प्राचीन भारत

ऋग्वैदिक काल | Rigvedic period

ऋग्वैदिक काल | Rigvedic period

ऋग्वैदिक काल

इण्डो-आर्यों का आगमन

इण्डो-ईरानी का तात्पर्य है इण्डो-आर्य और ईरानी, जो मध्य एशिया के दो क्षेत्रों से भारत
की तरफ आए। पुरातत्व में इस पहले क्षेत्र को एण्ड्रॉनोवा संस्कृति कहा जाता है। यह
ई.पू. दूसरी सहस्राब्दि के आस-पास पूरे मध्य एशिया में फैली हुई थी। दूसरे को बैक्ट्रिया-
मर्जियाना आर्कियोलॉजिकल कम्प्लेक्स (Bactria-Margiana Archaeological
Compler अर्थात् बी.एम.ए.सी.) कहा जाता है। जिसका काल ई.पू. 1900-1500 था।
यह सांस्कृतिक क्षेत्र अफगानिस्तान में बैक्ट्रिया या बाल्क; तुर्कमेनिस्तान एवं उजबेकिस्तान
में मर्जियाना सहित दक्षिण मध्य एशिया में फैला हुआ था। दक्षिण उजबेकिस्तान और उत्तर
अफगानिस्तान से मिली चीनी मिट्टी की वस्तुएँ गान्धार की उस संस्कृति से मिली हैं जहाँ
दफनाए जाने की प्रथा थी। एण्ड्रॉनोवा संस्कृति आर्य-जीवन के सभी महत्वपूर्ण तत्वों को
दर्शाती है। जिसमें संग्रहण, प्रजनन, घोड़े, स्पोक वाले पहियों के व्यापक उपयोग, अन्तिम
संस्कार, भोजपत्र एवं अन्य लकड़ियों से निर्मित भूमिगत निवास और सोम पेय शामिल
हैं। इसलिए इस संस्कृति को प्रोटो-इण्डो-ईरानी कहा जाता है। अन्तत: ये दोनों ईरान और
भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग तक फैले।
ई.पू. 1500 के आस-पास बी.एम.ए.सी. में घोड़ों को पालने, स्पोक-युक्त पहिये वाले
रथ, आंशिक दाह-संस्कार (partial cremation) और स्वास्तिक के सबूत मिलते हैं।
आधे दर्जन कब्रिस्तान से पशु पालने वालों की आवाजाही के सुबूत मिलते हैं। हालाँकि,
बी.एम.ए.सी. क्षेत्र में पूर्व-आर्य काल के प्रोटो-शहरी संस्कृति के अवशेष बताते हैं कि
इसे जिन पशुपालकों ने क्षतिग्रस्त किया वो यहाँ से होते हुए भारतीय उपमहाद्वीप की सीमा
तक पहुंच गए। इसलिए ई.पू. 1400 में स्वात घाटी में घोड़ों के अवशेष और अन्तिम
संस्कारोपरान्त दफन के संकेत मिलते हैं। इसी समय की कुछ चीनी मिट्टी की वस्तुएँ जो
दक्षिण मध्य एशिया से प्राप्त हुई हैं वे स्वात क्षेत्र से मिलने वाले सामानों के जैसी हैं।
बी.एम.ए.सी. के अन्तर्गत आने वाले तीनों क्षेत्रों में बैक्ट्रिया को भारतीय परम्परा में
अच्छी तरह से जाना जाता है। इसे बहिलका कहा जाता है, जिसका अर्थ है एक बाहरी देश।
जो कि आधुनिक बाल्क के रूप में है। यद्यपि इस शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं है,
इसका उल्लेख बाद के वैदिक ग्रन्थों में मिलता है। ऐसे ही एक ग्रन्थ में ‘बहिलका’ एक
राजा के नाम के रूप में आता है। बल्लिका का उल्लेख शास्त्रीय संस्कृत ग्रन्थों और
अभिलेखों में भी है। चौथी शताब्दी का एक गुप्त काल का अभिलेख बहिलका के विजेता
होने का संकेत देता है जो सिन्धु के सात मुहानों को पार कर वहाँ पहुँच गया था। इसमें
वास्तविक विजय भले न हो, लेकिन गुप्त काल में बैक्ट्रिया का अस्तित्व मिलता है।
हालाँकि, बाद के सूत्रों ने पंजाब को बहिलका माना और इसे प्राच्य या पूर्वी भारत से अलग
माना। बैक्ट्रिया अफगानिस्तान के महत्वपूर्ण हिस्सों में फैला है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में
भी था। यहाँ बहने वाली कई नदियों का उल्लेख भी इस ग्रन्थ में है। आर्य अफगानिस्तान में
बसने आए थे। इसका पता आर्यों के नाम पर आधारित यहाँ की नदियों से चलता है। इस
देश का एक भाग अरैया या हरैया नाम से जाना जाता है, जिससे हेरात बना है।
शुरू-शुरू में आर्य, पूर्वी अफगानिस्तान, उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रान्त, पंजाब और
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किनारे वाले भौगोलिक क्षेत्र में रहते थे। ऋग्वेद में अफगानिस्तान
की कुभा और अपनी पाँच शाखाओं सहित सिन्धु नदी जैसी कुछ नदियों का भी उल्लेख है।
सिन्धु नदी इण्डस से सीधे-सीधे जुड़ी हुई है और आर्यों के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण नदी है,
जिसका ऋग्वेद में बार-बार उल्लेख किया गया है। एक और नदी है सरस्वती, जिसे ऋग्वेद
में नदीतमा या सर्वश्रेष्ठ नदी कहा गया है। यह हरियाणा और राजस्थान में घग्गर-हकरा
के साथ पहचानी जाती है, लेकिन इसके ऋग्वैदिक वर्णन से पता चलता है कि यह दक्षिण
अफगानिस्तान में अवेस्तन नदी हरख्वाती है या वर्तमान हेलमन्द नदी है। जहाँ से सरस्वती
नाम भारत में आया था। पूरा क्षेत्र जहाँ भारतीय उपमहाद्वीप में आर्य सबसे पहले बसे, उन्हें
सात नदियों की भूमि कहा जाता है
भारत में हम आर्यों को ऋग्वेद से जानते हैं। इस ग्रन्थ में आर्य शब्द छत्तीस बार आए
हैं और सामान्यतः एक सांस्कृतिक समुदाय का परिचायक है। जिनकी भाषा इण्डो-आर्यन
है। ऋग्वेद भारोपीय भाषाओं का प्राचीनतम ग्रन्थ है। यह संस्कृत में लिखा है लेकिन इसमें
ढेर सारे मुण्डा एवं द्रविड़ शब्द भी हैं। सम्भवत: ये शब्द हड़प्पा भाषाओं के माध्यम से
ऋग्वेद तक पहुँचे। यह अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण एवं अन्य देवताओं की विभिन्न ऋषि/
कवि परिवारों द्वारा की गई प्रार्थनाओं का एक संग्रह है। इसमें दस मण्डल या खण्ड हैं,
जिनमें दूसरे से सातवें खण्ड तक पहले लिखा गया है। पहला और दसवाँ खण्ड नवीनतम
लगता है। ऋग्वेद में कई चीजें ईरानी भाषा के सबसे पुराने ग्रन्थ अवेस्ता से मिलती-जुलती
हैं। दोनों ग्रन्थों में कई देवताओं के लिए, यहाँ तक कि सामाजिक वर्गों के लिए भी इसी
शब्द का उपयोग किया जाता है।
हालाँकि, भारोपीय भाषा का सबसे पुराना नमूना ईराक से ई.पू. 2200 के एक अभिलेख
में पाया गया है। बाद में ऐसे नमूने ई.पू. उन्नीसवीं से सत्तरहवीं सदी तक अनातोलिया
(तुर्की) में हित्तीत अभिलेख में मिलते हैं। वे ई.पू. 1400 के आस-पास ग्रीस के मायसीनियन अभिलेखों में भी पाए जाते हैं। इराक में ई.पू, 1600 के आस-पास के करियत अधितिय
और सीरिया में ई.पू चौदहवीं शताब्दी के मित्तानी अभिलेख में आर्यन नाम मिलते हैं।
हालाँकि अब तक भारत में ऐसे कोई अभिलेख नहीं पाए गए हैं।
भारत में आर्यों का आगमन कई चरणों में हुआ। सबसे पहले चरण में प्रावैदिक लोग
का उल्लेख है। जो ई.पू. 1500 के आस-पास इस उपमहाद्वीप आए। उनका स्वदेशी
निवासियों के साथ संघर्ष हुआ जिसे दास, दस्यु आदि कहा जाता था। प्राचीन ईरानी साहित्य
में भी दासों का उल्लेख है, ऐसा लगता है कि वे भी प्राचीन आयौं की ही एक शाखा थे।
ऋग्वेद में भरत कबीले के प्रमुख दिवोदास से सम्बर के पराजित होने का उल्लेख है। इस
स्थिति में दास शब्द दिवोदास नाम से लिया हुआ जाना जाता है। सम्भवतः ऋग्वेद में दम्यु
भारत के मूल निवासियों का प्रतिनिधित्व करते थे जिन्हें पराजित करने वाले आर्य-प्रमुख की
त्रासदस्यु कहा गया। दासों के प्रति आर्य-प्रमुख बड़े नरम थे लेकिन दस्युओं के प्रति उनका
व्यवहार घोर शत्रुतापूर्ण था। दस्युहत्या यानि दस्यु का संहार शब्द ऋग्वेद में बार-बार आता
है। दस्यु सम्भवत: लिंग-पूजा करते थे और उनके पशुपालन का उद्देश्य गव्य पदार्थों और
दूध से जुड़ा हुआ नहीं होता था।

कबीलाई संघर्ष

इण्डो-आर्य लोगों के विरोधियों के हथियारों के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। हालाँकि
इन्द्र द्वारा आर्यों के शत्रुओं को हराने के भी कई उल्लेख हैं। ऋग्वेद में इन्द्र को पुरन्दर
कहा जाता है। जिसका अर्थ आवासीय परिसर का विनाशक है। हालाँकि इसके जरिए हम
आर्यों से पहले बसे लोगों द्वारा निर्मित संरचनाओं की पहचान नहीं कर सकते। जिनमें से
कुछ उत्तरी अफगानिस्तान में स्थित हो सकती हैं। इण्डो-आर्यन हर जगह सफल रहे क्योंकि
उनके पास पश्चिम एशिया और भारत में पहली बार प्रयोग किए जाने वाले अश्वयुक्त रथ
थे। सम्भवतः आर्य-सैनिकों के पास कवच (वर्मन) और बेहतर हथियार थे।
इण्डो-आर्य लोग दो तरह के संघर्षों में फंसे थे। पहला कि वे आर्यों से पहले के लोगों से
लड़े और फिर आपस में लड़े। अन्ततः कबीलाई (Intra Tribal) संघर्षों ने आर्य समुदायों
को एक लम्बे समय तक झटका दिया। परम्परा के अनुसार आर्यों को पाँच जनजातियों में
विभाजित किया गया था जिसे पाँचजन नाम से जाना गया। लेकिन वहाँ अन्य जनजाति भी हो
सकती हैं। आर्य आपस में लड़े और कभी-कभी इस लड़ाई के लिए उन्होंने अनार्यों का भी
समर्थन लिया। भरत और त्रित्सू शासक आर्यवंश के थे और गुरू वशिष्ठ का उन्हें समर्थन
प्राप्त था। अन्ततः भरत जनजाति के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष रखा गया। जिसका
उल्लेख ऋग्वेद में पहली बार किया गया है। भरत शासक वंश का विरोध दस प्रमुखों द्वारा
किया गया, इनमें से पाँच आर्य जनजातियों के मुखिया थे और शेष पाँच अनार्य थे। भरत ने
जिन दस प्रमुखों के साथ संघर्ष किया, उन्हें दस राजाओं का युद्ध कहा जाता है। यह लड़ाई परुशनी नदी के किनारे लड़ी गई थी, जो रावी नदी के साथ है और इसमें सुदास जीते और
भरत का आधिपत्य स्थापित हुआ। पराजित जनजातियों में से सबसे महत्वपूर्ण पुरु थे। इसके
फलस्वरूप भरत ने पुरु से हाथ मिला लिया और कुरु नामक जनजाति का गठन किया।
कुरु, पंचाल के साथ मिल गए और उन्होंने मिलकर ऊपरी गंगा के मैदानों में अपने शासन
की स्थापना की, जिसने उत्तर-वैदिक काल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
पशुपालन और कृषि
हम ऋग्वैदिक आर्यों के भौतिक जीवन के बारे में कुछ विचार बना सकते हैं। उन्होंने
अपनी सफलता का श्रेय घोड़ों, रथों और सम्भवत: काँस्य से बने कुछ बेहतर हथियारों
को दिया। जिसके पुरातात्त्विक सबूत हमारे पास बहुत कम हैं। सम्भवतः उन्होंने ई.पू.
2300 में काकेशिया क्षेत्र में पहली बार स्पोक वाले पहिये की शुरुआत की। जब वे
उपमहाद्वीप के पश्चिमी भाग में बसे तो राजस्थान में खेतरी खदानों द्वारा निकलने वाले
ताम्बे का इस्तेमाल होता था। ऋग्वैदिक लोगों को कृषि का बेहतर ज्ञान था। ऋग्वेद के
प्रारम्भ में फाल (Ploughshare) का उल्लेख किया गया है, हालाँकि कुछ लोग इसे प्रक्षेप
(Interpolation) कहते हैं और शायद यह लकड़ी का बना होता था। वे लोग बुवाई,
कटाई-छंटाई से परिचित थे और विभिन्न मौसमों के बारे में जानते थे। वैदिक लोगों के साथ
जुड़े क्षेत्र में रहने वाले आर्य-पूर्व लोगों को भी कृषि का ज्ञान था। लेकिन वे सम्भवतः इसका
प्रयोग चारा उत्पादन के लिए करते थे।
हालाँकि, ऋग्वेद में गाय और बैल के इतने सन्दर्भ हैं कि ऋग्वैदिक लोगों को मुख्यत:
कृषि आधारित माना जा सकता है। उनके अधिकांश युद्ध गायों के लिए होते थे। ऋग्वेद में
युद्ध के लिए गविष्ठी या गायों की तलाश जैसे शब्द हैं और गाय धन का सबसे महत्वपूर्ण
रूप है। जब भी हम पुजारियों को दिए गए उपहारों के बारे में सुनते हैं, वे सामान्यतः गायें
और दासियाँ थीं; भूमि कभी नहीं होती थी। सम्भव है कि ऋग्वैदिक लोगों ने चराई, खेती
और आवास के लिए भूमि-खण्ड पर कब्जा किया हो, लेकिन व्यवस्थित निजी सम्पत्ति के
रूप में भूमि की मान्यता न रही हो।
ऋग्वेद में बढ़ई, रथ निर्माता, बुनकर, चर्मकार और कुम्हार जैसे कारीगरों का उल्लेख
है। यह इंगित करता है कि वे सभी प्रकार के शिल्प जानते थे। ताम्बे या काँस्य के लिए
इस्तेमाल किए गए शब्द अयास दर्शाता है कि वे धातु के काम-काज की भी जानकारी रखते
थे। हालाँकि, नियमित व्यापार के अस्तित्व का स्पष्ट प्रमाण नहीं है। आर्य या वैदिक लोगों
ने मुख्य रूप से भूमार्गों का इस्तेमाल किया। क्योंकि ऋग्वेद में वर्णित समुद्र शब्द मुख्य
रूप से पानी के विस्तार को दर्शाता है। इसी प्रकार उसमें वर्णित शब्द पुर का अर्थ या तो
एक इकाई है या इकाई समूह। यह शहर या किला नहीं है। कभी-कभी ऐसी इकाई को
हजारों दरवाजों वाला बताया जाता है लेकिन सहस्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में कई बार अतिशयोक्ति के रूप में किया जाता है। अत: आर्य शहरों में नहीं रहते थे और सम्भवतः
मिट्टी के बने घरों में रहते थे। पुरातत्वविदों द्वारा इसकी पुष्टि अभी भी नहीं की गई है। वे
पहाड़ों की गुफाओं से भी परिचित थे।
हाल में हरियाणा के भगवानपुर और पंजाब के तीन अन्य स्थलों पर ‘उत्तरवर्ती हड़प्पा’
में मिट्टी के बर्तनों के साथ-साथ चित्रित भूरे बर्तन भी पाए गए हैं। भगवानपुर में प्राप्त
सामग्री को ई.पू. 1600 से 1000 का बताया जाता है जो कि ऋग्वेद काल से मिलता
है। ऋग्वेद में आने वाले सभी महत्वपूर्ण हिस्से संयोगवश इन चारो भौगोलिक स्थलों से
मिलते-जुलते हैं। यद्यपि इन स्थलों पर चित्रित भूरे बर्तन प्राप्त हुए हैं, परन्तु लौह वस्तुएँ
और अनाज नहीं मिले हैं। इसलिए हम चित्रित भूरे बर्तन का लौह-पूर्व काल के होने के बारे
में अनुमान लगा सकते हैं, जो ऋग्वैदिक काल से मिलता है। भगवानपुर में एक खोज में
तेरह कमरे वाले मिट्टी के घर मिले हैं जिसका समय निर्धारण नहीं हुआ है। यह सम्भवत:
एक बड़े परिवार या किसी कबीलाई प्रमुख के घर का संकेत देता है। इन सभी साइटों पर
मवेशियों की हड्डियाँ और घोड़ों की हड्डियाँ भगवानपुर में पर्याप्त संख्या में मिली हैं।

कबीलाई मुखिया

ऋग्वैदिक काल में युद्ध में सफल नेतृत्व के लिए आर्यों की प्रशासनिक मशीनरी कबीलाई
मुखिया के अनुसार काम करती थी। उन्हें राजन कहा जाता था। ऐसा लगता है कि
ऋग्वैदिक काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया था। हालाँकि, राजन एक तरह का
प्रमुख था और वह असीमित शक्ति का इस्तेमाल नहीं करता था। वह कबीलाई संगठनों को
मान्यता देता था। समिति नामक जनजातीय सभा द्वारा राजा के चुनाव के संकेत मिलते हैं।
राजा को अपनी जनजाति का रक्षक कहा जाता था। वह उनके मवेशियों की रक्षा करता था,
उसके लिए युद्ध करता था और उनकी ओर से देवताओं से प्रार्थना करता था।
ऋग्वेद में सभा, समिति, विदाथा और गण जैसे कई कबीलाई या नातेदारी आधारित
जनसमूहों का उल्लेख है। वे विचार-विमर्श करते थे व सामरिक और धार्मिक आयोजन भी
करते थे। ऋग्वैदिक समय की सभा और विदाथा में महिलाएँ भी भाग लेती थीं। शुरुआती
वैदिक काल में सभा और समिति ने बहुत कुछ किया जिससे कि प्रमुखों और राजाओं ने
उनका समर्थन पाने की इच्छा जताने लगे।
दैनिक प्रशासनिक कार्यों में कुछेक कर्मियों ने राजा को सहायता प्रदान की। इनमें से
सबसे महत्वपूर्ण कार्य पुरोहित द्वारा किया गया। ऋग्वैदिक काल में जिन दो पुरोहितों ने
प्रमुख भूमिका निभाई, वे वशिष्ठ और विश्वामित्र थे। वशिष्ठ रूढ़िवादी और विश्वामित्र
उदारवादी थे। विश्वामित्र ने आर्यों की समृद्धि के लिए गायत्री मन्त्र की रचना की। गायत्री
मन्त्र का उच्चारण करनेवालों आर्यों में शामिल कर लिया जाता था। आखिरकार, इस मन्त्र
पर तीन उच्च वर्णों का एकाधिकार हो गया। फिर पुरोहितों ने महिलाओं और शूद्रों को इसके उच्चारण की अनुमति नहीं दी। वैदिक पुजारियों ने कबीलाई प्रमुखों को कार्य में प्रवृत्त
किया और पुरस्कार स्वरूप गायों एवं दासियों की प्राप्ति के लिए उनके कृत्यों की प्रशंसा
की। राजा के बाद, सेनानी या सेना प्रमुख का ओहदा होता था। उन्होंने भाला, कुल्हाड़ी,
तलवार आदि का इस्तेमाल किया। कर-संग्रह से सम्बद्ध किसी अधिकारी के बारे में हम
नहीं जानते। सम्भवतः लोग स्वयं बलि के नाम पर राजन को उपहार देते थे। कुछ वैदिक
सभाओं में सम्भवत: उपहार और युद्धोपरान्त सामान वितरित होते थे, जैसा कि समुदायिक
जीवन में होता है। ऋग्वेद में न्यायिक प्रशासन से सम्बद्ध किसी अधिकारी का उल्लेख
नहीं मिलता। हालाँकि, यह कोई आदर्श समाज नहीं था, बल्कि ऐसा समाज था जिसमें
चोरी और धोखाधड़ी होते थे, लोग गाय चुराते थे। इन गतिविधियों पर नजर रखने के लिए
गुप्तचर रखे जाते थे।
अधिकारियों के खिताब से क्षेत्रीय प्रशासन का अनुमान नहीं लगता। हालाँकि, कुछ
अधिकारियों को प्रदेशों के साथ जोड़ दिया गया। उन्होंने मैदानी इलाकों और स्थाई गाँवों
में अपने पदों का आनन्द लिया। जिस अधिकारी ने बड़े पैमाने पर भूमि या कृषि योग्य
मैदान पर अधिकार का आनन्द लिया, उन्हें व्रजपति कहा जाता था। उन्होंने परिवारों
के प्रमुख कुलपाओं या योद्धाओं के प्रमुख ग्रामणीओं से युद्ध किया। प्रारम्भ में, ग्रामणी
छोटे से कबीलाई समुदाय, जिन्हें ग्राम कहा जाता था, के प्रमुख होते थे, लेकिन जब
ये भली-भाँति बस गए, ग्रामणी गाँव के प्रमुख बन गए, फिर बाद में वे भी व्रजपति के
समान हो गए।
राजा, किसी स्थायी सैन्य-बल का निर्माण नहीं करते थे, बल्कि युद्ध के समय में
सैनिकों को बढ़ावा देते थे, जिसकी सैन्य गतिविधियों को विभिन्न कबीलाई समूहों द्वारा
सम्पन्न होती थीं, जिन्हें व्रत, गण, ग्राम, सरधा कहा जाता था। इस कबीलाई शासन
प्रणाली में सैन्य वृत्ति व्यापक पैमाने पर मजबूत होती थी। कोई व्यवस्थित जनप्रणाली
या प्रादेशिक प्रशासन नहीं था, क्योंकि लोग विकास की प्रक्रिया में थे और एक क्षेत्र से
दूसरे क्षेत्र में जाते रहते थे।

कबीला और परिवार

सामाजिक संरचना का आधार परिवार था, आदमी की पहचान उसके कबीले से होती
थी, कई ऋग्वैदिक राजाओं के नामों में ऐसा देखा जा सकता है। लोगों की मूल वफादारी
जनजाति के प्रति होती थी, को जन कहा जाता था। एक प्रारम्भिक छन्द में, दो जनजातियों
के योद्धाओं की संयुक्त शक्ति इक्कीस बताई गई है। इससे ज्ञात होता है कि किसी जनजाति
सदस्यों की कुल संख्या 100 से अधिक नहीं थी। ऋग्वेद में जन शब्द लगभग 275 स्थानों
पर आया है, जनपद या क्षेत्र शब्द का प्रयोग एक बार भी नहीं है। लोग जनजाति से जुड़े
थे क्योंकि अभी तक न तो जमीन पर नियन्त्रण था और न ही साम्राज्य की स्थापना हुई थी।
कबीले के लिए प्रयुक्त एक अन्य महत्वपूर्ण शब्द विस है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद
मैं 170 बार हुआ है। सम्भवतः विस युद्ध की दृष्टि से ग्रामों या छोटे कबीलाई इकाइयों में
विभाजित किया गया था। ग्रामों के आपसी संघर्ष के फलस्वरूप संग्राम या युद्ध हुआ। सबसे
अधिक वर्ण वैश्यों विस या जनजातीय लोगों के बीच से निकला है।
भाग्वेद में परिवार (कल) शब्द का उल्लेख नाममात्र का है। इसमें न केवल माता, पिता,
पुत्र, दास आदि शामिल थे, बल्कि कई अन्य लोग भी थे। ऐसा लगता है कि प्रारम्भिक
वैदिक काल में परिवार को गृह शब्द से नामित किया गया था, जो इसमें अक्सर आता है।
प्राचीनतम भारोपीय भाषाओं में, भतीजे, पोते, चचेरे भाई, आदि के लिए एक शब्द ही है।
अर्थात् अलग-अलग पारिवार निर्माण के लिए अभी तक पारिवारिक रिश्तों में विभेद नहीं
हुए थे और परिवार एक बड़ी संयुक्त ईकाई थी। स्पष्टत: रोमन समाज की तरह पिता के
अधीन एक पितृसत्तात्मक परिवार था। ऐसा लगता है कि परिवार की कई पीढ़ियाँ एक ही
छत के नीचे रहती थी। चूँकि यह एक पितृसत्तात्मक समाज था, पुत्र जन्म को वांछित माना
गया था और लोगों ने युद्ध लड़ने के लिए वीर पुत्रों की प्राप्ति के लिए देवताओं से प्रार्थना
करते थे। हालाँकि ऋग्वेद के श्लोकों में बच्चों और मवेशियों की वृद्धि की इच्छा बारम्बार
व्यक्त हुई है, मगर पुत्रियों के लिए ऐसी कोई इच्छा नहीं व्यक्त की गई है।
महिलाएं अपने पति के साथ सभाओं में भाग लेती थीं और बलि चढ़ाती थीं। हमारे पास
पाँच ऐसी महिलाओं के उदाहरण हैं, जो भजन करती थीं, हालाँकि बाद के ग्रन्थों में ऐसी
बीस महिलाओं का उल्लेख है। जाहिर है कि श्लोक मौखिक होते थे, कोई लिखित श्लोक
इस काल से सम्बन्धित नहीं हैं।
विवाह प्रथा स्थापित हो चुकी थी, हालाँकि आदिम प्रथाओं के प्रतीक बचे हुए थे। यम
की जुड़वाँ बहन यमी द्वारा प्रेम-सम्बन्ध स्थापित करने के प्रस्ताव के बारे में सुना जाता
है, लेकिन यम द्वारा प्रस्ताव का विरोध किया गया था। बहुपति विवाह के कुछ संकेत भी
मिलते हैं। रोदसी के साथ मरुतों के जीवन-यापन और सूर्य देवता की पुत्री सूर्या के साथ
दो आश्विन भाइयों के रहने के उदाहरण हैं, लेकिन ऐसे उदाहरण नगण्य हैं। सम्भवतः ये
मातृ-प्रधान समाज का संकेत देते हैं। ममतेय जैसे कुछ उदाहरण भी हैं, जिनमें पुत्रों का
नामकरण माँ के नाम पर किया गया है।
ऋग्वेद में भाई की विधवा से विवाह और विधवा-पुनर्विवाह का उल्लेख है। बाल-विवाह
के कोई उदाहरण वहाँ नहीं हैं, ऋग्वेद में विवाह योग्य आयु 16 से 17 बताई गई है।

सामाजिक विभेद

ई.पू. 1500-1000 के आस-पास उत्तर-पश्चिम भारत के लोगों की चेतना का उल्लेख
ऋग्वेद में दिखाता है। वर्ण शब्द का इस्तेमाल रंग के लिए किया गया है और ऐसा लगता
है कि इण्डो-आर्यन भाषी श्वेत वर्ण के थे और मूल निवासी श्याम वर्ण के।वर्ण सामाजिक व्यवस्था की एक पहचान बन गई थी, लेकिन लेखकों की नस्लीय भेदभाव की धारणा
ने इसके महत्त्व को अतिश्योक्ति से भर दिया। मूल निवासियों पर इण्डो-आर्यों की विजय
सामाजिक विभाजनों के सर्वाधिक जिम्मेदार थे। आर्यों द्वारा दास और दस्यु पर विजय प्राप्त
करने के बाद गुलामों और शूद्रों जैसा व्यवहार किया। ऋग्वेद में आर्य वर्ण और दास वर्ण
का उल्लेख है। जनजातीय प्रमुखों और पुजारियों ने लूट का बड़ा हिस्सा हासिल कर लिया
और स्वाभाविक रूप से अपने रिश्तेदारों की तुलना में अधिक धनी हो गए, जिससे जनजाति
में सामाजिक असमानताएँ पनपीं। धीरे-धीरे कबीलाई समाज को ईरान की ही तरह तीन
व्यावसायिक समूहों-योद्धा, पुजारी और आम लोगों में विभाजित किया गया। शूद्र नामक
चौथा विभाजन ऋग्वैदिक काल के अन्त में सामने आया। हाल के संस्करण में, पहली बार
शूद्र शब्द का उल्लेख ऋग्वेद के दसवें अध्याय में है।
बार-बार सुना जाता है कि पुजारियों को भेंटस्वरूप दास सौंपे जाते थे। इनमें से घरेलू
प्रयोजनों के लिए कार्यरत मुख्यत: महिलाएँ होती थीं। स्पष्ट है कि ऋग्वैदिक समय में
गुलामों का इस्तेमाल कृषि या अन्य उत्पादक गतिविधियों में सीधे नहीं किया जाता था।
ऋग्वेद काल में, व्यवसायों पर आधारित भेदभाव शुरू हो गया था, लेकिन यह बहुत
सूक्ष्म था। ऐसे परिवार का भी उल्लेख है जिसमें एक सदस्य कहता है-‘मैं एक कवि
हूँ, मेरे पिता एक चिकित्सक हैं और मेरी माँ चक्की चलानेवाली है। विभिन्न तरीकों से
जीवन-यापन कर हम एक साथ रहते हैं…।’ मवेशियों, रथों, घोड़ों, दासों जैसे उपहारों
के बारे में भी सुना जाता है। युद्ध की लूट से प्राप्त सामग्रियों के असमान वितरण ने
सामाजिक असमानता पैदा की और इससे आम जनजातीय लोगों की बनिस्पत राजकुमार
और पुजारी बनने की होड़ लग गई। चूँकि अर्थव्यवस्था मुख्यतः पशुचारण पर आधारित
थी, अन्न-उत्पादन पर नहीं, लोगों से नियमित नजराना एकत्र करने की गुंजाईश सीमित
थी। उपहारस्वरूप भूमि प्राप्त नहीं होते थे, यहाँ तक कि अनाज के उपहार भी दुर्लभ थे।
घरेलू दास तो थे लेकिन वेतन-विहीन। समाज में जनजातीय तत्व मजबूत थे और कर-संचय
या भूमि-सम्पति संचय के आधार पर सामाजिक विभाजन का अस्तित्व नहीं था, इसलिए
समाज अभी तक जनजातीय और समानतावादी था।

ऋग्वैदिक देवता

हर व्यक्ति अपने धर्म की तलाश अपने परिवेश में ही करता है। आर्यों के लिए बारिश का
आना, सूर्य और चन्द्रमा की उपस्थिति और नदियों, पहाड़ों, जैसी चीजों के अस्तित्व
को समझना मुश्किल था। इसलिए, उन्होंने इन प्राकृतिक शक्तियों को आदर्श माना और
उन्हें उन प्राणियों के रूप में देखा जिनमें वे मानव या पशु गुणों से समानता पाते थे।
ऋग्वेद ऐसे देवताओं से भरा हुआ है, जो विभिन्न सम्मानित परिवारों के कवियों द्वारा
रचित श्लोकों से परिपूर्ण हैं। ऋग्वेद में सबसे महत्वपूर्ण देव इन्द्र हैं, जिन्हें पुरन्दर या निवास ईकाइयों का विनाशक कहा जाता है। राक्षसों पर जीत हासिल करने हेतु आय.
सैनिकों का नेतृत्व कर इन्द्र ने महान सैनानायक की भूमिका निभाई, उनकी सर्पित
250 श्लोक हैं। उन पृष्टि-देव माना जाता है, अर्थात वर्षा के उत्तरदायी। दूसरा स्थान
अग्नि (अग्नि देव) का है, जिनके लिए 200 श्लोक समर्पित हैं। आग नै आदिम लोगों
के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि इसका इस्तेमाल उन्होंने जंगल जलाने,
खाना पकाने जैसे कार्यों के लिए करते थे। आग की खोज ने न केवल भारत में, बल्कि
ईरान में भी मुख्य स्थान ग्रहण किया। वैदिक काल में, अग्नि एक और देवताओं और
दूसरी ओर लोगों के बीच मध्यस्थता का काम किया। माना जाता था कि अग्नि में होम
की जाने वाली वस्तुएँ धुओं के रूप में आकाश तक, अर्थात देवताओं तक पहुँचती
थी। तीसरा महत्वपूर्ण स्थान वरुण का था, जो जल के देवता थे। वरुण पर प्राकृतिक
सन्तुलन बनाए रखने की जिम्मेदारी थी; और दुनिया में जो भी घटित होता था ठसे उनकी
इच्छाओं का प्रतिबिम्ब माना जाता था। सोम को पौधों का देवता माना जाता था, उनके
नाम पर एक मादक पेय रखा गया था। ऋग्वेद के कई श्लोकों में पौधों से इस पेय को
तैयार करने की विधि की व्याख्या की गई है, जो अभी तक सन्तोषजनक रूप से निर्मित
नहीं हो पाई है। मरुत पवन के देवता हैं। सरस्वती नदी को समर्पित कई श्लोक हैं, जिन्हें
एक महत्वपूर्ण देवी माना जाता था। इस प्रकार कई देवता हैं, जो प्रकृति की विभिन्न
शक्तियों को एक रूप या किसी अन्य रूप में दर्शाते हैं, किन्तु वे मानव गतिविधियों के
सापेक्ष मानी गई हैं।
अदिति और ठया जैसी कुछ देवियाँ भी हैं, जो सुबह की उपस्थिति में परिलक्षित मानी
गई हैं, लेकिन वे प्राग्वेद काल में प्रमुख नहीं थीं। हालाँकि, इस काल के पितृसत्तात्मक
समाज को देखते हुए, देवता की महत्ता देवियों से कहीं अधिक थी।
प्रार्थना और बलिदान देवताओं की पूजा करने का प्रमुख तरीका था। व्यक्तिगत या
सामूहिक-दोनों पद्धतियों से ऋग्वैदिक काल में प्रार्थनाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वस्तुत: हर जनजाति या कबीले एक विशेष देवता के समर्थक थे। ऐसा लगता है कि पूरी
जनजाति के सदस्यों द्वारा समूह में देवताओं की प्रार्थना की जाती थी। ऐसा बलि के समय
में भी होता था ; अग्नि और इन्द्र को पूरी जनजाति (जन) द्वारा बलिदान के लिए आमन्त्रित
किया जाता था। देवताओं की सब्जी, जी इत्यादि अर्पित किए जाते थे, लेकिन ऋग्वैदिक
काल में यह किसी भी अनुष्ठान या बलि के सूत्र के रूप में नहीं था। अभी तक शब्द की
जादुई शक्ति को इतना महत्वपूर्ण नहीं माना गया था, जितना कि बाद के वैदिक काल में।
लोगों ने ऋग्वैदिक काल के दौरान देवताओं की पूजा क्यों की? उन्होंने अपने आध्यात्मिक
उत्थान या जीवन के दुःख की समाप्ति के लिए ऐसा नहीं किया। उन्होंने मुख्यतः प्रजा
(बच्चों), पश, भोजन, धन, स्वास्थ्य, जैसी चीजों की कामना की।

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