UK Board Class 9 Hindi – निबन्ध लेखन
UK Board Class 9 Hindi – निबन्ध लेखन
UK Board Solutions for Class 9 Hindi – निबन्ध लेखन
1. दीपावली
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) दीपावली का पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व, (3) वैज्ञानिक दृष्टि से दीपावली का महत्त्व, (4) दीपावली से लाभ, (5) दीपावली से हानि, (6) उपसंहार । |
प्रस्तावना – प्रतिवर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को हिन्दू-समाज में दीपावली का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। दीपावली शब्द दीप + अवली के योग से बना है, जिसका का अर्थ है ‘दीपों की पंक्ति’। इस पर्व पर प्रत्येक घर को दीपों से सजाया जाता है, इसीलिए इस पर्व को दीपावली कहते हैं। दीपावली के दिन घर-घर में लक्ष्मी-गणेश की पूजा की जाती है। लोग इस दिन आपसी द्वेष को भुलाकर एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिठाइयाँ बाँटते हैं। बच्चों के लिए यह दिन विशेष खुशी का होता है। वे रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर पटाखे जलाते हैं और अपने दोस्तों के साथ मिलकर मिठाइयाँ खाते हैं।
दीपावली का पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व – दीपावली का अपना पौराणिक महत्त्व है। इसी दिन लंका विजय के बाद जब भगवान् राम अयोध्या लौटे थे तो सम्पूर्ण भारतवर्ष में दीपक जलाकर खुशियाँ मनाई गई थीं। उसी दिन से यह त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। अनेक विद्वानों का यह भी मत है कि यह त्योहार इससे भी अधिक प्राचीन समय से मनाया जाता रहा है।
वैज्ञानिक दृष्टि से दीपावली का महत्त्व – दीपावली का पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व तो हैं ही, इसका वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्त्व है। वर्षा ऋतु में उत्पन्न कीड़ों-मकोड़ों, जल में घास-फूस एवं गन्दगी के सड़ने से उत्पन्न विषैली गैसों तथा घरों में व्याप्त सीलन को दूर करने की दृष्टि से भी दीपावली के त्योहार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। लोग दीपावली का त्योहार आने के बहुत पूर्व से ही अपने घर एवं उसके आस-पास की सफाई प्रारम्भ कर देते हैं। वे घर एवं दुकानों पर नया रंग-रोगन करवाते हैं। इससे घर की सीलन एवं उसके कोनों आदि में छुपे हुए कीड़े-मकोड़ों का नाश हो जाता है।
दीपावली से लाभ- दीपावली मात्र एक त्योहार ही नहीं है, अपितु इससे अनेक लाभ भी हैं। घर- मुहल्लों की सफाई, वातावरण की शुद्धि, आपसी सद्भाव की भावना का विकास तथा नए कार्य व नई योजनाओं को प्रारम्भ करने की प्रेरणा के साथ-साथ दीपावली हमें अँधेरे से लड़ने का भी सन्देश देती है।
दीपावली से हानि – मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो अपने ईर्ष्या-द्वेष पर आधारित विचारों एवं अज्ञानतापूर्ण व्यवहार के द्वारा किसी लाभप्रद रीति-रिवाज को भी हानिकारक बना देता है। दीपावली के दिन जुआ खेलने, मदिरापान करने और अशिष्ट आचरण से विनाश को आमन्त्रित करनेवालों की आज भी कमी नहीं है। ऐसे लोग इस त्योहार की पवित्रता को कलंकित कर समाज को हानि ही पहुँचाते हैं। इस दिन देशभर में पटाखों के रूप में अरबों रुपये का बारूद फूँक दिया जाता है। इससे देश की अर्थव्यवस्था तो प्रभावित होती ही है, वातावरण भी प्रदूषित होता है। अनेक लोग पटाखों के कारण होनेवाली दुर्घटनाओं का शिकार होकर अपनी जिन्दगी को नरक बना लेते हैं।
उपसंहार — दीपावली हिन्दुओं का एक महत्त्वपूर्ण और पावन त्योहार है। धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि विभिन्न दृष्टियों से इस पर्व का विशिष्ट महत्त्व है। मानव जीवन में सुख, शान्ति और समृद्धि लाने में सहायक अनेक मंगलकारी प्रेरणाएँ इस पर्व के महत्त्व की पृष्ठभूमि में छिपी हुई हैं; अतः हमें किसी भी त्योहार को मनाते समय उसमें निहित कल्याणकारी भावों को भी समझना चाहिए। दीपावली के त्योहार के लिए भी हमें यही दृष्टिकोण अपनाना उचित होगा, तभी हम इसका वास्तविक आनन्द प्राप्त कर सकते हैं।
2. स्वतन्त्रता दिवस
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) स्वतन्त्रता दिवस का महत्त्व, (3) स्वतन्त्रता दिवस मनाने की रीति, ( 4, स्वतन्त्रता का स्वर्ण जयन्ती वर्ष, (5) उपसंहार । |
प्रस्तावना – जब किसी देश पर किसी बाहरी देश की सत्ता स्थापित होती है तो उस देश के निवासियों को अपमान, अत्याचार और शोषण का शिकार होना पड़ता है। 15 अगस्त, 1947 ई० से पूर्व हमारा देश भी ब्रिटिश शासन के अधीन था। ब्रिटिश शासन के अधीन हम भी इस लज्जाजनक विवशता से पीड़ित थे। ब्रिटिश शासकों के अत्याचार और शोषण के विरुद्ध हमारा राष्ट्र बहुत पहले से ही संघर्षरत था, किन्तु इस संघर्ष का फल प्राप्त हुआ 15 अगस्त, 1947 ई० को, जब हमारा देश स्वतन्त्र हो गया । स्वतन्त्रता प्राप्ति के इसी दिन को हम ‘स्वतन्त्रता दिवस’ के नाम से सम्बोधित करते हैं और प्रतिवर्ष हर्षोल्लास के साथ इस राष्ट्रीय पर्व को मनाते हैं।
स्वतन्त्रता दिवस का महत्त्व – किसी भी बाह्य शक्ति के अधीन रहकर कोई भी जीव पीड़ा का ही अनुभव करता है। ब्रिटिश शासन की शक्ति ने तो हमारे सम्पूर्ण समाज और राष्ट्र को ही अपने अमानुषिक नियन्त्रण में ले रखा था। स्वतन्त्रता दिवस के दिन ही हमने इस अत्याचारी विदेशी शक्ति की परतन्त्रता से मुक्ति प्राप्त की थी, इसलिए यह दिन हमारे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इस दिन ही ब्रिटिश शासन के प्रतीक ‘यूनियन जैक’ का भारत में पतन हो गया और उसका स्थान हमारे राष्ट्रध्वज ‘तिरंगे’ ने ले लिया। इसके साथ ही हम एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा को प्राप्त करके विश्व-समाज में अपना मस्तक ऊँचा कर सके।
स्वतन्त्रता दिवस मनाने की रीति- 15 अगस्त, 1947 ई० को हमारी परतन्त्रता की बेड़ियाँ खुल गईं। 14 अगस्त, 1947 ई० की रात में 12 बजकर 1 मिनट पर अंग्रेजों ने भारतीय कर्णधारों को सत्ता सौंप दी। 15 अगस्त का सवेरा भारतवासियों के लिए एक नई उमंग लेकर आया । प्रातः काल से ही प्रभात-फेरियाँ प्रारम्भ हो गईं। दिल्ली के लाल किले पर ध्वजारोहण हुआ, जिसे देखने के लिए वहाँ भारी भीड़ उमड़ पड़ी। सेना ने ‘राष्ट्रध्वज’ को सलामी दी। सम्पूर्ण भारत में राष्ट्रध्वज को सम्मानपूर्वक फहराकर उसे सलामी दी गई। तभी से प्रतिवर्ष इस दिन हम स्वतन्त्रता प्राप्ति की वर्षगाँठ मनाते हैं और राष्ट्रध्वज के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं।
इस दिन दिल्ली में लाल किले पर ध्वजारोहण किया जाता है। भारत के सभी राज्यों में भी ध्वजारोहण करके उसे सम्मान प्रदान किया जाता है। सरकारी कार्यालयों, विद्यालयों एवं विभिन्न संस्थाओं में भी इस दिन ध्वजारोहण किया जाता है और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
स्वतन्त्रता का स्वर्ण जयन्ती वर्ष – 15 अगस्त, 1947 ई० को जिस राजनैतिक स्वतन्त्रता को प्राप्त करने में हम सफल हुए थे, 15 अगस्त, 1997 ई० को उस राजनैतिक स्वतन्त्रता को प्राप्त किए 50 वर्ष पूर्ण हो गए। 15 अगस्त, 1947 ई० में प्राप्त की गई स्वतन्त्रता पर हर्षोल्लास व्यक्त करने और 50 वर्षों तक अपनी स्वतन्त्रता को निरन्तर बनाए रखने के उपलक्ष्य में, वर्ष 1997 को ‘स्वर्ण जयन्ती वर्ष’ घोषित किया गया। इस वर्ष के प्रारम्भ से ही स्वतन्त्रता के स्वर्ण जयन्ती समारोह मनाने की तैयारियाँ की गईं। 15 अगस्त, 1997 ई० को स्वतन्त्रता का स्वर्ण जयन्ती समारोह मनाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय, प्रान्तीय • एवं क्षेत्रीय स्तरों पर योजना समितियों तथा क्रियान्वयन समितियों का – गठन किया गया। इस प्रकार वर्ष 1997 में स्वतन्त्रता का स्वर्ण जयन्ती समारोह विशेष धूमधाम और अत्यधिक हर्षोल्लास से मनाया गया।
स्वतन्त्रता दिवस हमारे लिए परम हर्ष और स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करने का दिन होता है, परन्तु इसकी सार्थकता तभी है, जब हम आजादी के महत्त्व को समझें तथा सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक समानता पर आधारित समाज की संरचना के स्वप्न को साकार करने का संकल्प लें। अपने देश की एकता, अखण्डता और अपने अस्तित्व को बनाए रखने तथा भारत को प्रगतिशील बनाने की दृष्टि से यह एक ऐसा महान् अवसर है, जब हमें निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर स्वयं में राष्ट्रीय भावना को जाग्रत करना चाहिए तथा अपने राष्ट्र की समृद्धि, प्रगति एवं खुशहाली हेतु समर्पित भाव से जुट जाना चाहिए।
उपसंहार — हमने अत्यन्त कठिन संघर्ष एवं अथाह पीड़ा झेलने के बाद स्वतन्त्रता प्राप्त की है। निःसन्देह इस दिन अपनी प्रसन्नता को सोल्लास व्यक्त करने का हमें अधिकार है, किन्तु क्या हमने ब्रिटिश शासन से स्वतन्त्रता प्राप्त करके स्वतन्त्रता के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है? वस्तुतः ऐसा नहीं है। आज भी हम ईर्ष्या, द्वेष, साम्प्रदायिक भावनाओं, क्षेत्रीयता, जातीयता तथा रूढ़ियों आदि के बन्धन में जकड़े हुए हैं। समाज में प्रत्येक व्यक्ति समान अधिकार तथा प्रगति हेतु आवश्यक समान अवसर भी प्राप्त नहीं हैं। हमारा प्रजातान्त्रिक आदर्श एक दिखावा और पाखण्ड बनकर रह गया है। जब तक हम इन सब बुराइयों से मुक्ति प्राप्त नहीं करते, हमारी राष्ट्रीय स्वतन्त्रता निरर्थक बनी रहेगी। हम अवश्य ब्रिटिश शासन से मुक्त होने की खुशियाँ मनाएँ, किन्तु यह न भूलें कि हमारा कर्त्तव्य अब मात्र झण्डा फहराना और राष्ट्रीय गीत गाना ही नहीं रह गया है। हमें अभी अनेक बन्धनों से स्वतन्त्र होना है और इसके लिए हमें एक लम्बा संघर्ष करना है।
3. कम्प्यूटर आज की आवश्यकता
संकेत- बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) कम्प्यूटर का विकास, (3) कम्प्यूटर की उपयोगिता या लाभ, (4) उपसंहार । |
प्रस्तावना – नई सदी में कम्प्यूटर क्षेत्र में आई क्रान्ति के कारण सूचनाओं की प्राप्ति और इनके संचार के संसाधनों में तेजी आई है। आज के कम्प्यूटर वस्तुतः कृत्रिम बुद्धिवाले जड़ मशीनी – मानव हैं। कम्प्यूटर विज्ञान के क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी का आयाम जुड़ने से हुई प्रगति ने हमें अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की हैं। इनमें मोबाइल फोन तथा इण्टरनेट का विशेष स्थान है। कम्प्यूटर से जहाँ कार्य करने में समय कम लगता है वहीं इसके प्रयोग से मानव श्रम में भी कमी आई है। यही कारण है कि दिन-प्रतिदिन इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। पहले इनका प्रयोग कुछ सरकारी संस्थानों तक ही सीमित था, लेकिन आज इनका प्रयोग घर-घर में होने लगा है।
कम्प्यूटर का विकास — प्रारम्भ में आदिमानव उँगलियों की सहायता से गणना करता था। विकास के अनुक्रम में फिर उसने कंकड़ों द्वारा, रस्सी में गाँठ बाँधकर तथा छड़ी पर निशान लगाकर गणना करना आरम्भ किया। लगभग दस हजार वर्ष पहले अबेकस नामक मशीन का आविष्कार हुआ। इसका प्रयोग गिनती करने तथा संक्रियाएँ हल करने के लिए किया जाता था ।
यान्त्रिक कैलकुलेटर का उद्गम दो गणितज्ञों ब्लेज पास्कल और गॉट फ्राइड विलहेम के कार्यों में खोजा जा सकता है। चार्ल्स बेवेज ने जॉन नेपियर द्वारा खोजे गए लघुगणक अंकों को समाहित कर सकनेवाली ‘ऑल परपज कैलकुलेटिंग मशीन’ बनाने का विचार किया था। आधुनिक कम्प्यूटर क्रान्ति 20वीं सदी के चौथे दशक में आरम्भ हुई। सन् 1904 ई० में खोजे गए थर्मीयोनिक को वैज्ञानिक विन विलयम्स ने सन् 1931 ई० में गणक – यन्त्र के रूप में उपयोगी पाया था। हावर्ड एकेन द्वारा निर्मित ‘हावर्ड मार्क’ नामक कम्प्यूटर, विश्व का पहला डिजिटल कम्प्यूटर था। इसमें इलेक्ट्रॉनिक मैकेनिकल यन्त्रों का प्रयोग किया गया था। इस कम्प्यूटर को सन् 1944 ई० में ‘इण्टरनेशनल बिजनेस मशीन’ (IBM) नामक फर्म और ‘हावर्ड ‘विश्वविद्यालय’ ने मिलकर विकसित किया था। सन् 1946 ई० में विश्व का पहला पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक डिजिटल कम्प्यूटर बना। इसमें दस अंकोंवाली बीस संख्याओं को संचित किया जा सकता था। इसकी कार्य करने की गति बहुत तेज थी। चार्ल्स बेवेज को कम्प्यूटर का आविष्कर्त्ता माना जाता है।
आज कम्प्यूटर में अनेक तरह के बदलाव आए हैं। कम्प्यूटर के कार्य करने की गति इतनी तीव्र हो गई है कि वह किसी भी गणना को करने में सेकण्ड का दस खरबवाँ भाग जितना समय लेता है। इसके अलावा इससे अन्य कई तरह के कार्य भी लिए जा सकते हैं।
कम्प्यूटर की उपयोगिता या लाभ – भारत में प्रारम्भ में कम्प्यूटरों का उपयोग काफी सीमित था। वर्तमान में बैंक, अस्पताल, प्रयोगशाला, अनुसन्धान केन्द्र, विद्यालय सहित ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जहाँ कम्प्यूटर का प्रयोग न किया जा रहा हो। आज कम्प्यूटर संचार का एक महत्त्वपूर्ण साधन बन गया है। कम्प्यूटर नेटवर्क के माध्यम से देश के प्रमुख स्थानों को एक-दूसरे के साथ जोड़ दिया गया है। भवनों, मोटर गाड़ियों, हवाई जहाजों आदि के डिजाइन तैयार करने में कम्प्यूटर का व्यापक प्रयोग हो रहा है। अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में तो कम्प्यूटर ने अद्भुत कार्य कर दिखाया है। इसके माध्यम से करोड़ों मील दूर अन्तरिक्ष के चित्र लिए जा रहे हैं। इन चित्रों का विश्लेषण भी कम्प्यूटर द्वारा ही किया जा रहा है। इण्टरनेट ने तो संचार के क्षेत्र में क्रान्ति ही ला दी है।
उपसंहार — कम्प्यूटर चाहे कम समय में मानव से अधिक कार्य कर ले और वह भी बिना किसी त्रुटि के, लेकिन उसे मानव मस्तिष्क से तेज नहीं माना जा सकता; क्योंकि कम्प्यूटर का आविष्कार करनेवाला मानव ही है। इसलिए मानव कम्प्यूटर से श्रेष्ठ है। कम्प्यूटर उपयोगी होते हुए भी है तो मशीन ही। मशीन मानव के समान संवेदनशील नहीं हो सकती। मानव को कम्प्यूटर को एक सीमा तक ही प्रयोग में लाना चाहिए। मनुष्य स्वयं निष्क्रिय न बने, बल्कि वह स्वयं को सक्रिय बनाए रखे तथा अपनी क्षमता को सुरक्षित रखे ।
4. पर्यावरण प्रदूषण
संकेत – बिन्दु – ( 1 ) प्रस्तावना : पर्यावरण प्रदूषण का अर्थ, (2) पर्यावरण प्रदूषण के कारण, (3) पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार, (4) पर्यावरण प्रदूषण का निवारण, (5) उपसंहार । |
प्रस्तावना : पर्यावरण प्रदूषण का अर्थ — ‘पर्यावरण’ का शाब्दिक अर्थ है— चारों ओर का वातावरण । वैज्ञानिक दृष्टि से पर्यावरण से अभिप्राय उस वायुमण्डल से है, जिसमें हम साँस लेते हैं, जीते हैं। इसके अन्तर्गत पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, ध्वनि आदि से युक्त प्रकृति का सम्पूर्ण परिवेश आ जाता है। प्रदूषण से अभिप्राय है— सन्तुलन में दोष पैदा होना। इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण से तात्पर्य उस प्राकृतिक असन्तुलन से है, जो प्रकृति या वातावरण में पैदा हो गया है।
पर्यावरण प्रदूषण के कारण – पर्यावरण प्रदूषण के अनेक कारण हैं, परन्तु इसका सबसे बड़ा कारण तीव्रगति से हो रही वैज्ञानिक प्रगति है। भौतिक सुविधाओं को जुटाने के लिए बड़े-बड़े कारखानों से युक्त औद्योगिक नगर बस गए हैं। उनका रासायनिक कूड़ा-कचरा, गन्दा जल, मशीनों का शोर सब मिलकर हमारे पर्यावरण को दूषित कर रहे हैं। विभिन्न आधुनिक उपकरणों के प्रयोग से उत्पन्न सी० एफ० सी० (क्लोरो फ्लोरो कार्बन) गैसों के उत्सर्जन ने वायुमण्डल की ओजोन पर्त में छेद कर दिया है। परमाणु विस्फोटों से मैदान और पहाड़ सब काँप उठे हैं। यन्त्रों के प्रयोग से उत्पन्न ऊष्मा, धुएँ एवं ध्वनि से वातावरण में गरमी बढ़ गई है, जिससे धरती मौसम बदल जाने के संकट से जूझ रही है।
जनसंख्या-विस्फोट भी पर्यावरण प्रदूषण का एक बड़ा कारण है। ‘जनसंख्या की अधिकता के कारण पर्यावरण असन्तुलन बढ़ा है। अन्न, जल, आवास आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों को काटा जा रहा है। शहरीकरण से गन्दगी बढ़ी है। धुएँ, शोर, तनाव और अनेक संक्रामक रोगों से लोग घिर रहे हैं।
पर्यावरण-प्रदूषण के प्रकार- पर्यावरण प्रदूषण के मुख्यत: चार प्रकार हैं—
(1) जल प्रदूषण, (2) वायु प्रदूषण, (3) ध्वनि-प्रदूषण, (4) रेडियोधर्मी – प्रदूषण ।
कल-कारखानों का गन्दा जल नदी-नालों में मिलकर न केवल जल प्रदूषण फैला रहा है, वरन् अनेक रोग भी फैला रहा है। देखने में आ रहा है कि कारखाना – बहुल क्षेत्रों में भूगर्भीय जल भी अब प्रदूषित होने के कगार पर है। वायु प्रदूषण महानगरों की मुख्य समस्या है। पेट्रोल या डीजल से चलनेवाले काला धुआँ उड़ाते वाहन, बड़े-बड़े उद्योगों की चिमनियों से निकलती विषैली गैसें आदि सब मिलकर बड़ी तेजी से हमारे वायुमण्डल को अधिकाधिक प्रदूषित करते जा रहे हैं। प्रदूषण का तीसरा रूप है- ध्वनि प्रदूषण। फैक्ट्रियों, मशीनों, वाहनों तथा ध्वनि – विस्तारक यन्त्रों से एवं विभिन्न उत्सव-समारोहों आदि के अवसर पर उत्पन्न ध्वनि द्वारा इतना शोर होने लगा है कि आज लोगों के बहरे होने की शंका पैदा होने लगी है। सभी प्रकार की कर्णकटु ध्वनि पर्यावरण में असन्तुलन फैलाती है। रेडियोधर्मी-प्रदूषण परमाणु अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग से उत्पन्न होता है। हजारों-लाखों निरपराध लोगों को अपनी शक्ति के प्रभाव से मौत की नींद सुला देने में समर्थ परमाणु – विस्फोटों से उत्पन्न विषैली गैसें दुर्गन्ध, धुएँ आदि से पर्यावरण वर्षों बाद तक अत्यधिक प्रदूषित रहता है। परमाणु विस्फोटों से जल, वायु, ध्वनि और मृदा सभी प्रकार का अत्यन्त घातक प्रदूषण फैलता है।
पर्यावरण- प्रदूषण का निवारण – पर्यावरण-प्रदूषण का निवारण सरकार से अधिक जनता का उत्तरदायित्व है। इसे रोकने का सर्वव्यापी उपाय है— जन-चेतना या जन-जागरण । जनता और सरकार दोनों को मिलकर पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम पर गम्भीरता से कार्य करना चाहिए। इसके कुछ उपाय हैं – वनों का संरक्षण, वृक्षारोपण, वन-उपवन की रक्षा, प्रदूषित जल और मल के निस्तारण की उचित व्यवस्था करना, ध्वनि-प्रदूषण पर रोक लगाना, विश्व का परमाणु-निरस्त्रीकरण आदि । सामाजिक और जनहितकारी नियमों के उल्लंघन पर दोषी को दण्डित करना भी एक नियन्त्रणकारी उपाय है। मानव-जीवन की चहुँमुखी उन्नति चाहते हैं
उपसंहार— यदि हम तो हमें पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम पर ध्यान देना होगा। प्रकृति ने हमें एक सुन्दर स्वस्थ वातावरण प्रदान किया है। हम स्वयं इस पर्यावरण को दूषित करके वैसा ही कार्य कर रहे हैं, जैसे कि कोई उसी डाल को काटे जिस पर वह बैठा हो। केवल भौतिक उन्नति मानव जीवन का ध्येय नहीं है। यदि वैज्ञानिक विकास से स्वयं मनुष्य की प्राणवत्ता संकट में पड़ जाती है तो वैज्ञानिक समृद्धि पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। हमें पर्यावरण के प्रत्येक प्रदूषण को रोकने के लिए गम्भीर और सक्रिय होना पड़ेगा। आज की यह सर्वप्रमुख आवश्यकता है।
• समरूप निबन्ध – पर्यावरण-प्रदूषण : एक गम्भीर समस्या : पर्यावरण प्रदूषण : समस्या और समाधान।
5. विज्ञान : वरदान या अभिशाप
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना : विज्ञान का अर्थ, (2) विज्ञान के दो रूप, (3) विज्ञान का ‘वरदान’ रूप, (4) विज्ञान का ‘अभिशाप’ रूप, (5) उपसंहार । |
प्रस्तावना : विज्ञान का अर्थ – ‘विज्ञान’ शब्द, ‘वि’ उपसर्गपूर्वक ‘ज्ञान’ शब्द के योग से बना है। ‘वि’ का अर्थ है – विशेष या विशिष्ट या खास या प्रमाणसहित । ‘ज्ञान’ का अर्थ है – जानकारी, बुद्धि या अक्ल । इस प्रकार विज्ञान का अर्थ है— ऐसी जानकारी या ज्ञान, जो प्रमाणसहित हो, विशेष हो ।
विज्ञान के दो रूप – विशेष ज्ञान से तात्पर्य केवल उस सामर्थ्य से है जो किसी कारण से विशेष है; अर्थात् वह शक्ति जो विशेष ज्ञान के आधार पर नए-नए आविष्कार करती है, हमें नई सोच प्रदान करती है। यह नई सोच या शक्ति या क्षमता रचनात्मक भी हो सकती है और विध्वंसात्मक भी । रचनात्मक शक्ति ‘वरदान’ है तो विध्वंसात्मक शक्ति ‘अभिशाप’ |
विज्ञान का ‘वरदान’ रूप – विज्ञान का रचनात्मक स्वरूप ‘वरदान’ है। जिस प्रकार प्राचीनकाल में देवताओं से वरदान माँगने पर, उनके ‘तथास्तु’ कहने के साथ ही मनचाही इच्छा पूरी होने की बातें हमने कथा-कहानियों में पढ़ी-सुनी हैं, वैसे ही आज बटन दबाते ही (विज्ञान देवता के द्वारा) मानव की मनोकामनाएँ पूरी हो रही हैं। विज्ञान के बल पर नेत्रहीनों की दुनिया बदल गई है। बहरों को सुनने की शक्ति मिल गई है। अपंगों को अंग मिल रहे हैं। निःसन्तान को सन्तान मिल रही है। असाध्य समझे जानेवाले रोगों का इलाज सम्भव हुआ है। अकाल मृत्यु पर विजय पा ली गई है। बटन दबाते ही इन्द्र देवता वर्षा करने आ जाते हैं तो वायु देवता हवा करने लगते हैं। प्रकाश के स्तर को कम या ज्यादा करना हमारे वश में है। रेलगाड़ी दौड़ाना, हवाई जहाज उड़ाना, पानी को बाँधकर बिजली बनाना सब विज्ञान के वरदान हैं। समुद्र की गहराई और आकाश की ऊँचाई नाप लेने का वरदान हमें विज्ञान ने ही दिया है। तार, बेतार के तार, टेलीफोन, इण्टरनेट आदि विज्ञान के ऐसे वरदान हैं, जिन्होंने संसार की प्रत्येक वस्तु को प्रतिपल हमारी मुट्ठी में ला दिया हैं।
विज्ञान का ‘अभिशाप’ रूप – मनुष्य ने विज्ञान के दम पर जहाँ अपने ज्ञान का विकास और जीवन- सुविधाओं में वृद्धि की है वहीं विज्ञान के दुरुपयोग से अपने लिए स्वयं अपनी कब्र भी खोदी है। परमाणु-शक्ति की खोज तो वैज्ञानिकों ने मानव के भले के लिए ही की थी, परन्तु मानव-मन में छिपी पाशविक वृत्तियों ने इसके दुरुपयोग की राहें भी ढूंढ निकाली। हमने अणु बम, परमाणु बम, हाइड्रोजन बम और न जाने कितने विध्वंसकारी, संहारक अस्त्र-शस्त्रों का जखीरा बना लिया है। जिस देश के पास जितनी मारक क्षमता है वह उतना ही बड़ा दर्जा रखता है। इन भयानक अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग से पृथ्वी पर प्रदूषण की समस्या भी उत्पन्न हो गई है। सामान्य जीवन पर अब संकट के बादल मँडराने लगे हैं। नित्य ही असाध्य रोगों के रोगियों की संख्या बढ़ रही है। अत्यधिक मशीनों पर आधारित जीवन ने मनुष्य को स्वयं एक मशीन में बदल दिया है। मानव की सहज संवेदनाएँ समाप्त हो रही हैं। किसी कार्य का सम्पादन अपना कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व या लगाव समझकर करने की अपेक्षा आज व्यक्ति उसे नौकरी या कार्यस्थल की विवशता समझकर कर रहा है। इससे मानव-जीवन में नीरसता भर गई है । सन्देह और भय के वातावरण को हवा देने में वैज्ञानिक उपकरणों के दुरुपयोग की ही मुख्य भूमिका रही है। विज्ञान का यह रूप मानव जीवन के लिए अभिशाप है।
उपसंहार — आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मानव ने अपनी जीवन – यात्रा को सुविधामय बनाने के लिए विकास के पथ पर विज्ञान का सहारा लिया, किन्तु आज यही विज्ञान हमारे जीवन को चला रहा है। हम इसके दास बन गए हैं। आज की परिस्थितियों का मूल्यांकन करें तो यह स्पष्ट है कि विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनानेवाले हम स्वयं ही हैं। अग्नि पर हमारा अधिकार है। अब हम उससे भोजन पकाकर लोगों का पेट भरें या फिर दूसरों के घर में आग लगाकर उनको भस्म कर दें – यह हमारी मानसिकता पर निर्भर करता है।
विज्ञान के सहारे मानव ने जो भौतिक उन्नति की है, उसमें सीधा, सरल, निष्कपट, निःस्वार्थ, सन्तोषी तथा आनन्द बाँटनेवाला मानव कहीं खो गया है। आज छली कंपटी, स्वार्थी, तनावग्रस्त, चालाक तथा भौतिकवादी धन-लोलुप समाज विज्ञान को अभिशाप बनाकर मानवता को डस रहा है। जीवन का सुख समाप्त – सा हो गया है। हम अपने जीवन में सुख चाहते हैं या सुविधाएँ, यह हमें चुनना है। विज्ञान के वरदान और अभिशाप दोनों रूपों की वास्तविकता हमारे सामने है।
6. मेरी अविस्मरणीय रेल यात्रा
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना: पहली यात्रा का उत्साह, (2) स्टेशन का दृश्य, (3) रेलगाड़ी के भीतर का दृश्य, (4) रेलगाड़ी के बाहर का दृश्य, (5) चहल-पहल, (6) उपसंहार : यात्रा का अन्त। |
प्रस्तावना : पहली यात्रा का उत्साह – बात सन् 2008 ई० की है, फिर भी है मेरे स्मृति पटल पर बिल्कुल स्पष्ट । कारण एक नहीं दो-दो थे। एक तो मुझे अपने विद्यालय की ओर से चण्डीगढ़ में आयोजित हो रही अन्तर – विद्यालयी शरीर सौष्ठव प्रतियोगिता में प्रतिनिधित्व करना था और दूसरे, मैं पहली बार अकेले यात्रा करने जा रहा था, वह भी रेलगाड़ी में। पहली बार अकेले यात्रा करने के रोमांच और प्रतियोगिता में प्रथम आने के उत्साह के कारण वह रेल यात्रा मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय अनुभव बन गई है।
स्टेशन का दृश्य – हमारे पी०टी० अध्यापक मुझे स्टेशन पर टिकट देने आए। वे टिकट पहले ही खरीद चुके थे। ट्रेन 12:30 पर थी, परन्तु मैं स्टेशन पर 12:05 पर ही पहुँच गया था। आखिर रेलगाड़ी में यात्रा की उतावली जो थी। गाड़ी आने में अभी समय था। शिक्षक महोदय मुझे रेल-यात्रा में सुरक्षा सम्बन्धी और प्रतियोगिता सम्बन्धी आवश्यक हिदायतें लगातार दे रहे थे। वे किसी भी प्रकार से सन्तुष्ट नहीं हो पा रहे थे कि मैं अकेले यात्रा कर सकूँगा। मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि उनका आशीर्वाद मेरी रक्षा करेगा। तब वे मेरे लिए पानी की बोतल लेने चले गए। इस बीच मैंने स्टेशन का नजारा जी भरकर किया। साफ-सुथरा प्लेटफॉर्म और चारों ओर भीड़ ही भीड़। मैंने आरक्षण सूची से अपनी सीट की स्थिति पता कर ली। तभी गाड़ी आ गई। मैंने शिक्षक महोदय को किसी बुजुर्ग से बातें करते देखा तो मालूम पड़ा कि वे मेरे ही डिब्बे में सहयात्री थे। शिक्षक महोदय ने मुझे गाड़ी में चढ़ाया और शुभकामनाएँ दीं। मेरी सीट खिड़की की ओर थी, मैं उस पर बैठ गया। मैंने एक बार फिर प्लेटफॉर्म पर नजर दौड़ाई तो देखा कि कोई कुली के साथ भागता सा चल रहा था तो कोई अपना बैग लादे औरों को धक्के मारता, रास्ता बनाता भाग रहा था। कोई खाने का सामान लिए बोगी की ओर भाग रहा था। आखिर में गाड़ी ने सीटी दी और धीरे-धीरे सरकने लगी। मेरी आँखों में उल्लास था और मन में कहीं थोड़ा-सा भय भी ।
रेलगाड़ी के भीतर का दृश्य – अधिकांश सीटों पर लोग बैठ चुके थे। कुछ लोग अपनी सीट की स्थिति से सन्तुष्ट नहीं थे। उनकी आपस में सीट बदल लेने की बात चल रही थी। बैठे हुए कुछ लोग अपना सामान व्यवस्थित करने में लगे थे। कुछ युवक-युवतियाँ सामने की सीटों पर थे। उन्होंने डिब्बे के शोरगुल से बचने के लिए कानों में संगीत प्रवाहित कर रखा था। अधिकांश बुजुर्ग गरमी के प्रभाव और भीड़ के शोर से बेखबर, आँखें बन्द किए बैठ गए थे। कुछ महिलाएँ परिवार के बच्चों की माँग पर खाने-पीने की चीजें निकालने – सजाने में लग गई थीं। कुछ ताश खेलने में व्यस्त थे और कुछ पत्र-पत्रिकाओं में तो कोई अपनी पिछली यात्रा में हुई ठगी का अनुभव सुना रहा था। मैं किसी तरह उसे सुनने का प्रयास कर रहा था, परन्तु ठीक से सुनाई नहीं दे रहा था ।
रेलगाड़ी के बाहर का दृश्य – अब रेलगाड़ी ने गति पकड़ ली। मेरा ध्यान बाहरी दृश्यों की ओर खिंच गया। किसी चलचित्र की तरह विविध प्रकार के दृश्य लगातार एक के बाद एक आते जा रहे थे। समझ में यह नहीं आ रहा था कि गाड़ी भाग रही है या ये दृश्य। गाड़ी पटरी पर सरपट दौड़ रही थी। काँटे और पटरी बदलती ट्रेन कैसे आड़ी-तिरछी होकर भी रास्ता बनाती भाग रही थी, इस पर मैं अचम्भित – सा था। दूर तक फैले मैदान और बीच-बीच में दिख जानेवाले छोटे-छोटे मकान एक अजीब-सा सौन्दर्य रच रहे थे। मैं इसी में खोया रहता कि अचानक रेलगाड़ी रुक गई। पता चला कि किसी ने चेन पुलिंग की है। गार्ड ने उतरकर मौके का जायजा लिया। इस बीच डिब्बे में तरह-तरह की बातों में लोग अपना भय और शंका व्यक्त कर रहे थे। थोड़ी देर में गाड़ी बढ़ी और बीस मिनट बाद ही सब्जी मण्डी स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई। लोगों के चढ़ने-उतरने का सिलसिला फिर चला।
चहल-पहल — सब्जी मण्डी से गाड़ी चली कि फेरीवालों की आवाजें कानों को बेधने लगीं। जूता- पॉलिश, खिलौने, नमकीन, कोल्ड ड्रिंक, चाय, पानी की बोतल, पुस्तकें और समोसे – पकौड़े — क्या नहीं था, जो गाड़ी में फेरीवालों की बदौलत उपलब्ध न हो। एक लड़के से मैंने एक फ्रूटी खरीदी तो वह टूटे पैसे न होने का बहाना बनाकर पूरा नोट ही ले गया। मैंने सोचा कि मैं ठगा गया परन्तु जब उसने आकर पैसे लौटाए तो मुझे पता लगा कि वह फ्रूटी बेचते हुए भीड़ में आगे निकल गया था और मुझे ढूँढ नहीं पा रहा था। ट्रेन अपनी गति से भागी जा रही थी।
उपसंहार : यात्रा का अन्त- मैंने अम्बाला में माँ का दिया खाना निकाला। मैं खा ही रहा था कि वे बुजुर्ग मेरे करीब आकर बोले कि बेटा, बस बीसेक मिनट में चण्डीगढ़ आ जाएगा। तुम तैयार हो जाओ। मैंने जल्दी-जल्दी खाना निपटाया, जूते कसे और बैग बन्द करके पीठ पर लादा। स्टेशन आने से पूर्व ही मैं डिब्बे के गेट पर जा पहुँचा। वे बुजुर्ग मुझे देखकर मुसकराए और मुझे ‘प्रथम आओ’ कहकर शुभकामनाएँ दीं। प्रतियोगिता में मैं प्रथम आया भी। मैं आज भी न उन्हें भुला पाया हूँ और न उस रेल यात्रा को ।
• समरूप निबन्ध— रेलयात्रा ।
7. अनुशासन का महत्त्व
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना ‘अनुशासन’ का अर्थ और महत्त्व, (2) अनुशासन की प्रथम पाठशाला परिवार, (3) अनुशासन एक महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य, (4) व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अनुशासन का महत्त्व ( 5 ) उपसंहार । |
प्रस्तावना : ‘अनुशासन’ का अर्थ और महत्त्व – ‘अनुशासन’ शब्द की व्युत्पत्ति दो शब्दों ‘अनु’ तथा ‘शासन’ को मिलाकर हुई है। ‘अनु’ का अर्थ है ‘पीछे’ या ‘पीछा करना’ तथा ‘शासन’ का अर्थ है ‘व्यवस्था के साथ’ । इस प्रकार अनुशासन का अर्थ है- ‘व्यवस्था के अनुसार जीवनयापन करना’। संक्षेप में निश्चित व्यवस्था को मानना ही अनुशासन में रहना है। अनुशासन से व्यक्ति का जीवन, सुचारु रूप से समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करते हुए, कार्यकुशलता की वृद्धि से प्राप्त अनेक सुख-सुविधाओं से भर जाता है। अनुशासन चाहे व्यक्ति द्वारा स्वयं पर लगाया गया अंकुश हो या फिर समाज की किसी परम्परा या व्यवस्था का हो, विस्तृत अर्थों में लाभदायक ही होता है।
अनुशासन की प्रथम पाठशाला : परिवार – अनुशासन का पहला पाठ व्यक्ति अपने परिवार में रहकर ही सीखता है। यदि परिवार के सदस्य अपने सभी कार्य व्यवस्था से करते हैं तो बच्चा स्वयं ही इसको अपना स्वभाव बना लेता है। जिस घर में सब मनमौजी ढंग से रहते हैं वहाँ बालक भी वैसा ही व्यक्तित्व अर्जित करता है; अतः अपने घर को और स्वयं को अनुशासित करना बहुत आवश्यक है। अनुशासन की अच्छी आदत बचपन से ही परिवार दिनचर्या का कड़ाई से पालन करके डाली जा सकती है।
अनुशासन : एक महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य- अनुशासन का लक्ष्य है – जीवन को सुमधुर और सुविधापूर्ण बनाना । मानव अपने जीवन में भी कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति करना चाहता है। अनुशासन मानव को अपने जीवनोद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होता है। अनुशासनहीन, अव्यवस्थित मनुष्य अपने जीवन में असफल होता है और लोगों के उपहास का केन्द्र बनता है। उसे असभ्य, अनपढ़, गँवार कहा जाता है। अनुशासित व्यक्ति की समाज में प्रशंसा होती है। अनुशासित व्यक्ति जीवन के एक-एक पल को जीवन्तता के साथ जीने का सुख और आनन्द उठाता है। वह बाहरी साज-सज्जा के साथ चारित्रिक गुणों से स्वयं को सुसज्जित करने में लगा रहता है। व्यक्तिगत विकास के साथ-साथ वह समाज और राष्ट्र के विकास की भी चिन्ता करता है। अपने प्रत्येक व्यवहार वह अनुशासित होने की गरिमा को परोक्षत: प्रकट करता चलता है। अपने आकर्षक एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व से वह सब पर अनुशासन की महत्ता प्रतिपादित करता है। अनुशासन सारांशतः ऐसा जीवन-मूल्य है, जो अन्य लोगों को भी सुव्यवस्थित रहने हेतु प्रेरित करता है।
व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अनुशासन का महत्त्व— अनुशासन व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में अनुकरणीय है। व्यक्ति से ही समाज है। व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन ने जीवन में प्रत्येक कार्य समय पर और व्यवस्थित ढंग से करना चाहिए। उसके समस्त कार्यों का समय नियत और विभाजित होना चाहिए। उसकी दिनचर्या निश्चित होनी चाहिए और छात्र को उसका पालन कड़ाई से स्वयं अपने हित में करना चाहिए । ऐसा करने से अनुशासन उसका आचरण बन जाएगा। कभी-कभी कई कार्य एक ही समय में निपटाने की नौबत आ जाती है। ऐसे कठिन समय में स्थिर चित्त से विचार करके महत्त्व के अनुसार कार्यों को एक-एक करके निपटाना चाहिए। एक कार्य को चुनकर सारी शक्ति उसी पर लगा देने से कार्य जल्दी निपट जाता है और समय का सदुपयोग भी होता है। दुविधा में झूलने अथवा अनिश्चय या अव्यवस्था के भय से आक्रान्त होकर इधर-उधर हंगामा मचाने से समय व्यर्थ जाता है और जगहँसाई भी होती है। आत्मग्लानि होती है सो अलग।
व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी अनुशासन का महत्त्व है। सामाजिक जीवन में तो यह लगभग अनिवार्य ही होता है। समाज में एक के कार्य का असर दूसरे पर पड़ता है। रेल, बस, बैंक, विद्यालय, कार्यालय, पोस्ट ऑफिस, दूध की गाड़ी आदि ऐसे उदाहरण हैं कि यदि ये सही समय पर, सही स्थान पर, सही कार्य को अंजाम न दें तो पूरी व्यवस्था ही चरमरा जाए।
उपसंहार — यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य को गम्भीरता से ले। अनुशासन में समय की पाबन्दी सर्वप्रमुख है। स्वयं छात्रों को भी विद्यालय अथवा सामाजिक कार्यक्रमों में समय पर पहुँचने की आदत बनानी चाहिए। समय पर न पहुँचना, व्यवस्था में हस्तक्षेप करना, खाने-पीने की चीजें या कागज कूड़ा आदि इधर-उधर फेंककर गन्दगी फैलाना, शोर मचाना- एक अनुशासित छात्र के लक्षण नहीं है।
8. भारतीय संस्कृति : अनेकता में एकता
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना : भारतीय कौन?, (2) भारतीयता : एक संस्कृति, ( 3 ) महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सूत्र (4) अनेकता में एकता, (5) उपसंहार । |
प्रस्तावना : भारतीय कौन? – भारत एक अतिप्राचीन सभ्यता और संस्कृति का देश है। इसका भौगोलिक विस्तार भले ही आज काफी सिमट गया है, परन्तु एक समय था जब भारतीय सभ्यता और संस्कृति के उपनिवेश विश्व के सुदूर क्षेत्रों में स्थापित थे। आज का भारतवर्ष भी एक विस्तृत भू-भाग में अपना ध्वज लहरा रहा है। इस भौगोलिक क्षेत्र के भीतर निवास करनेवाले सभी व्यक्ति, जिन्हें भारत की नागरिकता प्राप्त है, भारतीय कहलाते हैं।
भारतीयता : एक संस्कृति – भारत में रहनेवाले विभिन्न प्रान्तों के निवासी चाहे जो भी भाषा बोलते हों, चाहे जिस भी धर्म का पालन करते हों, सब एक ही हैं। कोई हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन कुछ भी हो, परन्तु पहले वह भारतीय है। भारतीयता की यह भावना, हमारे प्राचीन विचारकों के जीवन-सूत्र ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ (सारी धरती एक परिवार है) का जीवन्त प्रमाण है। भिन्न आस्थाओं को माननेवाले ये सभी लोग सदियों से साथ-साथ रहते चले आए हैं। अपनी विभिन्नताओं को कायम रखते हुए भी ये सब मन और संस्कार से लगभग एक रूप हो गए हैं। भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति आस्था उन्हें भारतीय संस्कृति का प्रवक्ता बना देती है। भारत का एक ईसाई, भारतीय जीवन-शैली के ज्यादा करीब है, अंग्रेजी जीवन शैली के नहीं। इसी प्रकार भारत का मुसलमान भी अरब, टर्की आदि के निवासियों के उतना समान नहीं, जितना कि किसी अन्य भारतीय के। इसका कारण यही है कि वर्षों के सहजीवन ने सबमें सारी विभिन्नताओं के बावजूद एकता का ऐसा वातावरण रचा है, जो संसार में अनोखा है।
महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सूत्र – भारतीय सांस्कृतिक एकता का महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सूत्र है- ‘सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की सन्तान हैं। ईश्वर हम सबका पिता है और सारी धरती एक परिवार है।’ भारत रहनेवाले भारतीय तो इस विचारधारा को मानते ही हैं, संसार के विभिन्न देशों में रहनेवाले भारतीय मूल के लोग भी इसी सांस्कृतिक सूत्र से बँधे हुए हैं।
भारतीय संस्कृति की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं- समरसता, समान भाषा, समान रीति-रिवाज, वेशभूषा, नृत्य और संगीत, भोजन आदि के स्तर पर भी विभिन्नता के बावजूद ग्राह्यता आदि ।
अनेकता में एकता – सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति की ‘अनेकता में एकता’ चर्चा का और आश्चर्य का विषय रही है। पश्चिमी समाजशास्त्री आज भी अचम्भित हैं कि इतने विशाल भू-भाग के निवासी मिल-जुलकर कैसे रह सकते हैं, इनमें असमानताओं के बावजूद समरसता कैसे है।
भारतीय संस्कृति में समरसता का महत्त्वपूर्ण और प्रथम स्थान है। भारत का विशाल भू-भाग अनेक प्रान्तों में विभक्त है। यहाँ हर प्रदेश में मन्दिर, मसजिद, गुरुद्वारे, चर्च, मठ, आर्यसमाज मन्दिर, बौद्ध मन्दिर, जैन मन्दिर आदि मिल जाएँगे। सभी धर्मों के लोग सभी त्योहारों को सौहार्दपूर्ण ढंग से मिल-जुलकर मनाते हैं। ईद, होली, दीपावली, क्रिसमस आदि सभी त्योहारों पर पूरा देश रौनक से भर जाता है। 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्व पूरा राष्ट्र एक साथ उत्साह से मनाता है।
भाषायी एकता भी सांस्कृतिक एकता को दृढ़ करती है। पंजाबी मुसलमान पंजाबी बोलता है तो बंगाली मुसलमान बाँग्ला। एक प्रान्त के सभी निवासी प्राय: एक ही भाषा बोलते हैं। धर्म भिन्न-भिन्न होते हुए भी उनकी बोलचाल और व्यवहार में एकात्मकता बनी रहती है। संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, परन्तु सम्पर्क भाषा के रूप में सब राष्ट्रभाषा हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं। –
प्रान्तवार अलग-अलग वेशभूषा के बावजूद भारतीय अपनी सुविधा, रुचि और मौसम के अनुरूप उसमें फेर-बदल करते रहते हैं। फिर भी मोटेतौर पर स्त्रियों में साड़ी या सलवार-सूट तथा पुरुषों में धोती-कुर्त्ता या कुर्ता-पाजामा का चलन अधिक है। उल्लेखनीय बात यह है कि साड़ी एक ऐसा परिधान है, जिसे अनेक प्रान्तों में अलग-अलग ढंग से पहना जाता है।
भारत में भोजन की विविधता भी कम नहीं; जैसे— राजस्थान में दाल-बाटी और चूरमा, कोलकाता में मछली – भात, पंजाब में साग – रोटी, दक्षिण भारत में इडली-डोसा, उत्तर भारत में दाल-रोटी आदि; परन्तु विविधता में एकता का प्रमाण यह है कि आज उत्तर भारतीय जितने शौक से इडली-डोसा खाता है, उतने ही चाव से दक्षिण भारतीय छोले-भटूरे और दाल-रोटी खाता है।
भारतीय नृत्य की अनेक शैलियाँ हैं। भरतनाट्यम, ओडिसी, कुचिपुड़ी, कथकली, कत्थक आदि नृत्य की परम्परागत शैलियाँ हैं। भाँगड़ा, गिद्दा, गरबा, डाँडिया, झूमर, बिहू, नगा आदि लोकनृत्य शैलियाँ हैं। दूरदर्शन के प्रभाव से आज पूरे देश के लोगों को इन्हें सीखने का अवसर मिला है। भारतीय संगीत की भी पारम्परिक शास्त्रीय शैलियाँ रही हैं। शास्त्रीय रागों के अतिरिक्त लोकगीतों का विस्तृत संसार भी है। ये लोकगीत और लोकनृत्य हमारी सांस्कृतिक एकता और राष्ट्रीय दृढ़ता को बढ़ाते हैं।
उपसंहार— इस प्रकार सम्पूर्णता में देखा जाए तो भारतीय संस्कृति अनेक रंग-बिरंगे और सुगन्धित पुष्पों का ऐसा पुष्प गुच्छ है, जिसके सभी पुष्प अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए हुए भी समन्वित रूप से एक ही प्रतीत होते हैं।
9. देशप्रेम
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना : देशप्रेम का अर्थ, (2) स्वदेश का महत्त्व, (3) देशप्रेम : एक उच्च भावना, (4) देशप्रेम की भावना की आवश्यकता, (5) उपसंहार । |
प्रस्तावना : देशप्रेम का अर्थ – जिस देश में हम जन्म लेते हैं, जहाँ की हवा में साँस लेकर हम जीवित रहते हैं, जिसका अन्न-जल हम खाते-पीते हैं, जिस धरती पर हम जीवन के कितने ही सुखमय पल व्यतीत करते हैं, उस भूमि के प्रति हृदय में जो स्वाभाविक प्रेम या लगाव उत्पन्न हो जाता है, उसे ही ‘देशप्रेम’ की संज्ञा दी जाती है। देश के लिए मरना ही देशप्रेम नहीं है, वरन् देश के लिए उपयोगी बनकर बहुत समय तक देश की सेवा करना भी देशप्रेम ही है।
स्वदेश का महत्त्व – वाल्मीकि रामायण में लंका विजय के उपरान्त श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा था-
अपि सुवर्णमयी लङ्का न मे रोचते लक्ष्मण ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।
अर्थात् हे लक्ष्मण ! सोने की लंका भी मुझे अच्छी नहीं लगती; क्योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् होती हैं। जिस प्रकार माता बच्चे के जन्म से पूर्व और पश्चात् उसका भरण-पोषण और लालन-पालन करती है, उसी प्रकार जन्मभूमि अपने कण-कण से, व्यक्ति को स्नेह से पालती है। इसीलिए जन्मभूमि को माता की उपमा दी जाती है। जन्मदात्री माता के समान ही हमारे मातृभूमि के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य होते हैं, जिनका पालन प्रत्येक देशप्रेमी सहर्ष करता है। स्वदेश के बिना व्यक्ति के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिह्न लग जाता है। हम कहीं भी जाएँ, हमारी पहचान हमारे देश के अनुसार भारतीय ( भारत का ), अमेरिकी (अमेरिका का) अथवा रूसी (रूस का ) आदि के रूप में ही होती है। इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति के लिए स्वदेश. का क्या महत्त्व है। स्वदेश के लिए प्राण तक न्योछावर करने को तैयार रहना यदि देशप्रेम है तो कोई भी ऐसा कार्य करना देशद्रोह या देश के प्रति गद्दारी है, जो देश का अहित करता हो या जिससे देश के सम्मान को ठेस पहुँचती हो। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने स्वदेश प्रेम पर बड़ी सटीक बात इन पंक्तियों में कही है—
हैं भरा नहीं जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं ।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं । ।
देशप्रेम : एक उच्च भावना – देशप्रेम एक धरती के टुकड़ेमात्र से प्रेम नहीं है, वरन् यह एक ऐसी उच्च भावना है, जो संसार के सभी लोगों के हृदय को गौरवान्वित करती है। देशप्रेम की भावना से परिचालित होकर देशप्रेमी सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं। वे प्राणों की तनिक भी परवाह नहीं करते। हमारे देश में ऐसे देशभक्तों की कमी नहीं है। महाराणा प्रताप, शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई, भगत सिंह और न जाने कितने उदाहरण देशभक्तों के हैं। राणा प्रताप को महान् देशप्रेमी यूँ ही नहीं कहा जाता। क्या नहीं था उनके पास — धन-वैभव, राज्य, सिहासन सबकुछ था। अपने भाई शक्तिसिंह और मानसिंह की भाँति यदि वे भी अकबर से समझौता कर लेते तो उन्हें बरसों जंगल की खाक न छाननी पड़ती, न घास की रोटियाँ खानी पड़तीं और न भूख से व्याकुल उनकी बेटी के प्राण जाते। यह उनके हृदय में अपनी जन्मभूमि उन्होंने हार नहीं मानी और जीवनभर मुगलों का डटकर सामना किया। की रक्षा की तड़प और प्रेम ही था, जिसके बल पर अपने जीते-जी शिवाजी ने भी देशभूमि के प्रेम में मुगल शासकों को नाकों चने चबवा दिए । स्वतन्त्रता संग्राम में तो अंग्रेजों द्वारा दी गई भीषण यातनाओं के आगे भी मादरे वतन के दीवाने झुके नहीं। उन्होंने कोड़े खाए, लहूलुहान हुए, जेल में कई-कई दिन भूखे-प्यासे रहकर भी चक्की पीसी, कोल्हू जुते, लाठियों और कोड़ों की मार खाई और हँसते-हँसते फाँसी का फन्दा अपने गले में डाल लिया, परन्तु ‘वन्दे मातरम्’ का उद्घोष करना बन्द नहीं किया। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आई०ए०एस० की नौकरी त्यागकर, विदेशों में घूम-घूमकर भारत के – समर्थन में आजाद हिन्द फौज का गठन किया। यह देशप्रेम ही था, जब प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्रीजी के आह्वान पर देश की जनता ने अनाज की समस्या से निपटने के लिए एक समय उपवास करना सहर्ष स्वीकार कर लिया था, परन्तु अमेरिका के आगे घुटने नहीं टेके। इस प्रकार के हजारों उदाहरण भारत के इतिहास में तो हैं ही, दुनिया के और देशों में भी हैं। एक जापानी सैनिक डूबते जहाज से निकलकर अपने प्राण बचाने की इसलिए नहीं सोची कि इस प्रक्रिया में राष्ट्रध्वज उसके हाथ से छूट जाता और यह देश का अपमान होता ।
देशप्रेम की भावना की आवश्यकता — भारत में विभिन्न भाषा-भाषी एवं धर्मावलम्बी निवास करते हैं। इसके साथ ही आज देश में जाति, वर्ग, वर्ण, प्रान्त, दल आदि के नाम पर विभाजनकारी शक्तियाँ बराबर सक्रिय हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए यह आवश्यक है कि हम इन भेदभावों को भुलाएँ; और यह कार्य देशप्रेम की भावना ही कर सकती है।
उपसंहार — अपनी सारी विविधताओं के साथ ही हम यह भी याद रखें कि देश है तो हम हैं। देश के बिना हमारा अस्तित्व नहीं। इसीलिए देशप्रेम की भावना की आवश्यकता सदा-सर्वदा बनी रहती है। देशप्रेम की भावना कुछ ऐसी होनी चाहिए-
ये देश मेरा ये धरा मेरी, गगन मेरा ।
इसके लिए बलिदान हो प्रत्येक कण मेरा । ।
- समरूप निबन्ध – स्वदेश प्रेम; राष्ट्र प्रेम ।
10. जीवन में खेलकूद का महत्त्व
संकेत- बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) जीवन में खेल का महत्त्व, (3) खेलों से लाभ, (4) उपसंहार । |
प्रस्तावना – एक जमाना था जब खेलकूद को हेय दृष्टि से देखा जाता था। बच्चों को समझाया जाता था—
पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब ।
खेलोगे कूदोगे तो होओगे खराब ।।
किन्तु यह बात इस कथन में भुला दी गई थी कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन-मस्तिष्क का निवास होता है। हमारे देश के महान् विचारक स्वामी विवेकानन्द ने अपने एक भाषण में युवकों को सम्बोधित करते हुए कहा था – ” सर्वप्रथम हमारे देश के नवयुवकों को बलवान् बनना चाहिए। धर्म स्वयं पीछे-पीछे आ जाएगा। मेरे नवयुवक मित्रो ! बलवान् बनो। तुमको मेरी यही सलाह है। ‘गीता’ के अभ्यास की अपेक्षा फुटबॉल खेलने के द्वारा तुम स्वर्ग के अधिक निकट पहुँच जाओगे। तुम्हारी कलाई और भुजाएँ अधिक मजबूत होने पर तुम ‘गीता’ को अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे।” स्वामी विवेकानन्द के तेजोद्दीप्त और बलिष्ठ शरीर तथा गम्भीर विचार – वाणी से उनके कथन की सत्यता का प्रमाण अपने आप मिल जाता है। शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए खेलकूद अनिवार्य है।
जीवन में खेल का महत्त्व – खेल चाहे कोई सा भी हो, वह मनुष्य में संघर्ष करने और जीतने की प्रबल आकांक्षा जाग्रत करता है। खेलप्रिय मनुष्य जुझारू प्रवृत्ति को जीवन का अंग बना लेता है। वह हार-जीत दोनों को जीवन की लम्बी यात्रा में स्वीकार करने की क्षमता विकसित कर लेता है। खेलों के अभ्यास से वह एकाग्रचित्त होना सीखता है। खेलने से व्यक्ति में पारस्परिक सहयोग, अनुशासन, संगठन, आज्ञाकारिता, साहस, विश्वास और समय पर उचित निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है। गांधीजी ने अपने कमजोर शरीर पर बहुत खेद जताया था। इसका सारांश यही है कि खेल के बिना स्वस्थ शरीर और स्वस्थ शरीर के बिना स्वस्थ मस्तिष्क का विकास कठिन है। स्वस्थ शरीर और मन मस्तिष्कवाला व्यक्ति अपने देश और समाज के लिए भी अधिक उपयोगी होता है।
खेलों से लाभ – खेलने से शरीर हृष्ट-पुष्ट बनता है, मांसपेशियाँ उभरती हैं, रक्त शुद्ध होता है, भूख बढ़ती है, आलस्य दूर होता है तथा पेट साफ होता है। न खेलनेवाला व्यक्ति शरीर से दुर्बल, रोगी, निस्तेज और निराश प्रवृत्ति का हो जाता है। शरीर की दुर्बलता उसमें उत्साहहीनता भरती है, जिससे कि वह लक्ष्य प्राप्ति में भी शंकित रहता है। लक्ष्यहीनता के बाद वह जीवन के उल्लास और सुख से भी वंचित हो जाता है। जीवन में मान-सम्मान, सुख-सम्पदा, उच्चपद आदि का आनन्द भी शारीरिक रूप से रोगी व्यक्ति नहीं उठा पाता। शारीरिक कमजोरी या दुर्बलता के कारण सामाजिक क्षेत्र में उसे अक्सर हीन दृष्टि से देखा जाता है। जब हीनभावना मन को घेर लेती है तो जीवन का सारा मजा किरकिरा हो जाता है। इस सबसे बचने का एकमात्र और सरल उपाय है — खेलने की नियमित आदत बना लेना।
उपसंहार — खेलों का एक बड़ा लाभ यह है कि इनसे खेलनेवाले और देखनेवाले दोनों का मनोरंजन होता है। खिलाड़ी की जीत से उसके समर्थकों को भी आनन्द मिलता है। हारने से जीतने की पुनः प्रेरणा मिलती है। इस प्रकार खेल मनुष्य को जीवन को समग्रता और खेल भावना से जीने की कला सिखाते हैं।
11. योगासन और स्वास्थ्य
संकेत- बिन्दु – (1) प्रस्तावना : ‘योगासन’ का अर्थ, (2) योगासन और खेल, (3) योगासन से स्वास्थ्य लाभ : शारीरिक और मानसिक, (4) उपसंहार : योगासन से अनुशासन और व्यक्तित्व का विकास। |
प्रस्तावना : ‘योगासन’ का अर्थ- ‘योगासन’ शब्द दो शब्दों ‘योग’ तथा ‘आसन’ से मिलकर बना है। ‘संयम और स्थिरता’ को योगासन कहते हैं। महर्षि पतंजलि ने ‘योग’ की परिभाषा देते हुए लिखा है- ” अपने चित्त (मन) की वृत्तियों पर नियन्त्रण करना ही योग है। ” ‘आसन’ का अर्थ है- ‘किसी एक अवस्था में स्थिर होना।’ इस प्रकार योगासन शरीर तथा चित्त (मन) को स्फूर्ति प्रदान करने में विशेष योग देता है।
योगासन और खेल – योगासन के अर्थ से स्पष्ट है कि यह एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है। शरीर सौष्ठव प्राप्त करने, नाड़ी तन्त्र को सबल बनाने तथा भीतरी शक्तियों को गति प्रदान करने के लिए जो क्रियाएँ की जाती हैं वे शरीर को निश्चय ही लाभ पहुँचाती हैं। शरीर की योग-विशेषज्ञ बताते हैं। विभिन्न आवश्यकताओं के लिए विशेष प्रकार के योगासन;
यों तो योगासन, व्यायाम और खेल के लाभ लगभग एक समान हैं, फिर भी योगासन और खेल में लोग अन्तर मानते हैं। कुछ खेल तो योगासन के अन्तर्गत ही आते हैं; जैसे— सूर्य नमस्कार । कुछ विद्वान् मानते हैं कि योगासन की थका देनेवाली क्रियाओं को छोड़कर शेष शारीरिक क्रियाएँ खेलकूद के अन्तर्गत आती हैं।
योगासन से स्वास्थ्य लाभ : शारीरिक और मानसिक- योगासन करने से व्यक्ति के शरीर और मस्तिष्क दोनों को लाभ पहुँचता है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो योगासन से व्यक्ति का शरीर सुगठित, सुडौल, स्वस्थ और सुन्दर बनता है। उसका शरीर-तन्त्र सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ बन जाता है। पाचन शक्ति तेज होती है। रक्त प्रवाह ठीक बना रहता है। शारीरिक मल उचित रूप से निकास पाते हैं। शरीर में शुद्धता आती है तो त्वचा पर उसकी चमक व तेज झलकता है। भोजन समय पर पचता है; अतः रक्त, मांस उचित मात्रा में वृद्धि पाते हैं। शरीर स्वस्थ, चुस्त-दुरुस्त बनता है। दिनभर स्फूर्ति और उत्साह बना रहता है। मांसपेशियाँ लचीली बनी रहती हैं, जिससे क्रिया-शक्ति बढ़ती है और व्यक्ति काम से जी नहीं चुराता । पुट्ठों के विकास से शारीरिक गठन में एक अनोखा आकर्षण आ जाता है। योगासन से ही शरीर में वीर्यकोश भरता है, जिससे तन पर कान्ति और मस्तक पर तेज आ जाता है। इस प्रकार योगासन करनेवाला कसरती शरीर हजारों की भीड़ में अलग से पहचान लिया जाता है।
विचारकों का कथन है— स्वस्थ तन तो स्वस्थ मन। यह कथन शत-प्रतिशत सत्य है। योगासन से शारीरिक लाभ तो होता ही है, मानसिक स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। दुर्बल और कमजोर तन; मन से भी निराश और बेचारा-सा हो जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा बसती है। योगासन करके तरोताजा हुआ शरीर अपने भीतर एक विशेष उल्लास और उमंग का अनुभव करता है। प्रसन्नचित्त व्यक्ति जो भी कार्य हाथ में लेता है, अपने सकारात्मक रवैये के कारण उल्लास और उमंग से उसे पूरा करने में स्वयं को झोंक देता है। वह जल्दी हारता नहीं। उसके शरीर की शक्ति उसके कार्य में प्रदर्शित होती है। योगासन से मन में जुझारूपन आता है, जो निराशा को दूर भगाता है। योगाभ्यास से जीवन में आशा और उत्साह का संचार होता है।
उपसंहार : योगासन से अनुशासन और व्यक्तित्व का विकास – योगासन करने से व्यक्ति में संघर्ष करने तथा स्वयं पर अंकुश लगाने जैसे गुणों का विकास होता है। हृष्ट-पुष्ट शरीर; तन और मन दोनों पर अंकुश लगाकर जीवन में अनुशासित रहने की कला सीख लेता है। शरीर का संयम, मन पर नियन्त्रण और मानसिक दृढ़ता व्यक्ति को ऐसा व्यक्तित्व प्रदान करते हैं कि वह स्वयं ही सबका आकर्षण और प्रेरणास्त्रोत बन जाता है। आज के प्रतियोगिता के युग में योगासन का महत्त्व निश्चय ही विवाद से परे है।
12. समय अमूल्य धन है
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना समय जीवन की अमूल्य निधि है, (2) समय का सदुपयोग आवश्यक. (3) समय का सम्मान, (4) उपसंहार । |
प्रस्तावना : समय जीवन की अमूल्य निधि है— समय जीवन में सर्वोपरि है। यह जीवन की अमूल्य निधि है। समय का सदुपयोग जीवन को अमूल्य बना देता है। किसी विचारक का कहना है—“यदि जीवन से प्रेम है तो समय व्यर्थ मत गँवाओ।” समय को नष्ट करना जीवन को नष्ट करना है। संसार का कोई भी धन परिश्रम से कमाया जा सकता है, उसका संग्रह किया जा सकता है, किन्तु जीवन का कोई भी पल व्यतीत हो जाने के बाद वापस नहीं लाया जा सकता। समय को रोका भी नहीं जा सकता। समय का चक्र अनवरत घूमता रहता है। हम चाहकर भी ईश्वर के दिए जीवनकाल को एक पल के लिए भी नहीं बढ़ा सकते। समय के महत्त्व को रेखांकित करती सुप्रसिद्ध लेखक श्रीमन्नारायण को ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं— “समय धन से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। हम रुपया-पैसा तो कमाते हो हैं और जितना अधिक परिश्रम करें उतना ही अधिक कमा सकते हैं, परन्तु क्या हजार परिश्रम करके भी चौबीस घण्टों में एक मिनट और बढ़ा सकते हैं? इतनी मूल्यवान् वस्तु का धन से क्या मुकाबला!”
समय का सदुपयोग आवश्यक – समय को रोका नहीं जा सकता, इसलिए इसका सदुपयोग परम आवश्यक है। कबीरदासजी का यह दोहा यहाँ बड़ा सटीक है-
काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब ।
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब ।।
काम को समय के अन्दर निपटाना समय का सदुपयोग है। जो समय को नष्ट करते हैं, बाद में समय उन्हें नष्ट कर देता है। .
समय का सम्मान — समय परिवर्तनशील है, चलता रहता है, कभी नहीं रुकता, इसलिए समय का सम्मान सदा करना चाहिए। भविष्य की योजना बनाकर उचित समय पर उसे पकड़ लेना चाहिए। एक बार कोई अवसर हाथ से निकल जाता है तो शायद ही वह पुनः आए। समय ऐसा राक्षस है, जो उसे महत्त्व न देनेवालों के जीवन में अवसरों के शव डाल जाता है। उचित समय पर उचित कार्य करना श्रेयस्कर है।
उपसंहार – सूर्य यदि दिन में समय पर ताप न दे और चन्द्रमा रात में शीतलता न दे तो प्रकृति का सारा चक्र उलट जाए। अपने जीवन को सही दिशा देने के लिए समय का महत्त्व समझना आवश्यक है अन्यथा महाविनाश के लिए तैयार रहना चाहिए।
- समरूप निबन्ध— समय का सदुपयोगः गया समय हाथ नहीं आता।
13. परिश्रम का महत्त्व
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) आधुनिक विश्व : मानव श्रम की गाथा, (3) परिश्रम और बुद्धि-विवेक, (4) परिश्रम से लाभ; (5) उपसंहार । |
प्रस्तावना – वेदों में कहा गया है- ‘चरैवेति चरैवेति’ अर्थात् ‘चलते रहो, चलते रहो।’ इस चलते रहने के पीछे यही भाव है कि श्रम से कभी जी मत चुराओ । परिश्रम करो, करते रहो। एक दिन यही तुम्हें सफल बनाएगा।
आधुनिक विश्व : मानव श्रम की गाथा – आदिम युग की जंगली अवस्था से आधुनिक युग की सभ्यतापूर्ण जीवन शैली तक की यात्रा, मानव के श्रम की लम्बी गाथा है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी घुटने न टेकनेवाले मनुष्य के परिश्रम का ही यह परिणाम है कि आज वह पृथ्वी के अतिरिक्त चाँद पर भी निवास करने की कल्पना को साकार करने में काफी आगे बढ़ चुका है। जंगली अवस्था के दिनो में उसे भोजन, वस्त्र तथा आवास जुटाने के लिए घोर परिश्रम करना पड़ता था। आज अपनी मेहनत के बल पर ही उसने अनेक आविष्कार कर लिए हैं और कर रहा है। दुनिया के कोने-कोने में उसने यह प्रमाणित कर दिया है कि परिश्रम करने की कोई सीमा नहीं। जिसे सफलता की कामना है, उसे परिश्रमरत रहना ही होगा। विभिन्न कार्यों कारखाने लगाना हो या पहाड़ों को काटना, समुद्र में गोताखोरी करना में चाहे वह घरेलू उपकरण बनाना हो या बड़े-बड़े बाँध बनाना, हो या खदानों में उतरकर खुदाई करना अथवा आकाश मण्डल को रॉकेट से भेदना, सब जगह सब रूपों में परिश्रम का महत्त्व ही व्याख्यायित हो रहा है। स्वर्गीय सुखों के लिए परिश्रम अनिवार्य है।
परिश्रम और बुद्धि-विवेक – प्रायः लोग परिश्रम का अर्थ शारीरिक मेहनत से लगा लेते हैं। यह अनुचित है। जिस प्रकार शरीर के द्वारा श्रम किया जाता है और शरीर थकता है, उसी प्रकार मानसिक कार्य करने से दिमाग भी थकता है। एक रिक्शाचालक यदि रिक्शाचालन से थकता है तो दूसरी ओर कार्यालय में कार्यरत कर्मचारी, लिपिक, टेलीफोन ऑपरेटर, मैनेजर, विद्यालय में प्राचार्य प्रवक्ता आदि सभी अपने-अपने कार्यों के समय में कभी-न-कभी थकान का अनुभव करते हैं। इसके साथ ही जब मनुष्य बिना बुद्धि-विवेक के कार्य करता है तो वह अनावश्यक श्रम भी करता है और बुरी तरह थक जाता है।
परिश्रम यदि बुद्धि-विवेक द्वारा किया जाए तो परिश्रम भी कम करना पड़े और थकान भी कम हो। किसी भी कार्य में तन-मन और बुद्धि की व्यस्तता परिश्रम ही कही जाती है। यद्यपि श्रम का त्याग नहीं किया जा सकता, तथापि बुद्धि-विवेक के प्रयोग द्वारा इसे कम अवश्य किया जा सकता है। श्रम का अपव्यय अपराध ही है। यह शरीर के साथ अत्याचार है। यदि हम बुद्धि – विवेक की सहायता से किए जानेवाले कार्यों को सूचीबद्ध कर लें और फिर योजनाबद्ध ढंग से उन्हें सम्पन्न करें तो निश्चय ही कम परिश्रम और कम समय में हम उन्हें पूरा कर लेंगे। हम आज सभ्य समाज में रह रहे हैं। अनावश्यक श्रम, बेतरतीब कार्य करके हम दूसरों के उपहास का पात्र ही बनते है। परिश्रम वही सफल है, जिसमें बुद्धि-विवेक की प्रेरणा शक्ति भी जुड़ी हो । कभी-कभी कुछ अनिवार्य कार्य परिश्रम करने में आलस्य और बुद्धि द्वारा की गई उपेक्षा के कारण ठीक से सम्पन्न नहीं हो पाते हैं। बाद के जीवन में हमें इसका पश्चात्ताप भी होता है; अतः बुद्धि-विवेक और परिश्रम के तालमेल की कीमत समझनी चाहिए।
परिश्रम से लाभ – ‘गीता’ में एक स्थान पर कहा गया है कि मनुष्य बिना कर्म किए नहीं रह सकता; स्वभाव व गुणों से प्रेरित हो वह कर्म करता ही है। कर्म के साथ श्रम स्वाभाविक रूप से जुड़ा है। परिश्रम या पुरुषार्थ से परिणाम अवश्य मिलता है। उचित दिशा में किया गया पुरुषार्थ सफलता के झण्डे गाड़ देता है। यही सफलता मनुष्य में आत्मविश्वास उत्पन्न करती है। आत्मविश्वासी व्यक्ति किसी की गुलामी या चाटुकारिता में अपना समय नष्ट नहीं करता। उसके स्वभाव से परिचित लोग स्वयं उसकी परिश्रमशीलता देख उससे राय लेने और मदद माँगने आते हैं। उसकी सर्वत्र प्रशंसा और स्तुति होती है। परिश्रम से व्यक्ति का स्वास्थ्य सही रहता है। काम करने से शरीर को नई ऊर्जा मिलती है। श्रम से जी न चुराने की भावना से आत्मशक्ति बढ़ती है। विपत्ति के समय निराश-निठल्ले बैठ जाने की अपेक्षा यदि उससे निपटने के लिए परिश्रम किया जाए तो मन को वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है कि मैंने भरसक प्रयास किया। संक्षेप में, कार्य में तल्लीनता मानसिक शान्ति प्रदान करके अन्ततः हमें सुख देती है।
उपसंहार — श्रम करनेवाले को सबकुछ प्राप्त हो जाता है और निठल्ले, आलसी को कुछ नहीं। श्रम ही मानव जीवन का सौन्दर्य है। परिश्रम से बढ़कर सफलता के ताले की और कोई चाभी नहीं होती।
- समरूप निबन्ध – श्रम का महत्त्वः परिश्रम और सफलता: भाग्य और पुरुषार्थः परिश्रम सफलता का मूलमन्त्र है: अपना हाथ जगन्नाथ |
14. मनोरंजन के आधुनिक साधन
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) मनोरंजन की आवश्यकता और महत्त्व, (3) मनोरंजन के साधनों का बदलता स्वरूप, (4) मनोरंजन के साधन, (5) उपसंहार । |
प्रस्तावना – जीवन में मानव को अनेक प्रकार की चिन्ताओं एवं कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। सम्पूर्ण मानव-जीवन संघर्षों की कहानी कहता प्रतीत होता है। संघर्षों और चिन्ताओं के बीच रहकर भी मनुष्य अपने जीवन के कुछ क्षण इन्हें भुलाकर बिताना चाहता है। मन की प्रसन्नता और कार्यक्षमता की वृद्धि के लिए मनोरंजन अत्यन्त आवश्यक भी है। वास्तव में मनोरंजन थके हुए मन-मस्तिष्क को नई स्फूर्ति प्रदान करता है। जीवन के बोझिल क्षणों के बाद मनोरंजन ही उनकी यादों को मन से हटाने में सहायता करता है।
मनोरंजन की आवश्यकता और महत्त्व – जब से मनुष्य ने होश सँभाला है, तभी से उसने मनोरंजन की आवश्यकता अनुभव की है। जब जीवन के संघर्ष से मन ऊब जाता है तब मानव को ऐसे साधनों . की आवश्यकता होती है जिनसे उसके तन और मन दोनों की थकान दूर हो सके और वह स्फूर्ति से भरकर दूने जोश से अपने कार्य में लग सके; अतः जीवन की शुष्कता और एकरसता को दूर करने की दृष्टि से मनोरंजन मनुष्य का परम मित्र बन गया है। वास्तव में मनोरंजन के बिना जीवन में नीरसता बनी रहती है। व्यक्ति न तो कोई काम कर पाता है और न ही जीवन में प्रगति कर सकता है; अतः यह निर्विवाद सत्य है कि मनोरंजन जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है और वह जीवन की सफलता का महत्त्वपूर्ण मूलाधार भी है।
मनोरंजन के साधनों का बदलता स्वरूप- मनोरंजन की आवश्यकता का अनुभव मानव प्राचीनकाल से ही करता रहा है। मनोरंजन के उपलब्ध साधनों से वह कभी सन्तुष्ट नहीं हुआ। वह निरन्तर मनोरंजन के नए-नए साधनों का विकास करता रहा है। प्राचीनकाल में मनोरंजन के ये साधन सीमित थे। आधुनिक विज्ञान ने मनोरंजन के क्षणों को अधिक आकर्षक बना दिया है। जहाँ मनुष्य केवल शिकार खेलकर कुश्ती लड़कर या नाटक अथवा नौटंकी देखकर मनोरंजन करता था, वहीं आधुनिक वैज्ञानिक युग में उसके मनोरंजन के साधनों में सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन और फोटोग्राफी आदि अनेक साधन सम्मिलित हो गए हैं। एक ओर ये साधन मनुष्य का मनोरंजन करते हैं और दूसरी ओर उसकी मानसिक योग्यताओं का विकास भी करते हैं।
मनोरंजन के साधन — मनोरंजन के प्राचीन तथा आधुनिक साधनों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-
- नाटक और स्वाँग – नाटक में कहानी को अभिनय द्वारा वास्तविक रूप दिया जाता है। स्वाँग में नृत्य एवं गीतों की प्रधानता होती है। पात्र मंच पर आकर, नाच-गाकर किसी कहानी को प्रस्तुत करते हैं और दर्शक मंच के चारों ओर बैठकर उसका आनन्द लेते हैं।
- खेल-तमाशे- पहले नट लोग अपनी शारीरिक कला का प्रदर्शन करके लोगों का मनोरंजन करते थे। बाजीगर, रीछ और बन्दर के तमाशे भी मनोरंजन के साधन थे। इसके अतिरिक्त कठपुतली का खेल, शतरंज का खेल, चित्रकला, गाना-बजाना आदि भी मनोरंजन के साधन थे, जिनका प्रचलन आज भी है।
- सिनेमा- मनोरंजन के आधुनिक साधनों में सिनेमा एक उत्तम और लोकप्रिय साधन है; क्योंकि सिनेमा से प्रत्येक आयु वर्ग एवं प्रत्येक प्रकार की रुचिवाले व्यक्तियों को मनोरंजन का अवसर प्राप्त होता है। इसकी घटनाएँ वास्तविक-सी प्रतीत होती हैं।
- सर्कस – सिनेमा की भाँति सर्कस भी मनोरंजन का एक साधन है। सर्कस प्राचीन नटों की शारीरिक प्रदर्शन कला का सुधरा करतब प्रस्तुत हुआ रूप है। इसमें स्त्री-पुरुषों की शारीरिक कला किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त झूला, साइकिल, मोटर साइकिल आदि पर विभिन्न कलाओं का प्रदर्शन संगीतमय वातावरण में किया जाता है।
- रेडियो – रेडियो द्वारा व्यक्ति घर बैठे ही देश-विदेश के समाचार तथा अन्य मनोरंजक व ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रम सुन सकता है। प्रत्येक रेडियो स्टेशन का एक निश्चित मीटर होता है, जिस पर उसके कार्यक्रम सुने जा सकते हैं। रेडियो पर नाटक, गीत, भाषण, समाचार आदि का समयानुसार प्रसारण किया जाता है। अब रेडियो का स्थान ट्रांजिस्टर ने ले लिया है। ट्रांजिस्टर का प्रचलन आजकल इतना अधिक हो गया है कि घरों में ही नहीं, अपितु सड़कों तथा खेत-खलिहानों में भी लोग उसे सुनते हुए दिखाई देते हैं।
- म्यूजिक प्लेयर – म्यूजिक प्लेयर पर अपने मनचाहे गीत सुने और देखे जा सकते हैं। इसमें गानों के लिए कैसेट्स, कॉम्पैक्ट डिस्क, डिजिटल वीडियो डिस्क ( डी०वी०डी० ), वर्चुअल कॉम्पैक्ट डिस्क ( वी०सी०डी०) आदि होते हैं। इनमें व्यक्ति को अपनी मनपसन्द कहानी, गीत आदि सुनने व देखने को मिलते हैं। इसकी लोकप्रियता, बहूपयोगिता और मितव्ययिता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि एक डी०वी०डी० में 150 से अधिक गाने होते हैं और यह सामान्यतया बाजार में 20-25 रुपये में मिल जाती है। इन आधुनिक साधनों के द्वारा फिल्म आदि भी देखी जा सकती है। एक डी०वी०डी० में छह फिल्में तक होती हैं। पहले इसके स्थान पर ग्रामोफोन का प्रयोग किया जाता था, जिसमें केवल आवाज होती थी। इसके पश्चात् टेपरिकॉर्डर प्रचलन में आया। ये दोनों ही साधन आधुनिक म्यूजिक प्लेयरों की अपेक्षा महँगे और रख-रखाव में असुविधाजनक होते थे।
- टेलीविजन – रेडियो की भाँति टेलीविजन का प्रचलन अब पर्याप्त बढ़ गया इसमें सुनने के साथ-साथ सिनेमा की भाँति चित्र भी देखे जा सकते हैं। टेलीविजन ने तो जीवन में क्रान्ति ही पैदा कर दी है। अब समाचारों को सुनने के साथ ही घटनाओं के सजीव दृश्य भी देखे जा सकते हैं।
- मोबाइल और इण्टरनेट – मोबाइल और इण्टरनेट यद्यपि आज जनसंचार के सर्वाधिक प्रचलित साधन हैं, तथापि आज ये मनोरंजन के भी प्रमुख और सर्वसुलभ साधन बन गए हैं। आज हम इन दोनों ही माध्यमों के द्वारा गीत, संगीत, फिल्म, समाचार, खेलों का सीधा प्रसारण जब चाहे तब देख और सुन सकते हैं। इन दोनों साधनों के द्वारा संसार के सभी खेल हम इन पर खेल भी सकते हैं।
- खेलकूद – मन को स्वस्थ रखने के लिए खेलकूद भी मनोरंजन के साधन हैं। खिलाड़ी खेलकर तथा श्रोता व दर्शक अपने प्रिय खेल तथा खिलाड़ी को खेलते देखकर मनोरंजन का अवसर प्राप्त करते हैं। खेलकूद से शरीर तो स्वस्थ रहता ही है, मन में भी नई चेतना और स्फूर्ति का संचार होता है।
उपसंहार – बहुत-से व्यक्ति मनोरंजन के नाम पर व्यसन भी पाल लेते हैं। वे शराब पीकर, उच्छृंखलता करके तथा जुआ खेलकर धन के अपव्यय को ही मनोरंजन मानते हैं। आलसी और कामचोर व्यक्ति बिना आवश्यकता के ही मनोरंजन के ऐसे साधनों का प्रयोग करते हैं। ऐसे मनोरंजन लाभ के स्थान पर हानि ही पहुँचाते हैं। मनोरंजन मन और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए किया जाता है। यदि इसका प्रयोग अनुपयुक्त ढंग से किया जाए तो मनोरंजन भी रोग बन जाता है। जिस प्रकार तन के लिए उत्तम एवं सन्तुलित भोजन आवश्यक है, उसी प्रकार मन के लिए श्रेष्ठ एवं सीमित मनोरंजन होना चाहिए।
15. हमारे विद्यालय का वार्षिकोत्सव
संकेत- बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) वार्षिकोत्सव का अर्थ, (3) वार्षिकोत्सव की तैयारी, (4) मुख्य अतिथि (5) उत्सव का प्रारम्भ, (6) मुख्य अतिथि का आगमन, (7) व्यायाम-प्रदर्शन, (8) कविता पाठ तथा अन्य कार्यक्रम, (9) पारितोषिक वितरण, (10) मुख्य अतिथि का भाषण, (11) उपसंहार। |
प्रस्तावना – प्रतिवर्ष विद्यालयों में बहुत-से उत्सव मनाए जाते हैं। सभी उत्सवों का अपना-अपना महत्त्व होता है, किन्तु इसमें पारितोषिक वितरण सम्बन्धी वार्षिक उत्सव का महत्त्व सर्वाधिक है। यह उत्सव विद्यालयों में नवीन चेतना का संचार करता है। हमारे विद्यालय में गत वर्षों की भाँति इस वर्ष भी वार्षिक उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया। वार्षिकोत्सव का वर्णन करने से पूर्व इसका अर्थ जानना भी आवश्यक है।
वार्षिकोत्सव का अर्थ – वार्षिकोत्सव का अर्थ है – “ऐसा आयोजन, जो वर्ष में एक बार होता हो और जिसमें छात्र – छात्राओं को अपनी प्रतिभा दिखाने का पूरा अवसर दिया जाता हो।” वार्षिक उत्सव हर विद्यालय के लिए एक बड़ा उत्सव होता है। हमारे विद्यालय में वार्षिकोत्सव प्रतिवर्ष होली के बाद मनाया जाता है।
वार्षिकोत्सव की तैयारी — जैसे-जैसे विद्यालय का वार्षिक उत्सव निकट आता गया, हमने उसकी तैयारी बड़े उत्साह से आरम्भ कर दी। हमारे कला-अध्यापक को वार्षिक उत्सव का संयोजक बनाया गया। वे संगीत में भी बहुत कुशल हैं। नाटक आदि का अभिनय करने में भी उनकी रुचि है। उन्होंने सम्बन्धित विद्यार्थियों को बुलाकर उनकी एक बैठक की और उनमें सारा काम बाँट दिया। कुछ विद्यार्थियों को अलग-अलग प्रकार की कविताएँ याद करने के लिए दी गईं। एक विद्यार्थी को देशभक्ति का गीत याद करने के लिए कहा गया। यह भी निश्चय किया गया कि एक एकांकी का भी अभिनय किया जाए। इसके लिए छह विद्यार्थियों की एक टोली बनाई गई। उन्होंने एकांकी की रिहर्सल शुरू कर दी। हमारे कला- अध्यापक ने विद्यालय के कमरों को चित्रों और आदर्श वाक्यों से सजाना आरम्भ कर दिया।
मुख्य अतिथि – वार्षिक उत्सव के लिए मुख्य अतिथि की खोज शुरू हुई। सबने एक मत से यह निश्चय किया कि जिलाधिकारी महोदय को कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाया जाए और उनसे इस सन्दर्भ में निवेदन किया जाए। यह बड़े हर्ष का विषय था कि हमारी प्रार्थना पर जिलाधिकारी महोदय ने उत्सव का मुख्य अतिथि बनना स्वीकार कर लिया।
उत्सव का प्रारम्भ – उत्सव के दिन विद्यालय की खूब सफाई की गई। फूलों और गमलों से मार्गों को सजाया गया। सभी छात्रों को अपने विद्यालय की वेशभूषा में उपस्थित होने का निर्देश दिया गया था । विद्यालय के मुख्य द्वार पर विद्यालय का छात्र – बैण्ड तैयार खड़ा था। हमारे व्यायाम शिक्षक ने छात्रों की पंक्तियाँ बनवाई और सब मुख्य अतिथि के आने की प्रतीक्षा करने लगे।
मुख्य अतिथि का आगमन – ठीक आठ बजे मुख्य अतिथि की कार आ पहुँची। हमारे प्रधानाचार्य महोदय ने अध्यापकों के साथ आगे बढ़कर फूलमालाओं से उनका स्वागत किया । इसी समय विद्यालय का बैण्ड भी गूंज उठा।
व्यायाम-प्रदर्शन – सभी छात्र, अध्यापक तथा हमारे अतिथि पण्डाल में आकर बैठ गए। थोड़ी देर में पण्डाल खचाखच भर गया। सबसे पहले व्यायाम का प्रदर्शन हुआ। सभी छात्रों ने अनेक प्रकार से पी०टी० का प्रदर्शन बहुत सधे हुए ढंग से किया। दर्शकों ने बार-बार तालियाँ बजाई। इस प्रदर्शन को देखकर मुख्य अतिथि बहुत प्रसन्न हुए।
कविता-पाठ तथा अन्य कार्यक्रम – व्यायाम प्रदर्शन के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। पहले से निश्चित छात्रों ने अपनी-अपनी कविताएँ सुनाईं। इसके बाद एकांकी का प्रदर्शन किया गया। अन्त में प्रधानाचार्य महोदय ने परीक्षा परिणामों का उल्लेख करते हुए अपने विद्यालय की विशेषताओं का वर्णन किया ।
प्रधानाचार्य महोदय ने विद्यालय की प्रगति का उल्लेख करते हुए बताया कि हमारा विद्यालय बहुत छोटे स्तर से आरम्भ किया गया था, किन्तु आज इसमें दो हजार छात्र अध्ययनरत हैं। यह विद्यालय राज्य के विशिष्ट विद्यालयों में से एक है। यहाँ कला, वाणिज्य और विज्ञान वर्गों में अध्यापन की व्यवस्था है और हमारे छात्र हर वर्ष उच्च श्रेणी प्राप्त करके छात्रवृत्तियाँ प्राप्त करते हैं। प्रधानाचार्य के भाषण के मध्य उपस्थित समुदाय ने कितनी ही बार हर्षध्वनि की और तालियाँ बजाईं।
पारितोषिक वितरण – सांस्कृतिक कार्यक्रम समाप्त होने पर मुख्य अतिथि महोदय ने उन छात्रों को पुरस्कार वितरित किए, जिन्होंने परीक्षा में अच्छे अंक अथवा क्रीडा-प्रतियोगिताओं में अच्छा स्थान प्राप्त किया था। स्वच्छता, आचरण और उपस्थिति के लिए भी छात्रों को पुरस्कृत किया गया। जब छात्र अपना पुरस्कार प्राप्त करने के लिए मंच तक आते थे तो उनका तालियों से स्वागत किया जाता था। मुख्य अतिथि महोदय ने भी उन छात्रों को शाबाशी और शुभकामनाएँ देकर प्रोत्साहित किया।
मुख्य अतिथि का भाषण – अन्त में मुख्य अतिथि का भाषण हुआ। उन्होंने विद्यालय के प्रबन्ध की सराहना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्या का महत्त्व बताया और छात्रों को परिश्रम करने, खेलों में भाग लेने और मन लगाकर पढ़ने का सुझाव दिया।
उपसंहार — इस प्रकार हमारे विद्यालय का वार्षिकोत्सव सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। वास्तव में ऐसे उत्सवों की सफलता ही विद्यालय की सच्ची कसौटी है। इससे विद्यार्थियों को अपनी कार्यक्षमता, योग्यता तथा अनुभव बढ़ाने के सुअवसर प्राप्त होते हैं। पुरस्कार एवं प्रतियोगिताओं द्वारा शिक्षार्थियों में उत्साह का संचार होता है और यही उत्साह भविष्य में विद्यार्थियों को सफलता के मार्ग की ओर अग्रसर करता है।
16. सत्संगति
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) संगति का प्रभाव, (3) सत्संगति का अर्थ, (4) सत्संगति से लाभ, (5) कुसंगति से हानि, (6) उपसंहार । |
प्रस्तावना – मनुष्य का जीवन अपने आस-पास के वातावरण से सदैव प्रभावित होता है। मूलरूप से मानव के विचारों और कार्यों को उसके संस्कार, वंश-परम्पराएँ ही दिशा दे सकती हैं। यदि उसे स्वच्छ वातावरण मिलता है तो वह कल्याण के मार्ग पर चलता है और यदि वह दूषित वातावरण में रहता है तो उसके कार्य भी उससे प्रभावित हो जाते हैं। इस दृष्टि से सत्संगति का मानव जीवन में विशेष महत्त्व है।
संगति का प्रभाव – मनुष्य जिस वातावरण एवं संगति में अपना अधिक समय व्यतीत करता है, उसका प्रभाव उस पर अनिवार्य रूप से घड़ता है। मनुष्य ही नहीं, पशुओं एवं वनस्पतियों पर भी इसका असर होता है। मांसाहारी पशु को यदि शाकाहारी प्राणी के साथ रखा जाए तो उसकी आदतों में स्वयं ही परिवर्तन हो जाएगा। यही नहीं, मनुष्य को भी यदि अधिक समय तक मानवों से दूर, पशु- संगति में रखा जाए तो वह शनैः शनैः मनुष्य-स्वभाव को छोड़कर पशु-प्रवृत्ति ही अपना लेगा।
सत्संगति का अर्थ- सत्संगति का अर्थ है, ‘अच्छी संगति’ । वास्तव में ‘सत्संगति’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘सत्’ और ‘संगति’ अर्थात् ‘अच्छी संगति । अच्छी संगति का अर्थ है – ऐसे | सत्पुरुषों के साथ निवास, जिनके विचार जीवन को सन्मार्ग पर ले जाएँ।
सत्संगति से लाभ – सत्संगति के अनेक लाभ हैं। सत्संगति मनुष्य को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करती है। इससे दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति भी श्रेष्ठ बन जाते हैं। पापी पुण्यात्मा और दुराचारी सदाचारी हो जाते हैं। ऋषियों की संगति के प्रभाव से ही वाल्मीकि जैसे कठोर व्यक्तित्व का व्यक्ति भी महान् कवि बन गया। सन्तों के प्रभाव से आत्मा के मलिन भाव दूर हो जाते हैं तथा वह निर्मल हो जाती है।
सज्जनों के पास शुद्ध मन तथा ज्ञान का विशाल भण्डार होता है। उनके अनुभवों को प्राप्त करके मूर्ख भी सुधर जाते हैं। सत्पुरुषों की संगति से मनुष्यों के दुर्गुण दूर होते हैं और उनमें सद्गुणों का विकास होता है। उनके हृदय में भी आशा और धैर्य का संचार होता है । सज्जनों की संगति में रहने के कारण उनका भी यश गाया जाता है। कबीर का कथन है-
कबिरा संगत साधु की, हरै और की व्याधि ।
संगत बुरी असाधु की, आठों पहर उपाधि ।।
सत्संगति के प्रभाव से मनुष्य में ऐसे चरित्र का विकास होता है कि वह अपना और संसार का कल्याण कर सकता है। सत्संगति थोड़े ही समय में व्यक्ति की जीवन-दिशा को अनोखा मोड़ प्रदान कर देती है। गोस्वामी तुलसीदास ने उचित ही कहा है—
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से भी आध।
तुलसी संगत साधु की, हरै कोटि अपराध ।।
जो विद्यार्थी अच्छे संस्कारवाले छात्रों की संगति में रहते हैं, उनका चरित्र श्रेष्ठ होता है एवं उनके सभी कार्य उत्तम होते हैं। उनसे समाज एवं राष्ट्र की प्रतिष्ठा बढ़ती है।
कुसंगति से हानि – कुसंगति से लाभ की आशा करना व्यर्थ है । इससे मनुष्य का विनाश निश्चित है। कुसंगति के प्रभाव से मनस्वी पुरुष भी अच्छे कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। जो छात्र कुसंगति में पड़ जाते हैं अनेक व्यसन सीख जाते हैं, जिनका प्रभाव उनके जीवन पर बहुत बुरा पड़ता है। उनके लिए प्रगति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। उनका मस्तिष्क अच्छे-बुरे का भेद करने में असमर्थ हो जाता है और उनमें अनुशासनहीनता आ जाती है। गलत दृष्टिकोण रखने के कारण ऐसे छात्र पतन के गर्त में गिर जाते हैं। वे देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व तथा कर्त्तव्य को भूल जाते हैं।
पं० रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक ही लिखा है- “कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। किसी युवा पुरुष की संगति बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-पर-दिन अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देनेवाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी। “
उपसंहार — वास्तव में सत्संगति वह पारस है, जो जीवनरूपी लोहे को कंचन बना देती है। मानव जीवन की सर्वांगीण उन्नति के लिए सत्संगति आवश्यक है। इसके माध्यम से हम अपने लाभ के साथ-साथ अपने देश के लिए भी एक उत्तरदायी तथा निष्ठावान् नागरिक बन सकेंगे।
17. पुस्तकालय
संकेत- बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) पुस्तकालय के विभिन्न प्रकार, (3) पुस्तकालय का महत्त्व (4) पुस्तकालय से लाभ, (5) भारत में पुस्तकालयों की स्थिति, (6) उपसंहार । |
प्रस्तावना – पुस्तकालय का अर्थ होता है ‘पुस्तकों का घर’; अर्थात् जहाँ पुस्तकों को रखा जाता हो या संग्रह किया गया हो; अत: पुस्तकों के उन सभी संग्रहालयों को पुस्तकालय कहा जा सकता है, जहाँ संगृहीत पुस्तकों का उपयोग पठन-पाठन के लिए किया जाता हो । मानव जीवन में ज्ञान का सर्वाधिक महत्त्व होता है। केवल ज्ञानवान् ही सार्थक एवं समग्र रूप में जीवन को जी पाते हैं। इसीलिए कहा भी गया है कि “न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।” अर्थात् ज्ञान के समान इस संसार में और कुछ पवित्र नहीं है। इस दृष्टि से ज्ञान का स्रोत हैं पुस्तकें और किसी भी प्रकार की पुस्तक को सुगमता से प्राप्त करने का स्थान है पुस्तकालय ।
पुस्तकालय के विभिन्न प्रकार — पुस्तकालय विभिन्न प्रकार के होते हैं; जैसे – (1) व्यक्तिगत पुस्तकालय, (2) विद्यालय एवं महाविद्यालयों के पुस्तकालय, (3) सार्वजनिक पुस्तकालय, (4) सरकारी पुस्तकालय आदि । व्यक्तिगत पुस्तकालय के अन्तर्गत पुस्तकों के वे संग्रहालय आते हैं, जिनमें कोई व्यक्ति अपनी विशेष रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार पुस्तकों का संग्रह करता है। विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के पुस्तकालय के अन्तर्गत वे पुस्तकालय आते हैं, जिनमें छात्रों एवं शिक्षकों के पठन-पाठन हेतु पुस्तकों का संग्रह किया जाता है। सार्वजनिक पुस्तकालय में सार्वजनिक पठन-पाठन हेतु पुस्तकों का संग्रह किया जाता है। कोई भी व्यक्ति इसका सदस्य बनकर इसका उपयोग सकता है। सरकारी पुस्तकालयों का उपयोग राज्य – कर्मचारियों एवं सरकारी अनुमति प्राप्त विशेष व्यक्तियों द्वारा ही किया जाता है।
पुस्तकालय का महत्त्व – पुस्तकालय सरस्वती देवी का आराधना – मन्दिर है। यहाँ आराधना करके आराधक वीणापाणि सरस्वती का प्रत्यक्ष दर्शन करता है। यह ज्ञान प्राप्ति में सहायक होता है, इसलिए यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों के लिए महत्त्वपूर्ण है। पुस्तकें ज्ञान-प्राप्ति का उत्तम साधन हैं। इनसे मनुष्यों के ज्ञान का विस्तार होता है, जिससे उनके दृष्टिकोणों में व्यापकता आती है तथा उनकी बुद्धि एवं विचार – क्षमता का विकास होता है। एक ज्ञानी व्यक्ति ही समाज एवं राष्ट्र के साथ-साथ मानवता का कल्याण कर सकता है; अतः पुस्तकें प्रत्येक व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
यह सम्भव नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुरूप पुस्तकों का क्रय कर सके; क्योंकि इतना व्यय कर पाना अधिकांश व्यक्तियों की सामर्थ्य से बाहर होता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि व्यय करने के पश्चात् भी उसे अपनी आवश्यकता के अनुसार पुस्तकें प्राप्त हो ही जाएँ; क्योंकि अनेक पुस्तकों का प्रकाशन बन्द हो चुका होता है और उनकी प्रतियाँ दुर्लभ हो जाती हैं। पुस्तकालय में जिज्ञासु अपनी आवश्यकता एवं प्रयोजन अनुसार सभी पुस्तकों को प्राप्त कर लेता है और उनका अध्ययन करता है। इस प्रकार ज्ञान-प्राप्ति के क्षेत्र में पुस्तकालयों का है।
पुस्तकालय से लाभ – पुस्तकालय ज्ञान का भण्डार होता है; अतः इसके अनेक लाभ हैं। इसके लाभों की गणना का प्रयत्न तारों की गिनती करने जैसा है, फिर भी इससे प्राप्त होनेवाले लाभ निम्नलिखित हैं—
- ज्ञान की प्राप्ति – शिक्षा का वास्तविक अर्थ मनुष्य के ज्ञान का विकास करना है। यह ज्ञान मनुष्य की रुचि के अनुसार विभिन्न विषयों से सम्बन्धित होता है। विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में दी जानेवाली विषयगत शिक्षा की परिसीमा संकुचित होती है। इसमें जो पाठ्यक्रम निर्धारित किए जाते हैं, उन्हें पढ़कर कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण तो हो सकता है, किन्तु मात्र इससे उसे उस विषय का समुचित ज्ञान प्राप्त नहीं होता। विषयगत ज्ञान के वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने के लिए उस विषय से सम्बन्धित अन्य पुस्तकों का अध्ययन करना भी आवश्यक होता है। इन पुस्तकों की सहज प्राप्ति हमें पुस्तकालय से हो जाती है; अतः पुस्तकालय का ज्ञान की प्राप्ति में अमूल्य योगदान होता है।
- स्वस्थ मनोरंजन – मनुष्य के लिए मनोरंजन आवश्यक होता है और मनोरंजन के लिए पुस्तकों से अच्छा संसार में कोई अन्य साधन नहीं है। यह मनोरंजन के साथ-साथ संसार के विभिन्न विषयों पर हमारी जानकारी को भी विस्तृत करता है। इससे हमारे विचारों में व्यापकता आती है तथा हमारी मानसिक योग्यताओं का विकास होता है। पुस्तकालय में अपनी रुचि के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति विभिन्न पुस्तकों को सरलता प्राप्त करके उनका अध्ययन कर सकता है, इसलिए पुस्तकालय मनोरंजन का एक स्वस्थ एवं सस्ता साधन है।
- दुर्लभ तथ्यों की प्राप्ति – किसी भी विषय पर शोध एवं अन्य अनुसन्धानात्मक कार्यों के लिए पुस्तकालयों में संगृहीत पुस्तकों से व्यक्ति उन दुर्लभ तथ्यों को प्राप्त कर सकता है, जिनकी जानकारी उसे अन्य किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती। किसी ऐसे विषय से सम्बन्धित वे पुस्तकें भी पुस्तकालय मिल जाती हैं, जो साधारणतया दुर्लभ हो चुकी होती हैं।
- पठन-पाठन में सहायक – पुस्तकालय छात्र एवं शिक्षक दोनों के पठन-पाठन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षक एवं छात्र दोनों ही अपने बौद्धिक शक्तियों एवं विषयगत ज्ञान के विस्तार की दृष्टि से इसमें संगृहीत पुस्तकों से लाभान्वित होते हैं।
भारत में पुस्तकालयों की स्थिति – विदेशी आक्रमणों से पूर्व भारत, ज्ञान के क्षेत्र में विश्व में प्रथम स्थान पर था । बर्बर विदेशी आक्रमणकारियों ने इस देश को न केवल लूटा, वरन् यहाँ के ज्ञान-विज्ञान को भी रौंद डाला। यहाँ की ज्ञान-सम्पदा को या तो वे लूट ले गए या उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया । विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा नालन्दा जैसे विश्वप्रसिद्ध पुस्तकालय को नष्ट किया जाना इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। इन विदेशी आक्रमणकारियों की इस विध्वंसकारी प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप भारत में पुस्तकालय तो क्या, पुस्तकों के भी दर्शन दुर्लभ होने लगे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने गाँव-गाँव में पुस्तकालयों की स्थापना करने का एक अभियान चलाया था, किन्तु कई कारणों से यह अभियान असफल ही रहा।
सरकारी स्तर पर समाज में पुस्तकालयों की स्थापना के लिए आज कुछ नहीं किया जा रहा है। सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थिति भी अत्यन्त दयनीय है। अधिकांश पुस्तकालयों में ताले लग गए हैं और उनमें संगृहीत बहुमूल्य पुस्तकें दीमकों का आहार बन गई हैं। जब भी सरकार इस सम्बन्ध में कोई कदम उठाती है तो उसका उद्देश्य उतना पवित्र नहीं होता जितना कि इस कार्य के लिए होना चाहिए; अत: इसे हम भारतीय समाज का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि विश्व के किसी भी समाज की तुलना में हमारे यहाँ पुस्तकालयों की संख्या बहुत कम है।
उपसंहार — पुस्तकालय ज्ञान का वह भण्डार है, जो हमें ज्ञान प्रदान करता है। ज्ञान की प्राप्ति से मनुष्य वास्तविक अर्थों में मनुष्य बनता है। ऐसे ही मनुष्यों से समाज या राष्ट्र का कल्याण होता है। इस प्रकार पुस्तकालय हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार इस दिशा में ठोस एवं योजनाबद्ध कदम उठाए। साथ ही समाजसेवी संस्थाएँ भी अपने-अपने क्षेत्रों में पुस्तकालय स्थापित करने की दिशा में गम्भीर प्रयत्न करें।
18. देशाटन
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) देशाटन की प्राचीनता, (3) आधुनिककाल में देशाटन की सुविधा, (4) देशाटन के लाभ, (5) देशाटन का महत्त्व, (6) देशाटन में कठिनाइयाँ, (7) उपसंहार । |
प्रस्तावना – ‘देशाटन’ से अभिप्राय है— ‘देश-विदेश का भ्रमण ।’ मानव मन परिवर्तन चाहता है; क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। मनुष्य प्रतिदिन कुछ न कुछ नया चाहता है। इसी कारण वह विभिन्न देशों एवं स्थानों का भ्रमण करता है। देशाटन से केवल मनोरंजन ही नहीं होता, वरन् यह हमारे लिए अन्य कई दृष्टियों से एक वरदान भी है। किसी मशहूर शायर ने कहा है-
सैर कर दुनिया की गाफिल जिन्दगानी फिर कहाँ ।
जिन्दगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ ।।
देशाटन की प्राचीनता – मनुष्य प्राचीनकाल से ही देशाटन करता रहा है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए इसकी महत्ता स्वीकार की गई है। पहले मनुष्य तीर्थों की यात्रा के बहाने देशाटन करते थे। कभी व्यापार के कारण और कभी ज्ञानार्जन के लिए भी वे अन्य देशों की यात्रा करते थे। इन्हीं उद्देश्यों से अनेक विदेशी यात्री भी भारत आए। ह्वेनसाँग, फाह्यान आदि विदेशी यात्रियों का भारत भ्रमण इसी दृष्टि से प्रसिद्ध है।
आधुनिककाल में देशाटन की सुविधा – प्राचीनकाल में दूर की यात्रा करना कठिन था। तब यातायात और आवागमन के साधन इतने सुलभ न थे; परन्तु आधुनिककाल में वैज्ञानिक आविष्कारों ने विश्व की दूरी कम कर दी है और पूरा विश्व ही एक परिवार बन गया है। पहले की तरह अब यात्रा में अधिक भय भी नहीं लगता। मनुष्य बड़े आनन्द एवं सुख के साथ पूरे संसार की यात्रा कर सकता है।
देशाटन के लाभ- बड़ी-बड़ी कठिनाइयों के पश्चात् भी साहसी यात्री देशाटन से विमुख नहीं हुए। भ्रमण के शौकीन कोलम्बस ने नए महाद्वीप का मार्ग खोज ही लिया था। आज जब मनुष्य के पास सभी साधन उपलब्ध हैं तो उसे देशाटन का अधिक-से-अधिक लाभ उठाना चाहिए। देशाटन से प्राप्त होनेवाले प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-
- मनोरंजन की प्राप्ति – मनोरंजन मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। एकरसता से ऊबकर मानव-मन परिवर्तन चाहता है। इसी परिवर्तन के लिए मनुष्य देशाटन करता है। देशाटन से उसे मनोरंजन की प्राप्ति होती है। इसीलिए प्रतिवर्ष देश-विदेश के हजारों यात्री मनोरंजन के उद्देश्य से सुरम्य स्थानों पर जाते हैं और प्राकृतिक दृश्यों द्वारा मनोविनोद और आनन्द-लाभ करते हैं।
- स्वास्थ्य लाभ – देशाटन से मनोरंजन होता है और मनोरंजन से चित्त प्रसन्न रहता है। प्राकृतिक वातावरण, स्वच्छ एवं शुद्ध जलवायुं से स्वास्थ्य में वृद्धि होती है। यही कारण है कि डॉक्टर रोगियों को स्वास्थ्य लाभ के लिए पर्वतीय स्थानों पर भ्रमण करने की सलाह देते हैं।
- भौगोलिक ज्ञान की वृद्धि – किसी स्थान की भौगोलिक स्थिति की जानकारी हेतु उस स्थान का भ्रमण जरूरी है। जो ज्ञान पुस्तकों के अध्ययन से प्राप्त नहीं हो सकता, वह प्रत्यक्ष दर्शन से अधिक प्रभावशाली रूप में प्राप्त हो जाता है।
- व्यापारिक लाभ – देशाटन से व्यक्ति को वस्तु के उत्पादन, उसकी माँग एवं उसके मूल्य का पता लग जाता है। आज अनेक व्यापारी तो केवल इसी कारण भ्रमण करते हैं। इसी उद्देश्य से व्यापार-मण्डल एवं व्यापारिक संस्थान अपने प्रतिनिधि मण्डल विदेशी संस्थानों के निरीक्षण के लिए भेजते हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न देशों से कम मूल्य पर सामान खरीदकर और अपने देश में अधिक मूल्य पर बेचकर व्यापारी लाभ प्राप्त करते हैं।
- व्यावहारिकता तथा अनुभवों में वृद्धि – पुस्तकीय ज्ञान से व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त नहीं होता। देशाटन द्वारा पुस्तकीय ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है। प्रत्येक क्षेत्र और देश के व्यवहार तथा संस्कृति में अन्तर होता है। देशाटन के माध्यम से हम प्रत्यक्ष रूप से उनके व्यवहार एवं संस्कृति का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। सीमित क्षेत्र में बँधे व्यक्ति के विचार उदार नहीं होते, उसमें संकीर्णता बनी रहती है। देशाटन में विभिन्न लोगों के सम्पर्क में आने पर मानवीय व्यवहारों को समझने की क्षमता में वृद्धि होती है। देशाटन अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है, जिनका समाधान व्यक्ति अपनी तात्कालिक बुद्धि से करता है। उन परिस्थितियों में उसे जो अनुभव प्राप्त होते हैं, वे स्थायी तथा अधिक प्रभावी होते हैं। इसके अतिरिक्त देशाटन के समय परस्पर उदारता, सहानुभूति आदि गुण स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं। इस प्रकार देशाटन से सद्भावना बढ़ती है।
देशाटन का महत्त्व – जीवन के यथार्थ को समझने एवं संसार की राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक स्थिति तथा कला-कौशल का ज्ञान प्राप्त करने में देशाटन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके साथ ही सद्भाव तथा मैत्री की वृद्धि के लिए भी अनेक देशों के राजनयिक विदेशों की यात्रा करते हैं।
देशाटन में कठिनाइयाँ – एक सफल देशाटन के मार्ग में कुछ कठिनाइयाँ भी आ सकती हैं। सभी व्यक्ति यात्रा के अत्यधिक व्यय को वहन नहीं कर सकते। किसी स्थान की जलवायु अनुकूल न हो पाने के कारण वहाँ जाकर लोग बीमार भी हो जाते हैं। कभी-कभी जन-धन की हानि अथवा शारीरिक, आर्थिक तथा मानसिक रूप से क्षति भी उठानी पड़ती है; अतः देशाटन एक श्रम – साध्य तथा साहसिक कार्य है।
उपसंहार — प्राचीनकाल में यातायात की इतनी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं, फिर भी लोग तीर्थाटन के बहाने भ्रमण करते थे। ये यात्राएँ कष्टकारक होती थीं। आज जबकि आधुनिक साधनों ने देश में यात्रा को सुलभ तथा मार्गों को सुगम्य बना दिया है, तब भी लोगों में देशाटन के प्रति बहुत अधिक रुचि नहीं है। इसका कारण आर्थिक भी हो सकता है। यदि देश की आर्थिक स्थिति में सुधार हो जाए तो देशवासियों में देशाटन के प्रति स्वाभाविक रुचि उत्पन्न हो सकती है।
19. भारत में बेरोजगारी की समस्या
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) बेरोजगारी : एक अभिशाप, (3) बेरोजगारी के कारण, (4) बेरोजगारी की समस्या का समाधान, (5) उपसंहार । |
प्रस्तावना— बेरोजगारी अथवा बेकारी का अभिप्राय उस स्थिति से है, जब कोई योग्य तथा काम करने के लिए इच्छुक व्यक्ति प्रचलित मजदूरी की दरों पर कार्य माँगता हो और उसे काम न मिलता हो । बालक, वृद्ध, रोगी, अक्षम एवं अपंग व्यक्तियों को बेरोजगारों की परिधि में नहीं रखा जा सकता। जो व्यक्ति काम करने के इच्छुक नहीं हैं और परोपजीवी हैं, वे भी बेरोजगारी की सीमा में नहीं आते।
बेरोजगारी : एक अभिशाप – बेरोजगारी किसी भी देश अथवा समाज के लिए अभिशाप है। इससे एक ओर निर्धनता, भुखमरी तथा मानसिक अशान्ति फैलती है तो दूसरी ओर युवकों में आक्रोश तथा अनुशासनहीनता को प्रोत्साहन मिलता है। चोरी, डकैती, हिंसा, अपराध-वृत्ति एवं आत्महत्या आदि के मूल में एक बड़ी सीमा तक बेरोजगारी ही विद्यमान है। बेरोजगारी एक ऐसा भयंकर विष है, जो सम्पूर्ण देश के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक जीवन को दूषित कर देता है; अतः बेरोजगारी के कारणों की खोज करके उनका निराकरण नितान्त आवश्यक है।
बेरोजगारी के कारण – हमारे देश में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं। यहाँ कुछ प्रमुख कारणों का उल्लेख किया जा रहा है—
- जनसंख्या में वृद्धि – बेरोजगारी का प्रमुख कारण है— जनसंख्या में तीव्रगति से वृद्धिं । विगत कुछ दशकों में भारत में जनसंख्या का विस्फोट हुआ है। देश में प्रतिवर्ष जनसंख्या में 25% की वृद्धि हो जाती है, जबकि इस दर से बेरोजगार व्यक्तियों के लिए रोजगार की व्यवस्था नहीं हो पाती है।
- दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली – भारतीय शिक्षा सैद्धान्तिक अधिक और व्यावहारिकता से शून्य है। इसमें पुस्तकीय ज्ञान पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है। फलतः यहाँ के स्कूल-कॉलेजों से निकलनेवाले छात्र दफ्तर के बाबू ही बन पाते हैं, वे निजी उद्योग-धन्धे आरम्भ नहीं कर पाते।
- कुटीर उद्योगों की उपेक्षा – ब्रिटिश सरकार की कुटीर उद्योग विरोधी नीति के कारण देश में उद्योग-धन्धों का पतन हो गया । फलस्वरूप अनेक कारीगर बेरोजगार हो गए। स्वतन्त्रता – प्राप्ति के पश्चात् भी कुटीर उद्योगों के विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया; अतः बेरोजगारी में निरन्तर वृद्धि होती गई।
- औद्योगीकरण की मन्द प्रक्रिया — विगत पंचवर्षीय योजनाओं में देश के औद्योगिक विकास के लिए प्रशंसनीय कदम उठाए गए हैं; किन्तु समुचित रूप से औद्योगीकरण नहीं किया जा सका है। तात्पर्य यह कि बेरोजगार व्यक्तियों के लिए वांछित मात्रा में रोजगार नहीं जुटाए जा सके हैं।
- कृषि का पिछड़ापन – भारत की लगभग 72% जनता कृषि पर निर्भर है। यहाँ की कृषि अत्यन्त पिछड़ी हुई दशा में है; अतः स्वाभाविक रूप से बेरोजगारी की समस्या व्यापक हो गई है।
- अविकसित सामाजिक दशा- हमारे देश में जाति प्रथा, बाल-विवाह, सामाजिक असमानताएँ आदि बुराइयाँ भी बेरोजगारी को अनियमितता, भारी संख्या में शरणार्थियों का आगमन, मशीनीकरण के उग्र बनाने में सहायक हुई हैं। इनके अतिरिक्त मानसून की फलस्वरूप होनेवाली श्रमिकों की छँटनी, श्रम की माँग एवं पूर्ति में असन्तुलन, आर्थिक साधनों की कमी आदि से भी बेरोजगारी में वृद्धि हुई है। देश को बेरोजगारी से उबारने के लिए इन समस्याओं का समुचित समाधान परम आवश्यक है।
बेरोजगारी की समस्या का समाधान – बेरोजगारी को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-
- जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण — जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि बेरोजगारी का मूल कारण है; अतः इस पर नियन्त्रण रखना अत्यावश्यक है। जनता को परिवार नियोजन (परिवार कल्याण) का महत्त्व समझाते हुए उसमें व्यापक चेतना जाग्रत करनी चाहिए।
- शिक्षा प्रणाली में व्यापक परिवर्तन — शिक्षा को व्यवसायोन्मुख बनाया जाना चाहिए तथा शिक्षा में शारीरिक श्रम को उचित महत्त्व दिया जाना चाहिए।
- कुटीर उद्योगों का विकास- देश में कुटीर उद्योग-धन्धों पर विशेष ध्यान देकर उन्हें अधिकाधिक प्रोत्साहित एवं विकसित किया जाना चाहिए।
- औद्योगिक विकास — देश में व्यापक स्तर पर औद्योगीकरण किया जाना चाहिए। वृहद् उद्योगों की अपेक्षा लघु-स्तरीय उद्योगों को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए।
- सहकारी खेती – कृषि के क्षेत्र में अधिकाधिक व्यक्तियों को रोजगार देने के लिए सहकारी खेती को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
- सहायक उद्योगों का विकास – मुख्य उद्योगों के साथ-साथ सहायक उद्योगों का भी विकास करना चाहिए; यथा— कृषि के साथ पशुपालन तथा मुर्गीपालन आदि। इनके द्वारा ग्रामीणजनों को बेरोजगारी से मुक्त किया जा सकता है।
- राष्ट्र-निर्माण के विविध कार्य- देश में बेरोजगारी को दूर करने के लिए राष्ट्र-निर्माण के विविध कार्यों; यथा सड़कों का निर्माण, रेल – परिवहन का विकास, पुल निर्माण, बाँध-निर्माण, वृक्षारोपण आदि का विस्तार किया जाना चाहिए।
- रोजगार कार्यालयों का विस्तार – देश में बेरोजगार व्यक्तियों के सम्बन्ध में पूर्ण आँकड़ों के संकलन की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। मालिक तथा मजदूरों को परस्पर सम्बद्ध करने के लिए रोजगार कार्यालयों का विस्तार अपेक्षित है।
उपसंहार – हमारी सरकार बेरोजगारी की समस्या का समाधान करने की दिशा में जागरूक है और इस दिशा में उसने महत्त्वपूर्ण कदम भी उठाए हैं। परिवार नियोजन (परिवार कल्याण), बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कच्चे माल के परिवहन की सुविधा, कृषि-भूमि की हदबन्दी, नए-नए उद्योगों की स्थापना, प्रशिक्षु योजना, प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना आदि अनेक ऐसे कार्य हैं, जो बेरोजगारी को दूर करने में सहायक सिद्ध हुए हैं। आवश्यकता इनको और अधिक विस्तृत तथा अधिक प्रभावी बनाने की है।
20. हमारे राष्ट्रीय पर्व
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) स्वतन्त्रता दिवस (3) गणतन्त्र दिवस, (4) गांधी जयन्ती, (5) उपसंहार । |
प्रस्तावना – मानव हमेशा से उत्सवप्रिय रहा है। इसका कारण यह है कि उत्सवों अर्थात् पर्वो से मानव जीवन की नीरसता दूर होती है तथा रोचकता एवं आनन्द में वृद्धि होती है। पर्वो से हमें नई प्रेरणा प्राप्त होती है। कुछ पर्व विशेष जाति या धर्म के लोगों के होते हैं; . जैसे – होली, दीपावली, दशहरा, गुरुपर्व, ईद, क्रिसमस आदि। कुछ पर्व ऐसे होते हैं, जिनका सम्बन्ध किसी विशेष जाति या धर्म के लोगों से न होकर समस्त राष्ट्र से होता है। ऐसे पर्व राष्ट्रीय पर्व कहलाते हैं। इन पर्वों को सम्पूर्ण राष्ट्र बड़े उत्साह से मनाता है। स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस एवं गांधी जयन्ती (महात्मा गांधी) का जन्म दिवस ऐसे ही राष्ट्रीय पर्व हैं।
स्वतन्त्रता दिवस – हमारे देश में स्वतन्त्रता दिवस प्रतिवर्ष 15 अगस्त को मनाया जाता है। इसे स्वाधीनता दिवस भी कहते हैं। सन् 1947 ई० में इसी दिन भारत अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुआ था। इस स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिए देशवासियों को गांधीजी के नेतृत्व में एक लम्बा अहिंसात्मक आन्दोलन करना पड़ा था।
15 अगस्त के दिन सम्पूर्ण देश में स्वतन्त्रता दिवस हर्षोल्लास एवं धूमधाम से मनाया जाता है। विद्यालयों एवं कार्यालयों में राष्ट्रध्वज फहराया जाता है। स्कूल के बच्चे प्रभातफेरियाँ निकालते हैं। इस दिन राष्ट्रवासी शहीदों के अमर बलिदान को याद करते हुए राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को बनाए रखने की प्रतिज्ञा करते हैं। दिल्ली के लाल किले की प्राचीर पर प्रधानमन्त्री राष्ट्रध्वज फहराते हैं तथा वहीं से राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं। रात्रि में सरकारी भवनों पर रोशनी की जाती है।
गणतन्त्र दिवस – गणतन्त्र दिवस प्रतिवर्ष 26 जनवरी को सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। 26 जनवरी, 1950 ई० को हमारे देश का अपना संविधान लागू हुआ था। इस तिथि का एक अन्य ऐतिहासिक महत्त्व भी है। वह यह कि सन् 1929 ई० में 26 जनवरी के ही दिन रावी नदी के तट पर ‘लाहौर कांग्रेस अधिवेशन’ में पं० जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में ‘पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव पारित किया गया था।
26 जनवरी को सारे देश में विशेष समारोह आयोजित किए जाते हैं। प्रत्येक राज्य की राजधानी में विशेष परेड होती है। राष्ट्र की राजधानी दिल्ली में विशेष सजधज के साथ एक विशाल परेड निकाली जाती है। इस परेड में सेना के सभी अंगों के दस्ते, विभिन्न राज्यों की आकर्षक झाँकियाँ, लोकनर्तक एवं विद्यार्थी आदि सम्मिलित होते हैं। हैं।
गांधी जयन्ती – राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन प्रतिवर्ष 2 अक्टूबर को ‘गांधी जयन्ती’ के रूप में समस्त देश में मनाया जाता है। महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 ई० को पोरबन्दर में हुआ था। गांधीजी ने अपनी वकालत छोड़कर देशसेवा में सारा जीवन अर्पित कर दिया था। कृतज्ञ राष्ट्र उनका जन्मदिन समारोहपूर्वक मनाता है।
उपसंहार- ये राष्ट्रीय पर्व हमारे अन्दर राष्ट्रीय चेतना का विकास करते हैं। ये त्योहार हमारे राष्ट्रीय संघर्ष के प्रतीक हैं, जिन्हें मनाकर राष्ट्रीय चेतना पुनः जाग्रत होती है। इससे जनमानस प्रफुल्लित हो उठता है।