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भौगोलिक खोजों के परिणाम

भौगोलिक खोजों के परिणाम

भौगोलिक खोजों के परिणाम

(i) व्यापार-वाणिज्य का विकास
(ii) मुद्रा-व्यवस्था का विकास
(iii) व्यापारिक नगरों का उत्कर्ष
(iv) नई व्यापारिक शक्तियों का उदय
(v) बैंकिंग व्यवस्था का विकास
(vi) बहुमूल्य धातुओं का आयात
(vii) वाणिज्यवाद का विकास
(viii) उपनिवेशवाद का विकास
(ix) ईसाई धर्म एवं पश्चिमी सभ्यता का प्रसार
(x) दास-व्यापार
(xi) व्यापारिक माल के स्वरूप में परिवर्तन
(xii) भौगोलिक ज्ञान में वृद्धि
(xiii) प्रचलित भ्रांतियों का अंत
(xiv) अन्य महत्त्वपूर्ण परिणाम
15वीं एवं 16वीं शताब्दियों की भौगोलिक खोजों ने एक नए विश्व की रूपरेखा तैयार कर दी। अब पश्चिम और पूरब का
सांस्कृतिक एवं व्यापारिक संपर्क बढ़ा। इससे व्यापार-वाणिज्य का विकास हुआ। पूर्वी देशों में यूरोपीय बाजार एवं बस्तियाँ
बसने लगीं। पूर्वी व्यापार यूरोपियनों के लिए अत्यंत लाभदायक था। अतः, यूरोपीय राष्ट्रों में पूरब से व्यापार करने की होड़ लग गई। भौगोलिक खोजों के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण परिणाम हुए-
(i) व्यापार-वाणिज्य का विकास-भौगोलिक खोजों के परिणामस्वरूप व्यापार-वाणिज्य में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई।
नए देशों की जानकारी के पहले यूरोपीय व्यापार मुख्य रूप से भूमध्यसागर और बाल्टिक सागर-क्षेत्र से ही होता था। अब इसका क्षेत्र विस्तृत हो गया। व्यापार-वाणिज्य अटलांटिक, हिंद और प्रशांत महासागर क्षेत्र से भी होने लगा। स्थानीय और सीमित व्यापार वैश्विक रूप में परिवर्तित होने लगा।
(ii) मुद्रा-व्यवस्था का विकास-व्यापार-वाणिज्य के विकास ने मुद्रा-व्यवस्था को प्रोत्साहन दिया। मुद्रा-व्यवस्था के प्रचलन से
व्यापार में सुविधा हुई। प्रत्येक देश अपनी मानक मुद्रा जारी करने लगा। धातु मुद्रा के अतिरिक्त हुंडी, ऋणपत्र इत्यादि भी मुद्रा
के रूप में प्रचलन में आए।
(iii) व्यापारिक नगरों का उत्कर्ष-व्यापार-वाणिज्य के विकास के कारण अनेक व्यापारिक नगरों का उदय हुआ। इन नगरों में व्यापारी एकत्रित होकर सामानों की खरीद-बिक्री करते थे। अब भूमध्यसागरीय व्यापारिक नगरों जेनेवा और वेनिस का महत्त्व घट गया। उनका स्थान पेरिस, लंदन, लिस्बन, लिवरपूल, ब्रिस्टल, एम्सटरडम, एंटवर्प इत्यादि ने ले लिया। ये नगर और बंदरगाह व्यापारिक गतिविधियों से जीवंत हो गए।
(iv) नई व्यापारिक शक्तियों का उदय-भौगोलिक खोजों और व्यापार-वाणिज्य के विकास ने यूरोपीय व्यापार पर इटली का
एकाधिकार समाप्त कर दिया। इटली के स्थान पर अब स्पेन, पुर्तगाल, इंगलैंड और फ्रांस ने यूरोपीय व्यापार पर अपना
वर्चस्व स्थापित कर लिया। इनके द्वारा स्थापित उपनिवेशों से इनके व्यापार-वाणिज्य का विकास हुआ।
(v) बैंकिंग व्यवस्था का विकास-व्यापार के विकास ने बैंकिंग व्यवस्था को भी बढ़ावा दिया। व्यापारी अपना धन इन बैंकों में
सुरक्षित रखने लगे। आवश्यकतानुसार वे इनसे ऋण लेकर अपने व्यापार का विकास भी करने लगे। 15वीं एवं 16वीं
शताब्दियों में फ्लोरेंस के मेडिसी परिवार की बैंकिंग अथवा महाजनी में प्रमुख भूमिका थी। जेनेवा और अन्य नगरों में भी
बैंकों की स्थापना की गई।
(vi) बहुमूल्य धातुओं का आयात-नए देशों की खोज के पूर्व यूरोप में कीमती धातुओं-सोना-चाँदी की कमी थी, परंतु नए
देशों की खोज ने इस कमी को पूरा कर दिया। ‘नई दुनिया’ से आनेवाले सोना-चाँदी ने यूरोपीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान
की। सोलहवीं शताब्दी में मेक्सिको और पेरू से इतनी अधिक चाँदी आई कि लगभग 80 वर्षों तक यूरोपीय अर्थव्यवस्था चाँदी पर निर्भर रही। इससे मुद्रास्फीति हुई और कीमतों में वृद्धि हुई।
(vii) वाणिज्यवाद का विकास-बदलती परिस्थितियों में वाणिज्यवाद का भी विकास हुआ। विश्वव्यापी व्यापार के विकास ने
पूँजीवाद को जन्म दिया। इसमें महाजन घरानों की प्रमुख भूमिका थी। पूँजीवाद ने कीमती धातुओं के संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ा दी।
अमेरिका, एशिया और अफ्रीका से सोना-चाँदी की लूट आरंभ हो गई। इन्हें सुरक्षित रखा जाने लगा। स्पेन इस दिशा में अग्रणी था।
(viii) उपनिवेशवाद का विकास-भौगोलिक खोजों का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम हुआ उपनिवेशवाद का जन्म और विकास।
व्यापारिक कंपनियों के माध्यम से संगठित व्यापार का विकास कर यूरोपीय राष्ट्रों में उपनिवेश स्थापित करने की होड़ लग गई।
इंगलैंड, हॉलैंड, फ्रांस, पुर्तगाल और स्पेन ऐसे राष्ट्रों में प्रमुख एशिया, अमेरिका, अफ्रीका, हिंदचीन और अन्य स्थानों में इनके
उपनिवेश स्थापित हुए। उदाहरण के लिए, भारत में 1498 में पुर्तगाली, 1600 में अँगरेज, 1602 में डच और 1664 में फ्रांसीसी
आए। इनलोगों ने अपनी व्यापारिक कोठियाँ (कंपनियाँ) स्थापित कर यूरोपीय व्यापार का विकास किया। इन उपनिवेशों के आर्थिक संसाधनों का दोहन कर उनकी अर्थव्यवस्था पर अधिकार कर धन कमाया गया। बाद में उपनिवेशों की शासन-व्यवस्था पर भी अधिकार कर लिया गया। अतः, उपनिवेशवाद ने साम्राज्यवाद को भी जन्म दिया। इससे भी यूरोपीय राष्ट्रों में प्रतिस्पर्धा बढ़ी।
(ix) ईसाई धर्म एवं पश्चिमी सभ्यता का प्रसार-उपनिवेशों के माध्यम से यूरोपीय राष्ट्रों ने ईसाई धर्म एवं पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति का प्रसार किया। उपनिवेशों में ईसाई धर्म का प्रचार किया गया। इससे ईसाई धर्म के प्रचार में गति आई। एशिया, अफ्रीका एवं अमेरिका में ईसाई धर्म का प्रभाव बढ़ा। धर्मप्रचार के साथ-साथ धन देकर एवं धर्मांतरण करवा कर भी ईसाई धर्म का प्रचार किया गया। इसकी प्रतिक्रिया भी उपनिवेशों में हुई। यूरोपवालों ने उपनिवेशों की परंपरागत सभ्यता-संस्कृति पर अतिक्रमण कर यूरोपीय सभ्यता-संस्कृति को थोपने का भी प्रयास किया। साथ ही, ईसाई धर्म के व्यापक प्रचार से रोमन चर्च की प्रभुसत्ता कमजोर हुई तथा धर्मसुधार का मार्ग प्रशस्त हुआ।
(x) दास-व्यापार-भौगोलिक खोजों और व्यापार-वाणिज्य के विकास ने मानव श्रम का महत्त्व बढ़ा दिया। इसकी आपूर्ति के
लिए नए खोजे गए देशों जैसे अमेरिका, अफ्रीका के मूल निवासियों को गुलाम बनाकर यूरोपीय बाजारों में बेचा गया।
लिस्बन दास-व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र था। उपनिवेशवाद के विकास के साथ दास-व्यापार बढ़ता गया। इन दासों पर
अमानुषिक अत्याचार किए जाते थे। इनसे कठिन परिश्रम करवाया जाता था। औपनिवेशिक शक्तियों ने इन दासों का शोषण कर अपनी अर्थव्यवस्था विकसित की।
(xi) व्यापारिक माल के स्वरूप में परिवर्तन-पहले व्यापार में मुख्यतः स्थानीय वस्तुओं की खरीद-बिक्री की जाती थी, परंतु
अब विभिन्न देशों की बहुमूल्य वस्तुओं एवं खाद्य पदार्थों का भी व्यापार किया जाने लगा। भारत के कपड़े और मसाले, अफ्रीका
का मोती, अमेरिका के नारियल का व्यापार होने लगा। कहवा, चाय, गन्ना, मक्का, आलू, तंबाकू, नील जैसे सामान यूरोप के
बाजारों में पहुँचे। इसी प्रकार, भारत और अन्य पूर्वी देशों में यूरोप से चाय, कॉफी, तंबाकू और आलू का आयात हुआ।
भारतीय फल आम और गन्ना अन्य देशों में पहुंचे।
(xii) भौगोलिक ज्ञान में वृद्धि-भौगोलिक खोजों ने भौगोलिक ज्ञान में वृद्धि की। नए देशों एवं समुद्री मार्ग का पता लगा। इससे
विस्तृत दुनिया की जानकारी मिली।
(xiii) प्रचलित भ्रांतियों का अंत-मध्यकालीन अंधकार युग में चर्च के प्रभाव से समुद्री यात्रा को लेकर अनेक भ्रांतियाँ थीं। नई
खोजों ने इन भ्रांतियों को मिटा दिया। इससे रोमन चर्च का प्रभाव कमजोर हुआ। धर्मसुधार आंदोलन द्वारा चर्च के दकियानूसी
विचारों पर नियंत्रण लग गया।
(xiv) अन्य महत्त्वपूर्ण परिणाम-भौगोलिक खोजों के अन्य महत्त्वपूर्ण परिणाम भी हुए। जहाजरानी का विकास हुआ। नक्शा,
कंपास, दूरबीन जैसे यंत्रों का आविष्कार हुआ और उपयोग बढ़ा। इससे समुद्री यात्रा सरल हो गई। इन आविष्कारों के परिणामस्वरूप वैज्ञानिकों एवं विद्वानों का एक नया सामाजिक वर्ग सामने आया। पुनर्जागरण में इस वर्ग की प्रमुख भूमिका थी।
भौगोलिक खोजों के परिणामस्वरूप सामाजिक स्तर पर व्यापारियों, कारीगरों और मध्यम वर्ग का भी महत्त्व बढ़ा।
भौगोलिक खोजों का महत्त्व
भौगोलिक खोजें विश्व इतिहास की युगांतकारी घटना हैं। इनसे आधुनिक युग का आगमन हुआ। भौगोलिक खोजों और समुद्री
यात्राओं में यूरोपीय देश अग्रणी थे। अतः, विश्व पर वे अपना वर्चस्व स्थापित कर सके। प्राचीन और मध्यकाल में यूरोप और
एशिया में व्यापारिक संबंध थे, परंतु विश्व के अनेक भाग जैसे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तथा एशिया के अनेक भाग अज्ञात
थे। यूरोपीय यात्रियों के विवरणों से यूरोपवालों को भारत, चीन और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के विषय में जानकारी मिली।
पुर्तगाली यात्री मार्कोपोलो ने विजयनगर साम्राज्य और चीन के कुबलई खान ने पूरब के वैभव से यूरोपवासियों को परिचित
कराया था, परंतु भौगोलिक खोजों के बाद ही इन देशों से अधिक घनिष्ठ संबंध बने। इस प्रकार, भौगोलिक खोजों ने अंधकार युग का अंत कर आधुनिक युग के आगमन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। पूरब और पश्चिम का सांस्कृतिक एवं व्यापारिक संबंध बढ़ा। वैश्विक अर्थव्यवस्था की शुरुआत हुई। साथ ही, पूँजीवाद, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का भी विकास हुआ। यूरोप का प्रभाव शेष विश्व पर बढ़ गया।
स्मरणीय
• अंधकार युग की अवधारणा-मध्यकाल में यूरोप अंधकार युग में था।
• सामंतवाद और रोमन कैथोलिक चर्च की प्रतिगामी नीतियाँ इसके लिए उत्तरदायी थीं।
• आधुनिक युग का प्रादुर्भाव-पुनर्जागरण और धर्मसुधार आंदोलन ने यूरोप में आधुनिक युग का आगमन कर दिया।
• नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों ने भौगोलिक खोजों को बढ़ावा दिया।
• भौगोलिक खोज और विस्तार-भौगोलिक खोज में स्पेन और पुर्तगाल के नाविक अग्रणी थे। 1492 में कोलम्बस ने वेस्ट इंडीज, अमेरिगो वेस्पुस्सी ने अमेरिकी महाद्वीप तथा 1498 में वास्कोडिगामा ने भारत की खोज की।
• भौगोलिक खोजों के परिणाम-भौगोलिक खोजों के परिणामस्वरूप व्यापार-वाणिज्य का विकास हुआ, दास-व्यापार आरंभ हुआ तथा उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का विकास हुआ।

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