UK 9th Social Science

UK Board 9th Class Social Science – (आपदा प्रबन्धन) – Chapter 2 आपदा के जोखिम का प्रबन्धन-आपदा के शमन का बोध

UK Board 9th Class Social Science – (आपदा प्रबन्धन) – Chapter 2 आपदा के जोखिम का प्रबन्धन-आपदा के शमन का बोध

UK Board Solutions for Class 9th Social Science – सामाजिक विज्ञान – (आपदा प्रबन्धन) – Chapter 2 आपदा के जोखिम का प्रबन्धन-आपदा के शमन का बोध

पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1 – शमन ‘आपदा प्रबन्धन’ का एक शक्तिशाली कारक है। समझाइए ।
उत्तर- शमन आपदा की प्रचण्डता को शान्त करने का महत्त्वपूर्ण उपकरण है। इससे मानवीय एवं प्राकृतिक आपदाओं को नियन्त्रित किया जा सकता है। इससे महामारी को कम करने या इसे पूर्णतः समाप्त करने में सहायता मिलती है। यदि आपदा से पूर्व ही शमनकारी उपायों को अपना लिया जाए तो आपदा विकराल रूप धारण नहीं करती है। सूरत में फैली प्लेग जैसी महामारी यदि सैकड़ों लोगों के प्राण ले सकती है तो शमन हजारों लोगों की जान बचाने में उपयोगी हो सकता है। यद्यपि भूकम्प, भू-स्खलन, बादल का फटना आदि आपदाओं पर मानव का नियन्त्रण नहीं है फिर भी आपदा प्रबन्धन में शमन एक ऐसा शक्तिशाली कारक है जो इन आपदाओं से होने वाली क्षति को न्यून से न्यूनतम कर सकता है।
प्रश्न 2 – विकास पर आपदा के प्रभाव का वर्णन कीजिए ।
उत्तर – आपदा को विकास या सभ्यता का शत्रु कहा जाता है। मानवीय एवं प्राकृतिक दोनों ही आपदाएँ विकास में बाधक होती हैं। जब किसी क्षेत्र में किसी प्रकार की आपदा फैलती है तो उससे विकास कार्य बहुत अधिक प्रभावित होते हैं। लोगों के दैनिक कार्य-कलाप, व्यवसाय, कृषि, उद्योग, व्यापार, सेवाएँ आदि सभी बाधित हो जाते हैं। आपदाएँ परिवहन और संचार के साधनों को ध्वस्त कर समस्त आधारभूत एवं आवश्यक सेवाओं को ठप्प कर देती हैं। आपदाओं से गरीब व्यक्तियों पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। आपदाओं के कारण गरीब लोगों का रोजगार, आवास, पशु आदि सभी नष्ट हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण इन लोगों में आपदाओं के प्रति साधन, सुविधाओं एवं तकनीकी ज्ञान का नितान्त अभाव का होना है। भूकम्प द्वारा हुई तबाही से उबरने में लोगों को वर्षों लग जाते हैं। 26 जनवरी, 2001 को गुजरात के भुज क्षेत्र में आए भूकम्प ने पूरे राज्य में जन-धन को अपार हानि पहुँचाई थी इससे पहले यह राज्य लम्बे समय तक सूखे तथा भीषण चक्रवाती तूफान की मार झेल चुका था। इसी प्रकार 1999 में उड़ीसा (ओडिशा) के सुपर साइक्लोन ने बड़े पैमाने पर तबाही मचाई थी। 26 दिसम्बर, 2004 को सुनामी लहरों ने भारत सहित 11 देशों को प्रभावित किया। इस प्रकार ये सभी प्राकृतिक आपदाएँ विकास के मार्ग में बड़ी बाधा रही हैं। इनसे राज्य एवं केन्द्र सरकार को संसाधनों का बहुत बड़ा भाग, जो विकास कार्यों में व्यय होता; राहत व पुनर्वास पर खर्च करना पड़ा। अतः आपदाएँ विकास के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा होती हैं।
प्रश्न 3 – आपदा के जोखिम को कम करने के लिए यातायात व संचार की उपयोगिता समझाइए |
उत्तर— आपदा के जोखिम को कम करने के लिए यातायात और संचार साधनों का अपना विशिष्ट महत्त्व है। ऐसे स्थान या क्षेत्र जो आन्तरिक या सुदूरवर्ती भाग अवस्थित होते हैं वहाँ प्रायः यातायात और संचार साधनों का अभाव होता है। ग्रामीण और उच्च पर्वतीय एवं पठारी भागों में सामान्यतः यही स्थिति होती है। अतः जब कभी इन भागों में कोई आपदा की घटना होती है तो जन-धन की अपार क्षति इसीलिए होती है क्योंकि इन भागों में राहत एवं बचाव दल को सूचना मिलने में देर हो चुकी होती है। दूसरे इन भागों में यातायात साधन न होने के कारण राहत एवं बचाव दल को पहुँचने में भी काफी देर हो जाती है। अत: यातायात और संचार साधन जोखिम को कम करने में सहायक हैं क्योंकि इन साधनों से राहत एवं बचाव कार्य शीघ्र शुरू हो जाता है।
प्रश्न 4 – जोखिम के हस्तान्तरण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर – जोखिम के हस्तान्तरण से अभिप्राय यह है कि आपदा से होने वाली क्षति की पूर्ति व्यक्तिगत, समुदाय या संस्थागत स्तर पर की जाए। जोखिम स्थानान्तरण नीति के अन्तर्गत राहत तथा सहायता सामग्री को स्थानीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित क्षेत्रों तक पहुँचाया जा सकता है।
घरों, उपकरणों, साज-सामान, फसलों आदि का बीमा तथा समुदाय द्वारा एकत्रित आपातकालीन धनराशि, राष्ट्रीय या राज्य आपात कोष आदि, जिसे आवश्यकता पड़ने पर प्रयोग किया जा सकता हैजोखिम स्थानान्तरण का मुख्य उदाहरण है। विकसित देशों में कई निजी बीमा कम्पनी इस कार्य को करती हैं जो बहुत लोकप्रिय भी हैं, इसलिए यहाँ के लोग निजी और समूह के रूप में अपनी सम्पत्ति का बीमा करवाते हैं किन्तु भारत एवं अन्य विकासशील देशों में यह धारणा अभी अधिक लोकप्रिय एवं प्रचलित नहीं है।
प्रश्न 5- आपदा के जोखिम प्रबन्धन के दो पक्षों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर – विकासशील देशों में जोखिम का सामना करने के लिए नियमों और जोखिम प्रबन्ध कार्यों का अभाव पाया जाता है। जोखिम के प्रबन्धन में संकट के समय व्यवहार, संकट को रोकना व कम करना तथा प्रशासन नीति को एक साथ रखना विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण होता है। इन पहलुओं को निम्नलिखित तीन घटकों में व्यक्त किया जाता है—
(1) जोखिम का पता लगाना और उसका मूल्यांकन ।
(2) जोखिम को कम करना ।
(3) जोखिम का स्थानान्तरण ।
आपदा के जोखिम प्रबन्धन के इन तीनों पक्षों में से प्रथम दो पक्षों का वर्णन इस प्रकार है—
  1. जोखिम का पता लगाना और उसका मूल्यांकन – इसके अन्तर्गत किसी क्षेत्र में समुदाय के लिए खतरा बनने वाली आपदाओं की पहचान की जाती है और जिन तत्त्वों पर आपदा का प्रभाव पड़ सकता उनका पता लगाया जाता है। मूल्यांकन के अन्तर्गत पहचान किए गए तत्त्वों के भौतिक, सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञनिक कारकों का अध्ययन किया जाता है क्योंकि इन कारकों पर आपदाओं का प्रभाव निर्भर करता है।
  2. जोखिम को कम करना — जोखिम को कम करने के तीन घटक हैं; उन्हें – तैयारी, न्यूनीकरण तथा परहेज कहते हैं। तैयारी के अन्तर्गत जनजागरूकता, पूर्व प्रशिक्षण, चेतावनी प्रणाली का विकास तथा सम्भावित रणनीतियों के निर्धारण पर ध्यान दिया जाता है । न्यूनीकरण में आपदा के प्रभाव को कम करने के प्रयत्न पर जोर दिया जाता है। इसमें आपदाओं से बचने के लिए निर्धारित मानकों द्वारा मकान बनाना आदि सम्मिलित है। परहेज प्राकृतिक आपदाओं की अपेक्षा मानवीय आपदाओं पर अधिक लागू होता है; जैसे एक बाँध बाढ़ को रोक सकता है किन्तु गलत स्थान पर बनाया गया बाँध बाढ़ का कारण बन सकता है। अतः बाँध के लिए गलत स्थान के चुनाव से परहेज करना ही उपयुक्त है।
प्रश्न 6 – न्यूनीकरण किसे कहते हैं ? आपदा प्रबन्धन के तीन घटकों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर : न्यूनीकरण – आपदा प्रबन्धन की इस प्रक्रिया में ऐसे उपायों पर ध्यान दिया जाता है जिससे आपदा के बाद जान-माल की क्षति न्यूनतम होती है। इसके अन्तर्गत पर्यावरणीय प्रदूषण को रोकना तथा विशेष प्रकार की तकनीक अपनाकर आपदारोधी भवनों का निर्माण करना आदि उपाय सम्मिलित हैं।
आपदा प्रबन्धन के घटक
आपदा प्रबन्धन के तीन घंटक निम्नलिखित हैं-
  1. आपदा से पूर्व तैयारी — इसके अन्तर्गत आपदाग्रस्त क्षेत्रों में आपदा का सामना करने के लिए पहले से तैयारी की जाती है। इसमें जनसामान्य का आपदा के सम्बन्ध में जागरूक रहना तथा आपदा से बचने के लिए विभिन्न साधन, सुविधाओं और अन्य रणनीतियों का | निर्धारण करना आवश्यक होता है।
  2. आपदा के दौरान — इस घटक में प्रशिक्षित खोज और बचाव कार्य दलों की भूमिका और राहत सामग्री का वितरण सुनिश्चित करने , पर बल दिया जाता है।
  3. आपदा के पश्चात् आपदा के पश्चात् प्रभावित क्षेत्र पूर्ण रूप से अस्त-व्यस्त हो जाता है। अतः शेष बचे समुदाय को राहत एवं सहायता की आवश्यकता होती है जिससे यह लोग अपना जीवन नए सिरे से शुरू कर सकें। इसलिए इस चरण में पुनर्वास और विकास कार्यों पर विशेष जोर दिया जाता है।
प्रश्न 7 – स्थानीय, राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबन्धन में संस्थानिक ढाँचा कैसे उपयोगी है? समझाइए |
उत्तर— आपदाओं को रोकना सम्भव नहीं है परन्तु जोखिम को कम करने के लिए संस्थानिक ढाँचा स्थानीय स्तर से राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक अपना विशेष महत्त्व रखता है। यह ढाँचा आपदा के समय उत्पन्न संकट में ही नहीं वरन् आपदा से पूर्व और आपदा के पश्चात् भी इसके कारण हुई क्षति की पूर्ति करने में सक्षम होता है। भारत में राष्ट्रीय संकट प्रबन्धन संस्थान (NIDM) दिल्ली आपदा के जोखिम का प्रबन्धन करने वाला देश का प्रमुख संस्थान है जो सरकारी अफसरों, पुलिसकर्मियों, विकास एजेन्सियों और जनप्रतिनिधियों के माध्यम से आपदा से उत्पन्न संकट के निवारण हेतु कुशल प्रबन्धन कार्य करता है। अतः आपदा के समय सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान एवं संगठन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संकट के समय होमगार्ड, राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयंसेवक और नेहरू युवा केन्द्र स्थानीय स्तर पर समुदाय की सहायता के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए हैं। अत: आपदा प्रबन्धन में संस्थानिक ढाँचे की अपनी विशेष भूमिका होती है।

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