प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा | F-3
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F-3 प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. शिशु विहार का क्या अर्थ है?
उत्तर―शिशु-विहार का अर्थ–फ्रोवेल ने बचपन के महत्व को महसूस किया और
1839 में ब्लैकनबरन नामक स्थान पर 4 से 6 वर्ष तक के बच्चों के लिए प्रथम ‘शिशु-विहार’
शिक्षा केंद्र खोला। जर्मन में इसका नाम किंडरगार्टन है जिसका अर्थ है ‘शिशुओं का बाग’।
फ्रोबेल ने स्कूल को बाग की, शिक्षक को माली की तथा बच्चों को पौधों की संज्ञा दी। एक
माली की भांति अध्यापक का कार्य है नन्हें पौधों की देख-भाल करना और उन्हें सुंदर तथा
पूर्ण बनाने के लिए जल से सींचना। फ्रोबेल ने बच्चों को फूलों की उपमा दी। उसका विश्वास
था कि विकास और उन्नति के क्रम में बच्चे और फूल एक समान है। पौधे का विकास
उसके भीतरी बीज के अनुसार होता है। उसी प्रकार बच्चे का विकास भी उसके भीतर से
ही होता है वह अपनी प्रवृत्तियों और भावनाओं को अपने अंतर्मन से ही प्रस्फुटित करता है।
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प्रश्न 2. घर के वातावरण बच्चों के विकास को किस प्रकार प्रभावित करता है,
समझाइए।
उत्तर―घर का वातावरण–पारिवारिक वातावरण कई रूपों में बालक के विकास को
प्रभावित करता है, जैसे-माता-पिता के आपसी सम्बन्ध, बालक-अभिभावक सम्बन्ध, परिवार
में बालक को स्थिति, परिवार का आकार, बाल-पोषण की विधियाँ आदि।
यदि परिवार का आन्तरिक वातावरण अच्छा होता है, बालक का पालन-पोषण उचित
ढंग से किया जाता है, सीखने के उचित अवसर प्रदान किए जाते हैं, सभी बालकों के साथ
सम्मान व्यवहार किया जाता है, बालक-बालिका में अन्तर नहीं समझा जाता है वहाँ बालकों
का बिकास सभी क्षेत्रों में सामान्य ढंग से होता है। इसके विपरीत जिन परिवारों में माता-पिता
में जिनकी तनाव रहता है, बालकों का पालन-पोषण उचित ढंग से नहीं किया जाता है, सभी
बच्चों के साथ समान व्यवहार नहीं किया जाता है, उन्हें सीखने के पर्याप्त अवसर प्रदान
नहीं किए जाते हैं वहाँ बालकों का विकास विभिन्न क्षेत्रों में सामान्य ढंग से नहीं होता है।
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प्रश्न 3. पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य बताएँ।
उत्तर―शिक्षा आयोग 1964-66 के विचार में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य निम्न है―
(i) स्वस्थ आदतें डालना―बच्चे में अच्छी स्वस्थ आदतें डालना और व्यक्तिगत
अनुकूल के लिए जरूरी बुनियादी योग्यता पैदा करना, जैसे पोशाक, नहाने-धोने की आदतें,
खाना, सफाई आदि।
(i) वांछनीय सामाजिक अभिवृत्तियों का विकास–वांछनीय सामाजिक अभिवृत्तियाँ
और शिष्यचार विकसित करना और स्वस्थ सामूहिक भागीदारी को प्रोत्साहित करना, जिससे
बच्चा दूसरों के अधिकारों और विशेषाधिकारों के प्रति सजग रह सके।
(iii) अनुभूतियों और संवेगों के विकास के लिए मार्गदर्शन―बच्चे की अपनी
अनुभूतियों और संवेगों को अभिव्यक्त करने, समझने, मारने और नियंत्रित करने में मार्ग-दर्शन
देकर संवेगों के मामले में क्षमता को विकसित करना।
(iv) सौंदर्य-बोध―सौंदर्य-बोध को जगाना।
(v) आपस की दुनिया समझने में मदद करना―परिवेश के बारे में बौद्धिक जिज्ञासा
की शुरूआत को प्रेरित करना और आसपास की उसकी दुनिया को समझने में उसकी मदद
करना, खोज, पड़ताल तथा प्रयोग के अवसरों के जरिए नई अभिरुचियां पल्लवित करना।
(vi) आत्म अभिव्यक्ति को प्रोत्साहन―बच्चे को आत्माभिव्यक्ति के काफी अवसर
देकर स्वतंत्रता और सृजनशीलता के लिए प्रोत्साहित करना।
(vii) भाषा का विकास बच्चे में अपने विचार और भावनाओं को धारावाहिक, शुद्ध
और स्पष्ट भाषा में व्यक्त करने की योग्यता को विकसित करना।
(viii) शारीरिक विकास तथा निपुणता-बच्चे में अच्छा शरीर गठन करना, पर्याप्त
मांसपेशी समन्वय एवं बुनियादी अंग चलान में निपुणता विकसित करना।
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प्रश्न 4. पाठ्यक्रम के सर्वांगीण विकास के सिद्धान्त को समझाइए।
उत्तर―सर्वागीण विकास का सिद्धांत—पाठ्यक्रम में वे सब विषय व क्रियाएँ सम्मिलित
होनी चाहिए जिनसे बच्चे का सर्वांगीण विकास हो। पाठ्यक्रम में बच्चे के शारीरिक, बौद्धिक,
सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास संबंधी ज्ञान देने के लिए विभिन्न विषयों का समावेश
होना चाहिए ताकि बच्चे के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास हो।
यद्यपि पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय हमें उपरिलिखित सिद्धांतों को ध्यान में रखना
चाहिए लेकिन आज के संदर्भ में देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक आवश्यकताएँ क्या
हैं और वह ‘बच्चा’ जिसके विकास के लिए पाठ्यक्रम बनाया जा रहा है, उसकी क्या
आवश्यकताएँ, रुचियाँ व योग्यताएँ हैं, इस पहलू पर विशेष ध्यान देना चाहिए। शिक्षा सामाजिक
लक्ष्यों को प्राप्त करने, बच्चे के सर्वांगीण विकास तथा सामाजिक परिवर्तन का एक साधन
है.और पाठ्यक्रम उस साधन को प्राप्त करने का एक माध्यम है। इसलिए पाठ्यक्रम ऐसा
होना चाहिए जो देश की वर्तमान समस्याओं को हल करने में सहायक सिद्ध हो तथा बच्चे
की शैक्षिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करे।
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प्रश्न 5. बच्चों के पाठ्यक्रम की मुख्य विशेषताओं की चर्चा करें।
उत्तर–पाठ्यक्रम की मुख्य विशेषताएँ—पाठ्यक्रम केवल पाठ्य-विवरण ही नहीं,
अपितु बच्चे के बहुमुखी व्यक्तित्व को विकसित करने का एक माध्यम हैं इसका उद्देश्य व्यक्तित्व
के सभी पहलुओं-बौद्धिक, शारीरिक सामाजिक, भावनात्मक, नैतिक और आध्यात्मिकता का
विकास करना है। इसलिए उसमें निम्न विशेषताएं होनी चाहिए :
(i) विद्यार्थी के चरित्र निर्माण पर बल।
(ii) सबको समान शैक्षिक अवसर।
(iii) श्रम से संबंध और उधमशीलता।
(iv) विविध स्तरों पर पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए न्यूनतम राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा।
(v) शिक्षा के स्तर को निरंतर सुधारने के लिए सहायक तकनीकी व्यवस्था।
(vi) शैक्षिक कार्यक्रमों द्वारा एकता को प्रोत्साहन।
(vii) विविध ज्ञानार्जन की विधियों से आगे के शिक्षण और प्रशिक्षण में प्रगति के लिए
विद्यार्थियों को गतिशीलता।
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प्रश्न 6. यालवाड़ी पोषण कार्यक्रम क्या है?
उत्तर―बालवाड़ी पोषण कार्यक्रम―बालबाड़ी पोषण कार्यक्रम-परिषद् द्वारा 19 राज्यों
और केंद्र शोषित प्रदेशों में लगभग 100 बालवाड़ी पोषण कार्यक्रम के अंतर्गत 3-5 वर्ष के
उम्र के बच्चों को पूर्ण पोषण दिया जाता है जो उनके दैनिक पोषण के 2/4 भाग की पूर्ति
करता है। इसके अतिरिक्त बालवाड़ियों शिक्षा से संबंधित क्रियाएँ आयोजित की जाती हैं।
यालवाड़ी के माध्यम से शाला पूर्व बच्चों की मनोरंजन शिक्षा तथा स्वास्थ्य संबंधित जरूरतों
की पूर्ति के लिए प्रयास किया जाता है। एक प्रशिक्षित बाल सेविका और एक सहायक बालवाड़ी
में 40 बच्चों को संभालते हैं बालवाड़ी में एक वर्ष में 270 दिन और लगभग तीन-चार घंटे
तक गतिविधि चलती है।
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प्रश्न 7. पूर्व प्राथमिक अथवा प्रारंभिक बाल्यावस्था में देखभाल एवं शिक्षा संबंधी
कार्यक्रम बतावें।
उत्तर―ई.सी.सी.ई. (Early Childhood Care and Education)―इस समय इस
क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण परियोजना है “समेकित बाल विकास सेवाएँ’ (Integrated Child
Development Services)। इन सेवाओं में बाल विकास संबंधी निम्नलिखित सेवाएँ हैं―
(i) प्रसव-पूर्वदेखभाल।
(ii) नवजात शिशु की देखभाल।
(iii) दूध पिलाने के दौरान देखभाल।
(iv) बच्चे को सही बालाहार देने की सही प्रक्रिया।
(v) रोग प्रतिरोधन।
(vi) बाल देखभाल में माता-पिता की शिक्षा।
(vii) स्कूल-पूर्व शिक्षा के माध्यम से प्रारंभिक बाल्यावस्था का विकास।
(viii) स्वास्थ्य और पोषाहार सहायता।
इस समय ये सेवाएँ 0-6 वर्ष के कुल बच्चों के 10 प्रतिशत को ही प्राप्त हैं प्रयास किए
जाएंगे कि 2000 ई. तक ये सेवाएं 70% बच्चों को प्राप्त हों। साधनों को ध्यान में रखते हुए
आवश्यकता के अनुसार कोई भी मौड्यूल अपनाया जा सकता है।
प्रश्न 8. मोड्यूल-आँगनवाड़ी से क्या समझते हैं?
अथवा, बाल्यावस्था के विकासात्मक संकृत्य को बतावें।
उत्तर―700 से 1000 तक की जनसंख्या के लिए एक आंगनवाड़ी (बिखरे हुए जनसंख्या
के क्षेत्र में 300 की आबादी), एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और एक सहायक आंगनवाड़ी
कार्यकर्ताओं के लिए 3 महीने की प्रारंभिक, समेकित प्रशिक्षण, दो वर्ष में एक बार आंगनवाड़ी
कार्यकर्ताओं का पुनाचार्य प्रशिक्षण। सहायक (हैल्पर) के लिए अल्पकालीन अनुस्थान, मोडैस्ट,
इंप्रोवाइज्ड प्रतिदिन लगभग 4 घंटे कार्य। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और हैल्पर द्वारा अवैतनिक कार्य
(कार्य के घंटों के अनुरूप पारिश्रमिक होगा। 15-20 आंगनवाड़ियों के लिए एक सुपरवाईजर
(जनसंख्या पर निर्भर करते हुए); पूरक पोषाहार की समेकित सेवाएँ, स्वास्थ्य निरीक्षण, रोग़
प्रशिक्षण, मेडिकल संबंधी समुचित चिकित्सा/स्वास्थ्य केंद्र। बाल सुरक्षा में पूर्व स्कूल शिक्षा
माताओं की शिक्षा। आंगनवाड़ी स्तर पर माताओं और बच्चों को प्रारंभिक स्वास्थ्य सेवा,
अवस्थापना सेवाएँ उपलब्ध की जाएंगी। स्वास्थ्य निरीक्षण रोग प्रशिक्षण, आयरन और फोलिक
एसिड विटामिन ए. बंधियाकरण डिलीवरी किटें सप्लाई करना, स्वास्थ्य शिक्षा और परिवार
नियोजन सलाह प्रसवोत्तर और प्रसवोपूर्व सुरक्षा, आम बिमारी के इलाज का उपचार, जोखिमनुमा
मामलों को प्रारंभिक स्वास्थ्य केंद्र को भेजना।
बाल्यावस्था के विकासात्मक संकृत्य―इस अवधि में किये जाने प्रमुख संकृत्य इस
प्रकार हैं। ये काफी महत्वपूर्ण होते हैं :
(i) बातचीत करना सीखना।
(ii) शारीरिक गन्दगियों को नियंत्रित करना सीखना।
(iii) यौन भिन्नता तथा लैंगिक मर्यादा सीखना।
(iv) दैहिक स्थायित्व का अधिगम।
(v) सामाजिक एवं भौतिक वास्तविकताओं के बारे में सामान्य अवधारणा सीखना।
(vi) अभिभावकों, मित्रों तथा अन्य लोगों के साथ भावनात्मक लगाव सीखना।
(vii) गलत तथा सही का अन्तर सीखना एवं अन्तःकरण विकसित करना।
प्रश्न 9. वृद्धि और विकास की तुलना करें।
उत्तर―अभिवृद्धि और विकास की तुलना निम्न प्रकार की गयी है :
अभिवृद्धि विकास
1. जीवन पर्यन्त वृद्धि नहीं होती। एक 1. विकास का अर्थ जीवन पर्यन्त एक
निश्चित आयु के लगभग रुक जाती व्यवस्थित और लगातार आने वाला
है। परिवर्तन है।
2. परिपक्व अवस्था प्राप्त होते ही 2. विकास कभी भी नहीं रुकता। परिपक्वता
अभिवृद्धि रुक जाती है। की अवस्था प्राप्त होने पर भी विकास
नहीं रुकता।
3. अभिवृद्धि का सम्बन्ध शारीरिक तथा 3. विकास वातावरण से भी सम्बन्धित
मानसिक परिपक्वता से है। होता है।
4. मात्रात्मक पहलू में परिवर्तन अभिवृद्धि 4. यह मात्रात्मक पहलुओं का नहीं
के क्षेत्र में आता है। बल्कि गुणवत्ता और स्वरूप के
परिवर्तन का संकेत देता है।
5. अभिवृद्धि में व्यक्तिगत भेद होते हैं। 5. विकास की दर, सीमा में अन्तर होते
प्रत्येक बालक की वृद्धि समान नहीं हुए भी, इसमें समानता पायी जाती है।
होती।
6. अभिवृद्धि के साथ विकास हो भी 6. अभिवृद्धि के बिना विकास हो सकता
सकता है। एक बाल का भार व है। कुछ बालकों के कद, भार या आकार
मोटापा बढ़ने के साथ यह आवश्यक में वृद्धि न होने पर भी वे भौतिक,
नहीं है कि वह किसी कार्यात्मक सामाजिक, भावात्मक या बौद्धिक पहलुओं
परिष्कार को प्राप्त कर ले। में विशेष कार्यानुभव वाले हो सकते हैं।
प्रश्न 10. प्रारम्भिक बाल्यावस्था के चारित्रिक विकास किस प्रकार से होता
है?
उत्तर―प्रारम्भिक बाल्यावस्था में चारित्रिक विकास― बालक जब 2/½ वर्ष का हो
जाता है तो वह अपनी इच्छाओं से भी कुछ क्रियाएँ करने लगता है। बच्चा इस आयु में जो
कुछ अच्छा-बुरा सोचता है, वह अपने स्वार्थ के लिए सोचता है। किन्तु 3 वर्ष का होते-होते
वह अपने अधिकारों के साथ दूसरों के अधिकारों को भी समझने लगता है। वह यह जान
जाता है कि उसकी प्रत्येक बात उसको इच्छानुसार ही पूर्ण नहीं हो सकती है। दूसरों की इच्छा
का भी महत्व है। अब उसकी प्रत्येक क्रिया में यह प्रयास रहता है कि वह सामाजिक मान्यता
के अनुरूप हो। वह इस प्रकार के कार्यों में रुचि लेता है जिसमें उसको दूसरों से शाबाशी
मिलती है और उन कार्यों को करने से स्वयं को रोकता है जिनको दूसरे व्यक्ति पसन्द नहीं
करते हैं अथवा जिनके कारण उनको शरारती कहा जाता है। इस आयु में पश्चाताप की भावना
उसके अन्दर नहीं आती है। इस अवस्था में बालक को ईमानदारी का अर्थ मालूम नहीं होता
है, न उसका झूठ बोलने का कोई इरादा होता है। वास्तविकता या अवास्तविकता में उसको
भेद मालूम नहीं होता है। वह काल्पनिक जगत में विचरण करता है। अत: इस आयु में भी
उसका चारित्रिक विकास वास्तविक तथ्यों के आधार पर नहीं होता है।
प्रश्न 11. निरन्तरता के सिद्धान्त को बताएँ।
उत्तर—मानव विकास एक सतत् प्रक्रिया है जो जन्म से मृत्यु तक निरन्तर चलती रहती
है तथा उसमें कोई भी विकास आकस्मिक ढंग से नहीं होता, धीरे-धीरे होता। स्किनर के
अनुसार विकास प्रक्रियाओं को निरन्तरता का सिद्धांत केवल इस तथ्य पर बल देता है कि
व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता। उदाहरणार्थ, मनुष्य की शारीरिक अभिवृद्धि
आयु बढ़ने के साथ-साथ धीरे-धीरे बढ़ती है, एकदम नहीं और परिपक्वता प्राप्त करने के
बाद रुक जाती है तथा जहाँ तक मनोशारीरिक क्रिया-अनुक्रियाओं की बात है उसमें निरन्तर
परिवर्तन होता रहता है। इन परिवर्तनों में प्रगतिशील ऊर्ध्वगामी परिवर्तनों को विकास कहा जाता
है यह भी एकदम नहीं होता, जैसे-जैसे नए अनुभव होते हैं, वैसे-वैसे नई प्रतिक्रियाएँ होने
लगती हैं, उनमें विकास होता रहता है।
प्रश्न 12. फ्रोबेल के अनुसार खेल के महत्त्व को बताएँ।
उत्तर―फ्रोबेल के अनुसार, “बच्चे के विकास का सर्वोत्तम रूप खेल ही है। सक्रियात्मक
होता है तथा अन्त:करण का वास्तविक प्रतिनिधित्व करता है। यह प्रसन्नता तथा संतोष प्रदान
करता है, आन्तरिक और बाहरी आराम होता है।”
खेल की विशेषताएँ:
(i) खेल स्वतंत्र होते हैं। वास्तव में यह स्वतंत्रता है।
(ii) खेल ‘साधारण’ या वास्तवक जीवन नहीं होते।
(iii) खेल ‘साधारण जीवन’ से भिन्न होते हैं।
(iv) खेल ‘व्यवस्था’ पैदा करते हैं, खेल के लिए ‘व्यवस्था’ चाहिए।
(v) खेल का सम्बन्ध किसी भौतिक रुचि से नहीं होता तथा इनमें से कोई ‘लाभ’ भी
उठाया नहीं जा सकता।
(vi) खेल एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
(vii) यह एक आत्म-प्रेरित शारीरिक मानसिक क्रिया है।
(viii) खेल शारीरिक या मानसिक क्रिया है।
(ix) यह स्वयं में पूर्ण होती है।
(x) खेल बच्चों में स्फूर्ति और चंचलता पैदा करते हैं।
(xi) बच्चे खेल की अन्तिम परिणाम पर कोई विचार नहीं करते।
(xii) खेल का कोई गुप्त लक्ष्य नहीं होता। केवल प्रत्यक्ष लक्ष्य होते हैं।
(xiii) खेल का मुख्य लक्ष्य आनन्द और स्वतंत्रता की प्राप्ति होती है।
(xiv) खेल को जन्मजात प्रवृत्ति माना है लेकिन यह सही नहीं है क्योंकि खेल सीखने
और वातावरण पर आधारित है।
प्रश्न 13. समावेशी शिक्षा की क्या आवश्यकता है?
उत्तर―समावेशी शिक्षा के निम्नलिखित आवश्यकता है:
(i) विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ मुख्यधारा में लाने का
प्रयास 1970 ई० के दशक में प्रारम्भ हुआ। जब कोठारी आयोग (1964-66 ई०) ने एकीकृत
शिक्षा की व्यवस्था की। एकीकृत शिक्षा व्यवस्था के साथ इन विशेष आवश्यकता वाले बच्चों
को पूरी तरह से समाज ने स्वीकार नहीं किया और ये मुख्यधारा से जुड़कर भी समाज से
कट गए। इन सब कमियों को देखते हुए समावेशी शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया।
(ii) आज समावेशी शिक्षा के दायरे में सिर्फ विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ही नहीं
अपितु वंचित वर्ग के बच्चे भी आने लगे हैं और समावेशी शिक्षा का दायरा बढ़ गया है।
(iii) समावेशी शिक्षा व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दृष्टि से एक अनिवार्य
आवश्यकता यन गई है जिससे समाज में व्याप्त भेदभावों तथा असमानताओं को दूर किया जा सकता है।
(iv) शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाये जाने के बाद केन्द्र तथा राज्य सरकारों
का यह दायित्व है कि वे 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को शिक्षा प्रदान करें। यह दायित्व
तभी पूरा हो सकता है जब विशेष आवश्यकता वाले बच्चे तथा वंचित वर्ग के बच्चे भी शिक्षा
के दायरे में शामिल हों।
(v) देश की खुशहाली के लिए विकास एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। देश का स्थायी
विकास तभी हो सकता है जब उसमें देश के सभी नागरिकों की समुचित सहभागिता हो।
समावेशी शिक्षा सभी नागरिकों की क्षमता एवं संभावनाओं को आगे बढ़ाने का प्रयास करती
हुई प्रतीत होती है जिससे कि सम्पूर्ण देश का विकास सुनिश्चित किया जा सके।
(vi) समावेशी शिक्षा की आवश्यकता सबसे अधिक बच्चों के व्यक्तिगत विकास तथा
उनमें अपनी क्षमताओं के बारे में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए हैं। यह बच्चों के व्यक्तिगत
गुणों को पहचानकर उन्हें इन गुणों को पूरी तरह से विकसित करने के अवसर देने में
विश्वास रखती है।
(vii) समावेशी शिक्षा विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को शिक्षित करने एवं संवेदनशील
बनाने में सबसे अनिवार्य है। ऐसे बच्चों के जन्म लेने के साथ ही उनके परिवारों में घोर
निराशा घर कर जाती है। प्रायः ऐसे परिवार प्रारम्भ से ही इन विशेष आवश्यकता वाले बच्चों
को हीनदृष्टि से देखने लगते हैं। विद्यालयों में सामान्य बच्चों के साथ अपने बच्चों को शिक्षित
होते हुए देखकर ऐसे परिवार के लोगों को सांत्वना तथा आत्म विश्वास प्राप्त होता है। उन्हें
लगता है कि उनके बच्चे भी भविष्य में आत्मनिर्भर बनकर प्रगति कर सकते हैं।
प्रश्न 14. खेल-कूद के दौरान बच्चों में सृजनात्मक एवं कल्पनात्मक शक्ति का
विकास किस प्रकार से होता है?
उत्तर―खेलकूद के दौरान बच्चों को कल्पना और सृजनशीलता विकसित करने के अनेक
अवसर मिलते हैं। काल्पनिक या नाटकीय खेलों में बच्चे अपनी कल्पनाशक्ति का भरपूर प्रयोग
करते हैं। पुलिस और चोर, डाक्टर-मरीज, शिक्षक-छात्र आदि खेल खेलते हैं। एक पल के
लिए बच्चा डाक्टर बनता है तो दूसरे पल वह मरीज का अभिनय कर रहा होता है।
काल्पनिक अभिनय के माध्यम से बच्चा विभिन्न चरित्रों का अभिनय करता है जिससे
उसकी मौलिक अभिव्यक्ति में सुधार होता है। वह व्यक्तियों और वस्तुओं के बीच नये सम्बन्धों
के बारे में सीखता है। खेलते समय बच्चा अपने आसपास उपलब्ध वस्तुओं को उलट-पुलट
कर देखता है। अपनी इच्छानुसार उन्हें तोड़ने-मोड़ने, बदलने, चलाने-फिराने की कोशिश करता
है और इन सबसे नई वस्तुओं का सृजन कर डालता है। यह सब उसकी सृजनात्मकता के
विकास में सहायक होता है। वह मिट्टी, रद्दी सामान और कागज वगैरह से नई चीजें बनाना
सीखता रहता है।
प्रश्न 15. बाल सेविका प्रशिक्षण पाठ्यक्रम को समझाइए।
उत्तर―इस कार्यक्रम द्वारा वर्ष 1961 में बाल सेविका प्रशिक्षण पाठ्यक्रम कार्यकर्ताओं
को आवश्यक निपुणता प्रदान करने के लिए तैयार किया गया है इस कार्यक्रम की पाठ्यचर्चा
को योजना इस प्रकार बनाई गई है कि वह बाल विकास के सब पहलू पर प्रकाश डालता
है। यह ग्यारह महीने का कार्यक्रम है और इसमें अनौपचारिक-शालापूर्व शिक्षा, स्वास्थ्य और
इन कार्यकर्ताओं को सामाजिक सेवा तथा समुदाय के साथ कार्य करने के लिए व्यावहारिक
प्रशिक्षण भी दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान यह कार्यकर्ता सहायक सामग्री का एक सेट
तैयार करते हैं इस सामग्री को फिर बाल सेविका प्रशिक्षित कार्यक्रम का रूप दिया जाता है।
इनका प्रयोग बाल सेविका देखभाल केंद्रों में बच्चों के साथ कर सकती हैं।
प्रश्न 16. व्यक्तिगत अध्ययन विधि के महत्व को बताएँ।
उत्तर–व्यक्तिगत अध्ययन विधि में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त हुई जानकारियों के आधार
पर बच्चे के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। इसके आधार
पर उसके व्यवहार सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। व्यक्तिगत अध्ययन का
महत्व निम्न शीर्षकों के अंतर्गत जाना जा सकता है―
(i) बच्चे के आचरण की जानकारी–व्यक्तिगत अध्ययन विधि से बच्चे के व्यक्तित्व
के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला जा सकता है तथा उसके आचरण की व्याख्या की
जा सकती है। इन जानकारियों के आधार पर बच्चे के व्यवहार सम्बन्धी कई समस्याओं का
हल ढूँढा जा सकता है।
(ii) बच्चे के उत्तम समायोजन करने में सहायता―व्यक्तिगत अध्ययन में बच्चे और
उसकी समस्याओं के सम्बन्ध में ऐसी जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है जिसे
अधिक उत्तम समायोजन करने में सहायता देने के लिए आधार के रूप में प्रयोग किया जा
सकता है। इन सूचनाओं के आधार पर बच्चे का इस ढंग से मार्गदर्शन किया जाता है कि
वह विभिन्न वातावरण में उचित ढंग से समायोजन कर सके।
(iii) बच्चे के समायोजन में सुधार लाने में सहायक―व्यक्तिगत अध्ययन से हमें किसी
भी बच्चे के व्यक्तित्व की विस्तृत जानकारी मिलती है। इस अध्ययन से हमें बच्चे के व्यवहार
या अधिगम की समस्याओं के कारणों का पता लगता है। इससे हम अध्ययन किए जाने वाले
बच्चे के समायोजन में सुधार ला सकते हैं।
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