मौर्य शासन का महत्त्व | Importance of Mauryan rule
मौर्य शासन का महत्त्व | Importance of Mauryan rule
मौर्य शासन का महत्त्व
राज्य नियन्त्रण
हिन्दू धर्म ग्रन्थों और विधि-विधानों में बार-बार जोर दिया गया है कि राजा का मार्ग ‘दर्शन धर्मशास्त्रों और भारत में प्रचलित रीति-रिवाजों के द्वारा निर्देशित कानूनों से किया जाना चाहिए। वर्ण और आश्रम (जीवन के विविध चरण) आधारित सामाजिक श्रेणी का ह्रास हो जाए, तो कौटिल्य ने राजा को धर्म की घोषणा करने की सलाह दी है। उन्होंने राजा को धर्मप्रवर्तक या सामाजिक श्रेणियों का रखवाला बताया है। अशोक के अभिलेखों में अन्य आदेशों की तुलना में शाही आदेश को श्रेष्ठ बताया गया है। अशोक ने धर्म की घोषणा की और पूरे भारत में इसके तत्त्वों को लागू करने के लिए अधिकारियों को नियुक्त किया।
मगध के राजकुमारों द्वारा अपनाई गई सैन्य विजय की नीति की स्वाभाविक परिणति शाही निरंकुशता थी। अंग, वैशाली, काशी, कोशल, अवन्ती, कलिंग इत्यादि को एक-एक कर मगध साम्राज्य में मिला लिया गया था। इन क्षेत्रों पर सैन्य नियन्त्रण, अन्ततः लोगों के जीवन पर जबरदस्ती नियन्त्रण में बदल गया। अपने सारे अधिकार को लागू करने के लिए मगध के पास तलवार का जोर था। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर नियन्त्रण बनाने हेतु राज्य को एक विशाल नौकरशाही बनानी पड़ी। प्राचीन इतिहास के किसी अन्य काल में उतने अधिकारी नहीं थे जितना मौर्य काल के बारे में सुना जाता है।
प्रशासनिक व्यवस्था को जासूसी की एक विस्तृत प्रणाली का समर्थन था। विभिन्न प्रकार के जासूस विदेशी शत्रुओं के बारे में खुफिया जानकारी एकत्र करते थे और कई अधिकारियों पर नजर रखते थे। भीरु लोगों से धन एकत्र करने के लिए अन्धविश्वासी
प्रथाओं को भी बढ़ावा दिया गया। महत्त्वपूर्ण पदाधिकारियों को तीर्थ कहा जाता था। प्रतीत होता है कि अधिकांश पदाधिकारियों को नकद भुगतान किया जाता था; इनमें सबसे अधिक उदारतापूर्वक भुगतान, मन्त्री, महायाजक (पुरोहित), सेनापति और युवराज को किया जाता था। उन्हें 48,000 पण की रकम का भुगतान किया जाता था (पण-पौने तोला के बराबर
चाँदी का सिक्का था)। इसके विपरीत, छोटे अधिकारियों को सबसे कम, कुल वेतन के रूप में 60 पण दिए जाते थे, हालाँकि कुछ कर्मचारियों को 10 या 20 पण का भुगतान भी किया जाता था। इस तरह कर्मचारियों के वेतन में बहुत असमानता थी।
आर्थिक विनियमन
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की मानें, तो यह प्रतीत होता है कि राज्य ने अपनी आर्थिक गतिविधियों को संचालित करने के लिए मुख्य रूप से 27 अधीक्षक (अध्यक्ष) नियुक्त किए। वे कृषि, व्यापार एवं वाणिज्य, वजन एवं माप, बुनाई-कताई जैसी कला और खनन
इत्यादि को नियन्त्रित करते थे। राज्य ने कृषिकर्मियों के लाभ के लिए सिंचाई एवं जलापूर्ति सुविधाएँ भी प्रदान की। मेगस्थनीज से पता चलता है कि मौर्य साम्राज्य में अधिकारियों ने मिस्र की तर्ज पर भूमि को मापा और उन प्रवाहों का निरीक्षण किया, जिसके माध्यम से पानी छोटे नालों में पहुँचता था।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार, मौर्य काल का एक उल्लेखनीय सामाजिक विकास, दासों को कृषि में रोजगार देना था। मेगस्थनीज लिखते हैं कि भारत में उन्होंने कोई दास नहीं देखा, लेकिन वैदिक काल से ही यहाँ निःसन्देह घरेलू दास रहते आए हैं। ऐसा लगता है कि मौर्य काल के दास बड़े पैमाने पर कृषि कार्यों में लगे हुए थे। राज्यों के अपने खेत होते थे, जिनमें दास और मजदूर काम करते थे। अशोक द्वारा कलिंग से पाटलिपुत्र लाए गए 1,50,000 कैदियों को कृषि में लगाया गया, लेकिन 1,50,000 संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण लगती है। हालाँकि, प्राचीन भारतीय समाज में दास नहीं थे। यूनान और रोम में जो कार्य
दासों ने किया, भारत में वह काम शूद्रों द्वारा किया जाता था। तीनों उच्च वर्ण, शूद्रों को अपनी सामूहिक सम्पत्ति मानते थे। वे दासों, कारीगरों, कृषि मजदूरों और घरेलू नौकरों के रूप में सेवा करने के लिए बाध्य थे।
कई कारणों से स्पष्ट होता है कि शाही नियन्त्रण, बहुत बड़े क्षेत्र पर, कम से कम साम्राज्य के केन्द्र में, कायम था। यह पाटलिपुत्र की सामरिक स्थिति की वजह से था, जहाँ से शाही प्रतिनिधि गंगा, सोन, पुनपुन और गण्डक नदियों के आर-पार जा सकते थे।
इसके अलावा, शाही सड़क वैशाली और चम्पारण से होते हुए पाटलिपुत्र से नेपाल तक जाती थी। हम हिमालय की तराई में भी एक सड़क के बारे में सुनते हैं, जो चम्पारण से होते हुए वैशाली से कपिलवस्तु, कलसी (देहरादून जिले में), हाजरा और अन्ततः पेशावर जाती थी। मेगस्थनीज पटना के साथ उत्तर-पश्चिमी भारत को जोड़ने वाली सड़क के बारे में बताते हैं। इन सड़कों ने पटना को सासाराम से भी जोड़ा और वहाँ से वे मिर्जापुर और मध्य भारत तक जाती थी। एक मार्ग, राजधानी को, पूर्वी मध्य प्रदेश से होते हुए कलिंग से जोड़ता था और जो कलिंग आन्ध्र एवं कर्नाटक से जुड़ा था। इन सबने परिवहन को सुविधाजनक बनाया, जिसमें घोड़ों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
अशोक के अभिलेख महत्त्वपूर्ण राजमार्गों पर मिलते हैं। शिला स्तम्भ वाराणसी के निकट चुनार में बनाए गए थे, जहाँ से उन्हें उत्तर और दक्षिण भारत में ले जाया गया था। मौयों का नियन्त्रण देश के उन हिस्सों तक था, जिससे मुगलों और शायद ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तुलना की जा सकती है। राजमार्गों पर बस्तियों के निर्माण और रकाबदार घोड़ों के इस्तेमाल के परिणामस्वरूप मध्ययुगीन परिवहन में काफी सुधार हुआ। अठारहवीं शताब्दी में, जब
कम्पनी का अधिग्रहण इलाहाबाद तक हुआ, तब कर-संग्रह पूर्वी उत्तर प्रदेश से कलकत्ता तक नाव में ले जाया जाता था और सन् 1830 के आस-पास गंगा पर भाप-नौका चालन शुरू होने से परिवहन व्यवस्था में और सुधार हुआ। दूर-दराज के क्षेत्रों में मौर्य साम्राज्य का अधिकार प्रभावशाली नहीं हो सकता था।
पाटलिपुत्र राजशाही सत्ता का मुख्य केन्द्र था, लेकिन तोसली, सुवर्णगिरी, उज्जैन और तक्षशिला प्रान्तीय शक्ति के केन्द्र थे। ये सभी एक स्थानीय शासक द्वारा शासित होते थे, जिन्हें कुमार या राजकुमार कहा जाता था, इसलिए स्थानीय शासन शाही परिवार से नियन्त्रित होता था। तोसली की रियासत के राजकुमार ने कलिंग और आन्ध्र के कुछ हिस्सों पर शासन किया और सुवर्णगिरी राजकुमार ने डेक्कन क्षेत्र पर शासन किया। इसी तरह, उज्जैन रियासत के राजकुमार ने अवन्ती क्षेत्र पर शासन किया, जबकि तक्षशिला के राजकुमार ने सीमावर्ती क्षेत्रों पर। राजकुमारों ने स्वायत्त शासक के रूप में शासन किया। कुछ राजकुमारों ने बेशक अपनी प्रजा पर दमनकारी शासन किया, लेकिन अशोक की सत्ता को कभी गम्भीर चुनौती नहीं दी गई।
मौर्य शासकों को बड़ी जनसंख्या की देखभाल नहीं करनी पड़ती थी। सबका यही मत रहा है कि, उनकी सेना में 6,50,000 से अधिक सिपाही नहीं थे। अगर 10 प्रतिशत जनसंख्या की भर्ती होती, तो गंगा के मैदानों की कुल आबादी पैंसठ लाख से अधिक नहीं हो सकती थी।
अशोक के अभिलेख दर्शाते हैं कि अत्यन्त पूर्वी एवं दक्षिणी भाग के अलावा शाही आदेश पूरे देश में पहुँचता था। आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में अशोक के उन्नीस अभिलेख पाए गए हैं, लेकिन संचार साधनों की कमी के कारण राज्यों पर कड़ा नियन्त्रण शायद मध्य गंगा क्षेत्रों से आगे प्रभावी साबित नहीं हो पाया। प्राचीन भारत में मौर्य काल की कर व्यवस्था ऐतिहासिक थी। कौटिल्य ने करों को कई नाम दिए, जो किसानों, कारीगरों और व्यापारियों से लिए जाते थे। इसके निर्धारण, संग्रहण और संचयन के लिए मजबूत और कुशल प्रणाली की आवश्यकता थी। मौर्यों ने संग्रहण और संचयन की तुलना में निर्धारण को अधिक महत्त्व दिया। कर निर्धारण और संग्रहण के उच्चतम अधिकारी समाहर्ता कहलाते थे और राजकोष एवं भण्डार के
मुख्य संरक्षक सन्निधाता होते थे। निर्धारक-सह-समाहर्ता मुख्य कोषाध्यक्ष से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण होते थे। पहले अधिकारी द्वारा राज्य को दिए गए नुकसान को दूसरे की तुलना में अधिक गम्भीर माना जाता था। वस्तुत: कर निर्धारण हेतु व्यवस्थित तन्त्र सबसे पहले मौर्य काल के दौरान ही स्थापित किया गया। अर्थशास्त्र में उल्लिखित करों की लंबी सूची मिलती है; यदि ये सारे कर वाकई में उगाहे जाते होंगे तो प्रजा के पास जीवन निर्वाह के लिए कम ही बच पाता होगा।
अभिलेखों और लिखित साक्ष्यों से पता चलता है कि ग्रामीण इलाकों में भंडारण की भी व्यवस्था थी और कर के रूप में वस्तुएँ भी ली जाती थी। अकाल, सूखा, आदि के समय सम्भवत: इन गोदामों से स्थानीय लोगों को सहायता दी जाती थी। ऐसा लगता है कि, मोर एवं अर्द्धचन्द्रकार पहाड़ी के प्रतीक का बना पंच-चिसित चाँदी का सिक्का मौर्यों की शाही मुद्रा थी। इन्हें बड़ी संख्या में खोजा गया है। ताम्बे के सिक्के भी पंच-चिलित थे। पंच-चिह्नित चाँदी और ताम्बे के सिक्कों के अलावा, साँचे में ढले ताम्बे
के सिक्के और डाई-स्ट्रक सिक्के भी जारी किए गए। निःसन्देह, विभिन्न प्रकार के सिक्कों ने कर-संग्रह और अधिकारियों को नकद भुगतान करने में सहायता की। इसके अलावा, मुद्रा की एकरूपता ने व्यापक क्षेत्रों में बाजार विनिमय में सहायता प्रदान की। साम्राज्य शब्द का इस्तेमाल मगध राजाओं द्वारा विजित क्षेत्रों के लिए किया जाता है, लेकिन यह पूर्व-औद्योगिक साम्राज्य औद्योगिक काल के औपनिवेशिक साम्राज्य से अलग था।
पूर्व-औद्योगिक साम्राज्य अनिवार्य रूप से करों और नजरानों पर आधारित था। पूर्व- औद्योगिक शासकों ने सीधे अपने नियन्त्रण वाले सीमित क्षेत्रों से कर एकत्र किया साथ ही उन दूरस्थ शासकों से भी नजराना लिया, जो राजा का आधिपत्य स्वीकारते थे। औद्योगिक युग के औपनिवेशिक साम्राज्यों में, शासक विभिन्न सामग्रियों के निर्माण के लिए अपने उपनिवेश से कच्चे माल का अधिग्रहण करते और उन्हें ही बेचते थे। इस प्रकार, कपास यूरोप के लिए लगभग अज्ञात था और भारतीय वस्त्र ब्रिटेन में बेचे जाते थे। हालाँकि, अपने शासन की स्थापना के साथ ही, ब्रिटिश ने भारत से भारी मात्रा में कपास का आयात किया और ऊनी कपड़े के अलावा भारत में सूती कपड़े बेचे। इस सन्दर्भ में पूर्ववर्ती साम्राज्य ब्रिटिश साम्राज्य से काफी भिन्न थे।
कला और वास्तुकला
मौर्यों ने कला और वास्तुकला में उल्लेखनीय योगदान दिया और बड़े पैमाने पर पत्थरों के भवन निर्माण की भी शुरुआत की। मेगस्थनीज लिखते हैं कि पाटलिपुत्र में मौर्य महल ईरान की राजधानी के महल की तरह शानदार थे। पत्थर के खम्भों और उनके टुकड़ों के साक्ष्य से आधुनिक पटना के सीमावर्ती क्षेत्र कुम्हरार में मिले हैं। ये एक 84-स्तम्भों वाले हॉल के अस्तित्व का संकेत देते हैं। यद्यपि इन अवशेषों में मेगस्थनीज द्वारा उल्लिखित भव्यता नहीं दिखती, वे मौर्य कारीगरों द्वारा पत्थर के खम्भों को चमकाने वाले उच्च तकनीकी कौशल की पुष्टि अवश्य करते हैं, जो उत्तरी पॉलिशवाले काले वर्तन (NBPW) के जैसे
ही चमकीले हैं। खदानों से पत्थर के विशाल टुकड़ों को परिवहन से लाना और उन्हें निर्मिति के बाद उन्हें पॉलिश करना और सुंदर बनाना बहुत ही मुश्किल काम था। यह पूरी कारीगरी की प्रक्रिया एक शानदार इंजीनियरिंग को दर्शाती है। प्रत्येक स्तम्भ काले रंग के बलुआ पत्थर से बना था। उनके खम्भों के शीर्ष पर शेर या बैल की मूर्ति कला के सुन्दर नमूने हैं।
ये पॉलिश किए हुए स्तम्भ देश भर में लगाए गए। इससे यह भी पता चलता है कि इनको चमकाने की कला का तकनीकी ज्ञान और इन्हें ढो कर ले जाना पूरे देश में फैला हुआ था। इससे यह भी पता चलता है कि परिवहन और संचार की व्यवस्था बहुत दूर तक फैल चुकी थी। मौर्य कारीगरों ने, बौद्ध भिक्षुओं के रहने के लिए चट्टानों को काट कर गुफा बनाने की भी शुरुआत की। सबसे पहला उदाहरण, गया से 30 किलोमीटर की दूरी पर बरबर की गुफा है। बाद में, गुफा वास्तुकला का यह रूप पश्चिमी और दक्षिणी भारत में भी फैला। ई.पू. 300 के आस-पास उत्तर काले पॉलिश वाले मृदभांड या बर्तन (NBPW) काल के मध्य में, मध्य गंगा का मैदान, मिट्टी की मूर्ति बनाने वाली कला का केन्द्र बन गया। मौर्य काल में मिट्टी की मूर्ति बड़े पैमाने पर तैयार की जाती थी। ये सामान्यत: जानवरों और महिलाओं के प्रतीक थे। महिलाओं में देवियाँ और जानवरों में हाथी की मूर्तिया हुआ करती थी। इन मूर्तियों को हाथ से तैयार किया गया था। सांचे से मूर्ति का बनाया जाना बाद में शुरू हुआ। दीदारगंज (पटना) में पाई गई सुन्दर स्त्री के रूप में यक्षिणी की पाषाण प्रतिमा को मौर्य पॉलिश के लिए जाना जाता है।
भौतिक संस्कृति का प्रसार और राज्य व्यवस्था
मौर्यों ने पहली बार एक सुव्यवस्थित राज्य मशीनरी बनाई, जो साम्राज्य के केन्द्र से संचालित होती थी। उनके साम्राज्य विस्तार ने व्यापार और धर्म प्रचार के द्वार खोल दिए। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रशासकों, व्यापारियों और जैन एवं बौद्ध भिक्षुओं ने साम्राज्य के दूर-दराज स्थित क्षेत्रों में भी गंगा घाटी की भौतिक संस्कृति का प्रसार किया। गंगा घाटी की नई भौतिक संस्कृति, लोहे के व्यापक इस्तेमाल, लेखन की व्यापकता, पंच-चिह्नित सिक्के, उत्तरी काली पॉलिश वाले बर्तन नामक सुन्दर मिट्टी के बर्तनों की बहुतायत, पकी ईंटों और कुओं के प्रारम्भ और अन्ततः उत्तर-पूर्वी भारत में नगरों कस्बों के अस्तित्व पर आधारित थी। अर्रियन नामक एक यूनानी लेखक का कहना है कि नगरों की बहुलता के कारण इनकी संख्या को सही-सही बता पाना सम्भव नहीं है। इस प्रकार, मौर्य काल में गंगा के मैदानों में भौतिक संस्कृति का तेजी से विकास हुआ। दक्षिण बिहार के समृद्ध
लौह अयस्कों तक पहुँच के कारण लोगों ने इसका भरपूर इस्तेमाल किया। कुल्हाड़ी, कुदाल, फावड़ा, हँसिया और हल इस काल के सबूत हैं। इसके अलावा, लोहे के औजार, स्पोक वाला पहिया भी इस्तेमाल होता था। भले ही अस्त्र और शस्त्र पर मौर्य
राज्य का एकाधिकार था, किन्तु लोहे के अन्य उपकरणों का उपयोग किसी भी वर्ग के लिए सीमित नहीं था। उनका उपयोग और निर्माण गंगा घाटी से साम्राज्य के दूर-दराज के हिस्सों तक फैला।
मौर्य काल के अन्त में, सबसे पहले पकी ईंटों का उपयोग उत्तर-पूर्वी भारत में किया गया। पकी ईंटों से निर्मित मौर्य संरचनाएँ बिहार और उत्तर प्रदेश में पाए गई हैं। घर ईंटों के बने थे और प्राचीन काल में घने जंगलों के कारण लकड़ी भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। मेगस्थनीज मौर्य राजधानी पाटलिपुत्र में लकड़ी की संरचना का उल्लेख करते हैं। खुदाई से पता चलता है कि लकड़ी के टुकड़ों को बाढ़ और आक्रमण से रक्षा के लिए एक महत्त्वपूर्ण रक्षक के रूप में उपयोग किया जाता था। पकी हुई ईंटों का उपयोग साम्राज्य के बाहरी प्रान्तों में फैल गया। नम जलवायु और भारी वर्षा के कारण, सूखे क्षेत्रों की तरह, मिट्टी या मिट्टी की ईंटों से बनी बड़ी और टिकाऊ संरचना सम्भव नहीं थी। इसलिए, पकी ईंटों के उपयोग का प्रसार महान वरदान साबित हुआ,
अन्तत: साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में नगरों का विकास हुआ। इसी तरह, सबसे पहले मौर्य साम्राज्य के अधीन गंगा के मैदानों में निर्मित गोल कुएँ, साम्राज्य के बाहर भी प्रचलित हुए। चूँकि लोगों के घरेलू कार्यों के लिए उपयुक्त पानी की आपूर्ति कुएँ से होने
लगी, इसलिए बाद के समय में नदियों के किनारे बस्तियों का निर्माण आवश्यक नहीं रहा। सघन बस्तियों में कुएँ सोख्ते-गड्ढे के रूप में काम आते थे।
ऐसा लगता है कि मध्य गंगा की भौतिक संस्कृति के प्रमुख तत्त्व थोड़े बहुत बदलाव के साथ उत्तरी बंगाल, कलिंग, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक तक पहुँचे लेकिन, इन क्षेत्रों की स्थानीय संस्कृति भी स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई। बांग्लादेश के बोगरा जिले में महास्थान अभिलेख, मौर्य ब्राह्मी लिपि में पाया गया है। वहीं पश्चिम बंगाल के दिनाजपुर जिले के बनगढ़ में उत्तरी काले मृदभांड (NBPW) मिले हैं और 24 परगना में चन्द्रकेतुगढ़ में टुकड़े पाए गए हैं। उड़ीसा के शिशुपालगढ़ में भी गंगा घाटी के साथ सम्बन्ध होने के लक्षण दिखाई देते हैं। शिशुपालगढ़ की बसावट ई.पू. तीसरी शताब्दी के मौर्य काल से सम्बद्ध है।
यहाँ NBPW, लोहे के औजार और पंच-चिलित सिक्के मिलते हैं। शिशुपालगढ़ चूँकि धौली और जौगाड़ा के निकट है, जहाँ भारत के पूर्वी तट से जाते हुए प्राचीन राजमार्ग पर अशोक के अभिलेख पाए गए हैं, सम्भव है कि इस क्षेत्र में भौतिक संस्कृति मगध के सम्पर्क के परिणाम के रूप में पहुँची होगी। यह सम्पर्क ई.पू. चौथी शताब्दी में शुरू हुआ होगा, जब कलिंग पर नन्दों के विजय की चर्चा है, लेकिन ई.पू. तीसरी शताब्दी में कलिंग की विजय के बाद यह और गहरा हुआ। सम्भव है कि कलिंग युद्ध के बाद शान्ति के लिए, अशोक ने उड़ीसा में कुछ बस्तियों को बढ़ावा दिया हो, जिसे उनके साम्राज्य में शामिल कर लिया गया हो।
यद्यपि मौर्य काल में आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में कई स्थानों पर लोहे के औजार एवं अन्य सामग्री मिली है। उस इलाके में लोहे की इस विकसित तकनीक में मेगालिथ बिल्डरों का योगदान था, जो गोलाकार पत्थरों की विशाल समाधियाँ (दफनाने की जगह) बनाने के लिए जाने जाते थे। इन जगहों पर अशोक के कुछ अभिलेख और ई.पू. तीसरी शताब्दी के पॉलिशदार मृदभांड के टुकड़े (NBPW) भी मिले हैं। उदाहरण के लिए, अमरावती और आन्ध्र में तीन स्थलों पर और कर्नाटक में नौ स्थलों पर अशोक के अभिलेख पाए गए हैं। इसलिए, ऐसा लगता है कि मौयों के सम्पर्क से, भौतिक संस्कृति के तत्व, पूर्वी तट से, भारत के कुछ हिस्सों में इस्पात बनाने की कला मौर्य सम्पका के कारण फैली। ई.५, 200 के आस-पास से सम्बन्धित या इससे पहले की इस्पात वस्तुएँ मध्य गंगा के मैदानी इलाकों में पाई गई है। इस्पात के विस्तार से जंगल की सफाई हुई और कलिंग में खेती के बेहतर तरीकों का उपयोग हुआ और उस क्षेत्र में चेति साम्राज्य के उदय की परिस्थितियाँ निर्मित हुई। यद्यपि ई.पू. पहली शताब्दी में दक्कन में सातवाहन के शासन का उदय हुआ, उनके साम्राज्य का स्वरूप मीयों के जैसा ही था। सातवहनों ने मौयों के कुछ प्रशासनिक तरीकों को अपनाया और उन्होंने प्राकृत में अभिलेख भी जारी किए।
ऐसा प्रतीत होता है कि मौयों से ही इस प्रायद्वीपीय भारत में राज्य निर्माण की प्रेरणा न केवल चेतियों और सातवाहनों को बल्कि चेरों (केरल पुत्रों), चोलों और पाण्डयों को भी मिली। अशोक के अभिलेखों के अनुसार चेरि, चोल और पाण्ड्य व सतिपुत या श्रीलंका के लोग मौर्य साम्राज्य की सीमाओं पर ही रहते थे। इसलिए, वे मौर्य राज्य से परिचित थे।
मौर्य की राजधानी में रहने आए मेगस्थनीज को पाण्ड्यों के बारे में पता था। अशोक ने खुद को ‘देव प्रिय’ कहा था। इस उपाधि का तमिल अनुवाद संगम साहित्य में मिलता है जिसे वहां के प्रमुखों या राजाओं द्वारा अपनाया गया। ई.पू. तीसरी शताब्दी से बांग्लादेश, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक के कुछ हिस्सों में अभिलेख, व कुछ उत्तरी काले पॉलिश वाले बर्तन (NBPW) के टुकड़े और पंच-चिहनों के मिलने से यह संकेत मिलता है कि मौर्य काल के दौरान मध्य गंगा घाटी की संस्कृति के तत्त्वों को दूर-दराज के इलाकों में फैलाने के प्रयास किए गए थे। यह प्रक्रिया कौटिल्य के निर्देशों के अनुरूप है। कौटिल्य ने सलाह दी कि किसानों, जो कि वैश्य थे; और शूद्र मजदूरों, जिनका ताल्लुक अति-जनसंख्या वाले क्षेत्रों से था उनकी सहायता से नए बस्तियों की स्थापना की जानी चाहिए। नई जमीन पर खेती के लिए नए किसानों को मवेशियों, बीज और धन के साथ कर में छूट दी गई। राज्य ने ऐसा इस उम्मीद के साथ किया था कि इसका प्रतिफल उसे मिलेगा। ऐसे इलाकों में, जहाँ लोग लोहे के उपयोग से परिचित नहीं थे, ऐसे लोगों की आवश्यकता थी और इस नीति से खेती और बस्तियों का विस्तार हुआ। यह कहना थोड़ा मुश्किल है कि पूरब में झारखण्ड और पश्चिम में विन्ध्य के बीच फैले मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में भौतिक संस्कृति को प्रसारित करने में मौर्यों के नगर कितने सहायक हुए। हालाँकि यह स्पष्ट है कि जनजातीय लोगों के साथ अशोक ने एक नजदीकी सम्बन्ध बनाए और उन्हें धर्म का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया। अशोक द्वारा नियुक्त धम्ममहामात्रों के साथ उनके सम्पर्क ने गंगा घाटी में प्रचलित संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्तों को आत्मसात करने में सक्षम अवश्य बनाया होगा। इस अर्थ में अशोक ने संस्कृतिकरण की सोची-समझी और व्यवस्थित नीति की शुरुआत की। वे मानते थे कि धम्म के प्रसार के परिणामस्वरूप, मनुष्य का ईश्वर से मिलन होगा। इसका मतलब था कि इससे जनजातीय एवं अन्य लोग एक स्थायी, करदाता किसान समाज के रीति और नियम को अपनाएंगे और उनमें पितृसत्तात्मकता, शाही सत्ता, भिक्षुओं, पुजारियों एवं इन अधिकारों
को लागू करने में सहायक अधिकारियों के प्रति सम्मान भाव विकसित होगा। उनकी नीति सफल रही। अशोक के अनुसार शिकारी और मछुआरे हत्या का मार्ग त्याग कर धम्म अपना चुके हैं, जिसका अर्थ था कि वे स्थायी कृषि जीवन जीने लगे हैं।
मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण
मौर्य साम्राज्य, जो कई विजयी युद्धों से गुजरते हुए कलिंग विजय तक पहुँचा। जिसने अपने साम्राज्य का इतना विस्तार किया, ई.पू. 232 में अशोक का शासन खत्म होते ही विघटित होने लगा। मौर्य साम्राज्य की गिरावट और पतन के कई कारण सामने आए हैं।
ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया
ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया अशोक की नीति की परिणाम था। इसमें सन्देह नहीं कि अशोक ने एक सहिष्णु नीति अपनाई और लोगों से कहा कि वे ब्राह्मणों का सम्मान करें, लेकिन उन्होंने इस आदेश को प्राकृत में जारी किया; संस्कृत में नहीं। उन्होंने पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया और महिलाओं द्वारा मनाए जाने वाले अनुष्ठानों की निन्दा की। अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के बलि-विरोध के अनुपालन ने ब्राह्मणों की आय को प्रभावित किया। ग्रामीण इलाकों को नियन्त्रित करने और वहाँ व्यवहारसमता और दण्डसमता लागू करने के लिए राजुकों को नियुक्त किया गया। इसका तात्पर्य था कि सभी वर्गों के लिए समान अपराध के लिए समान दण्ड। लेकिन ब्राह्मणों द्वारा संकलित धर्मशास्त्रों में वर्ण के आधार पर इसमे काफी भेदभाव था। जाहिर है कि अशोक की नीति ने ब्राह्मणों को क्रोधित किया।
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद कुछ अन्य साम्राज्य पर ब्राह्मणों ने शासन किया। शुंग और कण्व, जिन्होंने मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद मध्य प्रदेश और पूर्व की ओर शासन किया, ब्राह्मण थे। इसी तरह, सातवाहनों ने, जिसने पश्चिमी दक्कन और आन्ध्र में साम्राज्यों की स्थापना की, ब्राह्मण होने का दावा करते थे। इन ब्राह्मण राजवंशों ने वैदिक यज्ञ को पुनः प्रारम्भ किया जो अशोक द्वारा उपेक्षित कर दिया गया था।
वित्तीय संकट
सेना और नौकरशाही पर भारी खर्च और भुगतान ने मौर्य साम्राज्य के लिए वित्तीय संकट पैदा किया। जहाँ तक हम जानते हैं, प्राचीन समय में मौर्य के पास सबसे बड़ी सेना और अधिकारियों का सबसे बड़ा संगठन था। लोगों पर विभिन्न करों के लागू करने के बावजूद, इस विशाल संरचना को बनाए रखना मुश्किल था। ऐसा लगता है कि अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं को बहुत दान दिए, जिसका असर शाही खजाने पर पड़ा। अन्त में, इन खचों के निर्वहन के
लिए, वे सोने की मूर्तियों को पिघलाने के लिए बाध्य हुए।
दमनकारी नियम
साम्राज्य के विखण्डन का मूल कारण प्रान्तों में दमनकारी नियम थे। बिन्दुसार के शासनकाल में, तक्षशिला के नागरिकों ने दुष्ट नौकरशाहों (दुष्टमात्यों) के कुशासन के खिलाफ कटुतापूर्ण शिकायत की। अशोक की नियुक्तियों से उनकी शिकायतों का निवारण किया गया, लेकिन जब खुद अशोक राजा बने तब भी नगर के नागरिकों की यही शिकायत थी। कलिंग के अभिलेखों के आदेशों से पता चलता है कि अशोक प्रान्तों में हो रहे उत्पीड़न से ज्यादा चिन्तित थे और इसलिए महामात्रों को नागरिकों पर बेवजह अत्याचार करने को मना किया। इसके लिए उन्होंने तोसली (कलिंग) में, उज्जैन और तक्षशिला में अधिकारियों के फेरबदल की प्रक्रिया शुरू की। उन्होंने स्वयं 256 रातें तीर्थ में गुजारीं, जिससे प्रशासनिक पर्यवेक्षण में सहायता मिली। हालाँकि, इन सबके बावजूद वे सुदूर प्रान्तों में उत्पीड़न रोकने में विफल रहे और अशोक की सेवानिवृत्ति के बाद, सबसे पहले इस साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के अवसर का लाभ तक्षशिला ने उठाया।
दूर-दराज के क्षेत्रों में नए ज्ञान की पहुँच
हम जानते हैं कि मगध का विस्तार, इसकी मूलभूत भौतिक उत्कृष्टताओं और बुनियादी सुविधाओं के कारण हुआ। एक बार जब इन सांस्कृतिक तत्त्वों के उपयोग का ज्ञान-प्रसार मध्य भारत, दक्कन एवं कलिंग तक पहुंच गया मगध साम्राज्य के केन्द्र जो कि गंगा का मैदान था उसकी महत्ता और वर्चस्व घटने लगा। सुदूर प्रान्तों में लोहे के औजारों एवं हथियारों के नियमित उपयोग जैसे-जैसे बढ़ता गया मौर्य साम्राज्य का पतन होता गया। मगध से प्राप्त भौतिक संस्कृति के आधार पर, नए राज्य स्थापित और विकसित होते गए। मध्य भारत में शुंग और कण्व, कलिंग में चेति और दक्कन में सातवाहनों के उदय को समझने
के लिए इस संकेत के जरिए स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है।
उत्तर-पश्चिम सीमा की उपेक्षा और चीन की महान दीवार
चूँकि अशोक मुख्यत: देश और विदेश में धर्म प्रचार में व्यस्त रहते थे, वे उत्तर-पश्चिमी सीमा की तरफ दरों की सुरक्षा पर ध्यान देने में असमर्थ थे। ई.पू. तीसरी शताब्दी में मध्य एशिया के कबीलों की जो गतिविधियां थी उसके मद्देनजर यह जरूरी था कि दर्रे पर ध्यान दिया जाए। सिथियन निरन्तर बढ़ रहे थे। खानाबदोश लोग, मुख्यत: घोड़े के उपयोग पर आश्रित थे, वे चीन और भारत में स्थापित साम्राज्य के लिए खतरे की घण्टी थे। चीनी शासक सिं हुआंग ती (ई.पू. 247-10) ने ई.पू. 220 में सिथियन के आक्रमण से बचने के लिए चीन की महान दीवार का निर्माण किया, लेकिन अशोक ने ऐसा कुछ नहीं किया। जाहिर है, जब सीथियन भारत की ओर बढ़ने लगे, उन्होंने पार्थियन, शक और यूनान को इस उपमहाद्वीप की तरफ बढ़ने पर मजबूर कर दिया। यूनानियों ने उत्तर अफगानिस्तान में एक राज्य स्थापित किया था। जिसे बैक्ट्रिया कहा जाता था। उन्होंने सबसे पहले ई.पू.
206 में भारत पर आक्रमण किया। इसके बाद कई आक्रमण हुए जो इस्वी सन् तक चले।
अन्ततः ई.पू. 185 में, पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य साम्राज्य को पूरी तरह बर्बाद कर दिया। वे बेशक ब्राह्मण थे, पर मौर्य साम्राज्य के अन्तिम शासक बृहद्रथ के सेनापति थे। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जनता के बीच बृहद्रथ की हत्या कर, जबरन पाटलिपुत्र के सिंहासन पर कब्जा कर लिया। शुंगों ने पाटलिपुत्र और मध्य भारत में शासन किया। उन्होंने ब्राह्मणवादी जीवन शैली को पुनर्जीवित करने के लिए कई वैदिक यज्ञ किए। कहा जाता है कि उन्होंने बौद्धों का कत्ले आम कर दिया। उनके बाद कण्व आए, वे भी ब्राह्मण थे।