प्राचीन भारत

बुद्ध काल में राज्य और वर्ण व्यवस्था | State and Varna System in Buddha Period

बुद्ध काल में राज्य और वर्ण व्यवस्था | State and Varna System in Buddha Period

बुद्ध काल में राज्य और वर्ण व्यवस्था

द्वितीय नगरीकरण

पाली ग्रन्थों और संस्कृत सूत्र साहित्य के साथ पुरातत्त्व सामग्री के आधार पर उत्तर भारत, खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भौतिक जीवन की तस्वीर खींची जा सकती है। पुरातात्त्विक रूप से, ई.पू. पाँचवीं शताब्दी में गंगा के मैदानी इलाकों में काले पॉलिश किए बर्तन (NBPW) इस काल की शुरुआत के सूचक हैं। इस दौरान मिट्टी के बर्तन बहुत चिकने और चमकीले किस्म के होते थे। मिट्टी के ये बर्तन बहुत अच्छी सामग्री से बने थे; स्पष्टत: ये अमीर लोगों के लिए उपहार और बर्तन इत्यादि के रूप में
पेश किए जाते थे। मिट्टी के इन बर्तनों के साथ लौह संरचनाएँ भी होती थीं, जो शिल्प एवं कृषि के काम के लिए विशेष रूप से निर्मित की जाती थी। इस काल में धातु के सिक्कों की शुरुआत हुई। पकी ईंटों एवं गोलाकार कुओं का इश्तेमाल एनबीपीडब्ल्यू ई.पू. तीसरी शताब्दी काल के मध्य में शुरू हुआ।
दोआब स्थलों के अध्ययन से पता चलता है कि चित्रित धूसर मृदभांड से पहले (Pre-Polished Grey Ware) काल में काले एवं लाल रंग के दौर में ताम्र-पाषाण बस्तियों की शुरुआत हुई और पीजीडब्ल्यू (Polished Grey Ware) काल में इसमें काफी वृद्धि हुई। कानपुर जिले के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि पीजीडब्ल्यू काल में बसे क्षेत्र, काले एवं लाल रंग के काल में बसे क्षेत्र का तिगुना था। इसके अलावा, ये बसावट एनबीपीडब्ल्यू चरण के दौरान ढाई गुना तक बढ़ गया। जैसे-जैसे बस्तियों
का विस्तार हुआ, जनसंख्या भी बढ़ती गई। इस प्रकार, एनबीपीडब्ल्यू (NBPW) काल ई.पू. 500 के आस-पास शुरू हुआ; और बस्तियों और आबादी, दोनों में काफी वृद्धि हुई। एनबीपीडब्ल्यू काल में भारत के मैदानों में दूसरे चरण के नगरीकरण की शुरुआत हुई।
ई.पू. 1900 में हड़प्पा की नगरीयता गायब हो गई। इसके बाद, लगभग 1500 वर्षों के लिए, भारत में किसी नगर की स्थापना नहीं हुई। हालाँकि, लगभग ई.पू.1200 से दोआब और पड़ोसी क्षेत्रों में बस्तियों का उल्लेख मिलता है। निचले दोआब में ई.पू. 1000-600 में, हमे आकार और स्थान के आधार पर दो प्रकार की बस्तियाँ मिलती हैं। उसी क्षेत्र में उसी आधार पर, कुछ भागों में चार प्रकार की बस्तियाँ स्थित हैं। इन बस्तियों को नगरीकरण के सबसे महत्त्वपूर्ण संकेत के रूप में माना जाता है। बड़ी बस्तियों का महत्त्व छोटी बस्तियों से भले ही अधिक था, लेकिन शिल्प, सिक्के, व्यापार और कृषि उत्पाद की बचत के बिना कोई बड़ी बस्ती नगर नहीं हो सकती। ई.पू. पाँचवीं शताब्दी में मध्य गंगा के मैदानों में नगरों की शुरुआत हुई और इस प्रकार भारत में दूसरा नगरीकरण प्रारम्भ हुआ।
पाली और संस्कृत के ग्रन्थों में उल्लिखित कौशाम्बी, श्रावस्ती, शृंगवेरपुर, अयोध्या, कपिलवस्तु, वाराणसी, वैशाली, राजगीर, पाटलिपुत्र और चम्पा जैसे कई नगरों की खुदाई की गई और हर खुदाई में प्रारम्भिक एनबीपीडब्ल्यू काल या इसके मध्यावधि काल के आवास और मिट्टी के संरचनाओं के चिह्न पाए गए हैं। पटना में लकड़ी के पाट पाए गए हैं और यह सम्भवतः मौर्य काल से पहले के हैं। ई.पू. सातवीं-छठी शताब्दी से सम्बन्धित, मध्य गंगा के मैदानी इलाकों में ये लकड़ी के प्राचीनतम अवशेष हैं। अधिकतर घर मिट्टी की ईंटों और लकड़ियों से बने होते थे, जो मध्य गंगा के मैदानों के नम वातावरण में स्वतः विघटित हो
जाते थे। हालाँकि पाली ग्रन्थों में सात मंजिले महलों का उल्लेख है, ये अभी तक कहीं नहीं पाए गए हैं। अभी तक जिन संरचनाओं की खुदाई हुई है, वे सामान्यतः प्रभावी नहीं हैं, हालाँकि अन्य अवशेषों को साथ मिलाकर देखने पर वे पीजीडब्ल्यू बस्तियों की तुलना में काफी अधिक आबादी वाले दिखते हैं।
कई नगर सत्ता के केन्द्र होते थे। उनके उद्भव के कारण जो भी हों, किन्तु वे अन्ततः बाजार में परिणत हो गए; जहाँ कारीगर और व्यापारी बस गए। भागलपुर के निकट चम्पा नगर को प्राकृत ग्रन्थ में वनियागामा कहा जाता है, जिसका अर्थ व्यापारियों की बस्ती है। कुछ स्थान कारीगरों के केन्द्र थे : वैशाली के सद्दलपुत्त में कुम्हारों की 500 दुकानें थीं। कारीगरों और व्यापारियों को उनके प्रमुखों के अधीन संघ में संगठित किया गया था। कारीगरों के अठारह संघ के बारे में उल्लेख मिले हैं, किन्तु इनमें केवल लोहार, बढ़ई, चर्मकार और चित्रकारों का उल्लेख है। कारीगर और व्यापारी, दोनों, नगरों के खास भाग में रहते थे। वाराणसी में वेस्सा या व्यापारी मार्ग और हाथी दाँत श्रमिक मार्ग के बारे में भी जानकारी मिलती है। इस तरह संघ व्यवस्था और स्थानीकरण के सुदृढ़ीकरण से शिल्प में विशेषज्ञता विकसित हुई। सामान्यत: कारीगरी आनुवंशिक थी और बेटे अपने पिता से
पारिवारिक पेशा सीखते थे।
शिल्प के उत्पादों को व्यापारियों द्वारा दूर-दूर तक ले जाया जाता था। बार-बार 500 बैलगाड़ी सामानों का उल्लेख मिलता है। इनमें वस्त्र, हाथी दाँत की वस्तुएँ, बर्तन जैसे कई सामान होते थे। उस दौरान सारे महत्त्वपूर्ण नगर नदी किनारे और व्यापार मार्गों में स्थित थे और एक दूसरे से जुड़े थे। श्रावस्ती नगर, कौशाम्बी और वाराणसी, दोनों से जुड़ा हुआ था। बुद्ध काल में श्रावस्ती व्यापार का एक मुख्य केन्द्र माना जाता था। श्रावस्ती मार्ग पूर्व और दक्षिण में कपिलवस्तु और कुशीनारा (कासिया) से होकर वैशाली से जुड़ता था। व्यापारी पटना के नजदीक गंगा पार करते थे और राजगीर जाते थे और इस नदी के माध्यम से चण्या भी जाते थे। जातक की कहानियों की मानें, तो कोशल और मगध के व्यापारी उत्तर में मथुरा होते हुए तक्षशिला जाते थे। ऐसे ही, वे मथुरा से दक्षिण और पश्चिम की तरफ लन्जैन और के तट पर पहुँच जाते थे।
व्यापार के लिए मुद्राओं का इस्तेमाल होता था। ई.प, सातवीं शताब्दी ये एशिया माइनर में लिडिया में किसी राजा की मुहर लगे सिक्के या धातु के पैसे का आविष्कार हुआ। भारत में पहली बार यह कैसे आया, स्पष्ट नहीं है। वैदिक ग्रन्थों में सिक्कों की
निशक और सतमन कहा जाता था, लेकिन वे धातु से बनी मूल्यवान वस्तुएँ समझी जाती थीं। ऐसा लगता है कि वैदिक काल में, वस्तु विनिमय से व्यापार संचालित होता था और बुद्ध के पूर्वकाल में विनिमय के रूप में पारस्परिक उपहार की व्यवस्था थी। कभी-कभी मवेशियों का इस्तेमाल मुद्रा के रूप में होता था। गौतम बुद्ध के समय में सबसे पहले धातु के सिक्के मिले हैं। सामान्यत: प्राचीनतम सिक्के चाँदी के बने हुए थे, हालाँकि कुछ ताम्बे के सिक्के भी अस्तित्व में थे। उन्हें पंच-चिल कहा जाता है, क्योंकि चाँदी और ताम्बों के टुकड़ों पर पहाड़, पेड़, मछली, बैल, हाथी और अर्धचन्द्र जैसी कोई आकृति छपी होती थी। इन सिक्कों को आहत मुद्रा कहा जाता था। मौर्य काल या उसके बाद के सिक्कों में विभिन्न धातुओं का भी इस्तेमाल किया जाता था। पूर्वी उत्तर प्रदेश और मगध में सबसे पहले सिक्कों का संग्रह पाया गया है, हालाँकि तक्षशिला में भी कुछ प्राचीन सिक्के पाए गए हैं। पाली ग्रन्थों में मुद्राओं के भरपूर उपयोग के संकेत मिलते हैं और ये दर्शाते हैं कि मजदूरी के भुगतान और क्रय-विक्रय हेतु सिक्कों का इस्तेमाल होता था।
मुद्रा का इस्तेमाल इतना सार्वभौमिक हो गया था कि मरे हुए चूहे तक का भी मूल्य इसी से आंका जाता था। ई.पू. 300 में पूर्ण नगरीकरण से जनसंख्या में काफी वृद्धि हुई। अनुमान लगाया जाता है कि पाटलिपुत्र में 2,70,000, मथुरा में 60,000, विदिशा या आधुनिक बेसनगर एवं वैशाली में 48,000, कौशाम्बी और पुराने राजगीर में 40,000 और उज्जैन में 38,000 लोग रहते
थे। इससे पहले इतनी बड़ी आबादी में लोग एक साथ नहीं मिलते हैं। नगरीकरण से राज्य, व्यापार और पढने लिखने को बढ़ावा मिला। हड़प्पा संस्कृति के अन्त के बाद, शायद अशोक के शासन से कुछ शताब्दी पहले ही लेखन शुरू हुआ था। प्राचीनतम दस्तावेज शायद नष्ट हो गए, क्योंकि वे लकड़ी के छालों और ऐसे ही खराब होने वाली सामग्री पर लिखा गया था। लेखन ने न केवल कानूनों और अनुष्ठानों को संकलित किया बल्कि बहीखाता पद्धति भी शुरू हुई, जो व्यापार, कर-संग्रह और बड़ी सैन्य-शक्ति के रख-रखाव की जानकारी के लिए बहुत आवश्यक था। इस काल में परिष्कृत माप यानि सूक्ष्म माप से सम्बन्धित ग्रन्थ (सुल्वसूत्र) लिखे गए, जो कि खेतों एवं घरों के सीमांकन में सहायक सिद्ध हुए। इससे पता चलता है कि लिखने का प्रचलन
समाज में आ चुका था।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था

यद्यपि एनबीपीडब्ल्यू काल के ग्रामीण बस्तियों की खुदाई नहीं हो पाई है, बिहार के मैदानों और पूर्वी एवं मध्य उत्तर प्रदेश में 400 से अधिक स्थानों पर इस काल के बर्तन के टुकड़े पाए गए हैं। हालाँकि, एनबीपीडब्ल्यू मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में भी फैले थे। हम एक मजबूत ग्रामीण आधार के बिना मध्य गंगा के मैदानों में शिल्प, वाणिज्य और नगरीकरण की शुरुआत के बारे में नहीं सोच सकते। बगैर कर, नजराना और पर्याप्त राजांश के नगरों में राजा, पुरोहित, कारीगर, व्यापारी, प्रशासक, सैन्यकर्मी और कई अन्य का जीवन सम्भव नहीं था। गाँवों में रहने वाले किसानों को नगरों में बसे लोगों को खिलाना पड़ता था। बदले में, कारीगरों और नगरों में रहने वाले व्यापारी उन्हें संसाधन, कपड़ा इत्यादि उपलब्ध करवाते थे। उल्लेख है कि एक ग्रामीण व्यापारी ने एक शहरी व्यापारी को 500 हल दिए, जो स्पष्टत: लोहे के थे। एनबीपीडब्ल्यू काल में कौशाम्बी में, कुल्हाड़ियों, चाकू, उस्तुरा, कील, हँसिया, आदि लोहे के औजारों की खोज की गई है। उनमें से बड़ी संख्या ई.पू. पाँचवीं-चौथी शताब्दी के आस-पास की परतों से सम्बन्धित है और वे सम्भवत: उन किसानों के उपयोग के लिए थीं, जो उन्हें नगद मूल्य या उसकी कीमत चुका कर प्राप्त करते होंगे।
पाली ग्रन्थों में कई गाँवों का उल्लेख है। कस्बे प्राय: गाँवों के समूहों के बीच स्थित होते थे। ऐसा लगता है कि सभी ग्रामीण छोटी बस्तियाँ, जिसमें ज्यादातर लोग बस्ती के बाहर स्थित अपनी कृषि-भूमि के पास बसे होते थे, सबसे पहले गौतम बुद्ध काल में मध्य गंगा के मैदानों में स्थापित हुईं। पाली ग्रन्थों में तीन प्रकार के गाँवों का उल्लेख है। पहली श्रेणी में विभिन्न जातियों और समुदायों के रहने वाले गाँव शामिल थे; इन गाँवों की संख्या काफी ज्यादा थी और प्रत्येक गाँव का नेतृत्व भोजक नामक मुखिया करता था। दूसरे में उपनगरीय गाँव थे; जो शिल्प प्रधान गाँव थे; उदाहरणार्थ, वाराणसी के आस-पास कारीगर गाँव’ या ‘रथ-निर्माता गाँव’ स्थित था। जाहिर है कि ये गाँव, अन्य गाँवों के लिए बाजार का काम करते थे और नगरों को गाँवों से जोड़ते थे। तीसरी श्रेणी में सीमावर्ती गाँव आते थे; जो ग्रामीण इलाकों की बाहरी सीमा पर जंगलों से सटकर स्थित थे। इन गाँवों में रहने
वाले लोग मुख्य रूप से शिकारी होते थे, जो मुख्यतः भोजन एकत्रीकरण पर निर्भर थे।
गाँव की भूमि खेती योग्य भूखण्डों में विभाजित की गई थी, जो प्रत्येक परिवार को आवण्टित था। हर परिवार कृषि मजदूरों के साथ मिलकर इन जमीनों पर खेती करते थे। किसान परिवारों द्वारा खेतों में मेड़ बनाने और सिंचाई के रास्तों की व्यवस्था ग्राम-प्रमुख की निगरानी में सामूहिक तौर पर होती थी। किसानों को अपने उत्पाद का छठा हिस्सा कर के रूप में देना पड़ता था। कर, सीधे शाही प्रतिनिधियों द्वारा एकत्र किया जाता था; राज्य और किसानों के बीच साधारणतः कोई बिचौलिया जमीन्दार नहीं होता था। हालांकि कुछ गाँव, ब्राह्मणों और बड़े व्यापारियों को दे दिया गया था। बड़ी जमीनों पर दास और कृषि मजदूरों की सहायता से खेती की जाती थी। समृद्ध किसानों को गहपति (पाली शब्द) कहा जाता था, जो लगभग वैश्य के समान स्थिति के थे।
इस अवधि के दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में चावल का उत्पादन मुख्य अनाज था। पाली ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार के धान और धान के खेतों का वर्णन किया गया है। यद्यपि भारत में ई.पू. दूसरी और तीसरी शताब्दी में चावल का प्रयोग किया जाता था; लोहे की ही तरह, यह एनबीपीडब्ल्यू काल में अधिक प्रचलित हुआ। इस अवधि में धान की रोपाई के लिए शाली शब्द का इस्तेमाल पाली, प्राकृत और संस्कृत ग्रन्थों में पाया जाता है; ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्धकाल में बड़े पैमाने पर धान के रोपाई की शुरुआत हुई। ई.पू. 500 में धान के बीज विशेषकर पानी के क्षेत्रों में बोए और काटे गए। हालाँकि, इसके बाद धान के पौधों को एक जगह से निकाल कर, बड़े पैमाने पर दूसरी जगह रोपा गया। इस पद्धति ने चावल उत्पादन में क्रान्ति ला दी। धान की रोपाई या नम जमीन में धान की उपज से पैदावार में काफी वृद्धि हुई। इसके अलावा, किसानों ने जौ, दाल, बाजरा, कपास और गन्ना का भी उत्पादन किया। लोहे के हल के उपयोग की सहायता से, इलाहाबाद और राजमहल के बीच के इलाके में जलोढ़ मिट्टी की विशाल उर्वरता के कारण, कृषि में दोगुना से अधिक उत्पादन हुआ। चावल और अन्य अनाज की बचत उन लोगों के अस्तित्व का आधार बना जो सीधे कृषि उत्पादन में नहीं थे।
ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था की प्रगति का मुख्य साधन प्रौद्योगिकी बना। मध्य गंगा घाटी के वर्षायुक्त, जंगली और कठोर मिट्टी वाले इलाकों की सफाई कर खेती और बस्ती के निर्माण में लोहे ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ई.पू. 600 के आस-पास से निम्न कार्बन इस्पात का उत्पादन शुरू हुआ। लोहारों को लोहे को मजबूत करने की विधि का ज्ञान था और राजघाट (वाराणसी) के कुछ उपकरणों से पता चलता है कि उन्हें सिंहभूम और मयूरभंज से प्राप्त लौह अयस्कों से बनाया गया था। प्रतीत होता है कि लोग भारत में सबसे अच्छी लौह खानों से परिचित हो चुके थे, जिससे कला और कृषि के लिए उपकरणों की आपूर्ति सुनिश्चित की गई।
पाली ग्रन्थों के अध्ययन और भौतिक रूप से प्राप्त अवशेषों से अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर उभरती है वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उत्तर-वैदिक काल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था से बहुत अलग है। यह बिहार एवं उत्तर प्रदेश के ताम्र-पाषाणयुगीन समुदायों की अर्थव्यवस्था से भी बहुत अलग है। पहली बार एक उन्नत खाद्य उत्पादन केन्द्रित अर्थव्यवस्था मध्य गंगा के मैदानी इलाकों की जलोढ़ जमीन पर फैली और फिर यहाँ शहरी अर्थव्यवस्था की शुरुआत हुई। यह ऐसी अर्थव्यवस्था थी, जो न केवल उत्पादकों, बल्कि उन लोगों को भी जीवन-यापन का आधार प्रदान किया, जो न किसान थे, न कारीगर। इसने करों का संग्रह किया और दीर्घकालिक आधार पर सेनाओं के रख-रखाव को सम्भव बनाया और ऐसी परिस्थितियाँ बनाईं, जिनमें बड़े क्षेत्रीय राज्यों का गठन और स्थायी संचालन सम्भव हुआ।

प्रशासनिक प्रणाली

यद्यपि हम इस काल के कई राज्यों के बारे में सुनते हैं, किन्तु शक्तिशाली बनकर केवल कोशल और मगध ही उभरे। आनुवंशिक रूप से क्षत्रिय शासकों द्वारा शासित दोनों राज्यों का विस्तार हुआ। बुद्ध के पिछले जन्मों से सम्बन्धित कहानियों या जातक कहानियों से पता चलता है कि दमनकारी राजाओं और उनके मुख्य पुजारियों को लोगों द्वारा निष्कासित कर दिया जाता था और नए राजाओं को लाया जाता था। हालांकि, निष्कासन के उदाहरण निर्वाचन जितने ही कम थे। राजा सर्वोच्च शक्ति होता था और उसे विशेष संरक्षण और सुरक्षा प्राप्त थी। वह केवल बुद्ध के कद जैसे महान लोगों के सामने थोड़ा नम्र रहता था या झुकता था। राजा मुख्य रूप से युद्ध का नेतृत्व करता था, जो अपने साम्राज्य को एक विजय से दूसरे विजय के जरिए बढ़ाता था।
इसका चित्रण बिम्बिसार और अजातशत्रु के जीवन काल के माध्यम से अच्छी तरह किया गया है। राजा, एक क्रमबद्ध श्रेणी में निम्न और उच्च दोनों अधिकारियों की सहायता से शासन करता था। उच्च अधिकारियों को महामात्र कहा जाता था। मन्त्री, सेनानायक, न्यायाधीश, मुख्य लेखापाल और शाही हरम के प्रमुख के रूप में विभिन्न कार्यों को संचालित करते थे। सम्भवत: कुछ राज्यों के आयुक्त वर्ग के अधिकारी भी इसी तरह के कार्य करते थे। मन्त्रियों ने प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मगध के वर्षकार और कोशल के दिर्घचारायण बेहद सफल और प्रभावशाली मन्त्री साबित हुए। वर्षकार ने वैशाली में लिच्छवियों के अधिकारियों में फूट डाली और लिच्छवी गणराज्य पर अजातशत्रु को जीत दिलाई। दीर्घचारायण ने कोशल के राजा की काफी सहायता की। प्रतीत होता है कि उच्च अधिकारी और मन्त्री ज्यादातर ब्राह्मण वर्ग से नियुक्त किए जाते थे। वे सामान्यतः राजवंश से नहीं होते थे। इससे वैदिक काल की वंशवादी राजनीति काफी हद तक कम हुई।
कोशल और मगध, दोनों में, चाँदी के बने पंच-चिह्नित सिक्कों के प्रचलित होने के बावजूद, कुछ प्रभावशाली ब्राह्मणों और सेट्ठियों को उनके मेहनताने के रूप में राजस्व वाले गांव दिए जाते थे। इसके लिए राजा को परिवार में किसी की सहमति प्राप्त करना आवश्यक नहीं होता था, जबकि उत्तरवर्ती वैदिक काल में ऐसा ऐसा प्रचलन था। लाभार्थियों को केवल राजस्व वसूलने का हक दिया जाता था कोई प्रशासनिक अधिकार उन्हें नहीं दिया जाता था।
ग्रामीण प्रशासन ग्राम-प्रमुख के हाथों में होता था। शुरुआत में, ग्राम-प्रमुख, कबीले के सेना-नायक की तरह कार्य करते थे, इसलिए उन्हें ग्रामीणी कहा जाता था। जिसका अर्थ है ग्राम या कबीले के सैन्य इकाई का नेता। जैसे-जैसे जीवन स्थिर होने लगा और अच्छी तरह से कृषि स्थापित हो गई कबीलाई समूह कृषि में लग गए। इसलिए मौर्य काल के पहले ग्रामीणी एक गाँव के मुखिया के रूप में तब्दील हो गया। गांव के मुखिया को विभिन्न प्रकार के नामों से जाना जाता था; जैसे ग्रामभोजक, ग्रामीणी या ग्रामिक। श्रीलंका में आज भी ग्रामीणी पद प्रचलित है। कहा जाता है कि बिम्बिसार ने 86,000 ग्रामिकों को बुलाया था। यह संख्या अतिशयोक्ति में भी हो सकती है, लेकिन इससे पता चलता है कि ग्राम-प्रमुख का काफी महत्त्व था और वे राजाओं से सीधे सम्बन्ध रखते थे। ग्राम-प्रमुख, ग्रामीणों के कर का निर्धारण एवं उनसे कर-संचय किया करते थे और अपने इलाकों में कानून व्यवस्था बनाए रखते थे। कभी-कभी अत्याचारी ग्राम-प्रमुख को ग्रामीणों द्वारा सबक भी सिखाया जाता था।

सैन्य और कर प्रक्रिया

किसी राज्य के शक्तिशाली होने का संकेत इस बात से मिलता है कि उसके पास स्थायी और वैतनिक सेना कितनी बड़ी है। सिकन्दर के आक्रमण के समय, मगध के नन्दवंशी शासक के पास 20,000 घुड़सवार सैनिक, 2,00,000 पैदल सेना, 2000 चार घोड़े वाले रथ और लगभग 6000 हाथी थे। घोड़े वाले रथ की महत्ता न केवल पूर्वोत्तर भारत में, बल्कि उत्तर-पश्चिम में भी समाप्त हो रही थी, जिसे वैदिक लोगों द्वारा लाया गया था।
उत्तर-पश्चिमी भारत के राज्यों के शासकों के पास बहुत कम हाथी थे, हालाँकि कुछ शासकों के पास मगध शासकों जितने ही घोड़े थे। हाथियों को भारी संख्या में शामिल करने से दूसरे राज्यों की तुलना में मगध के राजकुमारों की शक्ति में असीम
वृद्धि हुई। राजा को अपनी बड़ी सेना को पालना भी पड़ता था और उसका भरण-पोषण भी करना पड़ता था। कहा जाता है कि नन्दों के पास अपार धन-संपदा थी, जिससे वे विशाल सेना रख पाने में सक्षम थे, लेकिन हमें उन विशेष तरीकों का कोई अन्दाजा नहीं है, जिससे वे कर उगाही करते थे। हालाँकि राजकोषीय व्यवस्था अच्छी तरह स्थापित थी। योद्धाओं और पुजारियों, अर्थात् क्षत्रिय और ब्राह्मणों को कर मुक्त कर दिया गया था। इस तरह कर का सारा बोझ मुख्यतः किसानों पर था, जिन्हें वैश्य या गृहपति कहा जाता था।
वैदिक काल में, कबीले के लोगों द्वारा स्वेच्छा से अपने प्रमुखों को नजराना दिया जाता था, जिसे बलि कहा जाता था। यह बुद्धकाल में आते-आते किसानों के लिए अनिवार्य भुगतान के रूप में तब्दील हो गया। इस राशि की वसूली के लिए नियुक्त अधिकारी को बलिसाधक कहा जाता था। ऐसा लगता है कि राजा, किसानों से उत्पादन का छठवाँ हिस्सा कर के रूप में लेता
था। ग्राम-प्रमुख की सहायता से शाही अधिकारियों द्वारा करों का निर्धारण और संग्रह किया जाता था। लेखन के आने से करों के निर्धारण और संग्रहण में सहायता मिली। पंच-चिह्नित सिक्कों के संग्रहों की खोज से पता चलता है कि यह भुगतान नकद राशि और वस्तु दोनों रूप में होता था। उत्तर-पूर्वी भारत में, धान के रूप में भी यह भुगतान किया जाता था।
इन करों के अतिरिक्त, किसानों को शाही काम के लिए बन्धुआ मजदूर बनाया जाता था। जातकों में उल्लेख है कि किसान कभी-कभी करों के दमनकारी बोझ से मुक्ति के लिए उस राजा का राज्य छोड़ देते थे।। कारीगरों और व्यापारियों को भी करों का भुगतान करना पड़ता था। कारीगरों की मीन में एक दिन राजा के लिए काम करना पड़ता था और व्यापारियों की बस्ती की बिक्री पर सीमा शुल्क देना पड़ता था। कर वसूली करने वाले अधिकारियों की मालिककामा शुल्काध्यक्ष कहा जाता था।
क्षेत्रीय या जनपद की स्थापना से पहले ही सभा और समिति की खुला कर लिया गया। उत्तर-वैदिक काल में, लोकप्रिय कबीलाई समितियाँ लगभग गायब हो गई। कबीले वर्ष में परिवर्तित होते गए और इन संगठनों की पहचान मिटती गई। उनका स्थान, वीर जाति समूहों ने ले लिया। इसलिए धर्माधारित नियम बनाने वाली जाति-vave नियमी और कुलाचारों को काफी महत्व दिया है। हालाँकि, ये नियम बड़े पैमाने या सामाजिक मामलों तक ही सीमित रहे। लोकप्रिय जन समितियों केवल छोटे राज्यों में ही सफल हो सकती थीं, जहाँ कबीले के सदस्यों को आसानी से एकत्र किया जा सकता था।जी वैदिक काल में सम्भव हो पाता था। कोशल और मगध के बड़े राज्यों के उदव के साथसिभिल सामाजिक वर्गों और साम्राज्यों के विभिन्न हिस्सों से आए लोगों के लिए बड़ी सवारीय भाग लेना सम्भव नहीं था। आवागमन और संचार की मुशीबतों के चलते पिसी नियमित बैठकें सम्भव नहीं रह गईं। इसके अलावा, कबायली होने के नाते, नए राज्यों में रहने वाले कई गैर-वैदिक कबीलों की सभाओं को जगह नहीं मिल पाई। इसलिए, बदली हुई परिस्थितयाँ, पुरानी सभाओं को जारी रखने के अनुकूल नहीं थीं। उन्हें एक छोटी-सी इकाई परिषद् से प्रतिस्थापित किया गया जिसमें विशेषकर ब्राह्मण ही हिस्सा लेते थे। इस समय तक, सभाएँ अस्तित्व में थीं, लेकिन राजशाही में ऐसा नहीं था। वै शाक्य, लिच्छवी जैसे छोटे गणतान्त्रिक राज्यों में ही बची हुई थी।

गणतान्त्रिक प्रयोग

शासन की गणतान्त्रिक प्रणाली या तो सिन्धु घाटी में थी; या पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में हिमालय की तराई में। सिन्धु घाटी में पाए गए गणराज्य, वैदिक कबीलों के अवशेष हो सकते हैं। यद्यपि यह भी सम्भव है कि कुछ गणराज्यों ने राजशाही को अपना लिया हो। कुछ उदाहरणों से लगता है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में लोग कबीलाई समानता के पुराने आदर्शों से प्रेरित थे, जिसमे किसी एक राजा को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता था।
गैर-राजशाही वाले गणतंत्रों के राज्यों की बात, पाणिनी और पाली ग्रन्थ, दोनों करते हैं। पाणिनी के अनुसार, जनपद या क्षेत्रीय राज्य आम तौर पर एकराजा या एक राजा के नेतृत्व में होता था। वे उन्नीस ऐसे जनपदों का उल्लेख करते हैं जो एक राजा वाले थे। साथ ही ये ऐसे संघ या बहु-शासक जनपदों के बारे में बात करते हैं, जो गणराज्य थे। गणराज्यों में, वास्तविक शक्ति कबीले के कुलीन वर्गों के हाथों में थी। शादी और लिच्छवियों के गणराज्यों में, शासक वर्ग एक ही वंश और वर्ण के होते थे। यद्यपि वैशाली के लिच्छवियों के मामले में, 7707 राजाओं ने ‘मोतेहाल’ की सभा में हिस्सा लिया, इस सन्दर्भ में ब्राह्मणों का उल्लेख नहीं है। उत्तर मौर्य काल में मालवाओं और शूद्रकों के गणराज्यों में, क्षत्रिय और ब्राह्मणों को ही नागरिकता दी गई, लेकिन दासों और मजदूरों को इससे बाहर रखा गया। पंजाब के व्यास नदी पर स्थित एक राज्य में, सदस्यता केवल उन लोगों को मिल सकती थी, जो राज्य को कम से कम एक हाथी दे सकते थे, सिन्धु घाटी के कुलीन वर्ग की यही विशेषता थी।
शाक्यों और लिच्छवियों की प्रशासनिक प्रणाली सरल थी। इसमें राजा, उपराजा (उपाध्यक्ष), सेनापति (कमाण्डर), और भण्डागरिक (कोषाध्यक्ष) शामिल थे। लिच्छवियों के गणराज्य में एक ही मामले की सुनवाई सात स्तरों पर क्रमिक रूप से होने की बात कही गई है, लेकिन सचमुच ऐसा होना सम्भव नहीं जान पड़ता।
बुद्ध काल में कुछ ऐसे राज्य थे जहाँ वंशानुगत राजाओं के शासन की प्रथा नहीं थी, बल्कि लोग जनसभाओं के प्रति उत्तरदायी होते थे। इस प्रकार, पुराने गणराज्यों में रहने वाले लोग राजनीतिक सत्ता की साझेदारी में समान भले न रहे हों, किन्तु भारत में गणतान्त्रिक परम्परा बुद्धकाल के समय से ही मिलती है। गणराज्य राजशाही से कई मायनों में अलग थे। राजशाही में किसानों से राजस्व पाने का अधिकार सिर्फ राजा को था, लेकिन गणराज्यों में, यह अधिकार गण या गोत्र के मुखिया को था जो राजन के रूप में जाना जाता था। अपने भण्डारण और प्रशासन तन्त्र को बनाए रखने की व्यवस्था, 7707 लिच्छवी राजनों में से, प्रत्येक के पास थी। इतना ही नहीं, हर राजशाही के पास अपनी स्थायी सेना थी और किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूहों को शस्त्र रखने की अनुमति नहीं थी। कबायली कुलीनतन्त्र में, प्रत्येक राजा को अपने सेनापति के अधीन छोटी सेना रखने की स्वतन्त्रता थी। ताकि वे एक-दूसरे का मुकाबला कर सकें। राजशाही में ब्राह्मणों का बहुत प्रभाव था, लेकिन प्राचीन गणराज्यों में उनका कोई स्थान नहीं था। इसीलिए उन्होंने अपने कानून की किताबों में, इन राज्यों का उल्लेख बहुत कम किया और इस तरह के राज्य को मान्यता नहीं दी। अन्तत: राजशाही और गणतन्त्र के बीच मुख्य अन्तर यही था, जो एक व्यक्ति-शासन और समूह-शासन में होता है। गणतन्त्र, कुलीनतन्त्र की सभाओं के नेतृत्व में संचालित होता था, लेकिन राजशाही, एक व्यक्ति के नेतृत्व में।
मौर्य काल से गणतान्त्रिक परम्परा कमजोर हो गई। पूर्व मौर्य काल में भी, राजशाही कहीं अधिक मजबूत और प्रचलित थी। प्राचीन विचारकों और चिंतकों ने राजशाही को शासन का सबसे अहम और महत्त्वपूर्ण स्वरूप माना। उनके लिए, राज्य, शासन और राजा का अर्थ एक ही था। चूँकि बुद्धकाल में राज्य अच्छी तरह से स्थापित हो चुका था, इसलिए विचारकों ने इसके उदय पर अनुमान लगाने लगे। पाली के सबसे पुराने बौद्ध ग्रन्थों में से एक दिघ निकाय से पता चलता है कि प्राचीनतम स्थिति में लोग खुश रहते थे। धीरे-धीरे उन्होंने निजी सम्पत्ति अर्जित करनी शुरू की और अपनी पत्नियों के साथ घर बसाना शुरू किया। इससे सम्पत्ति और महिलाओं के लिए झगड़ा शुरू हो गया। इस तरह के झगड़े को खत्म करने के लिए, उनि एक ऐसे प्रमुख का चुनाव किया, जो कानून और व्यवस्था बनाए रखे और लोगों की रक्षा करे।
इसके बदले में, लोगों ने उस प्रमुख को धान उत्पादन का एक हिस्सा देने का वादा किया। यह प्रमुख राजा कहलाया और इस तरह से शासन या राज्य की उत्पत्ति हुई।

सामाजिक वर्गीकरण और विधान

भारत में विधि नियम और न्याय व्यवस्था का उद्भव इसी काल में हुआ। पहले लोग कबीले के कानून से शासित होते थे, जिसमे किसी तरह का कोई वर्ग-भेद नहीं था। लेकिन इस काल तक कबीलाई समुदाय चार वर्णों में बंट गया : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रा इसीलिए धर्म ग्रन्थों ने चारो वर्णों के कर्तव्यों का निर्धारण किया; नागरिक-कानून (सिविल लॉ) और आपराधिक कानून (क्रिमिनल लॉ), वर्ण विभाजन के आधार पर बने।
जो वर्ण जितना ऊँचा था, वह उतना शुद्ध था और नागरिक एवं आपराधिक कानून के तहत उच्च वर्ण से श्रेष्ठ नैतिक आचरण की अपेक्षा की जाती थी। शूद्रों पर सभी प्रकार की असुविधाएँ थोपी गई थीं। वे धार्मिक और कानूनी अधिकारों से वंचित थे और समाज में निम्नतम स्थान पर धकेल दिए गए थे; उपनयन या जनेऊ संस्कार का अधिकार उन्हें नहीं दिया गया था। शूद्रों को ब्राह्मणों एवं अन्य पर किए गए अपराधों के लिए गम्भीर रूप से दण्डित किया जाता था, लेकिन शूद्रों पर हुए अत्याचार के लिए लोगों को सामान्य सजा दी जाती थी।
कानूनविदों ने इस कल्पना को फैलाया कि शूद्र, विधाता के चरण से पैदा हुए हैं। इसलिए, उच्च वर्गों के सदस्य, विशेषकर ब्राह्मणों ने, शूद्रों की संगति, उनका स्पर्श किया भोजन और उनके साथ विवाह से इनकार कर दिया। उच्च पदों पर शूद्र को नियुक्त नहीं किया जा सकता था; इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण था कि उन्हें विशेष रूप से द्विजों के दास, कारीगर और कृषि मजदूर के रूप में सेवा करने को कहा गया था।
शूद्र की स्थिति में जैन और बौद्ध धर्म भी कोई खास परिवर्तन नहीं ला सके। हालाँकि, उन्हें नई धार्मिक व्यवस्था में लाया गया, लेकिन उनकी सामान्य स्थिति वही बनी रही। कहा जाता है कि गौतम बुद्ध ब्राह्मण, क्षत्रिय और गहपतियों या गृहस्थों की सभाओं में जाते थे, लेकिन इस सन्दर्भ में शूद्रों की सभाओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता। चाण्डाल सहित दस निम्नतर कलाओं और जातियों का उल्लेख पाली ग्रन्थों में है। उन्हें हीन कहा जाता है
जिसका अर्थ है गरीब, तुच्छ और नीच। इसके विपरीत क्षत्रिय और ब्राह्मण को उत्तम या श्रेष्ठ जाति कहा जाता है। धर्मशास्त्रों में निर्धारित सिविल और आपराधिक कानून, शाही अधिकारियों द्वारा संचालित होता था, जिसमें कोड़े मारने, सर कटवा देने, जीभ काट लेने जैसी कठोर सजाएँ थीं। कई मामलों में, अपराधों की सजा, बदले की धारणा से दी जाती थी, जैसे कि दाँत के लिए दाँत और आँख के लिए आँख। हालांकि, कानून तैयार करते समय, बामणों ने नियम या विधि के ग्रन्थों में अलग-अलग वों की सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखा। उन्होंने गैर-वैदिक कबीलाई समूहों के रीति-रिवाजों को अनदेखा नहीं किया, उनके रीति-रिवाज भी धीरे-धीरे स्वतः बामणवादी सामाजिक व्यवस्था में समा गए। इनमें से कुछ मूल कबीलों के सामाजिक उद्भव की
कहानी गढ़ दी गई और उन्हें अपने ही रीति-रिवाज से शासित होने की छूट दी गई।

सारांश

बरसात के मौसमों में गौतम बुद्ध मध्य गंगा के कई नगरों में रहे। पुरातात्त्विक रूप से, ई.पू. पाँचवीं शताब्दी के पहले इन नगरों का उल्लेख नहीं मिलता। इसलिए, बुद्ध काल लगभग ई.पू. पाँचवीं शताब्दी है। यह काल बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस समय प्राचीन भारत की राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज का वास्तव में निर्माण हुआ।
लोहे के उपकरणों और धान की रोपाई पर आधारित कृषि ने एक उन्नत खाद्य उत्पादनकारी अर्थव्यवस्था को जन्म दिया, विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में। इससे व्यापार, उद्योग एवं धातुओं वाले पैसे के प्रचलन पर आधारित नगरों के उदय की स्थितियाँ बनीं। इसके अलावा, अधिकतम अनाज उत्पादन ने किसानों से कर-संचय करना सम्भव बना दिया। इसलिए, नियमित करों और नजरानों के आधार पर, बड़े राज्यों की स्थापना हुई। इस राजनीति को चलाने के लिए, वर्ण व्यवस्था बनाई गई और प्रत्येक वर्ण के कार्यों को स्पष्ट रूप से अलग किया गया।
नियम और विधि की पुस्तकों के अनुसार, शासकों और लड़ाकों को क्षत्रिय, पुजारियों और शिक्षकों को ब्राह्मण, किसानों और करदाताओं को वैश्य और श्रमिकों के रूप में सभी उच्च वर्गों की सेवा करने वालों को शूद्र कहा जाता था। बौद्धों ने भी वर्ण व्यवस्था को मान्यता दी, हालाँकि उन्होंने इसे जन्म पर आधारित नहीं माना। हालाँकि, उन्होंने व्यवस्था में क्षत्रिय को सर्वोच्च स्थान पर माना।

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