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भारत की जनजातियाँ

भारत की जनजातियाँ

भारत की जनजातियाँ

भारत में जनजातियों की बहुत बड़ी संख्या है। अफ्रीका के बाद भारत में ही सबसे अधिक जनजातियाँ निवास करती हैं। ये भारत के विभिन्न भागों में बसी है-अरुणाचल प्रदेश, असम, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल (तत्कालीन बंगाल), झारखंड
(तत्कालीन बिहार), तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुजरात, राजस्थान इत्यादि। औपनिवेशिक काल के बंगाल प्रेसीडेंसी और वर्तमान
समय में झारखंड राज्य में आदिवासियों की बहुत बड़ी संख्या है। भारत में सबसे बड़ी भील जनजाति है। इनका निवास मध्य
प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान एवं त्रिपुरा में है। दूसरी बड़ी जनजाति गोंड है। ये मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़,
आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में बसे हुए हैं। भारत की तीसरी बड़ी जनजाति संथाल है। संथाल बिहार, झारखंड, उड़ीसा एवं पश्चिम बंगाल में बसे हुए हैं। यह जनजाति अनेक उप-जनजातियों में विभक्त है। अन्य जनजातियों में मुंडा, ओराँव, हो, खोंड, चेरो, कोल, पहाडिया तथा मीणा का उल्लेख किया जा सकता है। यद्यपि इन सभी जनजातियों की अपनी-अपनी भाषा, संस्कृति एवं धार्मिक प्रथाएँ हैं तथापि इनमें कुछ समान तत्त्व भी दिखाई देते हैं। इनमें अधिकांश जनजातियाँ औपनिवेशिक शासन का शिकार बनीं। इसलिए, इन लोगों ने समय-समय पर औपनिवेशिक नीतियों एवं बाहरी लोगों (दिकुओं) के हस्तक्षेप के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाया।

जनजातीय संस्कृति

जनजातीय समाज-आरंभ में जनजातियों का जीवन सरल एवं शांतिपूर्ण था। वे पहाड़ी क्षेत्रों में छोटी-मोटी बस्तियों में रहते थे।
जंगल से कंद-मूल प्राप्त कर एवं शिकार कर वे अपना जीवनयापन करते थे। व्यक्तिगत संपत्ति अथवा वर्ग-विभेद का अभाव था। कालांतर में गैर-आदिवासियों के संपर्क में आने से उनकी जीवनशैली में भी परिवर्तन आया। हिंदुओं, मुसलमानों एवं ईसाइयों के संपर्क में आने से उनकी जीवनशैली में बदलाव आया। निजी संपत्ति एवं वर्ग-विभाजन की भावना बलवती हुई।
आदिवासी समाज तीन स्तरों-राजा और जमीदार, मध्यम वर्ग और सामान्य आदिवासी में विभक्त हो गया। इनमें सबसे बुरी
स्थिति सामान्य आदिवासियों की थी। सबसे अधिक शोषण तीसरे स्तर के आदिवासियों का ही हुआ।
सभी आदिवासी समुदायों की सामाजिक संरचना लगभग एकसमान थी। प्रत्येक जनजाति विभिन्न किल्ली (कबीला) में विभक्त थी। समाज पितृसत्तात्मक था। यद्यपि स्त्रियों को संपत्ति-संबंधी अधिकार नहीं थे तथापि घर चलाने एवं आर्थिक क्रियाकलापों में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। विवाह और संस्कारों की परंपरा विकसित हो चुकी थी। जनजातियों का वस्व साधारण होता था। पुरुष-स्त्री दोनों आभूषणप्रिय थे। स्त्रियों गोदना गुदवाने की शौकीन थीं। चावल इनका मुख्य भोज्य पदार्थ एवं हड़िया मुख्य मद्यपान था। मांस-मछली भी खाई जाती थी। विवाह सामान्यतः एकल होते थे, परंतु सगोत्र विवाह प्रतिबंधित थे। बालविवाह एवं सती प्रथा का चलन नहीं था, परंतु विवाह-विच्छेद एवं पुनर्विवाह होते थे। संथालों में निषिद्ध यौन-संबंध स्थापित होने पर विटलाहा अथवा जाति से बहिष्कृत करने की सजा दी जाती थी। कुछ जनजातियों में वधू-मूल्य की प्रथा प्रचलित थी। मुंडाओं में इसे गोनाँग तथा संथालों में पॉन (Pon) कहा जाता था। जन्म, विवाह और अंत्येष्टि सबसे प्रमुख संस्कार थे। प्रत्येक गाँव का अपना अखरा होता था जो सामाजिक गतिविधियों, मुख्यतः नृत्य का केंद्र होता था। नृत्य-संगीत जनजातीय समुदाय का जीवन था। युवक-युवतियों को नृत्य-संगीत की शिक्षा दी जाती थी। ओराँव जनजाति में धमकुरिया (Dhamkuria) नामक एक सामाजिक संस्था थी जिसमें युवक-युवतियों को रीति-रिवाजों, परंपराओं तथा नृत्य-संगीत का प्रशिक्षण मिलता था। मुंडा और असुर जनजाति में यह संस्था गिती-ओरा के नाम से जानी जाती है। आदिवासी पर्व-त्योहार धूमधाम से मनाते थे। उराँव जतरा (मेला) का उल्लासपूर्वक आयोजन करते थे। जनजातीय समाज पर गाँव के मुखिया, जिसे संथाल माँझी, ओराँव पाहन, मुंडा तथा पहाड़िया सरदार कहते हैं, का यथेष्ट प्रभाव था। आदिवासी बुरी आत्माओं और भूत-प्रेतों से भयभीत होकर वैगा अथवा ओझा की शरण लेते थे। डाइनकुरी (नजर लगाना) का अंधविश्वास भी जनजातियों में व्यापक था। संथालों का मुख्य पर्व सोहराई, ओराँवों का करमा तथा मुंडाओं का सरहुल है।
राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था-आरंभ में आदिवासियों की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था सहज थी। शासन का
विकेंद्रीकरण किया गया था। प्रशासन की आधारशिला पंचायत थी। इसका मुख्य कार्य आपसी विवादों को सुलझाना था। पंचायत पूरे गाँव की व्यवस्था देखती थी। आपसी झगड़ा सुलझाने के लिए वादी-प्रतिवादी निजी पंचायत भी बुला सकते थे। इनके पंच साधारणतः अपनी कीली से ही बनाए जाते थे। जो गाँव एक से अधिक टोला में बँटे थे उनमें टोला पंचायत भी होती थी। पंचायत पर गाँव के मुखिया का नियंत्रण रहता था। प्रत्येक जनजाति की अपनी पंचायत होती थी। मुखिया की अनुपस्थिति
में उप-प्रधान पंचायत का कार्य देखता था। संथालों में इसे परमानिक कहा जाता था। कोल्हन क्षेत्र (सिंहभूम) में 30-35 गाँवों के संयुक्त प्रधान को मानकी कहा जाता था। अनेक गाँवों को मिलाकर (5-30) परहा नामक प्रशासनिक इकाई का गठन किया जाता था। इसका प्रधान परहा राजा होता था। इस प्रकार, जनजातियों की आरंभिक प्रशासनिक-राजनीतिक संरचना गाँव,
पंचायत और मुखिया पर टिकी हुई थी। जैसे-जैसे जनजातियों का संपर्क बाहरी दुनिया से हुआ इनमें बदलाव आते गए। अनेक
कबीलाई सरदार राजा और जमींदार बन गए।
आर्थिक स्थिति-आदिवासियों की परंपरागत अर्थव्यवस्था आखेट और अस्थायी कृषि पर आश्रित थी। वे जंगलों में शिकार करते, कंद-मूल, शहद इत्यादि एकत्रित करते थे। झूम खेती (पोडू विधि) का प्रचलन था। झूम खेती में समय-समय पर जंगल का कुछ भाग काटकर उसमें आग लगा दी जाती थी जिससे जमीन समतल हो जाती थी। इसमें कुछ वर्षों तक खेती की जाती थी। बाद में इस स्थान को जंगल उगने के लिए छोड़ दिया जाता था। बाद में जंगलों को साफ कर स्थायी खेती की प्रथा आरंभ हुई। आरंभ में जमीन पर संपूर्ण गाँव या समुदाय का स्वामित्व था। परंतु, धीरे-धीरे भूमि पर निजी अधिकार की अवधारणा उत्पन्न हुई। ज्वार, बाजरा और धान की खेती मुख्य रूप से होती थी। गाय, बैल, बकरी, मुर्गी, बतख आदि पाले जाते थे। अनेक प्रकार की दस्तकारी अथवा कुटीर-उद्योग का भी प्रचलन था, जैसे पत्ता, बाँस के सामान बनाना, रस्सी बुनना इत्यादि। आदिवासी हाथीदाँत, मसालों, रबर, लाह और तसर का काम करते थे एवं इनका व्यापार भी करते थे। असुर जनजाति लोहा गलाने का भी काम करती थी। मुद्रा के स्थान पर वस्तु-विनिमय एवं कौड़ियों का प्रचलन था। गैर-आदिवासी क्षेत्रों के संपर्क में आने से अर्थव्यवस्था में परिवर्तन आया। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के विकास और शहरीकरण की प्रक्रिया के कारण जनजातीय अर्थव्यवस्था परिवर्तित हो गई।
भू-राजस्व व्यवस्था-औपनिवेशिक काल में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक परिवर्तन यह हुआ कि आदिवासी किसानों को
मालगुजारी के बोझ से लाद दिया गया। आरंभ में मालगुजारी अथवा लगान वसूली की प्रथा नहीं थी। जनजातियों का विश्वास
था कि जिन लोगों ने सबसे पहले जंगल-झाड़ साफ किया वैसी जमीन पर खेती करने का अधिकार उन्हीं का था। उस जमीन पर स्वामित्व भी उन्हीं का था। मूल रूप से भूमि को आबाद करनेवाले भूइहर या खूटकट्टीदार कहलाते थे। इनका गाँव ©टकट्टी के नाम से जाना जाता था। खूटकट्टी गाँवों में बाहर से ग्वालों, लोहारों, बुनकरों, बढ़इयों इत्यादि को बुलाकर बसाया
गया एवं उन्हें जमीन भी दी गई, क्योंकि इनके द्वारा निर्मित सामानों की आवश्यकता गाँवों में थी। जनजातीय क्षेत्रों में बाहरी
किसानों को भी बुलाकर बसाया गया जिससे कृषि का विस्तार और अधिक धन की प्राप्ति हो सके। आरंभ में भूइहर राज्य को
कर नहीं देते थे, बल्कि अवैतनिक रूप से राजा की सेवा करते थे। कुछ सैनिकों के रूप में भी कार्य करते थे। 16वीं शताब्दी से
मुगल शासकों की माँग पूरा करने के लिए किसानों पर कर लगाना आवश्यक हो गया। फलतः, भू-राजस्व प्रशासन का
विकास किया गया। कर वसूलने के लिए जागीरदार, जमींदार एवं ठेकेदार बहाल किए गए। इनके साथ-साथ व्यापारियों, साहूकारों तथा महाजनों का भी आगमन हुआ। दीवान, कानूनगो राजस्व प्रशासन देखने लगे। इनकी सहायता के लिए पुलिस और न्याय-प्रणाली विकसित की गई। इन सबों ने मिलकर किसानों का शोषण आरंभ किया। लगान नहीं देने पर उन्हें जमीन से बेदखल कर दिया गया। इस व्यवस्था ने किसानों को दरिद्र बना दिया। उनकी आवाज सुननेवाला कोई नहीं रहा।
1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, जिसके अंतर्गत बिहार और उड़ीसा भी थे, की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार) मिलने के बाद जनजातियों की स्थिति और अधिक दयनीय हो गई। कंपनी राजाओं एवं जागीरदारों पर बकाया मालगुजारी वसूलने के लिए दबाव डालने लगी। इन लोगों ने किसानों का शोषण आरंभ किया। किसानों से मनचाहा धन जबर्दस्ती वसूला जाने लगा। लगान चुकाने के लिए आदिवासी साहूकारों, सूदखोरों और महाजनों की शरण में गए जो सूद की ऊँची दर पर कर्ज देते थे। लगान अथवा कर्ज नहीं चुकाने पर किसानों की जमीन हड़प ली गई। इससे किसान भूमिहीन होकर मजदूर बन गए। अपनी इस दयनीय स्थिति को देखकर उनमें कंपनी, जमींदारों, साहूकारों तथा पुलिस प्रशासन के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई। वे गोलबंद होने लगे। परिणामस्वरूप 18वीं एवं 19वीं शताब्दियों में जनजातियों के अनेक विद्रोह हुए।
धार्मिक जीवन-जनजातियों की धार्मिक परंपराएँ एवं मान्यताएँ सरल थीं। वे प्रकृति की विभिन्न शक्तियों की पूजा करते थे।
अंधविश्वास, जादू-टोना तथा भूत-प्रेत पर भी इनका विश्वास था। संथालों का धार्मिक जीवन अनेक देवी-देवताओं तथा प्रेतात्मा
में विश्वास से जुड़ा हुआ था। कुछ विद्वानों के अनुसार, संथालों का धर्म प्रेतवाद था। वे परिवार, समाज एवं गाँव की भलाई-बुराई के लिए अपने पितर एवं देवी-देवता को उत्तरदायी मानते थे। अतः, वे इनकी पूजा और आराधना करते थे तथा उन्हें प्रसन्न करने के लिए बलि और भोग चढ़ाते थे। संथालों के सबसे बड़े देवता सिंगबोंगा (Singbonga) एवं ठाकुर (Thakur) थे।
माझीथान में इनकी पूजा की जाती थी। असुरों के भी प्रमुख देवता सिंगबोंगा या सूर्य थे। वैगा (Baiga) अथवा प्रधान पुजारी
इन्हें प्रसन्न रखने का प्रयास करता था। ओझा भूत-प्रेतों को भगाता था। डायन से मुक्ति के लिए सोखा की पूजा की जाती थी। मुंडाओं का प्रमुख देवता धर्मेश (Dharmesh) था। इनका धार्मिक प्रधान पाहन (Pahan) था। इनकी पूजास्थली सरना (Sarna) थी। हो जनजाति का प्रधान देवता सिंगबोगा ही था। ओराँवों में भगत भी होते थे जिन्हें मंत्रों का ज्ञान था। जनजातियों का पुनर्जन्म में विश्वास नहीं था। धार्मिक अनुष्ठान मोक्ष की प्राप्ति के लिए एवं वर्तमान जीवन को कष्टमुक्त बनाने के लिए
किए जाते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य की पूजा अनेक जनजातीय समुदाय करते थे। पितृसत्तात्मक समाज के अनुरूप ही
धार्मिक जीवन में देवताओं की संख्या अधिक और देवियों की कम थी। कालांतर में गैर-आदिवासियों से संपर्क होने के कारण
हिंदू, इस्लाम, सिख एवं ईसाई धर्म का प्रभाव भी जनजातियों पर पड़ा। हिंदू धर्म का प्रभाव सबसे अधिक पड़ा। परिणामस्वरूप, मंदिर, मूर्ति तथा ब्राह्मणों का महत्त्व बढ़ा। फलतः, शिव जनजातियों के महादेव वोंगा तथा पार्वती चंडी वोंगा बन गई। दुष्ट आत्माओं से मुक्ति पाने के लिए काली, दुर्गा तथा हनुमान की पूजा की जाने लगी। इससे तंत्रवाद का भी प्रभाव बढ़ा। मुंडा और ओराँव वैष्णव धर्म से विशेष रूप से प्रभावित हुए। हिंदुओं की अनेक प्रथाएँ, रीति-रिवाज एवं पर्व-त्योहार जैसे छठ व्रत, रामनवमी, अनंत पूजा, कृष्ण जन्माष्टमी जनजातियों ने भी अपना लिए। आगे चलकर जनजातियों में सामाजिक-धार्मिक एवं पुनरुत्थानवादी आंदोलन भी हुए। ईसाई धर्म का भी आदिवासियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा प्रचार और मानव-कल्याण कार्यों के अतिरिक्त अपने धर्म का भी प्रसार किया। आदिवासी धर्म और संस्कृति को निंदनीय बताकर आदिवासियों का धर्मांतरण भी करवाया। यह परंपरागत धार्मिक व्यवस्था पर कुठाराघात था। अतः, परंपरावादी आदिवासियों ने इसका विरोध किया। वन्य समाज में प्रचलित धार्मिक भावनाओं का अंगरेजों द्वारा अतिक्रमण किए जाने से क्षुब्ध होकर आदिवासियों ने अनेक विद्रोह किए।
इस प्रकार, 18वीं शताब्दी में अँगरेजी सत्ता की स्थापना के समय तक परंपरागत राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था
में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो चुके थे। जनजातियों का सुखी जीवन नष्ट हो चुका था। वे शोषण के शिकार बन चुके थे। इससे उनमें
प्रतिरोध की भावना जगी। वे गोलबंद होकर संघर्ष करने के लिए तत्पर हो गए। तत्कालीन बिहार के छोटानागपुर एवं संथाल परगना क्षेत्रों में आदिवासियों ने अंगरेजों के प्रभाव को रोकने का प्रयास किया। इसके लिए उन लोगों ने संघर्ष एवं हिंसा का मार्ग अपनाया।

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