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प्रथम विश्वयुद्ध के कारण

प्रथम विश्वयुद्ध के कारण

प्रथम विश्वयुद्ध के कारण

(i) यूरोपीय शक्ति-संतुलन का बिगड़ना
(ii) गुप्त संधियाँ एवं गुटों का निर्माण
(iii) जर्मनी और फ्रांस की शत्रुता
(iv) साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा
(v) सैन्यवाद
(vi) उग्र राष्ट्रवाद
(vii) अंतरराष्ट्रीय संस्था का अभाव
(viii) जनमत एवं समाचारपत्र
(ix) तात्कालिक कारण
20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विश्व राजनीति में अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटी। इनमें सर्वाधिक विख्यात हैं प्रथम विश्वयुद्ध
(1914-18) तथा द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-45)। इन युद्धों के विनाशकारी प्रभाव हुए। दोनों युद्धों ने विश्व को विभिन्न गुटों में
विभक्त कर दिया। अनेक मारक और विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्रों का व्यवहार इन युद्धों में किया गया जिससे धन-जन को अपार
क्षति पहुँची। साथ ही, विश्व में शांति का वातावरण बनाए रखने एवं भविष्य में युद्ध की संभावना को रोकने के लिए क्रमशः
राष्ट्रसंघ और संयुक्त राष्ट्र संघ (संप्रति संयुक्त राष्ट्र) जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना भी की गई।

प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18)

यह विश्व स्तर पर लड़ा जानेवाला प्रथम प्रलयंकारी युद्ध था। इसमें विश्व के लगभग सभी प्रभावशाली राष्ट्रों ने भाग लिया।
यह युद्ध मित्र राष्ट्रों (इंगलैंड, फ्रांस, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, इटली, रूमानिया तथा उनके सहयोगी राष्ट्रों) और
केंद्रीय शक्तियों (जर्मनी, ऑस्ट्रियाहंगरी, तुर्की, बुल्गेरिया इत्यादि) के बीच हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय
और केंद्रीय शक्तियों की पराजय हुई।

प्रथम विश्वयुद्ध के कारण

प्रथम विश्वयुद्ध के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इनमें निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण हैं-
(i) यूरोपीय शक्ति-संतुलन का बिगड़ना-1871 में जर्मनी के एकीकरण के पूर्व यूरोपीय राजनीति में जर्मनी की महत्त्वपूर्ण
भूमिका नहीं थी, परंतु बिस्मार्क के नेतृत्व में एक शक्तिशाली जर्मन राष्ट्र का उदय हुआ। इससे यूरोपीय शक्ति-संतुलन
गड़बड़ा गया। इंगलैंड और फ्रांस के लिए जर्मनी एक चुनौती बन गया। इससे यूरोपीय राष्ट्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना बढ़ी।
(ii) गुप्त संधियाँ एवं गुटों का निर्माण-जर्मनी के एकीकरण के पश्चात वहाँ के चांसलर बिस्मार्क ने अपने देश को यूरोपीय
राजनीति में प्रभावशाली बनाने के लिए तथा फ्रांस को यूरोप की राजनीति में मित्रविहीन बनाए रखने के लिए गुप्त संधियों की
नीतियाँ अपनाईं। उसने ऑस्ट्रिया-हंगरी (1879) के साथ द्वैध संधि (Dual Alliance) की। रूस (1881 और 1887) के साथ भी मैत्री संधि की गई। इंगलैंड के साथ भी बिस्मार्क ने मैत्रीवत संबंध बनाए। 1882 में उसने इटली और ऑस्ट्रिया के साथ मैत्री
संधि की। फलस्वरूप, यूरोप में एक नए गुट का निर्माण हुआ जिसे त्रिगुट संधि (Triple Alliance) कहा जाता है। इसमें
जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी एवं इटली सम्मिलित थे। इंगलैंड और फ्रांस इस गुट से अलग रहे।
1890 में बिस्मार्क के पतन के बाद जर्मन विदेश नीति का संचालन स्वयं सम्राट कैजर विलियम ने किया। वह अनुभवहीन
शासक था। उसने रूसी मित्रता को त्याग दिया। इससे फ्रांस और रूस को एक-दूसरे के निकट आने का अवसर मिला। 1894 में रूस और फ्रांस ने जर्मनी के विरुद्ध द्विगुट का निर्माण किया। इंगलैंड इस समय यूरोपीय राजनीति में अलगाव की नीति
अपनाए हुए था, लेकिन औपनिवेशिक और नौसैनिक मामलों में जर्मनी की चुनौती के विरुद्ध उसने भी अलगाव की नीति छोड़
दी। 1904 में इंगलैंड और फ्रांस में एक मैत्री संधि हुई। इसे सुंदर समझौता (Entente Cordiale) कहा जाता है। 1907 में इंगलैंड और रूस में भी संधि हुई। इस प्रकार, यूरोप में एक नए गुट का उदय हुआ जिसमें इंगलैंड, फ्रांस और रूस सम्मिलित थे। इस प्रकार, त्रिराष्ट्रीय समझौता (Triple Entente) गुट का निर्माण हुआ। इससे यूरोप दो स्पष्ट गुटों में विभक्त हो गया। दोनों गुट एक-दूसरे के विरोधी तथा एक-दूसरे से आशंकित थे। इस प्रकार, आपसी तनाव और मतभेद बढ़ता गया जो विश्वशांति के लिए घातक प्रमाणित हुआ।
(iii) जर्मनी और फ्रांस की शत्रुता-जर्मनी एवं फ्रांस के मध्य पुरानी दुश्मनी थी। जर्मनी के एकीकरण के दौरान बिस्मार्क ने
फ्रांस के धनी प्रदेश अलसेस-लॉरेन पर अधिकार कर लिया था। मोरक्को में भी फ्रांसीसी हितों को क्षति पहुँचायी गई थी। इसलिए, फ्रांस का जनमत जर्मनी के विरुद्ध था। फ्रांस सदैव जर्मनी को नीचा दिखलाने के प्रयास में लगा रहता था। दूसरी ओर जर्मनी भी फ्रांस को शक्तिहीन बनाए रखना चाहता था। इसलिए, जर्मनी ने फ्रांस को मित्रविहीन बनाए रखने के लिए त्रिगुट समझौता किया। बदले में फ्रांस ने भी जर्मनी के विरुद्ध अपने सहयोगी राष्ट्रों का गुट बना लिया। प्रथम विश्वयुद्ध के समय तक जर्मनी और फ्रांस की शत्रुता इतनी अधिक बढ़ गई कि इसने युद्ध को अवश्यंभावी बना दिया।
(iv) साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धी-  साम्राज्यवादी देशों का साम्राज्य विस्तार के लिए आपसी प्रतिद्वंद्विता एवं हितों की टकराहट प्रथम विश्वयुद्ध का मूल कारण माना जा सकता है। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप कल-कारखानों को चलाने के लिए कच्चा माल एवं कारखानों में उत्पादित वस्तुओं की खपत के लिए बाजार की आवश्यकता पड़ी। फलस्वरूप, साम्राज्यवादी शक्तियों (इंगलैंड, फ्रांस और रूस) ने एशिया और अफ्रीका में अपने-अपने उपनिवेश बनाकर उनपर अधिकार कर लिए थे। जर्मनी और इटली जब बाद में उपनिवेशवादी दौड़ में सम्मिलित हुए तो उनके विस्तार के लिए बहुत कम संभावना थी। अतः, इन देशों ने उपनिवेशवादी विस्तार की एक नई नीति अपनाई। यह नीति थी दूसरे राष्ट्रों के उपनिवेशों पर बलपूर्वक अधिकार कर अपनी
स्थिति सुदृढ़ करने की। प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ होने के पूर्व तक जर्मनी की आर्थिक एवं औद्योगिक स्थिति अत्यंत सुदृढ़ हो चुकी थी। अतः, जर्मन सम्राट “धरती पर और सूर्य के नीचे जर्मनी को समुचित स्थान” दिलाने के लिए व्यग्र हो उठा। उसकी थलसेना तो मजबूत थी ही अब वह एक मजबूत जहाजी बेड़ा का निर्माण कर अपने साम्राज्य का विकास तथा इंगलैंड के “समुद्र पर स्वामित्व” को चुनौती देने के प्रयास में लग गया। 1911 में आंग्ल-जर्मन नाविक प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप अगादीर का संकट (Agadir crisis) उत्पन्न हो गया। इसे सुलझाने का प्रयास किया गया, परंतु यह विफल हो गया। 1912 में जर्मनी में एक विशाल जहाज इंपरेटर बनाया गया जो उस समय का सबसे बड़ा जहाज था। फलतः, जर्मनी और इंगलैंड में वैमनस्य एवं प्रतिस्पर्धा बढ़ गई। इसी प्रकार, मोरक्को तथा बोस्निया संकटों (Moroccan and Bosnian crises) ने इंगलैंड और जर्मनी की प्रतिस्पर्धा को और बढ़ावा दिया। अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए जब पतनशील तुर्की साम्राज्य की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से जर्मनी ने बर्लिन-बगदाद रेलमार्ग योजना बनाई तो इंगलैंड, फ्रांस और रूस ने इसका विरोध किया। इससे कटुता बढ़ी। जर्मनी के समान इटली, फ्रांस और रूस की नजरें भी नए क्षेत्रों के अधिग्रहण पर लगी हुई थीं। इटली त्रिपोली (तुर्की साम्राज्य के अंतर्गत) पर अधिकार करना चाहता था। रूस की नजर ईरान, कुस्तुनतुनिया एवं तुर्की साम्राज्य के अन्य क्षेत्रों पर लगी हुई थी। सुदूरपूर्व में जापान की महत्त्वाकांक्षा भी बढ़ती जा रही थी। 1904 05 में रूस को पराजित करने के बाद उसने भी विस्तारवादी नीति अपनाई। इंगलैंड अपने विश्वव्यापी व्यापार और विशाल साम्राज्य की सुरक्षा के लिए अन्य किसी शक्ति को आगे बढ़ने देना नहीं चाहता था। साम्राज्यवादी शक्तियों की इस प्रतिद्वंद्विता ने 1914 तक विस्फोटक स्वरूप अख्तियार कर लिया।
(v) सैन्यवाद-साम्राज्यवाद के समान सैन्यवाद ने भी प्रथम विश्वयुद्ध को निकट ला दिया। प्रत्येक राष्ट्र अपनी सुरक्षा एवं
विस्तारवादी नीति को कार्यान्वित करने के लिए अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण एवं उनकी खरीद-बिक्री में लग गया। अपने-अपने
उपनिवेशों की सुरक्षा के लिए भी सैनिक दृष्टिकोण से मजबूत होना आवश्यक हो गया। फलतः, युद्ध के नए अस्त्र-शस्त्र
बनाए गए। राष्ट्रीय आय का बहुत बड़ा भाग अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण एवं सैनिक संगठन पर खर्च किया जाने लगा। उदाहरण
के लिए, फ्रांस, जर्मनी और अन्य प्रमुख राष्ट्र अपनी आय का 85% सैन्य-व्यवस्था पर खर्च कर रहे थे। अनेक देशों में
अनिवार्य सैनिक सेवा लागू की गई। सैनिकों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि की गई। सैनिक अधिकारियों का देश की राजनीति में वर्चस्व हो गया। इस प्रकार, पूरा यूरोप बारूद के ढेर पर बैठ गया, बस विस्फोट होने की देरी थी। यह विस्फोट 1914 में हुआ।
(vi) उग्र राष्ट्रवाद-उग्र अथवा विकृत राष्ट्रवाद भी प्रथम विश्वयुद्ध का एक मौलिक कारण बना। यूरोप के सभी राष्ट्रों में
इसका समान रूप से विकास हुआ। यह भावना तेजी से बढ़ती गई कि समान जाति, धर्म, भाषा और ऐतिहासिक परंपरा के
व्यक्ति एक साथ मिलकर रहें और कार्य करें तो उनकी अलग पहचान बनेगी और उनकी प्रगति होगी। पहले भी इस आधार पर जर्मनी और इटली का एकीकरण हो चुका था। बाल्कन क्षेत्र में यह भावना अधिक बलवती थी। बाल्कन प्रदेश तुर्की साम्राज्य के अंतर्गत था। तुर्की साम्राज्य के कमजोर पड़ने पर इस क्षेत्र में स्वतंत्रता की माँग जोर पकड़ने लगी। तुर्की साम्राज्य तथा
ऑस्ट्रिया-हंगरी के अनेक क्षेत्रों में स्लाव प्रजाति के लोगों का बाहुल्य था। वे अलग स्लाव राष्ट्र की माँग कर रहे थे। रूस का
यह मानना था कि ऑस्ट्रिया-हंगरी एवं तुर्की से स्वतंत्र होने के बाद स्लाव रूस के प्रभाव में आ जाएँगे। इसलिए, रूस अखिल स्लाव अथवा सर्वस्लाववाद (Panslavism) आंदोलन को बढ़ावा दिया। इससे रूस और ऑस्ट्रिया-हंगरी के संबंध कटु हुए। इसी प्रकार, सर्वजर्मन आंदोलन भी चला। सर्व, चेक तथा पोल प्रजाति के लोग भी स्वतंत्रता की माँग कर रहे थे। इससे
यूरोपीय राष्ट्रों में कटुता की भावना बढ़ती गई।
(vii) अंतरराष्ट्रीय संस्था का अभाव-प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व ऐसी कोई संस्था नहीं थी जो साम्राज्यवाद, सैन्यवाद और उग्र
राष्ट्रवाद पर नियंत्रण लगाकर विभिन्न राष्ट्रों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रख सके। प्रत्येक राष्ट्र स्वतंत्र रूप से अपनी
मनमानी कर रहा था। इससे यूरोपीय राजनीति में एक प्रकार की अराजक स्थिति व्याप्त गई।
(viii) जनमत एवं समाचारपत्र-प्रथम विश्वयुद्ध के लिए तत्कालीन जनमत भी कम उत्तरदायी नहीं था। प्रत्येक देश के
राजनीतिज्ञ, दार्शनिक और लेखक अपने लेखों में युद्ध की वकालत कर रहे थे। पूँजीपति वर्ग भी अपने स्वार्थ में युद्ध का
समर्थक बन गया। युद्धोन्मुखी जनमत तैयार करने में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका समाचारपत्रों की थी। प्रत्येक देश का
समाचारपत्र दूसरे राष्ट्र के विरोध में झूठा और भड़काऊ लेख प्रकाशित करता था। इससे विभिन्न राष्ट्रों एवं वहाँ की जनता में
कटुता उत्पन्न हुई। समाचारपत्रों के झूठे प्रचार ने यूरोप का वातावरण विषाक्त कर युद्ध को अवश्यंभावी बना दिया।
(ix) तात्कालिक कारण– प्रथम विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण बना ऑस्ट्रिया के युवराज आर्क ड्यूक फ्रांसिस फर्डिनेंड
(Archduke Francis Ferdinand) की बोस्निया की राजधानी सेराजेवो में हत्या। 28 जून 1914 को एक आतंकवादी संगठन
काला हाथ (Black Hand) से संबद्ध सर्व प्रजाति के एक बोस्नियाई युवक ने राजकुमार और उनकी पत्नी की गोली मारकर
हत्या कर दी। इससे सारा यूरोप स्तब्ध हो गया। ऑस्ट्रिया ने इस घटना के लिए सर्बिया को उत्तरदायी माना। ऑस्ट्रिया ने सर्बिया
को धमकी दी कि वह अड़तालीस घंटे के अंदर इस संबंध में स्थिति स्पष्ट करे तथा आतंकवादियों का दमन करे। सर्बिया ने
ऑस्ट्रिया की माँगों को ठुकरा दिया। फलतः, 28 जुलाई 1914 में को ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इसके साथ ही अन्य राष्ट्र भी अपने-अपने गुटों के समर्थन में युद्ध सम्मिलित हो गए। इस प्रकार, प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ हुआ।

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