ग्रामीण विकास और जातीय परंपराएं
ग्रामीण विकास और जातीय परंपराएं
ग्रामीण विकास और जातीय परंपराएं
बिहार के एक कृषि प्रधान प्रदेश होने के कारण इसकी अधिकांश आबादी गांवों में निवास करती है। ग्रामीण अधिकतर कृषि पर ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं। इतना ही नहीं, यहां की ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर जातीय परंपराओं एवं मान्यताओं का कुप्रभाव पड़ रहा है। प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों के गांवों में जाति के आधार पर सबसे अधिक जनसंख्या मध्यम जाति की है। मध्यम जाति में यादव, कोइरी, कुर्मी एवं अन्य पिछड़े जाति लिये गये हैं। इनकी आबादी लगभग 42 प्रतिशत है। इनके बाद की श्रेणी में आता है ऊंची जाति का अनुपात। इस श्रेणी में ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत एवं कायस्थ जाति सम्मिलित किये गये हैं। जिनकी आबादी लगभग 30 प्रतिशत है। मैदानी क्षेत्रों के गांवों में जनसंख्या की दृष्टि से तीसरा महत्वपूर्ण स्थान अनुसूचित जाति का है। इनकी जनसंख्या कुल आबादी की लगभग 19 प्रतिशत है। मुसलमान कुल आबादी के 9 प्रतिशत हैं।
यदि आर्थिक संपन्नता का मापदंड प्रति व्यक्ति के आधार पर खर्च और प्रति एकड़ कृषि उत्पाद को लिया जाये तब आर्थिक दृष्टि से सबसे अधिक संपन्न कुर्मी जाति के लोग हैं, जबकि कुर्मी जाति के पास प्रति व्यक्ति के हिसाब से जुताई की गयी भूमि सबसे अधिक नहीं है। ऊंची जाति के पास प्रति व्यक्ति जुताई की गयी भूमि सबसे अधिक है। फिर भी प्रति एकड़ पैदावार के मामलों में ये ऊंची जाति के लोग कुर्मी जाति से बहुत पीछे हैं। भूमि उत्पादकता के संदर्भ में कोइरी. जाति भी आगे है जबकि इनके
पास प्रति व्यक्ति जोती गयी भूमि ऊंची जाति और कुर्मी जाति से भी कम है। आंकड़े बताते हैं कि कृषि उत्पादकता में कोइरी जाति बिहार में दूसरा स्थान रखती है। इन्हें प्रति एकड़ कृषि उत्पादन से लगभग 2148 रुपये मिलता है। सबसे कम भूमि प्रति व्यक्ति के हिसाब से अनुसूचित जाति के पास है। जिनके पास ऊंची जाति की अपेक्षा प्रति व्यक्ति एक चौथाई एकड़ से भी कम खेती योग्य भूमि है। फिर भी अनुसूचित जाति को भूमि उत्पादकता के विचार से तीसरा स्थान दिया जा सकता है।
अतः यह कहा जा सकता है कि उच्च जाति प्रति व्यक्ति अधिक खेती योग्य भूमि को रखते हुए भी प्रगतिशील किसान नहीं हैं। कुर्मी एवं कोइरी जाति ही प्रगतिशील किसान की श्रेणी में आते हैं। अच्छी उपज के संदर्भ में उत्तम बीज, रासायनिक खाद, कीटाणुनाशक दवाईयां एवं सिंचाई भी कुछ हद तक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उत्तम बीज, रासायनिक खाद एवं कीटाणुनाशक दवाइयों पर खर्च पूंजीगत खर्च के अंतर्गत लिये गये हैं। कुर्मी जाति ने अन्य जातियों से अधिक खेती में इस तरह के पूंजी के रूप में खर्च किया है। जबकि ऊंची जातियों के किसान सबसे अधिक संपत्ति और जमीन के मालिक होते हुए भी कुर्मी जाति की तुलना में इन मदों पर आधा से भी कम खर्च करते हैं। अन्य जातियां पूंजी लगाने के मामलों में बहुत पीछे रही।
खेती के लिए अधिकतम सिंचाई भी कोइरी जाति के ही यहां हुआ। उनके यहां जुताई की गयी भूमि तीन-चौथाई भाग से कुछ कम ही सिंचाई के अंतर्गत थी। यहां स्पष्ट है कि कोइरी जाति ने धन की कमी के कारण पूंजी तो कम लगाया इसलिए इनकी खेती का तकनीकी नजरिया सिंचाई से अधिक जुड़ा रहा।
कुर्मी भी सिंचाई में आगे ही रहे। कोइरी जाति के बाद भूमि की अच्छी सिंचाई इन्होंने ही की है। इस संदर्भ में अनुसूचित जाति भी कुर्मी जाति से कुछ ही पीछे रहे, जिन्होंने करीब 59 प्रतिशत जुताई की गयी जमीन की सिंचाई की। मुसलमान जाति ने भी अनुसूचित जाति से कुछ कम खेती योग्य भूमि की सिंचाई करवाया। ऊंची जाति के लोग तो कुल जुताई की गयी भूमि का आधा
भी सिंचाई नहीं करवा सके। वैसे देखा जाये तो सबसे अधिक संपत्ति उच्च जाति की ही है। प्रति व्यक्ति के हिसाब से उच्च जाति के पास कुर्मी एवं कोडरी जातियों की अपेक्षा 26 प्रतिशत अधिक संपत्ति है, अनुसूचित जाति में तो नगण्य संपत्ति है। तथ्यों से ज्ञात होता है कि कृषि के संबंध में कुर्मी जाति के लोग सर्वोच्च तकनीकी नजरिया रखते हैं। कोइरी जाति का भी स्थान एक प्रगतिशील किसान वर्ग में है। अनुसूचित जाति भी मेहनती है। क्योंकि साधन के अभाव में भी कृषि उत्पादकता में इनका कुर्मी एवं कोइरी जातियों के बाद स्थान है।
उच्च जाति के लोग जिनके पास धन की कमी नहीं है, वे फिर भी जमीन का उचित उपयोग नहीं कर पाते हैं। कारण यह है कि जहां कोइरी, कुर्मी और अनुसूचित जातियों के पूरे परिवार खेती में लगकर काम करते हैं, वहां उच्च जाति के परिवार अधिकर खेतों पर स्वयं काम नहीं करते। ऊंची जाति की महिलायें और पुरुष प्रायः खेतों पर रोपनी, निकौनी आदि का काम नहीं करते हैं। ऊंची जाति के लिए हल चलाना तो परंपरा के अनुसार पूर्णतः वर्जित है। पुरानी जातीय परंपरायें एवं सामाजिक मान्यतायें ऊंची जाति को किसान के रूप में खेती करने से रोकती है। जिसके कारण ये ऊंची जाति के लोग अपनी जमीन असामियों को खेती करने के लिए अर्द्धबटाई पर देते हैं। यही नहीं ये अपने देख रेख में मजदूर रखकर भी खेती नहीं करवाते हैं, जिसका नजीजा है कम भूमि उत्पादकता। दूसरी ओर, जो लोग पारिवारिक खेती करते हैं, उनके यहां भूमि-उत्पादकता अधिक होती है। असामियों को दी गयी खेती में पूंजी के अभाव में उन्नत खेती नहीं हो पाती है।
इस तरह भूमि उत्पादकता बढ़ाने का लक्ष्य प्राप्त करना हो तो हमारी आर्थिक योजना नीति ऐसी होनी चाहिए, जिससे कि भूमि का वितरण उन लोगों के पक्ष में हो जो लोग खेत में स्वयं अपने परिवार के साथ मिलकर किसान के रूप में काम करते हैं और
साथ ही यदि ऊंची जाति के लोग अपनी परंपरायें छोड़कर स्वयं अपने परिवार के साथ खेती करने में जुट जायें, तो बिहार राज्य भी अनाज भंडार वाले राज्यों की श्रेणी में आ जायेगा।