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MP Board Class 9th Sanskrit Solutions Chapter 12 वाङ्मनः प्राणस्वरूपम्

MP Board Class 9th Sanskrit Solutions Chapter 12 वाङ्मनः प्राणस्वरूपम्

MP Board Class 9th Sanskrit Chapter 12 पाठ्य पुस्तक के प्रश्न

गद्यांशों के हिन्दी में अनुवाद
पाठ परिचय – प्रस्तुतोऽयं पाठः “छान्दोग्योपनिषदः’ षष्ठाध्यायस्य पञ्चमखण्डात् समुद्धृतोऽस्ति । पाठ्यांशे मनोविषयकं प्राणविषयकं वाग्विषयकञ्च रोचकं तथ्यं प्रकाशितम् अस्ति । अत्र उपनिषदि वर्णितगुह्यतत्त्वानां सारल्येन अवबोधार्थम् आरुणि-श्वेतकेतोः संवादमाध्यमेन वाङ्मनःप्राणानां परिचर्चा कृतास्ति। ऋषिकुलपरम्परायां ज्ञानप्राप्तेः त्रीणि साधनानि सन्ति । तेषु परिप्रश्नोऽपि एकम् अन्यतमं साधनम् अस्ति । अत्र गुरुसेवनपटुः शिष्यः वाङ्मनः प्राणविषयकान् प्रश्नान् पृच्छति आचार्यश्च तेषां प्रश्नानां समाधानं करोति ।
अनुवाद – यह पाठ छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के पाँचवे खण्ड से लिया गया है। इस पाठ के अंश में मन सम्बन्धी, प्राण सम्बन्धी और वाणी सम्बन्धी रोचक तथ्य प्रकाशित किया गया है। यहाँ उपनिषद में वर्णित गूढ़ तत्वों का सरलता से बोध कराने के लिए आरुणि और श्वेत केतु के संवाद के माध्यम से वाणी, मन और प्राणों की परिचर्चा की गई है। ऋषिकुल परम्परा में ज्ञान प्राप्ति के तीन साधन है। तीनों में परिप्रश्न भी एक अन्यतम साधन है। यहाँ गुरुजी की सेवा में पटु शिष्य वाणी, मन और प्राण सम्बन्धी प्रश्न करता है और आचार्य उन प्रश्नों का समाधान करते हैं।
गद्यांश 1. 
श्वेतकेतुः – भगवन्! श्वेतकेतुरहं वन्दे ।
आरुणिः –  वत्स! चिरञ्जीव
श्वेतकेतुः –  भगवन्! किञ्चित्प्रष्टुमिच्छामि।
आरुणिः – वत्स! किमद्य त्वया प्रष्टव्यमस्ति?
श्वेतकेतुः – भगवन्! ज्ञातुम् इच्छामि यत् किमिदं मन: ?
आरुणिः – वत्स! अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठः तन्मनः।
श्वेतकेतुः – कश्च प्राण: ?
आरुणिः – पीतानाम् अपां योऽणिष्ठः स प्राणः।
श्वेतकेतुः – भगवन्! का इयं वाक् ?
आरुणिः – वत्स! अशितस्य तेजसा योऽणिष्ठः सा वाक् । सौम्य ! मनः अन्नमयं, प्राण ।
आपीमयः वाक् च तेजोमयी भवति इत्यप्यवधार्यम् ।
अनुवाद-
श्वेतकेतु – आचार्य श्री! मैं श्वेतकेतु प्रणाम करता हूँ।
आरुणि –  बेटा! चिरंजीवी रहो।
श्वेतकेतु –  आचार्य श्री! मैं कुछ पूछना चाहता हूँ।
आरुणि – बेटा! आज तुम्हें क्या पूछना है?
श्वेतकेतु – आचार्यश्री! मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह मन क्या है?
आरुणि – बेटा! खाये हुए अन्न का जो अत्यन्त लघु रूप है, वह मन है। –
श्वेतकेतु – और प्राण क्या है?
आरुणि – पिये हुए जल का जो अत्यन्त लघु रूप है, वह प्राण है।
श्वेतकेतु – आचार्यश्री! यह वाणी क्या है?
आरुणि – बेटा! खाये हुए तेज का जो अत्यन्त लघु रूप है, वह वाणी है, हे प्रिय! मन अन्नमय, प्राण जलमय और वाणी तेजमय होती है, यह समझो।
गद्यांश 2. 
श्वेतकेतुः –  भगवन्! भूय एव मां विज्ञापयतु ।
आरुणिः – सौम्य! सावधानं शृणु। मध्यमानस्य दध्नः योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति, अर्धविरामः। तत्सर्पिः भवति।
श्वेतकेतुः – भगवन्! भवता घृतोत्पत्तिरहस्यम् व्याख्यातम्। भूयोऽपि श्रोतु-मिच्छामि।
आरुणिः – एवमेव सौम्य! अश्यमानस्य अन्नस्य योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति। तन्मनो भवति। अवगत न वा?
श्वेतकेतुः –  सम्यगवगतं भगवन्!
आरुणिः – वत्स! पीयमानानाम् अपां योऽणिमा स | ऊर्ध्वः समुदीषति स एव प्राणो भवति ।
श्वेतकेतुः – भगवन्! वाचमपि विज्ञापयतु ।
आरुणिः – सौम्य! अश्यमानस्य तेजसो योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति। सा खलु वाग्भवति। वत्स! उपदेशान्ते भूयोऽपि त्वां विज्ञापयितुमिच्छामि यत्, अन्नमयं भवति मनः, आपोमयो भवति प्राणाः तेजोमयी च भवति वागिति। किञ्च यादृशमन्नादिकं गृहणाति मानवस्तादृशमेव तस्य चित्तादिकं भवतीति मदुपदेश- सारः । वत्स! एतत्सर्वं हृदयेन अवधारय ।
श्वेतकेतुः –  यदाज्ञापयति भगवन् । एष प्रणमामि ।
आरुणिः – वत्स! चिरञ्जीव तेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु (आवयोः अधीतम् तेजस्वि अस्तु )।
अनुवाद –
श्वेतकेतु – आचार्यश्री! मुझे फिर से समझाइए।
आरुणि – हे प्रिय ! ध्यान से सुनो। दही को मथने पर जो अत्यन्त लघु रूप होता है, वह ऊपर उठता है, जो घी कहलाता है।
श्वेतकेतु – आचार्यश्री! आपने घी की उत्पत्ति का रहस्य समझाया। मैं एक बार और समझना चाहता हूँ।
आरुणि – हे प्रिय ! खाये हुए अन्न का जो अत्यन्त लघु रूप होता है, वह ऊपर उठता है। वह मन बनता है। समझ में आया या नहीं?
श्वेतकेतु – अच्छी तरह से समझ में आ गया, आचार्यश्री!
आरुणि –  बेटा! हम जो जल पीते हैं, उसका जो अत्यन्त लघु रूप होता है, वह ऊपर उठता है। वह प्राण बनता है।
श्वेतकेतु – आचार्यश्री! वाणी के सम्बन्ध में भी समझाइए ।
आरुणि – हे प्रिय शिष्य! खाये हुए के तेज का जो अत्यन्त लघु रूप होता है, वह ऊपर उठता है। वह निश्चय से वाणी बनता है। बेटा! उपदेश के अन्त में पुन: तुम्हें बताना चाहता हूँ कि अन्न से निर्मित होता है मन, जल से निर्मित होता है प्राण और तेज से निर्मित होती है वाणी। और क्या कहूँ? मानव जैसा अन्न आदि ग्रहण करता है, उसका चित्त आदि वैसा ही बनता है, यही मेरे उपदेश का सार तत्व है। बेटा! यह सब आत्मसात् करना।
श्वेतकेतु – आपकी जैसी आज्ञा, आचार्यश्री ! आपको प्रणाम करता हूँ।
आरुणि – बेटा! चिरंजीव रहो! हम तेजस्वी बनें। (हम दोनों का तेज बढ़े)
अभ्यासस्य प्रश्नोत्तराणि
प्रश्न 1. एक पदेन उत्तरं लिखत- (एक पद में उत्तर लिखिए)-
(क) अन्नस्य कीदृशः भागः मन: ?
(अन्न का कैसा भाग मन है ? )
(ख) मथ्यमानस्य दध्न: अणिष्ठः भागः किं भवति?
(दही का मथा हुआ सबसे छोटा भाग क्या होता है? )
(ग) मनः कीदृशं भवति?
(मन कैसा होता है ? )
(घ) तेजोमयी का भवति?
(तेजोमयी क्या होती है?)
(ङ) पाठेऽस्मिन् आरुणि: कम् उपदिशति ?
(इस पाठ में आरुणि किसे उपदेश देते हैं?)
(च) “वत्सं! चिरञ्जीव” इति कः वदति ?
(“बेटा ! – चिरंजीवी बनो”- कौन कहता है?)
(छ) अयं पाठः कस्मात् उपनिषदः संगृहीतः ?
(यह पाठ किस उपनिषद से संगृहीत है?)
उत्तर- (क) अणिष्ठः, (ख) सर्पिः, (ग) अन्नमयम्, (घ) वाक्, (ङ) श्वेतकेतुम्, (च) आरुणि:, (छ) छान्दोग्योपनिषदः ।
प्रश्न 2: अधोलिखितानां प्रश्नानामुत्तराणि संस्कृत भाषया लिखत- ( निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए )
( क ) श्वेतकेतुः सर्वप्रथमम् आरुणि कस्य स्वरूपस्य विषये पृच्छति?
( श्वेतकेतु सर्वप्रथम आरुणि को किसके स्वरूप के विषय में पूछता है?)
उत्तर- श्वेतकेतुः सर्वप्रथमम् आरुणि मनसः स्वरूपस्य विषये पृच्छति।
(श्वेतकेतु सर्वप्रथम आरुणि को मन के स्वरूप के विषय में पूछता है।)
(ख) आरुणिः प्राणस्वरूपं कथं निरूपयति?
(आरुणि प्राणस्वरूप को कैसे निरूपित करता है? )
उत्तर- आरुणिः प्राणस्वरूपं निरुपयति- पीतानाम् अपां योऽणिष्ठः सः प्राणः ।
(आरुणि प्राण स्वरूप का निरूपण करता है- पीये हुए जल का सबसे छोटा भाग प्राण है।)
(ग) मानवानां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति ?
(मानव के चित्त कैसे होते हैं? )
उत्तर- मानवानां चेतांसि अन्नानुसारं भवन्ति ।
(मानव के चित्त अन्न के अनुसार बनते हैं।)
(घ) सर्पिः किं भवति?
( घी क्या होता है ? )
उत्तर- सर्पिः मध्यमानस्य दध्नः अणिमा भवति।
(घी मथे हुए दही का अत्यन्त छोटा भाग होता है।)
(ङ) आरुणे: मतानुसारं मनः कीदृशं भवति?
(आरुणि के मत के अनुसार मन कैसा होता है? )
उत्तर- आरुणे: मतानुसारं मनः अन्नमयं भवति ।
( आरुणि के मत के अनुसार मन अन्नमय कोश है। )
प्रश्न 3. (अ) स्तम्भस्य पदानि ( ब ) स्तम्भेन दत्तैः पदैः सह यथायोग्यं योजयत
(अ) स्तम्भ के पद (ब) स्तम्भ में दिए गए पदों के साथ उचित रूप से मिलाइए ) –
(अ)                      (ब)
(1) मनः               (i) अन्नमयम्
(2) प्राणः             (ii) तेजोमयी
(3) वाक्              (iii) आपोमयः
उत्तरम्-(1) -(i), (2)-(iii), (3)-(ii) |
(ख) अधोलिखितानां पदानां विलोमपदं पाठात् चित्वा लिखत- (निम्नलिखित पदों के विलोम पद पाठ से चुनकर लिखिए)
दत्तानि पदानि
(क) गरिष्ठ: ……….
(ख) अधः …………
(ग) एकवारम् ………..
(घ) अनवधीतम् ……..
(ङ) किञ्चित् ………….
उत्तर- विलोम पदानि
(क) अणिष्ठ:
(ख) ऊर्ध्वम्
(ग) भूयः
(घ) अवधीतम्
(ङ) सर्वम्
प्रश्न 4. उदाहरणमनुसृत्य निम्नलिखितेषु क्रियापदेषु ‘तुमुन्’ प्रत्ययं योजयित्वा पद निर्माणं कुरुत –  (उदाहरण के अनुसार निम्नलिखित क्रियापदों में ‘तुमुन्’ प्रत्यय जोड़कर पद का निर्माण कीजिए ) –
यथा-प्रच्छ + तुमुन्                   =    प्रष्टुम्
(क) श्रु+तुमुन्                         = ……………
(ख) वन्द् + तुमुन्                    = ……………
(ग) पठ् + तुमुन्                      = ……………
(घ) कृ + तुमुन्                       = ……………
(ङ) वि + आ + ख्या + तुमुन्    = ……………
(च) वि + आ + तुमुन्              = ……………
उत्तर- (क) श्रोतुम्, (ख) वन्दितुम्, (ग) पठितुम्, (घ) कर्तुम्, (ङ) विज्ञातुम् (च) व्याख्यातुम् ।
प्रश्न 5. निर्देशानुसारं रिक्तस्थानानि पूरयत (निर्देश के अनुसार रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए ) –
(क) अहं किञ्चित् प्रष्टुम् ……. । (इच्छ्-लट्लकारे)
(ख) मनः अन्नमयं ……… । (भू-लट्लकारे)
(ग) सावधानं …………… । (श्रु-लोट्लकारे)
(घ) तेजस्विनौ अधीतम् …………। (अस्-लोट्लकारे)
(ङ) श्वेतकेतुः आरुणेः शिष्यः …..। (अस्-लङ्लकारे)
उत्तर- (क) इच्छामि, (ख) भवति, (ग) श्रृणु, (घ) अस्तु, (ङ) आसीत्।
(अ) उदाहरणमनुसृत्य वाक्यानि रचयत- ( उदाहरण के अनुसार वाक्य बनाइए)
यथा- अहं स्वदेशं सेवितुम् इच्छामि।
(क) …………… उपदिशामि।
(ख) ……………  प्रणमामि।
(ग) ……………. आज्ञापयामि।
(घ) …………… पृच्छामि।
(ङ) ………….. अवगच्छामि।
उत्तर- (क) अहं शिष्यान् उपदिशामि।
(ख) अहं गुरुं प्रणमामि ।
(ग) अहम् छात्रान् आज्ञापयामि।
(घ) अहम् तस्य अधिष्ठानं पृच्छामि।
(ङ) अहम् मित्रं सम्यक् अवगच्छामि।
प्रश्न 6. ( अ ) सन्धि कुरुत (सन्धि कीजिए ) –
(क) अशितस्य + अन्नस्य = ………..
(ख) इति + अपि + अवधार्यम् = ……….
(ग) का + इयम् =…………
(घ) नौ + अधीतम् = ……….
(ङ) भवति + इति = ………..
उत्तर- (क) अशितस्यान्नस्य, (ख) इत्यप्यवधार्यम्, (ग) केयम्, (घ) नावधीतम्, (ङ) भवत्यिति।
(आ) स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्न निर्माणं कुरुत:(मोटे पदों के आधार पर प्रश्नवाचक बनाइए ) –
(i) मथ्यमानस्य दध्नः अणिमा ऊर्ध्व समुदीषति ।
(ii) भवता घृतोत्पत्ति रहस्यं व्याख्यातम् ।
(iii) आरुणिम् उपगम्य श्वेतकेतुः अभिवादयति।
(iv) श्वेतकेतुः वाग्विषये पृच्छति।
उत्तर- (i) कस्य दध्न: अणिमां ऊर्ध्वं समुदीषति ?
(ii) केन घृतोत्पत्तिरहस्यं व्याख्यातम् ?
(iii) आरुणिम् उपगम्य कः अभिवादयति?
(iv) श्वेतकेतुः कस्मिन् विषये पृच्छति?
प्रश्न 7. पाठस्य सारांश पञ्चवाक्यैः लिखत । (पाठ का सारांश पाँच वाक्यों में लिखिए )
उत्तर- (i) अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठ: तन्मनः ।
(ii) पीतानाम् अपां योऽणिष्ठः सः प्राणः ।
(iii) अशितस्य तेजसा योऽणिष्ठः सः वाक् ।
(iv) अन्नमयं भवति, मनः, आपोमयो भवति प्राणाः, तेजोमयी च भवति वागिति।
(v) यादृशमन्नादिकं गृह्णाति मानवः तादृशमेव तस्य चित्तादिकं भवति इति ।
योग्यताविस्तार:
यह पाठ छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय के पञ्चम खण्ड पर आधारित है। इसमें मन, प्राण तथा वाक् (वाणी) के संदर्भ में रोचक विवरण प्रस्तुत किया गया है। उपनिषद् के गूढ़ प्रसंग को बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से इसे आरुणि एवं श्वेतकेतु के संवादरूप में प्रस्तुत किया गया है। आर्ष-परंपरा में ज्ञान- प्राप्ति के तीन उपाय बताए गए हैं जिनमें परिप्रश्न भी एक है। यहाँ गुरुसेवापरायण शिष्य वाणी, मन तथा प्राण के विषय में प्रश्न पूछता है और आचार्य उन प्रश्नों के उत्तर देते हैं।
ग्रन्थ परिचय – छान्दोग्योपनिषद् उपनिषत्साहित्य का प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह सामवेद के उपनिषद् ब्राह्मण का मुख्य भाग है। इसकी वर्णन पद्धति अत्यधिक वैज्ञानिक और युक्तिसंगत है। इसमें आत्मज्ञान के साथ-साथ उपयोगी कार्यों और उपासनाओं का सम्यक् वर्णन हुआ है। छान्दोग्योपनिषद् आठ अध्यायों में विभक्त है। इसके छठे अध्याय में ‘तत्त्वमसि’ का विस्तार से विवेचन प्राप्त होता है।
भावविस्तार:
आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को उपदेश देते हैं कि खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का होता है। उसका स्थिरतम भाग मल होता है, मध्यम मांस होता है, और सबसे लघुतम मन होता है। पिया हुआ जल भी तीन प्रकार का होता है उसका स्थविष्ठ भाग मूत्र होता है, मध्यभाग लोहित (रक्त) होता है और अणिष्ठ भाग प्राण होता है। भोजन से प्राप्त तेज भी तीन तरह का होता है उसका स्थविष्ठ भाग अस्थि होता है, मध्यम भाग मज्जा (चर्बी) होती है और जो लघुतम भाग है वह वाणी होती है।
जो खाया जाता है वह अन्न है। अन्न ही निश्चित रूप से मन है। न्याय और सत्य से अर्जित किया हुआ अन्न सात्विक होता है। उसे खाने से मन भी सात्विक होता है। दूषित भावना और अन्याय से अर्जित अन्त तामस होता है। कथ्य का सारांश यह है कि सात्विक भोजन से मन सात्विक होता है। राजसी भोजन से मन राजस होता है और तामस भोजन से मन की प्रवृत्ति भी तामसी हो जाती है।
इस संसार में जल ही जीवन है और प्राण जलमय होता है। तैल (तेल), घृत आदि के भक्षण से वाणी विशद होती है और भाषणादि कार्यों में सामर्थ्य की वृद्धि करती है। इसलिए वाणी को तेजोमयी कहा जाता है।
छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाणी तेजोमयी है।

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