F-8

हिन्दी का शिक्षणशास्त्र–1

हिन्दी का शिक्षणशास्त्र–1

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा और बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा के
आलोक में हिन्दी भाषा शिक्षण क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 और हिंदी भाषा शिक्षण–किसी बच्चे के व्यक्तित्व
निर्माण में मातृभाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। भाषा के इस रूप को बच्चे अपने माता-
पिता, परिजनों से सुनकर और उस माहौल में रहकर अनायास ही सीख जाते हैं। वे जब
स्कूल जाते हैं तब उनके पास इस भाषा का समृद्ध संसार होता है। साथ ही स्कूल की भाषा
का भी एक रूप होता है। कुल मिलाकर उनके पास अनेक भाषाओं का संसार होता है। इसे
समाज की बहुभाषिक स्थिति कह सकते है। दरअसल बहुभाषिकता भारतीय समाज के भाषा
बोध की रचनात्मक सच्चाई है। वह हमारी परम्परा और संस्कृति का अभिन्न अंग है। वच्चे
की मौलिकता एवं सहज रचनाशक्ति को सामने लाना हिंदी भाषा शिक्षक का प्राथमिक दायित्व
है। लिहाजा आत्मीय माहौल बनाना उसकी जिम्मेदारी है। इस माहौल में ही विभिन्न भाषाई
कौशलों का विकास संभव है। कहना न होगा हिंदी शिक्षण का दायरा इतना व्यापक होना
चाहिए कि उसमें उल्लिखित सारे सरोकार शामिल हो। भाषा बच्चे के रोजमर्रा के जीवन
का हिस्सा है, यह समझे बिना स्कूल में हिंदी शिक्षण की कोई अवधारणा नहीं बन सकती।
    भाषा शिक्षण के लिए स्कूल में कोई कार्यक्रम शुरू होता है तो हमें बच्चे की सहज भाषाई
क्षमता को पहचानना होगा और समझना होगा कि भाषाएँ सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से बनती
हैं एवं हमारे प्रतिदिन के व्यवहार से बदलती है।
       हिंदी अनेक रूपों में प्राथमिक बच्चे के जीवन का हिस्सा बनती है। कहीं वह माध्यम
भाषा के रूप में तो कहीं विषय के रूप में। इस तरह हिंदी शिक्षण को केवल साहित्य तक
सीमित करना. उसके व्यापक दायरे को संकुचित करना होगा। विभिन्न विषयों के अध्ययन
के दौरान समझ, अवधारणाएँ भाषा में ही बनती है। लिहाजा अन्य विषयों के अध्ययन के
दौरान भी हिंदी की भूमिका है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या इसे विशेष तौर पर रेखांकित करती है।
भाषा शिक्षण केवल भाषा कक्षा तक ही सीमित नहीं होता है। विज्ञान, सामाजिक विज्ञान,
गणित की कक्षाएँ भी एक तरह से भाषा सीखने का अवसर प्रदान करता है। किसी विषय
को सीखने का मतलब है उसकी अवधारणाओं को सीखना, उसकी शब्दावली को सीखना
उनके बारे में आलोचनात्मक ढंग से चर्चा करना और उनके बारे में लिख सकना।
           हिंदी भाषा शिक्षण के संदर्भ में यह समझ लेना चाहिए कि पुरानी कक्षाएँ प्रायः पाठ
आधारित अधिगम तक केंद्रित थी। पर राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 और बिहार पाठ्यचर्या 2003
इस बात पर जोर देती है कि भाषा शिक्षण की पारम्परिक अवधारणा यानी पाठ्यपुस्तक केन्द्रित
अधिगम से बाहर निकलकर भाषाशिक्षण के उस व्यापक लक्ष्य को हासिल किया जाए जिससे
जीवन के वृहत्तर सरोकार प्रकट किए जा सके।
          बिहार पाठ्यचर्या 2008 और हिंदी भाषा शिक्षण― विहार पाठ्यचर्या यह स्पष्ट तौर
पर रेखांकित करती है कि भाषा केवल संवाद और संप्रेषण का काम ही नहीं करती अपितु
वह शिक्षण के सम्पूर्ण कार्यकलापों के लिए माध्यम की भूमिका का भी निर्वहन करती है।
समाजीकरण और संस्कृतिकरण की प्रक्रियाएँ भी भाषा के द्वारा सम्पन्न होती है। समाजीकरण
और संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में जिस सांस्कृतिक अस्मिता का निर्माण होता है उसके निर्माण
में विभिन्न भाषिक परिवेशों, जो जन्म के साथ ही घरेलू, सामाजिक और विद्यालयी वातावरण
से प्राप्त होती है की आधारभूत भूमिका होती है। बिहार पाठ्यचर्या इस बात की चिंता करती
है कि स्कूल में अपनी शुरुआत और फिर विकास करने वाले छोटे विद्यार्थियों के भाषाई कौशल
को कैसे विकसित किया जाए और समृद्ध बनाया जाए? सहानुभूतिपूर्ण संवाद और संवेदना
से समृद्ध ज्ञान के आधार पर ही भाषाई कौशल का विकास किया जा सकता है। पाठ्यचर्या
की टिप्पणी गौरतलब है, बच्या व्यक्ति, स्थान और विषय के अनुसार अपने भाषिक व्यवहार
में परिवर्तन कर सकता है, लेकिन वह भाषा कठिन जटिल संरचनाओं के नियम नहीं बता
सकता । कक्षा में बच्चे की इन विशेषताओं को ध्यान में रखकर उसके भाषाई कौशल का विकास
सहानुभूति संवाद तथा संवेदनात्मक ज्ञान के द्वारा किया जाना चाहिए। कहना न होगा भापाई
जटिलताओं को समझने और प्रसंगानुकूल उनके व्यवहार की बारीकियां से रु-ब-रू हुए बिना.
विभिन्न भाषाई कौशलों को अर्जित करना संभव नहीं।
      बिहार में प्रथम भाषा के रूप में स्वाभाविक पसंद हिंदी ही है। राज्य में बोली जाने वाली
भाषाओं (संधाली आदि भाषाओं को छोड़कर) और हिंदी में एक ही भाषा परिवार की भाषाएँ
होने के कारण एक स्वाभाविक संबंध है। सच तो यह है कि बिहार में बरती जाने वाली हिटी
को समृद्ध बनाने में बिहार की भाषाओं का महती योगदान है अधिगम में इस समझ को शामिल
कर बेहतर भाषाई पुल का निर्माण संभव है।
प्रश्न 2. हिन्दी भाषा के मूल उद्देश्यों की विवेचना कीजिए।
अथवा. NCF-2005 और BCF-2008 के आलोक में प्राथमिक कक्षाओं में हिन्दी
शिक्षण के उद्देश्य वताइए।
अथवा, NCF-2005 के आलोक में प्राथमिक स्तर पर हिन्दी शिक्षण के उद्देश्यों
की विवेचना करें।
उत्तर―मातृभाषा शिक्षण के मूल उद्देश्य-विचारों के आदान-प्रदान का सुगम तथा
सुलभ माध्यम भाषा है, जो वाक् इन्द्रिय से निसृत सार्थक ध्वनियों का समूह है और व्यवस्थित
है।
      विचारों को दूसरों के लिए व्यक्त करना प्रदान (अभिव्यक्ति) है तो दूसरो के विचारो
को ग्रहण कर समझना आदान (ग्रहण करना) है।
        विचारों के आदान-प्रदान के लिए मनुष्य निम्न चार प्रकार की क्रियाएँ करता है― सुनना,
वोलना, पढ़ना और लिखना । आदान अर्थात् ग्रहण करना, सीखना । प्रदान अर्थात् अभिव्यक्ति
करना।
आदान में― सुनना व पढ़ना क्रिया होती है।
प्रदान में― बोलना तथा लिखना क्रिया होती है।
इन चारों क्रियाओं में (सुनना, पढ़ना, बोलना, लिखना) कुशलता अर्जित करना ही भाषा
शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य है। ये ही भाषा के मूल उद्देश्य कहलाते हैं।
ph
(अ) सुनना:
1.भापा के सभी ध्वनि-रूपों के शुद्ध उच्चारण को समझना।
2. विषय-वस्तु में आए विचारों, भावों, घटनाओं, तथ्यों आदि में प्रसंगानुसार सम्बन्ध
स्थापित करते हुए समझना।
3. विषय-वस्तु, केन्द्रीय भावो, प्रमुख विचारों और निष्कर्षों को समझना।
4. सुनने के शिष्टाचार का पालन करने की क्षमता का विकास करना।
शिष्टाचार पूर्वक सुनने में बालक की निम्न प्रकार की शारीरिक, मानसिक स्थिति होती है―
(i) श्रोता बालक वक्ता की ओर मुंह करके बैठे।
(ii) श्रोता नुपचाप ध्यानपूर्वक अर्थग्रहण करते हुए सुनें ।
(ii) सुनते समय मुँह फेरकर बैठना, साथी से वार्तालाप, वाद विवाद नहीं करें।
(iv) श्रोता वक्ता के सम्मान का ध्यान रखे।
(v) वक्ता को अनावश्यक परेशान न करे ।
(ब) बोलना:
1. शुद्धता, स्पष्टता, उतार-चढ़ाव व उचित हाव-भाव का निर्वाह करते हुए समूह में
अथवा अलग से सहज रूप में प्रभावी ढंग से बोलने की क्षमता का विकास करना।
2. परिचित विषय, घटना तथा परिस्थिति का अपने ढंग से वर्णन/विवरण करने की क्षमता
का विकास करना।
3. समय-समय पर प्रसंगानुसार बोलने के शिष्टाचार
पालन करते हुए मौलिक रूप
से तर्कपूर्ण विचार प्रकट करने की क्षमता का विकास करना।
4. अभिनय अथवा भूमिका निर्वाह करते हुए पात्रानुसार संवाद बोलने के कौशल का
विकास करना।
(स) पढ़ना:
1. भाषा तत्वों को प्रसंगानुसार विश्लेषण करते हुए समझना।
2. विषय-वस्तु में आए विचारों, भावों, घटनाओं, तथ्यों आदि में प्रसंगानुसार सम्बन्ध
स्थापन करते हुए समझना ।
3. विषय-वस्तु के सारांश, केन्द्रीय भावों और निष्कर्षों को समझना।
4. मुद्रित व हस्तलिखित सामग्री को शुद्ध उच्चारण, उचित यतिगति, आरोह-अवरोह,
विराम-चिह्नों के अनुसार अर्थ ग्रहण करते हुए स्वाभाविक रूप से वाचन करने की
क्षमता का विकास करना।
5. बाल शब्दकोश को समझने की क्षमता का विकास करना।
6. स्तरानुकूल पाठ्येत्तर कहानियाँ, सचित्र पुस्तकें आदि साहित्य को समझकर पढ़ने की
क्षमता का विकास करना।
(द) लिखना:
1. अक्षरों व शब्दों के सही आकार, उचित क्रम, पर्याप्त अन्तर को समझते हुए लिखने
की क्षमता का विकास करना।
2. देखकर और सुनकर सुस्पष्ट, सुन्दर, शुद्ध रूप में उचित विराम-चिह्नों का ध्यान
रखते हुए लिखने की क्षमता का विकास करना।
3. सरल प्रारूपों, प्रार्थना-पत्रों, निबन्ध, वर्णन, विवरण आदि को सरल अनुच्छेदों में रचना
करते हुए लिखने की क्षमता का विकास करना।
4. मौलिक रूप से तथा तर्कपूर्ण ढंग से सरल वर्णन, विवरण, निबन्ध प्रश्नोत्तर, सारांश,
कहानी, कविता आदि को लिखने की क्षमता का विकास करना।
प्रश्न 3. प्रारम्भिक कक्षाओं में हिन्दी की पाठ्यचर्या पर प्रकाश डालें।
अथवा, हिन्दी शिक्षण में पाठ्यचर्या के महत्त्व की चर्चा कीजिए।
उत्तर―मौटे तौर पर पाठ्यचर्या एवं पाठ्यक्रम को एक ही अर्थ में प्रस्तुत किया जाता
है। किन्तु दोनों में मूलभूत अन्तर है। माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “पाठ्यचर्या का
अर्थ रूढ़िवादी ढंग से पढ़ाये जानेवाले बौद्धिक विषयों से नहीं हैं, परन्तु, उसके अन्दर के
सभी क्रियाकलाप आ जाते हैं जो बच्चों को कक्षा के बाहर तथा भीतर प्राप्त होते रहते हैं।”
    NCF-2005 के संदर्भ में गठित ‘पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के लिए राष्ट्रीय
फोकस ग्रुप ने अपने आधार पत्र (2009 : 11-12) में पाठ्यचर्या को इस प्रकार परिभाषित
किया है―
“पाठ्यचर्या का सर्वोत्तम अर्थ में योजनाबद्ध गतिविधियों का ऐसा समुच्चय है जिसे पाठ्य
की विषय-वस्तु के चयन के लिए सिद्धांत, वक्तव्य और पद्धतियों, सामग्री तथा मूल्यांकन के
चयन के अर्थों में एक खास शैक्षिक लक्ष्य-लक्ष्यों के समुच्चय को क्रियान्वित करने के लिए
बनाया जाता है। यह नियोजित संपोषित नियमित अधिगम जिसे गंभीरतापूर्वक लिया गया हो जिसकी
एक सुनियोजित विषयवस्तु हो और जो अधिगम की अवस्थाओं के साथ चलता हो । सोचे समझे
रूप में शैक्षिक अनुभवों के नियोजित समुच्चयों का सम्पूर्ण योग पाठ्यचर्या है जो बच्चों को विद्यालय
द्वारा दिये जाते हैं। पाठ्यचर्या शैक्षिक उद्देश्यों को क्रियान्वित करने की योजना है।”
        BCF-2008 में कुगेलमास के कथन को लिया गया है- पाठ्यचर्या के दायरे में हर चीज
आती है जिससे बच्चा स्कूल के अंदर सीखता है। इससे पाठ्येत्तर क्रियाकलाप और सामाजिक
तथा वैयक्तिक रिश्ते भी शामिल है। पाठ्यचर्या की परिभाषा को विस्तारित कर इसमें कथित
प्रछन्न, पाठ्यचर्या’ अथवा विद्यार्थियों को मानको, मूल्यों और प्रवृत्तियो…. का अव्यक्त शिक्षण
भी समाविष्ठ कर लिया गया है।
         इस प्रकार, पाठ्यचर्या शैक्षिक अनुभवों का लेखाजोखा है जिसके माध्यम से शिक्षण के
लक्ष्यों की प्राप्ति की जाती है । पाठ्यचर्या में सामान्य रूप से भाषा की महत्ता और उसके शिक्षण
के उद्देश्यों के बारे में उल्लेख किया जाता है। BCF-2008 के अन्तर्गत ‘भाषा’ शीर्षक के
अन्तर्गत हिन्दी और अंग्रेजी के साथ-साथ बिहार की अन्य भाषाओं के महत्त्व और उसके शिक्षण
की चर्चा की गई है। इसमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर चर्चा करते हुए बल दिया गया है―
1. संवाद और संप्रेषण के रूप में भाषा का महत्त्व ।
2. अवधारणाओं के निर्माण और ज्ञान के सृजन में भाषा की भूमिका ।
3. सामाजिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भाषा एक उपकरण के रूप में
4. भाषा सीखने की जन्मजात क्षमता का विकास ।
5. बिहार में मौजूद भाषिक विविधता की चर्चा ।
6. हिन्दी भाषा के साथ परिचय बढ़ाना ।
7. शुरुआती वर्षों में, हिन्दी भाषा शिक्षण के संदर्भ में उच्चारणगत शुद्धता के प्रति कठोर
रवैया न अपनाने की ताकीद ।
8. विद्यालय में प्रथम भाषा के रूप में हिन्दी का स्थान ।
9. व्यक्तित्व विकास और विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ने के संदर्भ में हिन्दी भाषा का महत्त्व ।
        इस सभी बिन्दुओं में हिन्दी भाषा के शिक्षण के उद्देश्यों की चर्चा की गई है और यह
समझने-समझाने की कोशिश की गई है कि हिन्दी भाषा केवल, आपसी बातचीत का माध्यम
ही नहीं है, बल्कि ज्ञानार्जन और विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति का भी माध्यम है। अत: हिन्दी भाषा
शिक्षण में केवल साहित्य पर ही बल न दिया जाये बल्कि विविध क्षेत्रों के जानकारी के लिए
उसे माध्यम भी बनाया जाये। हिन्दी भाषा शिक्षण का एक और उत्तरदायित्व है कि वह मूल्यों
को आत्मसात् करने में भी मदद करें। इस रूप में हिन्दी भाषा की पाठ्यचर्या वृहद् रूप से
भाषा सीखने-सीखाने के उद्देश्यों की चर्चा करती है। हिन्दी के साथ-साथ यह किसी भी भाषा
की पाठ्यचर्या पर लागू किया जा सकता है। हिन्दी भाषा क्यों सिखाई जाए, इसका अन्य
विषय-क्षेत्रों के साथ क्या जुड़ाव है, इसके शिक्षण में किन अन्य बिन्दुओं को सम्मिलित किया
जाये आदि बिन्दुओं की जानकारी और एक समेकित, विस्तृत समझ विकसित करने का दायित्व
हिन्दी की पाठ्यचर्या का है। हिन्दी भाषा की पाठ्यचर्या मूलत: विद्यालयी स्तर पर हिन्दी भाषा
शिक्षण के महत्त्व और उद्देश्यों की चर्चा करती है, किसी स्तर विशेष की नहीं।
        पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या का एक हिस्सा है जिसमें विभिन्न अनुशासनों या विभिन्न विषयों
के खास उद्देश्यों, शिक्षण पद्धतियों और आंकलन की चर्चा की जाती है। पाठ्यचर्या के ही
आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। वास्तव में यह अपेक्षाकृत संकीर्ण शब्द है
जिसका आशय है-शिक्षण की विषय-वस्तु का विशिष्ट आलेखन जो पाठ्यक्रम या परीक्षा
की अवधि जैसे-जैसे सावधिक मूल्यांकन तंत्र से जुड़ा होता है। पाठ्यचर्या अधिक अमूर्त
श्रेणी है जबकि पाठ्यक्रम पाठ्यपुस्तकों के रूप में ठोस आकार ग्रहण करता है।
    हिन्दी भाषा के शब्दों में हमारी जातीय संस्कृति का इतिहास छिपा रहता है। मातृभाषा
के ज्ञान के बिना बालक का सर्वतोन्मुखी विकास असंभव है। बालकों का बौद्धिक, नैतिक
एवं सांस्कृतिक विकास उनकी भाषा-क्षमता पर ही निर्भर करता है। विद्यार्थियों के संवेगों,
स्थाई भावों आदि का मातृभाषा से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
            बाल मनोविज्ञान का प्रधान साधन मातृभाषा की ही शिक्षा है। विद्यार्थी के मस्तिष्क,
ज्ञान, विचार-विनिमय, निर्माण कुशलता, मौलिकता का विकास इसी पर निर्भर है। भावानुभूति
और व्यक्तिव का विकास भी इसी के सहारे होता है क्योंकि मातृभाषा को सीखने में अधिक
कठिनाई नहीं होती। विना पढ़ाये ही वालक उल्टी-सीधी मातृभाषा बोल लेता है और उसके
प्रत्येक कार्य का मातृभाषा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
        मातृभाषा ही सब विपयों ज्ञान-विज्ञानों का मूलाधर होती है। वह स्वयं एक विषय नहीं
है, वरन् अन्य विषयों का आधार स्तम्भ है। जो विद्यार्थी स्पष्ट रूप से न विचार कर सकता
है और न विचारों एवं भावनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सकता है, वही किसी भी विषय
में अच्छा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, चाहे वह इतिहास हो, चाहे विज्ञान हो या चाहे कोई
अन्य विषय । अतः मातृभाषा का पाठ्यक्रम में महत्त्वूपर्ण स्थान है। उसी पर अन्य विषयों
की पूर्णता योग्यता और सफलता का भार है। उसे केवल एक शैक्षिक विषय कहने की अपेक्षा
जीवन का अनिवार्य आधार कहना चाहिए। जीवन की ऐसी परिस्थिति है जिसमें बचकर
निकलना असंभव है। प्रत्येक व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त उससे ओत-प्रोत रहता है।
      पाठ्यक्रम में मातृभाषा को बिना उचित स्थान दिये हुए शिक्षा के सर्वतोन्मुखी विकास
के उद्देश्य की पूर्ति होना असंभव है। वालक के विचार उत्तम हो, स्पष्ट हो, सुबोध हो,
आत्माभिव्यक्ति स्वाभाविक हो, ज्ञान गहनतम और नवीनतम हो, आचार-विचार, क्रियाकलाप,
संस्कृति सभ्यतानुकूल हो तथा उसकी रचना-शक्ति विकसित हो, इन सबके लिए मातृभाषा
का शिक्षण आवश्यक हो जाता है।
         हिन्दी भाषा का पाठ्यक्रम इस बिन्दु का पक्षधर है कि मूल्यांकन बच्चों की क्षमताओं
और सीखने की प्रवृत्ति का विकास करें, उनकी मदद करें । परीक्षा के भी विभिन्न रूपों, जैसे―
मौखिक और लिखित को भी समुचित स्थान दिया गया है।
          हिन्दी भाषा के पाठ्यक्रम में सिलसिलेवार तरीके से वे सभी बिन्दु उल्लिखित है, जो
शिक्षकों, पाठ्य पुस्तक निर्माताओं, मूल्यांकन की योजना बनाने वाले व्यक्तियों आदि को इस
रूप में मदद करते हैं ताकि वे वर्गानुसार हिन्दी भाषा सम्बन्धी विभिन्न पक्षों का क्रमबद्ध एवं
सुनियोजित तरीके से क्रियान्वित कर सकें।
प्रश्न 4. हिन्दी शिक्षण में पाठ्य-पुस्तक का क्या स्थान है ? पाठ्य-पुस्तक की
उपयोगिता का वर्णन करें।
अथवा, पाठ्यपुस्तक एक उपकरणात्मक सम्पदा है, जिसका वर्तमान शिक्षण व्यवस्था
में महत्त्वपूर्ण स्थान है । हिन्दी शिक्षण के संदर्भ में उपर्युक्त कथन की समीक्षा करें ।
उत्तर―आज की शिक्षा-प्रणाली पाट्य-पुस्तक पर केन्द्रित है। मुद्रण कला के विकास
से हमें पाठ्य-पुस्तक के रूप में अमूल्य उपहार दिया है। पाठ्य-पुस्तकें समस्त शिक्षा प्रक्रिया
को नियोजित एवं व्यवस्थित बनाये रखती हैं। यूँ पाठ्यचर्या के सभी विषयों पर शिक्षा
के लिए पाठ्य-पुस्तकों का विशेष योग है, परन्तु भाषा के शिक्षण में पाठ्य-पुस्तकों का विशिष्ट
स्थान है। भाषा शिक्षण में पाठ्य-पुस्तके साधन और साध्य दोनों रूपों में प्रयुक्त की जाती
है। जब पाट्य-पुस्तके बच्चों के शाक्य सूक्ति, मुहावरे आदि में वृद्धि करने, उन्हें वर्ण-विन्यास
सीखाने, उनका उच्चारण शुद्ध करने, सस्वर और मौन वाचन का अभ्यास कराने, स्वाध्याय
की योग्यता विकसित करने आदि के लिए प्रयोग में लाई जाती है तब वे साधन के रूप
में कार्य करती है। जब कविता, कहानी, एकांकी आदि का रसास्वादन कराने के लिए प्रयुक्त
होती है तो साध्य का काम करती है।
         पाठ्य-पुस्तक की उपयोगिता का उल्लेख अधोलिखित रूप से किया जा सकता है।
1. पाठ्य-पुस्तकें विपय की पुनरावृत्ति में सहायता देती है।
2. पाठ्य-पुस्तक में विषय से सम्वन्धित सम्पूर्ण सामग्री एक ही स्थान पर मिल जाती है।
3. यह आवश्यक नहीं कि कक्षा में जो पढ़ाया जाये सभी विद्यार्थियों को पूरी तरह
समझ में आ जाये । इस स्थिति में पाठ्य-पुस्तकें विद्यार्थियों की सहायता करती
है। वे कक्षा शिक्षण की पुरक होती है।
4. पाठ्य-पुस्तकें ‘सीखने की योजना तैयार करने में अध्यापकों को मदद करती हैं।
5. पाठ्य-पुस्तकें विषय के पाठ्यक्रम को स्पष्ट कर देती है। इनमें अध्यापक और
छात्र दोनों को यह मालूम पड़ जाता है कि पूर्ण शिक्षण-सत्ता में उसे क्या पढ़ना
है और पढ़ाना है। किसी के भटकने का डर नहीं रहता।
6. पाठ्य-पुस्तकों की सहायता से अनेक छात्रों को एक साथ पढ़ाना संभव होता है।
7. ये पढ्न योग्यता का विकास करने में सहायक होती हैं तथा बच्चे में स्वाध्याय की
आदत विकसित करती है।
8. छात्रों को गृहकार्य देने में अध्यापक की तथा गृह कार्य करने में छात्रों की सहायता
करती है।
9. योजना विधि, डाल्टन विधि और विभिन्न शिक्षण पद्धतियों में पाठ्य-पुस्तकों के
बिना काम नहीं चलता।
10. लेखन कौशल का पाठ्य-पुस्तकों के बिना विकास नहीं हो सकता।
11. भाषा पाठ्य-पुस्तकों में सम्बन्धित कविताओं, कहानियों, एकांकियों आदि का
रसास्वादन करने में सहायता करती है।
12. वर्तमान परीक्षा प्रणाली में पाठ्य-पुस्तकों की महत्ता और भी बढ़ गई है।
13. पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से छात्र लेखकों को विभिन्न शैलियों से परिचित होते हैं।
14. विभिन्न साहित्य और सांस्कृतिक क्रियाओं का आयोजन करने में पाठ्य-पुस्तकें प्रमुख
भूमिका अदा करती हैं।
        हिन्दी पाठ्य-पुस्तकों की अपेक्षित विशेषताएँ एवं उनका चयन―भाषा-शिक्षण में
पाट्य पुस्तक के महत्त्व का अध्ययन करने के उपरान्त पाठ्य-पुस्तकों का चयन करते समय
अनेक बातों को ध्यान में रखना चाहिए। सबसे प्रमुख बात तो यह है कि एक बार पाठ्य-पुस्तकों
का चयन कर लेने के उपरान्त उन्हें प्रतिवर्ष बदलनी नहीं चाहिए। ऐसा करने से अध्यापक
और अभिभावक दोनों को असुविधाओं का सामना करना पड़ता है, पाठ्य-पुस्तकों का चयन
करते समय निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए―
1. पुस्तक का लेखक―पाठ्य पुस्तक का लेखक योग्य, अनुभवी, विषय का ज्ञाता होना
चाहिए।
2. पुस्तक की भाषा-पाठ्य-पुस्तक की भाषा, छात्रों की आयु, मानसिक योग्यता के
अनुकूल होनी चाहिए । छोटी कक्षाओं की पाठ्य-पुस्तकों की भाषा सरल और सुबोध होनी
चाहिए।
3. पाठ्य-पुस्तक की विषय सामग्री-पाठ्य पुस्तकों की विषय-वस्तु छात्रों की मानसिक
योग्यता तथा आयु के अनुरूप होनी चाहिए।
4. पाठ्यवस्तु का व्यवस्थापन इस प्रकार होनी चाहिए की प्रकरणों का पारस्परिक सम्बन्ध
न टूटे।
5. पाठ्य-वस्तु का सम्बन्ध बालकों के जीवन से होना चाहिए। यदि पुस्तक में प्रस्तुत
उदाहरण तथा तथ्य घर के वातावरण से चुने जायें तो उत्तम होता है । पाठ्य-पुस्तक का विषय
मानव जीवन की विभिन्न क्रियाओं से सम्बन्धित होना चाहिए।
6. पाठ्य-पुस्तकें छात्रों को प्रेरणा देनेवाली होनी चाहिए। विषय उनके चारित्रिक और
नैतिक विकास में सहायक होनी चाहिए।
7. पाठ्य-पुस्तकें सरल तथा विभिन्न रूचियों वाली होनी चाहिए । विषय उनके चारित्रिक
और नैतिक विकास में सहायक होनी चाहिए।
8. पुस्तक की आन्तरिक साज सज्जा, पाठ्य-पुस्तक में मुख्य बातों को सरल, सुबोध
और सरल बनाने के लिए उदाहरणों और चित्रों का आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिए।
चित्र और मानचित्र छात्रों की आयु तथा योग्यता के अनुसार चित्रित किए जाने चाहिए। छोटी
कक्षाओं की पुस्तकें में चित्र स्पष्ट तथा रंगीन होने चाहिए।
9. लेखन शैली मनोवैज्ञानिक ढंग से लिखी होनी चाहिए। विषय-सामग्री मनोवैज्ञानिक
ढंग से प्रतिपादित की जानी चाहिए। प्राथमिक कक्षाओं में कहानी तथा वर्णनात्मक
प्रणाली का अनुसरण किया जाना चाहिए। उच्च स्तर पर गम्भीर निबन्ध शैली अपनी
चाहिए।
10. पाठों के क्रम में ‘सरल से जटिल की आमदांत का पालन किया जाना चाहिए।
11. प्रत्येक का पाठ्य-पुस्तक में विभिन्न देशों निवासियों के विषय में सही और निष्पक्ष
वर्णन होना चाहिए। सभी विषयों के लेखक का दृष्टिकोण और विषय का प्रतिपादन निष्पक्ष
होना चाहिए।
12. पाठ्य-पुस्तकों की छपाई सुन्दर मोटे एवं आकर्षक अक्षरों में होने चाहिए। पृष्ठों
पर हाशिया छोड़ा जाना चाहिए।
13. पाठ्यपुस्तक का पृष्ठ आकर्षक. उसकी जिल्द मजबूत गत्ते की तथा सिलाई मजबूत
धागे से की हुई होनी चाहिए।
14. पाठ्य-पुस्तकों का मूल्य भी ऐसी होनी चाहिए कि सभी बच्चे खरीद सके।
15. पाठ्य-पुस्तक के प्रारंभ में विषय-सूची तथा अन्त में अनुक्रमणिका होनी चाहिए।
16. प्रत्येक पाठ के अंत में अभ्यास प्रश्न, गृह कार्य, गतिविधि आधारित कार्य पर्याप्त
संख्या में होनी चाहिए।
प्रश्न 5. हिन्दी की पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम और पाठ्य-पुस्तकों में अन्तर्सम्बन्धों की
समझ पर प्रकाश डालें।
अथवा, व्याख्या करें, “पाठ्यचर्या अधिक अमुर्त श्रेणी है जबकि पाठ्यक्रम
पाठ्य-पुस्तकों के रूप में ठोस आकार ग्रहण कर लेता है।”
उत्तर–पाठ्यचर्या के दायरे में हर वह चीज आती है जिसे बच्चा स्कूल के अन्दर सीखता
है, इसमें पाठ्ययेत्तर क्रियाकलाप तथा सामाजिक तथा वैयक्तिक रिश्ते भी शामिल है। इसका
अर्थ यह है कि हिन्दी भाषा की पाठ्यचर्या में हिन्दी भाषा के महत्त्व, उसके बदलते स्वरूप
और उसके माध्यम से पूर्ण होनेवाले कार्यों का बढ़ता दायरा आदि के बारे में एक साझी समझ
बनाने की कोशिश की जाती है। हिन्दी भाषा की जरूरत केवल संवाद में नहीं होती बल्कि
उसके माध्यम से चिन्तन भी किया जाता है और अवधारणाओं का निर्माण भो । सवाल उठता
है कि पाठ्यचर्या में उल्लिखित बिन्दुओं को कैसे प्राप्त किया जाये? पाठ्यचर्या को अगली
कड़ी पाठ्यक्रम के माध्यम से । पाठ्यचर्या में हिन्दी भाषा की महत्ता । उद्देश्य आदि जिस
रूप में व्याख्यायित किये जाते हैं, उन उद्देश्यों की प्राप्ति कर योजनाबद्ध एवं सुनियोजित दस्तावेज
है―पाठ्यक्रम।
    हिन्दी भाषा के पाठ्यक्रम में जिन बिन्दुओं का उल्लेख होता है, वे सभी किसी-न-किसी
रूप में पाठ्यचर्या से ही जुड़े होते हैं और अपेक्षित विस्तार पाते हैं। हिन्दी भाषा सीखने-सीखाने
के उद्देश्यों को उनकी गहनता तथा विस्तार को वर्गानुसार या कक्षानुसार इस तरह से नियोजित
किया जाता है, जो बच्चों को अवस्था, उनकी क्षमताओं और परिवेश के अनुरूप हो । पाठ्यक्रम
में उल्लिखित वर्गानुसार शिक्षण-पद्धतियों और आकलन के तौर-तरीकों को ध्यान में रखकर
हिन्दी भाषा की पाठ्यपुस्तकों का निर्माण किया जाता है। हिन्दी भाषा शिक्षण के उद्देश्यों
को ध्यान में रखकर ही रचनाओं, विद्याओं, अभ्यास प्रश्नों के स्वरूप को तय किया जाता
है। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शिक्षक हिन्दी भाषा की पाठ्यपुस्तक के अतिरिक्त
अन्य प्रकार की भी दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन, फिर
भी, पाठ्य-पुस्तक कक्षा में सम्पादित होनेवाली गतिविधियों का आधार तो रहती ही है। अत:
इन तीनों में सामंजस्य हिन्दी भाषा शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्त करने में मदद करता है ।
प्रश्न 6. पाठ्य-पुस्तक की उपयोगिता और महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए उसके
उद्देश्यों को स्पष्ट करें।
अथवा, पाठ्य-पुस्तकें कितनी प्रकार की होती हैं ? अच्छी पाठ्य-पुस्तकों के गुणों
पर सविस्तार प्रकाश डालिए।
अथवा, हिन्दी पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण के सामान्य सिद्धांत क्या है ? इन सिद्धांतों
के आधार पर माध्यमिक स्तर के निमित्त निर्धारित पाठ्य-पुस्तकों की समीक्षा करें।
उत्तर–पाठ्य-पुस्तक का महत्त्व प्राचीन काल में मुद्रण कला का आविष्कार नहीं
हुआ था, तो पाठ्य-पुस्तकें उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं समझी जाती थी, क्योंकि भाव-प्रकाशन का
मुख्य स्रोत श्रुतज्ञान था। किन्तु जब से मुद्रण कला का आविष्कार हुआ और पुस्तकें सार्वजनिक
रूप से उपलब्ध होने लगी तो विभिन्न स्तरों पर लिखित पुस्तकें ही ज्ञानार्जन का माध्यम बनी
और आज भी ज्ञानोपलब्धि के क्षेत्र में पुस्तकें ही शिक्षा का सर्वोत्कृष्ट माध्यम है। पुस्तकें
एक प्रकार से मानव ज्ञान का संचित कोष है। पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा न केवल छात्र ही
प्रत्युत अध्यापक को भी अपने कार्य में सुगमता रहती है ।
     आधुनिक युग में पाठ्य-पुस्तकों को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है और उन्हें शिक्षा
का अभिन्न अंग स्वीकार किया जाता है। ज्ञान को मितव्ययी ढंग से प्रदान करने के लिए
पाठ्य-पुस्तकें आवश्यक हैं। ये पाठक तथा अध्यापकों का समय बचाती हैं। इनके द्वारा
स्वाध्याय तथा आत्म-विश्वास की वृद्धि की जा सकती है।
          पाठ्य-पुस्तकों की उपयोगिता :
1. अध्यापक की सहायता–पाठ्य-पुस्तक शिक्षकों को अपूर्व सहायता करती है। यह
अध्यापक की पथ-प्रदर्शक होती है और सभी प्रकार की उपयुक्त और स्तरानुकूल सामग्री
उसे प्रदान करती है। इस प्रकार की सामग्री अध्यापक को शिक्षण-कार्य में सुगमता का अनुभव
कराती है। पाठ्य-पुस्तक के द्वारा अध्यापक को यह ज्ञात होता है कि किस क्रम में वह पुस्तक
को पढ़ाएगा। इस क्रम में ज्ञान से अध्यापक का शिक्षण प्रभावशाली और रोचक बन जाता
है। किन्तु पाठ्य-पुस्तक एक साध्य है, साधन नहीं। अत: शिक्षक को केवल पाठ्य-स्तर
पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए अपितु स्वयं भी अपनी बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए। संक्षेप
में कह सकते हैं कि पाठ्य-पुस्तक अध्यापक की पाठ्य-प्रदर्शिका होती हैं।
2 ज्ञानार्जन में सहायक―पाठ्य-पुस्तकें बालक को ज्ञानार्जन में सहायता पहुँचाती हैं।
बालकों के ज्ञान-क्षेत्र को विस्तृत करने में और व्यापक बनाने में पुस्तकों का महत्त्वपूर्ण योगदान
होता है। पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा बालकों में साहित्यानुशीलन की जिज्ञासा उत्पन्न होती है।
3. स्वाध्याय की प्रेरक-पाठ्य-पुस्तकें बालकों को स्वाध्याय के लिए प्रेरणा प्रदान करती
है पाठ्य-पुस्तक के अभाव में स्वाध्याय संभव नहीं हो पाता है तथा छात्र भी परीक्षा की तैयारी
में सक्षम नहीं हो पाते।
4. ज्ञान का स्थायी रूप-पाठ्य-पुस्तकों के अध्ययन द्वारा छात्र ज्ञान का स्थायी रूप
पाते हैं। शिक्षकों के द्वारा वर्ग में जो ज्ञान उन्हें प्राप्त होता है संभव है कि वे उस समय
सम्यक् रूप से उसे हृदयंगम नहीं कर पाते हों, किन्तु पुस्तकों के अध्ययन द्वारा वे स्वयं समझ
लेते हैं। पाठ्य-पुस्तकें गृह-कार्य में सहायता प्रदान करती है।
5. सामूहिक वाचन का आधार-पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा सामूहिक वाचन संभव हो
पाता है। प्राथमिक स्तर पर सामूहिक वाचन को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इस सामूहिक
वाचन का आधार पाठ्य-पुस्तकें होती है । पाठ्य-पुस्तकों की सहायता से एक अध्यापक अनेक
छात्रों को सरलता से पढ़ सकता है। इसीलिए आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने पाठ्य-पुस्तकों की
उपयोगिता को स्वीकार किया है।
       पाठ्य-पुस्तकों के उद्देश्य―पाठ्य-पुस्तक के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं―(1)
अध्यापक का पथ-प्रदर्शन करना, (2) बालकों के ज्ञान-क्षेत्र को विस्तृत और व्यापक बनाना
(3) वालकों को विभिन्न मानसिक शक्तियों को विकसित करना, (4) बालकों के शब्द-भंडार
और सूक्ति-भंडार में अभिवृद्धि कर उसे व्यापक बनाना, (5) बालकों को स्वाध्याय के लिए
प्रेरित करना, (6) बालकों की सहायता के लिए प्रेरित करना, (7) छात्रों को साहित्य अध्ययन
के लिए प्रेरित करना, (8) बालकों को परीक्षा के समय में सहायता प्रदान करना, (9) छात्रों
को विभिन्न शैलियों का ज्ञान प्रदान कर उन्हें कुशल और योग्य बनाना, (10) छात्रों की भाषा
के दोषों का उन्मूलन कर उसे सरल, प्रवाहपूर्ण और परिष्कृत करना, (11) बालकों का  मनोविनोद
करना, (12) बालकों के चरित्र का निर्माण करना, बालकों की कल्पना-शक्ति तथा निर्णयशक्ति
को विकसित करना।
      पुस्तकों के प्रकार― सामान्यतः पाठ्य-पुस्तक दो प्रकार की होती हैं (i) गहन या सूक्ष्म
अध्ययनार्थ पुस्तकें, (ii) सहायक अथवा द्रुत पाठ की पुस्तकें ।
      गहन या सूक्ष्म अध्ययनार्थ पाठ्य-पुस्तकें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं। इनका उपयोग
सूक्ष्म और विस्तृत अध्ययन के लिए किया जाता है। इनके द्वारा बालकों के शब्द-भंडार की
वृद्धि की जाती है। इनका अध्ययन विस्तारपूर्वक होने के कारण इनका महत्त्व अधिक है।
इनमें वर्णित विचार बालकों के जीवन के अंग बन जाते हैं।
     सहायक पाठ्य-पुस्तकों का प्रयोग द्रुत-वाचन की शिक्षा के हेतु किया जाता है। इनमें
साधारण शब्दावली का प्रयोग होता है। बालक शीघ्र पढ़कर भाव ग्रहण कर लें यहीं, इस
प्रकार की पाठ्य-पुस्तक का उद्देश्य होता है।
    पाठ्य-पुस्तक के गुण–पाठ्य-पुस्तकों में अनेक विशेषताएँ होती है, जिन्हें इनका गुण
कहा जाता है। पाठ्य-पुस्तकों के गुणों को दो रूपों में विभक्त किया जा सकता है―(i)
आन्तरिक गुण तथा (ii) बाह्य गुण ।
(i) आन्तरिक गुण― आन्तरिक गुण पुस्तक के वे भीतरी गुण हैं, जो उसकी भाषा शैली,
पाठ्य विषय आदि से सम्बन्धित होते हैं। वे निम्नांकित हैं―
(1) उपयुक्तता, (2) सोद्देश्यता, (3) क्रमबद्धता, (4) विषय-विविधता, (5) भाषा की शुद्धता
(6) दैनिक अनुभवों से सम्बन्ध, (7) अन्य विषयों से सम्बन्ध, (8) रोचकता, (9) जीवन से सम्बन्ध ।
(10) उपदेशात्मक, (11) शैलीगत विशेषता तथा (12) आवश्यक निर्देशों की उपस्थिति।
      पाठ्य-पुस्तक के बाह्य गुण-पाठ्य-पुस्तक के बाह्य गुण का तात्पर्य पुस्तक की
साज-सज्जा, मुद्रण एवं आवरण से लगाया जाता है। अच्छी पाठ्य-पुस्तकों में उन
गुणों का सम्यक् अनुपात में रहना आवश्यक है। पाठ्य-पुस्तकों के प्रमुख बाह्य गुण निम्नांकित
हैं―
(1) नाम, (2) आकार, (3) मुद्रण, (4) कागज, (5) आवरण, (6) जिल्द, (7) उपयोगी चित्र,
(8) मूल्य।
वर्तमान पाठ्य-पुस्तकों के दोष―
1. आधुनिक पाठ्य-पुस्तक छात्र के ज्ञान-विस्तार के लिए लिखी जाती हैं। उनमें सस्ता
कागज लगा दिया जाता है तथा वे व्यापारिक दृष्टि से लिखी जाती हैं। उनका टाइप
भी छात्रों की मानसिक आयु के अनुसार नहीं होता।
2. पाठ्य-पुस्तकों का सामग्री कक्षा-स्तर से ऊँची होती है।
3. पाठ्य-पुस्तकों का मुद्रण-स्तर घटिया होता है। पूफ की अनेक अशुद्धियाँ रहती
4. निम्न कक्षाओं की पाठ्य-पुस्तकों का चयन ठीक प्रकार से नहीं किया जाता है।
नैतिक उपदेशों की भरमार इस स्तर पर उचित नहीं।
5. पाठ्य-पुस्तकों की भाषा दोषपूर्ण होती है
6. आधुनिक पाठ्य-पुस्तक वाह्य रूप से आकर्षक नहीं होती है।
7. पाठ्य पुस्तकों में मनोरंजन का अत्यधिक अभाव रहता है।
8. उनमें क्रमबद्धता का पूर्ण अभाव है।
9. उनमें उचित निर्देश नहीं दिए रहते ।
10. उनमें बालकों के चरित्र-निर्माण के लिए कोई स्थान नहीं होता है।
11. सभी को इन दोषों के उन्मूलन के लिए प्रयास करना चाहिए।
पाठ्य-पुस्तकों का चयन―पाठ्य-पुस्तकों के चयन में काफी सावधानी की जरूरत
है। अतः उनके चयन में निम्न बातों को ध्यान में रखा जाय-
1. पुस्तक का लेखक―पाठ्य-पुस्तक के चयन में सर्वप्रथम यह देखना चाहिए कि पुस्तक
का लेखक अनुभवी, योग्य तथा विषय पर पूर्ण अधिकार रखता है, या नहीं । पुस्तक का लेखक
केवल विद्वान ही नहीं, वरन् शिक्षा मनोविज्ञान से परिचित भी होना चाहिए।
2. पुस्तक की भाषा―पाठ्य-पुस्तक की भाषा छात्रों की आयु तथा मानसिक योग्यता
के अनुकूल होनी चाहिए। निम्न कक्षाओं के लिए जो पुस्तकें लिखी जाएँ उनकी भाषा अत्यन्त
सरल और सुबोध हो।
3. पाठ्य-पुस्तक की पाठ्य-वस्तु :
(i) पाठ्य सामग्री छात्रों की मानसिक आयु तथा योग्यता के अनुसार ही निर्धारित की
जाए।
(ii) पाठ्य-पुस्तक छात्रों को प्रेरणा प्रदान करने वाली होनी चाहिए। उसमें विषय को
इस प्रकार रखा जाए कि छात्रों का चारित्रिक तथा नैतिक विकास हो।
(iii) पाठ्य-पुस्तकों की व्यवस्था इस प्रकार हो कि प्रकरणों तथा पाठों में क्रमबद्धता
हो।
(iv) पाठ्य-वस्तु का सुव्यवस्थित होना आवश्यक है।
4. पाठ्य-पुस्तकों को आन्तरिक साज-सजा―पाठ्य-पुस्तक की आन्तरिक
साज-सज्जा पर ध्यान देना चाहिए। मुख्य तथा कठिन बातों को सरल तथा सुवोध बनाने के
लिए उदाहरणों तथा चित्रों का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जाए।
5. लेखन-शैली–पुस्तक में विषय-सामग्री मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रतिपादित होनी चाहिए।
प्राथमिक कक्षाओं में कहानी तथा वर्णनात्मक रचनाओं का रहना आवश्यक है।
6. पुस्तक की छपाई-पाट्य-पुस्तक का मुद्रण भी छात्रों की आयु के अनुसार किया
जाए।
7. निप्पक्ष दृष्टिकोण का प्रतिपादन-प्रत्येक पाठ्य-पुस्तक में विभिन्न देशों के
निवासियों के विषय में उचित तथा निष्पक्ष वर्णन होना चाहिए।
8. पुस्तक का गेट अप―पुस्तक का गेट अप सुन्दर तथा आकर्षक होना चाहिए।
9. जिल्द और मूल्य-पुस्तक की जिल्द मजबूत तथा मूल्य भी कम हो जिससे निर्धन
छात्र सरलता से खरीद सके।
प्रश्न 7. सुनना से आपका क्या अभिप्राय है? स्पष्ट कीजिए।
अथवा, श्रवण कौशल क्या हैं? इसके मुख्य आधार एवं विकास का वर्णन
कीजिए।
उत्तर―श्रवण कौशल या सुनना-वाचन सुनने और सुनकर उसका अर्थ एवं भाव
समझने की क्रिया को श्रवण कौशल कहा जाता है। श्रवण कौशल का सैद्धान्तिक पक्ष ध्वनिविज्ञान
के अन्तर्गत दिया गया है। सामान्यतः कानों द्वारा जो ध्वनियाँ ग्रहण की जाती है और मस्तिष्क
द्वारा उनकी अनुभूति तथा प्रत्यक्षीकरण को श्रवण कहते हैं। मौखिक भाषा के माध्यम से
अभिव्यक्त भाव एवं विचारों को सुनकर समझना । भाषा के सन्दर्भ में अर्थ बोध एवं भाव की
प्रतीति सुनने के आवश्यक तत्व होते हैं। इस प्रकार जब कोई व्यक्ति हमारे सामने अपने
भाव एवं विचार मौखिक भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करता है और हम उसे सुनकर यथाभाव
एवं विचार समझते और ग्रहण करते हैं तो हमारी यह क्रिया सुनना अथवा श्रवण कहलाती
है, यह बात दूसरी है कि हम यथाभाव एवं विचार किस सीमा तक समझते हैं और ग्रहण
करते हैं। यह कई कारकों पर निर्भर करती है―
      श्रवण कौशल के मुख्य आधार―श्रवण कौशल की सतर्कता के लिए कुछ आवश्यक
आधार होते हैं। उन आधारों का उल्लेख निम्न पंक्तियों में किया गया है―
1. सुनने वाले की श्रवण इन्द्रीया सामान्य एवं क्रियाशील हो।
2. भाषा की ध्वनियों से शब्दों का बोध होना।
3. सुनने वाला ध्वनियों के प्रति सजग हो और उन्हें समझने का प्रयास करता हो।
4. सुनने की रुचि तत्परता एवं एकाग्रता हो।
5. ध्वनियों से जो भाव एवं विचार सम्प्रेषित किए जा रहे हैं उन्हें बोधगम्य कर सके।
6. ध्वनियों के साथ बोलने वाले के हाव-भाव से भी उसकी अभिव्यक्ति का अनुमान
लगाना चाहिए।
7. वाचन की प्रभावशीलता को सुनने के आधार पर आकलन करते हैं कि वक्ता जो
कहना चाहता है श्रोता उसको शुद्ध रूप में बोधगम्य कर लेता है अथवा नहीं।
      श्रवण कौशल का विकास―मौखिक भाषा सुनकर उसके अर्थ एवं भाव समझने की
क्रिया में निपुण करना और इसके लिए आवश्यक है कि उनमें सुनने के आवश्यक तत्वों का
विकास किया जाए। यह कार्य एक-दो दिन, माह तथा वर्ष में नहीं किया जा सकता, इसके
लिए तो एक सतत प्रयास की आवश्यकता होती है। जहाँ तक मातृभाषा के सन्दर्भ में सुनने
के कौशल के विकास का प्रश्न है, इसका कुछ विकास तो बच्चों में विद्यालय में प्रवेश लेने
से पहले हो चुका होता है परन्तु उसको अपनी सीमा होती है और यह सीमा बहुत सीमित
होती है। विद्यालयों में बच्चों को मातृभाषा के सर्वमान्य रूप को सुनने और सुनकर उसका
अर्थ एवं भाव समझने में दक्ष किया जाता है। इसके लिए हमें विद्यालयी शिक्षा के भिन्न-
भिन्न स्तरों पर करने पड़ते हैं।
प्रश्न 8. सुनने की प्रक्रिया द्वारा भाषायी कौशलों का विकास किस प्रकार होता
है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―प्राणी नाक या मुंह से वायु फेफड़ों में लेता है फिर इस वायु को बाहर निकालता
है। जब फेफड़ों से निकली वायु श्वास नलिका के माध्यम से बाहर आती है तो स्वर तंन्त्रिकाओं
की सहायता से हम इसे इच्छानुसार ध्वनि का रूप देते हैं। वाय को ध्वनि का रूप प्रदान
करने में जिह्वा, कण्ठ, तालु, दाँत, ओष्ठ तथा नासिका महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते है।
ये ही बाहर निकलने वाली वायु को ध्वनि का रूप देते हैं। ध्वनि वक्ता के मख से निकल
कर वायुमण्डल में तरंगों का रूप लेकर श्रोता के श्रवण-यन्त्रों में जाकर अपना सन्देश
देती है।
        ध्वनि का भाषा-कौशलों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है। ध्वनि स्पष्ट रूप से
नीचे लिखे भाषा-कौशलों को प्रभावित करती है―
1. बालक शैशवावस्था में सुनकर ही भाषा को सीखता है। परिवार में जो भाषा बोली
जाती है। वही भाषा तथा इसके स्तर को बालंक ग्रहण करता है।
2. ध्वनि को सुनकर ही उसकी आचरण शैली बनती है।
3. शुद्धोच्चारण पर ध्वनि का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है।
4. ध्वनि से ही बालक लिखना सीखता है।
5. सस्वर वाचन के लिए बालक के पास ध्वनि उत्पन्न करने की क्षमता होनी चाहिए।
6. मौखिक भाव-प्रकाशन बिना ध्वनि के सम्भव नहीं है।
प्रश्न 9. सुनने को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए तथा उनका
निराकरण भी प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर―सुनने को प्रभावित करने वाले कारक―
1.अशान्त वातावरण―बालक जहाँ रहता है, उस स्थान का वातावरण अशान्त होता
र श्रवण दोष आना स्वाभाविक ही है, जैसे—छात्र के आस-पड़ोस में होने वाले शोरगुल
के कारण श्रवण दोष होने पर कक्षा में कथित बात को भली-भाँति श्रवण नहीं कर पाता है।
विद्यालय के आसपास भी शोरगुल होने पर बालक का ध्यान उस शोर की ओर खिंचने
प्रवण दोष आ जाता है, अतः परिणामस्वरूप वह अपना ध्यान पठित पाठ्यवस्तु की ओर
केन्द्रित नहीं कर पाता है।
2.श्रवणेन्द्रियों में विकार-जब बालक की श्रवणेन्द्रियों में विकास हो जाता है तो बालक
को सुनने में कठिनाई होती है। इस प्रकार वे या तो सुन नहीं पाते हैं अथवा जो भी सुनते
है गलत ही सुनते हैं। ऐसी परिस्थिति में शिक्षक के सामने विचित्र समस्या उत्पन्न हो जाती
है और बालक कक्षा में पढ़ाई गयी विषयवस्तु को समझ नहीं पाता है।
3. पढ़ने में अरुचि-कुछ बालक पढ़ने में अरुचि रखते हैं, उनका मन पढ़ने की ओर
नहीं लगता या कभी-कभी बालकों के सामने कुछ ऐसी आकस्मिक परिस्थितियाँ उत्पन्न हो
जाती है जिससे उनमें पढ़ने में अरुचि उत्पन्न हो जाती है, अतः परिणामस्वरूप ऐसे छात्र
कक्षा में तो आते हैं लेकिन वे पढ़ाई जाने वाली विषयवस्तु को श्रवण करने का प्रयास नहीं
करते हैं।
4.ध्यान केन्द्रित न होना-कई बार बालकों का ध्यान पठित विषयवस्तु की ओर केन्द्रित
नहीं हो पाता, ऐसी दशा में बालक उस पाठ का उचित श्रवण नहीं कर पायेंगे जो कक्षाकक्ष
में पढ़ाया गया है।
5. मौखिक कार्य का अभाव-हिन्दी भाषा शिक्षण में शिक्षकगण मौखिक कार्यक्रम ही
करवाते हैं, इससे बालकों में शीता से श्रवण का अभ्यास नहीं हो पाता है। वे श्रवण कार्य
में पिछड़े रहते हैं।
6.शिक्षकों में रुचि का अभाव-हिन्दी भाषा शिक्षण में कुछ शिक्षकगण स्वयं ही रुचि
नहीं लेते तथा कुछ शिक्षकगण आदर्श पठन स्वयं प्रभावपूर्ण नहीं करते जिससे बालक उचित
व शुद्ध अनुकरण वाचन में असमर्थ रहते हैं।
7. पाठ्यवस्तु की क्लिष्टता―हिन्दी में पाठ्यवस्तु कभी-कभी इतनी कठिन (क्लिष्ट)
आ जाती है कि बालकों के समझ में नहीं आती, अतः इस कठिनता से घबराकर वे इन पाठों
में श्रवण से जी चुराते हैं या श्रवण में लापरवाही बरतते हैं।
8. एक साथ दो काम―आजकल बहुधा उच्च कक्षाओं में व्याख्यान विधि के अनुकरण
के फलस्वरूप निम्न कक्षाओं में भी शिक्षक मौखिक कार्य करने के साथ-साथ लिखित कार्य
करने की बालको को अनुमति दे देते हैं। इससे बालको का ध्यान श्रवण में न होकर लिखित
कार्य मे रह जाता है तो श्रवण कार्य दोषपूर्ण हो जाता है, फलतः न तो बालक पूर्णतः लिख
ही पाते है तथा न ही भली प्रकार श्रवण कार्य कर पाते हैं।
9. कक्षा में कठोर नियंत्रण―कुछ शिक्षक कक्षा का अनुशासन बनाए रखने के लिए
कठोर नियंत्रण रखते है जिससे कक्षा में बालक भयभीत होकर चुपचाप बैठे रहते हैं। ऐसी
स्थिति में भय के कारण वे पाठ को न तो ध्यान से सुनते हैं तथा न ही भली प्रकार समझते
हैं।
    श्रवण वाधाओं का निराकरण―जब बालक में किसी प्रकार का श्रवण दोष है तो शिक्षक
को इन दोषों को दूर करने का यथासम्भव निम्न प्रकार से प्रयास करना चाहिए―
1. शान्त वातावरण की व्यवस्था-शिक्षक को सदैव विद्यालय में शान्तिमय वातावरण
की व्यवस्था करना चाहिए। कक्षा में किसी प्रकार का शोर नहीं होना चाहिए, इससे बालकों
को पाठ्यवस्तु को सुनने में सरलता रहती है।
2. श्रवणेन्द्रिय विकारों का उपचार-यदि वालक की श्रवणेन्द्रियों में विकार हो तो
शिक्षक को बालक के अभिभावक को सूचित करना चाहिए ताकि बालक की श्रवणेन्द्रियों के
विकारों की उचित जाँन करायी जाए। हो सके तो समुचित उपचार भी कराना चाहिए। यदि
समय पर बालक का उपचार हो जाए तो बालक भली-भाँति सुन सकेगा तथा कक्षा में पठन
सामग्री सुनने में समर्थ हो जाएगा।
3. वालक का कक्षा में ध्यान केन्द्रित करना-समुचित रूप से श्रवण के लिए बालको
का ध्यान पाठ्यवस्तु की ओर केन्द्रित करना अति आवश्यक है, इस हेतु निम्न प्रकार के प्रयास
किए जाएँ―
(अ) श्यामपट्ट पर आकर्षक शीर्षक लिखना।
(ब) पूर्व ज्ञान पर आधारित प्रस्तावना प्रश्न पूछना।
(स) पिछले पाठ को संक्षिप्त रूप में बताना।
(द) पठित पाठ के भी सरल प्रश्न पूछकर ध्यान केन्द्रित करना।
4. रुचि का विकास-किसी भी विषय-वस्तु को पढ़ाने के लिए शिक्षक को उस विषय
के पूर्व की सामग्री पुनः देकर बालक को नई विषय-वस्तु को जानने के लिए उत्सुकता जाग्रत
कर रुचि उत्पन्न करनी चाहिए। इससे बालक का विषय-वस्तु पर ध्यान केन्द्रित रहेगा तथा
श्रवण का भी पूर्ण प्रयास करेगा।
5. क्लिष्ट पाठ्यवस्तु वो सरस बनाना―क्लिष्ट पाठ्यवस्तु को रोचक एवं सरल
बनाने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रविधियों, उक्तियों का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए
चार्ट या श्रव्य-दृश्य साधनों का भी प्रयोग किया जाना चाहिए।
6. मौखिक कार्य को प्रोत्साहन―हिन्दी भाषा शिक्षण के लिए शिक्षक को बालकों से
अधिक से अधिक मौखिक कार्य कराना चाहिए। मौखिक कार्य के लगातार अभ्यास से
श्रवणेन्द्रियाँ सक्रिय रहती हैं तथा श्रवण दोष दूर होता है।
7. एक समय में एक ही कार्य-हिन्दी शिक्षण में यह अति आवश्यक है कि एक
समय में सिर्फ एक ही कार्य हो । मौखिक कार्य के अवसर पर बालकों को लिखित कार्य विल्कुल
न करने दिया जाए। इस समय बालकों को सिर्फ ध्यानपूर्वक सुनने के लिए ही प्रेरित किया
जाए।
8. कक्षा में स्वस्थ नियंत्रण-शिक्षक का कार्य है कि वह अपने बालकों को स्वस्थ
नियंत्रण में रखे। वे भय की स्थिति में न रहे या शिक्षक का किसी प्रकार का दबाव अपने
ऊपर न समझे, शिक्षक बालकों में अपनी आत्मीयता स्थापित करें, इसके लिए शिक्षाविद्
बालकृष्ण जोगी का मत है कि “तरुण छात्रों को स्वस्थ नियंत्रण में रखना शिक्षकों का एक
नैतिक कर्तव्य है।”
9.शिक्षकों द्वारा हिन्दी भाषा शिक्षण में रुचि लेना―शिक्षकों को स्वयं हिन्दी भाषा
शिक्षण में रुचि लेना चाहिए। जो कार्य वे कर रहे हैं. उसे बड़ी तन्मयता व रचि के साथ
करे। इससे पाठ में सजीवता आएगी और शिक्षण भी प्रभावशाली होगा। इसके फलस्वरूप
बालक भी ध्यानपूर्वक पाठ का श्रवण करेंगे और समझने में रुचि लगे।
प्रश्न 10. ‘योलने’ से आप क्या समझते हैं। इसके महत्व एवं उद्देश्यों को बताइए।
अथवा, वाचन क्या है? इसके महत्व एवं उद्देश्यों का बताइए।
उत्तर―भाषा शब्द से ही ज्ञात होता है कि भाषा का मूल रूप उच्चरित होता है। इसका
दृष्टिपरक प्रतीक लिपिबद्ध होता है। मुद्रित रुप लिपिवद्ध मप का प्रतिनिधि है। जब कोई
बालक पठन या वाचन करता है तो उस समय वह एक पुस्तक या पत्रिका या साइन बोर्ड
या कापी को देख रहा होता है। प्रायः उसके सामने पठनीय वस्तु के मप में सफेद कागज
पर बने हुए कुछ चिह्न होते हैं। ये चिह्न प्रायः गहरे रंग की स्याही में बने होते है। वाचन
के समय बस यही निशान ही तो होते है। किन्तु इन्हें पढ़ते ही,वाचक का चेहरा लाल हो
सकता है, खिल सकता है या पीला पड़ सकता है। यह प्रतिक्रिया उन विद को दिए गए.
अर्थ पर निर्भर है। ये अर्थ बालक के मस्तिष्क में रहते है.न कि विही में। अतः यह
कहा जा सकता है कि ‘वाचन वह क्रिया है जिसमें प्रतीक, ध्वनि और अर्थ साथ-साथ चलते
है।”
कैथरीन ओकानर के शब्दों में, “वाचन वह जटिल अधिगम प्रक्रिया है जिसम दृश्य,
श्रव्य एवं गतिवाही सर्किटों का मस्तिष्क के अधिगम केन्द्र से सम्बन्ध निहित है।” डोनल
मायल वाचन और लेखन की तुलना करते हुए लिखते है कि लिखने में मौखिक भाषा को
स्थायी रूप प्रदान किया जाता है और वाचन में इसका उल्टा किया जाता है।
      संसार की समस्त भाषाओं का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि उनके अक्षरों की
ध्वनियाँ विभिन्न प्रकार से निकलती है। इन मात्राओं में कुछ निश्चित एवं वैज्ञानिक नियमा
के अनुसार शुद्ध उच्चारण नियमित किया जा सकता है, परन्तु देवनागरी लिपि में ऐसा नहीं
है। उसकी यह विशेषता है कि अक्षरों के नामानुसार ही उनकी ध्वनियाँ है। यही कारण है
कि हिन्दी के अध्यापकगण पढ़ना सिखाने की व्यवस्था अलग से नहीं करते। उनके अनुमान
से अक्षर-बोध से ही पढ़ना आ जाता है परन्तु वस्तुतः ऐसा है नहीं।
        इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण भी है। जब हम पढ़ाना आरम्भ करते है तो अक्षरों के
प्रत्यय हमारे मस्तिष्क के कक्ष भाग में क्रमबद्ध होकर छाया रूप में एकत्रित हो जाते है और
प्रत्यय रूप में देखने पर हमें उनके उच्चारण का स्मरण आता है। अतः भाषा-शिक्षण में हम
पहले लिखने पर जोर देते हैं जिससे बच्चा शब्दों की या अक्षरों की वास्तविक बनावट को
टीक प्रकार से समझ सके और उसके स्वरूप को स्मरण कर, अभ्यास द्वारा यथासमय प्रयोग
कर सके।
       वाचन का महत्त्व―वाचन की जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यकता होती है। वस्तुतः
वाचन भी एक कला है जिसकी ऊँच-नीच, निर्धन-धनवान सभी को आवश्यकता पड़ती रहती
है। इस प्रगतिशील विश्व में पढ़ना अत्यन्त आवश्यक है। वाचन की योग्यता न रखने से
व्यक्ति संसार की सांस्कृतिक महानता में अपने अस्तित्व का आनन्द नही ले सकता। जीवन-
चरित्र, इतिहास, काव्य, कहानियाँ, लेख, उपन्यास, नाटक मनुष्य के लिए जिस उद्देश्य से
लिखे जाते है, उनका पूर्णतया आनन्द और लाभ स्वयं पढ़कर हो उठाया जा सकता है। परन्तु
साधारण पढ़ने और वाचन में थोड़ा-सा अन्तर है। वाचन में साधारण रूप से पढ़ने की अपेक्षा
शुद्धता, स्पष्टता तथा प्रभावोत्पादकता अधिक होती है। कभी-कभी हम दूसरो के वाचन को
सुनकर हँस पड़ते है और आवेश में आकर तालियाँ भी पीटने लगते है। इन हास्यास्पद लोगो
में समाज के बड़े-से-बड़े और छोटे-से-छोटे.सभी लोग सम्मिलित है। परन्तु इसमें उनका कोई
दोष नहीं, टोप है उनकी शिक्षा का और उनके शिक्षको का जिन्होंने उन्हें इस प्रकार की शिक्षा
दी है। अस्तु, शुद्ध वाचन का महत्व स्पष्ट है. इसी के द्वारा हम साहित्य के विशाल साम्राज्य
में प्रवेश करते है. जिसमें हमें एक अलौकिक आनन्द को प्राप्ति होती है।
    वाचन की शुद्धता एवं उसकी सहायता से हमे वार्तालाप या सम्भाषण का ढंग आता है
जिसके परिणामस्वरूप हम समाज, देश और जाति के अच्छे योग्य नागरिक हो सकते है।
समाज में महत्वपूर्ण स्थान हो सकता है। वाचन के द्वारा अन्य अशिक्षित भाइयों को लाभ
पहुँचा सकते है।
वाचन के उद्देश्य-उपर्युक्त कथन के अनुसार वाचन का शुद्ध एवं प्रभावोत्पादक होना
आवश्यक है। अतः वाचन-शिक्षण के समय अवश्य ही वाचन के निम्न उद्देश्यों का ध्यान
रखना चाहिए―
1. बालकों को स्वर के आरोह-अवरोह का ऐसा अभ्यास करा दिया जाए कि ये
यथाअवसर भावों के अनुकूल स्वर में लोच देकर पढ़ सकें।
2. स्वयं बालक अपने मन के भाव व्यक्त करते हुए भावानुसार स्वर का उचित आरोह-
अवरोह साध सके।
3. वाचन इतना प्रभावोत्पादक बन जाए कि जिस उद्देश्य से वाचन किया गया हो. वह
सफल हो और व्यक्ति या समाज उससे प्रभावित हो।
4. बालकों के अक्षर, शब्दोच्चारण, उचित ध्वनि, निर्गम, बल तथा सुस्वरता का उचित
संस्कार करना।
5. पुस्तक पढ़कर बालक उसका भाव समझ सके तथा दूसरों को समझा सकें।
वाचन का प्रयोग तथा अभ्यास प्रारम्भ से ही करा देना चाहिए, क्योकि बाल्यावस्था के
एक बार आदत पड़ जाने पर वह शीघ्र नहीं छूटती तथा बालक उसके अभ्यस्त हो जाते हैं,
किन्तु ठीक-ठीक बोलने, समझने, पढ़ने और लिखने मात्र की योग्यता आ जाने से ही भाषा-
शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं होता । व्याकरण की कड़ियों में कसकर शुद्ध ढंग से किसी बात
कह-सुन लेने से ही हमारी तृप्ति नहीं हो जाती। हम यह भी चाहते हैं कि हमारे लिखने
बोलने में एक निरालापन भी हो, उस पर हमारे व्यक्तित्व की छाप हो।
प्रश्न 11. मौखिक अभिव्यक्ति (बोलने) में भाषा का क्या महत्त्व है? मौखिक
भाषा के विकास में किन-किन प्रवृत्तियों का योगदान आवश्यक है?
उत्तर―मौखिक भाषा―मौखिक कार्य से ही भाषा शिक्षण प्रारम्भ होता है। बालकों
का विद्यालयों की प्रारंभिक कक्षाओं से ही मौखिक अभिव्यक्ति द्वारा भाषा विकास किया जाना
चाहिए।
      मौखिक अभिव्यक्ति या मौखिक कार्य का महत्व―मौखिक अभिव्यक्ति बालक के
व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से अत्यावश्यक है। मौखिक अभिव्यक्ति द्वारा बालक को
विचाराभिव्यक्ति के सुअवसर प्राप्त हो जाते हैं और आत्म प्रकाशन का पूरा अवसर मिलता
है।
     डॉसन ने मौखिक कार्य का महत्व बतलाते हुए लिखा है कि, “मौखिक कार्य भाषा की
नींव तैयार कर देता है क्योंकि मौखिक भाषा तथा लिखित भाषा के तुल्य अंग समान ही होते
है।”
      मनुष्य जीवन में लिखित कार्यों की अपेक्षा मौखिक कार्यों का अधिक महत्त्व है। इसके
प्रमाण में निम्नांकित बिन्दु उल्लेखनीय है―
1. अधिगम की सरलता―भाषा का उद्भव मौखिक रूप से ही हुआ है। मौखिक रूप
से सीखना (अधिगम) भी सरल होता है।
2. अनुकरण व अभ्यास―बालक स्वतः ही अनुकरण से भाषा के मौखिक रूप (बोलते)
को सीखता है। वह घर के भाई-बहन या अन्य परिवारजनों अथवा आस-पड़ोस के लोगों को
बोलना सुनकर स्वयं उसी प्रकार बोलना सीख जाता है। सर्वाधिक शिक्षा देने से भाषा के मौखिक
कार्यों का अभ्यास कराना प्रथम कार्य है।
3. कुशलता में सहायक―मानव जीवन में प्रतिदिन भाषा के मौखिक रूप का ही अधिक।
प्रयोग होता है। अतः उसे भाषा के मौखिक रूप का प्रयोग कुशलता से करने के योग्य बनाने
हेतु मौखिक कार्य का सम्यक् ज्ञान देना भी महत्त्वपूर्ण है।
4. विचाराभिव्यक्ति, भावाभिव्यक्ति एवं आत्म प्रकाशन का अवसर― मौखिक कार्य द्वारा बालक को विचाराभिव्यक्ति व भावाभिव्यक्ति के सुअवसर प्राप्त हो जाते हैं व आत्म
प्रकाशन का पूरा अवसर मिलता है।
5. शुद्ध उच्चारण या अभिव्यक्ति का सरलतम रूप―जैसा हम बोलते प्रायः वैसा
ही हिन्दी भाषा में लिखा भी जा सकता है। अतः बोलना शुद्ध आए, तभी दो शुद्ध लिखना
भी सीख सकेगा।
6. स्पष्टीकरण में सरलता―बोलकर ही अपनी बात को स्पष्ट रूप से जितना समझाया
जा सकता है उतना लिखकर नहीं। मौखिक कार्य व्यावहारिक जीवन में विचार-विनिमय का
आधार है।
7. दृढ़ता में सहायक― वार्तालाप मौखिक कार्य का ही मुख्य भाग है। वार्तालाप में जितना
कोई दक्ष होगा उतना ही आसानी से वह अपनी बात का प्रभाव जमा सकेगा। भाषा अधिक
देर तक मस्तिष्क में दृढ़ रहती है।
8. भाषण कला में निपुणता–भाषण भी मौखिक भाषा का ही रूप है। भाषण में हजारों
व्यक्तियों को प्रभावित करना इस प्रजातांत्रिक युग की एक कला है। अतः बालकों को भाषण
कला (सरलता, स्पष्टता, मधुरता एवं प्रभावोत्पादकता आदि) में निपुण बनाने हेतु मौखिक
कार्य का अभ्यास महत्त्वपूर्ण है।
9. सजीवता व भाव प्रदर्शन―मौखिक कार्य से अधिकाधिक सजीवता एवं भाव प्रदर्शन
संभव है।
10. रुचि जाग्रत होना-मौखिक-शिक्षण कक्षा में सजीवता तथा रुचि उत्पन्न करता है।
प्रश्नोत्तर द्वारा पढ़ाए गए पाठ में छात्र अधिक रुचि लेते हैं।
11. आत्म अभिव्यक्ति में निपुणता-वार्तालाप के माध्यम से छात्र आत्म अभिव्यक्ति
एवं सामाजिक सम्बन्धों में दृढ़ता व निपुणता प्राप्त करते हैं।
12.भावनात्मक विकास में सहायक-बोलने वाले व्यक्ति संकोची व्यक्ति की अपेक्षा
अपना सम्पर्क अतिशीघ्र बना लेते हैं। विचारों का आदान-प्रदान, स्नेह सहानुभूति का क्षेत्र बढ़ता
है। इससे भावात्मक विकास एकता उत्पन्न करने में मौखिक भाषा सहायक बनती है। व्यक्तित्व
के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण है।
13. मानसिक व बौद्धिक विकास का साधन-बालक पहले बोलना सीखता है। उसकी
लेखन कला मौखिक भाषा से प्रभावित होती है जो उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायक
होती है। मानसिक बौद्धिक शक्ति का साधन बनती है।
14. एकाग्रचित व सक्रियता-बालकों को सक्रिय, सचेत बनाए रखने के लिए व पाठ
के प्रति एकाग्रचित आकर्षण के लिए मौखिक कार्य उपयोगी सिद्ध होता है।
       लैम्बोर्न मौखिक कार्य पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं, “मेरा निश्चित मत है कि
पाठशाला के जीवन में अन्तिम वर्ष तक लिखित कार्य की अपेक्षा मौखिक कार्य अति आवश्यक
है।”
    मौखिक भाषा के विकास में प्रवृत्तियों का योगदान–बालकों को विद्यालयों में
प्रारंभिक कक्षाओं से ही मौखिक अभिव्यक्ति या मौखिक कार्य की शिक्षा दी जानी चाहिए।
विद्यालय में समय-समय पर वाद-विवाद, भाषण, कविता-पाठ, अन्त्याक्षरी, बाल-सभा, कवि
सम्मेलन, कवि-दरबार एवं अभिनय आदि कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए। बालकों को
इन कार्यक्रमों में अधिकाधिक भाग लेने हेतु प्रेरित कर अपने विचारों को प्रकट करने का अधिक
अवसर प्रदान किया जाना चाहिए ताकि उनकी अशुद्धियों को समझा और समझाया जा सके।
इसके अतिरिक्त कक्षा में अध्यापक और बालकों में परस्पर वार्तालाप के आधार पर मौखिक
कक्षा कार्य पूरा करें। अध्यापक बालकों के साथ घर के वातावरण की तरह प्रेम, सहानुभूति
और सौहाद्रपर्ण वातावरण बनाए रखें जिससे बालक अध्यापक से नजदीक रहकर सामान्य
विषयों पर भी विचार प्रकट कर सकें,शिक्षक विषय-वस्तु में बताए गये विषय-क्षेत्रों को ध्यान
में रखते हुए स्थानीय परिवेश तथा परिस्थिति के अनुसार किन्हीं रोचक घटनाओं, समाचारों,
उत्सव-पर्वो या प्रसंगों को आधार बनाकर बालकों के साथ वार्तालाप का आयोजन करें।
       लिखित भाषा व मौखिक भाषा―प्रारंभिक स्तर पर बालक परिवार के सदस्यों के
साथ अनुकरण के आधार पर मौखिक भाषा ही सीखता है तथा विद्यालय में प्रवेश से पूर्व
तक मौखिक भाषा में ही अपने विचारों का आदान-प्रदान करता है। विद्यालय में जाने के बाद
बालक धीरे-धीरे किसी भी भाषा-मातृभाषा या द्वितीय भाषा की लिपि व ध्वनि का ज्ञान करता
है। इसके उपरान्त शनैः-शनैः लिखित भाषा पर अधिकार करता है। लिखित भाषा पर अधिकार
होने के बाद व्यक्ति अपने विचारों को तथा पुस्तकों की सहायता से प्राप्त ज्ञान को भावी
आवश्यकता के लिए लिखकर सुरक्षित कर लेता है। लिखित व मौखिक भाषा में आपस में
अन्तर-सम्बन्ध है क्योंकि लिखित भाषा को मौखिक रूप से भी व्यक्त कर सकते हैं। कहानी,
कविता, गीत आदि को पढ़कर मौखिक रूप से बता सकते हैं।
प्रश्न 12. मौखिक अभिव्यक्ति के विकास के लिए भाषा शिक्षक को क्या करना
चाहिए? विस्तार से लिखो।
उत्तर―मौखिक अभिव्यक्ति के विकास की क्रियाएँ-विभिन्न शैक्षिक स्तरों पर
शिक्षार्थी की मौखिक-अभिव्यक्ति को निम्न प्रकार से विकसित किया जा सकता है―
(i) अनौपचारिक बातचीत-कक्षा में तथा कक्षा के बाहर भाषा शिक्षक तथा शिक्षार्थियों
के बीच अनौपचारिक लेकिन रोचक बातचीत से छोटे बच्चों की झिझक खुल जाती है तथा
उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न हो जाता है। उनके शब्द-भंडार में वृद्धि होने के साथ-साथ उनके
वाक्य-विन्यास में भी सुधार हो जाता है। ऐसी अनौपचारिक बातचीत आगे चलकर संवाद,
कथोपकथन एवं समूह-विमर्श आदि में भाग लेने के लिए शिक्षार्थियों को प्रत्यक्ष रूप में उत्प्रेरित
करती है।
(ii) कहानी कथन-कहानी कथन के माध्यम से शिक्षार्थियों की मौखिक अभिव्यक्ति को
विकसित किया जा सकता है। भाषा शिक्षक प्राथमिक स्तर पर छोटे बच्चों को कक्षा में, कहानी
एवं घटनाओं के रोचक विवरण प्रस्तुत कर सकता है तथा बच्चों को भी उत्प्रेरित कर सकता
है कि ऐसी ही रोचक कहानियाँ वे स्वयं भी सुनाएँ । इस दृष्टि से शिक्षापयोगी, विनोद प्रिय,
साहसिक एवं बाल जीवन से सम्बन्धित कहानियाँ सुनाना उपयोगी रहेगा।
(iii) घटना-भाषा शिक्षक के रूप में छोटे बच्चों को स्वयं द्वारा देंखी या सुनी हुई बातो
या घटनाओं को अपने शब्दों में सुनाने में बहुत आनंद आता है। उनकी मौखिक अभिव्यक्ति
के विकासार्थ शिक्षार्थियों को किसी देखी हुई घटना, दृश्य, खेल-तमाशे आदि पर सुसंबद्ध
ढंग से वर्णन करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है, ‘मैने क्या देखा’, ‘आप बीती’,
‘मेरा अनुभव’ विषयों पर बालक बड़े चाव से वर्णन करेंगे।
(iv) चित्र वर्णन-छोटे-छोटे बालकों की मौखिक अभिव्यक्ति को घटना एवं कहानियाँ
पर निर्मित चित्रों के माध्यम से विकसित किया जा सकता है। चित्र या चित्रों की श्रृंखला को
कक्षा में प्रस्तुत कर ऐसे प्रश्न पूछे जा सकते हैं, जो क्यो’, ‘कब’, ‘क्या’ से प्रारम्भ होते हो।
(v) भाषण-भाषण मौखिक अभिव्यक्ति को विकसित करने का एक अत्यन्त उपयुक्त
साधन है। उच्च प्राथमिक स्तर से शिक्षार्थियों को अपनी रुचि एवं ज्ञान के आधार पर
उपयुक्त शीर्षक देकर भाषण करने के अवसर प्रदान किए जा सकते हैं। भाषण देने की
कला के समुचित विकास के लिए उन्हें प्रमुख विचारों को यथाक्रम संजोने की विधि, श्रोताओं
के अनुसार विषय सामग्री, उचित हाव-भाव प्रदर्शन, वाणी में आवश्यकतानुसार उतार-चढ़ाव
उपलब्ध समय का उचित ध्यान रखने जैसी भाषण-कला सम्बन्धी अपेक्षाओं से अवगत कराना
चाहिए।
        आशु भाषण भी शिक्षार्थियों में मौखिक आत्म-प्रकाशन की क्षमता विकसित करने का
सशक्त माध्यम है। इसके द्वारा छात्रों की भाषण के दौरान तुरन्त तर्क करने की योग्यता को
विकसित किया जा सकता है। इसके लिए कक्षा स्तर के अनुसार कुछ विषय पहले से घोषित
किए जा सकते है तथा फिर लॉटरी डाल कर शिक्षार्थियों को किसी एक विषय पर बोलने
 लिए कहा जा सकता है। उच्च माध्यमिक स्तर (कक्षा 9 से 12) पर इसे प्रतियोगिता से
रूप में अंतर्विद्यालयीय स्तर पर भी आयोजित किया जा सकता है।
            (vi) वाद-विवाद―मौखिक अभिव्यक्ति को विकसित करते समय शिक्षार्थियों में
तर्कशक्ति, प्रत्युत्पन्न मति, हाजिर जवाबी, हास्य-व्यंग युक्त तथा अपने विचारों को प्रभावी
ढंग से संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने जैसे गुणों का विकास होता है। बालक-बालिकाएँ तो स्वयं
ही ऐसे अवसर पर बोलने के लिए लालायित रहते हैं। यहाँ हमें शिक्षार्थियों को यह सिखाना
होगा कि वे कैसे अपने प्रतिपक्षियों के प्रस्तुत तको का पूर्व अनुमान कर उनकी काट करने
के लिए अपना उत्तर तैयार कर सकते हैं तथा प्रतिपक्षियों के सुने तर्को का तुरंत उत्तर देने
में प्रत्युत्पन्नमति का प्रयोग कर सकते हैं।
     (vii) परिसंवाद तथा विचार―विमर्श-उच्च कक्षाओं यथा कक्षा 9 से 12 के स्तर पर
हम सामूहिक विचार-विमर्श अथवा परिसंवाद आयोजित करके भी विद्यार्थियों की मौखिक
अभिव्यक्ति का विकास कर सकते हैं। भाषा शिक्षक द्वारा विचार-विमर्श के विषय पहले से
ही सुनिश्चित कर लिए जाते हैं। कक्षा को विभिन्न पक्षों के आधार पर अलग-अलग समूहों
ने विभक्त कर प्रत्येक समूह को विषय का कोई एक पक्ष देकर विचार-विमर्श करने के लिए
उत्प्रेरित किया जाता है। लघु समूह के कारण शिक्षार्थी अपने अन्य साथियों की शंकाओं का
उत्तर भी दे सकते हैं तथा अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए अपने साथियों से प्रश्न भी
कर सकते हैं। आजकल आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के “युवावाणी’ जैसे कार्यक्रमों में
सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं पर परिसंवाद/चर्चाएँ आयोजित की जाती है इन्हें सुनने के
लिए शिक्षार्थियों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
      (viii) बाल सभा एवं छात्र संसद―मौखिक अभिव्यक्ति को विकसित किए जाने का
यह एक सामाजिक एवं प्रभावी कार्यक्रम है। उसके माध्यम से शिक्षार्थियों को जनतांत्रिक प्रणाली
से कार्य सम्पन्न करने की शिक्षा प्रदान की जा सकती है। बाल सभा एवं छात्र संसद में सक्रिय
भाग लेने के लिए प्रभावपूर्ण मौखिक अभिव्यक्ति अपेक्षित होती है, विशेषतः सभा के आयोजन
के लिए सभापति पद के लिए प्रस्ताव रखना, अनुमोदन करना, सभापति एवं श्रोताओं को
संबोधित करना आदि । इससे बालक-बालिकाएँ केवल कुशल वक्ता या श्रोता ही नहीं बनते,
वरन् उनमें स्वस्थ संसदीय प्रवृत्ति का विकास भी होता है।
(ix) काव्य-पाठ―शिक्षार्थी कविता कंठस्थ करने और उसे सुनने में गर्व एवं प्रसन्नता
का अनुभव करते हैं। वे कंठस्थ की गई कविताओं को सुनाते समय हाव-भाव का प्रदर्शन
भी करते हैं। उचित हाव-भाव के साथ कविताएँ सुनाने की यह प्रवृत्ति उनकी मौखिक-अभिव्यक्ति
को विकसित करने का सबल माध्यम हो सकती है। अतः अच्छा होगा कि बाल गोत. वर्णनात्मक
गीत, अभिनय गीत आदि का चयन कर शिक्षार्थियों को व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से कविता-
पाठ करने के अवसर प्रदान की जाएँ।
           ध्वनि यंत्रों के संसाधनों पर बोलने का अभ्यास―शिक्षा के प्रभावी माध्यम के रूप
में श्रव्य, दृश्य साधनों का चला दिन पादन बढ़ता जा रहा है। आज दूरवर्ती शिक्षा ज्ञानार्जन
हेतु प्रभावी विकल्प के रूप में भर आई। अतः माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर
पर अपने शिक्षार्थियों की मौखिक अभिव्यक्ति के सबल विकास के लिए उन्हें टेप रिकॉर्डर,
वीडियो टेप तथा ध्वनि विस्तारक जैसे इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों पर प्रभावी ढंग से बोलने के लिए.
उत्प्रेरित करें। आकाशवाणी/दूरदर्शन में ‘युवावाणी’ तथा “बाल गोपाल” जैसे कार्यक्रमों में
भाग लेने के लिए कक्षा स्तर पर शिक्षार्थियों को तैयार करे जिससे वे बिना हिवाकचाहट के
संतुलित भाषा तथा छोटे-छोटे वाक्यों में अपने विचारों को प्रस्तुत कर सके। इसके लिए समय-
समय पर शिक्षार्थियो को ध्वनि विस्तारक यंत्रों के माध्यम से प्रार्थना सभा एवं बाल संसद में
अपने विचार एवं भाव प्रकट करने के अवसर दिए जाएँ। उनके कविता पाठों के भाषणों,
परिसंवादों को टेप कर उन्हें पुनः सुनने के लिए भी पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाएं। इससे
उनकी मौखिक अभिव्यक्ति कौशल का मौलिक रूप से विकास किया जा सकता है।
प्रश्न 13.विद्यार्थी शिक्षक (छात्राध्यापक) बच्चों में मौखिक अभिव्यक्ति के विकास
की क्षमता किस प्रकार वढ़ा सकता है?
अथवा, हिन्दी शिक्षक को बच्चों में किन-किन गतिविधियों के माध्यम से सुनने
व बोलने के समस्या का निदान कर सकते हैं?
उत्तर― विद्यार्थी शिक्षक में बच्चों की मौखिक अभिव्यक्ति का विकास करने की
क्षमता― इसके लिए छात्राध्यापक को निम्न प्रकार के क्रियाकलापों को अपनाना चाहिए―
            1.बच्चों के साथ शब्दों एवं ध्वनियों से खेलते हुए सार्थक अभिव्यक्ति की ओर
ले जाना—इसमें वर्ण पहचान, उसका उच्चारण करते हुए, शब्द की पहचान, उसका उच्चारण
कराया जाए। प्रारम्भ में दो वर्ण. तीन वर्ण तथा चार वर्णा का उच्चारण किसी मूर्त वस्तु या
चित्र के साथ बोलना सिखाया जाता है। फिर मात्रा वाले शब्द, संयुक्ताक्षर शब्द, वस्तु चित्र,
उच्चारण, प्रत्यभिज्ञान, फिर नाम सहित चित्र सामग्री उच्चारण-वर्ण की पहचान व उच्चारण,
तत्पश्चात् सार्थक शब्द का बोध कराते हुए छात्राध्यापक बालको की सार्थक अभिव्यक्ति करा
सकता है।
2. छोटी कहानी, कविता, एकाभिनय, आशु भाषण एकांकी आदि में हावभाव
के साथ भाग लेने हेतु बच्चों को तैयार कराया जाए―छात्राध्यापक चित्रसामग्री के सहयोग
से छोटी-छोटी कहानियाँ प्रस्तुत कराने का अभ्यास कराये। इनके वाक्य सरल व छोटे-छोटे
हो। बाल कविताएँ कण्ठस्थ करायी जाएँ। छात्राध्यापक पहले आदर्श प्रस्तुत करेगा। बाल
कविताओं में हावभाव, आरोह-अवरोह लय, गति और यति का ध्यान रखा जाए । स्वर बदल-
बदल कर एक ही व्यक्ति अनेक पात्रों के वार्तालाप को प्रस्तुत करने की कला को एकाभिनय
कहते हैं। इसमें अभिव्यक्ति में स्वाभाविकता हो तथा पात्रानुसार ध्वनियाँ हो ।
3. बच्चों में अपने विचारों को बेहिचक, स्पष्ट एवं स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सकने
की क्षमता का विकास करना-इसके लिए बालकों को अधिकाधिक बोलने का अवसर
दिया जाए। इसके लिए छात्राध्यापक निम्नांकित कार्यक्रम कर सकते हैं―
(i) चित्र पर वार्तालाप,
(ii) चित्रों को देखकर कहानी कथन,
(iii) सारांश कथन, केन्द्रीय भाव कथन,
(iv) प्रश्नोत्तर, लिंग, वचन, पुरुष, शब्दभेद पर प्रश्न करना
(v) घटना या चित्र पर अभिव्यक्ति कराना
(vi) छात्रों के अपूर्ण कथनों को पूर्ण करने में सहयोग, उन्हें प्रोत्साहित किया जाए।
4. बच्चों के छोटे समूहों में चर्चा करवाना उसे बड़े समूह में प्रस्तुत करवाना― कक्षा
के छात्रों के तीन-चार दल बनाए जाएँ। प्रत्येक दल में कम से कम 4-5 छात्र हो । शिक्षक
प्रत्येक दल को किसी विषय या उसके अंगों पर या एक स्वतंत्र विषय पर तर्क सम्मत चर्चा
करें।
    बालिकों की मौखिक अभिव्यक्ति के विकास करने की क्षमता हेतु छात्राध्यापक (विद्यार्थी-
शिक्षा) निम्न प्रकार गतिविधियाँ कर सकता है―
कुछ गतिविधियों के उदाहरण इस प्रकार हैं―
उदाहरण―गतिविधि शिक्षण (शब्द रचना) कक्षा प्रथम:
गतिविधि 1. खेल―शिक्षक छात्रों को गोल घेरे में खड़ा कर देगा तथा यह कहेगा संसार
में कुछ उड़ने वाले पक्षी हैं और कुछ जानवर हैं, जो नहीं उड़ते। मैं उनके नाम बोलूँगा-उड़ने
वाले पक्षी का नाम सुनते ही सभी बोलेंगे ‘उड़ तथा हाथ ऊपर करेंगे। जो उड़ने वाला नहीं
है, उसका नाम सुनते चुपचाप खड़े रहेंगे। जो गलती करेगा वह आउट हो जाएगा। फिर
अध्यापक पक्षियों के नाम बोलते-बोलते बीच में पशु का नाम बोलेगा।
गतिविधि 2. पक्षी परिचय― श्याम पट्ट पर पक्षी का अपूर्ण नाम लिखेगा–छात्र उनको
पूरा करें।
             जैसे–कबू…      मो……          तीत…      बत…….
        गतिविधि 3. पशु परिचय–अध्यापक शब्द के मध्य का एक वर्ण नहीं लिखेगा। उनकी
पूर्ति कराकर पशु का नाम लिखने को कहा जाए।
जैसे–बन…… र, दिन……र, ग……… या।
इसी तरह से फलों, बर्तनों, पेड़ों आदि के नामों से रिक्त स्थान की पूर्ति करानी
चाहिए।
          गतिविधि 4.अध्यापक कुछ वर्ण या एक लम्बा सा शब्द लिखकर उसने बनने वाले
संभावित शब्दों की रचना करने को कहा जाए। नीचे उदाहरण हैं―
1.जैसे―’म’ ‘क’ ‘न’T’ इन वर्णा का प्रयोग करते हुए अधिकाधिक शब्द बनावे।
उत्तर― मन, मान, नम, कम, काम, कमा, नाक, कान।
2. अ म र सर-वर्णो को आगे पीछे.करके शब्द रचना करो।
उत्तर―अमरस, रस, सर, अमर, रम, मर।
3. शब्द बनाओ जिनके अन्त में ‘कार’ जुड़ा हुआ हो―
उत्तर―बेकार, सरकार, उपकार, विकार ।
           गतिविधि 5. विलोम अर्थ देने वाले शब्द बनाओ।
इसमें मौखिक रूप से क्रिया हो सकती है―अध्यापक पूछेगा―उत्तर लिखेगा पढ़ने को
कहेगा। जैसे―
सत्य               असत्य         ज्ञानी         अज्ञानी
आया              गया            हिंसा         अहिंसा
कृपण             उदार           धनी          निर्धन
सुगन्ध            दुर्गन्ध         उठो           बैठो
लेना               देना
 इस प्रकार अनेक गतिविधियों द्वारा शब्द रचना का ज्ञान कराया जा सकता है।
गतिविधि 6. ध्वनि साम्य शब्द रचना―
मोहन ने लगाया बाजार का चक्कर
रास्ते में लग गई साइकिल की टक्कर
उस के हाथ से गिर गई शक्कर
कहना मानो बीच रास्ते से चलो हटकर
सर्दियों में खूब दूध पीयो जमकर।
गतिविधि 7―ध्वनि साम्य शब्द बताइए―जैसे–आइए, लीजिए, पीजिए, दीजिए,
उठिए, बैठिए, खाइए, जाइए, आदि।
गतिविधि 8. पहेलियाँ:
1. तीन अक्षर का मेरा नाम, उलटा सीधा एक समान                        (सरस)
2. उस मिठाई का नाम बताओ जिसमें फूल भी और फल भी हो।   (गुलाब जामुन)
3.7 अक्षरों का एक नगर है, जिसमें कोई मात्रा नहीं है।                 (अहमद नगर)
4. उस भाषा का नाम बताओ जिसको सीधा या उल्टा पढ़ने पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
                                                                                           (मलयालम)
5. तीतर के आदि दो तीतर, तीतर के पीछे दो तीतर बताओ कुल कितने तीतर?
                                                                                              (तीन)
प्रश्न 14. बोलने को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए और उनके
समाधान के उपाय भी सुझाइए।
उत्तर―बोलने को प्रभावित करने वाले कारक-बोलने को प्रभावित करने वाले
कारक निम्नलिखित हैं―
1. किसी ध्वनि का लोप कर देना या उस ध्वनि का अति दीर्घ उच्चारण करना।
2. किसी ध्वनि का अल्प उच्चारण करना।
3. शब्दों को चबा-चबाकर या अति दुत गति से बोलना।
4. किसी शब्द की ध्वनि को उलट देना।
5. सुर, बलाघात तथा आरोह-अवरोह का गलत प्रयोग।
6. सामाजिक परम्परा का गलत होना।
7. स्वर-यन्त्र या तन्त्रों में खराबी के कारण हकलाना या तुतलाना ।
8. अटक-अटककर बोलना।
9. ध्वनि का सही ज्ञान न होना।
10. उच्चारण के सामान्य नियमों का ज्ञान न होना।
11. गलत वर्तनी लिखना या याद होना।
12. दोषयुक्त श्रवण प्रक्रिया।
14. कुछ शारीरिक विकृतियाँ ।
15. शब्दलाघव की प्रवृत्ति ।
13. स्थानीय बोलियों तथा परिवार में बोले जाने वाले अशुद्ध उच्चारण का प्रभाव ।
16. निर्देशन का अभाव।
बोलने को प्रभावित करने वाले कारकों को दूर करने के उपाय―प्रयास करना
चाहिए कि बालक अशुद्ध उच्चारण करना सीखे ही नहीं, फिर भी वह अशुद्ध उच्चारण करना
सीख लेता है तो उसका उपचार करना चाहिए। इस हेतु नीचे लिखे उपाय काम में लाए जा
सकते हैं―
1. शुद्ध उच्चारण का अभ्यास कराया जाए।
2. ध्वनियों का ज्ञान कराया जाए।
3. प्रारम्भिक कक्षाओं से ही शुद्ध उच्चारण पर ध्यान दिया जाए।
4. अन्य बालक अशुद्ध उच्चारण करने वाले बालक का अनुकरण न कर, यह ध्यान
रखा जाए।
5. सस्वर वाचन तथा मौखिक कार्यों को अधिक महत्त्व दिया जाए।
6. बालक को भाषण तथा कविता प्रतियोगिता जैसे कार्यक्रमों में भाग लेने के
अभिप्रेरित किया जाए।
7. उच्चारण सुधार के लिए भाषा-प्रयोगशाला अति लाभदायक व महत्त्वपूर्ण
होती है।
8. छात्रों में शुद्ध उच्चारण करने की आकांक्षा जाग्रत की जाए।
9. वाणी दोषों को दूर करने के लिए उपयुक्त चिकित्सकों की सहायता ली जाए।
10. अध्यापक स्वयं के उच्चारण में सुधार करे ।
प्रश्न 15. पठन से आप क्या समझते हैं? इसके महत्व एवं उद्देश्यों को वताइए।
उत्तर―भाषा-शिक्षण में पठन या वाचन का तात्पर्य-साधारणतया पढ़ने को पठन
या वाचन कहा जाता है किन्तु भाषायी कौशल की दृष्टि से पढ़ने या वाचन का यह अर्थ
नहीं है। क्योंकि पुस्तक पढ़ लेने से ही पठन या वाचन का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता।
वास्तविक पठन वही है जब छात्र के पढ़ने के क्रम में ही पाठक उसका अर्थ समझ जाए।
इसमें वह किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं करे । यह सदैव ध्यान रखें कि लिपिबद्ध
अक्षरो का तब तक कोई मूल्य नहीं होता जब तक वे विचारों का प्रतिनिधित्व न करें। कोई
भी पाठ्य अंश यद्यपि महान् अर्थ रखते हो किन्तु यदि वह हमारे समक्ष अर्थ प्रकाशन न
करे तो वह व्यर्थ है। पठन में लिपि को पढ़ना, पढ़कर समझना और पढ़कर अर्थ समझना
तीनों सम्मिलित है। अर्थात् पठन या वाचन वह क्रिया है, जिसमें प्रतीक, ध्वनि और अर्थ
साथ-साथ चलते हैं।
         पठन या वाचन-शिक्षण का महत्व―(1) वाचन-शिक्षण का महत्त्व इस तथ्य से भी
प्रकट हो जाता है कि पढ़ना (वाचन) शब्द शिक्षा-प्राप्ति का ही पर्याय माना गया है। विद्यालय
द्वारा प्रदत्त सबसे अधिक उपयोगी कौशल अथवा बौद्धिक प्रक्रिया पठन शिक्षण है। ज्ञानार्जन
की दृष्टि से इससे बढ़कर और कोई कौशल नहीं है। पढ़ने की शिक्षा पर हो अन्य विषयों
का ज्ञान निर्भर है। पढ़ना सीख लेने पर बालक विद्यालय के सभी विषयों को भली-भाँति
पढ़ सकता है और उसका ज्ञान प्राप्त कर सकता है। (2) पठन-योग्यता के विकसित होने
पर ही बालक की समस्त मानसिक और भावात्मक उन्नति निर्भर है। मानव जाति द्वारा अर्जित
ज्ञान लिखित रूप में विद्यमान है जिसका उपयोग पठन द्वारा ही किया जा सकता है। (3)
ज्ञानार्जन का सबसे सरल सुलभ साधन पढ़ना है। बालक के विकास के लिए सबसे अधिक
प्रेरणादायी तत्व पठन ही है, जो उसे सदा ही ज्ञान-वृत्ति के लिए उत्प्रेरित करता रहता है।
(4) निरन्तर पढ़ने से हमारे पूर्वार्जित ज्ञान में संशोधन और परिवर्द्धन होता है। (5) पठन
आनन्द-प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है। साहित्यिक आनन्द-प्राप्ति का साधन पठन ही है। नाम-
सौन्दर्य, भाव-सौन्दर्य एवं रसानन्द का आस्वादन पठन द्वारा ही संभव है। (6) शब्द-भंडार
की वृद्धि भी पठन पर ही बहुत कुछ निर्भर है। पठन द्वारा जाने अनजाने ही हमारी शब्दावली
एवं शब्द-शक्ति में वृद्धि होती जाती है। (7) पठन द्वारा ही व्यक्ति महान् विद्वान, यशस्वी,
वक्ता तथा चिन्तक हुआ है। (8) पठन द्वारा ही शब्दों का शुद्ध-शुद्ध उच्चारण किया जा
सकता है। (9) उसकी सहायता से हमें वार्तालाप या सम्भाषण का ढंग आता है जिसके
परिणाम स्वरूप हम समाज तथा देश के अच्छे नागरिक हो सकते हैं।
वाचन-शिक्षण के उद्देश्य:
1. बालकों को स्वर के आरोह-अवरोह का ऐसा अभ्यास कराना कि वे यथा अवसर
भावों के अनुकूल स्वर में लोच देकर पढ़ सके।
2. बालकों के अक्षर,शब्दोच्चारण, उचित ध्वनि बल तथा सुस्वरता का उचित संस्कार
करना।
3. पुस्तक पढ़कर बालक उसका भाव समझ सके तथा दूसरों को समझा सके।
4. बालका के उच्चारण को शुद्ध तथा स्पष्ट रूप प्रदान करना।
5. बालकों में प्रवाह सहित पढ़ने की क्षमता विकसित करना।
6. बालकों को भावानुसार स्वर बदलने में कुशल बनाना।
7. वालका के वाचन को मधुर तथा प्रभावोत्पादक बनाना।
    उपर्युक्त वाचन के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शिक्षकों को सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।
वाचन का प्रयोग तथा अभ्यास प्रारम्भ से ही करा देना चाहिए, क्योंकि बाल्यावस्था में एक
बार बालक की आदत पड़ जाने पर वह जल्दी नहीं छूटती।
प्रश्न 16. शुरुआती ‘पढ़ना-लिखना’ की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए तथा इसके
महत्त्व को समझाइए।
उत्तर―अवधारणा–बच्चे शुरुआती चरणों में पढ़ना और लिखना नहीं जानते हैं, लेकिन
वे बहुत-सी चीजों को देखकर उसका नाम या प्रकृति स्पष्ट करते हैं। जिस प्रकार हम किसी
व्यक्ति को पहली बार देखते हैं और उसकी तस्वीर अपने दिमाग में बसा लेते हैं, जब वही
व्यक्ति कुछ समय बाद हमारे सामने से गुजरता है तो हम तुरन्त उसे पहचान लेते है और
उसका नाम पुकारते । ठीक उसी प्रकार बच्चे भी अपने आस-पास के वस्तुओं, व्यक्तियों
आदि के प्रिंट से रिश्ता बना लेते हैं और वह वस्तु सामने आने पर उसे पहचान जाते है।
भले ही वे उस भाषा के लिपि-चिह्नों से परिचित न हो। इसे ही शुरुआती पढ़ना-लिखना
कहते हैं।
        महत्त्व―पढ़ने की प्रक्रिया तभी से शुरू मानी जाती है जब से बच्चे प्रिंट से अपने अर्थ
का निर्माण करते हैं। यह अर्थ ही ‘पढ़ना’ का मूल है। यह अर्थ ही पढ़ना कौशल को पढ़ना’
बनाता है। बच्चों का शुरुआती पढ़ना-लिखना यानी पढ़ना केवल लिपि या लिपिबद्ध भाषा
को भेदना ही नहीं बल्कि छपी सामग्री से कई स्तरों और उसके कई पहलुओं से अंतक्रिया
करना भी है। पढ़ने की इस समग्र परिभाषा में बहुत से ऐसे कौशल और क्रियाएँ सम्मिलित
होती है, जिससे बच्चों का मानसिक विकास तीवता से होता है। इसी कारण यह कहा जाता
है कि बच्चे शुरुआती चरण में शीघ्रता से और अधिक सीखते हैं।
प्रश्न 17. पठन व लेखन कौशल के विकास हेतु किस प्रकार की अधिगम सामग्री
का प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर―पठन व लेखन-कौशल के विकास हेतु अधिगम सामग्री का प्रयोग-पठन
एवं लेखन क्रिया साथ-साथ चलती है। अतः इनसे सम्बन्धित सामग्री को एक साथ प्रयोग
करना उपयुक्त रहेगा। पठन एवं लेखन कौशल के विकास हेतु अधोलिखित अधिगम सामग्रियों
का प्रयोग किया जा सकता है:
      (1) पाठ्य-पुस्तक―यह परम्परागत अधिगम सामग्री है। यह अध्यापक और छात्रों दोनों
के लिए उपयोगी साधन है। इसका अधोलिखित रूप में प्रयोग किया जा सकता है:
1. आदर्श वाचन, अनुकरण वाचन एवं मौन वाचन में।
2. पाठ्य-वस्तु तथा मूल्यांकन कार्य के आधार रूप में।
3. पठित अंशों की पुनरावृत्ति में।
4. पाठ-नियोजन में।
5. शिक्षण-उद्देश्यों की पूर्ति में।
6. गृह-कार्य वाचन अभ्यास तथा लेखन अभ्यास में।
(2) श्यामपट्ट–यह भी परम्परागत शिक्षण-सामग्री है। इसके अधोलिखित प्रयोग हैं:
1. शब्दार्थ-बोध, वर्तनी-शिक्षण, वाचनाभ्यास आदि क्रियाओं में
2. भाषा-तत्त्वों के स्पष्टीकरण में
3. व्याकरण भाषा में
4. रचना-शिक्षण में
5. रूपरेखा, उद्बोधन, शब्द-प्रधानी प्रणाली, समवाय प्रणाली के प्रयोग में।
(3) चार्ट– अध्यापक उपसर्ग, प्रत्यय, विलोम शब्द आदि पर चार्ट बनाकर उनकी सहायता
से उच्चारण और लेखन का अभ्यास करवा सकता है।
(4) फ्लैश कार्ड–फ्लैश कार्डों की सहायता से वर्तनी तथा वाक्य की संरचना का ज्ञान
करा सकता है।
(5) फैल्ट बोर्ड–फैल्ट बोर्ड का प्रयोग करके छात्रों को लिपि तथा वाक्य रचना का अभ्यास
कराया जाता सकता है।
(6) शब्द-पट्टी–शब्द-पट्टी का आश्रय लेकर शब्दों के उच्चारण का अभ्यास कराया
जा सकता है।
(7) वाक्य पट्टी–वाक्य पट्टी द्वारा शुद्ध वाक्य रचना का ज्ञान कराया जा सकता है।
(8) मात्रा खिड़की– मात्रा खिड़की के प्रयोग द्वारा मात्राओं के उचित प्रयोग का अभ्यास
कराया जा सकता है।
(9) शब्द-सूची–कार्ड बोर्ड पर शब्द-सूची तैयार करके शब्द भेदों से छात्रों को परिचित
कराया जा सकता है।
(10) चकती–चकती बनाकर अथवा छात्रों से बनवाकर शब्दों का निर्माण कराया जा
सकता है।
प्रश्न 18. पठन प्रक्रिया की विवेचना करते हुए उसके सोपानों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―पठन प्रक्रिया-पठन-प्रक्रिया के अन्तर्गत पाठक की दृष्टि जैसे-जैसे शब्दों और
वाक्यों पर घूमती है, वह उनका अभिधेयार्थ (प्रत्यभिज्ञान) समझता हुआ उनमें निहित अर्थ
(लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ) को ग्रहण करता जाता है। वह लेखक के विचार, भाव तथा मंतव्य
को समझ कर उनका मूल्यांकन भी करता है। ऐसा करते समय उसके मन में जो प्रतिक्रिया
होती है, वह उसके पूर्व अनुभवों के कारण होती है।
       पठन प्रक्रिया के सोपान–स्टैंग के मतानुसार―”पढ़ते समय व्यक्ति की अनुभूतियाँ
जागृत होती है और उसमें भावोद्रेक होता है। वह पाठ्यवस्तु को पसंद करता है या नापसंद,
उससे सहमत होता है या असहमत, उसके प्रति संतोष व्यक्त करता है या असंतोष । पाठक
केवल विचार ही नहीं ग्रहण करता वरन् वह विचारों की सृष्टि भी करता है।” इस प्रकार
पठन द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव पाठक के जीवन का अंग बन जाता है। वह उनका अपने
दैनिक कार्यकलापों में उपयोग करने लगता है। इस प्रकार पठन प्रक्रिया के चार सोपान हो
जाते हैं–प्रत्यभिज्ञान, अर्थग्रहण, मूल्यांकन तथा अनुप्रयोग।
(i) प्रत्यभिज्ञान― पठन-पक्रिया के इस चरण को पठन का यांत्रिक पक्ष भी कह सकते
हैं।
      प्रत्यभिज्ञान का आशय है―शब्द के दृश्य (रचना) तथा श्रव्य (उच्चारण) रूपों को
समझकर उसके स्पष्ट मानसिक बिंब की रचना । शब्द के रूप, ध्वनि और अर्थ तीनों के संयोग
से हमारे मस्तिष्क में शब्द बिंब बनता है। इस बिंब या संप्रत्यय की सृष्टि हमारे पूर्व अनुभवों
पर आधारित होती है। पठन में दक्षता प्राप्त पाठक शब्द के प्रत्येक अक्षर को अलग-अलग
न देखकर उसे संपूर्ण रूप में देखता है। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो वह एक साथ अनेक
शब्दों को देखते हुए उनका अर्थ भी समझता जाता है। तीव्र गति से पढ़ने के लिए यह कौशल
अत्यन्त आवश्यक है।
(ii) अर्थग्रहण―अर्थग्रहण के द्वारा हम पठित सामग्री में निहित अर्थ को भली-भाँति
समझते हैं। अर्थग्रहण की दक्षता पाठक से चिन्तन और मनन की अपेक्षा रखती है। इसके
लिए आवश्यक है कि अर्थ को समझने के साथ ही उसकी व्याख्या तथा विश्लेषण भी किया
जाए। इस दृष्टि से पठन के अनेक पक्ष हो जाते हैं : पढ़ते समय विचारों और घटनाओं के
क्रम को समझना, विशिष्ट तथ्यों का चुनाव करना, विस्तृत विवरण (किसने कहा? कब कहा?
क्यों कहा) आदि की जानकारी प्राप्त करना तथा लेखक के मन्तव्य को समझना। इनके अतिरिक्त
अर्थग्रहण योग्यता के अंतर्गत नीचे लिखे कौशल भी सम्मिलित होते हैं―
• शब्दों तथा वाक्यों का प्रसंगानुकूल अर्थ समझना।
• पाठ्य सामग्री में विशिष्ट विवरण का चयन करना।
• मुख्य बिन्दुओं तथा महत्वपूर्ण विचारों का चुनाव कर उन्हें एक निश्चित क्रम में
व्यवस्थित करना।
• मुख्य बिन्दु पर विचार कर सकना।
• सामान्यीकरण कर सकना।
• पठित सामग्री को संक्षिप्त अथवा विस्तारपूर्वक व्यक्त कर सकना।
• सामग्री में निहित निर्देशों का अनुसरण करना।
• पढ़कर निष्कर्ष निकालना।
• संभावित घटनाओं के सम्बन्ध में अनुमान लगाना।
• विचारों का विश्लेषण-संश्लेषण करना।
• पठित वस्तु का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना।
इस प्रकार अर्थग्रहण दृष्टि से पठन के तीन स्तर हो जाते है; अभिधात्मक,
आलोचनात्मक और सृजनात्मक । अभिधात्मक पठन के अंतर्गत पाठ्य-वस्तु के अर्थ का
तथ्यात्मक निरूपण होता है। आलोचनात्मक पठन लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ को समझने में सहायक
होता है। सृजनात्मक पठन में पाठक स्वानुभव के आधार पर लेखक के विचारों का मूल्यांकन
करता हुआ नई कल्पना, नये दृष्टिकोण और निष्कर्ष की स्थापना करता है।
(iii) मूल्यांकन तथा प्रतिक्रिया―अर्थग्रहण के साथ ही पाठक गृहीत विचारों की
उपयोगिता, औचित्य और विश्वसनीयता का निर्धारण भी करता चलता है। अच्छा पाठक वही
है जो लेखक के द्वारा प्रस्तुत घटना, विचार, चरित्र या मन्तव्य को समझते हुए उसका मूल्यांकन
करता चले। साथ ही उसके प्रति अपनी वैचारिक भावनात्मक प्रतिक्रिया भी करता रहे, उदाहरण
के लिए, किसी ऐसे लेख कापत समय जिसमें बच्चों को कदापि दंडित न करने की बात
कही गई हो हम अपने अनुभव के आधार पर समझते हैं कि अक्षम्य अपराध पर बच्चे को
दंडित करना आवश्यक है और इसलिए हम लेखक के मत से पूर्णतया सहमत न होकर यह
कह सकते है कि छोटी-मोटी गलती कर देने पर बच्चों को दंडित नहीं करनी चाहिए। उच्चकोटि
का अर्थग्रहण वही है जिसमें पाठक की मूल्यांकन दृष्टि तथा प्रतिक्रिया का संयोग होता है।
    कविता पढ़कर रसानुभूति, नाटक पढ़कर साधारणीकरण और निबंध पढ़कर विचारोतेजना
के मूल में हमारी भावनात्मक मानसिक प्रतिक्रिया ही होती है। इसके अभाव में आलोचनात्मक
सृजनात्मक पठन सम्भव नहीं है।
     (iv) अनुप्रयोग― अनुप्रयोग पठन-प्रक्रिया का अन्तिम सोपान है। पठन का उद्देश्य तभी
पूरा होता है जब किसी पुस्तक अथवा रचना को पढ़कर हमारे विचार, व्यवहार, कौशल,
अभिरुचि तथा जीवन मूल्यों में विकास तथा परिष्कार दिखाई दे। पठन की सार्थकता इसी
बात में है कि पाठ्य सामग्री में निहित जिस भाव, आदर्श अथवा मूल्य से हम सहमत हों
उसे आत्मसात कर अपने जीवन में उतार लें।
वस्तुतः पठन अपने में तभी सम्पूर्ण माना जाएगा जब उसके द्वारा पाठक के विचारों तथा
कार्यों में किसी प्रकार का परिवर्तन आए। जो व्यक्ति भूषण की कविता पढ़कर वीर भाव से
ओत-प्रोत न हो जाए, आचार्य शुक्ल का निबन्ध पढ़कर उसमें वर्णित गुणों को अपने में न
उतार पाए तो उसने सच्चे अर्थों में न तो भूषण की कविता पढ़ी है और न शुक्ल की
निबन्ध। किसी जानं भारं किया बिना-सत्य ही है, क्रिया के बिना प्राप्त ज्ञानं भारं रूप ही है।
      स्पष्ट है कि पठन द्वारा अपने विचार भावना और कार्य में परिवर्तन या विकास लाना
ही उसका अनुप्रयोग है।
प्रश्न 19. पढ़ने-सीखने की विभिन्न उपागमों की विवेचना कीजिए।
उत्तर―पढ़ने-सीखने के विभिन्न उपागम-पढ़ना सीखने की पहेली को सुलझाने के
कम में अलग-अलग जगहों पर विभिन्न विद्वानों ने प्रयोग और शोध किए। इनसे यह मसला
तो हल नहीं हुआ कि पढ़ना कैसे सिखाया जाए, पर यह जानना जरूर सम्भव हो सका कि
अलग-अलग विधियों के पक्ष और विपक्ष में किस तरह के तर्क है।
      पढ़ाने के दो प्रमुख पहलू होते है- प्रेरणा वाला और जानकारी वाला । प्रेरणा वाला पहलू
सीखने वाले में सुरक्षा की भावना व सीखने की प्रतिबद्धता से जुड़ा है। जानकारी का पहलू
सीखने वाले के ज्ञान व कौशल से। पठनारम्भ की तैयारी के बाद दूसरा सोपान है, पठन
का आरम्भ करना। पठनारम्भ में विद्यार्थियो में दो कौशलों का विकास करना होता है― वर्णो
के लिखित रूप को पहचानना और उनके साथ भाषा की ध्वनियों का सम्बन्ध स्थापित करना।
इसके लिए निम्नलिखित विधियाँ उपयुक्त हो सकती है―
1. वर्ण विधि―वर्ण विधि के अन्तर्गत वर्णों की सीधे पहचान कराई जाती है, यथा-अ.
आ. इ.ई.आदि स्वरों तथा क, ख, ग, घ आदि व्यंजनों के लिखित रूप की पहचान कराना
और उन्हें उनकी ध्वनियों के साथ सम्बन्धित करना। इसके लिए लकड़ी या किसी धातु के
बने हुए वर्णो की सहायता भी ली जाती है। इस विधि में वर्णमाला पर विशेष बल दिया जाता
है। वर्णमाला के बाद बारहखड़ी याद कराई जाती है। शुद्ध रूप में इस विधि का प्रयोग नहीं
किया जाता है, क्योंकि अर्थहीन होने के कारण बच्चे वर्णों को नहीं जान पाते। वर्ण विधि का
ही एक और रूप है शब्द आधारित वर्ण विधि । इस विधि द्वारा अपरिचित वर्ण को परिचित
वस्तु के चित्र तथा उसके परिचित नाम की सहायता से सिखाया जाता है, यथा―कबूतर का
चित्र, कबूतर शब्द तथा कबूतर शब्द में आया ‘क’ वर्ण सिखाना। इस विधि में वर्णों का
शिक्षण वर्णमाला के क्रम में पढ़ाने पर बल दिया जाता है। जिस कारण विद्यार्थी तब तक
वर्ण बोध ही करता रहता है, जब तक सारे वर्णों को न जान जाए। परिणामस्वरूप कई महीने
तक वर्ण विद्यार्थी के लिए अर्थहीन ही रहते हैं और वह पढ़ने में रुचि नहीं ले पाता।
2.शब्द विधि―शब्द-विधि में शब्दों पर बल होता है। शब्द के माध्यम से वर्ण सिखाए
जाते है और अधिक शब्द बनाने की क्षमता वाले वर्णों को पहले पढ़ाया जाता है और कम
क्षमता वाले वर्गों को बाद में सिखाया जाता है। इस विधि में वर्गों को वर्णमाला के क्रम से
नहीं सिखा जाता। परिचित वस्तु के परिचित नाम का प्रयोग ही वर्ण बोध के लिए किया जाता
है। उदाहरणार्थ प्रथम पाठ में वर्ण बोध के लिए ‘जल’ और ‘बस’ शब्द की सहायता से
‘जल’ और ‘बस’ शब्दों को तोड़कर ‘ज’, ‘ल’. ‘ब’ तथा ‘स’ वर्णों का बोध कराया जा
सकता है। ये वर्ण वर्णमाला के क्रम में तो नहीं होते हैं, पर इनसे अनेक शब्द बन सकते
हैं, जैसे-जब, सब, बल आदि।
      इस विधि के द्वारा विद्यार्थी पहले पाठ से ऐसे वर्णों को सीख जाता है, जिनसे शब्द
बनते है। इसके कारण विद्यार्थी को सीखने में रुचि भी होती है और उनमें विश्वास पैदा होता
है कि वह कुछ शब्दों को पहचान सकता है और पढ़ सकता है। इसके विरोध में यही कहा
जा सकता है कि इस विधि से विद्यार्थियों को वर्णमाला का ज्ञान ठीक प्रकार नहीं हो पाता
और इसका प्रयोग करने में शिक्षक और विद्यार्थी दोनों को अपेक्षाकृत अधिक परिश्रम करना
पड़ता है।
3.वाक्य विधि-यह विधि इस सिद्धान्त पर आधारित है कि वाक्य की भाषा ही अर्थपूर्ण
इकाई है, इसलिए वर्गों को सिखाने के लिए भी प्रारम्भ में वाक्य ही प्रस्तुत करना चाहिए।
उस वाक्य में इस प्रकार के मूल शब्द होने चाहिए, जिनके विश्लेषण से अपेक्षित वर्ण प्राप्त
हो सके। इसके लिए आज्ञार्थक वाक्य उपयुक्त होते है, क्योंकि वे लघुतम होते है, जैसे―अमर
आ। घर चल। छत पर चढ़। चित्रों और वाक्यों द्वारा सार्थक संदर्भ उपस्थित करके वाक्यो
के शब्दों को अलग-अलग कर एक-एक का विश्लेषण किया जाता है।
      इस पद्धति का लाभ यह है कि इसे वाक्यों और शब्दों के सार्थक संदर्भ में प्रस्तुत किया
जाता है और इस प्रकार वर्ण भी संदर्भ के अंग बन जाते हैं, परन्तु इस पद्धति में मात्राहीन
शब्दों से बने वाक्य अस्वाभाविक हो जाते है।
4. व्यावहारिक अथवा संयुक्त विधि―शिक्षण विधियाँ साधन है, साध्य नहीं । इन सभी
विधियों का उद्देश्य वर्ण बोध कराना है। प्रत्येक विधि की अपनी सीमाएँ और अपने गुण है।
व्यावहारिक दृष्टि यह है कि विद्यार्थियों की आय. रुचि, स्वभाव तथा समय और सामग्री की
सोमाओं को देखते हुए इनमें से कोई दो या दो से अधिक विधियाँ एक साथ उपयोग में लायी
जाएँ या उपयोग में आने वाली दो या दो से अधिक विधियों के सभी तत्व, एक ही समय
पर उपयोग में आएँ।
प्रश्न 20. पठन कितने प्रकार के हो सकते हैं और उनके क्या प्रयोजन है?
अथवा, सस्वर पठन, मौन पठन, गहन पठन और द्रुत पठन से आप क्या समझते
हैं? समझाइए।
उत्तर―पठन के प्रकार और प्रयोजन-पठन की क्रिया दो प्रकार से सम्पन्न होती
है―
1. सस्वर तथा 2. मौन रूप में।
पठन प्रक्रिया में शिक्षार्थी पहले सस्वर पठन ही करता है। स्वर सहित पढ़ने का अभ्यास
हो जाने के बाद ही वह धीरे-धीरे मौन पठन की ओर अग्रसर होता है। प्राथमिक स्तर के
अन्त तक शिक्षार्थी पठन के दोनों प्रकारों-सस्वर तथा मौन पठन से परिचित हो जाता है।
माध्यमिक स्तर पर इन का अधिकाधिक अभ्यास और विकास अपेक्षित होता है। अतः उचित
होगा कि हम सस्वर पठन और मौन पाठन के स्वरूप, प्रयोजन एवं प्रकिया को भली-भाँति
समझ लें।
(i) सस्वर पठन–सस्वर पठन का उद्देश्य―शुद्ध तथा स्पष्ट उच्चारण, उचित गति,
विराम चिह्नों को ध्यान में रखकर प्रवाह एवं प्रभाव के साथ पढ़ने की दक्षता का विकास करना ।
जैसे―ऐ, ओ-औ, घ-ध, ह-ट, इ-ड, स-प-श, आदि। इसी प्रकार संयुक्ताक्षरी के उच्चारण
में भी। त्रुटियों का यथासमय सुधार आवश्यक है।
      उच्चारण में शुद्धता के साथ-साथ स्पष्टता होनी भी आवश्यक है। कुछ शिक्षार्थी पढ़ते
समय किसी शब्द को बहुत जल्दी या बहुत धीमी गति से उच्चारित करते हैं। इस कारण
वह जो पढ़ रहा है उसे समझने में कठिनाई होती है। अतः उच्चारण में स्पष्टता के साथ
ही पाठक को पठन गति पर भी नियंत्रण रखना होता है। सरल और मनोरंजन विषय-वस्तु
को हम जल्दी-जल्दी भी पढ़ें तो श्रोता समझ लेगा।
       सस्वर पठन में उच्चारण की शुद्धता व स्पष्टता और उचित गति के साथ-साथ पाठ्य
सामग्री की ग्राह्यता के लिए यह भी आवश्यक है कि विराम चिह्नों की अपेक्षाओं में रखकर
पढ़ा जाए अन्यथा अर्थग्रहण में बाधा पड़ सकती है।
       सस्वर पठन में प्रवाह और प्रभाव लाने के लिए आवश्यक है कि हम पाठ्यवस्तु में निहित
भाव अथवा विचार की स्वतः अनुभूति करते रहे। विषय-वस्तु के साथ पाठक का जितना अधिक
तादात्म्य होगा, उसके पठन में उतनी ही स्वाभाविकता और प्रभाव उत्पन्न होगा। कविता पढ़ते
समय तो भावानुभूति के अभाव में प्रभाव की सृष्टि सम्भव ही नहीं।
     सस्वर में वाचन-मुद्रा तथा वाचन-शैली का विशेष महत्व है। पढ़ते समय आँख से पुस्तक
की दूरी लगभग एक फुट होनी चाहिए। सस्वर पाठ करते समय बीच-बीच में पाठक का श्रोताओं
की ओर दृष्टिपात करना भी आवश्यक है। जहाँ तक सम्भव हो पुस्तक या पठन सामग्री को
बाएँ हाथ में रखें जिससे दाएं हाथ का आवश्यकतानुसार संचालन किया जा सके। कविता
पाठ में अथवा एकांकी में पात्रानुसार संवाद पढ़ते समय तो भावानुरूप मुखमुद्रा तथा अंग संचालन
का महत्व और भी बढ़ जाता है।
(ii) मौन पठन―मौन पठन के मुख्य रूप से दो प्रयोजन हैं-पाठ्य सामग्री में निहित
विचारों को आत्मसात करना तथा पठन-गति में तीव्रता लाना। मौन पठन के द्वारा गहराई से
अर्थग्रहण करते हुए चिन्तन-मनन एवं तर्कशक्ति का विकास करते हैं। उस समय हमारा सारा
ध्यान पाठ्य-वस्तु में निहित विचार पर ही होता है। अतः हम एकाग्रचित होकर उसका विश्लेषण
करते हैं, मूल्यांकन करते हैं और उसके प्रति अपनी मानसिक प्रतिक्रिया भी करते रहते हैं।
अवकाश के क्षणों में मनोरंजक सामग्री को पढ़कर आनन्द लेने में मौन पठन बहुत सहायक
होता है उपन्यास और नाटक जैसी वृहदाकार रचनाओं को पढ़ते समय शायद ही कोई पठन
करता होगा। पुस्तकालय तथा सार्वजनिक स्थानों पर जहाँ जोर से बोलना वर्जित होता है,
मौन पठन का व्यवहारिक महत्त्व और भी बढ़ जाता है।
    सस्वर पठन में मौन पठन की अपेक्षा अधिक दृष्टि विराम होते हैं और विरामों के बीच
का समय भी अधिक होता है। सस्वर पठन में दृष्टि वाणी से आगे रहती है और मौन पठन
में दृष्टि अर्थबोध स्थल से आगे रहती है। मौन पाठ में दृष्टि विराम कम होने के कारण पठन
की गति तेज हो जाती है जबकि सस्वर पाठ में ऐसा नहीं होता । मौन पठन में उच्चारण अपेक्षित
न होने के कारण विरामों की संख्या कम हो जाती है और फलस्वरूप पठन की गति बढ़
जाती है। परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि प्रारंभिक स्तर पर जो सस्वर तथा मौन पठन दोनों
में पढ़ने की मात्रा (गति) समान होती है किन्तु धीरे-धीरे मौन पठन के अभ्यास द्वारा मौन पठन
में तेजी आ जाती है। अतः मौन पठन का अभ्यास कक्षा में नियमित रूप से होना चाहिए।
      पाठ्य पुस्तक पढ़ाते समय शिक्षक को चाहिए कि गद्यांश का पहले स्वयं सस्वर पाठ
(आदर्श पाठ) करे, फिर शिक्षार्थियों से उसका अनुकरण पाठ कराए। उच्चारण तथा भाषा
‘सम्बन्धी कठिनाई के निवारण के उपरान्त गद्यांश का मौन पाठ कराया जाए। मौन पठन के
समक्ष कक्षा में पूर्ण शान्ति होनी चाहिए। इसके उपरान्त प्रश्नोत्तर विधि से पाठ का विचार
विश्लेषण किया जाना चाहिए। कभी-कभी मौन पाठ से पूर्व ऐसे संकेत या प्रश्न दिए जा सकते
हैं जिनको ध्यान में रखकर शिक्षार्थी मौन पठन करें।
   (iii) गहन पठन―गहन पठन के द्वारा हम पाठ्य सामग्री के भाव, विचार, भाषा, शैली
तथा कलात्मक सौन्दर्य की व्याख्या करते हुए उन्हें आत्मसात करते हैं। गहन पठन द्वारा
शिक्षार्थी―
• पाठ्य-पुस्तक की भाषा में प्रयुक्त शब्द, पदबंध, वाक्यांश के विशिष्ट अर्थ तथा प्रयोग
से परिचित होता है।
• पाठ में निहित विचार या भाव का सूक्ष्म विश्लेषण करता है।
• घटनाओं के औचित्य तथा लेखक के मंतव्य को समझकर उनका मूल्यांकन करता
है।
• अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर प्रतिक्रिया करते हुए अपनी स्वतंत्र विचारधारा का
निर्माण करता है।
किसी लेखक ने ठीक ही कहा है कि ‘गहन पठन करते समय शिक्षार्थी भाषा के प्रत्येक
अंग का गहन अध्ययन करता है। विचार की एक-एक बारीकी का अवलोकन करता है, भाव
की प्रत्येक लहर में अवगाहन करता है। इसीलिए गद्य पठन को गहन अध्ययन भी कहा
जाता है। कक्षा-स्थिति में किसी कविता पाठ अथवा गद्य पाठ का गहन पठन कुछ
ऑपचारिकताओं की अपेक्षा रखता है, उदाहरण के लिए, यदि पाठ्यपुस्तक की किसी कविता
या गद्यांश को पढ़ाना है तो उसका आदर्श पाठ, अनुकरण पाठ, काठिन्य निवारण, सस्वर
या मौन पाठ, भाव या विचार विश्लेषण, काव्य सौन्दर्य अनुभूति या भाषा अध्ययन आदि कार्य
किए जाते है। इस प्रकार यदि पाठ्यपुस्तक के किसी निबंध पाठ को पढ़ाना है तो उसके विभिन्न
अंशों के आदर्श पाठ, अनुकरण पाठ, निवारण, मौन पाठ, विचार विश्लेषण, भाषा अध्ययन
आदि के द्वारा गहराई से अध्ययन की अपेक्षा की जाती है।
(iv) व्यापक पठन (दुत पठन)―व्यापक पठन को दूत पठन अथवा विस्तृत अध्ययन
भी कहते हैं। इसका प्रयोजन है-शब्दावली विस्तार, ज्ञान परिधि की वृद्धि, पठन रुचि का
विकास, मनोरंजन तथा तीव्र गति से पढ़ने की दक्षता का विकास, भाषा पर अधिकार करने
तथा जीवन और जगत के प्रति दृष्टिकोण को व्यापक बनाने के लिए व्यापक पठन का अभ्यास
आवश्यक है। इसके द्वारा हमारी मौन पठन की दक्षता बढ़ती है जिससे स्वाध्याय की प्रवृत्ति
का विकास होता है। पुस्तकालय अध्ययन में शिक्षार्थी को दक्ष बनाने के लिए व्यापक पठन
का अभ्यास आवश्यक है। इसके द्वारा हमारी मौन पठन की .दक्षता बढ़ती है जिससे स्वाध्याय
की प्रवृत्ति का विकास होता है। पुस्तकालय अध्ययन में शिक्षार्थी को दक्ष बनाने के लिए व्यापक
पठन का अभ्यास सहायक होता है।
  व्यापक पठन के अभ्यास के लिए कक्षा में औपचारिक शिक्षण की उतनी आवश्यकता
नहीं जितनी गहन पठन में। इसके लिए निर्देशित पठन का सहारा लेना उपयुक्त रहता है।
सरल कहानी, घटना-वृत्त अथवा जीवनी को पढ़ाते समय कक्षा में शिक्षक उसके महत्त्वपूर्ण
बिन्दुओं का निर्देश करे और उन्हें ध्यान में रखते हुए विद्यार्थी को दिए गए पाठों का स्वाध्याय
करने के लिए कहे।
   शिक्षक को चाहिए कि वह शिक्षार्थी द्वारा ऐसे पाठों को स्वतः पढ़ने से पहले उसमें निहित
महत्त्वपूर्ण पाठ्य बिन्दुओं का निर्देश कर दे। पाठ का व्यापक अध्ययन कर लेने के उपरांत
कक्षा में उस पाठ की सामान्य व्याख्या शिक्षार्थियों की सहायता से ही करे।
      गहन अध्यापन तथा व्यापक पठन (द्रुत पठन) में अंतर :
कुशलताओं का अधिकाधिक अभ्यास तथा योग्यताओं का संवर्धन किया जाता है।
• गहन तथा व्यापक पठन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। शिक्षार्थी की पठन-दक्षता के
विकास में दोनों की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
• एक में गहराई है तो दूसरे में विस्तार, एक में विश्लेषण की प्रधानता है तो दूसरे
में संश्लेषण की।
• एक अच्छे हिन्दी शिक्षक के रूप में हमें भाषा, भाव तथा विचार की दृष्टि से कठिन
एवं गंभीर वस्तु को समझने के लिए गहन पठन का सहारा लेना है तथा अपेक्षाकृत
सरल तथा रोचक विषय-वस्तु के अर्थग्रहण के लिए व्यापक पठन का।
प्रश्न 21. स्किपरीडिंग और स्कैनरीडिंग से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―स्किप रीडिंग― जब कोई पाठक पढ़ रहा होता है तब वह किसी वाक्य के सभी
शब्दों को नहीं पढ़ता हैवह वाक्य के एक दो शब्दों को पढ़कर पूरे वाक्य को समझ लेता
है। इस प्रकार वह पढ़ते हुए आगे बढ़ता है। इस प्रकार का रीडिंग स्कीप रीडिंग’ कहलाता
है।
    उपन्यास, नाटक एवं बड़ी कहानी आदि पढ़ते समय पाठक स्किप रीडिंग करते हैं। वह
सरसरी निगाहों से शब्दों को देखते हुए आगे बढ़ जाते हैं। स्किप रीडिंग का उद्देश्य उस
लिखित सामग्री का सामान्य अर्थ प्राप्त करना होता है।
   स्कैन रीडिंग―किसी सूचनापट, शादी-कार्ड या इसी तरह के अन्य लिखित सामग्री पर
अंकित सूचना को सरसरी निगाहों से पढ़ने की क्रिया स्कैन रीडिंग कहलाता है। इसमें सम्पूर्ण
लिखित सामग्री को न पढ़कर महत्वपूर्ण सूचनाओं पर विशेष नजर दौड़ाई जाती है।
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