पारिस्थितिकी
पारिस्थितिकी
पारिस्थितिकी
पारिस्थितिकी
◆ सर्वप्रथम जर्मनवासी अर्नस्ट हेकेल नामक प्राणीविज्ञान शास्त्री ने 1869 ई. में Ecology शब्द का प्रयोग ‘Ockologic’ के रूप में किया । यह शब्द दो ग्रीक शब्दों Oikas house=घर तथा Logos study= अध्ययन से मिलकर बना है। Eclology को हिन्दी में पारिस्थितिकी कहते हैं।
◆ पारिस्थितिकी को सर्वप्रथम परिभाषित करने और विस्तृत अध्ययन करने का श्रेय भी अर्नस्ट हेकेल को ही प्राप्त है। इस प्रकार अर्नस्ट हेके को पारिस्थितिकि के जनक की संज्ञा दी गयी है।
◆ अर्नस्ट हेकेल के अनुसार जीव समुदायों ( Biotic Communities) का उसके वातावरण (Environment) के साथ पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते हैं।
पारिस्थितिकी कारक
◆ पारिस्थितिकी में दो कारक होते हैं- जैविक और अजैविक ।
◆ जैविक कारक (Biotic Factors) : वातावरण में विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु रहते हैं। प्रत्येक जीव का किसी दूसरे जीव से सम्बन्ध अवश्य होता है। ये सम्बन्ध मुख्यतः निम्न प्रकार के होते हैं –
(i) सहजीवन ( Symbiosis) : इसमें दो जीवों का परस्पर लाभकारी सम्बन्ध होता है। जैसेकवक और शैवाल मिलकर लाइकेन (Lichen) बनाते हैं।
(ii) मृतोपजीविता (Saprophytism) : कुछ जीव सड़े-गले पदार्थों पर आश्रित रहते हैं। जैसेकवक, नीयोरिया आदि।
(iii) परभक्षण (Predation) : एक जीव दूसरे जीव का पूरी तरह से भक्षण कर लेता है। जैसेजूफैगस और आर्थोवोट्रीस।
(iv) परजीविका (Parasitism) : एक जीव हमेशा दूसरे जीव पर आश्रित रहता है और उसे हानि पहुँचाता है। जैसे- कवक, जीवाणु, विषाणु आदि ।
(v) सहभोजिता ( Commensalism) : इस सम्बन्ध में एक जीव को हानि-लाभ नहीं होता, जबकि दूसरा जीव लाभ में रहता है। जैसे- अधिपादप (Epiphytes)।
◆ अजैविक कारक (Abiotic Factors) : पारिस्थितिकी के अजैविक कारकों में निम्न घटक शामिल हैं –
(i) प्रकाश (Light) : प्रकाश एक महत्त्वपूर्ण जलवायवीय कारक है। प्रकाश के द्वारा पौधे प्रकाश संश्लेषण विधि से अपना भोजन बनाते हैं। जंतु- समुदाय भोजन के लिए पौधों पर निर्भर होता है। प्रकाश के गुण, मात्रा तथा अवधि का प्रभाव पौधों पर पड़ता है। नीले रंग के प्रकाश में प्रकाश संश्लेषण कम तथा लाल रंग में सबसे अधिक होता है। । प्रकाश की अवधि (Photo period) के आधार पर पौधों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
(a) दीर्घ प्रकाशीय पौधे (Long-day Plants) : यथा – हेनबेन एवं पालक ।
(b) अल्पप्रकाशीय पौधे (Short-day Plants) : यथा – सोयाबीन एवं तंबाकू आदि।
(c) प्रकाश उदासीन पौधे (Day Neutral Plants) : यथा – सूर्यमुखी, कपास, टमाटर, मिर्च।
(ii) ताप ( Temperatur) : ताप का प्रभाव जीवों की रचना, क्रियाओं तथा प्रजनन पर पड़ता है। ताप के बदलने के कारण पौधों की दैनिक क्रिया पर प्रभाव पड़ता है। जैविक क्रिया के लिए औसतन 10°C से 45°C तक ताप आवश्यक होता है। ताप के कारण पौधों में होने वाली अनुक्रियाएँ तापकालिता (Thermoperiodism) कहलाती है।
(iii) आर्द्रता (Humidity) : वायुमंडल में जलवाष्प उपस्थित होने के कारण वायु नम रहती है। आर्द्रता का सम्बन्ध वाष्पोत्सर्जन से होता है। यदि आर्द्रता कम है तो वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है।
(iv) वायु (Wind) : वायु एक महत्त्वपूर्ण कारक है। इसका प्रभाव मुख्य रूप से भूमि – अपरदन, पौधों को मोड़ना, परागण एवं बीजों का प्रकीर्णन इत्यादि पर पड़ता है।
(v) भू-आकृतिक ( Topogrophic) : इसके अंतर्गत किसी स्थल की ऊँचाई, भूमि का ढलान तथा खुला होने का प्रभाव तथा वनस्पतियों पर होने वाले बदलाव के बारे में अध्ययन करते हैं।
(iv) मृदीय (Edophic) : सभी वनस्पतियाँ मृदा संरचना, मृदा वायु एवं मृदा जल इत्यादि से प्रभावित होती हैं। मृदा का संघटन है –
(a) मृदा जल (Soil Water )-25%
(b) मृदा वायु (Soil Air)-25%
(c) खनिज पदार्थ (Mineral Matter)-40%
(d) ह्यूमस (Humas or Organic Matter ) – 10%
पारिस्थितिकी तन्त्र
◆ किसी स्थान पर पाये जाने वाले किसी जीव समुदाय का वातावरण से तथा अन्य जैविक समुदायों से परस्पर सम्बन्ध है। इस पारस्परिक सम्बन्ध को पारिस्थितिकी तन्त्र (Ecosystem) कहते हैं।
◆ पारिस्थितिकी तन्त्र शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ए. जी. टेन्सले ( A.G. Tenssley) ने 1935 ई. में किया था।
◆ पारिस्थितिकी तन्त्र दो प्रकार का होता है –
(i) प्राकृतिक : जैसे- वन, मरुस्थल, तालाब, टुंड्रा इत्यादि ।
(ii) कृत्रिम : मनुष्य द्वारा निर्मित जैसे- बगीचा, फसल, पार्क इत्यादि।
पारिस्थितिकी तन्त्र के घटक
◆ पारिस्थितिकी तन्त्र में दो मुख्य घटक होते हैं- 1. जैविक घटक (Biotic Components) 2. अजैविक घटक (Abiotic Components)।
1. जैविक घटक (Biotic Components) : पादपों और जन्तुओं को मिलकार जैविक घटक बनते हैं। यह तीन प्रकार के होते हैं
(i) उत्पादक (Producers ) : ये पौधें होते हैं और सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पर्णहरिम की सहायता से खाद्य पदार्थ बनाते हैं।
(ii) उपभोक्ता (Consumers) : इसके अन्तर्गत विविधपोषी (Heterotrophic) जीव आते हैं। ये पौधों पर आश्रित रहते हैं। इन्हें मुख्यतः तीन वर्गों में बाँटते हैं
(a) प्राथमिक उपभोक्ता : ये शाकाहारी (Herbivores) होते हैं क्योंकि सिर्फ पौधों पर ही आश्रित रहते हैं। जैसे- गाय, भेड़, बकरी, खरगोश, चूहा, कीड़े-मकोड़े इत्यादि ।
(b) द्वितीयक उपभोक्ता : ये वे मांसाहारी (Cornivorous) हैं, जो प्राथमिक उपभोक्ता जंतुओं को अपना भोजन बनाते हैं। जैसे- चूहा का बिल्ली द्वारा, हिरण का भेड़िया द्वारा खाया जाना इत्यादि। ये शाकाहारी भी होते हैं।
(c) तृतीयक उपभोक्ता : इसमें वे जन्तु आते हैं, जो द्वितीयक उपभोक्ता को खाते हैं अर्थात् ये केवल मांसाहारी होते हैं। जैसे- मेढक का साँप द्वारा खाया जाना, शेर इत्यादि इस श्रेणी में आते हैं।
(iii) अपघटन कर्ता ( Decomposers ) : इस श्रेणी में जीवाणु तथा कवक आते हैं जो सभी प्रकार के उपभोक्ताओं तथा उत्पादकों को अपघटित करके वायुमंडल में अकार्बनिक तत्त्वों के रूप में विसर्जित कर देते हैं ।
2. अजैविक घटक (Abiotic Components) : इसके अन्तर्गत प्रकाश, ताप, आर्द्रता, हवा, भूमि, पर्वत इत्यादि आते हैं। किसी भी स्थान पर जीवों का निवास इन्हीं कारकों पर निर्भर करता है। अजैविक घटक को मुख्यतः तीन घटकों में बाँटा गया है –
(i) अकार्बनिक घटक (Inorganic Components) : इसके अन्तर्गत जल, विभिन्न प्रकार के लवण जैसे- कैल्शियम (Ca), पोटैशियम (K), मैगनीशियम (Mg), फॉस्फोरस (P), नाइट्रोजन (N2) तथा सल्फर (S) आदि तथा वायु की गैसें जैसेऑक्सीजन (O2), नाइट्रोजन (N2), कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), हाइड्रोजन (H2) तथा अमोनिया (NH3) आदि सम्मिलित हैं।
(ii) कार्बनिक घटक (Organic Components) : इसके अन्तर्गत मृत पौधों एवं जन्तुओं के कार्बनिक यौगिक जैसे- प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेटस तथा वसा और उनके अपघटन द्वारा उत्पादित उत्पाद जैसे यूरिया व ह्यूमस आदि आते हैं। अपघटन की क्रिया मृतोपजीवी कवकों व जीवाणुओं द्वारा होती है। इनके द्वारा मृत जीवधारियों का कुछ भाग अकार्बनिक रूप में परिणत हो जाता है। ये पदार्थ पुनः हरे पौधे द्वारा ग्रहण कर लिए जाते हैं। इस प्रकार ये जैविक एवं अजैविक घटकों में सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
(iii) भौतिक घटक (Physical Components) : इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के जलवायुवीय कारक जैसे- प्रकाश, ताप, हवा व विद्युत आदि आते हैं। इन भौतिक घटकों में सूर्य-ऊर्जा मुख्य है, जो हरे पौधों के पर्णहरिम द्वारा विकिरण ऊर्जा के रूप में ली जाती है। पौधे इस ऊर्जा को कार्बनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं, जो कार्बनिक अणुओं के रूप में संचित रहती है। यही वह ऊर्जा है जो सम्पूर्ण जीवों में संचरित होती है और इसी के द्वारा पृथ्वी पर जीवन सम्भव है।