बच्चों में सोचना एवं सीखना
बच्चों में सोचना एवं सीखना
बच्चों में सोचना एवं सीखना
Thinking and Learning in Children
CTET परीक्षा के विगत वर्षों के प्रश्न-पत्रों का विश्लेषण करने से
यह ज्ञात होता है कि इस अध्याय से वर्ष 2011 में 2, 2012 में 6,
2014 में 2, 2015 में 2 तथा वर्ष 2016 में 2 प्रश्न पूछे गए हैं।
इस अध्याय से बच्चे कैसे सीखते हैं, सीखने के नियम एवं
सिद्धान्त से प्रश्न पूछे जाते हैं।
15.1 बच्चे कैसे सोचते हैं?
सोचना एक उच्च प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है, जो ज्ञान को संगठित करने में
एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस मानसिक प्रक्रिया में बहुधा स्मृति,
प्रत्यक्षीकरण, अनुमान, कल्पना आदि मानसिक प्रक्रियाएँ भी सम्मिलित होती हैं।
एक बालक के समक्ष हमेशा अनेक वस्तुएँ, समस्याएँ, दृश्य-परिदृश्य आदि
दृष्टिगोचर होती रहती हैं तथा बालक उन समस्याओं, वस्तुओं, दृश्य-परिदृश्यों
आदि के विषय में चिन्तन करता रहता है। यह चिन्तन अनुभवजन्य होता है।
बालक अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार वस्तुओं को देखकर या छूकर
उनके बारे में अनुभव प्राप्त करता है। धीरे-धीरे बालक में प्रत्यय निर्माण होने
लगता है तथा पूर्व किशोरावस्था में बालक अमूर्त वस्तुओं के विषय में सोचने
लगता है।
बालक में सोचने की प्रक्रिया का विकास एक निश्चित क्रम में होता है।
16.1.1 बालकों में सोचने की प्रक्रिया
बालकों में सोचने की प्रक्रिया (Process of Thinking in Children) के
निम्नलिखित प्रकार हैं
1. प्रत्यक्षीकरण के आधार पर सोचना
बच्चों में इस प्रकार की सोच का विकास वस्तुओं और परिस्थितियों के
प्रत्यक्षीकरण से सम्बन्धित होता है। बालक अपने चारों ओर के भौतिक और
मनोवैज्ञानिक वातावरण में जिन वस्तुओं और परिस्थितियों को देखता है या
प्रत्यक्षीकरण करता है। उसके आधार पर वह अपने ज्ञान का संचय कर
अपनी सोच का विकास करता है।
2. कल्पना के आधार पर सोचना
जब उद्दीपन, वस्तु या पदार्थ, उपस्थित नहीं होता है, तब उसकी कल्पना
(Imagination) की जाती है। इनके अभाव में कोई बालक इनकी
मानसिक प्रतिमा (Image) बनाकर अपने ज्ञान का संचय करता है।
कल्पना, बालकों में सोचने का एक सुदृढ़ आधार है, जिसके आधार पर
बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी भविष्यगत सोच का
निर्माण करता है।
3. प्रत्ययों के आधार पर सोचना
यह अपेक्षाकृत अधिक उच्च प्रकार की सोच है। इसकी बालकों में
अभिव्यक्ति तभी होती है, जब बालकों में प्रत्ययों (Concepts) का निर्माण
प्रारम्भ होता है। एक बालक में जितने ही अधिक प्रत्यय निर्मित होते हैं
उसमें उतनी ही अधिक प्रत्ययात्मक सोच पाई जाती है। इस प्रकार की
सोच को विचारात्मक सोच भी कहते है। स्थान, आकार, भार, समय, दूरी
और संख्या आदि सम्बन्धी प्रत्यय बालकों में प्रारम्भिक आयु स्तर पर ही
बन जाते हैं।
4. तर्क के आधार पर सोचना
इस प्रकार की सोच का विकास किसी बालक में भाषा सम्प्रेषण के आधार
पर होता है। यह सबसे उच्च प्रकार की सोच है।
5. तर्कणा के आधार पर सोचना
किसी बात/समस्या को लेकर भिन्न-भिन्न प्रकार का तर्क (logic) लगाना,
तर्कणा कहलाता है। तर्कणा के विभिन्न प्रकार है
(i) निगमनात्मक तर्कणा (Deductive Reasoning) तर्क करने की एक
ऐसी विधि जो अभिग्रह या पूर्वधारणा से आरम्भ होती है। यह सामान्य
से विशिष्ट की ओर तर्कणा है।
(ii) आगमनात्मक तर्कणा (Inductive Reasoning) तर्क करने की एक
ऐसी विधि जो विशिष्ट तथ्यों एवं प्रेक्षण पर आधारित हो। यह विशिष्ट
से सामान्य की ओर चलती है।
5. अनुभव के आधार पर सोचना
बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी नवीन सोच का विकास
करते हैं। इस प्रकार की सोच का विकास बच्चों में स्थायी ज्ञान प्राप्ति का
सर्वोत्तम साधन माना जाता है।
7. रुचि और जिज्ञासा के आधार पर सोचना
कुछ बालक अपनी रुचियों और जिज्ञासाओं के आधार पर अपनी सोच का
सृजन करते हैं। शिक्षक तथा अभिभावकों को चाहिए कि वह बालकों में
नई-नई रुचियों और जिज्ञासा (Desire) को पैदा करें, जिससे कि बच्चों में
सोचने की प्रक्रिया की गति तीव्र हो सके।
8. अनुकरण के आधार पर सोचना
बालकों की सोच के विकास में अनुकरण का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। वह
जब अपने आस-पास लोगों को कोई कार्य करते देखते हैं, तब वह उसी
कार्य को करने की कोशिश करते है तथा अपनी सोच का विकास
करते है।
16.1.2 बच्चों में सोचने की योग्यता को बढ़ाने हेतु आवश्यक कदम
बालकों में सोचने की योग्यता सफल जीवन के लिए आवश्यक है। अत:
अभिभावको और शिक्षकों को चाहिए कि बालको में इस योग्यता के विकास
पर ध्यान दिया जाए। बालकों में सोचने की योग्यता के विकास में
निम्नलिखित उपाय सहायक है, जो निम्न प्रकार है
• बालको को सोचने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करना चाहिए। बालकों के
भाषा ज्ञान को उच्च करने के उपाय करने चाहिए, जिससे वह समय-समय
पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर सके।
• बालको की रुचियों के विकास पर ध्यान देना चाहिए। रुचियों के अभाव में
सोचने की योग्यता कठिनाई से विकसित हो पाती है।
• बालको को उनकी आयु के अनुसार समय-समय पर ऐसे कार्य सौंपे जाने
चाहिए, जिससे उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके और
उत्तरदायित्व के निर्वहन हेतु सोचने के लिए प्रेरित हो सके।
• बालको को उनकी आयु के अनुसार समस्या समाधान करना भी
माता-पिता और शिक्षकों को सिखलाना चाहिए, क्योकि समस्या- समाधान
के द्वारा भी सोचने की योग्यता विकसित होती है। शिक्षकों और माता-पिता
को बालकों को नवीन बातो की समय-समय पर अर्थात् उनको आयु के
अनुसार जानकारी देनी चाहिए, जिससे उनमें सोचने का विकास सुचारु रूप
से चल सके। तर्क और वाद-विवाद भी सोचने की योग्यता के विकास में
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
• बालको को ऐसा उद्दीपकपूर्ण वातावरण समय-समय पर उपलब्ध कराना
चाहिए, जिससे वे सोचने के महत्त्व को समझे और अपनी योग्यता को
बढ़ाने के लिए प्रदत्त वातावरण का लाभ उठा सकें।
16.2 बच्चे कैसे सीखते हैं?
सीखना एक प्रक्रिया है, जो जीवनपर्यन्त चलती रहती है एवं जिसके द्वारा हम
कुछ ज्ञान अर्जित करते हैं या जिसके द्वारा हमारे व्यवहार में परिवर्तन
होता है।
फ्रेण्डसन के अनुसार, “सीखना, अनुभव या व्यवहार में परिवर्तन है।”
जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है। सीखना कोई
आसान और सीधी प्रक्रिया नहीं होती, बल्कि यह जटिल (complex),
बहुआयामी और गतिशील प्रक्रिया है।
अधिगम व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है। इसके द्वारा
जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है। अधिगम के बाद
व्यक्ति स्वयं और दुनिया को समझने के योग्य हो पाता है।
रटकर विषय-वस्तु को याद करने को अधिगम नहीं कहा जा सकता। यदि छात्र
किसी विषय-वस्तु के ज्ञान के आधार कुछ परिवर्तन करने एवं उत्पादन करने
अर्थात् ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करने में सक्षम हो गया हो, तभी उसके सीखने
की प्रक्रिया को अधिगम के अन्तर्गत रखा जा सकता है। सार्थक अधिगम ठोस
चीजों एवं मानसिक द्योतको को प्रस्तुत करने व उनमें बदलाव लाने की उत्पादक
प्रक्रिया है न कि जानकारी इकट्ठा कर उसे रटने की प्रक्रिया।
गेट्स के अनुसार, “अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही
अधिगम है।”
ई.ए.पील के अनुसार, “अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है, जो उसके
वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।”
क्रो एवं क्रो के अनुसार, “सीखना, आदतो, ज्ञान एवं अभिवृत्तियों का
अर्जन है। इसमें कार्यों को करने के नवीन तरीके सम्मिलित है और इसकी
शुरुआत व्यक्ति द्वारा किसी भी बाधा को दूर करने अथवा नवीन
परिस्थितियों में अपने समायोजन को लेकर होती है। इसके माध्यम से
व्यवहार में उत्तरोत्तर परिवर्तन होता रहता है। यह व्यक्ति को अपने
अभिप्राय अथवा लक्ष्य को पाने में समर्थ बनाती हैं।” सभी बच्चे स्वभाव
से ही सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं और उनमें सीखने की क्षमता
होती है।
• अर्थ निकालना, अमूर्त सोच (Abstract thinking) की क्षमता विकसित
करना, विवेचना व कार्य, अधिगम या सीखने की प्रक्रिया के सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
• बच्चे व्यक्तिगत स्तर पर एवं दूसरों से भी विभिन्न तरीको से सीखते हैं।
अनुभव के माध्यम से, प्रयोग करने से, पढ़ने, विमर्श करने, पूछने, सुनने,
उस पर सोचने व मनन करने से तथा गतिविधि या लेखन के जरिए
अभिव्यक्ति करने से। अपने विकास के मार्ग में उन्हें ये सभी तरह के
अवसर मिलने चाहिए।
• बच्चे मानसिक रूप से तैयार हों, उससे पहले ही उन्हें पढ़ा देना, बाद की
अवस्थाओं में उनमे सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है। उन्हें बहुत-से
तथ्य ‘याद’ तो रह सकते है, लेकिन सम्भव है कि वे न तो उन्हें समझ
पाएँ न ही उन्हें अपने आस-पास की दुनिया से जोड़ पाएँ।
• स्कूल के भीतर और बाहर, दोनो जगहों पर सीखने की प्रक्रिया चलती
रहती है। इन दोनों जगहों में यदि सम्बन्ध रहे तो सीखने की प्रक्रिया पुष्ट
होती है।
• कला और कार्य, समय सीखने के अवसर प्रदान करते है, जो सौन्दर्यबोध
(Aesthetic sense) से पुष्ट होता है। ऐसे अनुभव भाषायी रूप से ज्ञात
चीजों के लिए महत्त्वपूर्ण है विशेषकर नैतिक मुद्दों में ताकि प्रत्यक्ष
अनुभवो से सीखा जा सके और जीवन में समाहित किया जा सके।
• सीखना किसी की मध्यस्थता या उसके बिना भी हो सकता है। प्रत्यक्ष रूप से
सीखने से सामाजिक सन्दर्भ व संवाद विशेषकर अधिक सक्षम लोगों से संवाद
विद्यार्थियों को उनके स्वयं के उच्च संज्ञानात्मक स्तर पर कार्य करने का मौका
देते है।
• सीखने को एक उचित गति होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रट
कर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाएं, बल्कि उसे समझ सकें
और आत्मसात (Assimilate) कर सके। साथ ही सीखने में विविधता व
चुनौतियाँ होनी चाहिए ताकि वह बच्चों को रोचक लगे और उन्हें व्यस्त रख
सकें। ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि उस कार्य को बच्चा अब
यांत्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है।
• बच्चों की अधिगम (सीखने) को प्रक्रिया में माता-पिता को अग्रोन्मुखी
भूमिका निभाना चाहिए, क्योंकि परिवार बच्चों को प्रथम पाठशाला माना
गया है।
16.2.1 बच्चों में सीखने के नियम अथवा सिद्धान्त
1. तत्परता का नियम
इस नियम का प्रतिपादन पॉर्नडाइक ने किया था। इस नियम का अभिप्राय यह
है कि यदि बालक किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर या तैयार होते हैं,
हो वह उसे शीघ्र ही सोख लेते है। तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित
रहती है। यदि बालक में गणित के प्रश्न करने की तीव्र इच्छा हो, तो वह
उनको करता है, अन्यथा नहीं। इतना ही नहीं, तत्परता के कारण वह उनको
अधिक शीघ्रता और कुशलता से करता है। तत्परता उसके ध्यान को कार्य पर
केन्द्रित करने में सहायता देती है. जिसके फलस्वरूप वह उसे सम्पन्न करने
में सफल होता है।
2. अभ्यास का नियम
इस नियम का प्रतिपादन भी चॉर्नडाइक ने ही किया था। इस नियम का
अभिप्राय है कि यदि बालक कार्य को बार-बार करता रहे, तो वह उस कार्य में
अन्य सामान्य बालक को अपेक्षा अधिक निपुण हो जाता है।
3. प्रभाव/सन्तोष का नियम
दोनडाइक के इस नियम के अनुसार बालक उस कार्य को सीखना चाहते है, जिसका
परिणाम हमारे लिए हितकर होता है या जिससे बालको को सुख और सन्तोष मिलता
है। यदि चालको को किसी कार्य को करने या सोखने में कष्ट होता है, तो बालक
उसको करते या सीखते नहीं है। वाशबर्न के अनुसार, “जब सीखने का अर्थ किसी
उद्देश्य या इच्छा को सन्तुष्ट करना होता है, तब सीखने में सन्तोष का महत्त्वपूर्ण
स्थान होता है।’
4. सीखने का प्रबलन सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिको मनोवैज्ञानिक सी.एल. हल द्वारा किया गया
था। इस सिद्धान्त के अनुसार, “सीखने का आधार आवश्यकता की पूर्ति की
प्रक्रिया है।” जब बालक की किसी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती है, तब
उसमें असन्तोष उत्पन्न हो जाता है, उदाहरण के लिए भोजन की
आवश्यकता पूर्ण न होने पर बालक में तनाव उत्पन्न हो जाता है, उसके
फलस्वरूप उसकी दशा असन्तुलित हो जाती है।
साथ ही, भूख को चालक शक्ति उसे भोजन प्राप्त करने के लिए क्रियाशील
बना देती है अर्थात् प्रबलन (Reinforcement) बनता है। कुछ समय के बाद
वह ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है जब उसको भोजन की आवश्यकता सन्तुष्ट
हो जाती है। इसके फलस्वरूप, भूख से चालक को शक्ति कम हो जाती है।
16.2.2 बालक विद्यालय प्रदर्शन में सफलता
प्राप्त करने में कैसे और क्यों असफल होते हैं
पड़ाई के दौरान बालक विद्यालय स्तर पर कैसे एवं क्यों असफल हो जाते हैं,
यह आरम्भ से ही अनुसन्धान (Research) का विषय रहा है। शिक्षार्थियों की
असफलता के पीछे कोई एक कारण, नहीं अपितु कारणों की श्रृंखला
उत्तरदायी है, जो इस प्रकार है
1. विद्यालय का परिवेश
विद्यालय का परिवेश (Environment of School) काफी हद तक विद्यार्थियों
की सफलता एवं असफलता को प्रभावित करता है। विद्यालय का वातावरण
बाल-केन्द्रित होना चाहिए तथा विद्यालय की सभी व्यवस्था के केन्द्र में
चालको को होना चाहिए साथ ही विद्यालय का वातावरण जनतान्त्रिक आदर्शों,
मौलिकता, स्वतन्त्र चिन्तन तथा राजन पर आधारित होना चाहिए। शिक्षक एवं
शिक्षार्थी दोनो को पढ़ाई के प्रति अभिप्रेरित होना चाहिए तथा विद्यालय का
वातावरण शान्त एवं भयमुक्त होना चाहिए। अगर इन व्यवस्थाओं में कमियाँ
उत्पन्न होगी, तो इसका नकारात्मक प्रभाव बच्चों के परिणाम पर पड़ेगा।
2. पारिवारिक माहौल
बालको की असफलता के लिए पारिवारिक माहौल (Familiar
Environment) भी जिम्मेदार होता है। अगर माता-पिता अपने बच्चों की
पढ़ाई के प्रति जागरूक न हो तो बच्चे विलम्ब से पढ़ना प्रारम्भ करते है।
माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के जागरूक नहीं रहने के कारण
बच्चों की सफलता की दर काफी हद तक प्रभावित होती है, क्योकि परिवार
को शिक्षा की प्रथम पाठशाला माना गया है।
3. अभ्यास का अभाव
बच्चे पढ़ाई के दौरान अपने पात्यक्रम का उचित तरीके से अभ्यास नहीं
करते हैं, इसके परिणामस्वरूप वे सीखी हुई विषयों को भूलने लगते है।
अभ्यास की कमी के कारण जब बालकों की उपलब्धियों का मूल्यांकन
विद्यालय स्तर पर होता है तो वे असफल हो जाते है।
4. अभिरुचि एवं जिज्ञासा की कमी
विद्यालय स्तर पर अध्ययन के दौरान प्रायः यह देखा जाता है कि बालकों में
पढ़ाई के प्रति अभिरुचि एवं जिज्ञासा (Interest and Curious) का अभाव
दिखता है। जिसके कारण बच्चे पढ़ाई के प्रति संवेदनशील नहीं हो पाते तथा
जब उनकी उपलब्धियों का मूल्यांकन होता है, तो वे पिछड़ जाते है तथा वे
असफल हो जाते है।
5. स्वास्थ्य
पठन-पाठन के लिए बालको को शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहना
अतिआवश्यक है। स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण बालक पढ़ाई पर ध्यान
केन्द्रित नहीं कर पाते है। अस्वस्थ वातावरण में उसकी शैक्षिक विकास धीमा
पड़ जाता है। इस कारण परीक्षा की उचित तैयारी नहीं हो पाती है
परिणामस्वरूप वे असफल हो जाते है।
5. कक्षा वर्ग का वातावरण
विद्यालय स्तर पर अध्ययन के दौरान कक्षा का माहौल प्रतिस्पर्धात्मक
(competitive) एवं अनुशासनात्मक होना चाहिए। यह तभी सम्भव होगा,
जब शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों अपने-अपने कार्यों के प्रति जवाबदेह हो।
कक्षा का अनुपयुक्त परिवेश भी बालको के कमजोर प्रदर्शन के लिए
जिम्मेदार होता है।
7.शिक्षण विधियाँ एवं युक्तियाँ
छात्रों के प्रदर्शन एवं उपलब्धियों पर उचित शिक्षण विधि एवं युक्ति
(Teaching Method & Instrument) का गहरा प्रभाव पड़ता है। अध्यापक
यदि अध्यापन (teaching) के दौरान नवीन तरीको का प्रयोग करते है तो
बच्चों की पढ़ाई के प्रति जागरूक होंगे। यदि पढ़ाने की परम्परागत विधि
अर्थात् ‘रटेत प्रणाली’ पर शिक्षक जोर देंगे तो इसका नकारात्मक प्रभाव
बालकों के परीक्षा परिणाम पर पड़ेगा।
8. प्रेरणा एवं मागदर्शन का अभाव
यदि बालकों को पढ़ाई के दौरान उचित प्रेरणा एवं मार्गदर्शन (Motivation
& Guidance) मिलता रहे तो वे कभी असफल नहीं होंगे। बालकों को क्या
पढ़ना चाहिए? कैसे पढ़ना चाहिए? पढ़ने की वैज्ञानिक शैली क्या हो यह
काफी हद तक प्रेरणा एवं मार्गदर्शन पर निर्भर करता है। प्रेरणा बालकों में
पढ़ाई के प्रति जोश उत्पन्न करती है। इनके अभाव के कारण बच्चे असफल
हो सकते हैं।
9. पढ़ाई के दौरान विद्यालय से भाग जाना
कुछ बच्चे विद्यालय स्तर पर प्रदर्शन में इसलिए असफल हो जाते हैं कि जब
विद्यालय में पढ़ाई होती है, तो वे पढ़ने के भय से विद्यालय से भाग जाते हैं।
तथा विषय-वस्तु के अध्ययन से वंचित हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप
उनकी शैक्षिक उपलब्धि पर नकारात्मक असर पड़ता है।
16.2.3 बालकों को असफल होने से रोकने के लिए-सुझाव एवं रणनीति
1. माता-पिता की भागीदारी
बच्चों की सफलता के पीछे माता-पिता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर
घर का वातावरण मजबूत एवं स्थिर हो तो बच्चों की सफल होने की
सम्भावना बढ़ जाती है। माता पिता बालकों की पढ़ाई में सहयोगी भूमिका
निभाते हैं अर्थात् बच्चों से बात चीत करने का उचित तरीका, होमवर्क के
समय उपस्थित रहना, शिष्टाचार सिखाना, समय पर विद्यालय भेजना तथा
विषय-वस्तु से हटकर अपने बालकों को सामान्य ज्ञान की जानकारी
देना आदि।
2. बालकों में कौशल का विकास
माता-पिता एवं शिक्षक दोनों मिलकर बालकों में विभिन्न प्रकार के कौशलों
का विकास करते हैं, उदाहरणस्वरूप पढ़ना, लिखना, गणित के विषय में
बताना, सामाजिक शिष्टाचार के बारे में बताना तथा बालकों में नैतिक विकास
को बढ़ावा देना। स्कूल में उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने में इस प्रकार
का कौशल उन्हें मदद करता है।
3. उच्च अभिप्रेरणा स्तर
अभिप्रेरणा (Motivation) बालकों को विद्यालय स्तर पर बेहतर प्रदर्शन में
उत्प्रेरक (Catalyst) का कार्य करती है। शैक्षणिक सफलता एवं माता-पिता
का सहयोग उनके आत्म सम्मान को बढ़ाता है। अभिप्रेरणा के कारण बालको
में पाठ्यक्रम से अलग जाकर ज्ञान अर्जित करने की क्षमता तथा उनमें
जोखिम उठाने की क्षमता होती है। बालकों के कार्य प्रदर्शन के अनुरूप
माता-पिता एवं शिक्षक उन्हें लगातार फीडबैक देते रहते हैं।
अभ्यास प्रश्न
1. सोचना एक क्रिया है
(1) निम्न प्रकार की मानसिक क्रिया
(2) उच्च प्रकार की मानसिक क्रिया
(3) निम्न एवं उच्च दोनों प्रकार की मानसिक क्रिया
(4) उपरोक्त में से कोई नहीं
2. बालकों में सोचने की प्रक्रिया के विकास का क्रम होता है
(1) निश्चित क्रम
(2) अनिश्चित क्रम
(3) निश्चित तथा अनिश्चित दोनों
(4) उपरोक्त में से कोई नहीं
3. किस अवस्था में व्यक्ति अमूर्त वस्तुओं के बारे में सोचना प्रारम्भ कर देता है?
(1) बाल्यावस्था में
(2) किशोरावस्था में
(3) प्रौढ़ावस्था में
(4) उपरोक्त सभी
4. कोई बालक अपने चारों ओर के भौतिक और मनोवैज्ञानिक परिवेश को देखकर
सीखता है यह प्रक्रिया कहलाएगी
(1) प्रत्यक्षीकरण (देखकर) के आधार पर
(2) कल्पना के आधार पर
(3) तर्क के आधार पर
(4) अनुकरण के आधार पर
5. प्रकाश कक्षा दो का विद्यार्थी है वह अपनी
सोच की प्रक्रिया को अभिरुचि एवं उत्सुकता
के आधार पर बढ़ा रहा है वह सोच की किस
प्रक्रिया की तरफ अग्रसर है?
(1) रुचि एवं जिज्ञासा की प्रक्रिया
(2) अनुकरण की प्रक्रिया
(3) तर्क की प्रक्रिया
(4) कोई प्रक्रिया नहीं
6. निम्न में से कौन बालकों में सोचने की प्रक्रिया का अंग नहीं है?
(1) प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया
(2) कल्पना की प्रक्रिया
(3) तर्क की प्रक्रिया
(4) समावेशन की प्रक्रिया
7. अनुकरण का अर्थ होता है
(1) किसी की नकल करना
(2) स्वयं की मौलिकता
(3) मौलिकता एवं नकल दोनों का मिला-जुला रूप
(4) उपरोक्त में से कोई नहीं
8. बच्चे के सोचने की प्रक्रिया में किस आधार
पर सोचने को सबसे उच्च माना गया है?
(1) रुचि के आधार पर सोचना
(2) अनुभव के आधार पर सोचना
(3) तर्क के आधार पर सोचना
(4) अनुकरण के आधार पर सोचना
9. किसी बालक में तर्क के आधार पर
सोचने की क्षमता के विकास के लिए
आवश्यक तत्त्व है
(1) भाषा सम्प्रेषण में निपुणता
(2) असीमित कल्पना शक्ति
(3) बालक के समक्ष अनेक समस्याएँ
(4) उसकी बोलने की गति
10. “बालकों में सोचने की योग्यता सफल
जीवन के लिए आवश्यक है।’ निम्न में
से यह मत किसका है?
(1) पियाजे
(2) क्रो एवं को
(3) स्किनर
(4) पैवलॉव
11. तर्क करने की एक ऐसी विधि, जो
पूर्वधारण से आरम्भ होती है कहलाती है
(1) निगमनात्मक तर्क
(2) आगमनात्मक तर्क
(3) निगमनात्मक तथा आगमनात्मक दोनों
(4) उपरोक्त में से कोई नहीं
12. आगमनात्मक तर्कणा चलती है
(1) विशिष्ट से सामान्य की ओर
(2) सामान्य से विशिष्ट की ओर
(3) सामान्य से सामान्य की ओर
(4) उपरोक्त में से कोई नहीं
13. सीखना एक प्रक्रिया है, जो
(1) जीवनपर्यन्त चलती रहती है
(2) एक सीमा के बाद रुक जाती है
(3) एक निश्चित आयु तक चलती है
(4) उपरोक्त में से कोई नहीं
14. “सीखना अनुभव एवं व्यवहार में परिवर्तन
है।” यह कथन किस मनोवैज्ञानिक का है?
(1) जेक्सन
(2) एण्डरसन
(3) एमुण्डसेन
(4) फ्रेण्डसन
15. सीखना कोई ………… और सीधी ……..
होती है, बल्कि यह जटिल, बहुआयामी
और गतिशील प्रक्रिया है।
(1) आसान प्रक्रिया
(2) आसान; प्रक्रिया नहीं
(3) कठोर, प्रक्रिया नहीं
(4) कठोर; प्रक्रिया
16. “अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही
अधिगम है।” यह कथन किससे सम्बन्धित है?
(1) गेट्स
(2) पील
(3) क्रो एवं क्रो
(4) वाइगोत्स्की
17. स्कूल के भीतर और बाहर, दोनों जगहों पर
……… की…………… चलती रहती है।
(1) विकास प्रक्रिया
(2) बालक : शरारते
(3) सीखने प्रक्रिया
(4) शिक्षकों प्रगति
18. सीखने से सम्बन्धित ‘तत्परता का नियम
किसने दिया है?
(1) थॉर्नडाइक
(2) पैवलॉव
(3) इ. ए.पील
(4) मॉस्लो
19. सीखने से सम्बन्धित ‘प्रबलन का सिद्धान्त’
निम्न मनोवैज्ञानिकों में से किससे सम्बन्धित है?
(1) सी. एल.हल
(2) वाइगोत्स्की
(3) पियाजे
(4) फ्रायड
20. बच्चों में सीखने के लिए आवश्यक तत्त्व है
A. अभ्यास
B. तत्परता
C. अन्त:दृष्टि
(1) केवल A
(2) केवल B
(3) केवल C
(4) ये सभी
21. बच्चों के सीखने के सन्दर्भ में निम्नलिखित
में से कौन-सा कथन सत्य है?
(1) सीखना किसी की मध्यस्थता के बिना नहीं हो
सकता है।
(2) बध्ये व्यक्तिगत स्तर पर एवं दूसरों से भी
विभिन्न तरीकों से सीखते हैं।
(3) सीखने के बाद व्यक्ति स्वयं और दुनिया को
समझने के योग्य हो पाता है।
(4) सीखना, अनुभव या व्यवहार में परिवर्तन है।
22. यदि कोई बालक किसी कार्य को बार-बार
दुहराता है तो वह थॉर्नडाइक के किस नियम
का अनुपालन करता है?
(1) तत्परता का नियम
(2) अभ्यास का नियम
(3) प्रभाव का नियम
(4) ये सभी
23. “सीखने का आधार आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया है।” यह कथन किस
मनोवैज्ञानिक का है?
(1) थार्नडाइक
(2) बुडवर्थ
(3) सी. एल. हल
(4) वाइगोत्स्की
24. सीखने की प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण साधन क्या हो सकते है?
(1) अर्थ निकालना
(2) अमूर्त सोच की क्षमता विकसित करना
(3) विवेचना का कार्य करना
(4) उपरोक्त सभी
25. “जब सीखने का अर्थ किसी उद्देश्य या इच्छा को सन्तुष्ट करना होता है।” इस
कथन का सम्बन्ध किससे है?
(1) थॉर्नडाइक
(2) बाशवन
(3) मारलो
(4) हर्जवर्ग
26. निम्नलिखित दिए गए कथनों में कौन-सा/से कथन सही है/है?
A. निगमनात्मक तर्कणा सामान्य से विशिष्ट
की ओर चलती है
B. अधिगम एक जीवनपर्यन्त चलने वाली
प्रक्रिया है
C. सीखने का प्रबल सिद्धान्त का नियम
थॉर्नडाइक ने दिया
D. बालकों में अनुकरण की प्रवृत्ति पाई
जाती है
(1)A और B
(2)C और D
(3) A,Bऔर D
(4) ये सभी
27. बालकों के सोचने के सन्दर्भ में निम्नलिखित
कथन दिया गया है उसके बारे में विचार
कीजिए। इनमें से कौन सत्य है?
A. बच्चे जैसा देखते है उसी आधार पर
सोचते है
B. कल्पनाशीलता बालकों के अन्दर अधिक
होती है
C. बालक स्वभाव से जिज्ञासु प्राणी होते हैं
D. बालक अपने पूर्व अनुभव के आधार पर
सोचते है
(1) केवल A
(2) A,B और D
(3) केवल AB
(4) ये सभी
28. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए
A. सीखना अनुभव या व्यवहार में
परिवर्तन है
B. सीखना एक जटिल एवं बहुआयामी
पद्धति है
C. बच्चे व्यक्तिगत स्तर पर एक-दूसरे से
विभिन्न तरीकों से सीखते है
D. तर्क एवं वाद-विवाद का सोचने की
प्रक्रिया में कोई स्थान नहीं होता है
उपरोक्त कथनो में कौन-सा/से कथन सत्य
है/है?
(1) केवल A
(2) A और B
(3) केवल D
(4) A,B और C
विगत वर्षों में पूछे गए प्रश्न
29. सीखना समय हो सकता है यदि
[CTETJune 2011]
(1) वासविक दुनिया से उदाहरणों को क्या में
लाया जाए जिसमें विद्यार्थी एक दूसरे को
अन्त क्रिया करें और शिक्षक उस प्रक्रिया को
सुगम बनाए।
(2) कक्षा में अधिक से अधिक शिवाण सामग्री का
प्रयोग किया जाए।
(3) शिक्षक विभिन्न प्रकार के व्याख्यान और
स्पष्टीकरण का प्रयोग करें।
(4) कक्षा में आवधिक परीक्षाओं पर अपेक्षित प्यान
दिया जाए।
30. बच्चों की सीखने की प्रक्रिया में माता-पिता
को ……………भूमिका निभानी चाहिए।
[CTET June 2011]
(1) नकारात्मक
(2) अप्रोन्मुखी
(3) सहानुभूतिपूर्ण
(4) तटस्थ
31. विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र का यह दृढ़
विश्वास है कि [CTETJan 2012]
(1) एक शिक्षक को हमेशा कक्षा-कमा के अनुदेशन
का नेतृत्व करना चाहिए।
(2) शिक्षार्थियों को स्वतन्त्र रूप से तर्कणा नहीं
करनी चाहिए।
(3) बच्चे स्कूल से बाहर क्या सीखते हैं, यह
अप्रासंगिक है
(4) शिक्षार्थियों के अनुभव और प्रत्यक्षण महत्वपूर्ण
होते है
32. प्राय: शिक्षार्थियों की त्रुटियाँ ……. की
ओर संकेत करती है। [CTET Jan 2012]
(1) शिक्षार्थियों के सामाजिक-आर्थिक स्तर
(2) ये कैसे सीखते हैं?
(3) यान्त्रिक अभ्यास की आवश्यकता
(4) सीखने की अनुपस्थिति
33. निम्नलिखित में से कौन-सा सीखने का
क्षेत्र है? [CTETJan 2012]
(1) व्यावसायिक
(2) आनुभविक
(3) भावात्मक
(4) आध्यात्मिक
34. वे शिक्षार्थी, जो संवृद्ध ज्ञान और शैक्षणिक
दक्षता की हार्दिक इच्छा प्रदर्शित करते हैं,
उनके पास होता है [CTET Nov 2012]
(1) निष्पादन-परिहार अभिविन्यास
(2) कार्य-परिहार अभिविन्यास
(3) नैपुण्यता अभिविन्यास
(4) निष्पादन-उपागम अभिविन्यास
35. जब कार्य करते हुए ऊबने लगता है,
तो यह इस बात का संकेत है कि
[CTET Jan 2012]
(1) बच्चे को अनुशासित करने की जरूरत है
(2) सम्भवतः कार्य यान्त्रिक रूप से बार-बार हो
रहा है
(3) बच्चा बुद्धिमान नहीं है
(4) बच्चे में सीखने की योग्यता नहीं है
36. जब बच्चा फेल होता है, तो इसका तात्पर्य है।
[CTET Jan 2012]
(1) बच्चा पढ़ाई के लिए योग्य नहीं है
(2) बच्चे ने उत्तरों को सही तरीके से याद नहीं किया
(3) बच्चे को प्राइवेट ट्यूशन लेनी चाहिए थी
(4) व्यवस्था फेल हुई है
37. बच्चों में सीखी गई निस्सहायता का कारण है
[CTET Feb 2014]
(1) इस व्यवहार को अर्जित कर लेना कि वे सफल
नहीं हो सकते
(2) कक्षा गतिविधियों के प्रति कठोर निर्णय
(3) अपने अभिभावकों की अपेक्षाओं के साथ तालमेल
न बना पाना
(4) अध्ययन को गम्भीरतापूर्वक न लेने हेतु नैतिक
निर्णय
38. निगमनात्मक तर्कणा में शामिल है/हैं
[CTET Sept 2014]
(1) सामान्य से विशिष्ट की ओर तर्कणा
(2) विशिष्ट से सामान्य की ओर तर्कणा
(3) ज्ञान का सक्रिय निर्माण और पुनर्निर्माण
(4) अन्वेषणपरक सीखना और स्वतः खोजपरक
सम्बन्धी पद्धतियाँ
39. बच्चे. [CTET Sept 2015]
(1) चिन्तन में वयस्कों की भाँति ही होते हैं और
ज्यों-ज्यों वे बड़े होते हैं उनके चिन्तन में
गुणात्मक वृद्धि होती है
(2) खाली बर्तन के समान होते हैं जिसमें बड़ों के
द्वारा दिया गया ज्ञान भरा जाता है
(3) निक्रिय जीव होते हैं जो प्रदत्त सूचना को
ज्यों-की-त्यों प्रतिलिपि के रूप में प्रस्तुत कर
देते हैं
(4) जिज्ञासु प्राणी होते हैं जो अपने चारों ओर
के जगत को खोजने के लिए अपने ही तर्को
एवं क्षमताओं का उपयोग करते हैं
40. बच्चे किस प्रकार से सीखते हैं? नीचे
दिए गए कथनों में से कौन-सा इस प्रश्न
के विषय में सही नहीं है?
[CTET Sept 2015]
(1) बच्चे तब सीखते हैं जब वे संज्ञानात्मक रूप
से तैयार होते हैं
(2) बच्चे अनेकों प्रकार से सीखते हैं
(3) बच्चे सीखते हैं क्योंकि वे स्वाभाविक रूप
से प्रेरित होते हैं
(4) बच्चे केवल कक्षा में सीखते हैं
41. शिक्षार्थियों से यह अपेक्षा करना कि वे
ज्ञान को उसी रूप में पुन: प्रस्तुत कर देंगे
जिस रूप में उन्होंने ग्रहण किया है
[CTET Feb 2016]
(1) अच्छा है क्योंकि यह शिक्षक के लिए
आकलन में सरल है
(2) एक प्रभावी आकलन युक्ति है
(3) समस्यात्मक है, क्योंकि व्यक्ति अनुभवों की
व्याख्या करते हैं और ज्ञान को ज्यों-का-त्यों
पुनः उत्पादित नहीं करते
(4) अच्छा है क्योंकि जो भी हमारे मन में है
हम उसे रिकॉर्ड करने लगते हैं
42. एक बच्चा खिड़की के सामने से एक कौवे
को उड़ता हुआ देखता है और कहता है,
“एक पक्षी।” इससे बच्चे के विचार के
बारे में क्या पता चता है? [CTET Sept 2016]
A. बच्चे की स्मृतियाँ पहले से भण्डारित
होती हैं।
B. बच्चे में ‘पक्षी’ का प्रत्यय विकसित हो
चुका है।
C. बच्चे ने अपने अनुभव बताने के लिए
भाषा के कुछ उपकरणों का विकास कर
लिया है।
(1) B और C
(2) A,B और C
(3) केवल B
(4) A और B
उत्तरमाला
1. (2) 2. (1) 3. (2) 4. (1) 5. (1) 6. (4) 7. (1) 8. (3) 9. (1) 10. (2)
11. (1) 12. (1) 13. (1) 14. (4) 15. (2) 16. (1) 17. (3) 18. (1) 19. (1)
20. (4) 21. (2) 22. (2) 23. (3) 24. (4) 25. (2) 26. (3) 27. (4) 28. (4)
29. (1) 30. (2) 31. (4) 32. (3) 33. (3) 34. (2) 35. (2) 36. (4) 37. (1)
38. (4) 39. (4) 40. (3) 41. (3) 42. (3)
★★★