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RBSE Class 11 Hindi रचना पल्लवन

RBSE Class 11 Hindi रचना पल्लवन

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi रचना पल्लवन

पल्लवन
निर्देश– संक्षेप में कही गई बात को विस्तार से स्पष्ट करने को ही पल्लवन कहते हैं। संक्षेप में कही गई बात एक वाक्य में होती है। कभी– कभी कोई काव्यपंक्ति भावपूर्ण सूक्त– कथन अथवा लोकोक्ति की तरह प्रसिद्ध कथन भी दिया जाता है, जिसका पल्लवन कुछ विस्तार से करना पड़ता है। इसे भाव– विस्तार, भाव– प्रसार अथवा वृद्धीकरण भी कहते हैं।

वृद्धीकरण या पल्लवन का यह आशय नहीं है कि दिये गये कथन का भावार्थ लिखा जाये या व्याख्या की जाये। इसमें तो लेखक के मन्तव्य तथा दृष्टिकोण को कुछ विस्तार के साथ समझाना चाहिए और मूल भाव को स्पष्ट करने का अधिकाधिक प्रयास करना चाहिए। यहाँ कुछ प्रमुख सूक्त– कथमों का पल्लवन दिया जा रहा है।

निर्देश– अधोलिखित पंक्ति का भाव– विस्तार लिखिए
1. एकै साधे सब सधै, सब साथै सब जाए।
जीवन में व्यक्ति यदि उचित युक्ति से एक प्रमुख काम को साध लेता है, तो उससे वह अन्य सब कामों को साधने में भी सफल हो जाता है। लेकिन यदि वह सभी कामों को एक साथ साधना चाहता है, तो वह असफल ही रहता है, क्योंकि सब कामों को एक साथ सधने की लालसा से उसकी युक्तियाँ कमजोर पड़ जाती है। उस दशा में सरल काम भी असाध्य बन जाता है और उसे हनि उठानी पड़ती है। कहा कहा भी गया है कि “आधी छोड़ पूरी को धावै, आधी मिले न पूरी पावै।” इसलिए। जीवन में क्रमशः आगे बढ़ना उचित रहता है।

2,”क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल है।”
जो व्यक्ति शक्तिशाली एवं पराक्रमी होता है, वह क्षमा करने का अधिकारी होता है। कमजोर आदमी दूसरों को क्या क्षमा करेगा, क्योंकि कमजोर आदमी की क्षमा तो कायरता है। जिस शत्रु में विरोध करने की या प्रतिरोध की क्षमता नहीं होती है, वह यदि क्षमा करने की बात कहे, तो वह उसको कोरा दिखावा है। जैसे विषहीन सर्प किसी को काटे भी, तो उसका काटना व्यर्थ है, जबकि विषैला सर्प काटे तो प्राणरक्षा असम्भव हो जाती है।

3. मानव का रचा सूरज मानव को भाप बनाकर सोख गया।
‘हिरोशिमा’ कविता की इस पंक्ति में कवि ने परमाणु बम को आज के वैज्ञानिक मानव द्वारा रचा गया सूर्य बताया है। मानव ने ही परमाणु बम का आविष्कार किया और उसी से मानव– जाति का विनाश हुआ तथा वह हिरोशिमा की धरती पर रहने वाले नागरिकों को क्षणभर में भाप बनाकर सोख गया। सूर्य अपनी तीव्र गर्मी से पानी को भाप बनाकर सोख लेता है। इसी प्रकार मानव द्वारा रचे गये परमाणु बम रूपी सूर्य ने हिरोशिमा के नागरिकों को झुलसाकर मार डाला। आज के वैज्ञानिक आविष्कारों का यह सबसे हानिकर एवं विध्वंसकारी रूप है। इस आविष्कार की जितनी निन्दा की जाये उतनी कम है।

4. वासनाएँ यदि लोहे के समान हैं तो प्रभु– स्मरण या सत्संग पारसमणि है।
मनुष्य में वासनाएँ लोहे के समान हैं। लोहा जल्दी जंग खा जाता है व काला पड़ जाता है, उसी प्रकार वासनाएँ व्यक्ति के चरित्र को अतिशीघ्र कलंकित, क्रूर तथा कष्टमय बना देती हैं। वासनाओं के कारण ही मनुष्य अन्यायी तथा दुर्गुण बन जाता है। परन्तु प्रभु– स्मरण और सत्पुरुषों की संगति से उसके सारे अवगुण समाप्त हो जाते हैं। तब जैसे पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही वह भी सर्वगुणसम्पन्न बन जाता है।

5. स्वदेश प्रेम से शुन्य मनुष्य जीता हुआ भी मोर के समान है।
स्वदेश– प्रेम ऐसा भाव है, जिससे व्यक्ति में अपनी संस्कृति, अपनी भाषा और मातृभूमि के प्रति अपनत्व जागृत हो जाता है। देश के प्रति कर्त्तव्य– निर्वाह की भावना तथा उसके गौरव– संवर्धन की चेष्टा देश– प्रेम से ही जागृत होती है। लेकिन जिस व्यक्ति में स्वदेश– प्रेम का भाव नहीं है, वह जीता– जागता मनुष्य होते हुए भी मरे हुए के समान है, क्योंकि उसका हृदय भावों से हीन रहता है। तब वह पशुओं के समान पृथ्वी पर भार माना जाता है।

6. जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि।।
साहित्यकार या कवि अपनी प्रतिभा से ज्ञात– अज्ञात सभी बातों तथा परिचितअपरिचित सभी स्थानों का वर्णन करता है। कवि के पास दिव्य– दृष्टि और भावुक चेतना होती है, उसका हृदय भावों से व्याप्त रहता है। इस कारण वह अलौकिक पदार्थों का चित्रण करने में समर्थ रहता है और उससे सभी पाठकों को पूर्णतया प्रभावित कर लेता है। प्रखरता में वह सूर्य से तेज दिखाई देता है।

7. ‘घर की समृद्धि से मन की समृद्धि अधिक बड़ी है।’
संसार में प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसका घर सब प्रकार से सम्पन्न और समृद्ध हो, उसके घर में प्रचुर धन– दौलत हो। परन्त उस धन– दौलत की शोभा तभी है, जब उस व्यक्ति का मन उदार भावना वाला हो। मन की समृद्धि अर्थात् मन में उदारता, दया, करुणा, सहयोग, उपकार– भावना, सद्भाव आदि श्रेष्ठ गुणों एवं विचारों से ही उस व्यक्ति की धन– दौलत शोभित होती है और उसका सही उपयोग होता है। इसलिए मन श्रेष्ठ विचारों से परिपूर्ण होना चाहिए।

8. “दय नहीं वह पत्थर है।
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।”
प्रत्येक व्यक्ति अपनी जन्मभूमि तथा अपने देश से उसी प्रकार स्नेह रखता है, जिस प्रकार वह माता के प्रति श्रद्धा– स्नेह रखता है। प्रत्येक नागरिक के हृदय में अपने देश के प्रति अपनत्व भावना रहती है। इसे ही देशप्रेम या देशभक्ति कहते हैं। परन्तु जो व्यक्ति अपने देश से प्रेम नहीं रखता है, वह सहृदय न होकर पत्थर– दिल होता है, क्योंकि उसमें अपनत्व– भावना का अभाव रहता है। ऐसे व्यक्ति की देशभक्तों के मध्य निन्दा की जाती है।

9. “प्रलये पयोधर बरस रहे हैं रक्त अश्रु की धार।
मानवता में राक्षसत्व का अब है पूर्ण प्रचार।” प्रलय काल आने पर बादल निरन्तर अतिवर्षण कर सृष्टि में उथल– पुथल मचा देते हैं। ठीक यही स्थिति वर्तमान वैज्ञानिक युग में दिखाई दे रही है। आज शोषण और उत्पीड़न से गरीब जनता खून के आँसू बहा रही है। आज मानवता का विनाश हो रहा है। एक प्रकार से अब मानवता का स्थान दानवता ने ले लिया है और उसी का सारे संसार में प्रभुत्व छा रहा है। इस राक्षसत्व के प्रसार से धरती पर चारों ओर अशान्ति तथा सन्त्रास की स्थिति बन गई है और मानव सभ्यता क्रूरता से ग्रस्त हो गई

10. “प्राण अन्तर में लिए पागल जवानी। कौन कहता है कि तू, विधवा हुई खो आज पानी।”
व्यक्ति के जीवन में यौवन का अत्यधिक महत्त्व है। यौवन एक ओर उन्मादकारी होता है तो दूसरी ओर शौर्य व साहस का प्रसार करता है। जब यौवन में सत्प्रेरणा मिलती है तो व्यक्ति अपने जीवन में ओजस्विता का समावेश कर लेता है। अतः जब तक यौवन रहे, प्राणों में ओजस्विता रहे, तब तक व्यक्ति निराशा अथवा वेदना– व्यथा से आक्रान्त नहीं रह सकता। यौवन की मस्ती और उल्लास के सामने दीनता एवं विवशता का अस्तित्व स्वतः समाप्त हो जाता है।

11. श्वास घुटे तो समझो अब, इतिहास बदलने वाला है।”
जब कभी अत्यधिक विषमता, उत्पीड़न और शोषण बढ़ जाता है तथा मानवता अच्छी तरह से श्वास नहीं ले पाती है, अर्थात् मानव– समाज का वातावरण कुण्ठाग्रस्त और दम घोटने वाला हो जाता है, तब क्रान्ति और समाजिक परिवर्तन का आभास होने लगता है। एक प्रकार से तब मानवता का इतिहास बदलने की सम्भावना बढ़ जाती है। सामाजिक क्रान्ति का जन्म इसी तरह होता है। 12. दुनिया एक बहुत बड़ी किताब हैइसे पढ़ने वाला चाहिए। इस संसार में अनेक तरह के लोग रहते हैं, अलग– अलग देशों की अलगअलग संस्कृतियाँ एवं परम्पराएँ हैं, सबके अलग– अलग रीति– रिवाज, आचार– विचार एवं धार्मिक मान्यताएँ हैं। इन सब बातों का ज्ञान तभी हो सकता है, जब हम उन्हें समझने और आत्मसात् करने की चेष्टा करें। वस्तुतः पूरे विश्व का ज्ञान रखना अपने आप में बड़ी चीज है और ऐसा व्यक्ति ही ज्ञान– सम्पन्न तथा लोकानुभव से समृद्ध हो सकता है।

13. जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोय तु फूल।।
यदि कोई तुम्हारा अहित करे, तुम्हारे कार्यों में बाधा उत्पन्न करे और जानबूझ कर रुकावट डाले, तो तुम उसी के समान आचरण मत करो। तुम तो उसके मार्ग में फूल डालकर सहयोगी बनो और अपने विरोधी की सहायता करो। इस तरह का मानवतावादी आचरण करने से तुम्हें सदा उसका अच्छा परिणाम मिलेगा। अन्ततः बुरा करने वालों को अपने कर्मों का बुरा ही फल मिलता है।

14. वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है– क्रोध से वैर बढ़ता है।
क्रोध में हम किसी का भला नहीं सोचते हैं और अनावश्यक दूसरों का विरोध कर अपना आवेश प्रकट करते हैं। उस दशा में शत्रुता का भाव बढ़ जाता है तथा मन में उसे हानि पहुँचाने की भावना रहती है। इसलिए जैसे सेब के मुरब्बे में सेब की ही फाँकें होती हैं, वैसे ही वैर में क्रोध भरा होता है।

15, परिवर्तन ही जीवन है– जीवन एकरस नहीं होता, उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। समय, परिस्थिति व स्थान के अनुसार जीवन में बदलाव आना स्वाभाविक है, अन्यथा हमें जीवन नीरस लगेगा और सफलता नहीं मिलेगी।

16. तलवार से अधिक गतिशील कलम है– कलम से अच्छी– अच्छी बातें लिखकर लोगों के हृदय को बदला जा सकता है। फ्रांस की क्रान्ति, रूस की क्रान्ति तथा भारत का स्वतन्त्रता– संग्राम इसका प्रमाण हैं। तलवार द्वारा जनता को इतना संगठित नहीं किया जा सकता।

17. ‘मैं’ मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है– ‘मैं’ का अर्थ है घमण्ड। घमण्ड आदमी को अपनी कमजोरी नहीं देखने देता। धमण्ड से बुद्धि नष्ट हो जाती है और आदमी विवेकशून्य होकर काम करने लगता है, इसलिए घमण्ड या अहंकार आदमी का सबसे बड़ा शत्रु है।।

18. हिंसा बुरी चीज है पर दासता उससे भी बुरी चीज है– हिंसा से दूसरों का नाश होता है, अतः वह बुरी है, पर दासता में आदमी जीवित रहकर भी मृत के समान रहता है, अतः दासता और भी बुरी है। इससे हम अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते।।

19. मूर्खता की पहचान बकवास है– व्यर्थ बात करना मूर्खता की निशानी है, समझदार आदमी अनर्गल नहीं बोलता। इसलिए कहा भी गया है कि व्यर्थ बोलने से अच्छा है चुप रहो।।

20. हानि– लाभ, जीवन– मरण, यश– अपयश विधि हाथ– जीवन में भाग्य या अदृश्य विधाता का विशेष महत्त्व होता है। व्यापार में नफा– नुकसान भाग्य के अनुसार होता है। जन्म और मृत्यु पर भी आदमी का वश नहीं। इसी भाँति सम्मान और अपयश भी तभी मिलती है जब वह भाग्य में हो। : ‘ …..”, ,, , ,

21. उधार प्रेम की कैंची है– जिस तरह कैंची वस्तु को काट देती है, उसी प्रकार प्रेमी व्यक्ति को पैसा उधार देने से आपसी प्रेम– भाव समाप्त हो जाता है। अतः . – जिनसे हमारा प्रेम एवं निजता का भाव है, उन्हें पैसे उधार नहीं देने चाहिए। पैसा वापिस न मिलने या विलम्ब से मिलने पर मन में कटुता आ जाती है।

22, पर उपदेश कुशल बहुतेरे– दूसरों को उपदेश देना सरल है। प्रायः आदमी यही करता है। उपदेश के अनुसार आचरण में तो दिक्कतें आती हैं, इसलिए आदमी स्वयं तो वैसा नहीं करता, पर दूसरों को उपदेश अवश्य देता है।

23. मन के हारे हार है मन के जीते जीत– जिसका मन हार जाता है यानी साहस टूट जाता है, वह व्यक्ति फिर कुछ भी नहीं कर सकता। जिसके मन में भय, आशंका या कायरता नहीं है तथा जिसने मन को जीत लिया है, उसे कोई भी नहीं हरा सकता।

24. धीरज, धरम, मित्र अरु नारी, आपत काल परखिये चारी– यदि विपत्ति के समय भी आदमी धैर्य न खोये, बुरे काम को न करे तो ही वह महान् है। इसी भाँति मित्र वही है जो संकट में काम आये। पत्नी की परीक्षा भी तब होती है जब पति पर संकट आने पर वह साथ निभाये।

25. छोड़कर जीवन के अतिवाद मध्य पथ से लो गति सुधार– आवश्यकता से अधिक विलासिता और एकदम वैराग्य ये दोनों ही गलत हैं। जीवन तभी सफल होगा जब हम भोग और योग में समन्वय स्थापित करके चलेंगे। यही मध्यम मार्ग है।

26. चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग– चन्दन के पेड़ पर जहरीले साँप लिपटे रहते हैं पर चन्दन पर उनके जहर का असर नहीं होता है। इसी भाँति सज्जनों पर दुष्टों की संगत का कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। कमल कीचड़ में रहकर भी उसके कलंक से निर्लिप्त रहता है।

27. उपकार शील का दर्पण है– उपकार में ही चरित्र की महानता है। जैसे दर्पण में हम अपना प्रतिबिम्ब देख लेते हैं, वैसे ही दूसरों का भला करने में महानता या सज्जनता अपने– आप प्रकट हो जाती है। इसके लिए अन्य कुछ करने की आवश्यकता नहीं रहती है।

28, जीवन एक प्रयोगशाला है– प्रयोगशाला में जैसे अलग– अलग तत्त्वों, पदार्थों व द्रव्यों को मिलाकर नये– नये अनुसंधान किये जाते हैं तथा उनकी सत्यता को परखा जाता है, वैसे ही जीवन में भी हम अपने कार्यों के अच्छे– बुरे होने को परखते। हैं; जिनके परिणाम अच्छे निकलते हैं, वे सत्य मान लिए जाते हैं।

29. जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ– जैसे समुद्र में पेंदे पर उतरने। वालों को मुंगे– मोती मिलते हैं, वैसे ही जीवन को हम जितना गहराई में जाकर देखेंगे। उतना ही हमें लाभ होगा। अतः हमें भौतिक सुखों में न फंसकर जीवन की वास्तविकता को परखना चाहिए।

30, काजल धोने से कपूर नहीं हो जाता– कोई कितना ही प्रयत्न करे परन्तु किसी की प्रवृत्ति को नहीं बदला जा सकता। गधे को घोड़ा नहीं बनाया जा सकता, दुष्ट लोग अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ते। अतः उनके साथ समय व शक्ति खर्च करना व्यर्थ

31. दूध का जला छाछ को भी फेंक– फेंक कर पीता है– जो आदमी एक बार नुकसान उठा लेता है, वह फिर सावधान हो जाता है। फिर वह हर कार्य में सावधानी रखता है। उसे भय होता है कि कहीं फिर से वही नुकसान न उठाना पड़े।

32. विपत्ति जीवन की सर्वश्रेष्ठ पाठशाला है– पाठशाला में विद्यार्थी जीवन सम्बन्धी अनेक बातें सीखता है। इसी भाँति संकट भी आदमी को बहुत– कुछ सिखाता है। संकट का मुकाबला करने तथा जीवन की विपत्तियों से मुक्त होने के लिए आदमी यथाशक्ति प्रयत्न करता है। उसी में उसे कई अनुभव होते हैं।

33. दुःख की पिछली रजनी बीच विकसता सुख का नवल प्रभात– जैसे काली अँधेरी रात के बीत जाने पर सुन्दर अरुण प्रकाश से युक्त दिन का आगमन होता है, वैसे ही घोर निराशा– वेदना से आक्रान्त दु:ख के बाद सुख को आनन्ददायी अवसर मिलता है। इस संसार में न तो सुख और न दुःख स्थायी रहता है। ये दोनों जीवन में क्रमशः परिवर्तित होते रहते हैं, पहिये की तरह घूमते रहते हैं। अतः दु:ख के क्षणों में अधिक परेशान नहीं होना चाहिए।

34, जिसकी लाठी उसी की भैंस– शक्तिशाली को ही संसार में विजयी मिलती है। जो बलवान है वह कुछ भी कर सकता है। वह अपने विरोधी को भी कुचल सकता है। इसलिए शक्ति बड़ी है।

35. का वर्षा जब कृषि सुखाने– खेत सूख जाने पर पानी बरसे तो खेत हरा नहीं होता। वह पानी व्यर्थ रहता है, वैसे ही हर काम समय पर हो जाना चाहिए, अन्यथा उसकी उपादेयता समाप्त हो जाती है। परीक्षा के बाद यदि कोई पुस्तक मिले तो वह किस काम की?

36. जो चमके सो सब नहीं सोना– ऊपर से अच्छी दिखने वाली हर वस्तु या हर प्राणी अच्छा नहीं होता है। वस्तु या व्यक्ति के सम्पर्क से ही उसकी वास्तविकता और श्रेष्ठता का ज्ञान होता है। अतः पहली बार में ही किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए।

37, ”परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।”
दूसरों का भला करना ही सबसे अच्छा पुण्य– कार्य है। इसी भाँति दूसरों को दुःख देना ही पाप है। रामायण और गीता में भी यही कहा गया है। अतः हमें यथासम्भव परोपकार करना चाहिए।

38, होनहार बिरवान के होत चीकने पात– जो महापुरुष होते हैं, उनमें महानता के लक्षण जन्म से ही दिखाई देते हैं, क्योंकि वे जन्म से ही अपने छोटे– छोटे कार्यों से दूसरों के हृदय पर प्रभाव डालते हैं। उन कार्यों से उनमें महान् गुणों का विकास होता है। मानवीय गुणों के पारखी लोग ऐसे गुणवान जनों को समय से पूर्व ही पहचान लेते हैं।

39. पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले– मानव बुद्धिशील जीव है। अतः उसे किसी कार्य को करने से पहले अपने विवेक का उपयोग करना चाहिए। यदि व्यक्ति अच्छी तरह सोच– समझकर अपना लक्ष्य निश्चित करे, तो उसे आसानी से सफलता मिल सकती है, परन्तु उतावलेपन और अविवेक से लक्ष्य की प्राप्ति असंभव होती है। इसलिए पहले लक्ष्य और उसे पाने में आने वाली कठिनाइयों का विचार करना चाहिए, तब उस ओर बढ़ना चाहिए।

40. कर्म ही जीवन है, भाग्य नाम है कायरता का– प्रायः देखा जाता है कि लोग भाग्य को कोसते रहते हैं। परन्तु भाग्य को ही सफलता का द्योतक मानने वाले वस्तुतः कायर होते हैं। वे अपने को श्रम से बचाने की चेष्टा करते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति कर्मठता अपनाते हैं और कर्म करते रहना ही जीवन का परम लक्ष्य मानते हैं, उन्हें प्रत्येक कार्य में सफलता मिल ही जाती है और उनका जीवन भी सफल रहता है।

41. करत– करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान– कहते हैं कि घिसतेघिसते बेडौल पत्थर भी शिवलिंग की तरह गोल बन जाता है। इसी प्रकार मानव यदि किसी कार्य के लिए निरन्तर श्रम करता रहता है, वह उसमें अन्ततः सफल हो जाता है, क्योंकि निरन्तर कार्य करते रहने से उसे कार्य का अनुभव बढ़ता है, परेशानियों से जूझता रहता है और अन्त में वह कुशलता प्राप्त कर लेता है।

42. महत्त्वाकांक्षा मनुष्य का असाध्य रोग है– मानव की महत्त्वाकांक्षाओं का अन्त नहीं है। यह उसका स्वभाव है। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के कारण ही मानव इतना विकास कर पाया है। फिर भी उसकी महत्त्वाकांक्षा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है। इसी कारण महत्त्वाकांक्षा को मनुष्य को असाध्य रोग कहा है।

43. दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम– मनुष्य के विचारों एवं कार्यों में अनिश्चय की स्थिति नहीं होनी चाहिये। समय रोके नहीं रुकता, अनिश्चय की स्थिति में न तो कार्य में सफलता मिलती है और न कोई लाभ ही होता है, अपितु अपना धन और समय भी बर्बाद हो जाता है। इसलिये जीवन में दुविधा नहीं रखनी चाहिये।

44. कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली– सर्वथा दो असमान व्यक्ति। एक अत्यन्त गरीब एवं सामान्य व्यक्ति धन, वैभव, शान– शौकत से सम्पन्न व्यक्ति की बराबरी नहीं। कर सकता। धन– ऐश्वर्य से सम्पन्न व्यक्ति असम्भव कार्य को भी धन के बल पर कर सकता है, जबकि गरीब व्यक्ति के लिए यह असम्भव कार्य रहता है।

45. ईश्वर की माया, कहीं धूप कहीं छाया– इस संसार में कोई गरीब है तो कोई अमीर है, कोई प्रतिभाशाली है तो कोई महामूर्ख है, कोई उदारमना है तो कोई कंजूस है, कहीं पर वर्षा होती है तो कहीं धूप की प्रचण्डता रहती है। इस प्रकार इस संसार में ईश्वर की माया विविध रूपों में दिखाई देती है और सर्वत्र एक जैसी स्थिति नहीं रहती है।

46. तेते पाँव पसारिये जेती लांबी सौर– अपनी सामर्थ्य– सीमा से बाहर का काम नहीं करना चाहिए। कुछ लोग अपनी शक्ति, योग्यता एवं गरीबी का ध्यान में रखकर कार्य करते हैं, इससे उन्हें हानि उठानी पड़ती है। रजाई जितनी लम्बी हो उतने ही पैर पसारने चाहिए, इससे अधिक पैर फैलाने पर वे नंगे रहेंगे। इसलिये व्यक्ति को प्रत्येक कार्य अपनी क्षमता के अनुसार करना चाहिए।

47. दरिद्रता मनुष्य के अपौरुष और आलस्य को विज्ञापन है– मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं होता है। यदि वह पुरुषार्थ करता है, आलस्य का त्याग करके निरन्तर परिश्रम करता है तो उसका जीवन सुखमय बन जाता है तथा धन– सम्पत्ति उसके पास स्वयं आ जाती है। उद्यमी व्यक्ति की जीवनयात्रा मंगलमय हो जाती है, परन्तु आलसी तथा पौरुषहीन व्यक्ति का जीवन सफल नहीं होता है। वह इन दोषों के कारण गरीबी का जीवन बिताता है। इस प्रकार दरिद्रता या गरीबी उसके अपौरुष और आलस्य का विज्ञापन है।

48. आये थे हरिभजन को औटन लगे कपास– कभी– कभी मनुष्य अच्छे काम के लिए किसी के पास जाता है, परन्तु वह ऐसे दुश्चक्र में फँस जाता है कि उसे बेगार करनी पड़ती है। यह उसके भाग्य एवं काल की
प्रबलता का परिणाम माना जा सकता है। वह अच्छा जीवन बिताना चाहता है, परन्तु दुर्भाग्य उसका पीछा नहीं छोड़ता और वह मारा– मारा फिरता है। इस कारण उसका जीवन असफल हो जाता है।

49. बिन माँगे मोती मिले माँगे मिले न भीख– इस संसार में ईश्वर की लीला बड़ी विचित्र है। जो व्यक्ति सन्तान व धन– सम्पत्ति चाहते हैं, उन्हें अपनी अभिलाषा के लिये जीवनभर तरसना पड़ता है, लेकिन जो कोई अभिलाषा नहीं रखते हैं, उन्हें ईश्वर अतिशय सुख– वैभव दे देता है। वैसे किसी भी वस्तु की याचना करना उचित नहीं है, बिना याचना किये ही जो मिल जाये, उसी से सन्तोष कर लेना चाहिए। जीवन में सुख– सन्तोष का सबसे बड़ा रहस्य यही है।

50. कर्ता से बढ़कर कर्म का स्मारक दूसरा नहीं– किसी भी कर्म का सबसे बड़ा स्मारक उस कर्म को करने वाला अर्थात् कर्ता ही होता है। जब हम किसी कर्म की प्रशंसा करते हैं तो हमारा ध्यान तुरन्त उसके कर्ता पर पहुँच जाता है। कार्य को कर्ता से अलग करके नहीं देखा जा सकता। जब हम स्वयं उसी कार्य को करने का प्रयत्न करते हैं तो मार्गदर्शन के लिए हमारी दृष्टि तुरन्त उसके कर्ता की ओर उठती है। जो हमारा आदर्श होता है।

51. पत्थर के देवता से हाड़– मांस के मानव का मूल्य अधिक है– प्रायः धार्मिक अन्ध– आस्था वाले लोग पत्थर की मूर्ति पूजने पर काफी धन खर्च करते हैं, परन्तु वे गरीबों की सहायता जरा भी नहीं करते हैं। जबकि पत्थर की मूर्ति का निर्माण तो मनुष्य करता है, परन्तु मनुष्य को इस सृष्टि में उत्पन्न करने वाला परमात्मा ही है। लाख कोशिश करने पर भी कोई चतुर कारीगर पत्थर की मूर्ति की तरह सजीव मानव के शरीर का निर्माण नहीं कर सकता। इसलिए हमें हाड़– मांस के बने अर्थात् ईश्वर की सृष्टि की बहुमूल्य मूर्ति मानव की सहायता करनी चाहिए।

52. सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं, पुरुषार्थ ही सबका नियामक है– व्यक्ति आलस्यं या कायरता से ज़ब किसी कार्य में संफल नहीं। होता है, तो वह अपने अच्छे या बुरे भाग्य को उसका कारण मानता है। वस्तुतः इस तरह सोचना मानव की दुर्बलता है। यदि वह पराक्रमी, मेहनती, उद्यमी और पुरुषार्थ करने वाला बने, तो उसे सर्वत्र सफलता मिल सकती है तथा सौभाग्य उसका साथ देने लगता है।

53. कायर भाग्य की और वीर पौरुष की बात करते हैं– जो व्यक्ति कायर स्वभाव के होते हैं, वे विघ्न– बाधाओं के भय से किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते हैं और अपने को भाग्य भरोसे रखते हैं, लेकिन वीर पुरुष तो प्रत्येक कार्य में कठोर परिश्रम एवं उत्साह दिखाते हैं तथा सर्वत्र सफलता प्राप्त करते हैं। उनका भाग्य पौरुष के अधीन रहता है।

54. घृणा और प्रेम साथ– साथ नहीं रह सकते– घृणा और प्रेम ये दोनों परस्पर विरोधी तत्त्व हैं। जिस व्यक्ति से हमें घृणा होगी, उससे प्रेम नहीं होगा और जिससे प्रेम होगा उससे हम घृणा नहीं करेंगे। ये दोनों भाव मानव– हृदय में एक साथ नहीं। रहते हैं। इसलिए प्रेम की खातिर घृणा का परित्याग कर देना चाहिए।

55. क्रोध एक तरह का रोग है, जिसे क्षणिक पागलपन भी कह सकते हैंमनुष्य जब क्रोध से भर जाता है, तो उस दशा में उसकी विवेक– बुद्धि लुप्त हो जाती है। तब वह अपने भले– बुरे का ध्यान नहीं रखता है और पागलों की तरह आवेश में आकर बकवास करने लगता है। इस कारण देखा जाये तो क्रोध भी एक रोग ही है, जो कुछ क्षणों के लिए क्रोधी व्यक्ति को पागलपन की तरह प्रभावित कर देता है। 56. चाँदी की रातें सोने के दिन रहते खुशी से हम अनुदिन– किसी कवि की मानवतावादी का मना है कि इस धरती पर मानव को सब प्रकार के सुख यदि उपलब्ध हो जाते, तो मानव– समाज का वातावरण अत्यन्त सुखमय बन जाता। तब रातें चाँदी की तरह शुभ्र चाँदनी से चमकने वाली होतीं और दिन स्वर्णिम प्रकाश से आलोकित होते तथा समग्र मानव– समाज सदैव खुशियों से जीवनयापन करता।

57. जाके पाँव न फटी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई– जिस व्यक्ति को जीवन में कभी कष्ट नहीं मिला हो, विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ा हो, वह दूसरों की पीड़ा एवं परेशानियों का अनुभव नहीं कर सकता। वेदना एवं पीड़ा का वास्तविक अनुभव इन्हें भागने से ही होता है। अतः विपत्तिग्रस्त व्यक्ति के प्रति हमें सहानुभूति रखनी चाहिए।

58. जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समान– मनुष्य के मन में सन्तोष अर्थात् लालच का अभाव होने पर उसे जो कुछ भी मिल जाता है, उसी में वह सुख का अनुभव करता है और उसे मानसिक अशान्ति का सामना नहीं करना पड़ता। इसलिए सन्तोष सबसे बड़ा धन है, उसके सामने अन्य धन धूल के समान तुच्छ हैं। अन्य धन तो निरन्तर तृष्णा को बढ़ाते हैं और व्यक्ति के मन को अशान्त रखते हैं।

59. यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

पशु में सामाजिक चेतना नहीं होती, इस कारण उसे केवल अपने पेट की चिन्ता रहती है। जो व्यक्ति अत्यन्त स्वार्थी होता है और अपना ही हित चाहता है, वह
भी पशु की प्रवृत्ति से युक्त माना जाता है। मनुष्य तो वही होता है जो अन्य लोगों के लिए मरे, अर्थात् स्वार्थ का परित्याग कर मानवता का कल्याण करने हेतु समर्पित रहे।

60. आँख में हो स्वर्ग लेकिन पाँव पृथ्वी पर टिके हों– चाहे व्यक्ति बड़ी से बड़ी कल्पना करे, स्वर्ग– तुल्य सुखमय जीवन प्राप्त करने की अभिलाषा रखे या महत्त्वाकांक्षी बने, परन्तु उसे उतना उद्यम भी करना चाहिए। धैर्य, उद्यम और संकल्पगत दृढ़ता के अभाव में वह अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति नहीं कर सकता।

61. भाग्यवाद आवरण पाप का, और शस्त्र है शोषण का– जो लोग भाग्य के भरोसे रहते हैं, वे जीवन में कभी सुखी और सफल नहीं रहते। ऐसे लोगों का अन्य लोग शोषण भी करते हैं। भारतीय श्रमिक इसी भाग्यवादी विचार के कारण शोषण के शिकार होते रहते हैं। अतः मनुष्य को भाग्यवादी न बनकर उद्यमी बनना चाहिए।

62. स्वर्ग और नरक एक ही तराजू के दो पल्ले हैं– इस संसार में ही मनुष्य को अच्छे कार्यों से स्वर्ग का सुख तथा बुरे कार्यों से नरक का दुःख मिलता है। यदि जीवन में सुख अधिक मिलता है तो दुःख कम मिलता है। तराजू के पल्ले भार रखने पर एक ऊपर तथा दूसरा नीचे रहता ही है। एक प्रकार से यहाँ सुख और दुःख का क्रम चलता ही रहता है।

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