श्रवण एवं वाचन योग्यता विकसित करने में चर्चा एवं प्रश्नों की क्या भूमिका है? श्रेष्ठतर अधिगमन के लिए यह किस प्रकार सहायक हो सकते हैं?
शिक्षक प्रशिक्षण के समय कुछ प्रमुख सक्रिय कौशलों (Enabling Skills) जैसे- बलाघात, ध्वनियों की समझ, उनका उतार-चढ़ाव आदि पर ध्यान देना चाहिए। इसके साथ ही विभिन्न शैलियों को सुनकर समझने का अभ्यास करना चाहिए।
श्रवण कौशल विकसित करने के लिए शिक्षक भाषा प्रयोगशाला की सहायता ले सकता है क्योंकि इसमें ऐसे उपकरणों (हेडफोन एवं इयरफोन) का प्रयोग किया जाता है जिनके माध्यम से अच्छी तरह से अभ्यास किया जा सकता है।
अध्यापक प्रशिक्षण के समय शिक्षकों को भाषा अधिगम साफ्टवेयर के सभी सम्भावित वाचन उपकरणों का ज्ञान कराया जाना चाहिए जिससे वह अपने छात्रों के वाचन का उचित मूल्यांकन कर सके। भाषा प्रयोगशाला में कई रिकार्डर उपलब्ध होते हैं जिनके माध्यम से वह छात्रों की आवाज रिकार्ड करके उन्हें उनकी त्रुटियों से अवगत करा सकता है।
शिक्षक यह तभी कर पाएगा जब उसे इसका संचालन करना आता हो अतः प्रशिक्षण के दौरान शिक्षक को उपकरणों, उनके उपयोग एवं संचालन की पूर्ण जानकारी प्रदान करनी चाहिए। वाचन में सुधार करने के लिए समूह परिचर्चा, रोल प्ले आदि क्रियाओं की सहायता भी ली जा सकती है।
शिक्षक अपने शिक्षण पदों या पाठ्य-वस्तु की समाप्ति पर कक्षा-कक्ष में शिक्षण तत्त्वों की चर्चा का प्रावधान करता है।
शिक्षक की चर्चा का उद्देश्य छात्रों की शंकाओं को दूर करने के साथ ही छात्रों की समझ एवं अधिगम को प्रभावपूर्ण बनाना है। एक उत्तम स्तर की कक्षा कक्ष परिचर्चा में छात्र एवं शिक्षक दोनों की ही सहभागिता होती है।
परिचर्चा के अन्तर्गत पहले से दिए गए विषय पर अपने विचार प्रकट करना और दूसरे व्यक्तियों द्वारा दिए गए विचारों को सुनने का अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विचार-विनिमय करना ही परिचर्चा होती है, परिचर्चा के माध्यम से छात्रों का संकोच एवं झिझक दूर होती है।
छात्र स्वतन्त्र होकर अपनी बात कह सकते हैं परिचर्चा से जहाँ एक ओर छात्रों के ज्ञान में वृद्धि होती है वहीं दूसरी ओर उसकी मौखिक वाक्पटुता का भी विकास होता है।
- शिक्षण की परिचर्चा विधि में शिक्षार्थियों के समूह में परस्परं अन्तःक्रिया होती है इस प्रकार वे एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं और एक-दूसरे को प्रेरित करते हैं।
- कक्षा-कक्ष में परिचर्चा करते समय विद्यार्थियों को लगभग एक ही प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है अतः उनके समाधान में सुविधां रहती है।
- परिचर्चा द्वारा विद्यार्थी जो कुछ भी सीखते हैं उसका प्रभाव उनकी सामाजिक और संवेगात्मक आवश्यकताओं पर भी पड़ता है।
- कक्षा-कक्ष परिचर्चा शिक्षण में विद्यार्थियों की सहभागिता का उपयोग उनके व्यवहार और अभिवृत्ति में परिवर्तन लाने के लिए किया जा सकता है।
- अभिव्यक्ति कौशल का विकास – कक्षा-कक्ष में परिचर्चा के दौरान शिक्षक तथा अपने साथी छात्रों के अनुभवों को सुनने के पश्चात् छात्र के मन में भी यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि उसे भी अन्य छात्रों या शिक्षकों की भाँति अपने अनुभवों को सुनाना चाहिए, अपने अनुभवों से सम्बन्धित परिचर्चा की प्रक्रिया में छात्र अपने विचारों को क्रमबद्ध एवं प्रभावी रूप में प्रस्तुत करता है जिससे छात्रों में भी अभिव्यक्ति सम्बन्धी प्रमुख क्षमताओं का विकास स्वाभाविक रूप से विकसित होता है।
अतः कक्षा-कक्ष में अनुभवों से सम्बन्धित परिचर्चा भी अभिव्यक्ति कौशल के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है।
- श्रवण कौशल का स्वाभाविक रूप में विकासकक्षा-कक्ष में परिचर्चा करने से छात्रों में श्रवण कौशल का विकास स्वाभाविक रूप से हो जाता है क्योंकि वह कक्षा में परिचर्चा के दौरान सुनाए जाने वाले शिक्षकों तथा छात्रों के अनुभवों को बड़े ध्यान से सुनता है।
इन अनुभवों की विशेषता यह होती है कि ये मानव के व्यक्तित्व एवं सामाजिक जीवन से सम्बन्धित होते हैं क्योंकि ये ही मानवीय जीवन के उपयोगी और आवश्यक विषय होते हैं जिन्हें छात्र बड़े ध्यान से सुनता है। इस तरह छात्रों में श्रवण कौशल का स्वाभाविक रूप से विकास होता है।
- कथन में उचित धारा प्रवाह- कक्षा-कक्ष परिचर्चा के समय प्रायः अध्यापक यह अनुभव करता है कि छात्र रुक-रुककर घबराहट के साथ अपने अनुभव या कथन कहने की प्रक्रिया को सम्पन्न करते हैं जिससे वाणी की ओजस्विता समाप्त हो जाती है। जब छात्र लगातार कक्षा में अपने अनुभवों को सुनाता है तो उसका यह दोष समाप्त हो जाता है और वही छात्र कथन को धारा प्रवाह रूप में कहने लगता है इस तरह वह अपनी मौखिक अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को प्रभावी रूप से सम्पन्न करने लगता है।
- सम्प्रेषण में सहायक कक्षा-कक्ष में होने वाली परिचर्चा सम्प्रेषण की प्रक्रिया में भी सहायक है क्योंकि चर्चा करते समय शिक्षक तथा छात्र एक-दूसरे के समीप आ जाते हैं और अपने विचारों को एक-दूसरे के समक्ष बिना संकोच के अभिव्यक्त करते हैं।
इस तरह की प्रक्रिया को सम्पन्न करने के पश्चात् छात्रों में प्रभावी सम्प्रेषण की क्षमता का विकास होता है।
- स्पष्ट एवं शुद्ध उच्चारण में सहायक कक्षा-कक्ष में शिक्षक छात्र के बीच जब विषय-वस्तु अनुभव या परिवेश से सम्बन्धित परिचर्चा होती है तब छात्र परिचर्चा के समय अपने अनुभवों को सुनाते समय भाषागत अनेक अशुद्धियाँ करता है जो कि उच्चारण एवं वाक्य निर्माण से सम्बन्धित होती हैं।
इस गतिविधि में जब शिक्षक छात्र की सहायता करते हुए छात्रों की उच्चारण अशुद्धि को दूर करने का प्रयास करता है तब अभ्यास प्रक्रिया के पश्चात् छात्र अपनी मौखिक अभिव्यक्ति या वर्णन में किसी प्रकार की अशुद्धि नहीं करता तथा स्पष्ट एवं शुद्ध उच्चारण के रूप में भाषा का प्रयोग करने लगता है।
- प्रकरण का चयन ( Selection of Topic )- किसी भी परिचर्चा के लिए किसी विशेष प्रकरण का चुनाव किया जाता है जिसके द्वारा परिचर्चा की शुरुआत की जाती है।
- प्रतिभागी का चयन ( Selection of Participant) – परिचर्चा में किस स्तर के छात्र प्रतिभाग कर सकते हैं इसका चयन किया जाता है। प्रतिभागियों की एक सूची बनाई जाती है तथा उन्हें टीम में विभाजित किया जाता है।
- ज्ञान की खोज ( Exploring Knowledge) – शिक्षक प्रतियोगियों के बीच प्रकरण से सम्बन्धित प्रश्न पूछता है जिसका उत्तर परिचर्चा के द्वारा दिया जाता है। छात्र अपने अपने ज्ञान का तर्क प्रस्तुत करते हैं। एक दूसरे से ज्ञान का साझा करते हैं एवं प्रकरण को स्पष्ट करते हैं ।
- निर्णय निर्धारण (Decision-Making)- परिचर्चा के पश्चात छात्र या प्रतिभागी सर्वसम्मति से प्रकरण का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। यदि प्रकरण किसी समस्या से सम्बन्धित है तो उसके समाधान का निर्णय सुनिश्चित करते हैं ।
- प्रतिपुष्टि (Feedback) – शिक्षक व अन्य वरिष्ठ व्यक्ति छात्रों के निष्कर्ष की प्रतिपुष्टि देते हैं। उनका प्रोत्साहन व सराहना भी करते हैं।
- छात्रों में अभिव्यक्ति का विकास होता है।
- छात्रों में आत्मविश्वास जाग्रत होता है।
- छात्रों में तर्क शक्ति का विकास होता है।
- छात्र मानसिक रूप से क्रियाशील रहते हैं ।
- अध्यापकों की दक्षता में भी सुधार होता है।
- कुछ ही छात्र बोलते रहते हैं जिससे सबको समान अवसर नहीं मिल पाता है ।
- स्पर्द्धा (Competition ) के कारण छात्र आलोचना में अधिक डूब जाते हैं।
- छात्रों में ईर्ष्या की भावना जाग्रत होने लगती है ।
- यह निम्न कक्षाओं हेतु उपयोगी नहीं है।
- छात्र अपने विषय पर केन्द्रित नहीं रह पाते हैं।
प्रश्नोत्तर शिक्षण विधि ऐथेन्स (Athens) नगर के प्रसिद्ध विचारक एवं दार्शनिक सुकरात (Socrates) के समय से चली आने वाली एक प्राचीन पद्धति है इसलिए इस विधि को सुकराती विधि के नाम से भी जाना जाता है ।
- प्रश्नों को व्यवस्थित रूप से निर्मित करना ।
- प्रश्नों को समुचित रूप से छात्रों के सामने रखना जिससे नए ज्ञान के लिए छात्रों में उत्सुकता जाग्रत हो सके।
- छात्रों के माध्यम से प्रश्नों में सम्बन्ध स्थापित करते हुए नवीन ज्ञान देना।
सालमोन ने कहा है, “एक दोषी प्रश्नकर्ता एक दोषी अध्यापक होता है, वह एक अच्छा प्राध्यापक नहीं हो सकता है ।”
- छात्रों में पूर्व ज्ञान का पता लगाकर उसे नवीन ज्ञान से सम्बन्ध जोड़ने के लिए प्रश्नों की आवश्यकता होती है।
- छात्रों को प्रेरित करने तथा नए ज्ञान के प्रति उन्हें जिज्ञासु बनाने के लिए प्रश्नों की आवश्यकता होती है ।
- छात्रों ने कक्षा कक्ष में पढ़ाई गई विषय-वस्तु को कितना अर्जित किया है यह जानने के लिए प्रश्नों की आवश्यकता होती है।
- छात्रों की समस्याओं को जानने और उसके समाधान के लिए प्रश्न पूछना आवश्यक है।
- विषय-वस्तु के पुनरावलोकन के लिए प्रश्नों की आवश्यकता होती है।
- विद्यार्थियों के पूर्व ज्ञान एवं मनोदशा का पता लगाने के लिए जिससे अर्जित ज्ञान के आधार पर नवीन ज्ञान का वितरण किया जा सके।
- विद्यार्थियों में नवीन ज्ञान ग्रहण हेतु रुचि एवं जिज्ञासा (Curiosity) उत्पन्न करना जिससे शिक्षण कार्य सुचारु रूप से चल सके।
- विद्यार्थियों की कठिनाइयों का पता लगाना जिससे उन कठिनाइयों का निवारण किया जा सके।
- विद्यार्थियों द्वारा प्रश्नों के उत्तर देने में भाषा सम्बन्धी कुछ अशुद्धियाँ हों तो उनका तर्क संगत ढंग से निवारण करना ।
- विद्यार्थियों द्वारा सीखे हुए ज्ञान को दोहराने (Revision) एवं प्रयोग करने के लिए |
- उद्देश्य की प्राप्ति (Realisation of Objective) – शिक्षक द्वारा ऐसे प्रश्नों का निर्माण किया जाना चाहिए जिनकी सहायता से शिक्षण के उददेश्यों को प्राप्त किया जा सके इसलिए शिक्षक का प्रश्न पूछने का उद्देश्य बिल्कुल साफ और स्पष्ट होना चाहिए। इससे कक्षा-कक्ष का वातावरण भी जीवन्त बना रहेगा ।
- सुस्पष्ट एवं सरल (Pointed and Easy ) – प्रश्नों को इतना अधिक नुकीला और पैना होना चाहिए कि कक्षा के सभी विद्यार्थी उनका उत्तर देने के लिए तैयार हो जाएं। प्रश्नों की बनावट न तो अधिक सरल होनी चाहिए और न ही अधिक कठिन होने चाहिए प्रश्नों का निर्माण छात्रों की योग्यता तथा उनके मानसिक स्तर को ध्यान में रखकर करना चाहिए।
- क्रमबद्धता (Systematic) – प्रश्नों में तारतम्यता, श्रृंखलाबद्धता एवं क्रमिकता का गुण होना चाहिए। इससे पाठ का विकास स्वाभाविक रूप से होता है। अतः शिक्षक प्रश्नों को इस तरह क्रमबद्ध करें कि प्रश्नों का दूसरे अन्य प्रश्नों से सम्बन्ध स्थापित होता रहे।
- भाषा (Language) – प्रश्नों की भाषा सरल, शुद्ध तथा स्पष्ट होनी चाहिए, जिससे कक्षा के सभी छात्र प्रश्नों को सरलतापूर्वक समझ सकें । कठिन तथा अस्पष्ट भाषा में निर्मित प्रश्नों को छात्र समझ नहीं पाते और न ही उनका उचित उत्तर दे पाते हैं इसलिए प्रश्न बनाते समय अध्यापक को छात्रों का बुद्धि स्तर एवं भाषा की सरलता तथा स्पष्टता का ध्यान रखना चाहिए ।
- निश्चित उत्तर (Definite Answer ) – प्रश्नों का अर्थ निश्चित होना चाहिए जिससे कक्षा के छात्र सही उत्तर दे सकें। शिक्षक को हमेशा याद रखना चाहिए कि असीमित, अनिश्चित तथा बहुअर्थी प्रश्नों का उत्तर देते समय छात्र कक्षा में इधर-उधर की बातें करने लगते हैं इसलिए छात्रों से पूछे जाने वाले प्रश्न इतने निश्चित होने चाहिएं कि सभी छात्र उनका निश्चित उत्तर दे सकें।.
- छात्रों के वैयक्तिक भिन्नता को समझने के लिए शिक्षक का प्रश्न कौशल अच्छा होना चाहिए ।
- छात्रों के पूर्व ज्ञान को जानने के लिए शिक्षक को प्रश्न पूछने में निपुण होना चाहिए।
- कक्षा में प्रकरण को प्रस्तुत करने के लिए शिक्षक को प्रश्न पूछने में निपुण होना चाहिए ।
- छात्रों को पाठ कितना समझ में आया इसकी जाँच करने के लिए प्रश्न पूछने में निपुण होना चाहिए।
छात्रकक्षा में रुचि ले रहे हैं या नहीं इसको समझने के लिए भी शिक्षक को प्रश्न पूछने में निपुण होना चाहिए।