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UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 9 अशुद्ध वायु से होने वाले रोग

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 9 Home Science . Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Home Science Chapter 9 अशुद्ध वायु से होने वाले रोग.

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
वायु द्वारा रोगों के संक्रमण का प्रसार किस प्रकार से होता है? इस प्रकार के संक्रमण से बचाव के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वायु; विशेष रूप से अशुद्ध वायु अनेक संक्रामक रोगों के प्रसार में प्रभावी माध्यम को कार्य करती है। वायु में अनेक रोगाणु पाए जाते हैं। रोगाणुओं का वायु में भली प्रकार से पनपना वायु की आर्द्रता, तापमान व सूर्य के प्रकाश की कम अथवा अधिक उपलब्धि पर निर्भर करता है। उदाहरण  के लिए-वर्षा ऋतु में अधिक आर्द्रता, अपेक्षाकृत कम सूर्य का प्रकाश व तापमान की परिस्थितियों में रोगाणु अधिक पनपते हैं, जबकि ग्रीष्म ऋतु की विपरीत परिस्थितियाँ रोगाणुओं के लिए घातक होती हैं। वायु द्वारा रोगाणुओं के प्रसार की कुछ सामान्य विधियाँ निम्नलिखित हैं

(1) धूल के कणों के साथ रोगाणुओं का स्थानान्तरण:
साधारणतः वायु में धूल के कण व रोगाणु दोनों ही पाए जाते हैं। जब वायु की गति में परिवर्तन होता है तो धूल के कणों के साथ-साथ रोगाणु भी भूमि पर गिरते रहते हैं। झाडू द्वारा भूमि की सफाई करते समय ये रोगाणु धूल के कणों के साथ निचले स्तर की वायु में आ जाते हैं तथा या तो आस-पास  के मनुष्यों की श्वास नलिकाओं में प्रवेश कर जाते हैं। या फिर आस-पास के खुले रखे भोज्य पदार्थों तक पहुँच जाते हैं। इस प्रकार रोगों के संक्रमण की पूर्ण सम्भावना बन जाती है।

बचने के उपाय:

  1. मकानों, सार्वजनिक भवनों एवं अस्पतालों इत्यादि की सफाई झाडू द्वारा नहीं करनी चाहिए। इन स्थानों की सफाई गीले पोंछे से करनी चाहिए जिससे कि धूल के उड़ने की कोई सम्भावना न रहे। सफाई करते समय पोंछे को रोगाणुमुक्त करने के लिए फिनाइल के घोल में भिगोते रहना चाहिए।
  2. वायु के संवातन की समुचित व्यवस्था तथा धूल के उड़ने पर नियन्त्रण रखने से फैलने वाले रोगों से एक बड़ी सीमा तक बचाव किया जा सकता है।

(2) मानवीय असावधानियों द्वारा रोगाणुओं का प्रसार:
छींकना, खाँसना, वार्तालाप करना, हँसना, रोना अथवा गाना आदि वैसे तो सामान्य मानवीय क्रियाएँ हैं, परन्तु रोगियों द्वारा नादानी एवं असावधानी से की गई ये क्रियाएँ ही संक्रामक रोगों के प्रसार का कारण बन जाती हैं। रोगी द्वारा खाँसने व छींकने से निकला कफ व म्यूकस पदार्थ रोगाणुयुक्त  होता है। यह आस-पास लगभग 3-4 फिट दूरी तक बैठे व्यक्तियों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर सकता है। इसके अतिरिक्त म्यूकस पदार्थ धूल के कणों के साथ मिलकर वायु द्वारा दूर-दूर तक फैलकर रोगाणुओं का प्रसार कर सकता है। रोगाणुओं का यह समूह धूल के कणों के साथ मिलकर भार में हल्का होने के कारण एक लम्बे समय तक वायु में विचरण भी कर सकता है।

बचने के उपाय:

  1.  परिचर्या के समय रोगी से लगभग चार फीट की दूरी तक रहना चाहिए।
  2. सार्वजनिक स्थलों (जैसे- स्कूल, अस्पताल एवं छविगृहों इत्यादि)में एक-दूसरे से कम-से कम 4-5 फीट की दूरी पर रहना चाहिए।
  3. रोगी एवं स्वस्थ दोनों ही प्रकार के मनुष्यों को खुले अथवा सार्वजनिक स्थलों पर नहीं थूकना चाहिए तथा छींकते समय नाक को रूमाल से ढक लेना चाहिए।
  4.  रोगी का रूमाल अथवा तौलिया अन्य व्यक्तियों को प्रयोग नहीं करना चाहिए।

(3) वातानुकूलन संयन्त्र द्वारा रोगाणुओं का संक्रमण:
वातानुकूलन के कारण कमरे में आर्द्रता अधिक व तापमान कम बना रहता है। रोगाणुओं के पनपने के लिए यह एक उपयुक्त वातावरण है। वातानुकूलित कमरे में  रोगाणुओं का स्रोत बाहर से प्रवेश करने वाली वायु होती है। अतः यदि सावधानियाँ न रखी जाये तो वातानुकूलित कमरों में रहने वाले मनुष्य सरलतापूर्वक संक्रामक रोगों के शिकार बन जाते हैं।

बचने के उपाय:

  1. वातानुकूलन संयन्त्र में वायु के प्रवेश के स्थान पर जीवाणु-अभेद्य फिल्टर का लगा होना अति आवश्यक है। इसमें से छनकर केवल शुद्ध वायु ही कमरे में प्रवेश कर सकती है।
  2. सप्ताह में कम-से-कम दो बार वातानुकूलन संयन्त्र को बन्द कर कमरे को शुष्क किया जाना चाहिए और सम्भव हो, तो खिड़कियाँ इत्यादि खोलकर कमरे में धूप आने दें, इससे कमरे में उपस्थित रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। .

 

प्रश्न 2:
वायु द्वारा फैलने वाले रोग कौन-कौन से हैं? किसी एक रोग का सविस्तार वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वायु अनेक रोगों के प्रसार का माध्यम है, जिनमें कुछ प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं

  1.  डिफ्थीरिया,
  2.  काली खाँसी,
  3.  तपेदिक,
  4. चेचक,
  5.  खसरी,
  6. छोटी माता,
  7.  कर्णफेर,
  8. इन्फ्लू एंजा आदि।

रोहिणी (डिफ्थीरिया)

रोग का कारण:
यह रोग जीवाणुजनित रोग है तथा इसके जीवाणु वायु के माध्यम से फैलते हैं। कोरीनीबैक्टीरियम डिफ्थीरी नामक जीवाणु इस रोग की उत्पत्ति का कारण है। यह एक भयानक संक्रामक रोग है, जो कि प्राय: 2-5 वर्ष की आयु के बच्चों में अधिक होता है। यह रोग बहुधा शीत ऋतु में होता है।

सम्प्राप्ति काल: 2 से 3 दिन तक।

रोग के लक्षण:
इस रोग का प्रारम्भ रोगी की नाक व गले से होता है। इसके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं

  1.  प्रारम्भ में गले में दर्द होता है और फिर सूजन आ जाती है तथा घाव बन जाते हैं।
  2.  शरीर का तापक्रम 101-104° फा० तक हो जाता है, परन्तु रोग बढ़ने पर यह कम हो जाता है।
  3.  टॉन्सिल व कोमल तालू पर झिल्ली बन जाती है, जो कि श्वसन क्रिया में अवरोधक होती है। इसके कारण रोगी दम घुटने का अनुभव करता है।
  4. रोगी को बोलने तथा खाने-पीने में कठिनाई होती है।
  5. रोगी के शरीर के अंगों को लकवा मार जाता है।
  6. समुचित उपचार न होने की स्थिति में जीवाणुओं का अतिक्रमण फेफड़ों तथा हृदय तक होता है, जिससे रोगी की मृत्यु हो जाती है।

रोग का संक्रमण:
इस रोग का संवाहक वायु है। रोगी के बोलने, खाँसने एवं छींकने से जीवाणु वायु में मिलकर स्वस्थ बच्चों तक पहुँचते हैं। रोगी द्वारा प्रयुक्त वस्त्रों, दूध एवं खाद्य पदार्थों के माध्यम से भी यह रोग स्वस्थ बच्चों में स्थानान्तरित हो सकता है।

रोगोपचार एवं रोग से बचने के उपाय

बचाव के उपाय:
डिफ्थीरिया नामक रोग के संक्रमण को नियन्त्रित करने के लिए अर्थात् इस रोग से बचाव के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए—

  1.  रोगी से स्वस्थ बच्चों को दूर रहना चाहिए।
  2. रोगी द्वारा प्रयुक्त वस्तुओं को सावधानीपूर्वक नष्ट कर देना चाहिए।
  3. रोगी की ‘परिचर्या करने वाले व्यक्ति को तथा घर के अन्य बच्चों को डिफ्थीरियाएण्टीटॉक्सिन इन्जेक्शन लगवाने चाहिए।
  4.  स्वस्थ रहन-सहन द्वारा रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है; अतः वातावरण की स्वच्छता एवं निद्रा व विश्राम का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

रोग का उपचार:
डिफ्थीरिया नामक रोग का तुरन्त तथा अत्याधिक व्यवस्थित उपचार आवश्यक होता है। इसके लिए रोगग्रस्त बच्चे को अस्पताल में भर्ती करवा देना चाहिए तथा निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1. रोगी को उबालकर ठण्डा किया हुआ जल देना चाहिए।
  2.  नमक मिले जल से नाक, गले व मुँह को साफ करना चाहिए।
  3.  सिरदर्द एवं अधिक तापक्रम होने पर माथे व सिर पर शीतल जल की पट्टी रखना लाभकारी रहता है।
  4.  रोगी को पर्याप्त मात्रा में द्रव पदार्थ पिलाने चाहिए।
  5.  मधु में लहसुन का रस मिलाकर रोगी के गले पर लेप करना उचित रहता है।
  6.  रोगमुक्त होने के पश्चात् भी रोगी को कम-से-कम दस दिन तक पूर्ण विश्राम करना चाहिए।
  7. रोगी के प्रभावित अंगों की मालिश करना प्रायः लाभप्रद रहता है।

प्रश्न 3:
चेचक नामक रोग की उत्पत्ति के कारणों, लक्षणों तथा बचने एवं उपचार के उपायों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
वायु द्वारा संक्रमित होने वाले रोगों में से एक मुख्य रोग चेचक (Smallpox) है। यह एक अत्यधिक भयंकर एवं घातक रोग है। अब से कुछ वर्ष पूर्व तक भारतवर्ष में इस संक्रामक रोग का काफी अधिक प्रकोप रहता था। प्रतिवर्ष लाखों व्यक्ति इस रोग से पीड़ित हुआ करते थे तथा हजारों की मृत्यु  हो जाती थी, परन्तु सरकार के व्यवस्थित प्रयास से अब इस रोग को प्रायः पूरी तरह से नियन्त्रित कर लिया। गया है। चेचक को स्थानीय बोलचाल की भाषा में बड़ी माता भी कहा जाता है। इस रोग के कारणों, लक्षणों एवं बचाव के उपायों का विवरण निम्नवर्णित है

चेचक की उत्पत्ति के कारण:
चेचक वायु के माध्यम से फैलने वाला संक्रामक रोग है। यह रोग एक विषाणु (Virus) द्वारा फैलता है, जिसे वरियोला वायरस कहते हैं। रोगी व्यक्ति के साँस, खाँसी, बलगम के अतिरिक्त उसके दानों के मवाद, छिलके, कै, मल एवं मूत्र में भी यह वायरस विद्यमान होता है। इन सब स्रोतों  से चेचक के वायरस निकलकर वायु में व्याप्त हो जाते हैं तथा सब ओर फैल जाते हैं। ये वायरस सम्पर्क में आने वाले स्वस्थ व्यक्तियों को संक्रमित कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त रोगी व्यक्ति के सीधे सम्पर्क द्वारा भी यह रोग संक्रमित हो सकता है। चेचक के फैलने का काल मुख्य रूप से नवम्बर से मई माह तक का होता है।

रोग के लक्षण:

  1.  रोगी को तीव्र ज्वर रहता है।
  2. पीठ एवं सिर में भयानक पीड़ा होती है।
  3.  रोग के तीसरे दिन पहले चेहरे पर तथा फिर टाँगों व बाँहों पर लाल रंग के दाने निकल आते हैं। अब रोगी का ज्वर कम होने लगता है।
  4. रोग के 5-6 दिन पश्चात् दाने आकार में वृद्धि कर बड़े-बड़े छालों का रूप ले लेते हैं।
  5.  छालों में प्रारम्भ में तरल पदार्थ भरा रहता है जो कि रोग के 8-10 दिन बाद पस में बदल जाता है। छालों में प्रायः जलन व खाज होती है।
  6. रोग के 15-20 दिन पश्चात् छाले अथवा फफोले सूखने लगते हैं तथा इन पर खुरण्ड जमने लगता है।
  7.  खुरण्ड उतर जाने पर त्वचा पर स्थायी चिह्न बने रह जाते हैं।
  8. उतरा हुआ खुरण्ड भारी मात्रा में विषाणुओं का संक्रमण करता है।

रोग से बचने के उपाय:
चेचक एक भयानक संक्रामक रोग है। सभी व्यक्तियों, विशेष रूप से रोगी की परिचर्या करने वाले व्यक्ति को इस रोग से बचने के उपाय अवश्य ही अपनाने चाहिए। एडवर्ड जेनर ने चेचक के टीके का आविष्कार किया, जिसके सफल प्रयोगों के फलस्वरूप आज चेचक को सम्पूर्ण विश्व में नियन्त्रित कर लिया गया है। चेचक से बचाव के कुछ सामान्य एवं सरल उपाय अग्रवर्णित हैं

  1. रोगी को पृथक्, स्वच्छ एवं हवादार कमरे में रखना चाहिए।
  2.  रोगी के पासे नीम की ताजी पत्तियों वाली टहनी रखनी चाहिए।
  3. रोगी की परिचर्या करने वाले व आस-पास कै व्यक्तियों को चेचक का टीका अवश्य ही लगवा देना चाहिए।
  4.  रोगी को उबालकर ठण्डा किया हुआ जल पीने के लिए देना चाहिए।
  5. तीव्र ज्वर व अन्य प्रकार की परिस्थितियों में किसी कुशल चिकित्सक की देख-रेख में ही रोगी को औषधियाँ देनी चाहिए।
  6.  रोगी द्वारा प्रयुक्त वस्त्र, बर्तन इत्यादि को तीव्र नि:संक्रामक प्रयोग कर उबलते पानी से धोना चाहिए।
  7. रोगी के फफोलों पर से उतरने वाले खुरण्डों को जला देना चाहिए।
  8.  नि:संक्रमण के लिए डिटॉल, फिनाइल, सैवलॉन, स्प्रिट व कार्बोलिक साबुन इत्यादि का प्रयोग किया जा सकता है।
  9.  पूर्ण स्वस्थ होने तक रोगी को कमरे से बाहर नहीं जाने देना चाहिए।

चेचक का उपचार:
सामान्य रूप से चेचक के विशेष उपचार की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि यह रोग निश्चित अवधि के उपरान्त अपने आप ही समाप्त हो जाता है, परन्तु समुचित उपचार के माध्यम से रोग की भयंकरता से बचा जा सकता है तथा रोग से होने वाले अन्य कष्टों को कम किया जा सकता है। चेचक के रोगी को हर प्रकार से अलग रखना अनिवार्य है। उसे हर प्रकार की सुविधा दी जानी चाहिए। रोगी के कमरे में अधिक प्रकाश नहीं होना चाहिए, क्योंकि रोशनी से उसकी आँखों में चौंध लगती है, जिसका रोगी की नजर पर बुरा प्रभाव पड़ता ) है। चेचक के रोगी को पीने के लिए उबला हुआ पानी तथा हल्का आहार ही देना चाहिए। रोगी से सहानुभूतिमय व्यवहार करना चाहिए। किसी चिकित्सक की राय से कोई अच्छी मरहम भी दानों पर लगाई जा सकती है। रोगी को सुझाव देना चाहिए कि वह दानों को खुजलाए नहीं।

 

प्रश्न 4:
खसरा नामक रोग की उत्पत्ति के कारणों, लक्षणों तथा बचाव एवं उपचार के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
खसरा (Measles):
वायु द्वारा संक्रमित होने वाला मुख्य रूप से बच्चों में होने वाला एक संक्रामक रोग है। यह छोटी आयु के बच्चों को होता है तथा कभी-कभी गम्भीर रूप धारण कर लेता है। सामान्य रूप से इस रोग से व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती।

रोगका कारण:
यह एक विषाणु जनित रोग है जो कि रुबियोला नामक विषाणु के द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग के विषाणु खाँसने, थूकने व छींकने से वायु में आते हैं तथा वायु द्वारा स्वस्थ व्यक्तियों में पहुँच कर रोग उत्पन्न करते हैं। रोग के संक्रमण के 10-12 दिन के पश्चात् रोगी में इसके लक्षण प्रकट होते हैं।

रोग के लक्षण:
खसरा एक संक्रामक रोग है; अत: इसको निम्नलिखित विभिन्न लक्षणों के द्वारा पहचान कर इससे बचने के उपाय करने चाहिए

  1.  रोग का प्रारम्भ जुकाम व सिर-दर्द से होता है।
  2.  रोगी को प्राय: खाँसी उठती है तथा छींकें आती हैं।
  3. शरीर का तापमान 103-104° फा० तक हो जाता है।
  4. चार या पाँच दिन पश्चात् मस्तक व चेहरे पर छोटे-छोटे लाल रंग के दाने निकलते हैं जो कि धीरे-धीरे शरीर के अन्य भागों पर भी फैल जाते हैं।
  5.  दाने निकलने पर रोगी का ज्वर कम हो जाता है।
  6. चार या पाँच दिन में दाने सूखने लगते हैं तथा इनसे खुरण्ड अथवा पपड़ी उतरने लगती है।
  7.  दस से पन्द्रह दिन बाद शरीर साफ हो जाता है तथा रोगी स्वस्थ अनुभव करता है।

बचाव के उपाय:
खसरे से बचने के लिए गन्दगी एवं अशुद्ध वातावरण से बचना चाहिए। सन्तुलित एवं पौष्टिक भोजन से बच्चों में रोग से बचने की क्षमता विकसित होती हैं। अब खसरा  से बचने का टीका भी विकसित कर लिया गया है, जो छोटे शिशुओं को लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त वे सभी उपाय करने चाहिए, जो अन्य संक्रामक रोगों को फैलने से रोकने के लिए किए जाते हैं।

उपचार के उपाय:
यदि खसरा बिगड़े नहीं तो किसी विशेष उपचार की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु खसरा के रोगी की उचित देखभाल अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि कभी-कभी इस बात का डर रहता है कि रोगी को कहीं निमोनिया न हो जाए। रोगी को गर्मी एवं अधिक ठण्ड से बचाना चाहिए। रोगी
को हल्का एवं सुपाच्य आहार देना चाहिए तथा दानों को खुजाने से रोकना चाहिए।

प्रश्न 5:
तपेदिक या क्षयरोग के विषय में आप क्या जानती हैं? इस रोग की उत्पत्ति के कारणों, लक्षणों, बचने एवं उपचार के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
तपेदिक अथवा क्षय रोग एक अत्यन्त गम्भीर एवं घातक संक्रामक रोग है। इस रोग को टी०बी० तथा राज्यक्ष्मा भी कहते हैं। यह एक जीवाणु जनित रोग है जो कि माइक्रो बैसिलस ट्यूबरकुलोसिस नामक जीवाणु द्वारा फैलती है। इस जीवाणु की सर्वप्रथम खोज रॉबर्ट कॉक नामक वैज्ञानिक ने 1882 ई० में की थी। क्षय रोग वायु संवाहित संक्रामक रोग है जो कि विश्व के लगभग सभी देशों में पाया जाता है। यह रोग अधिकतर महानगरों की सघन आबादियों, औद्योगिक क्षेत्रों, खनिज खान क्षेत्रों तथा गन्दी व अविकसित बस्तियों के निवासियों में पाया जाता है। यह रोग अधिकतर युवावस्था में होता है तथा वृद्धावस्था में अपना उग्र रूप प्रदर्शित करता है। क्षय  रोग के जीवाणु श्वसन वायु के साथ शरीर में प्रवेश कर फेफड़ों में पनपते हैं। वायु द्वारा संवाहित होने के कारण रोगी के आसपास के लोग सरलतापूर्वक इस रोग की चपेट में आ जाते हैं। इस रोग की एक अन्य विशेषता यह है कि इस रोग को संक्रमण होने के लगभग छह माह बाद रोगी में रोग के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। इस रोग के जीवाणु अधिक समय तक जीवित रहने के कारण वायु द्वारा भोज्य पदार्थों पर भी पहुंच जाते हैं। अतः दूषित भोज्य पदार्थ भी प्रायः इस रोग के वाहक का कार्य करते हैं। क्षय रोग फेफड़ों के अतिरिक्त शरीर के अन्य भागों को भी प्रभावित कर सकता है। मनुष्यों में प्रायः चार प्रकार के क्षय रोग पाए जाते हैं

  1. फेफड़ों का क्षय रोग,
  2.  अस्थियों का क्षय रोग,
  3. आँतों का क्षय रोग तथा
  4.  ग्रन्थियों का क्षय रोग।।

रोग की उत्पत्ति के कारण:
क्षय रोग होने के कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से दिया जा सकता है

  1.  वायु की समुचित संवातन व्यवस्था न होने के कारण।
  2.  घनी बस्तियों व महानगरों में एक ही स्थान में अधिक लोगों के रहने पर अर्थात् स्थानाभाव की स्थिति में।
  3.  पौष्टिक भोजन के अभाव में।
  4. आवश्यकता से अधिक मानसिक व शारीरिक कार्य करने से।
  5.  परिवार कल्याण का पालन न करने से।।
  6.  अत्यधिक धूम्रपान व मदिरापान करने से।
  7.  आवासीय व्यवस्था के आस-पास कूड़ा-करकट व गन्दगी एकत्रित होने से।
  8. क्षय रोग से ग्रस्त व्यक्ति के आस-पास रहने से।

रोग के लक्षण:
क्षय रोग के लक्षण एक लम्बी अवधि के बाद प्रकट होते हैं। संक्रमण के लगभग छह माह बाद रोगी में क्षय रोग के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। एक भीषण संक्रामक रोग होने के कारण इस रोग के निम्नलिखित लक्षणों का प्रत्येक गृहिणी को ज्ञान आवश्यक है

  1.  रोग की प्रारम्भिक अवस्था में रोगी थकावट अनुभव करता है।
  2.  धीरे-धीरे भूख कम लगने लगती है।
  3. रोगी को शरीर दुर्बल होने लगता है तथा शारीरिक भार धीरे-धीरे घटने लगता है।
  4.  क्षय रोग से प्रभावित रोगी की कार्यक्षमता घट जाती है तथा कार्य करने में उसका मन नहीं लगता।
  5.  श्वसन क्रिया तीव्र हो जाती है तथा श्वास फूलने लगती है।
  6.  जुकाम वे खाँसी की शीघ्र पुनरावृत्ति होने लगती है।
  7. सीने में प्राय: दर्द होने लगता है।
  8.  रोग की गम्भीर अवस्था में खाँसने पर कफ के साथ रक्त भी जाने लगता है।
  9. रक्त की कमी से जाने के कारण रोगी का रंग पीला पड़ने लगता है।
  10.  रोगी को प्रायः ज्वर रहने लगता है।
  11.  फेफड़ों में तरल पदार्थ भर जाने के कारण इनकी कार्यक्षमता घटने लगती है। समुचित उपचार न होने पर फेफड़े सिकुड़ने लगते हैं। इन लक्षणों को रोगी के एक्स-रे चित्र में देखा जा सकता है।

रोग से बचने के उपाय एवं उपचार:

  1.  बच्चों को आवश्यक रूप से बी० सी० जी० का टीका लगवाना चाहिए।
  2. रोगी को पृथक् कमरे में रखना चाहिए तथा उसके सम्पर्क में परिचर्या करने वाले व्यक्ति के अतिरिक्त अन्य लोगों को नहीं आना चाहिए।
  3.  रोग बढ़ जाने की अवस्था में रोगी को क्षय रोग अस्पताल में भर्ती करा देना चाहिए।
  4.  रोगी के कमरे में वायु की संवातन व्यवस्था उत्तम होनी चाहिए।
  5. रोगी का नियमित रूप से सुबह व शाम को खुली हवा में टहलना सदैव लाभप्रद रहता है।
  6.  रोगी को शुद्ध, पौष्टिक एवं सुपाच्य भोजन देना चाहिए।
  7. रोगी के कपड़ों, बर्तनों व अन्य वस्तुओं का नियमित नि:संक्रमण होना चाहिए।
  8.  रोगी के थूकदान में फिनाइल डालना चाहिए तथा कमरे के फर्श को भी फिनाइल द्वारा धोते रहना चाहिए।
  9. आवासीय व्यवस्था के आस-पास स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
  10. औषधियों का प्रयोग: वर्तमान समय में क्षय रोग के उपचार के लिए विभिन्न प्रभावकारी औषधियाँ उपलब्ध हैं। क्षय रोग ग्रस्त व्यक्ति को किसी योग्य चिकित्सक की देख-रेख में औषधियाँ लेनी चाहिए। इस रोग का उपचार लम्बे समय तक चलता है। अतः धैर्यपूर्वक पूर्ण उपचार करना चाहिए तथा आहार एवं दिनचर्या को अनिवार्य रूप से नियमित रखना चाहिए।

 

प्रश्न 6:
कर्णफेर अथवा गलसुआ नामक रोग के कारणों, लक्षणों तथा बचने के उपायों एवं सावधानियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कर्णफेर अथवा गलसुआ (Mumps)–एक वायु संवाहित विषाणु जनित रोग है। मम्स विषाणु प्रायः पाँच से पन्द्रह वर्ष की आयु के बच्चों में रोग उत्पन्न करते हैं, परन्तु अधिक आयु के
व्यक्ति भी इससे प्रभावित हो सकते हैं। इस रोग के होने के विशेष कारण निम्नलिखित हैं|

  1.  रोगी के सम्पर्क में आने के परिणामस्वरूप एक बच्चे को रोग के होने पर परिवार के अन्य बच्चों को भी इस रोग के होने की सम्भावना अधिक रहती है।
  2.  गले के अंगों के रोग से प्रभावित होने के कारण रोगी का थूक अथवा लार रोग के प्रसार का माध्यम होते हैं।
  3. यह रोग प्राय: शीत ऋतु में होता है।
  4.  रोग के प्रारम्भ में होने के लगभग चार सप्ताह तक रोग के संक्रमण की सम्भावना रहती है।

सम्प्राप्ति काल: लगभग दो दिन

रोग के लक्षण:
यह एक भीषण संक्रामक रोग है। युवावस्था में होने पर इस रोग में जननांगों के कुप्रभावित होने की सम्भावना रहती है; अत: इस रोग से बचने के लिए इसके विशिष्ट लक्षणों का ज्ञान अति आवश्यक है

  1.  जबड़ों के कोनों पर कान के नीचे अत्यधिक दर्द करने वाली सूजन आ जाती है।
  2. धीरे-धीरे यह सूजन व दर्द गले तक पहुँच जाती है जो कि लगभग एक सप्ताह में दूर होती है।
  3.  बच्चों में प्रभावित होने वाले विशिष्ट अंग सैलाइवरी व पेरोटिड ग्रन्थियाँ होती हैं तथा विषाणु रक्त, रीढ़-रज्जु (स्पाइनल कॉर्ड) के तरल पदार्थ तथा मूत्र में पाए जाते हैं।
  4. युवावस्था में रोग होने पर जननांगों में सूजन आ जाती है, जिससे नपुंसकता पैदा होने का भय रहता है।

बचने के उपाय एवं सावधानियाँ:
इस रोग की उत्पत्ति संक्रमण द्वारा होती है। अतः स्वस्थ बच्चों को रोगी बच्चे के निकट सम्पर्क से बचाना चाहिए। बच्चों को ठण्ड से बचाकर रखना चाहिए। अब इस रोग से बचाव का टीका भी प्रचलन में आ गया है तथा प्रायः सभी बच्चों को लगाया जाता है।

उपचार:
इस रोग के उपचार के लिए रोगी को ठण्ड से बचाना चाहिए तथा पूर्ण विश्राम प्रदान करना चाहिए। रोगी को हल्का तथा नर्म भोजन दिया जाना चाहिए, ताकि चबाना न पड़े। गर्म पानी में नमक डाल कर कुल्ले कराने चाहिए। गले की सिकाई करनी चाहिए; गर्म रुई द्वारा सेंकना अच्छा रहता है। स्वस्थ बच्चों को रोगी बच्चे से दूर रखना चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
काली खाँसी रोग के कारण, लक्षण एवं उपचार बताइए।
उत्तर:
कारण-काली खाँसी अथवा कुकुर खाँसी बच्चों में होने वाला एक भयंकर रोग है, जो कि होमोकीस परदुसिस बैसिलस नामक जीवाणु के द्वारा होता है। रोगी के खाँसने,  छींकने या बोलने से जीवाणु वायु में आ जाते हैं तथा इस प्रकार की दूषित वायु स्वस्थ बच्चों में रोग का प्रसार करती है। रोगी द्वारा प्रयुक्त वस्त्र एवं बर्तन भी रोग के प्रसार का माध्यम होते हैं।
लक्षण:

  1. भयंकर खाँसी उठती है तथा रोगी खाँसते-खाँसते वमन कर देता है।
  2. खाँसने से आँखों में पानी आ जाता है।
  3.  गले में दर्द रहता है।
  4.  ज्वर तथा व्याकुलता रहती है।
  5.  यह रोग लगभग 1-2 सप्ताह तक रहता है।

बचने के उपाय तथा उपचार:

  1.  बच्चों को रोग-निरोधक टीका लगवाना चाहिए।
  2. वायु संवाहित रोग होने के कारण रोगी से स्वस्थ बच्चों को पृथक् रखना चाहिए।
  3.  रोगी द्वारा प्रयुक्त वस्तुओं को नि:संक्रमित करते रहना चाहिए।
  4. रोगी को किसी योग्य चिकित्सक को दिखाना चाहिए तथा चिकित्सक द्वारा सुझाई गई औषधियाँ नियमित रूप से लेनी चाहिए।

 

प्रश्न 2:
कूलर एवं वातानुकूलन यन्त्र के निरन्तर उपयोग से क्या हानि सम्भव है?
उत्तर:
कूलर अथवा वातानुकूलन यन्त्र के लगातार उपयोग से कमरे की आर्द्रता में वृद्धि होती है। तथा तापमान कम हो जाता है। कम तापमान व अधिक आई वायु में रोगाणु  सरलतापूर्वक पनपते हैं; अतः विभिन्न रोगों के पनपने की सम्भावनाओं में वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त कूलर युक्त अथवा वातानुकूलित कमरे में वायु के संवतन की उत्तम व्यवस्था का अभाव रहता है। इस प्रकार के कमरे में यदि वायु संवाहित रोग से ग्रस्त कोई रोगी रखा जाता है, तो उसके सम्पर्क में आने वाले स्वस्थ व्यक्तियों के रोगग्रस्त होने की आशंका अधिक रहती है।

प्रश्न 3:
अशुद्ध एवं विषैली वायु से हमें क्या-क्या हानियाँ हैं?
उत्तर:
अशुद्ध एवं विषैली वायु के वातावरण में रहने से होने वाली मुख्य हानियाँ निम्नलिखित हैं

  1. मानसिक तनाव में वृद्धि,
  2.  सिर दर्द,
  3.  जी मिचलाना,
  4. श्वास की गति में अवरोध होने के कारण दम घुटना,
  5. हृदय गति मन्द हो जाने के कारण हृदय रोगों की सम्भावनाओं में वृद्धि तथा
  6.  वायु संवाहित रोगों के प्रसार में वृद्धि।

प्रश्न 4:
उदभवन अथवा सम्प्राप्ति काल से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
रोगों के मूल कारण प्रायः रोगाणु होते हैं जो कि किसी-न-किसी विधि से हमारे शरीर में प्रवेश कर रोग उत्पन्न करते हैं। रोगों की पहचान हम उनके कारण शरीर में दिखाई पड़ने वाले लक्षणों के आधार पर करते हैं, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि संक्रमण (रोगाणुओं को शरीर में प्रवेश) के साथ ही शरीर में रोग के लक्षण प्रकट हों। इनमें कुछ समय लगता है, जिसे सम्प्राप्ति काल कहा जाता है। अतः संक्रमण  ग्रहण करने और इसके कारण रोग के लक्षणों के प्रकट होने तक की अवधि को सम्प्राप्ति काल अथवा उद्भवन काल कहते हैं। विभिन्न रोगों में यह अवधि अलग-अलग होती है, जैसे कि खसरा का सम्प्राप्ति काल 10-12 दिन का तथा कर्णफेर का लगभग दो दिन का होता है।

प्रश्न 5:
इन्फ्लूएंजा कैसे फैलता है? इस रोग के उपचार तथा बचने के उपाय लिखिए।
उत्तर:
इन्फ्लूएंजा या फ्लू एक सामान्य रूप से फैलने वाला संक्रामक रोग है। यह रोग सामान्य रूप से मौसम के बदलने के समय अधिक होता है। इस रोग का फैलाव बड़ी तेजी से होता है; अत: इससे बचने के लिए विशेष सावधानी रखनी पड़ती है। फ्लू के कारण तथा फैलना-फ्लू नामक रोग एक अति सूक्ष्म जीवाणु द्वारा फैलता है। यह रोगाणु इन्फ्लूएंजा वायरस कहलाता है। प्रायः जुकाम के बिगड़ जाने पर फ्लू बन जाता है। फ्लू नामक रोग रोगी के सम्पर्क द्वारा भी फैल जाता है। फ्लू के रोगी की छींक, खाँसी तथा थूक आदि द्वारा भी फ्लू फैलता है। रोगी द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले रूमाल, बर्तन तथा अन्य वस्तुओं के सम्पर्क द्वारा भी यह रोग लग सकता है।

लक्षण:
फ्लू प्रारम्भ में जुकाम के रूप में प्रकट होता है। नाक से पानी बहने लगता है। इस रोग के शुरू होते ही शरीर में दर्द होने लगता है। सारे शरीर में बेचैनी होती है तथा कमजोरी महसूस होती है। इसके साथ-ही-साथ तेज ज्वर (102°F से 104°Fतक) हो जाता है।
उपचार:
फ्लू के रोगी व्यक्ति को आराम से लिटा देना चाहिए। रोगी को चिकित्सक को दिखाकर दवा ले लेनी चाहिए। फ्लू के रोगी को विटामिन ‘सी’ युक्त भोजन देना चाहिए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
अशुद्ध वायु के माध्यम से फैलने वाले रोग कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
चेचक, तपेदिक, खसरा, डिफ्थीरिया, कर्णफेर, काली खाँसी तथा इन्फ्लूएंजा आदि रोग वायु के माध्यम से ही फैलते हैं।

प्रश्न 2:
फर्श पर थूकना क्यों हानिकारक है? या इधर-उधर थूकना क्यों हानिकारक है?
उत्तर:
फर्श पर थूकने से थूक में उपस्थित रोगाणु भी भूमि पर गिरते हैं। थूक के सूखने पर धूल के साथ ये रोगाणु वायु द्वारा स्वस्थ व्यक्तियों तक पहुँचकर उनमें रोग की उत्पत्ति कर सकते हैं।

 

प्रश्न 3:
वातानुकूलित कमरे में जीवाणुओं के प्रवेश को किस प्रकार रोका जा सकता है?
उत्तर:
वातानुकूलित संयन्त्र में वायु के प्रवेश स्थान पर जीवाणु-अभेद्य फिल्टर लगाने से कमरे में प्रवेश करने वाली वायु के साथ आने वाले जीवाणुओं को बाहर ही रोका जा सकता है।

प्रश्न 4:
अस्पतालों की सफाई झाड़द्वारा क्यों नहीं करनी चाहिए?
उत्तर:
झाडू से सफाई करने पर रोगाणुयुक्त धूल उड़कर वायु में आ जाती है, जिससे वायु द्वारा रोगाणुओं के प्रसार की सम्भावना बलवती हो जाती है। अतः झाडू द्वारा अस्पतालों में सफाई नहीं की जाती है।

प्रश्न 5:
सूर्य के प्रकाश का रोगाणुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
शुष्क वातावरण एवं सूर्य के प्रकाश में रोगाणु प्रायः नष्ट हो जाते हैं।

प्रश्न 6:
ऐसा कौन-सा संक्रामक रोग है जिसकी हमारे देश में समूल नष्ट किए जाने की घोषणा की गई?
उत्तर:
चेचक एक भीषण संक्रामक रोग है। हमारे देश में यह समूल नष्ट किया जा चुका है।

प्रश्न 7:
क्षय रोग अधिक होने के दो प्रमुख कारण बताइए।
उत्तर:
गन्दगी एवं कुपोषण के कारण क्षय रोग की सम्भावना अधिक रहती है।

प्रश्न 8:
किसे रोग को मृत्यु का कप्तान’ कहा जाता है?
उत्तर:
क्षय रोग को, ‘मृत्यु का कप्तान’ भी कहा जाता है।

 

प्रश्न 9:
क्षय रोग से बचाव के लिए कौन-सा टीका लगाया जाता है?
उत्तर:
क्षय रोग से बचाव के लिए बी०सी०जी० का टीका लगाया जाता है।

प्रश्न 10:
टीका लगवाने अथवा वैक्सीनेशन से क्या लाभ है?
उत्तर:
किसी रोग विशेष का टीका लगवाने से शरीर में उस रोग के लिए रोग-प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न होती है।

प्रश्न 11:
ट्रिपल एण्टीजन टीके से कौन-कौन से रोगों के लिए प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न की जाती है?
उत्तर:
ट्रिपल एण्टीजन (डी० पी० टी०) को टीका डिफ्थीरिया, काली खाँसी एवं टिटेनस नामक रोगों से बचाव के लिए लगाया जाता है।

प्रश्न 12:
खसरा के रोगी को नमक बहुत कम मात्रा में क्यों दिया जाता है?
उत्तर:
खसरा के रोगी को कम नमक देने से उसकी त्वचा पर उभरे दानों में जलन व खुजली कम होती है।

प्रश्न 13:
कुकुर खाँसी याकाली खाँसी की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार जीवाणु का नाम लिखिए।
उत्तर:
कुकुर खाँसी या काली खाँसी की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार जीवाणु का नाम है-होमोकीट्स परटुसिस बैसिलसा ।

प्रश्न 14:
कुकुर खाँसी के लक्षण लिखिए।
उत्तर:

  1. भयंकर खाँसी उठती है तथा रोगी खाँसते-खाँसते वमन कर देता है।
  2. खाँसी से आँखों में पानी आ जाता है।
  3.  गले में दर्द रहता है।
  4.  ज्वर तथा व्याकुलता रहती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न:
प्रत्येक प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। इनमें से सही विकल्प चुनकर लिखिए

(1) किस रोग में रोगी के गले में झिल्ली बन जाती है?
(क) चेचक,
(ख) काली खाँसी,
(ग) डिफ्थीरिया,
(घ) कर्णफेर।

 

(2) डिफ्थीरिया नामक रोग होता है
(क) केवल छोटी लड़कियों को,
(ख) केवल स्कूल जाने वाले बालकों को,
(ग) 2 से 5 वर्ष की आयु के बच्चों को,
(घ) केवल सम्पन्न परिवार के बच्चों को।

(3) कर्णफेर नामक रोग में बच्चे को होता है
(क) जबड़े में दर्द,
(ख) गले में दर्द,
(ग) लार ग्रन्थियों में सूजन तथा दर्द,
(घ) कान में दर्द।

(4) चेचक से बचाव के टीके का आविष्कार किया है
(क) रॉबर्ट कॉक ने,
(ख) एलेक्जेण्डर फ्लेमिंग ने,
(ग) एडवर्ड जेनर ने,
(घ) इनमें से किसी ने नहीं।

(5) क्षय रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु का नाम है
(क) कोरीनीबैक्टीरियम,
(ख) माइक्रो बैसिलस ट्यूबरकुलोसिस,
(ग) बोइँटेला,
(घ) स्ट्रेप्टोकोकस।

(6) बी० सी० जी० का टीका लगाया जाता है
(क) क्षय रोग से बचने के लिए,
(ख) काली खाँसी से बचने के लिए,
(ग) कर्णफेर से बचने के लिए,
(घ) रोहिणी से बचने के लिए।

(7) चेचक के विषाणु का क्या नाम है?
(क) एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका,
(ख) वेरियोला वाइरस,
(ग) विब्रियो कोलेरा,
(घ) साल्मोनेला टाइफॉइडिस।

(8) निम्नलिखित में वायु द्वारा फैलने वाला रोग है
(क) चेचक,
(ख) हैजा,
(ग) पीलिया,
(घ) पेचिश।

 

(9) कौन-सा रोग वायु द्वारा संक्रमित नहीं होता?
(क) तपेदिक,
(ख) हैजा,
(ग) चेचक,
(घ) खसरा।

उत्तर:
(1) (ग) डिफ्थीरिया,
(2) (ग) 2 से 5 वर्ष की आयु के बच्चों को,
(3) (ग) लार ग्रन्थियों में सूजन तथा दर्द,
(4) (ग) एडवर्ड जेनर ने,
(5) (ख) माइक्रो बैसिलस ट्यूबरकुलोसिस,
(6) (क) क्षय रोग से बचने के लिए,
(7)(ख) वेरियोला वाइरस,
(8) (क) चेचक,
(9) (ख) हैजा।

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