मध्यकालीन भारत

भारत और विश्व | India and world

भारत और विश्व | India and world

भारत और विश्व

भारत और विश्व में आठवीं से अठारहवीं सदी तक के एक हज़ार वर्षों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए। यूरोप और एशिया में भी नई सामाजिक और राजनीतिक संरचनाएँ पैदा हुई। इन नई संरचनाओं ने लोगों के सोचने और जीने के ढंग पर गहरा प्रभाव डाला। इन परिवर्तनों का प्रभाव भारत पर भी पड़ा क्योंकि भूमध्य सागर के इर्द-गिर्द के देशों तथा इस क्षेत्र में पैदा होनेवाले विशाल साम्राज्यों के साथ, जिनमें रोमन और फ़ारसी साम्राज्य भी शामिल थे, भारत के बहुत पुराने व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे।

यूरोप

यूरोप में छठी सदी की तीसरी चौथाई तक शक्तिशाली रोमन साम्राज्य, जिसने यूरोप और भूमध्यसागरीय क्षेत्र को एक किया था, दो भागों में बँट चुका था। पश्चिमी भाग को, जिसकी राजधानी रोम थी, रूस और जर्मनी की तरफ से आनेवाले स्लाव और जर्मन कबीलों ने रौंद डाला। ये कबीले अनेक खेपों में आए तथा पुराने रोमन साम्राज्य के इलाकों को तहस-नहस करने और लूटने में इन्होंने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। लेकिन आगे चलकर ये कबीले यूरोप के विभिन्न भागों में बस गए जिससे वहाँ की आबादी के चरित्र तथा भाषा और शासन के ढरों में गंभीर परिवर्तन आए।
आधुनिक यूरोपीय राष्ट्रों में से अनेक की बुनियाद स्थानीय जनता के साथ इन कबीलों के मिश्रण के कारण इसी काल में पड़ी।
प्राचीन रोमन साम्राज्य के पूर्वी भाग की राजधानी बैजंतीन या कुस्तुंतुनिया में थी। इस साम्राज्य को बैजंतीनी साम्राज्य कहा जाता था। इसमें पूर्वी यूरोप का अधिकांश भाग तथा साथ ही आधुनिक तुर्की, सीरिया और मिस्र समेत उत्तरी अफ्रीका शामिल थे। इसने रोमन साम्राज्य की अनेक परंपराओं को जारी रखा, जैसे एक शक्तिशाली राजतंत्र और अत्यंत केंद्रीकृत प्रशासन को। लेकिन धार्मिक विश्वास और कर्मकांडों में पश्चिम के कैथलिक चर्च से, जिसका मुख्यालय रोम में था, इसके अनेक मतभेद थे। पूर्व के चर्च को यूनानी आर्थोडाक्स चर्च कहा जाता था।
रूस ने यूनानी आर्थोडाक्स चर्च और बैजंतीनी शासकों के प्रयासों के कारण ही ईसाइयत को अपनाया। बैजंतीनी साम्राज्य एक विशाल और फलता-फूलता साम्राज्य था, जिसने पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के बाद भी एशिया के साथ व्यापार जारी रखा। उसने शासन और संस्कृति की जो परंपराएँ पैदा की उनमें से अधिकांश को बाद में अरबों ने तब अपनाया जब उन्होंने सीरिया और मिस्र को जीत लिया।
आगे चलकर पश्चिम में यूनानी ज्ञान-विज्ञान के पुनरुत्थान में सहायता पहुंचाई। आखिर पंद्रहवीं सदी के मध्य में जब कुस्तुतुनिया को तुर्कों ने जीत लिया तो इसका पतन हो गया। पश्चिम में रोमन साम्राज्य के पतन के सदियों बाद तक पश्चिमी यूरोप में बड़े
नगरों का लगभग कोई पता नहीं था तथा विदेशी और घरेलू व्यापार को भारी धक्का  लगा। इसका एक कारण सोने का अभाव था, रोम वाले सोना अफ्रीका से पाते। और पूरब के साथ व्यापार के लिए उसका उपयोग करते थे। इतिहासकार एक लंब समय से छठी से दसवीं सदी तक के काल को ‘अंधकार युग’ कहते आए हैं। यह कृषि के प्रसार का काल भी था जिसने दसवीं सदी के बाद नगरीय जीवन के पुनरुत्थान और विदेशी व्यापार की वृद्धि का रास्ता तैयार किया। बारहवीं और चौदहवीं सदी के बीच पश्चिमी यूरोप एक बार फिर समृद्ध हो गया। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की वृद्धि, नगरों का प्रसार, तथा इटली के पदुआ और मोलान जैसे अनेक नगरों में विश्वविद्यालयों की स्थापना इस काल की उल्लेखनीय विशेषताएँ थीं। इन विश्वविद्यालयों ने उन नए ज्ञान-विज्ञान और नए विचारों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिन्होंने धीरे-धीरे पुनर्जागरण को तथा एक नए यूरोप को
जन्म दिया

फ्यूडलिज्म का उदय

रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद पश्चिमी यूरोप में एक नए प्रकार के समाज और नई शासन व्यवस्था का जन्म हुआ। धीरे-धीरे विकसित होने वाली इस नई व्यवस्था का फ्यूडलिज्म कहते हैं। फ्यूडलिज्म लैटिन शब्द फ्यूडम से व्युत्पन्न हुआ है जिसका अंग्रेजी अनुवाद फ़ीफ़ (fief) होता है। इस समाज में सबसे शक्तिशाली वे सरदार थे जो अपने सैनिक अनुयायियों के बल पर बड़े-बड़े इलाकों पर हावी थे और शासन में भी अहम भूमिका निभाते थे। राजा एक अधिक शक्तिशाली सामंत जैसा ही होता था। कालांतर में राजतंत्र और मज़बूत हुआ और सरदारों की शक्ति पर अंकुश लगाने का प्रयत्न किया गया जो बराबर आपस में लड़ते रहते थे जिससे सामाजिक अराजकता की स्थिति पैदा होती थी। इसे नियंत्रित करने का एक ढंग यह था कि राजा सरदारों को अपना वेसेल (vassal) या अधीनस्थ बनाकर उनसे अपने प्रति निष्ठा की शपथ लेता था और बदले में उनके कब्जेवाले इलाकों को उनकी फ़ीफ़ के रूप में मान्यता देता था। फिर ये सरदार अपने वेसेल नियुक्त करते थे और अपनी फ़ीफ़ में से उन्हें एक भाग देते थे। सिद्धांत के स्तर पर राजा एक गद्दार वेसल की फ़ौफ़ पर कब्जा कर सकता था. लेकिन व्यवहार में ऐसा कम हो होता था। इस तरह फ्यूडल व्यवस्था में शासन पर एक भूस्वामी कुलीन वर्ग का वर्चस्व था। यह कुलीन वर्ग जल्द ही पैतृक बन गया और उसने हर कोशिश की कि कोई बाहरी व्यक्ति उसको कतार में न आ सके। पर यह कुलीन वर्ग कभी भी पूरी तरह बंद नहीं रहा क्योंकि गद्दार सरदार हटाए जाते थे तथा नए नियुक्त किए जाते थे या उभरकर सामने आते थे।
फ्यूडल व्यवस्था से दो और विशेषताएँ भी जुड़ी थीं। उनमें से एक विशेषता थी सर्फ़डम (serfdom) को। सर्फ ऐसा किसान होता था जो जमीन जोतता-बोता था पर अपने स्वामी या सरदार की आज्ञा के बिना अपना पेशा नहीं बदल सकता था. किसी
और इलाके में नहीं बस सकता था या शादी नहीं कर सकता था। इसो से मेनर (manor) को व्यवस्था भी जुड़ी थी। मेनर वह किला होता था या हवेलो होतो थो जहाँ लार्ड या स्वामी रहता था। अनेक यूरोपीय देशों में इन मेनरों के लार्ड बड़े-बड़े इलाकों के भी मालिक होते थे। भूमि के एक भाग को जुताई लार्ड सीधे अपनी निगरानी में अपने सफ़ों की सहायता से कराता था और ये सर्फ़ अपने खेतों के अलावा लार्ड के खेतों को जोतने-बोने के लिए बाध्य होते थे। सिद्धांत के स्तर पर भूमि लार्ड की होती थी तथा सर्फ़ उसे नकद या जिन्स के रूप में महसूल भी चुकाता था। कानून-व्यवस्था बनाए रखने, न्याय प्रदान करने आदि को जिम्मेदारी भी मेनर के लार्ड पर होती थी।
चूँकि उन दिनों काफ़ी अव्यवस्था फैली हुई थी, इसलिए कभी-कभी स्वतंत्र किसान भी सुरक्षा के बदले मेनर के लार्ड का वेसल
बनने को तैयार हो जाते थे। कुछ इतिहासकारों का मत है कि ‘सर्फ़डम’ प्रथा और मेनर व्यवस्था ‘फ्यूडलिज्म’ के अभिन्न अंग थे, और इसलिए जिन समाजों में इन दोनों का वजूद नहीं था उनमें ‘फ्यूडलिज्म’ की बात करना गलत है। लेकिन यूरोप के सभी भागों में मेनर थे भी नहीं। भारत में न सर्फ़डम प्रथा थी और न मेनर व्यवस्था। लेकिन स्थानीय भूस्वामी तत्त्व (सामंत) फ्यूडल सरदारों को अनेक शक्तियों का इस्तेमाल करते थे और किसान वर्ग उन पर निर्भर था। दूसरे शब्दों में, महत्त्व इसका नहीं है कि किसान औपचारिक दृष्टि से स्वतंत्र थे या नहीं थे. बल्कि इसका है कि वे किस ढंग से और किस सीमा तक अपनी स्वतंत्रता का उपयोग और उपभोग कर सकते थे। पश्चिमी यूरोप के अनेक देशों में चौदहवीं सदी के बाद मेनर व्यवस्था का और श्रम के रूप में महसूल चुकाने अर्थात लार्ड की भूमि को महसूल के रूप में मुफ्त जोतने-बोने की व्यवस्था का लोप हो गया।
यूरोप में सामंतवाद से जुड़ी एक और विशेषता सेना का संगठन थो। घोड़े पर  बैठा बख्तरबंद नाइट सामंती व्यवस्था का सबसे ज्वलंत प्रतीक था। वास्तव में यूरो में घुड़सवार युद्ध कला का आरंभ मोटे तौर पर आठवीं सदी से अधिक पीछे नहीं जाता। रोमन काल में लंबे बरछों और छोटी तलवारों से लैस बड़े-छोटे पैदल दस्तै सेना के प्रमुख अंग थे। घोड़ों का प्रयोग रथ खींचने के लिए किया जाता था जिनमें हाकिम सवारी करते थे। आम विश्वास है कि युद्ध की कला अरबों के आगमन साथ बदली।
अरबों के पास बड़ी तादाद में घोड़े थे तथा उनकी तेज़ गति और सवार तीरंदाजों ने पैदल सेना को बड़ी सीमा तक नाकाम बनाकर रख दिया। इस नइ युद्ध कला के लिए आवश्यक संगठन विकसित करने और बनाए रखने की समस्याओं ने यूरोप में सामंतवाद के विकास में मदद पहुंचाई। कोई भी राजा अपने संसाधनों के बल पर विशाल घुड़सवार सेना बनाए रखने तथा उसे हथियारों और साज-सामान से लैस करने की उम्मीद नहीं कर सकता था। इसलिए सेना का विकेंद्रीकरण किया गया तथा राजा की सहायता के लिए एक निर्धारित संख्या में घुड़सवार और पैदल सेना कायम रखने की जिम्मेदारी फ्यूडल लार्डों को सौंप दी गई।
दो आविष्कारों के कारण घुड़सवार युद्ध लड़ाई का प्रमुख रूप बना। ये आविष्कार थे तो काफ़ी पहले के, मगर इनका व्यापक उपयोग इसी काल में आरंभ हुआ। पहला आविष्कार लोहे की रकाब था। लोहे की रकाब के कारण हथियारों से पूरी तरह लैस सैनिक को तीर चलाते समय घोड़े की पीठ से गिरने का भय नहीं रहता था। उसके कारण सवार अपने शरीर से भाले को सटाकर हमला भी कर सकता था और उसके जवाबी आघात के कारण नीचे नहीं गिरता था। इससे पहले या तो लकड़ी की रकाब का प्रयोग किया जाता था या रस्सी के एक टुकड़े का जिसमें बस पाँव टिकाकर रखा जा सकता था। दूसरा आविष्कार था एक नए प्रकार की जीन का जिसके कारण घोड़ा पहले की अपेक्षा दोगुना बोझ लेकर चल सकता था। ऐसा माना जाता है कि ये दोनों आविष्कार पूरब से यूरोपं में पहुँचे, संभवत: चीन और कोरिया से। भारत में उनका प्रसार दसवीं सदी से शुरू हुआ।
इस तरह राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक, अनेक कारण यूरोप में फ्यूडलिज़म के विकास के लिए उत्तरदायी थे। ग्यारहवीं सदी के बाद जब और भी शक्तिशाली सरकारें सामने आईं, तब भी परंपरा इतनी जड़ पकड़ चुकी थी कि राजा फ्यूडल लार्डो की शक्ति को आसानी से कम नहीं कर सकता था।
इतिहासकार जिसे मध्यकाल कहते हैं उस काल में फ्यूडलिज्म के अलावा यूरोप में जीवन के ढर्रे को ईसाई चर्च ने भी निर्धारित किया। हम बैजंतीनी साम्राज्य और रूस में यूनानी आर्थोडाक्स चर्च की भूमिका का पहले ही हवाला दे चुके हैं। पश्चिम में एक शक्तिशाली साम्राज्य के अभाव में कैथलिक चर्च ने शासन के भी कुछ कार्यभार संभाल लिए। पोप, जो कैथलिक चर्च का प्रमुख था, एक धर्मगुरु ही नहीं रहा बल्कि ऐसा व्यक्ति बन गया जिसके पास काफ़ी कुछ राजनीतिक और नैतिक सत्ता भी थी। पश्चिम एशिया और भारत की तरह यूरोप में भी मध्यकालधर्म का काल था और जो धर्म का प्रवक्ता होता था उसके पास काफ़ी शक्ति और प्रभाव होता था। राजाओं और सामंत सरदारों से मिले भूदानों और धनी सौदागरों से प्राप्त दानों के बल पर अनेक मठ और विहार स्थापित किए गए। इनमें से फ्रांसिस्कन जैसे कुछ सिलसिले जरूरतमंदों और गरीबों के लिए कार्यरत थे। अनेक
मठ यात्रियों को चिकित्सा-सहायता या ठहरने की जगह देते थे। वे शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान के केंद्र का काम भी करते थे। इस प्रकार कैथलिक चर्च ने यूरोप के सांस्कृतिक जीवन में अहम भूमिका निभाई।
मगर कुछ मठ, जो अत्यंत धनी हो चुके थे, फ्यूडल लार्डों की तरह व्यवहार करने लगे। इससे आंतरिक कलह पैदा हुआ और उन शासकों के साथ ठनका टकराव होने लगा जो चर्च और पोपों की दुनियावी ताकत से चिढ़े हुए थे। आगे चलकर यह टकराव पुनर्जागरण और सुधार आंदोलनों में प्रतिबिंबित हुआ।

अरब दुनिया

सातवीं सदी के बाद इस्लाम के उदय ने पश्चिम एशिया और पड़ोसी क्षेत्रों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पक्षों पर गहरा प्रभाव डाला। एक प्रमुख तत्त्व आपस में लड़नेवाले अरब कबीलों का एकीकरण था जिसके फलस्वरूप एक शक्तिशाली साम्राज्य का जन्म हुआ। आरंभिक खलीफ़ों द्वारा स्थापित अरब साम्राज्य में अरब के आलावा सीरिया, ईराक, ईरान, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका और स्पेन शामिल थे। अरब कबीलों के अंदरूनी मतभेदों और गृहयुद्धों के कारण आठवीं सदी के
मध्य में दमिश्क में बैठा खलीफ़ा सत्ता खो बैठा और अब्बासी नाम का एक नया वंश सत्ता में आया। उसने नवस्थापित नगर बगदाद को अपनी राजधानी बनाया।
अब्बासी स्वयं को पैगंबर मुहम्मद साहब के कबीले से संबंधित होने का दावा करते थे। लगभग 150 वर्षों तक अब्बासी साम्राज्य दुनिया के सबसे शक्तिशाली और फलते-फूलते साम्राज्यों में से एक रहा। उसके चरमकाल में उस क्षेत्र की सभ्यता
के सभी केंद्र उसमें शामिल थे, जैसे उत्तरी अफ्रीका के भाग, मिस्र, सीरिया, ईरान और ईराक। अब्बासी खलीफ़ा पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के कुछ सबसे उपजाऊ देशों को ही नियंत्रित नहीं करते थे, बल्कि भूमध्यसागर क्षेत्र को भारत से जोड़ने वाले प्रमुख व्यापारिक मार्गों पर भी उनका नियंत्रण था। अब्बासियों ने इस क्षेत्र के व्यापारिक मार्गों को जो शांति और सुरक्षा प्रदान की, वह इस क्षेत्र की जनता की खुशहाली और अब्बासी दरबार की शानो-शौकत का एक महत्त्वपूर्ण कारण था।
अरब पक्के सौदागर थे तथा इस काल में वे जल्द ही सबसे उद्यमी और धनी सौदागरों और समुद्री यात्रियों के रूप में मशहूर हो गए। सार्वजनिक और निजी दोनों प्रकार की शानदार इमारतों वाले अनेक नगर उभरकर सामने आए। इस काल मेंअरब नगरों के जीवनस्तर और सांस्कृतिक वातावरण का दुनिया में कोई सानी नहीं था। अरबों ने सोने के दीनार और चाँदी के दिरहम भी चलाए जो पूरी दुनिया मे व्यापार को मुद्रा बन गए। यह सब अफ्रीकी सोने तक अरबों की पहुंच के कारण भारत संभव हुआ। अरबों ने दोहरी प्रविष्टियों वाले खातों का, उन्नत खातेदारी का तथा बड़े जिसे पैमाने पर लंबी-चौडी बैंकिग और ऋण व्यवस्था का आरंभ किया जिनमें विनिमय और के बीजक (हुडियाँ) भी शामिल थे।
सौन इस काल के सबसे मशहूर खलीफ़ा अल-मामून और हारून-अल-रशीद थी उनके दरबार और महल की शानो-शौकत तथा ज्ञान-विज्ञान में प्रवीण लोगों को उनसे मिलने वाला संरक्षण अनेक कथा-कहानियों के विषय बन गए। आरंभ में अरबों ने जिन प्राचीन सभ्यताओं को जीता था, उनके वैज्ञानिक ज्ञान और प्रशासनिक कौशल को आत्मसात करने की उन्होंने उल्लेखनीय क्षमता दिखाई। प्रशासन चलाने के लिए ईसाई व यहूदी जैसे गैर-मुसलमानों को तथा गैर-अरबों को भी नियुक्त करने में उन्हें कोई हिचक नहीं थी, खासकर ईरानियों को, जिनमें से अनेक पारसी थे, और बौद्ध भी। हालाँकि अब्बासी खलीफ़ा रूढ़िवादी मुसलमान थे, पर उन्होंने सभी दिशाओं में ज्ञान के दरवाजे खोल दिए, बशर्ते वह ज्ञान इस्लाम के बुनियादी तत्त्वों को चुनौती न दे। खलीफ़ा अल-मामून ने यूनानी, बैजंतीनी, ईरानी और भारतीय, विभिन्न सभ्यताओं के ज्ञानग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद कराने के लिए बगदाद में एक बैत- -उल-हिकमत (ज्ञान गृह) की स्थापना की। खलीफ़ों की कायम की हुई मिसाल को कुलीनों ने भी अपनाया। बहुत कम समय में विभिन्न देशों के सभी महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक ग्रंथ अरबी में उपलब्ध हो गए। यूरोपीय विद्वानों के एक समर्पित दल द्वारा हाल में किए गए अध्ययनों के फलस्वरूप अरबों पर यूनानी विज्ञान और दर्शनशास्त्र के प्रभाव के बारे में आज हम बहुत कुछ जानते हैं।
हमें अब अरब दुनिया पर चीनी विज्ञान और दर्शनशास्त्र के प्रभाव का भी बेहतर ज्ञान है। कंपस, कागज, छपाई, बारूद यहाँ तक कि मामूली-सी इकपहिया ठेलागाड़ी भी इस काल में चीन से अरबों के माध्यम से ही यूरोप तक पहुँची। वेनिस के मशहूर यात्री मार्को पोलो ने चीन के बारे में और अधिक जानकारी हासिल करने तथा चीन-यूरोप व्यापार पर अरबों के एकाधिकार को तोड़ने के लिए ही चीन की यात्रा की थी। दुर्भाग्य से इस काल में अरब दुनिया के साथ भारत के आर्थिक एवं सांस्कृतिक संबंधों के बारे में तथा अरब दुनिया को भारत की वैज्ञानिक देन के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है। आठवीं सदी में अरबों द्वारा जीते जाने के बाद सिंध भारत और अरब दुनिया के बीच वैज्ञानिक-सांस्कृतिक संबंधों का माध्यम बन गया।
दशमलव प्रणाली, जो आधुनिक गणित का आधार है तथा जो भारत में पाँचवीं सदी में विकसित हुई थी, इसी काल में अरब दुनिया में पहुँची। नवीं सदी में अरब गणितज्ञ अलख्वारिज्मी ने इसे अरब दुनिया में लोकप्रिय बनाया। एबेलार नाम के एक भिक्षु के जरिए यह ज्ञान बारहवीं सदी में यूरोप में पहुंचा जहाँ उसे अरब अंक-प्रणाली के नाम से जाना गया। खगोलशास्त्र और गणित से संबंधित अनेक भारतीय ग्रंथों के अरबी अनुवाद हुए। खगोलशास्त्र की सुप्रसिद्ध रचना सूर्य-सिद्धांत, जिसे आर्यभट्ट ने संशोधित और परिष्कृत किया था, इन ग्रंथों में एक थी। चरक और सुश्रुत के आयुर्विज्ञान संबंधी ग्रंथों के भी अनुवाद हुए। भारतीय व्यापारी और सौदागर ईराक और ईरान के बाजारों में जाते रहे तथा बगदाद में खलीफ़ा के दरबार में भारतीय चिकित्सकों और उस्ताद कारीगरों का स्वागत किया जाता रहा।
संस्कृत के अनेक साहित्यिक ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया गया, जैसे कलील वा दिम्म्ना (पंचतंत्र), जो पश्चिम में ईसप की कथाएँ (Aesop’s Fables) का आधार बन गए। अरब दुनिया पर भारतीय विज्ञान और दर्शन का तथा बाद के काल में भारत
पर अरब विज्ञान के प्रभाव का विस्तृत अध्ययन इन दिनों जारी है। दसवीं सदी के आरंभ तक अरब इस स्थिति में पहुंच गए थे कि वे विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में स्वयं कोई योगदान कर सकें। इस काल में अरब दुनिया में ज्यामिती, बीजगणित, भूगोल, खगोलिकी, प्रकाशिकी, रसायन, चिकित्सा आदि के विकास ने उसे विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी बना दिया। अरब भूगोलशास्त्रियों की रचनाओं और मानचित्रों ने विश्व संबंधी ज्ञान को उन्नत बनाया। अरबों ने खुले समुद्र में यात्रा के लिए नए साधनों के विकास में भी मदद पहुँचाई। इन साधनों का पंद्रहवीं सदी तक उपयोग होता रहा। भारत और पड़ोसी देशों के बारे में अरब व्यापारियों के वृत्तांत हमारे लिए जानकारी के उपयोगी स्रोत हैं।
दुनिया के कुछ सबसे समृद्ध पुस्तकालय तथा प्रमुख वैज्ञानिक प्रयोगशाएँ अरब दुनिया में इसी काल में स्थापित की गई। पर यह याद रखना ज़रूरी है कि इनमें से अनेक उपलब्धियाँ अरब से बाहर, खुरासान, मिस्र, स्पेन आदि के लोगों द्वारा किए गए कार्यों का परिणाम थीं। इसे अरब विज्ञान इसलिए कहा गया कि इस पूरे क्षेत्र में अरबी ही साहित्य और चिंतन की भाषा थी। अरब दुनिया में विभिन्न देशों के लोग स्वतंत्र रूप से जहाँ चाहे आ-जा सकते थे, जहाँ चाहे काम कर सकते और बस सकते थे। वैज्ञानिकों और विद्वानों को प्राप्त उल्लेखनीय बौद्धिक और व्यक्तिगत स्वंतत्रता, और उनको प्राप्त संरक्षण भी, अरब विज्ञान एवं सभ्यता की उल्लेखनीय वृद्धि के महत्त्वपूर्ण कारण थे। ईसाई चर्च के कठोर रवैये के कारण यूरोप में उन दिनों ऐसी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं थी। भारत में भी शायद ऐसी ही स्थिति थी क्योंकि इस काल में अरब वैज्ञानिकों में से शायद ही कोई भारत में आया हो।  भारतीय विज्ञान के विकास की गति भी धीमी रही।
अंतत: इस क्षेत्र को प्रभावित करने वाले राजनीतिक और आर्थिक विकासक्रमों के कारण और उससे भी बढ़कर मुक्त चिंतन का गला घोंटने वाले रूढ़िवाद की वृद्धि के कारण बारहवीं सदी के बाद अरब ज्ञान-विज्ञान का पतन होने लगा। लेकिन स्पेन में चौदहवीं सदी तक इसका विकास जारी रहा।

अफ्रीका

अरबों ने हिंद महासागर, पश्चिम एशिया और भूमध्यसागर के व्यापार के साथ अफ्रीका के घनिष्ठतर संबंध कायम किए। अफ्रीका के पूर्वी तट के किनारे-किनारे मलिंदी और जंजीबार तक अरबों के प्रवास और व्यापारिक कार्यकलापों में वृद्धि हुई। लेकिन अरबों के व्यापार में बड़े पैमाने पर गुलामों का, तथा सोने हाथीदाँत आदि का निर्यात भी शामिल था। अफ्रीका में एक काफ़ी प्राचीन शक्तिशाली इथियोपिया का राज्य भी था जिसमें अनेक नगर थे। इथियोपिया वाले हिंद महासागर में अदन से लेकर भारत तक व्यापार करते थे। हब्शी कहलाने वाले ऐसे अनेक इथियोपियावासी ईसाई थे। हिंद महासागरीय व्यापार में वे बैजंतीनी साम्राज्य के घनिष्ठ सहयोगी थे। बैजंतीनी साम्राज्य के पतन के बाद उनकी आर्थिक स्थिति कमज़ोर हो गई

चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया

चीन के साथ भारत के प्राचीन काल से ही आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध थे-जल और थल दोनों के रास्ते। आठवीं और नवीं सदियों में तांग शासन के अधीन चीन का समाज और वहाँ की संस्कृति प्रगति के उच्च सोपान पर पहुंच चुकी थी। तांग शासकों की अधिराजी मध्य एशिया में सिनकियांग के बहुत बड़े-बड़े हिस्सों पर, जिनमें काशगर भी शामिल था, फैली हुई थी। इसके कारण जिसे ‘रेशम मार्ग’ कहते हैं, उससे होकर स्थलीय व्यापार को काफ़ी बढ़ावा मिला। इस रास्ते से रेशम ही नहीं, बल्कि उम्दा चीनी मिट्टी के बर्तन तथा कम कीमती रत्न पुखराज की बनी वस्तुएँ भी पश्चिम एशिया, यूरोप और भारत को निर्यात की जाती थीं।
चीन में विदेशी व्यापारियों का स्वागत होता था। उनमें से अनेक-अरब, फारसी, भारतीय-समुद्री मार्ग से दक्षिण चीन में आए और केंटन में बस गए। नवीं सदी के मध्य में तांग साम्राज्य का पतन हुआ तथा दसवीं सदी में उसे सुंग राजवंश ने विस्थापित कर दिया। सुंग राजवंश लगभग तीन सौ वर्षों तक चीन पर शासन करता रहा। आंरभिक सुंग काल, विशेषकर ग्यारहवीं सदी का काल, चीन में अत्यधिक आर्थिक प्रसार का काल था। इसी काल के दौरान बाद के अनेक यूरोपीय आविष्कारों के आद्यरूप सामने आए। दक्षिण-पूर्व एशिया, भारत और श्रीलंका के साथ चीन का समुद्रमार्गी व्यापार भी बढ़ा। आगे चलकर तेरहवीं सदी
में चीनी शासनतंत्र की बढती कमजोरी ने मंगोलों को चीन-विजय का अवसर दिया।
उन्होंने चीन में मौत और तबाही का तांडव किया। लेकिन अपने घोर अनुशासित और गतिशील घुड़सवार दस्तों के बल पर मंगोल पहली बार एक शासन के अतंर्गत उत्तर और दक्षिण चीन का एकीकरण करने में सफल रहे। कुछ समय तक उन्होंने
टॉकिन (उतर वियतनाम) और अनाम (दक्षिण विगतनाम) को भी अपने कब्जे में रखा। उत्तर में उन्होंने कोरिया को रौंद डाला। इस तरह मंगोलों ने पूर्वी एशिया में एक ऐसे विशाल साम्राज्य की स्थापना की जिसकी गिनती दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों
में होती थी।
वेनिस का यात्री मार्को पोलो कुछ समय तक चीन के मंगोल शासकों में सबसे अधिक विख्यात कुबलाई खान के दरबार में रहा था। उसने इस दरबार का एक जीता-जागता चित्र खींचा है। मार्को पोलो समुद्री मार्ग से इटली लौटा और रास्ते में उसने भारत में मालाबार को भी देखा। इस तरह संसार के विभिन्न भाग पहले से करीब आ रहे थे तथा उनके व्यापारिक और सांस्कृतिक संपर्क बढ़ रहे थे। दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों को कुछ चीनी शासकों की विस्तारवादी मुहिम का सामना करना पड़ा। तब तक चीन ने एक मज़बूत नौसेना तैयार कर ली थी। लेकिन दक्षिण-पूर्व एशिया के राज्य अधिकतर स्वतंत्र ही रहे। इस क्षेत्र में इस काल में पनपनेवाले दो सबसे शक्तिशाली राज्य शैलेंद्र और कंबुज साम्राज्य थे।
शैलेंद्र राजवंश आठवीं सदी में उभरा तथा उसने श्रीविजय साम्राज्य को काफ़ी हद तक विस्थापित कर दिया। शैलेंद्र साम्राज्य दसवीं सदी तक फलता-फूलता रहा। इस साम्राज्य के चरमकाल में इसमें सुमात्रा, जावा, मलय प्रायद्वीप, सियाम (आधुनिक थाईलैंड) के कुछ भाग शामिल थे, और तेज़ से तेज़ चलनेवाली नौका भी दो साल में इस विशाल साम्राज्य का चक्कर नहीं लगा सकती थी। शैलेंद्र शासकों के पास एक मज़बून नौसेना थी तथा चीन के साथ समुद्री व्यापार पर उनका वर्चस्व था। दक्षिण भारत के पल्लवों के पास भी एक शक्तिशाली नौसेना थी। पल्लव नौसेना विशेषकर बंगाल की खाड़ी में सक्रिय थी। दक्षिण-पूर्व के देशों और चीन के साथ समुद्री व्यापार इतना महत्त्वपूर्ण हो चला था कि दसवीं सदी में एक चोल शासक ने सुमात्रा और मलाया की ओर अनेक नौसैनिक अभियान रवाना किए ताकि संचार के समुद्री रास्तों को खुला रखा जा सके तथा व्यापार के नए अवसरों की तलाश की जा सके।
ईसवी संवत् की आरंभिक सदियों में, बल्कि उससे पहले भी, इस क्षेत्र के देशों के साथ भारत के घनिष्ठ व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे। अनेक चीनी और भारतीय व्यापारी इस साम्राज्य की राजधानी पलेमबंग जाते थे जो सुमात्रा में स्थित था। पलेमबंग और भी पहले से सस्कृत और बौद्ध अध्ययन का केंद्र बना हुआ था। इस काल में राजाओं ने यहाँ भव्य मंदिर बनवाए; इनमें सबसे प्रसिद्ध पूर्वी जावा का बोरोबुदूर मंदिर है जो बुद्ध को समर्पित है। यह एक मुकम्मल पहाड़ी है जिसे तराशकर नौ मंजिलें निकाली गई हैं और सबसे ऊपर एक स्तूप है। रामायण और महाभारत जैसे भारतीय महाकाव्यों के दृश्य इस मंदिर की पट्टिकाओं पर दिखाए गए हैं तथा ये साहित्य, लोक-कला, कठपुतली के खेलों आदि के लिए पसंदीदा विषय रहे हैं। शैलेंद्र शासक को ज़बाग का महाराज कहा जाता था जिसका अर्थ सुवर्णभूमि था।
कंबुज साम्राज्य कंबोडिया और अनाम (दक्षिण वियतनाम) में फैला हुआ था। कि उसने फूनान के हिंदू रंग में रंगे राज्य को विस्थापित किया था जिसका इस क्षेत्र में पहले वर्चस्व था। कंबुज साम्राज्य पंद्रहवीं सदी तक फलता-फूलता रहा तथा उसने
सांस्कृतिक विकास और समृद्धि का एक ऊँचा स्तर प्राप्त कर लिया था। कंबोडिया में अंकोरथोम के पास स्थित मंदिर-समूह को उसकी सबसे शानदार उपलब्धि माना जा सकता है। मंदिर निर्माण का सिलसिला दसवीं सदी में आरंभ हुआ। उसके बाद
हर राजा अपनी याद छोड़ने के लिए वहाँ एक नया मंदिर बनवाता रहा और इस तरह 3.2 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वहाँ 200 से अधिक मंदिर बन गए। इनमें से अंकोरवाट का मंदिर सबसे बड़ा है। इसमें तीन किलोमीटर लंबे बंद गलियारे हैं जिनमें देवी-देवताओं और अप्सराओं की सुंदर मूर्तियाँ हैं तथा कुशलता से तराशी गई ऐसी पट्टिकाएँ हैं जिन पर रामायण और महाभारत के दृश्य अंकित हैं।
1860 में एक फ्रांसीसी द्वारा की गई ‘खोज’ के पहले तक बाहरी दुनिया इमारतों के इस पूरे समूह को पूरी तरह भूल चुकी थी और वह अधिकतर जंगलों से ढंक चुका था। दिलचस्प बात यह है कि मंदिर-निर्माण का काल दसवीं से बारहवीं सदी तक तीव्रतम गति से चला जो भारत में भी मंदिर-निर्माण का सबसे शानदार काल था। मलय प्रायद्वीप के तवकल बंदरगाह से स्थल के रास्ते चीन सागर तक यात्रा करते हुए अनेक भारतीय व्यापारी दक्षिण चीन गए। दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और दक्षिण चीन में अनेक ब्राह्मण और आगे चलकर बौद्ध भिक्षु बस गए। बौद्ध धर्म चीन से चलकर कोरिया और जापान में पँहुचा। भारतीय भिक्षु कोरिया में गए और वहाँ उन्होंने एक कोरियाई लिपि के विकास को प्रभावित किया जो भारतीय लिपि से मिलती-जुलती थी। कालांतर में भारत में तो बौद्ध धर्म का ह्रास हो गया पर दक्षिण- पूर्व एशिया में वह फलता-फूलता रहा। वास्तव में वहाँ बौद्ध धर्म ने हिंदू देवी-देवताओं को आत्मसात किया, यहाँ तक कि उसने हिंदू मंदिरों को भी अपना लिया। यह उस समय भारत में हो रही घटनाओं का उलटा था।
इस तरह पश्चिम, दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन के साथ तथा मडागास्कर और अफ्रीका के पूर्वी तट के देशों के साथ भारत का घनिष्ठ व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध था। दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न देशों ने भारत, चीन तथा बाहरी दुनिया के बीच व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संपर्कों के लिए सेतु का काम किया। भारतीय सभ्यता और संस्कृति से गहराई से प्रभावित होते हुए भी दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों ने अपनी-अपनी विशिष्ट संस्कृति विकसित की जो उच्च स्तर की थी। अरब व्यापारी, जो पहले दक्षिण भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार करते थे, अब्बासी साम्राज्य की स्थापना के बाद और भी सक्रिय हो उठे। लेकिन अरबों ने भारतीय व्यापारियों और धर्मोपदेशकों को विस्थापित नहीं किया। आरंभिक चरण में उन्होंने इस क्षेत्र की जनता को मुसलमान बनाने का भी कोई विशेष प्रयास नहीं किया। इस तरह एक उल्लेखनीय सीमा तक धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता तथा विभिन्न संस्कृतियों का मिलन इन देशों की विशेषताएँ थीं, और उनमें ये विशेषताएँ आज तक बाकी हैं। सुमात्रा, जावा और मलाया ने इस्लाम को धीरे-धीरे अपनाया-भारत में इस्लाम की स्थिति के मज़बूत होने के बाद ही। दूसरी जगहों पर बौद्ध धर्म फलता-फूलता रहा। भारत और इन देशों के व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संपर्क तभी टूटे जब इंडोनेशिया में डचों, भारत, बर्मा और मलाया में अग्रेज़ों तथा आगे चलकर हिंदचीन में फ्रांसीसियों ने अपने पैर जमा लिए।

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