पाठ्यसामग्री एवं पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया समझाइए । पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए । Explain the process of content and syllabus preparation. Describe the Principles of Preparing Syllabus.
निःसन्देह यह कहा जा सकता है कि कुछ विषयों में मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने की शक्ति अधिक होती है। इन विषयों का ज्ञान चाहे किसी भी विधि से प्राप्त किया गया हो। यह रहस्यात्मक ढंग से छात्रों के मस्तिष्क को इस प्रकार अनुशासित कर देता है कि वे तथ्यों एवं प्रक्रियाओं को सीख भी लेते हैं और उनका अन्यत्र उपयोग भी कर सकते हैं।
इस उद्देश्य के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य पाठ्यवस्तु पर अधिकार प्राप्त करना भी होता है। इस दृष्टिकोण का इतना महत्त्व है कि शैक्षिक गिरावट की स्थितियों में जनसामान्य, विशेषज्ञ एवं शिक्षक भी पाठ्यक्रम के ज्ञान को और अधिक विस्तृत तथा गहन करने की माँग करने लगते हैं।
अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि पाठ्यक्रम पर अधिकार होने पर भी सभी व्यक्ति उस ज्ञान का वास्तविक परिस्थितियों में उपयोग नहीं कर पाते हैं परन्तु इसका आशय यह नहीं है कि पाठ्यक्रम तथा पाठ्यसामग्री की महत्ता कम है परन्तु ऐसा मानने का अर्थ यह होगा कि विषय की उपादेयता, उसकी प्रकृति की अपेक्षा उन अधिगम अनुभवों पर अधिक निर्भर होगी जो उससे सहसम्बद्ध किए जाते हैं। दूसरी ओर यह निष्कर्ष निकालना भी गलत होगा कि सभी विषयों का समान महत्त्व है।
किसी पाठ्यचर्या के लिए पाठ्यसामग्री तथा पाठ्यक्रम के चयन के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जाती है उसमें दो प्रयासों को अपनाया जाता है।
प्रथम स्टेनली निस्वत द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड दूसरा डी. के. व्हीलर द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड । स्टेनली निस्वत द्वारा उद्देश्यों का वर्गीकरण किया गया है जिससे उन्होंने पर्यावरण समायोजन सम्बन्धी तथा व्यक्तिगत विकास सम्बन्धी दो वर्गों का निर्धारण किया है। उन्होंने दोनों वर्गों में 12 उद्देश्य निर्धारित किए हैं जिसमें उन्होंने सभी पक्षों को समाहित माना है।
पाठ्यक्रम में किसी पाठ्यसामग्री को समाहित करने या न करने के लिए इन 12 उद्देश्यों के अनुसार परीक्षण करना चाहिए। सुविधा के लिए उन्होंने निस्वत तालिका दी है उसमें देखा जा सकता है कि कोई पाठ्यक्रम किसी स्तर विशेष के पाठ्यचर्या में समाविष्ट करने की दृष्टि से उपयुक्त है या नहीं। व्हीलर द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड को दो भागों में बाँटा गया है। मुख्य मानदण्ड इसके अन्तर्गत दो बिन्दु हैं-
- वैधता तथा
- महत्त्व
- उपयोगिता
- अधिगम योग्यता
- शिक्षार्थी की आवश्यकताएँ एवं अभिरुचियाँ
- सामाजिक तथ्यों के साथ संगति ।
सामान्यतः उपयोगिता का मानदण्ड सभी विषयों में लागू किया जा सकता है परन्तु विशिष्ट एवं व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में स्थिति अधिक स्पष्ट रहती है। इन क्षेत्रों में पाठ्यक्रम का एक निश्चित सीमा में निर्धारण पहले से ही हुआ रहता है तथा प्रवेश के समय ही शिक्षार्थियों से एक निश्चित स्तर की योग्यता रखने की अपेक्षा पूर्ण कर ली जाती है किन्तु पाठ्यक्रम का पहले से ही निर्धारण होने पर भी शिक्षण विधि के बारे में कोई दृढ़ता नहीं होती है।
अतः शिक्षण विधियों के चयन के सम्बन्ध में उपयोगिता का मानदण्ड लागू किया जा सकता है। छात्रों की अधिगम योग्यता को भी दृष्टिगत रखना पड़ता है। इसके अन्तर्गत पाठ्यक्रम की उपयोगिता को छात्र की वैयक्तिकता की दृष्टि से देखने का प्रयास किया जाता है। जहाँ तक व्यक्तिगत भिन्नता का प्रश्न है, इसका समाधान पाठ्यसामग्री की मात्रा घटा कर अथवा समय बढ़ाकर किया जा सकता है।
छात्र की व्यक्तिगत क्षमता तथा अनुभव के अनुसार पाठ्यसामग्री में बढ़ोत्तरी अथवा घटोत्तरी करना या अन्तर करना सबसे अच्छा उपाय है। पाठ्यसामग्री के चयन के बारे में यह बात विशेष महत्त्व की है कि उसे छात्रों के अनुभवों से यथासम्भव आसानी से सम्बद्ध किया जा सके।
व्हीलर के अनुसार छात्रों की आवश्यकताएँ तथा अभिरुचियाँ केवल पाठ्यक्रम के चयन के लिए ही नहीं अपितु पाठ्यचर्या की पुनस्थापना की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण मानदण्ड है। पाठ्यक्रम के चयन में भी उद्देश्यों एवं अधिगम अनुभवों की ही भाँति परिवेश अर्थात् सामाजिक तथ्यों के साथ संगति का विशेष महत्त्व है।
पाठ्यक्रम के चयन में इस मानदण्ड को भी एक आधार बनाया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम के चयन की प्रक्रिया में दो मुख्य पदों को शामिल किया जाता है –
- विद्यालय में पढ़ाए जाने वाले विषयों का निश्चय |
- उन विषयों का निश्चय जिनमें से छात्र अपनी रुचि के अनुसार वैकल्पिक चुनाव कर सकें ।
- इस पद में प्रत्येक विषय के शिक्षण हेतु समय की अवधि का निर्धारण करना ।
- पाठ्यक्रम को संगठित करके भी पाठ्यसामग्री को व्यवस्थित किया जाता हैं।
- उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility) – इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम में उन्हीं प्रकरणों को शामिल किया जाना चाहिए जो छात्रों के भावी जीवन में काम आ सके। हमें अपने बच्चों को व्यर्थ की बातें सिखाने से क्या लाभ है। उन्हें वही बातें सिखानी चाहिए जो जीवन में काम आए। बच्चों के लिए क्या उपयोगी है और क्या अनुपयोगी यह समय विशेष की विचारधारा निश्चित करती है। उपयोगी पाठ्यक्रम जीवन में काम आती है और उनका व्यावहारिक जीवन में भी उपयोग होता है। अतः पाठ्यक्रम में उपयोगी प्रकरण ही शामिल होने चाहिए ।
- शैक्षिक उद्देश्यों की अनुरूपता का सिद्धान्त (Principle of Conformity with the Educational Objectives)—पाठ्यक्रम का निर्धारण शैक्षिक उद्देश्यों के अनुसार होना चाहिए। पाठ्यचर्चा में उन्हीं प्रकरणों तथा क्रियाओं को शामिल करना चाहिए जिससे शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति होती है। वर्तमान समय में शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास (शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक, चारित्रिक) करना है। इसके साथ-साथ उन्हें जीविकोपार्जन के लिए तैयार करना है ताकि भावी जीवन में वे राष्ट्र की एक आर्थिक शक्ति बन सके इसके लिए उन्हें किसी उद्योग या उत्पादक इकाई में प्रशिक्षित करना भी है।
अतः पाठ्यक्रम निर्मित करते समय प्रत्येक विषय से सम्बन्धित योग्यताओं के साथ उद्देश्यों को भी सम्मिलित करना है। उदाहरण के लिए शारीरिक विकास के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, गृहविज्ञान जैसे विषयों के साथ खेलकूद, व्यवसाय तथा योगा आदि को पाठ्यक्रम में स्थान देना चाहिए तथा इसके अन्तर्गत स्वच्छ आदतें, व्यक्तिगत स्वच्छता, सफाई, पौष्टिक भोजन, नियमित दिनचर्या, समय पर सोना तथा उठना, व्यायाम एवं आसनों की जानकारी आदि की आदतों को विकसित करना चाहिए ।इसी प्रकार अन्य शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी उन्हीं के अनुरूप विषय तथा क्रियाएँ पाठ्यक्रम में रखनी चाहिए।
- जीवन में सम्बन्धित होने का सिद्धान्त (Principle of Relationship with Life) – पाठ्यक्रम के निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि उसमें उन्हीं विषयों, प्रकरणों, क्रियाओं को शामिल करना चाहिए जो किसी न किसी रूप में छात्र के वर्तमान तथा भावी जीवन की आवश्यकताओं से सम्बन्ध रखती हो। ऐसे विषयों का ज्ञान अर्जित करके ही बालक जीवन में सफलता अर्जित कर सकता है। परम्परागत संस्कृत विद्यालयों तथा मकतबों का महत्त्व आजकल इसीलिए कम हो गया है क्योंकि उनमें पढ़ाए जाने वाले विषयों का जीवन से बहुत कम सम्बन्ध हो गया है।
- रचनात्मक एवं सृजनात्मक शक्तियों के उपयोग का सिद्धान्त (Principle of Utilising Creative and Constructive Powers) पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि छात्रों को ऐसे अवसर प्राप्त हो जिससे छात्रों की रचनात्मक एवं सृजनात्मक शक्तियों का अधिक से अधिक उपयोग किया जा सके। इसके लिए बालकों को प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए और उन्हें उचित निर्देशन भी प्रदान करना चाहिए।
- संस्कृति एवं सभ्यता के ज्ञान का सिद्धान्त (Principle of the Knowledge of Culture and Civilisation)पाठ्यक्रम निर्मित करते समय इस बात का ध्यान भी रखा जाना चाहिए कि उस में उन विषयों तथा प्रकरणों को सम्मिलित किया जाए जो बालकों को अपनी संस्कृति तथा सभ्यता का ज्ञान दे सकें।
शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य अपने बालकों को संस्कृति एवं सभ्यता का ज्ञान प्रदान करना भी है। अतः पाठ्यचर्या इस उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक होना चाहिए।
- बाल – केन्द्रीयता का सिद्धान्त (Principle of ChildCentredness) — पाठ्यक्रम से बाल- केन्द्रित शिक्षा को रखना आज के समय की आवश्यकता बन गई है। मनोविज्ञान बाल–केन्द्रित शिक्षा पर सर्वाधिक बल देता है। इस का तात्पर्य यह है कि पाठ्यचर्या बालक की रुचियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं, योग्यताओं और मनोवृत्तियों तथा बुद्धि एवं आयु के अनुकूल होना चाहिए। बच्चों को उनकी बुद्धि एवं योग्यता के अनुसार कुछ भिन्न वर्गों में रखा जाता है। जैसे- साहित्यिक रुचि वाले बच्चे, विज्ञान में रुचि रखने वाले बच्चे, तकनीकी ज्ञान में रुचि रखने वाले बच्चे, हस्तकला में रुचि रखने वाले बच्चे । इसके लिए इन वर्गों के लिए पाठ्यक्रम निर्मित करते समय विभिन्न विषयों का समावेश होना चाहिए जिससे वे इन रुचियों का विकास कर सके।
- अनुभवों की पूर्णता का सिद्धान्त (Principle of Totality of Experiences) — पाठ्यक्रम के अन्तर्गत मानवजाति के अनुभवों की पूर्णता निहित होनी चाहिए । इसका आशय यह है कि परम्परागत रूप से पढ़ाए जाने वाले सैद्धान्तिक विषयों में उन अनुभवों को भी शामिल कर देना चाहिए जिनको विभिन्न क्रियाओं द्वारा प्राप्त किया जाता है।
- सह- सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Correlation) – पाठ्यक्रम के निर्धारण में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि इसमें शामिल किए जाने वाले विभिन्न विषय एक-दूसरे से सह- सम्बन्धित हो । इसका आशय यह है कि एक विषय की शिक्षा दूसरे विषय की शिक्षा का आधार बन सके।
आधुनिक समय में सभी शिक्षाशास्त्री इस बात पर विशेष बल दे रहे हैं तथा इसी के आधार पर यह एकीकृत एवं सुसम्बद्ध पाठ्यक्रमों की चर्चा हो रही है।