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बिहार में बढ़ता हुआ शोषण

बिहार में बढ़ता हुआ शोषण

बिहार में बढ़ता हुआ शोषण

बिहार सबसे अधिक आबादी वाला भारत का दूसरा राज्य है। प्रदेश का भौगोलिक क्षेत्र देश के कुल क्षेत्र का लगभग 3 प्रतिशत है। जबकि कुल आबादी के 8 प्रतिशत लोग बिहार में रहते हैं। यद्यपि बिहार की जमीन उपजाऊ है, फिर भी प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से यह सबसे गरीब राज्य है। विडम्बना यह है कि औद्योगीकरण और शहरीकरण विकास के जो मान्य मापदंड हैं, के
मामले में बिहार बहुत ही पिछड़ा हुआ है। प्रशासनिक इकाई के रूप में बिहार का वजूद 76 वर्ष पहले कायम हुआ। उस समय भारत ब्रिटिश उपनिवेश का अंग था। उस वक्त से ही बिहार का इतिहास देश में हो रहे ऐतिहासिक परिवर्तनों की
प्रक्रिया से नजदीकी तौर पर जुड़ा हुआ है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत को विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत लाया गया।
ब्रिटिश शासक अपने औद्योगिक उत्पादनों के लिए भारत में बाजार तैयार करना चाहते थे। इसलिए सुनियोजित ढंग से भारत के हस्तशिल्प को पूर्णत: बर्बाद करने की नीति अपनायी गयी। यही कारण है कि औपनिवेशिक रणनीति के तहत भारत की ‘कृषि संरचना’ को यथावत छोड़ देने का षड़यंत्र रचा गया। ब्रिटिश शासकों की नीति कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने की नहीं, बल्कि उत्पादकों पर अपना शिकंजा कसने की रही, जिसके लिए पुलिस, न्यायपालिका और कार्यपालिका का इस्तेमाल इस काम में किया गया।
ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति के तहत न सिर्फ सामंती कृषि संरचना को बरकरार रखा गया, बल्कि लगातार कृषि क्षेत्र में निजी निवेश नहीं हो सकता। दूसरी ओर सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण और जल निकासी के मद में सरकारी खर्च भी पर्याप्त नहीं हुए। सिंचाई मद में जो अल्पराशि खर्च की गई वह कृषि उत्पादन बढ़ाने या खेतिहरों के हित को ध्यान में रखकर नहीं, उल्टे अपने सैन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इसमल की गई। उसका मकसद बस इतना ही था कि अकालग्रस्त इलाके में राहत का इतना मुआवजा ताकि जनता ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत पर न उतर पाये। नतीजा यह हुआ कि देश में अन्य राज्यों की तरह बिहार का कृषि उत्पादन भी प्रकृति, पुरानी तकनीकी और शोषण मूलक उत्पादन से जकड़ा रहा। औपनिवेशिक भारत को औद्योगिक विकास के रास्ते पर ले जाने के रास्ते अवरुद्ध कर दिये गये। इसका खामियाजा भुगतने वालों में बिहार भी शामिल
था। 1911 से 1951 के मध्य 1.11 प्रतिशत के औसत वार्षिक दर से यहाँ औद्योगिक श्रमिकों की संख्या घटती गयी। इस प्रकार अपने अस्तित्व के चार दशक तक बिहार औद्योगीकरण के प्रतिकूल परिस्थितियों से गुजरता रहा। राज्य की निर्भरता कृषि
उत्पादनों पर बढ़ती गयी, जबकि कृषि उत्पादन खाद, प्रकृति, पुरानी तकनीकी और अर्द्ध-सामंती संरचना के भरोसे थे।
स्वतंत्रता के समय तीव्र औद्योगीकरण पर बल दिया गया, ‘बम्बई प्लान’ और | ‘पीपुल्स प्लान’ इस बात के गवाह हैं। फिर भी ‘पीपुल्स प्लान’ में कहा गया ‘यह निर्विवाद तथ्य है कि अधिसंख्य जनता के पास क्रय का अभाव बड़े उद्योगों के विस्तार में
सबसे बड़ा बाधक है। क्रय-शक्ति के अभाव के कारण ही यहां अति उत्पादन का मिथक बन जाता है। भारत में अधिकांश आबादी के रोजगार का साधन है। इसलिए क्रय-शक्ति बढ़ाने के किसी भी प्रयास को कृषि पर भी आश्रित होना पड़ेगा। इस तरह देश की आर्थिक व्यवस्था की कोई भी योजना तैयार करने का आधार कृषि ही है। इस आधारभूत जरूरत को नजरअंदाज कर या कृषि उत्पादन को बढ़ाने के कार्य को आवश्यक तरजीह दिये बिना काश्तकारों का जीवन स्तर सुधारने का कोई प्रयास किया जाता है, तो इससे ‘फासिस्ट अर्थव्यवस्था’ को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन यह देश और बिहार का दुर्भाग्य रहा कि बुजुर्ग उद्योगपतियों के दबाव में वैज्ञानिक सिंचाई को नजरअंदाज किया गया। आजादी के पश्चात् भी औद्योगिक विकास की रफ्तार गति नहीं पकड़ पायी और असंतुलित विकास की प्रक्रिया जारी रही।
बिहार सहित कई राज्यों के ग्रामीण इलाकों में उत्पादन का अर्द्ध-सामंती ढांचा बरकरार रहा। बहुतायत आबादी की निर्भरता कृषि पर बनी रही। विकास की गति धीमी रहने और गरीबी के चलते बिहार की बदतर हालत रही। 1969-70 से 1983-84 तक बिहार में कृषि-उत्पादन की विकास दर मात्र 0.49 प्रतिशत ओर देश के अन्य राज्यों की तुलना यहां का औद्योगिक उत्पादन भी अपेक्षाकृत बहुत कम बढ़ा। नतीजा यह हुआ कि ग्रामीण बिहार का मुख्य व्यवसाय खेती ही बना रहा। परिणामत: अर्द्ध-सामंती सामाजिक व्यवस्था भी बरकरार रही। इस प्रकार ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में शुरू हुए और आजादी के बाद भी न रोक पाये जाने वाले असंतुलित विकास न की प्रक्रिया का सर्वाधिक खामियाजा बिहार को भुगतना पड़ा।
आजादी के बाद भी धनी इलाकों से गरीब इलाकों में संसाधन हस्तांतरण की प्रक्रिया असफल रही। इसके कारण असंतुलित विकास की प्रक्रिया पर नियंत्रण नहीं किया जा सका। आजादी हासिल करते समय क्षेत्रीय आर्थिक असमानता ऐसी थी कि अगर संसाधनों को बाजार निर्धारित करने वाली ताकतों के हवाले छोड़ दिया जाता तो विकसित और अविकसित क्षेत्रों की
खाई और चौड़ी हो जाती। गरीब अर्थव्यवस्था में निजी बचत की दर बहुत ही कम रहती है। इसके साथ ही निवेश से होने वाले
लाभ की दर कम रहने के कारण अर्थव्यवस्था व्यक्तिगत निवेश की दर भी कम रहती है। औद्योगिक क्षेत्र में निवेश पर अधिक लाभ की गुंजाइश रहती है। इसलिए ऐसे क्षेत्र में व्यक्तिगत निवेश के पलायन की प्रवृत्ति स्वाभाविक ही थी।
परिणाम यह हुआ है कि अविकसित राज्यों का बचत महानगरीय क्षेत्रों के सट्टा बाजार में निवेश होने लगा है। बचत और निवेश की इस प्रक्रिया से बिहार भी अछूता नहीं है। यहां तक कि व्यावसायिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण और दूसरे सरकारी वित्तीय संस्थाओं का विकास भी इस प्रवृत्ति को रोक नहीं सका है। बिहार में बैंक जमा और कर्ज के अनुपात का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है। पिछड़ा और अर्द्धविकसित राज्य होने के कारण यहां की राज्य सरकार अपने स्तर पर अधिक संसाधन
इकट्ठा नहीं कर सकती। सरकारी क्षेत्रों में कर एवं गैर कर मदों से प्राप्त राजस्व से सरकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्तों की भी भरपायी नहीं हो पाती। विभिन्न वित्त आयोगों की अनुशंसाओं में गरीब राज्यों पर क्रमिक रूप से अधिक ध्यान दिया गया है। लेकिन इसे अभी और विकासोन्मुख बनाने की जरूरत है। आठवें वित्त आयोग की अनुशंसा के अनुसार बिहार को जो संसाधन प्राप्त होंगे, वे राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति उपलब्धता के बराबर हैं। इस तरह विकसित एवं अमीर राज्यों की तुलना में बिहार
में उपलब्ध प्रति व्यक्ति धन अभी भी बहुत कम रहेगा। योजना सहायता की भी यही हालत है। योजना आयोग की व्यय में प्रति व्यक्ति का औसत भी विकसित राज्यों की तुलना में बिहार में बहुत कम है। इतना ही नहीं यह औसत राष्ट्रीय औसत से भी कम है।
केंद्रीय योजना और केंद्र द्वारा प्रत्याभूत कार्यक्रमों के जरिये भी केंद्र बिहार में निवेश कर सकता है। लेकिन विडम्बना यह है कि इस मद में बिहार को प्राप्त हिस्सा राज्य की जनसंख्या के अनुपात में बहुत कम है। केंद्रीय उपक्रमों में मार्च, 1986 तक 56695 करोड़ रुपये का निवेश हुआ था, जिसमें बिहार का हिस्सा लगभग 11 प्रतिशत था। यह हिस्सा बिहार की आजादी के हिस्से के अनुपात में मामूली तौर पर ज्यादा है। बिहार में ग्रामीण आय लगातार कम होता गया है। अनुमान है कि साठ के दशक में प्रति व्यक्ति आय कम से कम प्रति वर्ष एक प्रतिशत की दर से घटा है।
ऐसे हालात में यदि ग्रामीण जीवन स्तर कम से कम यथावत भी बनाये रखना है तो शोषण बढ़ेगा ही। नतीजा यह हुआ है कि उत्पादन से सीधे जुड़ा तबका, जिनमें गरीब एवं मध्य किसान, बटाईदार और खेतिहर मजदूर शामिल हैं, ज्यादा असहनशील हुये हैं ग्रामीण बिहार में वर्ग-संघर्ष और संगठित हिंसा की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं।

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