मध्यकालीन भारत

उत्तर भारत और दकन : तीन साम्राज्यों का युग (आठवीं से दसवीं सदी तक)

सातवीं सदी में हर्ष के साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत, दकन और दक्षिण भारत में अनेक बड़े राज्य पैदा हुए। उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य और हर्ष के  साम्राज्य के समान कोई भी राज्य गंगा की पूरी वादी को अपने नियंत्रण में लाने संब
सफल नहीं रहा। गंगा को वादी को जनसंख्या और दूसरे संसाधन ही वे आधार है जिनके सहारे गुप्त राजाओं और हर्ष ने अपना नियंत्रण गुजरात पर स्थापित किया जो अपने समृद्ध बंदरगाहों और निर्मित वस्तुओं के कारण विदेशी व्यापार के लिए
महत्त्वपूर्ण था। मालवा और राजस्थान गंगा वादी और गुजरात के बीच की अनिवार कड़ी थे। उत्तर भारत में किसी भी साम्राज्य को भौगोलिक सीमाएँ इसी प्रकार निरूपित होती थीं। दक्षिण भारत में चोल कृष्णा-गोदावरी डेल्टा और कावेरी डेल्ट को अपने नियंत्रण में लाने में सफल रहे। दक्षिण भारत में उनके वर्चस्व का आधार यही था।
ईस्वी 750 और 1000 के बीच उत्तर भारत और दकन में जो बड़े-बड़े राज्य उत्पन्न हुए वे थे पाल साम्राज्य, जो नवीं सदी के मध्य तक पूर्वी भारत पर छाया रहा; प्रतिहार साम्राज्य, जो दसवीं सदी के मध्य तक पश्चिम भारत और गंगा को ऊपरी वादी पर राज्य करता रहा और राष्ट्रकूट साम्राज्य, जो दकन पर राज्य करता रहा तथा विभिन्न कालों में उत्तर और दक्षिण भारत के इलाकों को भी नियंत्रित करता रहा। हालाँकि ये साम्राज्य आपस में लड़ते रहते थे, पर इनमें से हर एक ने बड़े-बड़े क्षेत्रों में स्थिर जीवन को परिस्थतियाँ प्रदान की, कृषि का विस्तार किया, तालाबों और नहरों का निर्माण कराया तथा कला और साहित्य को संरक्षण प्रदान किया जिनमें मंदिर भी शामिल थे। इन तीनों में राष्ट्रकूट साम्राज्य सबसे लंबा चला। यह अपने काल का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य ही नहीं था बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक मामलों में उसने उत्तर और दक्षिण भारत के बीच पुल का काम भी किया।

उत्तर भारत में वर्चस्व का संघर्ष

हर्ष की मृत्यु के बाद का काल राजनीतिक अव्यवस्था का काल था। कश्मीर के राजा ललितादित्य ने कुछ समय तक पंजाब को अपने नियंत्रण में रखा। उसका नियंत्रण कन्नौज पर भी रहा जिसे हर्ष के दिनों से ही उत्तर भारत में प्रभुसत्ता का प्रतीक माना जाता था-आगे चलकर यही स्थिति दिल्ली की हो गई। कन्नौज पर नियंत्रण का मतलब गंगा की ऊपरी वादी तथा उसके व्यापार और समृद्ध कृषि संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेना भी था। ललितादित्य ने बंगाल अर्थात गौड़ पर भी हमला किया और उसके शासक को मार डाला। पर पाल और गुर्जर-प्रतिहार वंशों के उदय के साथ उसकी शक्ति समाप्त हो गई। पाल और प्रतिहार बनारस से लेकर दक्षिण बिहार तक के क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए आपस में टकराते रहे। इस क्षेत्र में भी समृद्ध संसाधन थे तथा साम्राज्य से संबंधित अपनी सुविकसित परंपराएँ थीं। दकन के राष्ट्रकूटों से भी प्रतिहारों का टकराव होता रहा।

पाल साम्राज्य

पाल साम्राज्य की स्थापना संभवत: 750 ई. में गोपाल ने की थी जब उस क्षेत्र में व्याप्त अराजकता को समाप्त करने के लिए क्षेत्र के अग्रणी व्यक्तियों ने उसे राजा चुन लिया। शाही परिवार तो दूर, गोपाल किसी ऊँचे परिवार में भी नहीं जन्मा था और उसके पिता संभवतः एक सैनिक थे। गोपाल ने अपने नियंत्रण में बंगाल का एकीकरण किया और मगध (बिहार) तक को अपने अधीन ले आया। 770 ई. में गोपाल का पुत्र धर्मपाल राजा बना जिसने 810 ई. तक शासन किया। कन्नौज और उत्तर भारत पर नियंत्रण के लिए पालों, प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों का त्रिपक्षीय संघर्ष उसके शासनकाल का मुख्य तत्त्व था। प्रतिहार राजा गौड़ (बंगाल) पर चढ़ आया लेकिन कोई निर्णय हो सके, इसके पहले ही प्रतिहार राजा को राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने हरा दिया और वह राजस्थान के रेगिस्तान में शरण लेने के लिए बाध्य हो गया।
फिर ध्रुव दकन लौट गया। इसके कारण धर्मपाल के लिए मैदान खाली हो गया। उसने कन्नौज पर कब्जा कर लिया और एक शानदार दरबार लगाया जिसमें पंजाब, पूर्वी राजस्थान आदि के अधीनस्थ शासकों ने भाग लिया। कहा जाता है कि धर्मपाल का शासन भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा की आखिरी हद तक फैला हुआ था और संभवत: मालवा और बरार भी उसमें शामिल थे। स्पष्ट रूप से इसका मतलब यह है कि इन क्षेत्रों के शासकों ने धर्मपाल की अधिराजी स्वीकार कर ली थी। धर्मपाल का विजयकाल 790 और 800 ई. के बीच माना जा सकता है। लेकिन धर्मपाल उत्तर भारत में अपनी सत्ता को स्थायी नहीं बना सका। नागभट्ट द्वितीय के काल में प्रतिहारों की शक्ति का पुनरुत्थान हुआ। धर्मपाल पीछे हटा मगर मुंगेर के पास हरा दिया गया। बिहार और आज का पूर्वी उत्तर प्रदेश पालों और प्रतिहारों के बीच टकराव का कारण रहा, हालाँकि बंगाल के अलावा बिहार भी अधिकतर पालों के ही नियंत्रण में रहा।
उत्तर में मिली असफलता ने पाल शासकों को दूसरी दिशाओं में प्रयास करने के लिए बाध्य कर दिया। धर्मपाल का बेटा देवपाल 810 ई. में गद्दी पर बैठा और उसने चालीस वर्षों तक शासन किया। उसने अपना नियंत्रण प्रागज्योतिषपुर (असम)
सोना और उड़ीसा के कुछ भागों पर भी स्थापित किया। संभवतः आधुनिक नेपाल का एक भाग भी पालों के अधीन आ चुका था। इस तरह आठवीं सदी के मध्य से लेकर नवीं सदी के मध्य तक, लगभग सौ वर्षों तक, पूर्वी भारत पर पाल राजाओं का वर्चस्व रहा। कुछ समय तक उनका नियंत्रण बनारस तक फैला रहा। उनकी शक्ति की गवाही सुलेमान नाम के अरब सौदागर ने दी है जो नवीं सदी के मध्य में भारत आया था और उसने यही का वृत्तांत लिखा है। वह पाल राज्य को रुहमा या धर्मा (धर्मपाल का संक्षेप) कहता है। इसके अनुसार पाल राजा का अपने पड़ोसी प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों से युद्ध चलता रहता था पर उसकी सेना उसके विरोधियों की सेनाओं से अधिक था। वह हमें बतलाता है कि 50,000 हाथियों की सेना लेकर चलना पाल राजा का कायदा था और उसकी सेना में 10,000-15,000 व्यक्ति ‘कपड़ों की सफ़ाई और धुलाई में लगे रहते थे। अगर इन आँकड़ों में अतिशयोक्ति हो तो भी हम मान सकते हैं कि पालों के पास एक बड़ी सेना थी। लेकिन हमें यह नहीं पता कि उनकी एक विशाल स्थायी सेना थी या उनकी सेना अधिकतर सामंतों पर आधारित होती थी। पालों के बारे में तिब्बती वृत्तांत भी हमें सूचनाएँ देते हैं हालाँकि ये सत्रहवीं सदी में लिखे गए थे। इनके अनुसार पाल शासक बौद्ध ज्ञान-विज्ञान और धर्म के महान संरक्षक थे।
पूरे पूर्वी जगत में प्रसिद्ध रह चुके नालंदा विश्वविद्यालय का धर्मपाल ने पुनरुत्थान किया और उसका खर्च पूरा करने के लिए उसने 200 गाँव अलग कर दिए थे। उसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय भी स्थापित किया जिसकी प्रसिद्धि नालंदा से कुछ
ही कम थी। यह मगध में गंगा के किनारे मनमोहक वातावरण के बीच, एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित था। पालों ने अनेक विहार बनवाए जिनमें बौद्ध भिक्षुओं की बड़ी संख्या रहती थी। तिब्बत से भी पाल शासकों के गहरे सांस्कृतिक संबंध थे। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वानों शांतरक्षित और दीपांकर (उर्फ़ अतिस) को तिब्बत निमंत्रित किया गया और उन्होंने वहाँ बौद्ध धर्म के एक नए रूप को प्रचलित किया। फलस्वरूप अनेक तिब्बती बौद्ध अध्ययन के लिए नालंदा और विक्रमशिला आए। यूँ तो पाल शासक बौद्ध मत के संरक्षक थे, पर शैव और वैष्णव मतों को भी उन्होंने संरक्षण दिया। उन्होंने उत्तर भारतीय ब्राह्मणों को एक बड़ी संख्या को, जो भागकर बंगाल पहुँचे थे, दान दिए।
उनकी आबादी के कारण पश्चिम बंगाल में कृषि का प्रसार हुआ तथा अनेक पशुपालक और खाद्य-संग्राहक समुदाय स्थायी रूप से बसकर खेती करने लगे। बंगाल की बढ़ती समृद्धि दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों, अर्थात बर्मा, मलाया, जावा, सुमात्रा आदि के साथ व्यापारिक और सांस्कृतिक संपर्क बनाने में भी सहायक हुई।
दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन के साथ व्यापार बहुत लाभदायक था जिससे पाल साम्राज्य की समृद्धि में बढ़ोत्तरी हुई। इन देशों के साथ व्यापार के कारण बंगाल में सोना और चाँदी का भंडार भी बढ़ा। शैलेंद्र शासक जो बौद्ध थे तथा मलाया, जावा, और पड़ोसी द्वीपों पर राज्य करते थे, उन्होंने पालों के दरवार में अनेक राजदूत भेजे। उन्होंने नालंदा में एक मठ बनाने की अनुमति भी माँगी तथा उसके रखरखाव के लिए पाल राजा देवपाल से पाँच गाँव देने की प्रार्थना भी की। यह प्रार्थना मान ली गई। इसे दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध का पक्का सबूत माना जा सकता है। इस काल में फ़ारस की खाड़ी क्षेत्र के साथ भी व्यापार बढ़ा।

प्रतिहार

लंबे समय तक कनौज पर शासन करने वाले प्रतिहारों को गुर्जर-प्रतिहार भी कहते हैं। अधिकांश विद्वान मानते हैं कि वे गुर्जरों के वंशज थे, जाटों की तरह घुमक्कड़ पशुपालक और योद्धा थे। प्रतिहारों ने मध्य और पूर्वी राजस्थान में अनेक रजवाड़े स्थापित किए। मालवा और गुजरात पर नियंत्रण के लिए राष्ट्रकूटों से वे टकराते रहे. और बाद में कन्नौज के लिए भी, जिसका मतलब गंगा की ऊपरी घाटी पर नियंत्रण पाना था। प्रतिहारों को राजधानी पहले भनिमाल में थी। उन्हें नागभट्ट प्रथम के प्रमुखता
ने सिंध के अरब शासकों का मिली। नागभट्ट जो राजस्थान, गुजरात, पंजाब आदि पर अधिकार जमाने का प्रयास कर रहे थे, जमकर विरोध किया। अरब गुजरात की ओर तेज़ी से बढ़े पर गुजरात के चालुक्य राजा के हाथों 738 ई. में उनकी निर्णायक पराजय हुई। हालाँकि छोटी-मोटी अरब घुसपैठे जारी रहीं, पर उसके बाद अरब वास्तविक खतरा नहीं रह गए। प्रतिहार राजाओं के गंगा के ऊपरी वादी और मालवा पर नियंत्रण फैलाने के आरंभिक प्रयासों को राष्ट्रकूट शासक ध्रुव और गोपाल तृतीय ने नाकाम कर दिया।
राष्ट्रकूटों ने 790 ई. में और फिर 806-07 ई. में प्रतिहारों को हराया। किंतु इसके बाद वे दकन लौट गए और पालों के लिए मैदान खुला छोड़ गए। संभवत: मालवा और गुजरात पर वर्चस्व रखना ही राष्ट्रकूटों का प्रमुख उद्देश्य था। प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक और इस वंश का महानतम शासक भोज था। भोज के आरंभिक जीवन या सत्तारोहण के समय के बारे में हम अधिक नहीं जानते। उसने प्रतिहार साम्राज्य का पुनर्निर्माण किया तथा 836 ई. के आसपास कन्नौज को वापस जीत लिया जो लगभग एक सदी तक प्रतिहार साम्राज्य को राजधानी रहा। भोज ने पूरब में पाँव फैलाने की कोशिश की, पर पाल राजा
देवपाल ने उसे हराकर आगे बढ़ने से रोक दिया। फिर वह मध्य भारत, दकन और गुजरात को ओर मुड़ गया। इससे राष्ट्रकूटों के साथ प्रतिहारों का संघर्ष फिर से शुरू हो गया। नर्मदा किनारे हुई एक खूनी लड़ाई के बाद भोज मालवा के एक अच्छे-खासे भाग पर और गुजरात के कुछ सफल रहा, पर दकन में वह आगे नहीं बढ़ सका। इसलिए उसने फिर उत्तर की और अपनी निगाह घुमाई। एक शिलालेख के अनुसार उसका राज्य सतलुज नदी के पश्चिमी तट तक फैला हुआ था। अरब यात्रियों से हमें पता चलता है कि प्रतिहार शासकों के पास भारत की सर्वोत्तम घुड़सवार सेना थी। उन दिनों मध्य एशिया और अरब प्रदेश से घोड़ों का आयात भारत के व्यापार का एक महत्त्वपूर्ण मद था।
देवपाल के मरने और पाल साम्राज्य के कमजोर पड़ने के बाद भोज ने पूर्व में भी अपना साम्राज्य फैलाया। कथाओं में भोज का नाम मशहूर है। संभवतः आरंभिक जीवन में भोज के दुस्साहसी कार्यों, अपने खोए हुए साम्राज्य की धीरे-धीरे पुनर्स्थापना और अंतत: कन्नौज की पुनर्विजय ने उसे उसके समकालीनों की कल्पना में विशेष स्थान दिला दिया था। भोज विष्णुभक्त था और उसने ‘आदिवाराह’ की उपाधि ग्रहण की जो उसके कुछ सिक्कों पर भी अंकित मिलती है। उज्जैन पर राज्य करनेवाले भोज परमार से उसे भिन्न दिखाने के लिए उसे कभी-कभी मिहिर भोज भी कहा जाता है।
भोज की मृत्यु संभवत: 885 ई. के आसपास हुई। उसका पुत्र महेंद्रपाल प्रथम उसका उत्तराधिकारी बना। 908-9 ई. तक राज्य करनेवाले महेंद्रपाल ने भोज के साम्राज्य को कायम रखा तथा उसे मगध और उत्तर बंगाल तक फैलाया। उसके शिलालेख काठियावाड़, पूर्वी पंजाब और अवध में भी मिले हैं। महेंद्रपाल ने कश्मीर के राजा से भी युद्ध किया, मगर उसे पंजाब का कुछ क्षेत्र सौंपना पड़ा जिसे भोज ने जीता था। इस तरह प्रतिहार आरंभिक नवीं सदी से लेकर दसवीं सदी के मध्य तक, सौ वर्षों से अधिक काल तक, उत्तरी भारत पर राज्य करते रहे। बगदाद का निवासी अल-मसूदी, जो 915-16 ई. में गुजरात आया था, प्रतिहार शासकों की भारी शक्ति और प्रतिष्ठा का तथा उनके साम्राज्य की विशालता का वर्णन करता है। वह गुर्जर- प्रतिहार राज्य को अल-जुज्र (गुजरात का भ्रष्ट रूप) कहता है तथा राजा को बौर कहता है जो संभवतः भोज की उपाधि आदिवाराह का भ्रष्ट उच्चारण है, हालाँकि भोज तब तक मर चुका था। अल-मसूदी कहता है कि जुज्र साम्राज्य में 1,80,000 गाँव, नगर और ग्रामीण क्षेत्र थे तथा यह 2000 कि.मी. लंबा और 2000 कि.मी. चौड़ा था। राजा की सेना के चार अंग थे और प्रत्येक में 7,00,000 से 9,00,000 सैनिक थे। ‘उत्तर की सेना लेकर वह मुलतान के बादशाह और दूसरे मुसलमानों के खिलाफ़, जो उसका साथ देते हैं, लड़ाई लड़ता है।’ दक्षिण की सेना राष्ट्रकूटों से लड़ती थी और पूरब वाली पालों से। उसके पास युद्ध के लिए प्रशिक्षित केवल 2000 हाथी थे, पर उसकी घुड़सवार सेना देशभर में सर्वश्रेष्ठ थी।प्रतिहार जान-विज्ञान और साहित्य के संरक्षक यो महान संस्कृट कवि और नाटककार राजशेखर मोजके पोते महोपाल के दरबार में धो प्रतिहारों ने कनीजको
को  अनेक सुंदर भवनों और मंदिरों से सजा रखा था
आठवों और नवों सदिय में अनेक भारतीय विद्वान टू के साथ बगदाद के खलीफा के दरबार में गर। इन विद्वानों ने अरब दुनिया को भारतीय विज्ञान से और विशेश्कर गणित. बीजगणित और आयुर्विज्ञान से परिचित कराया। हमें इस टूों को
मेजनेवाले भारतीय राजाओं के नाम ज्ञात नहीं हैं। सिंध के अरव रासकों से प्रतिहारों को सत्रुटा सबको पटा दो। इसके बावजूद रेस लगता है कि इस काल में भी भारत और पश्चिम एशिया के बीच विद्वानों और वस्तुओं का आवागमन जारी रहा। 915 और 918 ई के बीच राष्ट्रकूट राजा इंद्र तृतीय ने फिर कनौर पर आक्रमण किया और नगर को तबाह करके रख दिया। इससे प्रतिहार साम्राज्य कमजोर हुआ और संभवतः गुजरात राष्ट्रकूये के हाथों में चला गया क्योंकि अल-मसूदी का कथन है कि समुद्र तक प्रतिहार साम्राज्य को पहुंच नहीं दी। गुजरात विदेश व्यापार का गढ़ और उचर भारतीय वस्तुओं को पश्चिम रशिया के देशों में भेजनेवाला प्रमुख केंद्र था। इसलिए उसकी हानि से प्रतिहा- को एक और धक्का लगा। 93 ई. के आसपास एक और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने उचर भारत पर आक्रमण करके प्रतिहार राजा को हराया। उसके बाद से ही प्रतिहार साम्राज्य का तेजी से विघटन होने लगा।

राष्ट्रकूट

उत्तर भारत पर जब पालों और प्रतिहार का शासन था तव दकन पर राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे। यह एक उल्लेखनीय राजवंश था जिसने योद्धाओं और कुशल प्रशासकों की एक लंबी श्रृंखला प्रस्तुत की। इस राज्य का संस्थापक दातदुर्ग था जिसने आधुनिक शोलापुर के पास मान्यखेत या मलखेड़ को अपनी राजधानी बनाया। बल्द ही पूरा उचर महाराष्ट्र राष्ट्रकूवें के अधीन आ गया। जैसा कि हमने बताया है. गुजरात और मालवा पर वर्चस्व के लिए राष्ट्रकों ने प्रतिहारों से भी लोहा लिया। हालांकि उनके हमलों के कारण राष्ट्रकूट साम्राज्य का गंगा की वादी तक प्रसार नहीं हो पाया, पर उन्हें लूट में भारी दौलत मिली और राष्ट्रकों को प्रसिद्धि बड़ी। राष्ट्रकूट वेंगी (आधुनिक आंध्रप्रदेश में स्थित) के पूर्वी चालुल्यों के खिलाफ तथा दक्षिण में कांची के पल्लवों और मदुरै के पांड्यों के खिला मी बराबर युद्ध करते रहे।
राष्ट्रकूट राजाओं में गोविंद तृतीय (793-874) और अमोघवर्ष (814-878) संभवतः सबसे महान थे। कन्नौज के नागभट्ट के खिलाफ एक सफल अभियान और मालवा पर अधिकार कर लेने के बाद गोविंद तृतीय दक्षिण की ओर मुड़ा। एक शिलालेख से हमें पता चलता है कि गोविंद ने ‘केरल, पांड्य और चोल राजाओं को भयभीत कर दिया तथा पल्लवों का तो विनाश ही हो गया। (कर्नाटक का) गंग जो क्षुद्रता के कारण असंतोष का पात्र बना, जंजीरों में जकड़ा गया और मृत्यु को प्राप्त हुआ।’ लंका के राजा और उसके मंत्री को, जो अपने ही हितों की उपेक्षा करने लगे थे, पकड़कर कैदियों के रूप में हालापुर लाया गया। लंका के स्वामी की दो मूर्तियाँ मान्यखेत लाई गईं और एक शिवमंदिर के सामने विजयस्तंभों के रूप में लगा दी गई।
अमोघवर्ष ने 64 वर्षों तक राज्य किया पर उसका स्वभाव ऐसा था कि वहयुद्ध पर धर्म और साहित्य को वरीयता देता था। वह स्वयं एक लेखक था और कन्नड़ में काव्यशास्त्र पर पहली पुस्तक लिखने का श्रेय उसे दिया जाता है। वह एक महान निर्माता था और कहते हैं कि राजधानी मान्यखेत को उसने ऐसा बनाया कि इंद्रपुरी भी उसका मुकाबला नहीं कर पाए। अमोघवर्ष के काल में दूर तक फैले राष्ट्रकूट साम्राज्य में अनेक विद्रोह हुए। इनको मुश्किल से वश में किया जा सका और उसकी मृत्यु के बाद ये फिर शुरू हो गए। साम्राज्य की पुनस्र्थापना उसके पोते इंद्र तृतीय (915-927) ने की। 915 में महीपाल को पराजय और कन्नौज की लूट के बाद इंद्र तृतीय अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा बन बैठा। उन दिनों भारत की यात्रा पर आए अल-मसूदी के अनुसार राष्ट्रकूट राजा बल्हर या बल्लभराज भारत का सबसे बड़ा राजा था और अधिकांश भारतीय राजा उसकी अधिराजी को स्वीकार करते थे और उसके दूतों का सम्मान करते थे। उसके पास बहुत बड़ी सेना थी और अनगिनत हाथी थे।
कृष्ण तृतीय (934-963) प्रतिभाशाली शासकों की इस श्रृंखला में अंतिम था। मालवा के परमारों और वेंगी के पूर्वी चालुक्यों के साथ वह युद्धरत रहा। उसने तंजावुर के चोल शासकों के खिलाफ़ भी अभियान छेड़ा, जिन्होंने काँची के पल्लवों को विस्थापित किया था। कृष्ण तृतीय ने चोल राजा परंटक प्रथम को (949 में) हराया और चोल साम्राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। फिर वह रामेश्वरम की तरफ बढ़ा जहाँ उसने एक विजयस्तंभ और एक मंदिर बनवाया। उसकी मृत्यु के बाद उसके सभी विरोधी उसके उत्तराधिकारी के खिलाफ़ एकजुटहो गए। राष्ट्रकूट राजधानी मलखेड़ को 972 में लूटकर जला दिया गया। इस तरह राष्ट्रकूट साम्राज्य का अंत हो गया।
दकन में राष्ट्रकूट शासन लगभग दो सौ वर्षों तक, दसवीं सदी के अंत तक जारी रहा। धार्मिक दृष्टिकोण से राष्ट्रकूट राजा सहिष्णु थे तथा वे केवल शैव और वैष्णव ही नहीं बल्कि जैन मत के भी संरक्षक थे। एलोरा में चट्टान काटकर बनाया गया सुप्रसिद्ध शिव मंदिर राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम द्वारा नवीं सदी में बनवाया गया था। कहते हैं कि उसका उत्तराधिकारी अमोघवर्ष जैन था, लेकिन वह दूसरे धर्मों को भी संरक्षण देता था। राष्ट्रकूटों ने मुस्लिम व्यापारियों को अपने राज्य में बसने और
इस्लाम का प्रचार करने की अनुमति दी। कहते हैं कि इन मुसलमानों के अपने मुखिया थे और राष्ट्रकूट साम्राज्य के अनेक तटीय नगरों में नमाज के लिए उनकी बड़ी-बड़ी मस्जिदें थीं। सहिष्णुता की इस नीति ने विदेशी व्यापार को बढ़ावा दिया
जिससे राष्ट्रकूटों की समृद्धि बढ़ी।
राष्ट्रकूट शासक कला और साहित्य के महान संरक्षक थे। उनके दरबारों में हमें संस्कृत के विद्वान ही नहीं, ऐसे कवि और अन्य लोग भी दिखाई देते हैं जो प्राकृत और अपभ्रंश में लिखते थे। ये ही तथाकथित भ्रष्ट भाषाएँ थीं जो आधुनिक भारतयुद्ध पर धर्म और साहित्य को वरीयता देता था। वह स्वयं एक लेखक था और कन्नड़ में काव्यशास्त्र पर पहली पुस्तक लिखने का श्रेय उसे दिया जाता है। वह एक महान निर्माता था और कहते हैं कि राजधानी मान्यखेत को उसने ऐसा बनाया कि इंद्रपुरी भी उसका मुकाबला नहीं कर पाए।
अमोघवर्ष के काल में दूर तक फैले राष्ट्रकूट साम्राज्य में अनेक विद्रोह हुए। इनको मुश्किल से वश में किया जा सका और उसकी मृत्यु के बाद ये फिर शुरू हो गए। साम्राज्य की पुनस्र्थापना उसके पोते इंद्र तृतीय (915-927) ने की। 915 में महीपाल को पराजय और कन्नौज की लूट के बाद इंद्र तृतीय अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा बन बैठा। उन दिनों भारत की यात्रा पर आए अल-मसूदी के अनुसार राष्ट्रकूट राजा बल्हर या बल्लभराज भारत का सबसे बड़ा राजा था और अधिकांश भारतीय राजा उसकी अधिराजी को स्वीकार करते थे और उसके दूतों का सम्मान करते थे। उसके पास बहुत बड़ी सेना थी और अनगिनत हाथी थे।
कृष्ण तृतीय (934-963) प्रतिभाशाली शासकों की इस श्रृंखला में अंतिम था। मालवा के परमारों और वेंगी के पूर्वी चालुक्यों के साथ वह युद्धरत रहा। उसने तंजावुर के चोल शासकों के खिलाफ़ भी अभियान छेड़ा, जिन्होंने काँची के पल्लवों को विस्थापित किया था। कृष्ण तृतीय ने चोल राजा परंटक प्रथम को (949 में) हराया और चोल साम्राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। फिर वह रामेश्वरम की तरफ बढ़ा जहाँ उसने एक विजयस्तंभ और एक मंदिर बनवाया।
उसकी मृत्यु के बाद उसके सभी विरोधी उसके उत्तराधिकारी के खिलाफ़ एकजुट हो गए। राष्ट्रकूट राजधानी मलखेड़ को 972 में लूटकर जला दिया गया। इस तरह राष्ट्रकूट साम्राज्य का अंत हो गया।
दकन में राष्ट्रकूट शासन लगभग दो सौ वर्षों तक, दसवीं सदी के अंत तक जारी रहा। धार्मिक दृष्टिकोण से राष्ट्रकूट राजा सहिष्णु थे तथा वे केवल शैव और वैष्णव ही नहीं बल्कि जैन मत के भी संरक्षक थे। एलोरा में चट्टान काटकर बनाया गया सुप्रसिद्ध शिव मंदिर राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम द्वारा नवीं सदी में बनवाया गया था। कहते हैं कि उसका उत्तराधिकारी अमोघवर्ष जैन था, लेकिन वह दूसरे धर्मों को भी संरक्षण देता था। राष्ट्रकूटों ने मुस्लिम व्यापारियों को अपने राज्य में बसने और
इस्लाम का प्रचार करने की अनुमति दी। कहते हैं कि इन मुसलमानों के अपने मुखिया थे और राष्ट्रकूट साम्राज्य के अनेक तटीय नगरों में नमाज के लिए उनकी बड़ी-बड़ी मस्जिदें थीं। सहिष्णुता की इस नीति ने विदेशी व्यापार को बढ़ावा दिया
जिससे राष्ट्रकूटों की समृद्धि बढ़ी।
राष्ट्रकूट शासक कला और साहित्य के महान संरक्षक थे। उनके दरबारों में हमें संस्कृत के विद्वान ही नहीं, ऐसे कवि और अन्य लोग भी दिखाई देते हैं जो प्राकृत और अपभ्रंश में लिखते थे। ये ही तथाकथित भ्रष्ट भाषाएँ थीं जो आधुनिक भारतकी विभिन्न भाषाओं की स्रोत थीं। महान अपभ्रंश कवि स्वयंभू और उनका पुत्र संभवतः राष्ट्रकूट दरबार से ही संबंधित थे।

राजनीतिक विचार और संगठन

इन साम्राज्यों की प्रशासन की व्यवस्था उत्तर में गुप्त साम्राज्य और हर्ष के राज्य और दकन में चालुक्यों के आचार-विचार पर आधारित थी। शासक पहले की ही तरह सभी मामलों का केंद्र था। वह प्रशासन का प्रमुख भी था और सशस्त्र बलों का प्रमुख सेनापति भी। वह एक शानदार दरबार लगाता था। पैदल और घुड़सवार सेना को दालान में रखा जाता था। युद्ध में पकड़े गए हाथियों और घोड़ों को उसके सामने पेश किया जाता था। राजकीय सहायक सदा उसकी सेवा में तैनात रहते थे। सामंतों मातहत सरदारों, और राजदूतों के आने-जाने को वे ही नियंत्रित करते थे तथा उन अन्य उच्च अधिकारियों पर नजर रखते थे जो नियमित रूप से राजा की सेवा में थे। राजा ही न्याय भी करता था। दरबार राजनीतिक मामलों और न्याय ही नहीं, सांस्कृतिक जीवन का भी केंद्र होता था। नर्तकियाँ और कुशल संगीतकार भी दरबार में रहते थे। उत्सव के अवसरों पर राजपरिवार की महिलाएं भी दरबार में उपस्थित रहती थीं। अरब लेखकों के अनुसार राष्ट्रकूट साम्राज्य में स्त्रियाँ अपने चेहरे को ढंकती नहीं थीं।
राजा का पद सामान्यतः पुश्तैनी होता था। उस काल में व्याप्त असुरक्षा के कारण उस काल के विचारक राजा के प्रति पूर्ण निष्ठा और आज्ञाकारिता पर जोर देते थे। राजाओं के बीच तथा राजाओं और उनके मातहतों के बीच प्राय: युद्ध होते रहते थे। राजा अपने राज्यों के अंदर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के प्रयास तो करते थे, पर उनके आदेश कभी-कभार ही दूर तक लागू हो पाते थे। अधीन शासक और स्वायत्त सरदार राजा के प्रत्यक्ष प्रशासन के क्षेत्र को अकसर सीमित कर देते थे, हालाँकि राजा अकसर राजाधिराज परमभट्टारक आदि भारी-भरकम उपाधियाँ धारण करते थे और चक्रवर्ती अर्थात सभी भारतीय शासकों में सर्वोच्च होने का दावा करते थे। मेधातिथि नामक एक समकालीन लेखक का विचार था कि अपने को चोरों और हत्यारों से बचाने के लिए शस्त्र धारण करना हर व्यक्ति का अधिकार था। वह यह भी मानता था कि अन्यायी राजा का विरोध करना उचित था। इस तरह राजसी अधिकारों और विशेषाधिकारों के अतिवादी दृष्टिकोण को, जिसे मुख्यत: पुराणों में प्रस्तुत किया गया है, सभी विचारक स्वीकार नहीं करते थे।
उत्तराधिकार संबंधी नियमों में ढीलापन था। अकसर ज्येष्ठ पुत्र ही उत्तराधिकारी होता था। किंतु ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें ज्येष्ठ पुत्र को अपने छोटे भाइयों से लड़ना पड़ा और कभी-कभी वे पराजित भी हुए। उदाहरण के लिए, राष्ट्रकूट राजा धुव्र और गोविंद चतुर्थ ने अपने बड़े भाइयों को सत्ताच्युत किया। कभी-कभी राजा ज्येष्ठ पुत्र या अपने किसी और प्रिय पुत्र को युवराज घोषित कर देते थे। उस दशा में युवराज राजधानी में ही रहता और प्रशासन के कामों में सहायता करता था। कनिष्ठ पुत्रों को कभी-कभी प्रांतों का अधिपति बना दिया जाता था। राजकुमारियों को शासन के पदों पर शायद ही कभी नियुक्त किया जाता था, पर हमारे पास एक उदाहरण मौजूद है कि एक राष्ट्रकूट राजकुमारी चंद्रबालाब्बी ने, जो अमोघवर्ष प्रथम को पुत्री थी, कुछ समय तक रायचूड़ दोआब का प्रशासन चलाया।
राजा को सलाह देने के लिए प्रायः कई मंत्री होते थे। मंत्रियों का चुनाव राजा आम तौर पर प्रमुख परिवारों में से करता था। उनका पद प्रायः पुश्तैनी होता था। उदाहरण के लिए पाल राजाओं के संदर्भ में यह पता है कि एक ही ब्राह्मण परिवार के क्रम से चार सदस्य धर्मपाल और उसके उत्तराधिकारियों के मुख्यमंत्री हुए। ऐसी परिस्थितियों में मंत्री बहुत शक्तिशाली बन जाता था। यूँ तो हमें केंद्र सरकार के अनेक विभागों के नाम सुनने को मिलते हैं, पर हम नहीं जानते कि कितने विभाग होते थे और वे कैसे काम करते थे। अभिलेखों और साहित्यिक दस्तावेज़ों से पता लगता है कि लगभग हर राज्य में एक पत्राचार से संबंधित मंत्री होता था जो विदेश मंत्री की तरह भी कार्य करता था। इसके अलावा एक राजस्व मंत्री, कोषाध्यक्ष, सेनापति, मुख्य न्यायाधीश और पुरोहित होते थे। एक व्यक्ति एक से अधिक पदों पर भी आसीन हो सकता था। संभवतः मंत्रियों में से किसी एक को अग्रणी माना जाता था जिस पर राजा दूसरों से अधिक निर्भर करता था। पुरोहित को छोड़ सभी मंत्रियों से आशा की जाती थी कि वे आवश्यकता पड़ने पर सैन्य अभियानों का नेतृत्व भी करेंगे। हमें राजपरिवार (अंतःपुर) के अधिकारियों के बारे में भी सुनने को मिलता है। चूँकि राजा समस्त सत्ता का स्रोत होता था, इसलिए राजपरिवार के कुछ अधिकारी बहुत शक्तिशाली भी बन जाते थे।
साम्राज्य की सुरक्षा और प्रसार में सशस्त्र बलों का बहुत महत्त्व था। हमने अरब यात्रियों के इस साक्ष्य को पहले ही उद्धृत किया है कि पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट राजाओं के पास विशाल सुसंगठित पैदल और घुड़सवार सेनाएँ थीं तथा बड़ी संख्या
में जंगी हाथी थे। हाथियों को शक्ति का आधार मानकर उन्हें बहुत महत्त्व दिया जाता था। हाथियों की सबसे बड़ी संख्या पाल राजाओं के पास थी। राष्ट्रकूट और प्रतिहार राजा, दोनों ही समुद्र के रास्ते अरब और पश्चिम एशिया से तथा स्थल के रास्ते खुरासान (पूर्वी फ़ारस) और मध्य एशिया से बड़ी संख्या में घोड़ों का आयात करते थे। माना जाता है कि प्रतिहार राजाओं के पास देश भर में सबसे अच्छी घुड़सवार सेना थी। युद्ध के रथों का कोई हवाला नहीं मिलता जिनका प्रचलन समाप्त हो चुका था। कुछ राजाओं खासकर राष्ट्रकूटों के पास किले बड़ी संख्या में थे। उनमें विशेष दस्ते तैनात रहते थे और उनके अपने अलग कमानदार होते थे।
पैदल सेना में नियमित और अनियमित सैनिक होते थे, तथा मातहत राजाओं के भरती किए हुए अस्थायी सैनिक भी। नियमित सैनिक प्रायः पुश्तैनी होते थे तथा कभी-कभी देश के विभिन्न भागों से भरती किए जाते थे। उदाहरण के लिए, पालों की पैदल सेना में मालवा, खस (असम), लाट (दक्षिण गुजरात) और कर्नाटक से आए सिपाही शामिल थे। पाल राजाओं की और संभवत: राष्ट्रकूटों की भी अपनी नौसेनाएँ थीं। लेकिन उनकी शक्ति और संगठन के बारे में हम कुछ अधिक नहीं जानते।
इन साम्राज्यों में सीधे प्रशासित क्षेत्र भी थे और अधीन सरदारों द्वारा प्रशासित क्षेत्र भी। सरदारों के क्षेत्र, जहाँ तक अंदरूनी मामलों का सवाल है, स्वायत्त होते थे। सरदार राजा के प्रति निष्ठा रखते थे, वे राजा को निर्धारित कर या नज़राना देते थे और उसे निर्धारित संख्या में सैनिक भी प्रदान करते थे। कभी-कभी विद्रोह को संभावना से बचने के लिए सरदार के एक बेटे का राजा की सेवा में रहना आवश्यक बना दिया जाता था। इन सरदारों से विशेष अवसरों पर राजा के दरबार में उपस्थित होने की और कभी-कभी तो उनसे राजा या उसके किसी बेटे से अपनी एक बेटी ब्याहने की आशा की जाती थी। लेकिन ये अधीन सरदार हमेशा स्वतंत्र होने का प्रयास करते रहते थे तथा उनके और राजा के बीच प्राय: युद्ध होते रहते थे। उदाहरण के लिए, राष्ट्रकूटों को वेंगी (आंध्र) और कर्नाटक के सरदारों से या प्रतिहारों को मालवा के परमारों और बुंदेलखंड के चंदेलों के खिलाफ़ हमेशा लड़ना पड़ता था।
पाल और प्रतिहार साम्राज्यों में प्रत्यक्ष प्रशासित क्षेत्र भुक्ति (प्रांतों) और मंडल या विषय (जिलों) में विभाजित थे। प्रांत का अधिपति उपरिक और जनपद का अधिपति विषयपति कहलाता था। उपरिक से भूराजस्व जमा करने और सेना की सहायता से कानून-व्यवस्था बनाए रखने की आशा की जाती थी। विषयपति से यही कार्य अपने क्षेत्र में करने की अपेक्षा की जाती थी। इस काल में छोटे सरदारों की संख्या बढ़ी। उनको सामंत या भोगपति कहा जाता था तथा अनेक गाँवों पर उनका प्रभुत्व होता था। विषयपति और इन छोटे सरदारों का आपस में हेरफेर होता था और आगे चलकर दोनों के लिए बिना किसी भेद के सामंत शब्द का प्रयोग किया जाने लगा।
राष्ट्रकूट साम्राज्य में प्रत्यक्ष प्रशासित क्षेत्रों को राष्ट्र (प्रांतों), विषय और भुक्ति में विभाजित किया गया था। राष्ट्र का प्रमुख राष्ट्रपति कहलाता था और उसका कार्यभार वही था जो पाल और प्रतिहार साम्राज्य में उपरिक का था। विषय आज के ज़िले के समान था और भुक्ति उससे भी छोटी इकाई थी। पाल और प्रतिहार साम्राज्यों में विषय से छोटी इकाई को पत्तल कहते थे। इन छोटी इकाइयों की ठीक-ठीक भूमिका ज्ञात नहीं हैं। लगता है भूराजस्व वसूल करना और कुछ-कुछ कानून व्यवस्था पर ध्यान देना उनका मुख्य उद्देश्य था। ऐसा प्रतीत होता है कि सभी अधिकारियों को पारिश्रमिक के रूप में राजस्वमुक्त भूमियाँ दी जाती थीं। इससे स्थानीय अधिकारियों तथा पुश्तैनी सरदारों और छोटे मातहत सरदारों का अंतर धुंधला जाता था। इसी तरह राष्ट्रपति या प्रांतीय शासक कभी-कभी एक अधीनस्थ राजा की स्थिति और पदवी पा जाता था।
इन क्षेत्रीय विभाजनों के नीचे गाँव होता था। गाँव प्रशासन की बुनियादी इकाई था। गाँव का प्रशासन गाँव के मुखिया और लेखाकार द्वारा चलाया जाता था। ये आम तौर पर पुश्तैनी होते थे। उन्हें राजस्वमुक्त भूमि के रूप में भुगतान किया जाता था।
अकसर मुखिया को अपने काम में गाँव के बुजुर्गों से सहायता मिलती थी जिनको ग्राम-महाजन या ग्राम महत्तर कहते थे। ऐसा मालूम होता है कि राष्ट्रकूट ये साम्राज्य में, विशेषकर कर्नाटक में, स्थानीय विद्यालयों, तालाबों, मंदिरों और सड़कों की देखभाल के लिए ग्राम समितियाँ होती थीं। वे ट्रस्ट के तौर पर धन या संपत्ति ग्रहण कर सकती थी और उसका प्रबंध भी कर सकती थीं। ये उपसमितियाँ मुखिया से घनिष्ठ सहयोग बनाए रखकर काम करती थीं और जमा राजस्व का एक भाग पाती थीं। मामूली विवाद इन्हीं समितियों द्वारा तय किए जाते थे। ऐसी ही समितियाँ नगरों में भी थीं और दस्तकार संघों के प्रमुख भी उनसे जुड़े होते थे।
नगरों और आसपास के क्षेत्रों में कानून-व्यवस्था कायम रखना कोष्ठपाल या कोतवाल की ज़िम्मेदारी होती थी। कोतवाल से जुड़ी अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। दकन में नाद-गवूड या देश-ग्रामकूट कहलाने वाले पुश्तैनी राजस्व अधिकारियों का उदय इस काल की एक प्रमुख विशेषता है। लगता है उनके कार्य वही थे जो बाद के काल में महाराष्ट्र में देशमुख और देशपांडे के जिम्मे आए। इस विकासक्रम ने और साथ में उत्तर भारत में छोटे सरदारों के उदय ने, जिसका हमने अभी-अभी जिक्र किया है, समाज और राजनीति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला। इन पुश्तैनी तत्त्वों की शक्ति बढ़ी तो ग्राम समितियाँ कमज़ोर हुई। इन पुश्तैनी तत्त्वों पर अपनी सत्ता की धाक जमा पाना और उन्हें नियंत्रित करना केंद्रीय शासक के लिए भी मुश्किल हो गया। जब हम कहते हैं कि शासन का ‘सामंतीकरण’ हो रहा था तो हमारा आशय यही होता है।
इस काल में राज्य और धर्म के संबंध को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। उस काल के शासकों में अनेक शिव या विष्णु के निष्ठावान भक्त थे और कुछ बौद्ध या जैन धर्म की शिक्षा में विश्वास करते थे। उन्होंने ब्राह्मणों या बौद्ध विहारों या जैन मंदिरों को बड़े-बड़े दान दिए। लेकिन आम तौर पर वे सभी धर्मों को सरंक्षण प्रदान करते थे और किसी के धार्मिक विश्वासों के कारण उसका दमन नहीं करते थे। राष्ट्रकूट राजाओं ने मुसलमानों तक का स्वागत किया और उन्हें अपने धर्म का प्रचार करने की अनुमति दी। सामान्यतः एक राजा से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह प्रचलित रीति-रिवाजों में या धर्मशास्त्र कहलाने वाले विधिग्रंथों में निर्धारित आचार-संहिता में हस्तक्षेप नहीं करेगा। लेकिन ब्राह्मणों की रक्षा करना तथा समाज के चार वर्णों वाली सामाजिक व्यवस्था को कायम रखना उसका सामान्य कर्तव्य होता था। इस बारे में पुरोहित से राजा का मार्गदर्शन करने की आशा की जाती थी। पर यह नहीं मान लेना चाहिए कि पुरोहित राज्य के मामलों में हस्तक्षेप कर सकता था या राजा पर प्रभुत्व जमा सकता था। इस काल में धर्मशास्त्र के सबसे प्रमुख प्रतिपादक थे मेधातिथि, जिनका कहना था कि राजा की सत्ता का सोत धर्मशास्त्र, जिनमें वेद भी शामिल थे, और अर्थशास्त्र दोनों हैं। उसका सार्वजनिक कर्तव्य (राजधर्म) अर्थशास्त्र अर्थात राजनीति के सिद्धांतों पर आधारित होता था। इसका वास्तव में यह अर्थ निकलता है कि राजनीति और धर्म को मूलतः अलग -अलग रखा जाता था और धर्म बुनियादी तौर पर राजा का निजी कर्तव्य होता था। इस तरह राजागण पुरोहित वर्ग के या उनके द्वारा प्रतिपादित धार्मिक नियमों के अधीन नहीं होते थे। फिर भी, शासकों के पद को वैधता प्रदान करने और उसे शक्ति देने के लिए धर्म का महत्त्व था। इसीलिए अनेक राजाओं ने प्रायः अपनी राजधानियों में मंदिर बनवाए तथा मंदिरों और ब्राह्मणों के रखरखाव, भरण-पोषण के लिए भारी-भारी भूमिदान दिए।

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