F-6

शिक्षा में जेण्डर एवं समावेशी परिप्रेक्ष्य

शिक्षा में जेण्डर एवं समावेशी परिप्रेक्ष्य

F―6                                     दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. समावेशी शिक्षा से आपका क्या अभिप्राय है ? समावेशी शिक्षा की प्रमुख
विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर― समावेशी शिक्षा का आशय वैसी शैक्षिक व्यवस्था से है जहाँ सभी तरह के बच्चों
को साथ-साथ पढ़ने का समान अवसर मिल सके । यहाँ विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को
बदलने के लिए नहीं कहा जाता बल्कि विद्यालय के सम्पूर्ण परिवेश में उनको आवश्यकता
के अनुसार अपेक्षित बदलाव किए जाते हैं। समावेशी शिक्षा का व्यापक लक्ष्य यह है कि
सामान्य बच्चों और विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों में कोई भेदभाव नहीं रहे तथा दोनों विद्यार्थी
एक-दूसरे को ठोक ढंग से समझते हुए आपसी सहयोग से पठन-पाठन के कार्य को कर
सके । समावेशी शिक्षा का व्यापक लक्ष्य यह भी प्रतीत होता है कि एक साथ शिक्षित होने
पर भविष्य में समाज के अन्दर विशिष्ट आवश्यकता वाले व्यक्तियों को आमलोग बेहतर ढंग
से समझ सके तथा उनमें उनके प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता का विकास हो सकें।
    समावेशी शिक्षा की आवश्यकता सबसे अधिक बच्चों के व्यक्तिगत विकास तथा उनमें
अपनी क्षमताओं के बारे में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए है। समावेशी शिक्षा बच्चों के
व्यक्तिगत गुणों को पहचान कर उन्हें इन गुणों को पूरी तरह से विकसित करने के अवसर
देने में विश्वास रखती है। समावेशी शिक्षा बच्चों को एक दूसरे की भिन्न विशेषताओं को
समझने तथा उनकी सराहना करने में सहायक होती है। इससे बच्चे एक-दूसरे की सहायता
करने के प्रति प्रोत्साहित होते हैं। साथ ही, सामान्य बच्चों को भी विशेष आवश्यकता वाले
बच्चों के साथ समायोजित होने के अवसर मिलते हैं जिनमें उनमें ऐसे बच्चों के बारे में निःशक्ता
जैसे भ्रम पैदा नहीं हो पाते हैं। समावेशी शिक्षा निःशक्त बच्चों के परिवारों के लोगों को
शिक्षित करने व संवेदनशील बनाने में भी सहायक हैं।
        समावेशी शिक्षा की परिभाषाएँ―Stainback and Stainback का विचार है कि
“समावेशित विद्यालय अथवा पर्यावरण से अभिप्राय ऐसे स्थान से है जिसका प्रत्येक व्यक्ति
अपने को सदस्य मानता है, जिसका अपना समझा जाता है, जो अपने साथियों और विद्यालय
कुटुम्ब के प्रत्येक सदस्य की सहायता करता है और अपनी शिक्षा प्राप्ति सम्बन्धी आवश्यकताओं
की पूर्ति हेतु उनमें सहायता प्राप्त करता है।”
      M.Manivannan के शब्दों में, “समावेशी शिक्षा उस नीति तथा प्रक्रिया का परिपालन
है जो सब बच्चों को सभी कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए अनुमति देती है । नीति से तात्पर्य
है कि अपंग बालकों को बिना किसी अवरोध के सामान्य बालकों के सभी शैक्षिक कार्यक्रमों
में भाग लेने के लिए स्वीकृति प्रदान कर समावेशी प्रक्रिया से अभिप्राय पद्धति के उन साधनों
से है जो इस प्रक्रिया को सबके लिए सुखद बनाएँ । समावेशी शिक्षा क्षति युक्त बालकों के
लिए समान्य शिक्षा के अभिन्न अंग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह सामान्य शिक्षा के भीतर
अलग में कोई प्रणाली नहीं है।”
       Uppal and Dey के अनुसार, “सामान्य बच्चों और विशिष्ट बालकों की शैक्षिक
आवश्यकताओं के संक्रमण और मेल को समावेशी शिक्षा के नाम से अभिहित किया गया
है ताकि सभी बच्चों के लिए सामान्य विद्यालयों में शिक्षा देने हेतु एक ही पाठ्यक्रम हो।
यह एक लचीली तथा व्यक्तिगत रूप से विशिष्ट बच्चों और नवयुवकों की शैक्षिक
आवश्यकताओं की पर्ति के लिए सहायक प्रणाली है। यह समग्र शिक्षा प्रणाली का एक अभिन्न
घटक है जो सामान्य स्कूलों में सबसे लिए उपयुक्त शिक्षा के रूप में प्रदान किया जाता है।”
unesco के अनुसार, “समावेशी शिक्षा के लिए अति संवेदनशील तथा सीमान्त स्थित
सभी अधिगमकर्त्ताओं की शिक्षा के अवरोधों को हटाने से सम्बन्धित है। यह एक प्रतिमानित
उपागम है जिसे सभी वालकों की शिक्षा में सफलता के लिए निर्मित किया गया है, इसका
सामान्य उद्देश्य व्यक्ति के शिक्षा के अधिकार के सभी को कम करना तथा निराकरण करना
है―कम-से-कम प्राथमिक स्तर शिक्षा से तथा इस प्रकार सभी के लिए गुणात्मक शिक्षा तक
पहुँच, भागीदारी तथा सीखने में सफलता को सम्भव बनाना है।”
     समावेशी शिक्षा की विशेषताएँ–समावेशी शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित
है―
1. समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत बाधित (शारीरिक रूप से विकलांग) बच्चों एवं सामान्य
बच्चों हेतु सभी स्कूलों में सभी के लिए शिक्षा के प्रावधान किए गए हैं। यहाँ किसी भी
विशिष्ट अथवा अपंग विद्यार्थी की शिक्षा ग्रहण करने हेतु पास-पड़ोस के सामान्य शिक्षा देनेवाले
विद्यालय के कक्षा-कक्ष में प्राथमिक व्यवस्था की जाएगी, बशर्ते कि उसे ऐसी अपंगता न
हो कि वह स्कूल तक न जा सके।
2. यहाँ विशिष्ट और अपंग बच्चों की अपनी ही आयु के सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा
प्राप्त करने का अच्छा अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार इस शिक्षा पद्धति में सभी प्रकार
के बालक शामिल किए जाते हैं जो अपने स्थानीय विद्यालयों की सामान्य कक्षाओं में बिना
किसी अपंगता या विशिष्टता का भाव लिए हुए शिक्षा ग्रहण करते हैं।
3. समावेशित, पर्यावरण में विशिष्ट, अपंग और सामान्य बालक मिलजुल कर नये शैक्षिक
अनुभव प्राप्त करने में साझेदारी करते हैं जबकि व्यक्तिगत रूप से आवश्यक अधिगम युक्तियों
का सहारा लेकर अपने उपयुक्त शैक्षिक उद्देश्य प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहते हैं। इस
प्रकार, समावेश सब बच्चों के लिए लाभकारी सिद्ध होती है
4. समावेशी शिक्षा पद्धति बच्चों की शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक, सामाजिक एवं
सांस्कृतिक आदि अनेक विभिन्नताओं की पहचान करती है। उन्हें अंगीकृत कर तदनुसार जरूरतों
को ध्यान में रखते हुए संज्ञात्मक, संवेगात्मक तथा सृजनात्मक विकास के अवसर उपलब्ध
कराती है।
5. समावेशी शिक्षा, शिक्षा के मौलिक अधिकारों को सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक रूप
से स्वीकृत करती है इस शिक्षा पद्धति में इस अधिकार की भावना सर्वाधिक विद्यमान है।
इस शिक्षा पद्धति में यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी विद्यालय द्वारा किसी भी निम्न
शारीरिक, मानसिक तथा आर्थिक स्तर के बच्चे को प्रवेश लेने के अधिकार से वंचित नहीं
रखा जा सकता है।
6. यह शिक्षा बच्चों की जरूरतों, अधिगम के तरीके एवं गुणों की विविधता की बहुलता
को मद्देनजर रखते हुए शिक्षक के कौशल तथा क्षमता में वृद्धि करने हेतु शिक्षक-शिक्षण एक
अत्यन्त अन्योन्याश्रित, निरन्तर तथा सहयोगी प्रक्रिया है।
7. समावेशी शिक्षा पद्धति की एक अन्य विशेषता प्राथमिक बनाने हेतु नेतृत्व व संसाधनों
का प्रावधान किया जाना भी है। समावेशी शिक्षा की इस विशेषता के कारण ही बहुत से
विद्यार्थियों की व्यक्तिगत जरूरतों एवं परिवेश की विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखा जा
सकता है।
8. इस शिक्षा व्यवस्था में अपंग और विशिष्ट बच्चों को अपंगताहीन बच्चों की टोलियों
के साथ मित्रता करने में सहायता प्रदान करता है। समाज, स्कूल के कार्यकर्ताओं तथा सामान्य
बच्चों के दिमाग से अपंगता के प्रतिरुद्धिबद्ध धारणा दूर करने में सहायक होता है। यह विशिष्ट
तथा अपंग बच्चों में सामाजिक कुशलता विकसित करता है ताकि वे परिचितों, मित्रों तथा
कुटुम्ब के सदस्यों के साथ खुले दिमाग और दिल से नि:संकोच मिल सकें और व्यवहार
कर सके।
9. समावेशी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य क्षतियुक्त बच्चों को जहाँ तक सम्भव हो सके
स्वतंत्रतापूर्वक तथा अपने मन से अभावों की भावना मिटा कर एवं अपने को अपंग तथा अन्य
सामान्य बच्चों से अलग न समझ कर अच्छी प्रकार से जीवन जीने की और अपने जीवन
में समायोजित करने की कला सिखाना है।
10. यह शिक्षा विशिष्ट तथा अपंग बच्चों को सामान्य बच्चों के समान प्रतिभागी बनाकर
शिक्षण की मुख्यधारा में समन्वित करती है। यह बच्चों को आत्मविश्वासी तथा आत्मनिर्भर
बनाती है। इसके अतिरिक्त यह उन्हें समाज और राष्ट्र की उन्नति में सहयोगी बनाती है।
11. समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत स्कूल विद्यार्थियों की जरूरतों के मुताबिक ही अभियोजन
करता है। इस शिक्षा पद्धति में सामान्य शिक्षण पद्धति की भाँति बच्चों को स्कूल के साथ
अभियोजन नहीं करना पड़ता।
प्रश्न 2. समावेशी शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्त्व पर प्रकाश डालें।
उत्तर― समावेशित शिक्षा शारीरिक और मानसिक रूप से क्षतिग्रस्त बच्चों को सामान्य
बालकों के साथ सामान्य कक्षा में शिक्षा ग्रहण करने पर जोर देती है और विशिष्ठ बालकों
की विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनुमोदन करती है। विशेष आवश्यकता वाले
बच्चों को विशिष्ट या अपंग नहीं कहा जाना चाहिए और उनकी जरूरत एवं आवश्यकता
को ध्यान में रखकर मदद की जाती है। इस प्रकार, समावेशित शिक्षा में मुख्य धारा तथा
एकीकरण का सहारा लेकर सभी बालकों को एक साथ शिक्षित करने के उद्देश्य पर बल
दिया जाता है। इस तरह से विशेष आवश्यकता वाले बच्चों एवं सामान्य बच्चों में किसी
प्रकार का विभेद नहीं किया जाता है। सामवेशी शिक्षा का महत्त्व एवं आवश्यकता निम्नलिखित
कारणों से है―
1. सामान्य विद्यालयों में विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को प्राकृतिक वातावरण
प्राप्त होता है। जब विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थी सामान्य बच्चों के साथ साधारण विद्यालयों
में शिक्षा प्राप्त करें तो उनमें इस भावना का विकास नहीं होता कि वे किसी भी प्रकार से
सामान्य बालकों से कम है। सामान्य बालक भी उनको अपना साथी समझने लग जाते है
तथा विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थी अपने आपको सहजता से उनके साथ समायोजित कर
लेते है।
2. भारतीय संविधान में प्रत्येक बालक को बिना किसी भेदभाव के एक समान शिक्षा
देने की बात की गई है। हम शिक्षा प्रदान करने के लिए किसी प्रकार का भेदभाव नहीं कर
सकते । इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को समावेशी
शिक्षा देना अत्यावश्यक है।
3. शिक्षा का उद्देश्य बालकों को केवल शिक्षित करना नहीं है बल्कि उनका पूर्ण विकास
करना है। सामान्य विद्यालयों में विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को शिक्षा देने में उनमें
सामाजिक गुणों का भी विकास होता है क्योंकि विद्यालय में समाज के सभी वर्गों के बालक
पढ़ने के लिए आते हैं। उनके साथ मिलकर विशेष आवश्यकतावाले विद्यार्थियों में समाजीकरण
की भावना का विकास होता है। इस प्रकार से विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों में भी
प्यार, दयालुता, समायोजन, सहायता, भाई-चारा आदि सामाजिक गुणों का विकास होता है।
4. विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को विशिष्ट शिक्षा अलग विद्यालयों में निपुण
व प्रशिक्षित अध्यापकों की देखरेख में प्रदान की जाती है। लेकिन, विशेष आवश्यकता वाले
विद्यार्थियों में इस बात को लेकर मानसिक हीनता विकसित हो जाती है कि हमें सामान्य
विद्यार्थियों के साथ क्यों नहीं पढ़ाया जा रहा है जबकि हम भी उन जैसे ही हैं। इसका उनपर
नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वह उतना ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते जितना कि उनको करना
चाहिए। लेकिन, समावेशी शिक्षा में विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को सामान्य विद्यालय
में सामान्य बालकों के साथ शिक्षा प्रदान की जाती है । साधारण बालकों की तरह शिक्षा प्राप्त
करने से उनमें हीनभावना का विकास नहीं होता बल्कि आत्म-सम्मान की भावना का विकास
होता है।
5. भारत एक विकासशील देश है तथा विकास के लिए अधिक धन का आवश्यकता
होती है। विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों के लिए सभी प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों का
प्रबन्ध करने के लिए अधिक पैसे की आवश्यकता होती है। इसके लिए विशेष रूप से प्रशिक्षण
प्राप्त अध्यापक, मनोवैज्ञानिक तथा चिकित्सक आदि की जरूरत होती है जबकि सामान्य
विद्यालयों में इस प्रकार की काफी सुविधाएँ पहले से ही उपलब्ध होती हैं। विशिष्ट बालकों
को सामान्य विद्यालयों में पढ़ाना कम खर्चीला होता है। इस दृष्टि से समावेशी शिक्षा अधिक
सस्ती है।
6. जब विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थी को सामान्य विद्यालय में भेजा जाता है तो
वह शैक्षिक तौर पर अपने आपको विद्यालय में समायोजित कर लेता है तथा उसके मन में
यह विचार नहीं आता है वह दूसरे बालकों की अपेक्षा किसी भी क्षेत्र में कम है। अध्यापक
तथा दूसरे कर्मचारियों का सहयोग व व्यवहार भी उसको अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान कारता
है तथा बालक शैक्षिक दृष्टि से उन्नति करता है।
7. किसी भी देश में विशेष स्कूल कम स्थापित हो पाते है जिनमें हर प्रकार के विशेष
आवश्यकता वाले बच्चों को प्रवेश दिया जा सके। इसके अतिरिक्त ये विद्यालय इन विशेष
आवश्यकता वाले बच्चों को समाज की मुख्यधारा में समन्वित करने में असमर्थ सिद्ध होते
हैं। अतः सभी शिक्षाविदों की यह राय है कि ‘सभी को शिक्षा प्राप्त करने का सिद्धान्त’
समावेशित शिक्षा द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। यही बात सारे संसार के देशों पर दृष्टिपात
करके UNESCO ने कही है।
8. विद्यालय के शैक्षिक, शारीरिक, सामाजिक, भावनात्मक तथा व्यावसायिक कार्यक्रमों
द्वारा उपयुक्त अवसर प्रदान करके समावेशित शिक्षा विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के सर्वांगीण
विकास पर बल देती है।
समावेशित शिक्षा की प्रकृति तथा लक्षणों के दृष्टिगत यह कहा जा सकता है कि यह
ऐसी शिक्षा है जो प्रत्येक बच्चे को उच्चतम सीमा तक विद्यालय और कक्षा में जहाँ तक
पढ़ना चाहे उपलब्ध कराई जाए। यह बच्चे की ओर उन्मुख और अग्रसर होती है। इसका
विश्वास है कि एकीकरण तथा मुख्यधारा के द्वारा विशेष आवश्यकता वाले बच्चे अलगाव
वाले पर्यावरण की अपेक्षा सर्वांगीण उन्नति कर समाज में समायोजन आसानी से कर सकते
हैं।
प्रश्न 3. विशिष्ट बालकों के प्रकार बताएँ।
अथवा, विशिष्ट श्रेणी में आने वाले बालक कौन-कौन से होते हैं ?
उत्तर–प्रत्येक विद्यालय में कुछ ऐसे विद्यार्थी होते हैं जो अन्य विद्यार्थियों से भिन्न या
विशिष्ट होते हैं। यह भिन्नता या विशिष्टता शारीरिक या मानसिक प्रकार की हो सकती है।
कुछ बालक पिछड़े हुए होते हैं तो कुछ बालक सामान्य से आगे भी हो सकते हैं। कुछ
बालक मेधावी होते हैं तथा कुछ सामान्य से कम बुद्धि वाले हो सकते हैं । जो बालक सामान्य
से अलग विशेषता रखता है वह विशिष्ट बालक कहलाता है। हम विशिष्ट बालकों का वर्गीकरण
इस प्रकार से कर सकते हैं―
(I) शारीरिक दृष्टि से, (II) बौद्धिक दृष्टि से, (III) सामाजिक दृष्टि से
(I) शारीरिक दृष्टि से विशिष्ट बालक―शारीरिक दृष्टि से विशिष्ट बालकों को
मुख्यतः चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है―
1. पूर्णतः या आंशिक रूप से अन्धे―अन्धेपन को एक अभिशाप माना गया है। मानव
देखकर काफी हद तक ज्ञान प्राप्त करता है। कछ बालक जन्म से अन्धे होते हैं तथा कुछ
जन्म के पश्चात् चोट, दुर्घटना, गलत दवाई के प्रयोग आदि के कारण अन्धे हो जाते हैं।
इनके लिए सारा संसार अन्धकारमय हो जाता है।
    सामान्य बालक किसी वस्तु को 200 फीट की दूरी से देख सकता है लेकिन दृष्टि बाधित
बालक उसे केवल 20 फीट की दूरी से ही देख सकता हैं । आंशिक रूप से प्रभावित बालक
मोट अर्थात् बड़े छापे की पुस्तकें पढ़ने में समर्थ होते हैं। इनकी देखने की क्षमता 2/20
तक होती है। यह चश्मा लगा कर अपना कार्य कर सकते है। दृष्टि बाधित बालकों की
दृष्टि को स्नेलन चार्ट के द्वारा मापा जाता है। जो बालक गंभीर रूप से दृष्टि बाधित होते
हैं उन्हें चश्मा लगाकर ठीक नहीं किया जा सकता। वे प्रायः अन्धेपन से प्रभावित रहते हैं
तथा कुछ भी देख पाने में असमर्थ होते हैं। उन बालकों को सामान्य बालकों के साथ नहीं
पढाया जा सकता है । उनको काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। उनको ब्रेल लिपि
या बोलने वाली किताब से पढ़ाया जा सकता है। आंशिक रूप से अन्धे बालकों को मोटे
प्रिन्ट की किताबों द्वारा आसानी से पढ़ाया जा सकता है।
2. वाणी दोष―स्कूलों में इस प्रकार के बालकों की संख्या काफी होती हैं जो अपने
विचारों को दूसरों के समाने स्पष्ट रूप से नहीं रख पाते हैं। इसका अभिप्रायः यह है कि
उनके बोलने के ढंग से कुछ कमी हैं। ऐसे बालक रुक-रुककर बोलते हैं अथवा दो या
तीन शब्दों के बीच बोलने में सामान्य से अधिक समय लेते हैं। कई बार वे बोलते-बोलते
चुप हो जाते हैं अर्थात् अटक जाते हैं। ऐसे बालकों की समस्या का समाधान करना आवश्यक
होता है। मुख्य वाणी दोष इस प्रकार हैं :
(i) उच्चारण दोष
(ii) वाणी का प्रवाह
(iii) हकलाना
(iv) आवाज की समस्या
(v) अंगीय वाणी दोष
काफी बालकों में वाणी दोष पाया जाता है, प्रायः 100 बालकों के पीछे तीन बालक
वाणी दोषों से ग्रस्त होते हैं।
3. श्रवण बाधित—जो बालक दूसरे की आवाज को सही ढंग से नहीं सुन पाते उन्हें
श्रवण बाधित बालक कहा जाता है। कुछ ऐसे बालक होते हैं जिनको ऊंचा सुनाई देता है
या वे किसी श्रवण यंत्र की सहायता से सुन सकते हैं। यह श्रवण बाधिता जन्म से या जन्म
के पश्चात् चोट, दुर्घटना, बीमारी आदि के कारण हो सकती है। इनको जीवन में काफी
कठिनाई का सामना करना पड़ता है। जो बालक बिल्कुल नहीं सुन सकते उनको बहरा कहा
जाता है लेकिन कुछ बालक ऊँची आवाज को श्रवण यंत्र की सहायता के बिना सुन लेते
हैं वे बालक वहरे वालकों की श्रेणी में नहीं आते हैं।
पूर्ण रूप से श्रवण बाधित बालकों को विशेष प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता होती
है तथा इनके लिए विशेषत अध्यापक को नियुक्त करना पड़ता है। आंशिक
रूप से बहरे बालकों को श्रवण यंत्र का प्रयोग करके सामान्य बालकों के साथ आसानी से
पढ़ाया जा सकता है।
4. शारीरिक दोष― विद्यालयों में जानेवाले वालकों में काफी संख्या ऐसे बालकों की
होती है जो स्वयं विद्यालय महाविद्यालय जाने में उनको बाहरी सहायता की
आवश्यकता पड़ती है।
शारीरिक दोषों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं :
A. अपंगता, B. विशेष अपंगता ।
A. अपंगता―इस प्रकार की अपंगता वाले बालकों को हम दो श्रेणियों में बाँट सकते हैं―
(i) कम अपंगता―इस श्रेणी में वे बालक आते हैं जिनको अपनी अपंगता के कारण
किसी बाहरी सहारे की आवश्यकता नहीं पड़ती तथा उनकी दिनचर्या भी अपंगता
के कारण प्रभावित नहीं होती।
(ii) गंभीर अपंगता―गंभीर अपंगता से प्रभावित बालक को अपने आने-जाने के लिए
किसी बाहरी सहायता की आवश्यकता पड़ती है तथा उसकी दिनचर्या में इससे
व्यवधान पड़ता है।
B. विशेष अपंगता–विशेष अपंगता निम्न प्रकार की हो सकती है―
(i) बीमारी
(ii) जुड़े पैर
(iii) माँसपेशियाँ ढाँचा समस्या
(iv) बीमारी या दुर्घटना के कारण अपंगता
(v) अंग भंग
(vi) दिमागी अपंगता
(vii) मस्तिष्क लकवा
(II) बौद्धिक दृष्टि से विशिष्ट बालक―बौद्धिक दृष्टि से विशिष्ट बालकों की पहचान
बुद्धि परीक्षणों के द्वारा की जाती है । 90 से 110 तक की बुद्धि-लब्धि (I.Q.) वाले बालकों
को सामान्य मानकर अन्य बालकों को विशिष्ट बालकों की श्रेणी में रखा जाता है। 110
से अधिक बुद्धि-लब्धि वाले बालक सृजनशील तथा प्रतिभावान की श्रेणी में आते हैं तथा
90 से नीचे बुद्धि-लब्धि वाले बालक पिछड़े बालकों की श्रेणी में आते हैं। बौद्धिक दृष्टि
से हम बालकों को निम्नलिखित चार श्रेणियों में बाँट सकते हैं―
    1. प्रतिभाशाली—मारटीसन, 1973 ई. के अनुसार, “प्रतिभाशाली बालकों में बौद्धिक
योग्यता तथा सामाजिक समायोजन की योग्यता सामान्य बालकों से अधिक होती है।” उपरोक्त
परिभाषा से स्पष्ट है कि प्रतिभाशाली बालकों में सामान्य बालकों की अपेक्षा कुछ विशेष
योग्यताएँ होती है। अपनी विशिष्ट योग्यता के कारण ये राष्ट्र को नई दिशा देते हैं। ऐसे
बालकों के लिए प्रतिभावान, प्रतिभाशाली, मेघावी जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ये
बालक प्राय: समाज-सुधारक, वैज्ञानिक, इन्जीनियर तथा डॉक्टर आदि होते हैं। ऐसे बालकों
को सामान्य बालकों के साथ पढ़ाना एक कठिन कार्य होता है क्योंकि इन पर विशेष ध्यान
नहीं दिया जा सकता। अभी तक ऐसे बालकों के लिए अलग विद्यालयों की स्थापना नहीं
हुई है।
2. सृजनशील―सृजन का साधारण अर्थ है पैदा करना या बनाना अर्थात् यदि बालक
कुछ भी नया करता है तो वह बालक सृजनशील है। यह आवश्यक नहीं है कि डॉक्टर,
वकील, कवि, लेखक ही सृजनशील होते हैं, बल्कि अनपढ़ व्यक्ति भी अपने क्षेत्र में सृजनशील
हो सकता है। यदि कोई मजदूर किसी कार्य को नए ढंग से करता है तो वह सृजनशील है।
सृजनशीलता से नए विचारों की प्राप्ति होती है।
3. अधिगम असमर्थ―इस प्रकार के बालकों की बुद्धि-लब्धि 75-90 तक होती है।
देखने में यह सामान्य बालकों की तरह लगते हैं लेकिन इनको हम विशिष्ट बालक नहीं मानते।
इस प्रकार के बालक किसी भी कार्य को समझने में काफी समय लगाते हैं तथा कोई भी
कार्य धीमी गति से करते हैं। माता-पिता को चाहिए कि वह अपने बच्चों के कार्य करने
की गति पर नजर रखें ताकि आरम्भ से ही उनकी शिक्षा आदि पर ध्यान दिया जा सके।
4. मन्द बुद्धि―जिन बालकों की बुद्धि-लब्धि सामान्य बालकों से कम होती है उसे
हम पिछड़ा या मन्द-बुद्धि बालक कहते हैं। हम इन्हें मानसिक विकलांग या मानसिक मन्दन
भी कह सकते हैं। इस प्रकार के बालकों को बुद्धि-लब्धि 75 या इससे कम होती हैं। इस
प्रकार के बालकों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है―
बुद्धि लब्धि                वर्ग
25 से कम             जड़-बुद्धि
26-50                  मूढ़ बुद्धि
51-75                  मूर्ख-बुद्धि
(1) जड़ बुद्धि―यह मानसिक दुर्बलता को निम्नतम अवस्था है।
जिन बालकों की बुद्धि-लब्धि 25 से कम होती है, उन्हें जड़-बुद्धि कहा जाता है।
ट्रेडगोल्ड के अनुसार, “ऐसे बालक स्वयं की रक्षा करने में असमर्थ होते हैं। वे आग, पानी,
बिजली आदि के खतरे को नहीं समझते, फलत: आसानी से दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। वे स्वयं
भोजन नहीं कर सकते तथा उनमें जीवन रक्षा की इच्छा का पूर्ण अभाव होता है।” ऐसे बालक
एक वाक्य भी नहीं बना सकते । वे स्वयं के लिए कुछ नहीं कर सकते । शिशुओं की भाँति
उन्हें नहलाया, धुलाया तथा भोजन कराया जाता है।
(ii) मूढ-बुद्धि―मूढ-बुद्धि बालकों को बुद्धि-लब्धि 26 से 50 तक होती है। उनमें
मानसिक योग्यताओं का अभाव होता है। ऐसे बालकों को उचित प्रशिक्षण के द्वारा अपनी
देखभाल करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। जैसे—वे स्वयं स्नान कर सकते हैं,
कपड़े पहन सकते हैं, अपने आप खाना खा सकते हैं तथा शौचालय जा सकते हैं, किन्तु दूसरों
की देखभाल की उन्हें पर्याप्त आवश्यकता पड़ती है। ये बालक सामान्य विद्यार्थियों में पढ़ने
में असक्षम होते हैं। ऐसे बालकों को व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों में विशिष्ट प्रशिक्षण दिया
जा सकता है। प्रशिक्षण लेने के बाद वे किसी कि निरीक्षण में काम करने योग्य हो सकते
हैं। विशिष्ट प्रशिक्षण द्वारा इन बालकों को थोड़ा पढ़ना-लिखना भी सिखाया जा सकता है।
(iii) मूर्ख-बुद्धि―जिन बालकों को बुद्धि-लब्धि 51 से 75 तक होती है, वे मूर्ख-बुद्धि
कहलाते हैं। उन्हें बर्तन धोना, झाड़ लगाना, कपड़े धोना, घास काटना, जानवरों की देखभाल
करना आदि साधारण कार्यों के लिए उचित प्रशिक्षण देकर तैयार किया जा सकता है। अपनी
कुछ योग्यताओं के कारण वे मूढ़ बुद्धि बालकों से अच्छे होते हैं, किन्तु समाज के एक स्वतन्त्र
सदस्य के रूप में जीवनयापन करने की योग्यता के अभाव के कारण वे सामान्य बालकों
से निम्न होते हैं। वे भविष्य के सम्बन्ध में किसी प्रकार की कोई योजना नहीं बना सकते ।
ऐसे बालक असामाजिक कार्य भी करते हैं। उनमें शारीरिक दोष कम होते हैं तथा वे सामान्य
बालकों से मिलते-जुलते होते हैं।
(III) सामाजिक दृष्टि से विशिष्ट बालक―इस श्रेणी में मुख्यतया दो प्रकार के बालक
आते हैं―
1. बाल-अपराधी―यदि कोई व्यक्ति समाज विरोधी कार्य करता है या कानून का
उल्लंघन करता है तो उसके इस कार्य को अपराध कहा जाता है।
   यदि इसी प्रकार का कार्य कोई बालक करता है तो उसे बाल अपराधी कहा जाता है।
कानून की दृष्टि से भारत में बाल अपराधी 8 से 18 वर्ष तक की आयु वाला बालक है।
अगर कोई व्यक्ति कानून को भंग करता है, उसके व्यवहार से यदि दूसरे का जीवन खतरे
में पड़ जाता है तो वह अपराधी कहलाता है। इस प्रकार से अगर कोई बालक असामाजिक
तथा असामान्य व्यवहार करता है, समाज के नियमों का पालन नहीं करता तथा शान्ति भंग
करता है, तो वह बालक अपराधी बालक कहलाता है। बर्ट के अनुसार, “हम उस बालक
को अपराधी कहेंगे जिसकी समाज विरोधी प्रवृत्तियाँ इतनी बढ़ जाती हैं कि प्रशासन को उसके
विरुद्ध कोई-न-कोई कार्यवाही करनी पड़ती है।” इस परिणाम से यह स्पष्ट है कि बाल अपराधी
वह है जो समाज विरोधी कार्य करता है अर्थात् चोरी करता है, लड़ाई-झगड़ा करता है। इन
कार्यों को करने से उस बालक के विरुद्ध प्रशासन कार्यवाही करता है व उसे सजा देता है
ताकि उसे सुधार कर मुख्य धारा में लाया जा सके।
2. समस्यात्मक बालक―समस्या पैदा करने वाले बालक प्रायः हर विद्यालय व कक्षा
में पाए जाते हैं। इन बालकों का मुख्य कार्य अध्यापकों, छात्रों व दूसरों को परेशान करना
है। इन बालकों की कोई अलग या विशेष श्रेणी नहीं होती। ये सामान्य बालक भी हो सकते
हैं तथा सृजनात्मक, प्रतिभावान, मन्द बुद्धि व पिछड़े बालकों में से भी हो सकते हैं । समस्या
का सम्बन्ध इनकी शिक्षा से कम बल्कि इनके व्यवहार से अधिक होता है। व्यवहार की
जटिलता का सम्बन्ध परिस्थितियों से है। एक परिस्थिति एक वालक के लिए अनुकूल है
तो दूसरे के लिए वही परिस्थिति प्रतिकूल हो सकता है। अतः यह आवश्यक नहीं कि
समस्यात्मक बालक प्रतिभावान या सृजनात्मक अथवा पिछड़ा या मन्द-बुद्धि है।
                 समस्यात्मक बालक व बाल अपराधी बालक में अन्तर होता है। बाल-अपराधी
असामाजिक कार्य करता है लेकिन समस्यात्मक बालक अपने व्यवहार के कारण दुखी रहता
है अत: वह असामाजिक नहीं है । बाल अपराधी समस्यात्मक हो सकता है। लेकिन समस्यात्मक
बालक बाल अपराधी नहीं हो सकता। इन बालकों को जटिल बालक भी कहा जा सकता
है । वैलन्टीन के अनुसार, “जटिल बालक वह बालक है जिसके व्यवहार या व्यक्तित्व में
किसी प्रकार की अधिक असामान्यता पाई जाती है।” अतः हम यह कह सकते है कि जिन
बालकों के व्यवहार में असामान्यता पाई जाती है वे बालक जटिल या समस्यात्मक बालक
कहलाते हैं। वैसे प्रत्येक बालक असामान्य व्यवहार करता है परन्तु यदि वह शीघ्र ही अपने
में सुधार लेता है तो उसे समस्यात्मक बालक नहीं कहते ।
प्रश्न 4. शिक्षा का पृथक्करण में समावेशन में परिवर्तन पर एक टिप्पणी लिखिए।
अथवा, निःशुल्क बालकों की शिक्षा में अलगाव से समावेश के बदलाव को
अनुरेखित कीजिए।
उत्तर―शुरू से ही मानव जाति की यह प्रवृत्ति रही है कि जो भी मनुष्य पृथक लक्षणों
वाला जान पड़ता है, वे उससे अलगाव करने लगते हैं, फिर चाहे यह पृथक्ता उस मनुष्य
के लिए लाभदायक हो अथवा हानिकारक । अत: प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक उद्धरणों
के माध्यम से यह दृष्टिगोचर होता है कि इस तरह के विशिष्ट व्यक्तियों के साथ अच्छा
बर्ताव नहीं किया जाता था। समाज में मुख्याधारा से उन्हें दूर रखा जाता था। लेकिन अगर
विभिन्न क्षेत्रों के समाज की कृपा दृष्टि उन पर हुई, तो भिन्न-भिन्न समयों पर उनके लिए
विशेष प्रकार की शिक्षा प्रदान करने हेतु आवासीय संस्थाएँ विशेष विद्यालयों तथा विशेष कक्षाएँ
शुरू की गई। फिर भी ज्यादातर समाजों का उनके प्रति सोचने का नजरिया अलगाव एवं
पृथक्ता का ही रहा।
      समय के साथ-साथ समन्वित अर्थात समावेशित शिक्षा अपने विकास के पथ पर अग्रसर
होने लगी क्योंकि विशेष शिक्षा की प्रक्रिया से उत्पन्न परिणामों ने मनोवैज्ञानिकों एवं
शिक्षा-शास्त्रियों की विचारधारा में परिवर्तन ला दिया। इन मनोवैज्ञानिक व शिक्षाशास्त्रियों की
यह धारणा बन गई कि विशिष्ट एवं अपंग बच्चों की विशेष शिक्षा देने के बजाए सामान्य
बच्चों के साथ कक्षा में बैठकर वहीं शिक्षा देने से जो सामान्य बच्चों को दी जा रही है,
से अधिक लाभ होगा। उनका मानना है कि शिक्षा बच्चों में असमानता एवं हीनता के भाव
उत्पन्न करती है, क्योंकि यह शिक्षा पद्धति विशेष अपंग व बाधित बच्चों को सामान्य बच्चों
तुल्य समान अवसर उपलब्ध नहीं कराती है। अतः वर्तमान समय में मनोवैज्ञानिकों व
शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि बच्चों को विद्यालय में समन्वित समावेशित शिक्षा प्रदान की
जानी चाहिए ताकि सभी प्रकार के बच्चों को समान अवसर उपलब्ध हो सकें। इसी के तहत
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में सभी छात्रों को शिक्षा प्राप्त करने हेतु समान अवसर प्रदान
करने पर विशेष बल दिया जाता है । इस शिक्षा नीति के अन्तर्गत बच्चों के आवास के समीप
ही विद्यालय की व्यवस्था, विद्यालयों में आकर्षक साधनों की व्यवस्था करना आदि अनेक
सिफारिशें की गई हैं। इसके अलावा गत कुछ सालों में विशिष्ट एवं अपंग बच्चों को शिक्षा
की मुख्यधारा से जोड़कर सामान्य बच्चों के साथ-साथ उसी विद्यालय एवं कक्षा-कक्ष में
शिक्षा प्रदान करने के लिए विचारधारा म कुछ विशेष शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिनमें
से कुछ निम्नलिखित हैं―
1. संस्थान रहित शिक्षा
2. सामान्यीकरण
3. न्यूनतम प्रतिबन्धित पर्यावरण
4. एकीकरण
5. मुख्यधारा
इन उपर्युक्त शब्दों का संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार से हैं―
1. संस्थान रहित शिक्षा―इस शब्द का प्रयोग अपंग एवं बाधित बच्चों की अपंगता
को अतिरंजित रूप में प्रदर्शित करते हुए अपंग बच्चों की देख-रेख करने तथा उन्हें शिक्षा
प्रदान करने के नाम पर कार्यरत संस्थाओं की विचारधारा के दिखावें व ढोंग पर प्रतिबन्ध
लगाने हेतु किया गया । अतः यह शब्द संस्थान विषयक विचारधारा के विरोध को प्रकट करने
वाला एक संकेतक शब्द है, इस शब्द का तात्पर्य अपंग व बाधित बच्चों को संस्थानों से
पृथक करके अलग से दूसरे पर्यावरण में शिक्षा देना है।
2. सामान्यीकरण― सामान्यीकरण शब्द से तात्पर्य एक ऐसी प्रक्रिया से हैं, जिसके माध्यम
से विशिष्ट व अपंग बच्चों की शिक्षा एवं जीवन-यापन हेतु प्रयोग में आने वाले वातावरण
को सामान्य शिक्षा व सामान्य वातावरण के समान बनाया जाता है। सामान्यीकरण का मुख्य
ध्येय यह है कि बच्चा अपनी शिक्षा तथा जीवन के वातावरण जहाँ तक सम्भव हो, सामान्य
बच्चों जैसा महसूस करे, फिर चाहे उसकी अपंगता का रूप शब्दों का प्रयोग सामान्यीकरण
की विचारधारा का परिणाम है।
3. न्यूनतम प्रतिबन्धित पर्यावरण― शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग हुए इस प्रत्यय का अर्थ
ऐसे वातावरण से लिया जाता है, जिसके द्वारा विशिष्ट व अपंग बच्चों के अधिगम एवं
जीवन-यापन में आई बाधाओं को न्यूनतम किया जा सके। ऐसा करने से पहले हमें
न्यूनतम प्रतिबन्धित वातावरण को इस ढाँचे में परिवर्तित करना होगा कि वह सामान्य पर्यावरण
के समान निर्मित हो जाए, जिसमें विशेषता शून्य तथा अपंगता शून्य बच्चे सीखते हैं।
4. एकीकरण―एकीकरण के प्रत्यय ने अलगाव के सिद्धान्त के विरोध में जन्म लिया ।
एकीकरण के प्रत्यय ने बच्चों को विशिष्ट विद्यालयों में अलग वातावरण में अवस्थित करके
विशिष्ट व अपंग बच्चों को शिक्षा प्रदान करने की पद्धति पर रोकथाम लगाकर सामान्य विद्यालयों
में शिक्षा प्रदान करने के सिद्धान्त का समर्थन किया। जबकि थोड़े समय पूर्व ही विशिष्ट
एवं अपंग बच्चों को अलगाव के आधार पर विशेष विद्यालयों में शिक्षा प्रदान की जाती थी,
लेकिन एकीकरण के सिद्धान्त ने उन बच्चों को सामान्य विद्यालयों में भेजकर, सामान्य बच्चों
के तरह शिक्षा ग्रहण करने पर जोर दिया।
5. मुख्यधारा―ऐसी परिस्थितियों में जहाँ विशिष्ट एवं अपंग बच्चे आमतौर पर तो
सामान्य अविकारी स्कूल के छात्र है, लेकिन उन्हें शिक्षा अलग से विशिष्ट कक्षाओं में प्रदान
की जाती है, तब ऐसी परिस्थितियों में इन बच्चों को सामान्य कक्षाओं में ही सामान्य बच्चों
के साथ शिक्षा प्रदान कराना मुख्यधारा शिक्षण कहा जाता है। ऐसा करना तभी सम्भव है,
जब एक विशिष्ट व बाधित बच्चा विशिष्ट कक्षाओं में पढ़ता हुआ अपने सामर्थ्य से किसी
भी प्रकार कम नहीं होता तथा सामान्य कक्षा में अध्यापनरत शिक्षक द्वारा प्रदत्त कार्यभार को
कुशलतापूर्वक करने में निपुण होता है।
   एकीकरण एवं मुख्यधारा शब्दों की उत्पत्ति के ऐतिहासिक कारण चाहे कुछ भी हो, लेकिन
दोनों ही शब्द संस्थागत शिक्षा, अलगाव तथा पृथक्करण विचारधाराओं के परिणामस्वरूप
अस्तित्व में आए है, इसलिए दोनों शब्दों का प्रयोग समानार्थी बन गया है अर्थात् वर्तमान समय
में एक की जगह दूसरा शब्द बिना किसी विरोधाभास के सरलता से प्रयोग में लाया जा सकता
है। इसी सन्दर्भ में अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए हैं, जिनमें से कुछ
निम्न हैं―
     स्टीफैन एवं ब्लैक हर्ट के शब्दों में, “शिक्षा की मुख्यधारा का अर्थ क्षतियुक्त (पूर्ण
रूप से अपंग नहीं) बच्चों की सामान्य कक्षाओं में शिक्षण व्यवस्था करना है। यह समान
अवसर मनोवैज्ञानिक सोच पर आधारित है, जो व्यक्तिगत योजना के द्वारा उपयुक्त सामाजिक
सामान्यीकरण तथा अधिगम को बढ़ावा देती है।”
        हरमन हिफजर के शब्दों में, “शिक्षा के क्षेत्र में क्षतियुक्त बालक का सामान्य कक्षा-कक्ष
के पर्यावरण में समन्वित करने का अर्थ है, अपंगतारहित सामान्य बालकों के साथ कक्षा में
सहयोगी शिक्षा देना। ऐसे पर्यावरण में अपंग बच्चों को अपंगता रहित बच्चों के साथ खेलकूद
की क्रीड़ाओं एवं अन्य गतिविधियों में शामिल होने के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं। समन्वित
शिक्षा का उद्देश्य एक अपंग बच्चे की अपंगतारहित बच्चों के समूह में शामिल करके उसे
जहाँ तक हो सके आत्मनिर्भर बनने के अवसर प्रदान करना है।”
     कोफ मैन के शब्दों में, “शिक्षा की मुख्यधारा सामान्य एवं विशिष्ट बालकों की सांसारिक,
अनुदेशनात्मक, सामाजिक एकीकरण को अनुदेशित करती है, यह शिक्षा योजना,कार्यक्रमों और
क्रियाओं पर आधारित है तथा इसकी सामान्य एवं विशिष्ट शिक्षा में प्रशासकीय, अनुदेशनात्मक
और सहयोगी कर्मचारियों के उत्तर के विषय में स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती हैं। “
       बॉग के शब्दों में, “मुख्यधारा से अभिप्राय सामान्य एवं अवसरों का उपभोग करने में
हर सम्भव रूप से भागीदार होते हैं।
     तथापि कुछ मनोवैज्ञानिक एवं शिक्षाशास्त्रियों का मानना है कि एकीकरण तथा मुख्यधारा
के प्रत्ययों में लम्बे समय से चली आ रही विशिष्ट शिक्षा प्रदान करने की पद्धति से किसी
न किसी रूप में सम्बन्ध आवश्यक बना रहता है। प्रायः दोनों ही विचारधाराओं में इस तथ्य
की झलक मिलती है कि विशिष्ट व अपंग बच्चों को सामान्य स्कूलों में नव-आगन्तुकों के
तौर पर देखा व समझा जाता है, जिन्हें समायोजित किया जाता है, इसलिए इस झलक को
समाप्त करने हेतु समावेशी शिक्षा की उत्पत्ति व विकास हो पाया।
प्रश्न 5. अपवर्जन को परिभाषित करें? समावेशीकरण को बढ़ावा देने व अपवर्जन
को रोकने के लिए कौन-कौन से कार्य करना है?
 अथवा, अपवर्जन का अर्थ, “शैक्षिक अवसरों का सभी बच्चों के मध्य असमान विवरण होगा।”
उत्तर―अपवर्जन को एक ऐसी अनैतिक क्रिया का दर्जा दिया जा सकता है जो कि विशिष्ट,
आवश्यकताओं वाले बालकों को केवल शारीरिक या मानसिक रूप से ही नहीं वरन् मनोवैज्ञानिक
रूप से क्षीण कर देना है।
    शिक्षा के संकुचित, कुण्ठित और दमनात्मक अर्थ को अपवर्जन कहा जा सकता है।
अपवर्जन, वास्तविकता में प्राचीन काल में मनुष्यों के द्वारा मनुष्यता को समाप्त करने
के लिए किये अति निक्रिष्ट कृत्यों में से एक जिन्हें मुनष्यों ने शारीरिक मानसिक रूप से
विकृत अन्य मनुष्य को नष्ट करने के लिए अपनाया था ।
अपवर्जन को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है―
□ अपवर्जन अपने आप में मुख्य धारा शिक्षा की एक बहुत बड़ी कमी है। अपवर्जन
प्रदर्शित करता है कि मुख्य धारा शिक्षा के दायरे बेहद सीमित है जो कि सत्य नहीं
□ अपवर्जन का अर्थ है कि विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों को मुख्य धारा से वितर
कर विशिष्ट विद्यालयों में रखकर दूर कर देना है।
□ अपवर्जन समावेशन से विशिष्ट बालकों को सामान्य व सभी के लिए शिक्षा हेतु
वातावरण से दूर करके एक नियंत्रित वातावरण में बाँध देता है।
□ अपवर्जन का कोई भी आधार चाहे, वह सामाजिक, आर्थिक या विशिष्टता पर आधारित
हो समावेशी शिक्षा व प्रक्रिया में बाधक सिद्ध होता है।
□ समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने हेतु और अपवर्जन का रोकने के लिए निर्योग्यता के
किसी भी आधार पर उम्र व शिक्षा की शुरुआती दौर में पहिचान लेना चाहिए।
□ अपवर्जन को रोकने के लिए कार्यक्रमों खासकर बालक की विशिष्टता केन्द्रित
कार्यक्रमों पर अधिक जोर देना चाहिए।
□ अपवर्जन को रोकने के लिए विशिष्टता वाले बालकों के साथ बढ़-चढ़कर कार्य
करना आवश्यक है।
□ समूह गतिविधियों, कौशल विकास की विधियाँ, सामाजिक व्यवहार के नियमों की
समझ को विकसित करने पर जोर देना चाहिए, नियमित निर्देशन व जाँच को समावेशी
शिक्षा का भाग बना लेना आवश्यक है।
इन सभी बिन्दुओं का पालन करने से अपवर्जन रोका जा सकता है। अपवर्जन समाज
में अभिज्ञान की तरह है जो व्यक्ति की ओछी मानसिकता को प्रदर्शित करता है। अपवर्जन
समाज में जिस तरह के फैला रहा उसे समाप्त करना अति आवश्यक है। अन्यथा विशिष्टता
ही समाज के लिए खतरा बन जायेगी।
समावेशीकरण को बढ़ावा देने व अपवर्जन को रोकने के लिए कार्यक्रम :
1. जिला प्राथमिक शिक्षा योजना―DPEP की शुरूआत 1994 ई. में हुई थी, इसमें
शिक्षकों को बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित किया जाता है। इनके गुणवत्ता को बढ़ावा दिया जाता
है। इसमें गुणवता DPEP में शिक्षण सामग्री, अधिगम सामग्री को और परिष्कृत करने का
प्रया, संगठनों में विशिष्टता से पूर्ण बालकों के सामयोजन की क्षमता को बढ़ाना विभिन्न संगठनों
में कार्यरत शिक्षकों स कार्यकर्ताओं को विशिष्ट वालकों की आवश्यकता को पूर्ण करने हेतु
समर्थ बनाना, साधन एवं उपकरणों में नवीनीकरण पर जोर देना आदि शामिल है। DPEO
के विशिष्टता पूर्ण बालकों के लिए एकीकृत शिक्षा को 1997 में जोड़ा गया ।
2. एकीकृत शिक्षा विकास योजना― एकीकृत शिक्षा विकास योजना सरकार एकीकृत
शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए है। इस योजना में बहु-विशिष्टा से प्रभावित व्यक्तियों की
भी शामिल किया गया है।
      इस योजना के फलस्वरूप शिक्षकों की अभिवृत्तियों में सकारात्मक परिवर्तन आया है।
PIED के फलस्वरूप IEDC Scheme सामने आई । IEDC में शिक्षण से सम्बन्धित प्रणालियों
को विकसित किया । IEDC से आगे चलकर यह लाभ हुआ कि विशिष्टतापूर्ण बालकों की
केवल उपस्थिति ही नहीं बल्कि कक्षाओं में स्थायित्व भी बढ़ा ।
3. NCERT के अनुसार, भारत में समावेशीकरण के प्रत्यय व समावेशी शिक्षा को लेकर
लोगों में जागरूकता की कमी है। इसे बढ़ाने के लिए अत्यधिक प्रयासों की आवश्यकता होगी,
समावेशीकरण को स्थान देने व स्वीकारने के लिए अब तक केवल चलाए जा रहे, विभिन्न
कार्यक्रमों में साधन उपकरणों पर ही जोर दिया गया।
    4. District Rehabilitation Centres & National Programme for Rehabili-
tation for persons with Disability (NPRPD)―भारत में जिला पुर्नवास केन्द्र की
स्थापना Ministory of Social Justice & Empowerment द्वारा की गई थी। इस कम से
कम || राज्यों में शुरू किया गया था।
   इसके अतिरिक्त 1999 ई. में NPRPD को स्थापित किया गया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत
राज्यों की सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है ताकि यह कार्यक्रम जिला स्तर
पर अच्छी तरह से बदल सके । इसके लिए केन्द्र सरकार समुदाय पर आधारित पुर्नवास सुविधाओ
को बढ़ावा देने के लिए कार्य करती है। इसमें भारत सरकार का मुख्य उद्देश्य विशिष्ट बालकों
को परिपक्व बनाने एवं उनके परिवारों व समुदायों को सहायता प्रदान कर सशक्त बनाने का
प्रयास करती है। इसमें पुनर्वास कर्मचारी ब्लॉक स्तर, व ग्राम पंचायत में भी नियुक्त किए
जाते है । District Referrad&Training Centre, StateResources Centre भी स्थापित किये
जाते हैं।
 District Refeeral &Training Centre लोगों को विस्तृत पुनर्वासा सुविधाएँ देने का कार्य
करता है जबकि ‘राज्य संसाधन केन्द्र राज्य का सबसे श्रेष्ठ संस्थान के रूप में कार्य करता
है, जो कि प्रशिक्षण है मानव संसाधन विकास एवं पुर्नवास सुविधाओं को निचले स्तर से प्रदान
करता है।
       5. जॉयफुल इनक्लूजन पैक, बैंगलोर, कर्नाटक—यह पहल इस धारणा पर आधारित
है, कि अधिगम को सभी के लिए सुगम बनाया जा सकता है। इसे कर्नाटक में ग्रामीण क्षेत्र
के सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को प्रशिक्षित करने हेतु शुरू किया गया था । Checklist
की सहायता से अधिगम में हुई उपलब्धि को माप किया गया। अधिगम को प्राप्त करने वाली
क्रियाओं को प्रदर्शित करने के लिए सरलीकृत कार्ड का सहारा लिया जाता है।
       यह पहल मूल्यांकन की सीमाओं पर प्रतिबन्ध नहीं लगाती एवं सभी शैक्षिक स्तर के
अभिभावकों के लिए भी मूल्यांकन को समझना बेहद आसान है। अतः यह सारी सामग्री
Joyful, Inclusion Pack को बनाती है।
        6. उड़ीसा पोर्टेज प्रोजेक्ट बंगलोर कर्नाटक―यह प्रोजेक्ट कर्नाटक के स्कूलों में
नामांकन की घटती दरों को रोकने के लिए है। इसमें किसी भी बालक को उसके विकास
के आरंभिक दौर में ही किसी भी विशिष्ट के नकारात्मक प्रभाव को पहचानकर स्कूल में
प्रवेश दे दिया जाता है। इस प्रोजेक्ट को पहुँच घर-घर तक है। इस प्रोजेक्ट की शुरुआत
USA में हुई थी।
    7. श्रीराकृष्ण मिशन विद्यालय व IHRD कार्यक्रम―यह प्रोग्रोम साधन सम्पन्न
सामान्य शिक्षकों द्वारा लागू किया जाता है। इसे विशिष्टतापूर्ण बालकों की शिक्षा के लिए
IHRD द्वारा समावेशीकरण को बढ़ावा देने हेतु शुरू किया गया था।
प्रश्न 6. विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकता वाले बच्चों की विभिन्न आवश्यकताओं को
पहचान किन विधियों से करेंगे?
उत्तर―विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकता वाले बच्चों की विभिन्न आवश्कताओं की पहचान
करना कठिन कार्य है। आधुनिक युग में, इन बालकों की पहचान के लिए विभिन्न प्रकार की
विधियों का प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त विशेषज्ञों की सलाह व बालक से सम्बन्धित
दस्तावेजों के आधार पर भी इनकी पहचान की जा सकती है। हम इन वालकों की पहचान
के लिए अधिकतर निरीक्षण विधि का प्रयोग करते हैं। मुख्य विधियाँ निम्नलिखित है―
(i) निरीक्षण विधि―निरीक्षण विधि का प्रयोग मनोवैज्ञानिक या निपुण व प्रशिक्षित
अध्यापक के द्वारा किया जाता है। निरीक्षण विविध को दो प्रकार से प्रयोग में लाया जा
सकता है।
(क) इस विधि से बालकों के साथ रहकर उसके क्रियाकलापों का अध्ययन किया जाता
है और समस्या का समाधान खोजा जाता है।
(ख) दूसरी विधि में समस्यात्मक बालक के व्यवहार का निरीक्षण दूर से किया जाता
है। बालक को इस बात का पता नहीं चलता है कि उसके व्यवहार कर निरीक्षण
किया जा रहा है। इस प्रकार निरीक्षण विधि द्वारा हम इस प्रकार के बालकों की
समस्याओं का पता लगाकर उनका समाधान खोजते हैं।
विद्यालय में प्रवेश लेने से पहले अनुभवी एवं प्रशिक्षित शिक्षक, मनोवैज्ञानिक और विशेषज्ञ
की सहायता से बालक के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। बालक के व्यवहार का
निरीक्षण भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में किया जाता है जैसे―कक्षा में,खेल के मैदान में, साथियों
के साथ खेलते समय, विद्यालय से छुट्टी के बाद एवं अवकाश के समय तथा घर में व्यवहार
के द्वारा हम बालक को बुद्धि का परीक्षण कर लेते हैं।
(ii) मनोवैज्ञानिक परीक्षण―आजकल कई तरह के मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का प्रयोग
किया जाता है। इन परीक्षणों में बुद्धि कौशल व भाषा कौशल से भी सम्बन्धित परीक्षण होते
है। इन परीक्षणों का प्रयोग करके बालकों की प्रवृत्ति के कारणों का पता लगाया जा सकता
है। पता लगाने के बाद उन कारणों को दूर करने का प्रयास किया जाता है ताकि वालक
को प्रवृत्ति में सुधार हो सकें।
     समस्यात्मक बालकों के व्यवहार का पता लगाने के लिए हमें कई प्रकार के परीक्षणों
पर भी निर्भर रहना पड़ता है। इन परीक्षणों के परिणामों के आधार पर हम उनकी समस्या
में अवगत हो सकते हैं। मूनी की समस्या जाँच सूची और भाग्य की समस्याएँ जाँच सूची
का प्रयोग हम समस्यात्मक बालकों के व्यवहार का पता लगाने के लिए करते हैं। यह सूचियाँ
वास्तव में समायोजन से सम्बन्धित हैं । सिन्हा एण्ड सिन्हा की स्कूल छात्रा के लिए समायोजन
सूची व मित्तल की समायोजन सूची का प्रयोग भी समस्यात्मक बालक के व्यवहार को जानने
के लिए किया जाता है। इन परीक्षणों में एक दोष यह है कि बालक इनको भरते समय
कई प्रश्नों के गलत उत्तर देते हैं तथा अपने दोषों को छिपाने का प्रयास करते हैं। इन परीक्षणों
का उत्तर अन्तिम नहीं मानने चाहिए।
      समस्यात्मक व्यवहार को जानने के लिए एक विधि पर्याप्त नहीं होती है। हमें इनके
व्यवहार का पता लगाने के लिए विभिन्न विधियों को प्रयोग में लाना चाहिए।
(iii) इतिहास विधि―इस विधि के अन्तर्गत हम बालक का जन्म से लेकर अब के
इतिहास का अध्ययन करते हैं । इतिहास के अन्तर्गत माता-पिता, परिवार, माता-पिता की शिक्षा,
माता-पिता का व्यवसाय, घर की स्थिति आदि का अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त
समाज के अन्य सदस्य, मुख्याध्यापक, अध्यापक व विद्यालय के अन्य कर्मचारियों से बातचीत
करने जानकारी प्राप्त की जाती है। इस बातचीत व इतिहास के आधार पर बालक के व्यवहार
का अध्ययन किया जाता है और उसका सार निकाला जाता है
(iv) बुद्धि परीक्षण―विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की बुद्धि-लब्धि मापने के लिए
बुद्धि परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है। बुद्धि-लब्धि के आधार पर हम बालकों को मन्द-बुद्धि
बालकों की श्रेणी में डालते हैं, ऐसे बालकों की बुद्धि-लब्धि प्रायः 75 से कम होती है।
प्रतिभाशाली बालकों की बुद्धि-लब्धि 140 से अधिक होती है।
(v) साक्षात्कार विधि― साक्षात्कार विधि के द्वारा भी हम समस्यात्मक बालक की
पहचान कर सकते है । अगर कोई बालक अपने आप में हीन भावना का शिकार है तो साक्षात्कार
के द्वारा उसके कारणों का पता लगाया जा सकता है। साक्षात्कार के प्रथम विधि में प्रश्नों
को तैयार करके क्रमबद्ध ढंग से प्रश्न पूछे जाते हैं तथा जवाबों के आधार पर उसकी समस्या
खोजी जाती है। दूसरी विधि में प्रश्न क्रमबद्ध नहीं होते तथा न ही उनका निश्चित स्वरूप
होता है। आवश्यकतानुसार प्रश्नकर्ता उनको परिवर्तित कर लेता है। साक्षात्कार विधि में पहले
प्रकार के प्रश्नों में जो प्रश्न दिए होते हैं उनके उत्तर देने के लिए बालक के सामने कुछ
विकल्प रखे जाते हैं जैसे―हाँ। नहीं/असत्य/ठीक है/गलत है आदि । इस प्रकार के प्रश्नों
को हम बंद अंत वाला प्रश्न कहते है। दूसरी प्रकार के प्रश्न खुले अंत वाले प्रश्न कहलाते
है। बालक कितना भी लम्बा और जैसा भी उत्तर देना चाहे दे सकता है । खुले अन्त वाले
प्रश्नों के द्वारा हमें अच्छे परिणाम मिलते हैं।
(vi) चिकित्सीय परीक्षण―कई बार हम व्यक्तिगत अध्ययन या निरीक्षण विधि का
मानसिक मंदता का पता नहीं लगा पाते हैं। चिकित्सीय परीक्षण के द्वारा हम मानसिक मंदता
के कारणों का पता लगा सकते हैं। कारणों का पता चल जाने के बाद हम बालक का उचित
रूप से इलाज कर सकते हैं।
(vii) उपलब्धि परीक्षण―मंद बुद्धि बालकों की पहचान के लिए उपलब्धि परीक्षणों का
प्रयोग किया जाता है। इन परीक्षणों का प्रयोग व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से किया जा सकता
है। इन परीक्षणों के आधार पर मानसिक मन्दता का पता लगाया जा सकता है।
(viii) शैक्षिक परीक्षण―शैक्षिक परीक्षणों के द्वारा भी मंद बुद्धि वालकों की पहचान
की जा सकती है। बालक के विद्यालय में प्रवेश से पहले प्रवेश परीक्षा ली जाती है। उस
प्रवेश परीक्षा के आधार पर बालक के भाषा की दृष्टि से पढ़ने, लिखने, शुद्ध उच्चारण तथा
अक्षरः विन्यास आदि का अध्ययन किया जाता है । अध्ययन के निष्कर्षों के बाद बालक की
मानसिक मन्दता का पता लगाया जा सकता है।
प्रश्न 7. भारत व बिहार विशेष के संदर्भ में समावेशी शिक्षा के लिए विद्यालय
की भूमिका को रेखांकित करें।
उत्तर–समावेशी स्कूल की सफलता इस बात पर आधारित होती है कि उस स्कूल का
कोई दर्शन हो और प्रजातांत्रिक सिद्धान्तों का अनुकरण किया जाए । समावेश प्रयोग नहीं है
जिसकी जाँच हो बल्कि समावेश मूल्य है जिसको अपनाया जाए और इसके प्रति स्वस्थ
दृष्टिकोण का विकास किया जाए । समावेशी स्कूल केवल शैक्षिक उपलब्धि पर ही बल नहीं
देता बल्कि विद्यार्थियों के सामाजिक, भावनात्मक विकास और सामुदायिक भावना, सामूहिक
उत्तरदायित्व और नागरिकता के गुणों के विकास की भी बात करता है। स्कूल दर्शन को
यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि प्रशासकों, शिक्षकों, अभिभावकों, विद्यार्थियों जिनकी विशेष
शैक्षिक आवश्यकताएँ हैं या नहीं, समुदाय के नेता और समर्थक व्यक्तियों की समावेशी शिक्षा
की योजना, निर्णय प्रक्रिया में शामिल हो।
इस सिद्धान्त के अन्तर्गत समावेशी स्कूल में उन सभी विद्यार्थियों को सम्मिलित किया
जाता है जो कि अड़ोस-पड़ोस के स्कूल के भाग हैं। स्कूल में ऐसे बालकों को भर्ती करने
के लिए किसी भी प्रकार का प्रवेश के लिए परीक्षा नहीं होनी चाहिए । वास्तव में, ये सभी
बालक किसी भी प्रकार का रंग, भेद, जाति, धर्म, लिंग और असमर्थता के हो सकते हैं।
समावेश का दर्शन विद्यार्थियों और शिक्षकों की सहायता करता है कि वे समाज के अच्छे
सदस्य बनें और वे समाज और स्कूल को नया स्वरूप प्रदान करें। समावेश से समदाय के
प्रति अपनत्व की भावना का विकास होता है। समावेश उन सभी व्यावहारिक बातों को अपनाता
है तो अच्छे शिक्षण में सक्रिय और लाभप्रद हैं। एक अच्छे शिक्षक का कार्य है कि बालकों
के बारे में सोचे और सभी बालकों को लाभान्वित करें। समावेशी शिक्षा इस विश्वास पर
आधारित है कि लोग समावेशी समुदाय से मिलकर कार्य करें और उनमें जाति, धर्म, आकांक्षाओं
और अयोग्यताओं का किसी भी दृष्टि से भेदभाव न हो।
समावेशी विद्यालय ऐसा विद्यालय होता है जिसमें सभी बालक मुख्य धारा से जुड़े होते
हैं। सभी बालकों के मुख्य धारा से जुड़ने का अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि सभी विद्यार्थियों
को नियमित सामान्य स्कूल के कक्षा-कक्ष में धकेल दिया जाए और किसी प्रकार के आव्यूह
को ध्यान में न रखा जाए। जो बालक गंभीर रूप से असमर्थता रखते हैं उनको विशेष स्कूल
में भेजा जा सकता है।
    समावेशी स्कूल तब तक सुचारू रूप से कार्य नहीं कर सकता जब तक कि विशेष
शैक्षिक आवश्यकता वाले बालकों की जरूरतों और शिक्षकों को समर्थन प्राप्त नहीं होता।
उदाहरण के रूप में, विद्यार्थी के साथ साथी समूह भी लाभान्वित हो सकता है और शिक्षक
से भी सुविधा प्रेरक के रूप में टीम के समर्थन की आवश्यकता होती है।
    इस प्रकार से स्कूल को समस्त समर्थन सेवाओं का विकास करना चाहिए । समस्त समर्थन
एक ऐसे लोगों का समूह है जो आपस में मिलकर मस्तिष्क झकझोर, समस्या समाधान, विचारों
के आदान-प्रदान, विधियों क्रियाओं की आवश्यकता में शिक्षक को सहायता देती है जिससे
विद्यार्थी भी अपनी भूमिका सही ढंग से निभा सकते हैं।
 अभिभावकों और शिक्षकों के बीच में आपसी सूझबूझ समावेशी शिक्षा के लिए सुविधा
प्रेरक का कार्य कर सकती है। सामान्य स्कूलों के शिक्षकों और अभिभावकों के आपसी
सहयोग की सराहना की जाती है कि इससे बालकों की शिक्षा सम्बन्धी कठिनाईयों को दूर
करने में सहायता मिलती है। समावेशी स्कूल में सामान्य बालकों के साथ घुल-मिल कर
पढ़ने के अवसर मिलते हैं, उस स्कूल के शिक्षकों का उनके माता-पिता से समय-समय पर
सम्पर्क होना, विचारों का आदान-प्रदान होना बहुत आवश्यक है। शिक्षा के अधिकार को
सर्व संगत सर्वमान्य सार्वभौमिक और लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से परिवार और स्कूल में सुदृढ़
तालमेल का होना आज के समय की जरूरत है। सामान्य स्कूल के अभिभावकों और शिक्षकों
के तालमेल की अपेक्षा समावेशी शिक्षा प्रदान करने हेतु शिक्षकों और अभिभावकों की साझेदारी
बहुत अहम् भूमिका निभाता है।
      समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालक जो सामान्य स्कूल
में पढ़ते हैं वहाँ उन शिक्षकों का ऐसे बालकों के प्रति अधिक जिम्मेदारी का निभाना और
उनके अभिभावकों को विश्वास में लेकर आश्वस्त कराना असंभव नहीं तो कठिन कार्य अवश्य
है। इसलिए शिक्षकों को इस दिशा में साकारात्मक प्रयास किए जाने चाहिए। विशेष आवश्यकता
वाले बालकों की चर्चा आते ही सबसे पहले उनके अभिभावकों का जिक्र होता है कि ऐसे
अभिभावक कौन से होते हैं, इनकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति कैसी होती है जिससे वे
इस प्रकार के बच्चों का सन्तुलित व समन्वित विकास कर सकें।
     विशिष्ट बालकों के शिक्षण में एक नए दर्शन का आभास होता है। इस दर्शन के अनुसार
कोई भी बालक चाहे वह विशिष्ट हो या सामान्य उसके अध्यापकों के चार समूह होते हैं-
घर के अध्यापक, खेल के अध्यापक, स्कूल के अध्यापक, समाज के अध्यापक । मनोवैज्ञानिकों
के अनुसार इन चारों अध्यापकों में घर के अध्यापक सबसे प्रमुख हैं। घर के अध्यापक ही
इस बात के लिए उत्तरदायी है कि बालक अपने बारे में क्या सोचते हैं तथा दूसरों के प्रति
क्या विचार रखते हैं । अतः बालकों की शिक्षा के लिए घर के, स्कूल के तथा समाज के
अध्यापकों में मेल होना चाहए। इसके लिए उन्हें एक-दूसरे को समझना चाहिए तथा शिक्षण
के सामान्य उद्देश्य तथा प्रविधियों से परिचित होना चाहिए। अध्यापक तथा स्कूल के अफसर
आदि विलक्षण एवं विशिष्ट बालकों के मां-बाप की सहायता उनके बच्चों को समझने में
कर सकते हैं। विशिष्ट बालकों के माता-पिता को इस बात में सहायता देनी चाहिए कि उन
उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न तरीके अपनाएं। इसके लिए विभिन्न पाठ्यक्रम
तथा विभिन्न विधियाँ होनी चाहिए। अध्यापक निरीक्षण तथा अन्य के माता-पिता को बालक
के विकास में परिपक्वता तथा सीखने के महत्त्व को समझाना चाहिए। उन्हें जानना चाहिए
कि अधिगम के लिए बालकों में तत्परता का होना अनिवार्य है। इस बात पर जोर दिया जाना
चाहिए कि बालक में तत्परता कैसे उत्पन्न की जाए। प्रत्येक बालक चाहे वह विशिष्ट हो
या सामान्य उसकी अपनी विकास की गति होती है।
समावेशी विद्यालय बालकों तक शिक्षा पहुंचाने के लिए विभिन्न शारीरिक रूप से अयोग्य
बालकों की पहचान कराने में सहायता कर सकता है। जब बालक/बालिकाओं की पहचान
हो जाती है तो उनका गहन अध्ययन करना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो उन्हें मनोवैज्ञानिकों
आँख-नाम-कान के विशेषज्ञों को दिखाना चाहिए। बालक के विषय में पूर्ण रिकॉर्ड रखने
चाहिए। अध्यापकों को विशेष बालकों को पढ़ाने का प्रशिक्षण भी देना चाहिए। साधारण
बालकों को पढ़ाने का अनुभव विशेष बालकों के अध्यापक के लिए बहुत आवश्यक है।
एक अच्छे कुशल अध्यापक के लिए केवल प्रशिक्षण की ही आवश्यकता नहीं होती। इस
बात की ओर भी ध्यान देना चाहिए कि उसका व्यक्तित्व अच्छा हो, उसे विशेष बालकों में
रुचि हो । विशेष बालकों की समस्याओं को समझने के लिए उसमें सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण
हों।
       विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों के शिक्षा के उद्देश्य में भी भिन्नता हो सकती है,
अतः उनके पाठ्यक्रम को विशेष रूप से तैयार करना पड़ता है । यह पाठ्यक्रम प्रत्येक बालक
के लिए उसकी आवश्यकतानुसार भिन्न होता है। ये सुझाव दिए गए है कि औसत बालकों
के कार्यक्रम में विशेष बालकों को भाग लेना चाहिए । बालकों को समूह कार्यक्रमों में भाग
लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए । विभिन्न प्रकार के समूहों के लिए भिन्न-भिन्न
कोर्स तथा पाठ्यक्रम-सामंजस्य होते हैं। अपाहिज बालकों को विभिन्न प्रकार के कार्य जैसे―
बुनना, काटना, जेवर आदि बनाना बताया जाता है। बहरे बालकों को भाषा का ज्ञान दिया
जाता है। बालकों को जो अन्धे हैं, टंकण लेखन या हस्तलिपि लिखना सिखाते हैं।
समावेशी विद्यालयों के अलग इमारत की भी निर्माण कराया जाए । इमारत हवादार और
खुली होनी चाहिए। विद्यालय को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इमारत उसी प्रकार
की हो, जैसी सामान्य बालकों के लिए है। उसमें बिजली का प्रबन्ध, खिड़कियाँ, अच्छा फर्नीचर
तथा खेलने का मैदान अवश्य होना चाहिए। बालकों को खाने की समस्या का भी समाधान
होना चाहिए। यदि बालक बहुत दूर से आते हैं तो दिन में उनके नाश्ते का प्रबन्ध करना
चाहिए। इसके लिए अभिभावकों को सलाह की सहायता भी ली जा सकती है। बालकों
को स्कूल में आने-जाने की सुविधा भी दी जानी चाहिए। इसके लिए स्कूल बस का प्रबन्ध
होना चाहिए।
    विशेष आवश्यकता वाले बालकों के लिए समय-समय पर अपने विद्यार्थियों के लिए
उपचारात्मक कैम्प की व्यवस्था करनी चाहिए तथा अध्यापक व दूसरे छात्रों को ऐसे बालकों
का सहयोग करना चाहिए तथा विद्यालय के नियम इन बालकों के लिए लचीले होने चाहिए।
विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के विलक्षण बालकों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं, उनका
मुख्य उद्देश्य एक है-अच्छा सामाजिक एवं व्यक्तिगत सामंजस्य, नागरिक उत्तरदायित्व तथा
व्यावसायिक क्षमता । निर्देशन देते समय बालक से सम्बन्धित हर पहलू पर ध्यान देना चाहिए।
जैसे-शारीरिक दशा, सीखने की क्षमता, स्कूल रिकार्ड, सामाजिक सामंजस्य, रुचि एवं ध्यान।

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