प्रथम विश्वयुद्ध के परिणाम
प्रथम विश्वयुद्ध के परिणाम
प्रथम विश्वयुद्ध के परिणाम
राजनीतिक परिणाम
(i) साम्राज्यों का अंत
(ii) विश्व मानचित्र में परिवर्तन
(iii) सोवियत संघ का उदय
(iv) उपनिवेशों में जागरण
(v) विश्व राजनीति पर से यूरोप का प्रभाव कमजोर पड़ना
(vi) अधिनायकवाद का उदय
(vii) विचार-अभिव्यक्ति पर नियंत्रण का प्रयास
(viii) द्वितीय विश्वयुद्ध का बीजारोपण
(ix) विश्वशांति की स्थापना का प्रयास
• सैन्य परिणाम
• आर्थिक परिणाम
(i) धन-जन की अपार क्षति
(ii) आर्थिक संकट
(iii) सरकारी आर्थिक नीतियों में परिवर्तन
• सामाजिक परिणाम
(i) नस्लों की समानता
(ii) जनसंख्या की क्षति
(iii) स्त्रियों की स्थिति में सुधार
(iv) मजदूरों की स्थिति में सुधार
(v) सामाजिक मान्यताओं में बदलाव
• वैज्ञानिक प्रगति
प्रथम विश्वयुद्ध के परिणाम:-
परिणामों के दृष्टिकोण से प्रथम विश्वयुद्ध को विश्व इतिहास का एक वर्तन-बिंदु माना गया है। इसके अनेक तत्कालीन और
दूरगामी परिणाम हुए। इस युद्ध का प्रभाव राजनीतिक, सैनिक, सामाजिक और अर्थव्यवस्था पर पड़ा।
राजनीतिक परिणाम
(i) साम्राज्यों का अंत- प्रथम विश्वयुद्ध में जिन बड़े साम्राज्यों ने केंद्रीय शक्तियों के साथ भाग लिया था उनका युद्ध के बाद
पतन हो गया। पेरिस शांति सम्मेलन के परिणामस्वरूप ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य बिखर गया। जर्मनी में होहेनजोलन और
ऑस्ट्रिया-हंगरी में हैप्सवर्ग राजवंश का शासन समाप्त हो गया। वहाँ गणतंत्र की स्थापना हुई। इसी प्रकार, 1917 में रूसी क्रांति के परिणामस्वरूप रूस में रोमोनोव राजवंश की सत्ता समाप्त हो गई एवं गणतंत्र की स्थापना हुई। तुर्की का ऑटोमन साम्राज्य भी समाप्त हो गया। उसका अधिकांश भाग यूनान और इटली को दे दिया गया।
(ii) विश्व मानचित्र में परिवर्तन- प्रथम विश्वयुद्ध के बाद विश्व मानचित्र में परिवर्तन आया। साम्राज्यों के विघटन के साथ ही पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया जैसे नए राष्ट्रों का उदय हुआ। ऑस्ट्रिया, जर्मनी, फ्रांस और रूस की सीमाएँ बदल
गई। बाल्टिक राज्य रूसी साम्राज्य से स्वतंत्र कर दिए गए। एशियाई और अफ्रीकी उपनिवेशों पर मित्र राष्ट्रों के अधिकार
करने से वहाँ भी परिस्थिति बदली। इसी प्रकार, जापान को भी अनेक नए क्षेत्र प्राप्त हुए। इराक को ब्रिटिश एवं सीरिया को
फ्रांसीसी संरक्षण (मैडेट) में रख दिया गया। फिलस्तीन इंगलैंड को दे दिया गया।
(iii) सोवियत संघ का उदय-प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान रूस में 1917 में बोल्शेविक क्रांति हुई। इसके परिणामस्वरूप रूसी
साम्राज्य के स्थान पर सोवियत संघ का उदय हुआ। जारशाही का स्थान समाजवादी सरकार ने ले लिया।
(iv) उपनिवेशों में जागरण-युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों ने घोषणा की थी कि युद्ध समाप्त होने पर आत्मनिर्णय के सिद्धांत को लागू किया जाएगा। इससे अनेक उपनिवेशों और पराधीन देशों में स्वतंत्रता प्राप्त करने की भावना बलवती हुई। सोया हुआ
राष्ट्रवाद जग उठा। प्रत्येक उपनिवेश में राष्ट्रवादी आंदोलन आरंभ हो गए। भारत में भी महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 1917 से
स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक चरण आरंभ हुआ।
(v) विश्व राजनीति पर से यूरोप का प्रभाव कमजोर पड़ना- युद्ध के पूर्व तक विश्व राजनीति में यूरोप की अग्रणी भूमिका थी।
जर्मनी, फ्रांस, इंगलैंड और रूस के इर्द-गिर्द विश्व राजनीति घूमती थी, परंतु 1918 के बाद यह स्थिति बदल गई। युद्धोत्तर
काल में अमेरिका का दबदबा बढ़ गया।
(vi) अधिनायकवाद का उदय-प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप
अधिनायकवाद का उदय हुआ। वर्साय की संधि का सहारा लेकर
जर्मनी में हिटलर और उसकी नाजी पार्टी ने सत्ता हथिया ली।
नाजीवाद ने एक नया राजनीतिक दर्शन दिया। इसमें सारी सत्ता एक शक्तिशाली नेता के हाथों में केंद्रित कर दी गई। जर्मनी के समान इटली में भी मुसोलिनी के नेतृत्व में फासीवाद का उदय हुआ। इटली भी पेरिस सम्मेलन से असंतुष्ट था, अतः मित्र
राष्ट्रों के प्रति इटली की कटुता बढ़ती गई। हिटलर के समान मुसोलिनी ने भी सारी सत्ता अपने हाथों में केंद्रित कर ली।
(vii) विचार-अभिव्यक्ति पर नियंत्रण का प्रयास-प्रत्येक राष्ट्र की सरकार ने युद्ध के बाद जनमत को नियंत्रित करने का कार्य
आरंभ कर दिया। विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप आम जनता में आई हताशा को दूर करने एवं विषम आर्थिक परिस्थितियों से
उनका ध्यान खींचकर दूसरी ओर लगाना सरकारों के लिए आवश्यक हो गया। इसलिए, समाचारपत्रों, भाषणों, पुस्तकों तथा इश्तहारों द्वारा जनता को उत्साहित किया गया। इस क्रम में विरोधी राष्ट्रों के विरुद्ध आरोप भी लगाए गए। उदाहरण के लिए,
जर्मनी में इश्तहारों के माध्यम से इंगलैंड को एक ऐसे कट्टर दुश्मन के रूप में चित्रित किया गया, जो नाकेबंदी के द्वारा मासूम बच्चों को भूखे मार रहा था। मित्र देशों में जर्मन कैजर को उग्र आँखों और आवश्यकता से अधिक खड़ी मूंछोंवाले राक्षस के रूप में प्रस्तुत किया गया जो सारी दुनिया को जीतने के लिए पागल हो रहा था। इस प्रकार, सेंसरशिप ने अंतरराष्ट्रीय तनाव को कम करने के बदले बढ़ाया ही।
(viii) द्वितीय विश्वयुद्ध का बीजारोपण-प्रथम विश्वयुद्ध ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज भी बो दिए। पराजित राष्ट्रों के साथ जिस प्रकार का व्यवहार किया गया इससे वे अपने को अपमानित समझने लगे। उन राष्ट्रों में पुनः उग्र राष्ट्रीयता प्रभावी बन गई।
प्रत्येक राष्ट्र एक बार फिर से अपने को संगठित कर अपनी शक्ति बढ़ाने लगा। एक-एक कर संधि की शर्तों को तोड़ा जाने
लगा। इससे विश्व एक बार फिर से बारूद के ढेर पर बैठ गया। इसकी अंतिम परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध में हुई।
(ix) विश्वशांति की स्थापना का प्रयास-प्रथम विश्वयुद्ध में जन-धन की भारी क्षति को देखकर भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति
को रोकने के लिए तत्कालीन राजनीतिज्ञों ने प्रयास आरंभ कर दिए। अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन की इसमें प्रमुख
भूमिका थी। फलतः, 1919 में राष्ट्रसंघ (League of Nations) की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय विवादों का
शांतिपूर्ण ढंग से समाधान कर युद्ध की विभीषिका को रोकने का प्रयास करना था। दुर्भाग्यवश राष्ट्रसंघ अपने उद्देश्यों में
विफल रहा।
सैन्य परिणाम
पेरिस सम्मेलन में पराजित राष्ट्रों की सैनिक शक्ति को कमजोर करने के लिए निरस्त्रीकरण की व्यवस्था की गई। इस नीति का
सबसे बड़ा शिकार जर्मनी हुआ। विजित राष्ट्रों ने अपनी सैन्य शक्ति में वृद्धि करनी आरंभ कर दी। इससे पराजित राष्ट्रों में भय
की भावना जगी, अतः वे भी अपने को मजबूत करने के प्रयास में लग गए। इससे हथियारबंदी की होड़ आरंभ हो गई जिसका
विश्वशांति पर बुरा प्रभाव पड़ा।
आर्थिक परिणाम
(i) धन-जन की अपार क्षति-प्रथम विश्वयुद्ध एक प्रलयंकारी युद्ध था। इसमें लाखों व्यक्ति मारे गए। अरबों की संपत्ति नष्ट
हुई। इसका सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा। हजारों कल-कारखाने बंद हो गए। कृषि, उद्योग और व्यापार
नष्टप्राय हो गए। बेकारी और भुखमरी की समस्या उठ खड़ी हुई।
(ii) आर्थिक संकट-प्रथम विश्वयुद्ध ने विश्व में आर्थिक संकट उत्पन्न कर दिया। वस्तुओं के मूल्य बढ़ गए। मुद्रास्फीति की
समस्या उठ खड़ी हुई। फलतः, संपूर्ण विश्व में आर्थिक अव्यवस्था व्याप्त गई। ऋण का भार बढ़ने से जनता पर करों का
बोझ बढ़ गया।
(iii) सरकारी आर्थिक नीतियों में परिवर्तन-तत्कालीन परिस्थितियों के वशीभूत होकर प्रत्येक राष्ट्र ने अपनी आर्थिक
नीति में परिवर्तन किया। नियोजित अर्थव्यवस्था लागू की गई। सरकारी अनुमति के बिना कोई नया व्यवसाय आरंभ नहीं किया
जा सकता था। घाटा में चल रहे उद्योगों, विशेषतः युद्धोपयोगी सामान बनानेवाले उद्योगों को राजकीय संरक्षण देने की नीति
अपनाई गई। विदेशी व्यापार पर राज्य का एकाधिकार स्थापित किया गया। प्रत्येक राष्ट्र को, विशेषतः जर्मनी को आर्थिक
आत्मनिर्भरता की नीति अपनानी पड़ी। गैर-यूरोपीय राष्ट्रों में लगाई जानेवाली पूँजी में भारी कमी की गई।
सामाजिक परिणाम
(i) नस्लों की समानता – युद्ध के पूर्व यूरोपीय नस्लभेद अथवा काला-गोरा के विभेद पर अधिक बल देते थे। वे एशिया-
अफ्रीका के काले लोगों को अपने से हीन मानते थे, परंतु युद्ध में उनकी वीरता देखकर उन्हें अपनी धारणा बदलनी पड़ी। धीरे-धीरे काला-गोरा का भेद कम होने लगा। इससे अंतरराष्ट्रीयता की
भावना विकसित हुई।
(ii) जनसंख्या की क्षति-युद्ध में लाखों लोग मरे तथा घायल हुए। इनमें ज्यादा संख्या पुरुषों की थी, इसलिए पुरुष-स्त्री लिंग
अनुपात में भारी कमी आई। युद्ध के दौरान जनसंख्या की बढ़ोतरी दर में कमी आई, परंतु युद्ध के बाद इसमें तेजी से वृद्धि हुई।
(iii) स्त्रियों की स्थिति में सुधार-विश्वयुद्ध के दौरान अधिकांश पुरुषों के सेना में भरती होने से स्त्रियों को घर से बाहर आकर
काम करने का अवसर मिला। वे कारखानों, दुकानों, अस्पतालों, स्कूलों और दफ्तरों में काम करने लगीं। अतः, उनमें नवजागरण आया। वे अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो गई। अपने अधिकारों के लिए महिलाओं ने आंदोलन चलाए, फलतः, उन्हें सीमित मताधिकार मिला। 1918 में इंगलैंड ने पहली बार महिलाओं को सीमित मताधिकार दिया।
(iv) मजदूरों की स्थिति में सुधार-युद्धकाल में युद्ध-सामग्री के उत्पादन में मजदूरों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, इसलिए उनका
महत्त्व बढ़ गया। उन्हें उचित मजदूरी और आवश्यक सुविधाएँ देने की व्यवस्था की गई। इससे मजदूरों की स्थिति में सुधार
हुआ। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की स्थापना की गई।
(v) सामाजिक मान्यताओं में बदलाव-प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप प्रचलित सामाजिक मान्यताओं में भी परिवर्तन
आया। वर्ग और संपत्ति का विभेद कमजोर हुआ। मुनाफाखोर और चोरबाजारी करनेवाले घृणा और तिरस्कार के पात्र बने। उच्च और मध्यम वर्ग के लिए अपनी सुविधाओं को प्रदर्शित करना लज्जाजनक माना गया। कम खाना और पुराने कपड़े पहनना देशभक्ति का प्रतीक बन गया। इसी प्रकार, आयुध कारखानों में काम करना भी देशभक्ति माना गया।
वैज्ञानिक प्रगति
प्रथम विश्वयुद्ध ने वैज्ञानिक खोजों को गति दी। युद्ध के दौरान नए अस्त्र-शस्त्र बनाए गए। विशाल जलयानों, पनडुब्बियों और
वायुयानों के निर्माण का युद्ध और विश्व पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस प्रकार, कहा जा सकता है कि प्रथम विश्वयुद्ध के कुछ
सुखद परिणाम हुए, परंतु अधिकांश परिणाम दुःखदायी ही थे।
