प्राचीन भारत

नवपाषाण-युग : पहला आजीविका का उत्पादन और पशुपालन

नवपाषाण-युग : पहला आजीविका का उत्पादन और पशुपालन

नवपाषाण-युग : पहला आजीविका का उत्पादन और पशुपालन

बलूचिस्तान में सबसे प्राचीन ग्रामीण बसावट

वैश्विक सन्दर्भ में नवपाषाण-युग की शुरुआत ई.पू. 9000 में हुई। भारतीय उपमहाद्वीप
ई.पू. 7000 का एकमात्र ज्ञात नवपाषाण बसावट मेहरगढ़ में है, जो पाकिस्तान के
एक प्रान्त बलूचिस्तान में स्थित है। मेहरगढ़ कोची के समतल मैदान में बोलन नदी के
किनारे है, जिसे बलूचिस्तान में अनाज की टोकरी’ कहा जाता है। यह बसावट इण्डस के
समतल मैदानों के किनारे पर थी। इसे इण्डस और भूमध्य सागर के बीच का सबसे बड़ा
नवपाषाणीय बसावटों में से एक माना जाता है। हालाँकि पशुपालन एवं अनाज का उत्पादन
करने वाले शुरुआती बाशिन्दे ई.पू. 5500 के आस-पास बाढ़ से बाधित हुए। किन्तु पत्थरों
और हड्डियों के औजारों की मदद से ई.पू. 5000 के आस-पास कृषि एवं अन्य गतिविधियाँ
फिर से शुरू हुईं। इस क्षेत्र के नवपाषाण युगीन लोग शुरू से ही गेहूँ और जौ का उत्पादन
करते थे। वे प्रारम्भ में ढोर-डंगर, भेड़ और बकरियाँ पालते थे। शुरू में बकरी पालन की
प्रधानता थी लेकिन अन्तत: दो अन्य जानवरों के कारण पशुपालन पहले की तुलना में बढ़
गया। सम्भवतः पशुपालन से कृषि में भी मदद मिली। अनाज का उत्पादन पर्याप्त मात्रा
में बढ़ा, फलस्वरूप भण्डारण भी शुरू हुआ। जिसकी खोज विभिन्न चरणों में की गई।
भण्डार गृह मिट्टी की ईंटों से बने होते थे, जिसका उपयोग घरों के निर्माण के लिए भी
किया जाता था। मिट्टी की ईंटों से बनी कई कमरेनुमा संरचनाएँ हैं, जो भण्डार गृह की
तरह लगती हैं। ई.पू. 4500-3500 में कोची के समतल मैदान से इण्डस मैदानी क्षेत्र तक
खेती के कामों का काफी विकास हुआ, मिट्टी के बर्तनों में भी बेहतरी और बढ़ोत्तरी हुई।
ई.पू. 5000 तक लोग बर्तन नहीं बनाते थे लेकिन ई.पू. 4500 के बाद कुम्हार का चाक
अस्तित्व में आया। बर्तन तेजी से बनने लगे और उन्हें रंगा भी जाने लगा। इण्डस की एक
सहायक नदी हकरा की सूखी घाटी में नवपाषाण युगीन के अधोकाल की सैंतालिस बस्तियाँ
पाई गई हैं। जाहिर है उन्होंने हड़प्पा संस्कृति के उदय के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
विन्ध्य के उत्तरी क्षेत्रों में पाए जाने वाले कुछ नए नवपाषाण स्थल को ई.पू. 5000 का
माना जाता है लेकिन दक्षिण भारत में आम तौर पर नवपाषाण बस्तियाँ ई.पू. 2500 से अधिक
पुरानी नहीं हैं, दक्षिणी और पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों में वे ई.पू. 1000 तक के भी हैं।
नवपाषाण काल के लोग पत्थर के चिकनाए हुए औजार का इस्तेमाल करते थे। वे
विशेष रूप से पत्थर की कुल्हाड़ियों का इस्तेमाल करते थे जो कि भारत के पहाड़ी इलाकों
के महत्त्वपूर्ण हिस्से में बड़ी संख्या में पाई गई हैं। लोगों ने पत्थर कुल्हाड़ी का इस्तेमाल
विभिन्न प्रकार से किया। प्राचीन किंवदन्ती के अनुसार परशुराम को ऐसा ही एक महत्वपूर्ण
कुल्हाड़ी चलाने वाला नायक माना जाता है।
नवपाषाण युगीन लोगों द्वारा विभिन्न कुल्हाड़ियों के इस्तेमाल के आधार पर नवपाषाण
के तीन महत्त्वपूर्ण इलाके हैं-उत्तर-पश्चिमी, उत्तर-पूर्वी और दक्षिणी। उत्तर-पश्चिमी समूह
के नवपाषाणीय औजारों की पहचान चन्द्राकार कटाई वाले धार के आयताकार कुल्हाड़ियों
से होती है; जबकि उत्तर-पूर्वी समूह के औजार की पहचान पत्थर की आयताकार कुन्दे
वाली चिकनी कुल्हाड़ियों और कभी-कभी चौरस फावड़े के रूप में की जाती है और दक्षिणी
समूह के औजारों की पहचान अण्डाकार किनारों और नुकीले कुन्दों वाली कुल्हाड़ियों से
होती है।

बुर्जहोम और चिरान्द में हड्डियों के औज़ार

उत्तर-पश्चिम में कश्मीरी नवपाषाण संस्कृति की पहचान उसके निवास स्थलों, मिट्टी के
विभिन्न प्रकार के बर्तनों, पत्थरों और हड्डियों के बने भिन्न-भिन्न औजारों और माइक्रोलिथ
के पूर्ण अनुपस्थिति के आधार पर की गई थी। श्रीनगर से 16 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में
स्थित बुर्जहोम इसका सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल है। जिसका अर्थ है ‘भोजपत्र की जगह’।
नवपाषाण लोग झील के किनारे खोह में रहते थे और उनकी आजीविका सम्भवत: शिकार एवं
मछली पकड़ने पर आधारित थी। वे कृषि-कर्म से परिचित मात्र लगते थे। गुफ्कल (शब्दत:
‘कुम्हार की गुफा’) के लोग, श्रीनगर से 41 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में एक नवपाषाण
स्थल में, कृषि और पशुपालन दोनों करते थे। कश्मीर में नवपाषाण लोग न केवल पत्थर के
चिकनाए औजार, बल्कि हड्डी से बने कई उपकरण और हथियार का भी इस्तेमाल करते थे।
भारत में हड्डियों के पर्याप्त औजार प्राप्त होने वाला एकमात्र स्थान चिरान्द है, जो गंगा के
उत्तरी हिस्से में पटना से 40 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। सींगों के बने (हिरण के सींग)
ये औजार नवपाषाण के बाद की बसावट में लगभग 100 सेंटीमीटर बारिश वाले क्षेत्र में पाए
गए। गंगा, सोन, गण्डक और घाघरा-चार नदियों के सन्धि-स्थल पर उपलब्ध खुली जमीन
में बस्तियों की स्थापना सम्भव हुई और यहाँ पत्थर के औजारों की कमी पाई गई।
बुर्जहोम के लोग रूखी, भूरी मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल करते थे। दिलचस्प है कि
बुर्जहोम में अपने पालक या रखवाले के साथ उसकी कब्र में पालतू कुत्तों को भी दफनाया जाता था। ऐसा भारत के किसी अन्य नवपाषाण संस्कृति में स्पष्ट रूप में नहीं मिलता।
बुर्जहोम के अस्तित्व की प्राचीनतम तिथि ई.पू. 2700 है लेकिन चिरान्द से प्राप्त हड्डियाँ
ई.पू. 2000 से अधिक प्राचीन नहीं हैं। सम्भवत: ये उत्तर-नवपाषाण चरण के हैं।
हम बलूचिस्तान और कश्मीर घाटी की नवपाषाण बस्तियों को उत्तर-पश्चिमी समूह में
गिन सकते हैं।
एक अन्य क्षेत्र जिसमें से नवपाषाण उपकरण पुनर्माप्त किए गए हैं, असम की पहाड़ियों
में स्थित है। भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा पर मेघालय में गारो पहाड़ियों में नवपाषाण
उपकरण भी पाए गए हैं। दूसरे समूह में विन्ध्य और कैमूर पहाड़ियों की बस्तियाँ शामिल
हो सकती हैं; हमें विन्ध्य के उत्तरी इलाकों मिर्जापुर और उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिलों
में कई नवपाषाण बस्तियाँ मिलती हैं। पाँचवीं सहस्राब्दि में इलाहाबाद जिले की नवपाषाण
बस्तियाँ कुल्दिवा और महाग्र, धान की खेती के लिए जानी जाती हैं। कैमूर पहाड़ी इलाके
के रोहतास जिले में सेनुवार सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल है। इसके अलावा बोधगया मन्दिर के
करीब ताराडीह स्थल उल्लेखनीय है।
चिरान्द के नदी तटवर्ती स्थल को उत्तर-पूर्वी समूह में शामिल किया जा सकता है। यह
स्थल अपने आप में एक पहचान है क्योंकि नदी तटवर्ती मार्ग में कोई पत्थर आसानी से
उपलब्ध नहीं होता।

दक्षिण भारत में नवपाषाण बस्तियाँ

नवपाषाणयुगीन लोगों का एक महत्त्वपूर्ण समूह दक्षिण भारत में रहते थे। वे गोदावरी
नदी के दक्षिण में बसते थे। वे आम तौर पर ग्रेनाइट पहाड़ों के शीर्ष पर या नदी तटों के
पास पठारों पर बस गए। उन्होंने पत्थर के कुल्हाड़ियों का इस्तेमाल किया और पत्थर
की पत्तियों का भी इस्तेमाल किया। आग से पकाई गई मिट्टी की मूर्तियों से ज्ञात होता
है कि वे भेड़ और बकरियों के अलावा बड़ी संख्या में मवेशी पालन करते थे। उन्होंने
मकई पीसने के लिए पत्थर की चक्की का इस्तेमाल किया। जो दर्शाता है कि वे अनाज
उत्पादन करने की कला से परिचित थे। दक्षिण भारत में पत्थरों की सुलभता के कारण
आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में 850 से अधिक नवपाषाण बस्तियों के हिस्से
पाए गए हैं।
उत्खनन के बाद जो कुछ महत्त्वपूर्ण नवपाषाण स्थल या नवपाषाण सतहें मिली हैं वे कर्नाटक
में मस्की, ब्रह्मगिरि, हल्लूर, कोडेकल, संगानाकल्लू, पिकलिहल एवं तक्कलकोटा और
तमिलनाडु में पैयमपल्ली हैं। आन्ध्र प्रदेश में उतनुर एक महत्त्वपूर्ण नवपाषाण स्थल है। दक्षिण
भारत में नवपाषाण चरण ई.पू. 2400 से 1000 तक की अवधि को माना जाता है।
पिकलिहल में नवपाषाण बाशिन्दे चरवाहे थे। वे पशु भेड़, बकरियाँ आदि पालते थे।
लकड़ियों से घेरकर बनाई गोशाला से घिरी एक संरचना बनाते थे जो मौसम के हिसाब से बनाई जाती थी; जहाँ वे गोबर जमा करते थे। उस ठिकाने को छोड़कर जाते समय उस पूरे
डेरा डाले हुए स्थान को अगले सत्र के शिविर के लिए आग लगा कर साफ कर दिया जाता
था। पिकलिहल में राख के ढेर और शिविर स्थल-दोनों पाए गए हैं।

कृषि और अनाज

नवपाषाण बाशिन्दे सबसे प्राचीन कृषक समुदाय थे। वे पत्थर से बने फावड़े और खुदाई
योग्य लकड़ियों से जमीन खोदते थे, जिसके सिरे पर आधे किलोग्राम के अंगूठीनुमा पत्थर
लगे होते थे। पत्थर के चिकनाए उपकरण के अलावा, वे माइक्रोलिथ पत्ती का इस्तेमाल
करते थे। वे मिट्टी और सरकण्डे की लकड़ी से बने वृत्ताकार या आयताकार घरों में रहते
थे। माना जाता है कि वृत्ताकार घरों में रहने वाले आदिम लोगों की सम्पत्ति सार्वजानिक थी।
हर परिस्थिति में, नवपाषाणयुगीन लोगों ने एक स्थिर जीवन को अपनाया और रागी, कुल्थी
और चावल उपजाया। मेहरगढ़ के नवपाषाण लोग अधिक उन्नत थे। उन्होंने गेहूँ और जौ
का उत्पादन किया, वे मिट्टी की ईंटों के घरों में रहते थे।
नवपाषाण चरण के दौरान, कई बस्तियाँ अनाज की खेती और पशुपालन से परिचित हुई।
इसलिए उन्हें अनाज संग्रह, खाना पकाने, खाने और पीने के लिए बर्तनों की आवश्यकता
थी। इसलिए, प्रथमत: हस्तनिर्मित मिट्टी के बर्तनों के उपरान्त चाक निर्मित बर्तनों का निर्माण
किया। बाद में नवपाषाण लोग बर्तन बनाने के लिए पैरों के पहिये का इस्तेमाल करते थे।
ऐसा लगता है कि कुम्हार का चाक पश्चिमी एशिया से बलूचिस्तान आया और वहाँ से
उपमहाद्वीप में फैल गया। नवपाषाण मिट्टी के बर्तनों में; काले पके हुए, धूसर और चिकने
एवं चमकीले बर्तन शामिल थे।
उड़ीसा और छोटा नागपुर के पहाड़ी इलाकों में नवपाषाण कुल्हाड़ी, छेनी और दराँती
जैसे औजार भी पाए गए हैं। लेकिन मध्य प्रदेश और ऊपरी दक्कन के कुछ हिस्सों में
सामान्यतः नवपाषाण बस्तियाँ कम हैं। इन क्षेत्रों में पत्थरों के प्रकार की कमी ने आसानी
से पिसने और चमकाने वाले यंत्रों के निर्माण के लिए प्रेरित किया।

नवपाषाण चरण में प्रगति और सीमा

ई.पू. 9000 और 3000 के बीच की अवधि में पश्चिमी एशिया में उल्लेखनीय तकनीकी
प्रगति हुई। लोगों ने खेती की कला, बुनाई, बर्तन बनाने, गृह निर्माण, संग्रहण समृद्धि और
लेखन जैसी कलाएँ विकसित की। हालाँकि, यह प्रक्रिया भारत में थोड़ी देर से शुरू हुई।
भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण-युग ई.पू. सातवीं सहस्राब्दि के आस-पास शुरू हुआ था।
उपमहाद्वीप में गेहूँ और जौ सहित कुछ महत्त्वपूर्ण फसलों की खेती हुई और दुनिया के इस
हिस्से में गाँवों की स्थापना की गई। नवपाषाणयुगीन लोगों द्वारा पत्थर के बने धारदार और नुकीले औजार ही उनकी पहचान थे। इन औजारों का इस्तेमाल ज्यादातर कृषि कार्य में
फावड़ा और हल के रूप में होता था। वे जमीन की खुदाई और बीज बोने के लिए थे। यह
सब निर्वाह के साधन में एक क्रान्तिकारी बदलाव था। लोग अब शिकार, मछली पकड़ने
और संग्रह पर निर्भर नहीं थे, बल्कि खेती के साथ-साथ पशुपालन से भी उन्हें भोजन प्राप्त
होता था। औजारों के साथ उन्होंने घरों का निर्माण भी किया। भोजन और आश्रय के नए
साधनों के साथ, वे सभ्यता की दहलीज पर आ चुके थे।
नवपाषाणयुगीन लोगों के सामने एक गम्भीर चुनौती थी, वह था यंत्रों का एक सीमित
दायरा। चूँकि वे पत्थर से बने औजार और हथियारों पर निर्भर थे, अत: वे पहाड़ी क्षेत्रों से
दूर बस्तियाँ नहीं स्थापित कर सके थे। वे केवल पहाड़ी चट्टानों और पहाड़ी नदी घाटियों
के ढलानों पर ही बस सकते थे। इतना ही नहीं, बहुत मेहनत के बाद भी वे सिर्फ निर्वाह
करने योग्य अपनी जरूरत भर ही पैदावार कर पाते थे।

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