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GSEB Std 9 Hindi Textbook Solutions Purak Vachan Chapter 2 राष्ट्र का स्वरूप

GSEB Std 9 Hindi Textbook Solutions Purak Vachan Chapter 2 राष्ट्र का स्वरूप

GSEB Solutions Class 9 Hindi पूरक वाचन Chapter 2 राष्ट्र का स्वरूप

राष्ट्र का स्वरूप Summary in Hindi

विषय-प्रवेश :

प्रत्येक राष्ट्र के नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने राष्ट्र के स्वरूप को समझे। यदि वह अपने देश की धरती, जनता और संस्कृति को समझता है तो वह अपने राष्ट्र के सही स्वरूप को समझ लेता है। यह समझे बिना वह अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सकता। यदि राष्ट्र के नागरिक राष्ट्र का स्वरूप समझें, उसके प्रति अपने कर्तव्य का निश्चय करें तो राष्ट्र प्रगति कर सकता है और समस्त मानवता के विकास और उन्नति में योग दे सकता है। प्रस्तुत पाठ में वासुदेवशरण अग्रवालजी ने ये बातें सुन्दर और परिष्कृत शैली में प्रस्तुत की हैं।

पाठ का सार :

प्रत्येक राष्ट्र की अपनी भूमि, उसकी अपनी जनता और निजी संस्कृति होती है। भूमि, जन और संस्कृति ही राष्ट्र के अंग हैं।

राष्ट्र के भौतिक स्वरूप का परिचय : राष्ट्र की धरती के भौतिक स्वरूप का परिचय आवश्यक है, क्योंकि भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने जागरूक होंगे, हमारी राष्ट्रीयता उतनी ही बलवती होगी। हमारी धरती कितनी उर्वर, सुन्दर, उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है, इसका परिचय प्रत्येक नागरिक को होना चाहिए।

हमारे कर्तव्य का स्वरूप : हमें पृथ्वी की उर्वरता, उसे सौंचनेवाले मेषों तथा उसकी वनस्पतियों की जानकारी प्राप्त करनी होगी। हमें यह भी देखना होगा कि धरती के गर्भ में कहाँ, कौन-सी निधियाँ हैं। उसमें अनेक बहुमूल्य धातुएँ और रत्न छिपे हुए हैं जिन्हें तराशकर सौन्दर्य की वृद्धि के लिए अनेक प्रकार के प्रसाधन किए जा सकते हैं।

हमें अपने सागरों, जलचरों तथा अन्य वस्तुओं के प्रति जिज्ञासा का भाव रखना चाहिए। तभी हम राष्ट्र के जागृत नागरिक कहे जा सकते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम विज्ञान और उद्यम दोनों को मिलाकर राष्ट्र का नया ठाट खड़ा करें। इसमें प्रत्येक व्यक्ति का योग हो, तभी राष्ट्र समृद्ध हो सकता है।

राष्ट्र का दूसरा अंग – जन : प्रत्येक राष्ट्र की धरती पर लोग बसते हैं। वे सभी धरती के पुत्र हैं। धरती हमारी माता है। इसीलिए मातृभूमि के प्रेम का महत्त्व है। हमें इसे हृदय से माता मानना होगा। उसके प्रति हमारा यह भाव ही उससे हमें बांध रखेगा। इस बन्धन की दृढ़ चट्टान पर ही राष्ट्र का चिर जीवन आश्रित रहता है। यह सम्बन्ध स्वार्थ का नहीं है। स्वार्थ का भाव तो पतन का कारण है।

हमारी भाषा, धर्म, जाति, रंग आदि में भले ही भिन्नता हो, सभी लोग पृथ्वी माता के पुत्र हैं। इसी आधार पर सब एक-दूसरे से जुड़े हैं। सबको एक जैसा अधिकार है। किसी जन को पीछे छोड़कर राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता। सबकी प्रगति ही राष्ट्र की प्रगति है। यदि एक वर्ग या जनता का एक भाग भी कमजोर हो तो समस्त राष्ट्र अस्वस्थ माना जाएगा। यह सभी जानते हैं कि यदि देह के किसी भी अंग में रोग हो तो व्यक्ति अस्वस्थ ही माना जाता है।

जन-जीवन का सतत प्रवाह : जन-जीवन का प्रवाह नदी के प्रवाह की भाँति है। यह प्रवाह अनन्त काल से चला आ रहा है। इतिहास के उतार-चढ़ाव आते हैं और जन-जीवन चलता रहता है। कर्म और श्रम के द्वारा ही यह प्रवाह गतिशील रहता है।

राष्ट्र का तीसरा अंग-संस्कृति : राष्ट्र का तीसरा अंग संस्कृति है। यदि राष्ट्र की संस्कृति विकसित और उन्नत है, तो राष्ट्र भी विकसित और उन्नत समझा जाएगा। अलग-अलग संस्कृतियाँ मिलकर राष्ट्र की संस्कृति का समन्वित रूप प्रस्तुत करती हैं। यह समन्वय-युक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखदायी रूप है।

राष्ट्र की संस्कृति के लक्षण : राष्ट्रीय संस्कृति के बाहरी लक्षण हैं- साहित्य, कला, नृत्य, गीत, आमोद-प्रमोद तथा अन्य अनेक रूप जो राष्ट्रीय जनों की मानसिक अभिव्यक्ति के रूप हैं, किन्तु आन्तरिक आनन्द की दृष्टि से उनमें एकसूत्रता है। सहदय व्यक्ति प्रत्येक संस्कृति का आनन्द लेता है और ऐसे ही उदार जनों से भरा हुआ राष्ट्र स्वस्थ और समुन्नत होता है। राष्ट्रीय संस्कृति का परिचय लोक-गीतों और लोक-कथाओं से भी प्राप्त किया जाता है।

पूर्वजों की सांस्कृतिक निधि : आज भी वह प्राचीन, धार्मिक, वैज्ञानिक, साहित्यिक, कला-गत एवं सांस्कृतिक सम्पदा सुरक्षित है जो हमारे पूर्वज हमारे लिए छोड़ गए हैं। यह वर्तमान में प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकती है। हम उसके तेज से राष्ट्र का संवर्धन कर सकते हैं।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से लिखिए :

प्रश्न 1.
लेखक ने राष्ट्र का क्या स्वरूप बताया है ?
अथवा
किन-किन बातों से राष्ट्र का स्वरूप निश्चित होता है?
उत्तर :
भूमि, भूमि पर बसनेवाले लोग और संस्कृति इन तीनों के मेल से राष्ट्र का स्वरूप बनता है। प्रत्येक राष्ट्र पृथ्वी के एक निश्चित भाग पर अपना अधिकार रखता है। उस भू-भाग में छिपी कीमती धातुओं, रत्नों, नदियों, पर्वतों और वनों का उस राष्ट्र से गहरा सम्बन्ध होता है। राष्ट्र का दूसरा अंग उसके निवासी हैं। वे अपनी धरती को अपनी माता मानते हैं। उनकी यह भावना ही राष्ट्रीयता और एकता का आधार है। राष्ट्र का तीसरा अंग संस्कृति है। संस्कृति राष्ट्र के जीवन का सौंदर्य है। इस प्रकार भूमि, जन और संस्कृति इन तीन चीजों से राष्ट्र का स्वरूप बनता है।

प्रश्न 2.
राष्ट्र और उसकी धरती का क्या सम्बन्ध है?
अथवा राष्ट्र के स्वरूप में उसकी धरती का क्या महत्व है?
उत्तर :
प्रत्येक राष्ट्र अपनी धरती से प्यार करता है। अपनी धरती से ही उसे अन्न, जल, विविध धातुएँ और बहुमूल्य रत्न मिलते हैं। अपनी धरती के पर्वतो, नदियों और समुद्रों से उसे लगाव होता है। अपनी धरती के प्रति राष्ट्र जितना जाग्रत होता है, उसकी राष्ट्रीयता उतनी ही बलवती होती है। जो राष्ट्रीयता राष्ट्र की धरती के साथ जुड़ी नहीं होती, वह निर्मूल होती है। राष्ट्र की धरती ही राष्ट्रीय विचारधारा की जननी है। इसलिए राष्ट्र के स्वरूप में उसका बहुत महत्त्व है।

प्रश्न 3.
राष्ट्र के स्वसप में पृथ्वी और जन के बीच क्या सम्बन्ध होता है?
अथवा
धरती के प्रति माता का भाव क्यों होना चाहिए?
उत्तर :
धरती और उस पर बसनेवाले जन (लोग) मिलकर ‘राष्ट्र’ कहलाते हैं। राष्ट्र के निवासी जिस धरती पर जन्म लेते हैं, वह उनकी माता है। माता और पुत्र की यह भावना ही राष्ट्रीयता की कुंजी है। मातृभूमि के प्रति गहरा लगाव राष्ट्र के भवन की नींव मजबूत करता है। यही राष्ट्र के लोगों में कर्तव्य और अधिकार की भावना जगाता है। इसीके कारण वे अपने देश की सेवा करते हैं। उसकी रक्षा के लिए वे अपना बलिदान भी देते हैं। इस प्रकार धरती और उसके जनों के बीच अटूट सम्बन्ध होता है।

प्रश्न 4.
लेखक ने जन और संस्कृति के बीच क्या सम्बन्ध बताया है?
उत्तर :
जन और संस्कृति के बिना राष्ट्र का स्वरूप नहीं बन सकता। बिना संस्कृति के जन की कल्पना नहीं की जा सकती। संस्कृति ही जन का मस्तिष्क होती है। यदि जन वृक्ष है तो संस्कृति उस पर खिलनेवाला पुष्प है। संस्कृति राष्ट्र के निवासियों को जोड़ती है। वह उनमें आत्मीयता पैदा करती है। साहित्य, कला, नृत्य, लोकगीत, धर्म, विज्ञान के रूप में संस्कृति राष्ट्र के लोगों के मानसिक विकास के दर्शन कराती है। संस्कृति के बिना जन वैसा ही है जैसे सिर के बिना धड़। इस प्रकार लेखक ने जन और संस्कृति के बीच अभिन्न सम्बन्ध बताया है।

प्रश्न 5.
राष्ट्र के स्वरूप में संस्कृति का क्या महत्त्व है?
उत्तर :
मनुष्य और धरती की तरह संस्कृति भी राष्ट्र का आवश्यक अंग है। यदि धरती और मानव को अलग कर दिया जाए तो राष्ट्र का स्वरूप ही नहीं बन सकता। संस्कृति के सौंदर्य और सुगंध में ही राष्ट्र के लोगों का जीवन-सौंदर्य छिपा हुआ है। संस्कृति के रूप में राष्ट्र के जीवन का विकास प्रकट होता है। एक राष्ट्र में कई संस्कृतियाँ मिल-जुलकर रह सकती हैं, उनके मेल से एक राष्ट्रीय संस्कृति बनती है। राष्ट्र और उसके निवासी अपनी संस्कृति पर गर्व करते हैं। इस प्रकार राष्ट्र के स्वरूप में संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

प्रश्न 6.
राष्ट्र की विभिन्न संस्कृतियों के बारे में लेखक का क्या मंतव्य है?
उत्तर :
लेखक कहता है कि धर्म, जाति और भाषा के आधार पर एक राष्ट्र में अलग-अलग संस्कृतियां हो सकती है। पर यह जरूरी नहीं कि इनमें विरोध हो। जंगल में जिस प्रकार अनेक लता, वृक्ष आदि एक-दूसरे का विरोध किए बिना फलते-फूलते हैं, उसी तरह राष्ट्र के लोग भी अपनी-अपनी संस्कृति के द्वारा एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहते हैं। जिस तरह अलग-अलग नदियों का पानी समुद्र में मिलकर एक हो जाता है, उसी प्रकार एक राष्ट्र की विविध संस्कृतियाँ मिल-जुलकर राष्ट्रीय संस्कृति का रूप ले लेती हैं। ये बाहर से अलग-अलग होकर भी भीतर से एक ही होती हैं।

प्रश्न 7.
राष्ट्रीय जीवन के स्वास्थ्य से आप क्या समझते हैं? उसकी रक्षा कैसे की जा सकती है?
उत्तर :
जिस तरह स्वस्थ शरीर ही मनुष्य को सुख, शान्ति और सफलता दे सकता है, उसी तरह स्वस्थ राष्ट्र ही स्वतंत्र, सार्वभौम और : स्वाभिमानी रह सकता है। राष्ट्र का स्वास्थ्य उसके निवासियों के जीवन, विचार और भावनाओं पर आधारित है।

राष्ट्र को स्वस्थ रखने के लिए यह जरूरी है कि राष्ट्र के लोग हमेशा सचेत रहें। वे परस्पर एकता, भ्रातृभाव और सौहार्द से रहें। वे : सहिष्णु और उदार रहें और राष्ट्र की विभिन्नताओं में भी एकता का आनंद लें। लेखक के अनुसार वैज्ञानिक ज्ञान, उद्यम, परस्पर प्रेम और राष्ट्रीय : भावना के बल पर राष्ट्र के स्वास्थ्य की रक्षा की जा सकती है।

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