B.ED | नागरिकशास्त्र शिक्षण | Pedagogy of Civics Notes
B.ED | नागरिकशास्त्र शिक्षण | Pedagogy of Civics Notes
Q. मूल्यांकन की आधुनिक अवधारण क्या है ?
(What is the modern concept of evaluation ?)
Ans. छात्रों की उपलब्धियों एवं उनके विकास के मापन के लिए अब ‘परीक्षा’ के स्थान पर ‘मूल्यांकन’ शब्द का प्रयोग होने लगा है। अब मूल्यांकन का अर्थ केवल औपचारिक रूप में सत्र में एक या दो बार परीक्षा लेकर छात्र को उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण घोषित कर देना मात्र नहीं रह गया है। अब इसका अर्थ व्यापक हो गया है। इसमें शिक्षण-उद्देश्य, शिक्षण-अधिगम परिस्थितियाँ तथा मूल्यांकन अन्त:निर्भर तथा अन्त:सम्बन्धित हो गये हैं अब मूल्यांकन शिक्षा का अभिन्न अंग बन गया है। मूल्यांकन की व्यापकता के सम्बन्ध में शिकागो विश्वविद्यालय के प्रो. ब्लूम ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने बड़े विवरणात्मक ढंग से शैक्षिक उद्देश्यों का वर्गीकरण किया और उनको व्यवहारगत परिवर्तनों में परिभाषित किया। अतः मूल्यांकन में इस बात में बल दिया जाता है कि शिक्षण-उद्देश्यों की पूर्ति विद्यालयी कार्यक्रमों की सहायता से किस सीमा तक हो पाई है। मूल्यांकन में निम्नांकित
बातों का निश्चय किया जाता है-
(अ) उद्देश्य किस सीमा तक प्राप्त हो पाया है
(ब) शिक्षण-अधिगम परिस्थितियाँ कितनी महत्त्वपूर्ण रहीं।
(स) शिक्षा के लक्ष्यों की निष्पत्ति किस प्रकार हो पा रही है ?
शिक्षा आयोग के अनुसार, “मूल्यांकन एक क्रमिक प्रक्रिया है जो सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह शैक्षिक उद्देश्यों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। यह केवल शैक्षिक उपलब्धि के मापन में ही सहायता नहीं देता वरन् उसमें सुधार भी करता है।” सामान्यतः इसका प्रयोग विद्यालय कार्यक्रम, पाठ्यक्रम, शैक्षिक सामग्री एवं बालकों की जाँच के लिए किया जाता है । मूल्यांकन में मापन (Measurement) तथा जाँच (Appraisal) दोनों निहित हैं। राइटस्टोन के अनुसार, “मूल्यांकन सापेक्षिक रूप से नवीन प्राविधिक पद (Technical term) है जिसका प्रयोग मापन की धारणा को परम्परागत जाँचों एवं परीक्षाओं की
अपेक्षा अधिक व्यापक रूप में व्यक्त करने के लिए किया गया है। मूल्यांकन में व्यक्तित्व सम्बन्धी परिवर्तन एवं शैक्षिक कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्यों पर बल दिया जाता है।
इसमें केवल पाठ्य-वस्तु की उपलब्धि (Achievement) ही निहित नहीं वरन् वृत्तियों, रुचियों, आदर्श, सीखने के ढंग, कार्य करने की आदतें तथा वैयक्तिक एवं सामाजिक अनुकूलता भी निहित है।” मूल्यांकन के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ नीचे दी जा रही हैं-
वेस्ले “मूल्यांकन एक समावेशित धारणा है जो इच्छित परिणामों के गुण, महत्त्व तथा प्रभावशीलता का निर्णय करने के लिए समस्त प्रकार के प्रयासों एवं साधनों की ओर संकेत करता है । यह वस्तुगत प्रमाण तथा आत्मगत निरीक्षण का मिश्रण है। यह सम्पूर्ण एवं अन्तिम अनुमान है। यह नीतियों के रूप परिवर्तनों एवं भावी कार्यक्रम के लिए महत्त्वपूर्ण आवश्यक पथ-प्रदर्शन है।”
जेम्स एम. ली-“मूल्यांकन, विद्यालय, कक्षा तथा स्वयं द्वारा निर्धारित शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के सम्बन्ध में छात्रों की प्रगति की जाँच है। मूल्यांकन का मुख्य प्रयोजन छात्रों की सीखने की प्रक्रिया को अग्रसर एवं निर्देशित करना है। इस प्रकार मूल्यांकन एक नकारात्मक प्रक्रिया न होकर सकारात्मक प्रक्रिया है।”
मुफात-“मूल्यांकन निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है और यह छात्रों की औपचारिक शैक्षिक उपलब्धि से अधिक है। यह व्यक्ति के विकास में अधिक रुचि रखता है। यह व्यक्ति के विकास को उसकी भावनाओं, विचारों तथा क्रियाओं से सम्बन्धित वांछित व्यवहार परिवर्तन के रूप में व्यक्त करता है।”
माइकेलिस-“मूल्यांकन उद्देश्य की प्राप्ति की सीमा का निर्धारण करने वाली प्रक्रिया है। इसमें निर्देश के परिणामों को जाँचने के लिए शिक्षक बालकों, प्रधानाचार्य तथा विद्यालय के अन्य कर्मचारियों द्वारा प्रयोग की जाने वाली सब प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं।” उपर्युक्त विवेचन एवं परिभाषाओं को देखने से मूल्यांकन की अनलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-
1. मूल्यांकन एक अनवरत प्रक्रिया है जो निरन्तर चलती रहती है।
2. मूल्यांकन शिक्षा का एक अभिन्न अंग है।
3. मूल्यांकन उद्देश्य केन्द्रित है।
4. मूल्यांकन परीक्षण का एक व्यापक पद है जिसमें मापन तथा जाँच (Appraisal) दोनों समाहित हैं। मापन द्वारा छात्रों की ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक उपलब्धि की मात्रा अथवा स्तर को संख्या या अंकों में निर्धारित किया जाता है। जाँच द्वारा भावात्मक पक्ष का गुणात्मक मूल्य-निर्धारण किया जाता है । इस प्रकार मूल्यांकन में मापन तथा मूल्य-निर्धारण दोनों निहित है। मूल्य-निर्धारण के लिए चैकलिस्ट, रेटिंग स्केल, घटना-वृत्त प्रथम, निरीक्षण, साक्षात्कार आदि प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है।
5. मूल्यांकन विश्लेषणात्मक तथा संश्लेषणात्मक प्रक्रिया है।
6. मूल्यांकन निदानात्मक तथा उपचारात्मक दोनों है।
7. मूल्यांकन छात्र के सम्पूर्ण व्यक्तित्व से सम्बन्धित है।
8. मूल्यांकन में छात्रों के व्यवहार के विषय में सामग्री एकत्रित करने के समस्त साधन निहित रहते हैं।
9. मूल्यांकन केवल निर्देश (Instruction) की उपलब्धि को ही नहीं जाँचता वरन् उसमें सुधार भी लाता है।
10. मूल्यांकन सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण अंग है जो शिक्षा के उद्देश्यों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है।
मूल्यांकन व मापन में अन्तर
(Difference Between Evaluation and Measurement)
साधारणतः लोग मूल्यांकन तथा मापन—दोनों को एक ही मानते हैं। परन्तु ऐसा करना उनकी भूल है, क्योंकि मापन मूल्यांकन का एक अंग है, जो प्रतिशत, मात्रा, अंकों आदि में व्यक्त किया जाता है। वस्तुतः वह निश्चित एवं वस्तुगत होता है। इसकी पुष्टि ई. बी. वैस्ले के इस कथन द्वारा की जा सकती है-“मापन मूल्यांकन का वह भाग है जो प्रतिशत, मात्रा, अंकों, मध्यमान तथा औसत आदि द्वारा व्यक्त किया जाता है।”
मूल्यांकन तथा मापन के अन्तर को स्पष्ट करते हुए राइटस्टोन ने लिखा है—’मापन में पाठ्य-वस्तु या विशेष कुशलताओं और योग्यताओं की उपलब्धि के एकांकी पक्षों पर बल दिया जाता है, जबकि मूल्यांकन में व्यक्तित्व सम्बन्धी परिवर्तनों एवं शैक्षिक कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्यों पर बल दिया जाता है।”
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि मापन छात्र की प्रगति को आँकने का एक साधन है, जिसके द्वारा उसकी प्रगति को अंकों में व्यक्त किया जाता है। परन्तु मूल्यांकन में मापन तथा जाँच दोनों का समावेश है। बालक की रुचियों, अभिवृत्तियों, समझदारियों अर्थात् उसकी आत्मनिष्ठ या व्यक्तिगत विशेषताओं को जानने या आँकने के लिए ‘जाँच’ शब्द का प्रयोग किया जाता है । जाँच के लिए अधिकतर निरीक्षण, व्याख्या, व्यक्तिगत सम्पतियों आदि पर निर्भर रहना पड़ता है।
मूल्यांकन के उद्देश्य
( (Aims of Evaluation)
1. निर्देश में सुधार करने के लिए अग्रसर करना।
2. शिक्षा के उद्देश्यों को स्पष्ट करना ।
3. उत्तम ढंग से सीखने के लिए प्रोत्साहन देना।
4. निर्देशन (Guidance) के लिए अवसर प्रदान करना ।
5. पाठ्यक्रम में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने के लिए अग्रसर करना ।
6. बालकों के वर्गीकरण तथा उन्नति के लिए आवश्यक ज्ञान प्रदान करना।
7. शिक्षकों, शिक्षण-विधियों, पाठ्य-वस्तु, पुस्तकों आदि की उपयुक्तता की जाँच करना ।
8. बालक के व्यवहार सम्बन्धी परिवर्तनों की जाँच करना ।
9. बालक की कठिनाइयों, कमियों एवं गुणों को जानने में सहायता देना।
10. बालक के सर्वांगीण विकास को गतिशील बनाये रखने में सहायता देना।
मूल्यांकन की कार्य-प्रणाली
(Evaluation Procedure)
मूल्यांकन के उचित मानदण्डों का निर्धारण करना परमावश्यक है, क्योंकि इनके अभाव में मूल्यांकन असम्भव है। मानदण्डों के निर्धारण के उपरान्त अधोलिखित सोपानों का अनुकरण किया जाना चाहिए-
1. शैक्षिक उद्देश्य का चयन (Selection of the Educational Objective)-शक्षा के सामान्य उद्देश्यों के निर्धारण के पश्चात् विषय-वस्तु से सम्बन्धित उस उद्देश्य का चयन करना चाहिए, जिसका मूल्यांकन करना है।
2. उद्देश्य का स्पष्टीकरण (Clarification of the Objective)–चयन किए हुए उद्देश्य की विस्तृत व्याख्या की जानी चाहिए। यह व्याख्या विशेषतः बालक के व्यावहारिक परिवर्तन के रूप में की जानी चाहिए। उसके साथ ही ये परिवर्तन निर्धारित पाठ्य-वस्तु से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित किये जाने चाहिए । इन तथ्यों को निम्नलिखित पंक्तियों में उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया
जा रहा है—
शैक्षिक उद्देश्य- बालक में नागरिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास करना।
व्यावहारिक परिवर्तन-
1. वह समाज में निहित असमानता को समझेगा ।
2. वह समाज में फैली हुई बुराइयों को दूर करने का प्रयास करेगा।
3. वह दूसरे के विचारों को समझकर उनका सम्मान करेगा।
4. वह दूसरों के साथ मिलकर कार्य करेगा।
5. वह अपने कर्तव्यों का निर्वाह करेगा।
6. वह कानूनों का पालन करेगा।
7. वह अपनी कठिनाइयों को वैधानिक ढंग से प्रस्तुत करेगा।
8. वह अपने देश के लिए गर्व का अनुभव करेगा ।
9. वह राष्ट्रीय सम्पत्ति की रक्षा करेगा।
10. वह राष्ट्रीय सम्पत्ति को नष्ट नहीं करेगा ।
पाठ्य-वस्तु–सामुदायिक जीवन एवं सामुदायिक विकास योजनाएँ-
उद्देश्य इस पाठ्य-वस्तु से सम्बन्धित निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं, जिनका
मूल्यांकन करना है—(अ) ज्ञान-उद्देश्य (Knowledge Objective) बालक ग्रामीण एवं शहरी समुदायों के संगठन, राष्ट्रीय विस्तार-सेवा क्षेत्रों के संगठन, विभिन्न विकास-खण्डों एवं उनके अधिकारियों तथा उनके कार्यों आदि के विषय में ज्ञान प्राप्त करेगा।
(ब) कौशल-उद्देश्य (Skill objective)- बालकों में साक्षात्कार करने, आँकड़े या सामग्री एकत्रित करने, ग्राफ एवं तालिकाओं को पढ़ने आदि से सम्बन्धित कुशलताएँ विकसित होंगी।
(स) अभिवृत्ति-उद्देश्य (Attitude Objective)–बालक श्रम के महत्त्व को स्वीकार करेंगे। समुदाय की अर्थव्यवस्था को नियोजित ढंग से परिवर्तित करने की आवश्यकता का अनुभव करेंगे।
(द) रुचि-उद्देश्य (Interest Objective)–बालक अपने विद्यालय तथा समाज में सुधार के लिए योजना के संगठन में रुचि लेंगे।
3. परिस्थितियों की पहचान (Identification of Situations) परिस्थितियों की पहचान किसी उद्देश्य से सम्बन्धित व्यवहार की उपस्थिति या अनुपस्थिति के स बन्ध में प्रमाण या सामग्री प्रदान करती है । बालकों को ऐसी परिस्थिति में रखा जाना चाहिए, जिससे वे वांछित व्यवहार की अभिव्यक्ति कर सकें। दूसरे शब्दों में, परिस्थितियों ऐसी होनी चाहिए जो व्यवहार की अभिव्यक्ति
में सहायक हो, जिससे शिक्षक उसकी उपस्थिति या अनुपस्थिति का ज्ञान प्राप्त कर सके।
4. परीक्षणों या अन्य प्रविधियों की परीक्षा एवं चयन (Examination and Selection of Tests or Other Techniques) -उन परीक्षणों या प्रविधियाँ का चयन किया जाना चाहिए, जो वांछित व्यवहारों के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में प्रमाण प्रदान करें। यदि बने-बनाये परीक्षण उपलब्ध हों, तो प्रमाण या आवश्यक सामग्री को एकत्रित करने के लिए नवीन प्रविधियों की खोज करनी चाहिए।
5. मूल्यांकन की प्रविधियों की रचना (Construction of the Evaluation Techniques) -बालक में हुए व्यावहारिक परिवर्तनों को जानने के लिए यदि मूल्यांकन की प्रविधियों की रचना करनी पड़े तो रचना करते समय शिक्षक को स्वयं से अग्र प्रश्न पूछने चाहिए-
(अ) इस प्रविधि द्वारा शैक्षिक उद्देश्यों के रूप में वह किस बात का मूल्यांकन करता चाहता है?
(ब) क्या यह प्रविधि वस्तुत: वांछित व्यवहार के विषय में प्रमाण प्रदान कर सकती है?
(स) क्या दो भिन्न व्यक्ति इस प्रविधि के प्रयोग से एक ही निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं ?
(द) क्या इस प्रविधि को सरलता से प्रयोग में लाया जा सकता है?
6. प्रविधि का प्रयोग एवं प्रमाणों का लेखा (Application of the Techniques and Recording of the Evidences)-जब किसी मूल्यांकन प्रविधि का किसी परीक्षण परिस्थिति में बालक पर प्रयोग किया जाए, तो उसके व्यवहार के विषय में लेखा तैयार करना परमावश्यक है। लिखित परीक्षणों में तो बालक स्वयं अपने उत्तरों द्वारा स्वयं लेखा प्रस्तुत करता है। परन्तु जब निरीक्षण, साक्षत्कार जैसी प्रविधियों का प्रयोग किया जाए, तब शिक्षक को बालकों की समस्त प्रतिक्रियाओं को लेखबद्ध करना चाहिए।
7. लेखबद्ध प्रमाणों की व्याख्या (Interpretation of the Recorded Evidences)- जब बालक के व्यवहारों के विषय में प्रमाण लेखबद्ध कर लिए जाएँ तब इनका सफलतापूर्वक विश्लेषण किया जाए और यह निर्णय लिया जाए कि बालकों में पाये गये परिवर्तन किस सीमा तक उत्तम हैं। परन्तु यह जाँच-ठद्देश्य को ध्यान में रखकर ही की जाए।