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MP Board Class 9th Sanskrit Solutions Chapter 4 कल्पतरु:

MP Board Class 9th Sanskrit Solutions Chapter 4 कल्पतरु:

MP Board Class 9th Sanskrit Chapter 4 पाठ्य पुस्तक के प्रश्न

गद्यांशों के हिन्दी में अनुवाद

पाठ परिचय प्रस्तुतोऽयं पाठ: “वेतालपञ्चविंशति: ” इति प्रसिद्धकथासङ्ग्रहात् सम्पादनं कृत्वा संगृहीतोऽस्ति । अत्र मनोरञ्जकघटनाभिः विस्मयकारिघटनाभिश्च जीवनमूल्यानां निरूपणं वर्तते । अस्यां कथायां पूर्वकालतः एव स्वगृहोद्याने स्थितकल्पवृक्षेण जीमूतवाहनः लौकिकपदार्थान् न याचते। अपितु सः सांसारिकप्राणिनां दुःखानि अपाकरणाय वरं याचते । यतो हि लोकभोग्याः भौतिकपदार्थाः जलतरङ्गवद् अनित्याः सन्ति । अस्मिन् संसारे केवलं परोपकारः एव सर्वोत्कृष्टं चिरस्थायि तत्त्वम् अस्ति।
अनुवाद – यह पाठ ‘वेताल पच्चीसी’ नामक प्रसिद्ध कहानी संग्रह से संपादित करके यहाँ मनोरंजक घटनाओं और आश्चर्यजनक घटनाओं के द्वारा जीवन मूल्यों का निरूपण किया गया है। इस कहानी में पूर्व काल से ही अपने घर के उद्यान में स्थित कल्पवृक्ष से जीमूत वाहन लौकिक पदार्थों की याचना नहीं करता है। अपितु वह सांसारिक प्राणियों के दुःखों को दूर करने के लिए कामना करता है। कारण, लौकिक भोग्य भौतिक पदार्थ जल की लहर के समान अनित्य है। इस संसार में केवल परोपकार ही सर्वोत्तम और चिरस्थायी तत्व है।
गद्यांश 1. अस्ति हिमवान् नाम सर्वरत्नभूमिः नगेन्द्रः । तस्य सानोः परि विभाति कञ्चनपुरं नाम नगरम् । तत्र जीमूतकेतुः इति श्रीमान् विद्याधरपतिः वसति स्म । तस्य गृहोद्याने कुलक्रमागतः कल्पतरुः स्थितः । स राजा जीमूतकेतुः तं कल्पतरुम् आराध्य तत्प्रसादात् च बोधिसत्वांशसम्भवं जीमूतवाहनं नाम पुत्रं प्राप्नोत् । सः जीमूतवाहन: महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च अभवत् । तस्य गुणैः प्रसन्नः स्वसचिवैश्च प्रेरितः राजा कालेन सम्प्राप्तयौवनं तं यौवराज्ये अभिषिक्तवान् । कदाचित् हितैषिणः पितृमन्त्रिणः यौवराज्ये स्थितं तं जीमूतवाहनं उक्तवन्त:- “युवराज ! योऽयं सर्वकामदः कल्पतरुः तवोद्याने तिष्ठति स तव सदा पूज्य: । अस्मिन् अनुकूले स्थिते सति शक्रोऽपि अस्मान् बाधितुं न शक्नुयात्” इति ।
अनुवाद – हिमालय नाम का पर्वतराज समस्त रत्नों की भूमि है। उसके शिखर पर कंचनपुर नाम का नगर सुशोभित था। वहाँ पर जीमूतकेतु नाम का श्रीमान विद्याधर स्वामी रहता था। उसके घर के उद्यान में कुल परम्परा से कल्पवृक्ष स्थित था। उस राजा जीमूतकेतु ने उस कल्पवृक्ष की आराधना करके उसके प्रभाव से बोधिसत्व के अंश रूप में जीमूतवाहन नामक पुत्र को प्राप्त किया। वह जीमूतवाहन महान् दानवीर और समस्त जीवों के प्रति दयालु स्वभाव का था। उसके गुणों से प्रसन्न होकर और अपने मन्त्रियों की प्रेरणा से राजा ने युवा होने पर उस राजकुमार को युवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया। एक बार हितैषी मन्त्रियों ने युवराज पद पर स्थित उस जीमूतवाहन को समझाया- “हे युवराज ! तुम्हारे उद्यान में स्थित कल्पवृक्ष तुम्हारे लिए सदा पूज्य है। इसके अनुकूल रहने पर इन्द्र भी हमें बाधा नहीं पहुँचा सकता।”
गद्यांश 2. एतत् आर्कण्य जीमूतवाहनः अचिन्तयत्”अहो ईदृशम् अमरपादपं प्राप्यापि पूर्वैः पुरुषैः अस्माकं तादृशं फलं किमपि न प्राप्तम्। किन्तु केवलं कैश्चिदेव कृपणैः कश्चिदपि अर्थः अर्थितः। तदहम् अस्मात् कल्पतरोः अभीष्टं साधयामि ” इति । एवम् आलोच्य सः पितुः अन्तिकम् आगच्छत्। आगत्य च सुखमासीनं पितरम् एकान्ते न्यवेदयत्- “तात! त्वं तु जानासि एव यदस्मिन् संसारसागरे आशरीरम् इदं सर्वं धनं वीचिवत् चञ्चलम् । एकः परोपकार एव अस्मिन् संसारे अनश्वरः यो युगान्तपर्यन्तं यशः प्रसूते। तद् अस्माभिः ईदृशः कल्पतरुः किमर्थं रक्ष्यते? यैश्च पूर्वैरयं ‘मम मम’ इति आग्रहेण रक्षितः, ते इदानीं कुत्र गताः ? तेषां कस्यायम् ? अस्य वा के ते? तस्मात्परोपकारैकफलसिद्धये त्वदाज्ञया इमं कल्पपादपम् आराधयामि ।
अनुवाद – यह सुनकर जीमूतवाहन सोचने लगा “अहो !  इस अमर पौधे को प्राप्त करके भी पूर्वजों ने हमारे लिए वैसा कोई फल प्राप्त नहीं किया। केवल कुछ कंजूसों ने थोड़ा धन ही माँगा। तो मैं इस कल्पवृक्ष से मनचाहा माँगता हूँ।” यह विचार कर वह पिताजी के पास आया। आकर सुखचैन से बैठे पिताजी से एकान्त में निवेदन किया- “पिताजी! आप तो यह जानते ही है कि इस संसार सागर में शरीर से लेकर यह सारा धन वैभव लहर के समान चंचल है। एक परोपकार ही इस संसार में अविनाशी है, जो युगों तक यश देने वाला है। तो हमने इस प्रकार कल्पवृक्ष की क्यों रक्षा की। जिन पूर्वजों ने इसे ‘मेरा-मेरा’ इस आग्रह से रक्षा की, वे अब कहाँ चले गए हैं? उनमें से किसका है यह? वे इसके क्या है ? इसलिए परोपकारके फल की प्राप्ति के लिए आपकी आज्ञा से इस कल्पवृक्ष की आराधना करता हूँ।”
गद्यांश 3. अथ पित्रा ‘तथा’ इति अभ्यनुज्ञातः स जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य उवाच- “देव! त्वया अस्मत्पूर्वेषाम् अभीष्टा: कामा: पूरिताः, तन्ममैकं कामं पूरय । यथा पृथिवीम् अदरिद्राम् पश्यामि तथा करोतु देव” इति । एवंवादिनि जीमूतवाहने “त्यक्तस्त्वया एषोऽहं यातोऽस्मि ” इति वाक् तस्मात् तरो: उदभूत् ।
अनुवाद – पिताजी के द्वारा अनुमति मिलने पर वह जीमूतवाहन कल्पवृक्ष के पास जाकर बोला- “हे देव! आपने हमारे पूर्वजों की मनोकामनाएँ पूर्ण कीं, तो आप मेरी एक कामना पूरी कीजिए। जैसे पृथ्वी को सम्पन्न देखूँ, वैसा कीजिए, देव!” जीमूतवाहन के इतना कहने पर वहाँ से वह वृक्ष उखड़ गया।
गद्यांश 4. क्षणेन च स कल्पतरुः दिवं समुत्पत्य भुवि तथा वसूनि अवर्षत् यथा न कोऽपि दुर्गत आसीत्। ततस्तस्य जीमूतवाहनस्य सर्वजीवानुकम्पया सर्वत्र यशः प्रथितम् ।
अनुवाद – क्षणभर में वह कल्पवृक्ष स्वर्ग लोक में चला गया। उसने वहां से धन वैभव की वर्षा की, जिससे कोई निर्धन नहीं रहा। तब उस जीमूतवाहन की समस्त जीवों के प्रति दया भावना से सर्वत्र यश फैल गया।
अभ्यासस्य प्रश्नोत्तराणि
प्रश्न 1. एक पदेन उत्तरं लिखत- (एक पद में उत्तर लिखिए ) –
(क) जीमूतवाहनः कस्य पुत्रः अस्ति?
(जीमूतवाहन किसका पुत्र है?)
(ख) संसारेऽस्मिन् कः अनश्वरः भवति?
(इस संसार में क्या अनश्वर है?)
(ग) जीमूतवाहनः परोपकारैकफलसिद्धये कम आराधयति ?
(जीमूतवाहन परोपकार के फल की प्राप्ति के लिए किसकी आराधना करता है? )
(घ) जीमूतवाहनस्य सर्वेभूतानुकम्पया सर्वत्र कि प्रथितम् ?
(जीमूतवाहन की सभी प्राणियों के प्रति अनुकम्पा से सर्वत्र क्या होता है ? )
(ङ) कल्पतरु: भुवि कानि अवर्षत् ?
( कल्पवृक्ष ने पृथ्वी पर किसकी वर्षा की ? )
उत्तर- (क) जीमूतकेतो: (ख) परोपकार (ग) कल्पपादपम् (घ) यश: (ङ) वसूनि ।
प्रश्न 2. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत- (निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए )
( क ) कञ्चनपुरं नाम नगरं कुत्र विभाति स्म ?
(कञ्चनपुर नाम का नगर कहाँ सुशोभित था ? )
उत्तर- कञ्चनपुरं नाम नगरं नगेन्द्रस्य सानो: विभातिस्म। (कञ्चपुरन नाम का नगर हिमालय के शिखर पर सुशोभित था) उपरि
(ख) जीमूतवाहनः कीदृशः आसीत् ?
(जीमूतवाहन कैसा था ? )
उत्तर- जीमूतवाहन: महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च आसीत्। (जीमूतवाहन महान् दानवीर और सभी प्राणियों के प्रति दयालु था।)
(ग) कल्पतरोः वैशिष्ट्यमार्कण्य जीमूतवाहनः किम् अचिन्तयत्?
( कल्पतरु की विशिष्टता सुनकर जीमूतवाहन क्या सोचने लगा? )
उत्तर- कल्पतरो: वैशिष्ट्यमार्कण्य जीमूतवाहनः अचिन्तयत् यत् “अहम् अस्मात कल्पतरो: अभीष्ट साधयामि।”
(कल्पतरु की विशिष्टता सुनकर जीमूतवाहन ने सोचा कि “मैं इस कल्पवृक्ष से अभीष्ट की साधना करूँगा।”)
( घ) हितैषिणः मन्त्रिणः जीमूतवाहनं किम् उक्तवन्तः? ( हितैषी मन्त्रियों ने जीमूतवाहन से क्या कहा ? )
 उत्तर- हितैषिणः मन्त्रिण: जीमूतवाहन उक्तवन्तः यत् “युवराज ! योऽयं सर्वकामदः कल्पतरुः तवोद्याने तिष्ठति सः तव सदा पूज्य: ।”
( हितैषी मन्त्रियों ने जीमूतवाहन से कहा- “युवराज ! जो यह सभी कामनाओं को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष तुम्हारे उद्यान में स्थित है, वह तुम्हारे लिए सदा पूज्य है।”
(ङ) जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य किम् उवाच?
( जीमूतवाहन कल्पवृक्ष के पास जाकर क्या बोला?)
उत्तर- जीमूतवाहन: कल्पतरुम् उपगम्य उवाच- “देव! त्वया अस्मत्पूर्वेषाम् अभीष्टा: कामाः पूरिताः तन्ममैकं कामं पूरय यथा पृथिवीम् अदरिद्राम् पश्यामि तथा करोतु देव” इति ।
(जीमूतवाहन कल्पवृक्ष के पास जाकर बोला- हे देव! आपने हमारे पूर्वजों की अभीष्ट कामना की पूर्ति की, वैसी ही मेरी एक कामना पूरी कीजिए । पृथ्वी को सम्पन्न देखूँ, वैसा कीजिए, देव!”
प्रश्न 3. अधोलिखितवाक्येषु स्थूलपदानि कस्मै प्रयुक्तानि ? (निम्नलिखित वाक्यों में मोटे पद किसके लिए प्रयुक्त हुए हैं? )
(क) तस्य सानोरुपरि विभाति कञ्चनपुर नाम नगरम् ।
(ख) राजा सम्प्राप्तयौवनं तं यौवराज्ये अभिषिक्तवान् ?
(ग) अयं तव सदा पूज्य: ।
(घ) तात! त्वं तु जानासि यत् धनं वीचिवच्चञ्चलम् ।
 उत्तर- (क) हिमालय पर्वताय, (ख) जीमूतवाहनायं, (ग) कल्पतरवे, (घ) जीमूतकेतवे ।
प्रश्न 4. अधोलिखितानां पदानां पर्यायपदं पाठात् चित्वा लिखत-
(निम्नलिखित पदों के पर्यायवाची पद पाठ से चुनकर लिखिए )
( क ) पर्वत: – ……..……
(ख) भूपति: – ………….
(ग) इन्द्रः  – ………….
(घ) धनम्  – ………..
(ङ) इच्छितम्  -………..
(च) समीपम्  -……….
(छ) धरित्रीम्  – ……….
(ज) कल्याणम्  – ………
(झ) वाणी  – ………..
(ञ) वृक्षः  – ……..
उत्तर- प्रदत्तपदानि पर्यायपदानि
(क) पर्वतः – नगेन्द्र, सानु:
(ख) भूपति: – राजा
(ग) इन्द्रः     – शक्रः
(घ) धनम्  – अर्थ: / वसूनि
(ङ) इच्छितम्  – अभीष्टम्
(च) समीपम्  – अन्तिकम्
(छ) धरित्रीम् – पृथिवीम्
(ज) कल्याणम् – परोपकार: / हितम्
(झ) वाणी  – वाक्
(ञ) वृक्ष:  – तरुः
प्रश्न 5. ‘क’ स्तम्भे विशेषणानि ‘ख’ स्तम्भे च विशेष्याणि दत्तानि । तानि समुचितं योजयत –
( क ) स्तम्भ में विशेषण और (ख) स्तम्भ में विशेष्य दिए गए हैं। उन्हें उचित रूप में मिलाइए) –
‘क’ स्तम्भ                       ‘ख’ स्तम्भ
(क) कुलक्रमागतः           (1) परोपकारः
(ख) दानवीर:।                (2) मन्त्रिभिः
(ग) हितैषिभिः।              (3) जीमूतवाहन:
(घ) वीचिवच्चञ्चलम्      (4) कल्पतरु:
(ङ) अनश्वर:।                (5) धनम्
उत्तर- (क) – (4), (ख) – (3), (ग) – (2), (घ) – (5), (ङ) − (1)।
प्रश्न 6. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-
( मोटे पदों के आधार पर प्रश्न वाचक बनाइए।)
(क) तरौ: कृपया सः पुत्रम् अप्राप्नोत् ।
(ख) सः कल्पतरवे न्यवेदयत्।
(ग) धनवृष्ट्या कोऽपि दरिद्रः नातिष्ठत् ।
(घ) कल्पतरुः पृथिव्यां धनानि अवर्षत् ।
(ङ) जीवानुकम्पया जीमूतवाहनस्य यशः प्रासरत् ।
उत्तर-
(क) कस्य कृपया सः पुत्रम् अप्राप्नोत् ?
(ख) सः कस्मै न्यवेदयत् ?
(ग) कया कोऽपि दरिद्रः नातिष्ठत् ?
(घ) कल्पतरु: कस्यां धनानि अवर्षयत् ?
(ङ) कया जीमूतवाहनस्य यशः प्रासरत् ?
प्रश्न 7. ( क ) ” स्वस्ति तुभ्यम्” स्वस्ति शब्दस्य योगे चतुर्थी विभक्तिः भवति । इत्यनेन नियमेन अत्र चतुर्थी विभक्तिः प्रयुक्ता । एवमेव
(कोष्ठकगतेषु पदेषु ) चतुर्थी विभक्ति प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत- (चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग कर रिक्त स्थान भरिए ) –
(क) स्वस्ति।  ……….. (राजा)
(ख) स्वस्ति ………….. (प्रजा)
(ग) स्वस्ति …………. (छात्र)
(घ) स्वस्ति ….………. (सर्वजन)
उत्तर-
(क) स्वस्ति राजभ्यः ।
(ख) स्वस्ति प्रजाभ्यः ।
(ग) स्वस्ति छात्रेभ्यः ।
(घ) स्वस्ति सर्वजनेभ्यः ।
(ख) कोष्ठकगतेषु पदेषु षष्ठीं विभक्ति प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत-
(कोष्ठक में आए पदों में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग कर रिक्त स्थान भरिए ) –
(क) तस्य …….. उद्याने कल्पतरुः आसीत् । (गृह)
(ख) स: ……. अन्तिकम् अगच्छत्। (पितृ)
(ग) ……….  सर्वत्र यशः प्रथितम् ( जीमूतवाहन)
(घ) अयं ………. तरु: ? (किम् )
उत्तर-
(क) तस्य गृहस्य उद्याने कल्पतरुः आसीत्।
(ख) सः पितुः अन्तिकम् अगच्छत् ।
(ग) जीमूतवाहनस्य सर्वत्र यशः प्रथितम् ।
(घ) अयं कस्य तरु: ?
योग्यताविस्तार
यह पाठ ‘वेतालपञ्चविंशतिः’ नामक कथा संग्रह से लिया गया है, जिसमें मनोरञ्जक एवम् आश्चर्यजनक घटनाओं के माध्यम से जीवनमूल्यों का निरूपण किया गया है। इस कथा में जीमूतवाहन अपने पूर्वजों के काल से गृहोद्यान में आरोपित कल्पवृक्ष से सांसारिक द्रव्यों को न माँगकर संसार के प्राणियों के दुःखों को दूर करने का वरदान माँगता है क्योंकि, धन तो पानी की लहर के समान चंचल है, केवल परोपकार ही इस संसार का सर्वोत्कृष्ट तथा चिरस्थायी तत्त्व है |
( क ) ग्रन्थ परिचय-“वेतालपञ्चविंशतिका” पच्चीस कथाओं का संग्रह है। इस नाम की दो रचनाएँ पाई जाती हैं। एक शिवदास ( 13वीं शताब्दी) द्वारा लिखित ग्रंथ है, जिसमें गद्य और पद्य दोनों विधाओं का प्रयोग किया गया है। दूसरी जम्भलदत्त की रचना है जो केवल गद्यमयी है। इस कथा में कहा गया है कि राजा विक्रम को प्रतिवर्ष कोई तांत्रिक सोने का एक फल देता है। उसी तांत्रिक के कहने पर राजा विक्रम श्मशान से शव लाता है। जिस पर सवार होकर एक वेताल मार्ग में राजा के मनोरंजन के लिए कथा सुनाता है। कथा सुनते समय राजा को मौन रहने का निर्देश देता है। कहानी के अंत में वेताल राजा से कहानी पर आधारित एक प्रश्न पूछता है। राजा उसका सही उत्तर देता है। शर्त के अनुसार वेताल पुनः श्मशान पहुँच जाता है। इस तरह पच्चीस बार ऐसी ही घटनाओं की आवृत्ति होती है और वेताल राजा को एक-एक करके पच्चीस कथाएँ सुनाता है। ये कथाएँ अत्यंत रोचक, भावप्रधान और विवेक की परीक्षा लेने वाली हैं।
( ख ) क्त क्तवतु प्रयोग: –
क्त- इस प्रत्यय का प्रयोग सामान्यतः कर्मवाचक में होता है।
क्तवतु इस प्रत्यय का प्रयोग कर्तृवाच्य में होता है। क्त प्रत्ययः
जीमूतवाहनः हितैषिभिः मन्त्रिभिः उक्तः।
कृपणैः कश्चिदपि अर्थः अर्थितः ।
त्वया अस्मत्कामाः पूरिताः।
तस्य यशः प्रथितम् (कर्तृवाच्य में क्त)
क्तवतु प्रत्ययः
सा पुत्रं यौवराज्यपदेऽभिषिक्तवान्।
एतदाकर्ण्य जीमूतवाहन: चिन्तितवान्।
स सुखासीनं पितरं निवेदितवान्।
जीमूतवाहन: कल्पतरुम् उक्तवान्
(ग) लोककल्याण-कामना-विषयक कतिपय श्लोक –
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ||
सर्वस्तरतु दुर्गाणि, सर्वो भद्राणि पश्यतु ।
सर्वः कामानवाप्नोतु, सर्वः सर्वत्र नन्दतु ||
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ।।

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