्तन नहीं आया। उनकी स्थिति पहले जैसी ही हो गई। जमीदारी शोषण
बढ़ गया। अतः, संथाल पुनः संगठित होने लगे। उन्हें संगठित करने के लिए धर्म का सहारा लिया गया। खेरवाड़ आंदोलन
अहिंसक था। इसका उद्देश्य संथालों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाना तथा जमीदारी शोषण का विरोध करना था। 1861 से संथाल अपना विरोध प्रकट करने लगे। बढ़े हुए लगान की राशि और अपने मुखियाओं को अपदस्थ किए जाने से संथाल क्रुद्ध हो गए। संथालों के उग्ररूप को देखकर अनेक गैर-आदिवासी संथाल परगना से भाग गए। बंगाल के लेफ्टिनेंट
गवर्नर ने संथालों की समस्याओं की जाँच के लिए जाँच समिति गठित करने का निर्णय लिया। 1872 में संथाल परगना
बंदोवस्ती अधिनियम (Santhal Pargana Settlement Regulation, 1872) द्वारा जमीन-संबंधी विवाद दूर करने का प्रयास किया गया। किसानों को जमीन पर अधिकार दिया गया, उनकी छीनी गई जमीन वापस कर दी गई। इससे भी समस्या का
पूर्ण समाधान नहीं हुआ। फलतः, 1874-75 में संथाल नेता भागीरथ के नेतृत्व में व्यापक आंदोलन चला। उसने संथालों में
धार्मिक चेतना जगाकर उन्हें संगठित किया। वह संथालों के देवता और राजा के समान बन गया। संथाल उसे ही लगान देने लगे। सरकार ने उसके प्रभाव को कुचलने के लिए कड़ा कदम उठाया। भागीरथ और उसके सहयोगी गिरफ्तार कर लिए गए।
शांति-व्यवस्था के लिए संथाल परगना में सिपाही बहाल किए गए। भागीरथ के आंदोलन को दुबिया गोसाईं ने आगे बढ़ाया।
उसने संथालों के आचरण के नियम बनाए और उनका पालन करने को कहा जिससे वे दैवी प्रकोप से बच सकें। संथालों पर
उसका व्यापक प्रभाव पड़ा। 1881 की जनगणना का संथालों ने विरोध किया तथा लगानबंदी की। बाध्य होकर सरकार को
प्रशासनिक एवं भूमि सुधार-संबंधी अनेक नियम बनाने पड़े। जमीन-संबंधी विवादों को न्यायालयों के माध्यम से सुलझाने का
प्रयास किया गया। 1895 तक संथालों का आंदोलन समाप्तप्राय हो गया। खेरवाड़ आंदोलन द्वारा संथालों के सामाजिक-धार्मिक
जीवन में प्रविष्ट बुराइयों को भी समाप्त करने का प्रयास किया गया। संथालों ने अपने सूअर और मुर्गी मार डाले तथा शराब
पीना बंद कर दिया। वे अब तिलक लगाने लगे और जनेऊ धारण करने लगे। ईसाई धर्म स्वीकार करनेवाले संथाल इस आंदोलन से अलग रहे। खेरवाड़ आंदोलन एक ही साथ राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक आंदोलन बन गया।

10. सरदार आंदोलन

1857 के बाद यह आंदोलन छोटानागपुर में हुआ। इसमें मुंडा और उरोव जनजातियों तथा ईसाइयों ने बड़ी संख्या में भाग
लिया। आंदोलन में संलग्न वैसे सभी लोग सरदार कहे गए जिनलोगों ने आदिवासियों के परंपरागत जमीन-संबंधी अधिकारों
को जमीदारों से वापस दिलाने का प्रयास किया। आदिवासी जमीन पर अपना पैतृक अधिकार मानते थे। उनका मानना था कि राजा या दिकको लगान लेने अथवा जमीन से बेदखल करने का अधिकार नहीं है। अपने इन्ही अधिकारों की सुरक्षा के लिए
संथालो ने सरदार या सरदारी आंदोलन चलाया। सरदारों ने नारा दिया आधा काम, आधा दान, अर्थात जमीन के आधे भाग के
लिए बेगार और आधे के लिए लगान। यह आंदोलन मुख्यतः भूमि विवादों से जुड़ा हुआ था। यह अहिंसात्मक था, यद्यपि
कही-कही हिंसा भी हुई। यह आंदोलन राजविरोधी भी नहीं था। कुछ सरदारों ने आदिवासियों के राज्य की स्थापना अथवा
कम-से-कम प्रचलित स्थानीय राज को बदलने की मांग रखी। 1857 तक छोटानागपुर में ईसाई मिशनरियों का व्यापक
प्रभाव हो गया था। अनेक आदिवासियों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। मिशन की सहायता से वे जमींदारों द्वारा अधिगृहीत अपनी जमीन वापस लेने लगे। इससे अशांति व्याप्त हो गई। फलतः, सरकार ने 1860 में आदिवासियों की वंशानुगत जमीन (भुईनहारी) का सर्वेक्षण करवाया और आदिवासियों को उनकी जमीन वापस कर दी। इस सर्वेक्षण में अनेक विसंगतियाँ थीं। अतः, मुंडाओं ने अपना प्रतिरोध प्रकट किया। 1867 में उन लोगों ने बंगाल सरकार को एक प्रतिवेदन दिया जिसमें आरोप लगाया गया कि छोटानागपुर के महाराज उन्हें जमीन से बेदखल कर रहे हैं। सरकार ने समस्या के समाधान के लिए 1869 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (Chotanagpur Tenures Act) पारित किया तथा पुनः भुईनहारी जमीन का सर्वेक्षण करवाने की व्यवस्था की। 1869-80 के बीच सर्वे करवा कर भुईनहारी और जमीदारी जमीन का विभाजन किया गया। इसका लाभ उठाकर आदिवासी अधिक-से-अधिक जमीन को भुईनहारी में परिवर्तित करने की मांग करने लगे। इस कार्य में रोमन कैथोलिक मिशनरियों ने आदिवासियों का साथ दिया। फलतः, जमींदारों और आदिवासियों का संघर्ष बढ़ गया। लगान की राशि और बेगार के प्रश्न पर भी टकराहट हुई। न्यायालयों में मुकदमे बढ़ गए। 1890 में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने छोटानागपुर का दौरा कर आदिवासियों की समस्याओं को सुलझाने का वादा किया, परंतु ऐसा हुआ नहीं। इसलिए, मुंडाओ ने 1895 के बाद बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अधिक उग्र विद्रोह किया। 1895 तक सरदार आंदोलन समाप्त हो गया।

11. विरसा मुंडा विद्रोह

संथालों के बाद छोटानागपुर में मुंडाओ का व्यापक विद्रोह मुंडा शांतिप्रिय थे। वे खंटकट्ठीदार माने जाते थे और उन्हें जमीन-संबंधी विशेषाधिकार प्राप्त थे। परंतु, औपनिवेशिक काल में उनकी स्थिति में परिवर्तन आया। अन्य जनजातियों के समान वे भी जमीदारी और महाजनी शोषण के शिकार बने। उन्हें संघर्ष करने के लिए बिरसा मुंडा ने उत्प्रेरित किया। विरसा मुंडा विद्रोह
सरदारी आंदोलन अथवा मुल्की लडाई (185805) से प्रभावित था। परंतु, जहाँ सरदारी आंदोलन अहिंसात्मक था, राजविरोधी
नहीं था, वही विरसा मुंडा विद्रोह हिंसात्मक और राजविरोधी था। यह विद्रोह उल्गुलन अथवा महान उपदव था। इस विद्रोह के नेता बिरसा मुंडा थे।
विरसा मुंडा का जीवन परिचय बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1874 को पलामू में तमाड़ के निकट उलिहातु गाँव में
हुआ था। उनके पिता का नाम सुगना मुंडा था। यद्यपि उनका बचपन गरीबी एवं कष्ट में बीता तथापि उन्होंने शिक्षा ग्रहण की।
उन्होंने चाईबासा के मिशन स्कूल से शिक्षा प्राप्त की। वे शिकार करने, बाँसुरी बजाने तथा निशानेबाजी में भी प्रवीण थे। उनका
आरंभिक जीवन ईसाई धर्म तथा वैष्णव धर्म से प्रभावित हुआ। सरदारी आंदोलन ने भी उन्हें गहरे रूप से प्रभावित किया। वैष्णव धर्म के प्रभाव में आकर बिरसा मुंडा शाकाहारी बन गए। उन्होंने यज्ञोपवीत धारण किया, साथ ही वे तुलसी की पूजा करने लगे एवं चंदन-तिलक भी लगाने लगे। उन्होंने कुछ समय के लिए ईसाई धर्म भी अपनाया, परंतु बाद में इसे छोड़ दिया। अब वे स्थायी रूप से चालकद में रहने लगे। बिरसा मुंडा एक धर्मपरायण व्यक्ति बन गए। कुछ विद्वानों का मानना है कि बिरसा मुंडा ने एक नया धर्म चलाया जिसमें जनजातीय धर्म और वैष्णव धर्म के तत्त्व थे। उनकी ख्याति एक धर्मप्रचारक के रूप में हो गई। वे नियमित रूप से कीर्तन करते और लोगों को उपदेश देते। वे मुंडाओं में प्रचलित अंधविश्वासों को दूर करना चाहते थे। उन्होंने एकेश्वरवाद पर बल दिया एवं सिंगवोगा को सर्वोच्च देवता मानकर उसकी पूजा करने को कहा। वे आदिवासियों में प्रचलित सामाजिक बुराइयों जैसे मद्यपान, पशुबलि आदि का अंत करना चाहते थे। उन्होंने शुद्ध आचरण और हदय की शुद्धता
पर बल दिया। 1894 में चालकद के निकट जब हैजा का प्रकोप तो बिरसा मुंडा ने अपने प्राण की परवाह किए बिना
निःस्वार्थ भाव से मरीजों की सेवा-सुश्रुषा की। इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। उन्हें सम्मान से धरती आवा (जमीन का
पिता) कहा जाने लगा। लोग उन्हें अलौकिक शक्ति से परिपूर्ण मानते थे जो अपने स्पर्शमात्र से किसी भी व्याधि को ठीक कर
सकते थे। उनके अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती गई और उन्हें भगवान का दर्जा दिया गया। बिरसा मुंडा का प्रत्येक वाक्य मुंडाओं के लिए ब्रह्मवाक्य बन गया। उन्होंने भविष्यवाणी की कि शीघ ही प्रलय होगा जिसमें सब कुछ नष्ट हो जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि प्रलय के बाद वे स्वयं राजा बनेंगे, सरकार उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी। बिरसा मुंडा की इस सरकार-विरोधी नीति से प्रशासकों को खतरा महसूस हुआ। 1895 में उन लोगों ने धोखा से बिरसा मुंडा और उनके कुछ साथियों को गिरफ्तार कर लिया। उन पर विद्रोह फैलाने एवं राजविरोधी षड्यंत्र में संलग्न होने का मुकदमा चलाया गया। बिरसा मुंडा को दो वर्ष के जेल की सजा दी गई। मुंडाओं में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। वे भी बिरसा मुंडा के साथ जेल जाने को तैयार हो गए और सरकार के साथ पूर्ण असहयोग की नीति अपनाई। इस प्रकार, बिरसा मुंडा विद्रोह का प्रथम चरण
समाप्त हुआ। यह चरण पूर्णतः शांतिपूर्ण था। इसमें बिरसा मुंडा ने मुंडाओं की सामाजिक-धार्मिक स्थिति में सुधार लाने का प्रयास किया। अतः, यह मूलतः सुधारवादी चरण बना रहा। 1897 से बिरसा मुंडा विद्रोह का दूसरा चरण आरंभ हुआ। नवंबर 1897 में महारानी विक्टोरिया के शासन की हीरक जयंती के अवसर पर बिरसा मुंडा एवं उनके साथियों को जेल से रिहा
कर दिया गया। जेल से रिहा होकर बिरसा मुंडा अब मुंडाओं को सशस्त्र क्रांति के लिए संगठित करने लगे। उन्होंने डोम्बारी को अपने आंदोलन का केंद्र बनाया। जंगलों में घूम-घूम कर रात्रि में गुप्त सभाएँ की जाती एवं मुंडाओं को विद्रोह के लिए तैयार होने को कहा जाता। उन्होंने मुंडाओं की एक सेना भी तैयार कर ली जो परंपरागत हथियारों से लैश थी। गया मुंडा को इस सेना का सेनापति नियुक्त किया गया। इसका मुख्यालय खूटी में बनाया गया। बिरसा मुंडा स्वयं महारानी विक्टोरिया के पुतले पर तीर चलाकर तीरंदाजी का अभ्यास करते थे। गुप्त सभाओं में बिरसा मुंडा स्वयं अपने समर्थकों पर वीर-दा (वीर जल) छिड़कते थे। मुंडाओं को ठेकेदारों, जागीरदारों, सरकारी अधिकारियों एवं ईसाइयों की हत्या करने को कहा जाता। गीतो के माध्यम से यह संदेश घर-घर पहुँचाया जाता। बिरसा मुंडा ने लोगों को यह आश्वासन दिया कि सरकार उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी तथा पुलिस और सेना की गोली पानी बन जाएगी। इससे मुंडाओं में नया जोश उत्पन्न हुआ। बिरसा मुंडा ने स्वतंत्र मुंडा राज्य की स्थापना की घोषणा की। उन्होंने घोषणा की कि महारानी राज्य समाप्त हो गया है और हमारा राज्य आरंभ हो गया है
(अवुआ राज एटेजाना महारानी राज टुंडू)। हिंसक विद्रोह का आरंभ एवं स्वरूप-25 दिसंबर 1899 को क्रिसमस के दिन बिरसा मुंडा का व्यापक और हिंसक विद्रोह आरंभ हुआ। सबसे पहले ईसाई धर्म में परिवर्तित मुंडाओं, ईसाई मिशनरियों और सरकार के समर्थकों को निशाना बनाया गया, लेकिन बाद में इस नीति में परिवर्तन किया गया। धर्म परिवर्तित मुंडाओं के विरुद्ध आक्रोश कम हो गया और सरकार तथा मिशनरियों के विरुद्ध असंतोष बढ़ गया। राँची और सिंहभूम में अनेक गिरजाघरों तथा थानों पर आक्रमण किए गए। पुलिस मुंडाओं के क्रोध का विशेष शिकार बनी। राँची और इसके निकटवर्ती क्षेत्र
तथा संपूर्ण छोटानागपुर विद्रोह के प्रभाव में आ गया। विद्रोह का दमन-स्थिति इतनी बिगड़ गई कि सरकार को इसके
दमन का निर्णय लेना पड़ा। इसके लिए सरकार ने पुलिस और सेना की सहायता ली। मुंडाओं और सेना के बीच अनेक स्थानों
पर हिंसक झड़पें हुई। सेना की गोली से अनेक पुरुष, स्त्री और यहाँ तक कि मुंडा बच्चे भी मारे गए। सैंकड़ों गिरफ्तार किए
गए। यद्यपि मुंडा संघर्ष करते रहे तथापि वे लंबे समय तक सेना का मुकाबला तीर-धनुष और कुल्हाड़ी से नहीं कर सके। सरकार ने बिरसा मुंडा को पकड़ने के लिए 500 रुपए का इनाम घोषित किया। इनाम के लालच में कुछ स्थानीय लोगों ने बिरसा मुंडा को 3 मार्च 1900 को पकड़वा दिया। उन्हें गिरफ्तार कर राँची जेल में रखा गया। उनपर और उनके साथियों पर मुकदमा चलाया गया। मुकदमा के दौरान ही 9 जून 1900 को राँची जेल में बिरसा मुंडा की हैजा से मृत्यु हो गई। बिरसा मुंडा के कुछ साथियों को फाँसी, कुछ को आजीवन कारावास, कुछ को देश-निर्वासन तथा अनेकों को निश्चित अवधि के लिए जेल की सजा दी गई। बिरसा मुंडा और प्रमुख मुंडाओं की गिरफ्तारी के साथ ही बिरसा मुंडा विद्रोह समाप्त हो गया।
विरसा मुंडा विद्रोह का महत्त्व-यद्यपि बिरसा मुंडा विद्रोह भी अन्य विद्रोहों के समान विफल हो गया तथापि इसका महत्त्व कम
नहीं है। इसके दूरगामी परिणाम निकले। यह छोटानागपुर की जनजातियों का पहला व्यापक स्वतंत्रता संघर्ष था। इसका प्रभाव
छोटानागपुर के बाहर भी पड़ा। सरकार भी उनकी समस्याओं की ओर ध्यान देने को विवश हो गई। 1902 से 1910 के बीच राँची जिला की पैमाइश एवं बंदोबस्ती की व्यवस्था की गई। गुमला और खूटी अनुमंडलों की स्थापना की गई। 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी कानून (Chotanagpur Tenancy Act) पारित किया गया। मुंडाओं के खूटकट्टी अधिकार को, जिनकी रक्षा के लिए बिरसा मुंडा ने संघर्ष किया था, सरकार ने मान लिया। मुंडाओं को बेगारी से भी मुक्ति मिल गई। इससे मुंडाओं की स्थिति में सुधार हुआ। बिरसा मुंडा विद्रोह से प्रेरणा लेकर आगे ओराँवों ने टाना भगत आंदोलन चलाया। मुंडा आज भी बिरसा मुंडा को अपना भगवान मानते हैं। घर-घर में उनकी प्रशंसा में लोकगीत गाए जाते हैं।

12. टाना भगत आंदोलन

झारखंड में इन प्रमुख जनजातीय आंदोलनों के अतिरिक्त 20वीं शताब्दी में प्रथम विश्वयुद्ध के अवसर पर टाना भगत आंदोलन
भी हुआ। यह आंदोलन ओराँवों में हुआ। इसमें मुख्य भूमिका जतरा भगत (1888-1916) की थी। यद्यपि यह मूल रूप से
सामाजिक-धार्मिक आंदोलन था तथापि इसमें आर्थिक प्रश्नों, विशेषकर जमींदारों और साहूकारों के अत्याचारों से बचने तथा
आदिवासियों की जमीन-संबंधी समस्याओं को सुलझाने की भी बात की गई। गाँधीजी के असहयोग आंदोलन को झारखंड में
सफल बनाने में टाना भगत आंदोलन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। बंगाल-बिहार के बाहर भी समय-समय पर आदिवासियों के
विद्रोह हुए। इनमें उल्लेखनीय हैं-उड़ीसा का कंध विद्रोह, आंध्र प्रदेश के आदिवासियों का विद्रोह तथा बस्तर (छत्तीसगढ़) का
विद्रोह। मध्य प्रांत में भीलों और गोंडों ने भी सरकारी नीतियों से त्रस्त होकर विद्रोह किए।

13. कंध विद्रोह

उड़ीसा में 19वीं शताब्दी में कंध विद्रोह हुआ। कंध जनजाति तत्कालीन मद्रास प्रांत से बंगाल तक विस्तृत पहाड़ी क्षेत्र में रहती थी। इनमें मरियाह प्रथा अथवा मानव बलि प्रथा प्रचलित थी। 1837 में कंपनी सरकार ने इस प्रथा को प्रतिबंधित करने का
प्रयास किया। कंधों ने इसे अपने सामाजिक-धार्मिक जीवन में सरकारी हस्तक्षेप माना। अतः, वे विरोध पर उतारू हो गए। इस
विरोध को चक्र बिसोई ने नेतृत्व प्रदान किया। उसका जन्म घुमसार के ताराबाड़ी गाँव में हुआ था। उसने कंपनी सरकार की
नीति का जोरदार विरोध किया। 1857 के विद्रोह में कंध आदिवासियों ने भी भाग लिया। उड़ीसा में 1867-68 में भुईयाँ एवं जुआंग आदिवासियों का विद्रोह हुआ। इन लोगों ने तत्कालीन राजा के अत्याचारी और शोषणपूर्ण नीति का विरोध किया। विद्रोह को नेतृत्व धरनीधर नायक ने प्रदान किया।

14. आंध्र प्रदेश का विद्रोह

1879 80 में आंध्र प्रदेश के आदिवासियों ने विद्रोह किया। इसका मुख्य कारण भारी लगान की वसूली थी। आदिवासियों ने वेठी
प्रथा, अर्थात जबर्दस्ती मजदूरी लेने की प्रथा का भी विरोध

15. वस्तर के आदिवासियों का विद्रोह

तत्कालीन मध्य प्रदेश और वर्तमान छत्तीसगढ़ के आदिवासियों ने भी 20वीं शताब्दी के आरंभिक चरण में विद्रोह किया। यहाँ
मारिया, गोंड, प्रवा जैसी जनजातियाँ निवास करती थीं। सरकारी शोषणपूर्ण और दमनकारी नीतियों के विरोध में 1910 में
धुवा जनजाति ने विद्रोह किया। विद्रोह को नेतृत्व गुंदा धुर ने प्रदान किया। यह हिंसात्मक विद्रोह था। विद्रोह को कुचलने के
लिए सरकार ने दमनकारी नीति अपनाई। सेना की सहायता से विद्रोह दबा दिया गया।
जनजातीय विद्रोहों और आंदोलनों का महत्त्व सभी जनजातीय विद्रोह औपनिवेशिक नीतियों के परिणाम थे। सरकारी नीतियों ने आदिवासियों को दरिद्र बना दिया। जंगल और जमीन उनसे छीन लिए गए। समय-समय पर आदिवासियों ने इसका प्रतिकार अवश्य किया। सरकार से उन्हें कुछ सहूलियतें भी मिली। परंतु, भारत में 1947 में औपनिवेशिक राज्य की समाप्ति के पूर्व तक उनकी स्थिति में विशेष परिवर्तन नहीं आया। स्वतंत्र भारत में उनके जीवन में तेजी से बदलाव आया। 1935 के भारत सरकार अधिनियम में ही जनजातियों के लिए शिक्षा एवं आरक्षण की व्यवस्था की गई। भारतीय संविधान की धारा 342 में जनजातियों को कमजोर वर्ग मानकर उनके लिए आरक्षण एवं अन्य सुविधाओं की व्यवस्था की गई। 1952 में नई वन नीति बनाई गई। इसमें आवश्यकतानुसार समय-समय पर संशोधन भी किए गए हैं। इनके द्वारा वनों की रक्षा एवं आदिवासियों के अधिकारों की सुरक्षा की व्यवस्था की गई है। यह सराहनीय प्रयास है। इतना होने के बावजूद आदिवासियों का आंदोलन समाप्त नहीं हुआ है। इसने अपना स्वरूप अवश्य परिवर्तित कर लिया है। यह क्षेत्रवादी आंदोलन बन गया है। आदिवासी बहुल राज्यों की स्थापना की माँग होने लगी है। उनकी मांगों पर ध्यान देते हुए भारत सरकार ने मध्य प्रदेश राज्य का पुनर्गठन कर | नवंबर 2000 को पृथक छत्तीसगढ़ राज्य का गठन किया। इसी प्रकार, 15 नवंबर 2000 को बिहार का पुनर्गठन कर नया झारखंड राज्य बनाया गया।
प्रमुख जनजातीय आंदोलन और विद्रोह

स्मरणीय

⇔ जंगल और मानवजीवन में परंपरागत अट्ट संबंध है। औपनिवेशिक काल में वन समाज और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए।
⇔ बन और जीवन का संबंध-यनों का भौगोलिक, आर्थिक एवं धार्मिक महत्व-जनजातियों का सर्वस्व
⇔ बन और औपनिवेशिक नीति बननाशन की प्रक्रिया को बढावा, बननाशन का प्रमुख कारण-(i) औपनिवेशिक सरकार द्वारा वनों को अनुत्पादक मानना (ii) ब्रिटिश साम्राज्य की आवश्यकताओं को पूरा करना (iii) ब्रिटिश जहाजरानी के लिए लकड़ी की आवश्यकता (iv) भारत में रेल का विस्तार (v) जंगलों के स्थान पर बागवानी को बढ़ावा देने की नीति
⇔ सरकारी नीलियों का कार्यान्वयन-इंस्पेक्टर जनरल ऑफ फरिस्ट्स इन इंडिया की नियुक्ति, 1864 में भारतीय वन सेवा की स्थापना: 1865 में भारतीय वन अधिनियम पारित, 1906 में देहरादून में इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना, 1878 में वन आरक्षित, संरक्षित एवं ग्राम्य श्रेणियों में विभाजित
⇔ सरकारी नीतियों का जनजातियों पर प्रभाव-जंगली क्षेत्र में दिकुओं का प्रवेश आरंभ, झूम खेती पर रोक, जंगल एवं जंगल उत्पादों के स्वच्छंद व्यवहार पर रोक, लगान वसूली की व्यवस्था, जमीदारी और ठेकेदारी प्रथा का विकास, जनजातियों का आर्थिक शोषण आरभ, ईसाई मिशनरियो के आगमन से धार्मिक जीवन प्रभावित, परपरागत सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व्यवस्था नष्ट, शोषण के विरुद्ध गोलबंदी एवं शोषण का प्रतिरोध
⇔ भारत की जनजातियों-देश के विभिन्न भागों में अनेक जनजातियाँ भील, गोंड, खासी, खोड, संथाल, मुंडा, ओरीय, मीणा इत्यादि
⇔ जनजातीय समाज-पितृसत्तात्मक, घर एवं आर्थिक कार्यों में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भागीदारी, विवाह एवं अन्य संस्कार प्रचलित, नृत्य-संगीत, मेला, पर्व-त्योहार का उल्लासपूर्वक आयोजन, ग्राम प्रधान का जनजातीय गाँवों पर प्रभाव
⇔ राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था-पंचायती व्यवस्था, मुखिया का महत्त्व, अनेक गाँवो को मिला कर परहा का गठन, प्रधान परहा राजा
⇔ भू-राजस्व व्यवस्था-आरभ में खूटकट्टी गाँवों में लगान नहीं, मुगल काल से लगान बंदोबस्ती की व्यवस्था, जागीरदारों एवं ठेकेदारों का प्रभाव बढ़ना, ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में लगान की ऊँची दर, लगान वसूली के लिए किसानो का शोषण एवं जमीन से उनकी बेदखलो, फलतः किसान से उनका भूमिहीन मजदूर बनना
⇔ आर्थिक स्थिति कृषि, पशुपालन, कुटीर उद्योग और दस्तकारी आर्थिक जीवन के आधार, दिकुओं के प्रभाव से अर्थव्यवस्था में परिवर्तन
⇔ धार्मिक जीवन-प्रकृति पूजक, सिंगवोंगा, ठाकुर एवं धर्मेश प्रधान देवता, हिंदू देवी-देवताओं की भी पूजा, भूत-प्रेत, जादू-टोना एवं अंधविश्वास का धार्मिक जीवन पर गहरा प्रभाव, वैगा का धार्मिक जीवन पर प्रभाव, तंत्रवाद का विकास, ईसाई मिशनरियों का धार्मिक जीवन पर प्रभाव
⇔ तत्कालीन बंगाल में अंगरेजो का उद्देश्य-(i) नए व्यापारिक मार्ग की आवश्यकता (ii) बागी जमीदारों पर नियंत्रण की आवश्यकता (iii) मराठा आक्रमणों से सुरक्षा की आवश्यकता
⇔ चुआर विद्रोह-चुआर विद्रोह का समय 1768-69 से 1805 तक, प्रमुख नेता करणगढ़ की रानी सिरोमणि, राजा जगन्नाथ के नेतृत्व में भी विद्रोह
⇔ पहाडिया विद्रोह (तिलका पाँझी का विद्रोह)-तिलका मांझी (1750-84) विद्रोह के नेता: राजमहल, पाकुड, गोडा. दुमका में विद्रोह का व्यापक प्रभाव, तिलका मॉझी द्वारा भागलपुर के कलक्टर क्लीवलैंड की हत्या: कंपनी शासन द्वारा सेना की सहायता से विद्रोह का दमन: तिलका मांझी को फांसी की सजा
⇔ कोल विद्रोह-1831-32 में कोलों का विद्रोह, सिंहभूम विद्रोह का केंद्र विद्रोह के प्रमुख नेता मुद्ध भगत, जोआ भगत, केशो भगत, नरेंद्रशाह मानकी एवं मदरा महतो; सेना की सहायता से विद्रोह का दमन
⇔ संथाल विद्रोह -संथालो का मुक्ति संग्राम (हल) 1855-56 में, अभी तक के विद्रोहों में सबसे अधिक व्यापक विद्रोह के नेता सिद्ध कान, चाँद एवं भैरव, सेना की सहायता से विद्रोह का दमन
⇔ खेरवार आंदोलन-1861 से सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाने तथा जमीदारी शोषण का विरोध करने के उद्देश्य से इसकी शुरुआत-1874-75 में संथाल नेता भागीरथ के नेतृत्व में हुए इस आदोलन को संथालो द्वारा व्यापक समर्थन दिया जाना—भागीरथ की गिरफ्तारी के बाद आदोलन का नेतृत्व दुबिया गोसाई के हाथों में-संथालो द्वारा 1881 के जनगणना का विरोध तथा लगान देने से इनकार-बाध्य होकर सरकार द्वारा प्रशासनिक और भूमि सुधार-संबंधी अनेक नियम बनाया जाना-सामाजिक-धार्मिक जीवन में प्रविष्ट बुराइयों को भी दूर करने का प्रयाय–1805 तक यह आदोलन समाप्तप्राय-संथालों की राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में इससे बदलाव
⇔ सरदार आंदोलन-19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में छोटानागपुर में मुंडा एवं उराँव जनजातियों द्वारा चलाए गए आंदोलन को ईसाइयों का सहयोग एवं समर्थन-परंपरागत जमीन-संबंधी अधिकारों की सुरक्षा एवं भुईनहारी जमीन की वापसी आंदोलन का मुख्य मुद्दा-वे सभी लोग सरदार कहलाए जिनलोगों ने आदिवासियों के भूमि-संबंधी अधिकारों एवं जमीन की वापसी का प्रयास किया-आंदोलन का स्वरूप अहिंसात्मक-1860 में सरकार द्वारा भुईनहारी जमीन का सर्वेक्षण करवाकर आदिवासियों को जमीन वापस की गई—सर्वेक्षण में अनेक विसंगतियाँ-आदिवासियों की शिकायतों के निराकरण के लिए 1869 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (Chotanagpur Tenures Act) पारित एवं सरकार द्वारा जमीन का पुनः सर्वे कराना- -सरकारी आश्वासनों के बावजूद भूमि-संबंधी समस्याओं का समुचित समाधान नहीं-1895 के बाद बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अधिक उग्र विद्रोह तथा सरदार आंदोलन समाप्त
⇔ विरसा मुंडा विद्रोह (1874-1900) विद्रोह के नेता, विक्टोरिया राज्य के समाप्त होने एवं अवुआ राज की स्थापना की घोषणा, सेना से संघर्ष, बिरसा मुंडा को जेल की सजा, जेल में ही उनकी मृत्यु
⇔ अन्य विद्रोह-तमार, चेरो, हो, भूमिज, टाना भगत आंदोलन; बिहार-बंगाल के बाहर उड़ीसा, आंध्र प्रदेश एवं बस्तर के आदिवासियों का विद्रोह
⇔ जनजातीय विद्रोहों का महत्त्व-1935 के भारत सरकार अधिनियम में जनजातियों के लिए शिक्षा एवं आरक्षण की व्यवस्था, भारतीय संविधान की धारा 342 में कमजोर वर्ग का दर्जा, आरक्षण एवं अन्य सुविधाएँ, 1952 में नई वन नीति पारित, जनजातीय आदोलन क्षेत्रीय आदोलन में परिवर्तित-नवंबर 2000 में आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ और झारखंड राज्य का गठन
प्रमुख जनजातीय आंदोलन और विद्रोह

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