1848 की क्रांतियाँ
1848 की क्रांतियाँ
1848 की क्रांतियाँ
फ्रांस , इटली , जर्मनी , ऑस्ट्रिया , हंगरी , बोहेमिया , पोलैंड
1830 के बाद 1848 में यूरोप के अनेक राष्ट्रों में पुन: क्रांतियाँ हुईं। 1830 की क्रांतियों ने प्रतिक्रियावादी तत्त्वों को दुर्बल तो कर दिया था, परंतु उनका प्रभाव पूर्णरूपेण समाप्त नहीं हो सका था। 1830 के बाद यूरोप में महत्त्वपूर्ण सामाजिक- आर्थिक परिवर्तन हुए। शासन पर मध्यम वर्ग का प्रभाव बढ़ा, परंतु सर्वसाधारण वर्ग जिसमें बहुसंख्यक कृषक और श्रमिक थे, सत्ता से अलग रखे गए। अत:, उनमें असंतोष बढ़ रहा था। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप समाज में पूँजीपति और श्रमिक वर्ग
एक-दूसरे के सामने आ गए। समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होकर बहुसंख्यक गरीब और किसान-मजदूर संघर्ष के लिए उतारू हो गए। जनसंख्या में वृद्धि होने से बेरोजगारी बढ़ी। कीमतें भी बढ़ गईं। इससे गरीब वर्ग बुरी तरह प्रभावित हुआ। इतिहासकार और बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद के सिद्धांत का अनवरत प्रसार कर रहे थे, परंतु वे उदारवादी थे। क्रांति में उनकी आस्था थी, परंतु उग्रवाद में नहीं। फ्रांस के लामार्टिन, इटली के मेजिनी और हंगरी के लेजोस कोसूथ, जर्मनी में डालमेन जैसे लेखकों एवं चिंतकों ने राष्ट्रीय आंदोलनों के लिए वातावरण तैयार किया। 1846 में आए आर्थिक संकट ने क्रांतिकारी आंदोलनों को गति दी।
फ्रांस-1830 की क्रांति के बाद लुई फिलिप फ्रांस का राजा बना। आरंभ में उसने उदारवादी और ‘स्वर्णिम मध्यम वर्गीय नीति’
अपनाई। इस समय फ्रांस में समाजवादी विचारधारा का प्रसार हो रहा था। सेंट साइमन, चार्ल्स फूरिए और लुई ब्लों जैसे दार्शनिक श्रमिकों के हितों की सुरक्षा की माँग कर रहे थे। लुई फिलिप इसके लिए तैयार नहीं था। 1840 में उसने गीजो को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। गीजो प्रतिक्रियावादी था। वह किसी भी प्रकार के सुधार का विरोधी था। इससे जनता में असंतोष व्याप्त हो गया। लुई पूँजीपति वर्ग का हिमायती था। इससे जनता का आक्रोश बढ़ा। खाद्यान्न की कमी और बढ़ती बेरोजगारी ने समस्या को और विकट बना दिया। लुई और उसकी सरकार की आलोचना होने लगी। लोग उसकी सरकार को धनिकों की, धनिकों के लिए और धनिकों के द्वारा संचालित कहने लगे। इस स्थिति की ओर राजा का ध्यान आकृष्ट करने के लिए सुधारवादी दल के नेता थियर्स ने 22 फरवरी 1848 को पेरिस में एक विशाल सुधार भोज का आयोजन किया। लुई ने इसपर रोक लगा दी। पेरिस में एकत्रित लोगों ने एक समूह में इकट्ठा होकर सुधारों की माँग करते हुए पेरिस की गलियों में जुलूस निकाला। सरकार और राजशाही के विरोध में नारे लगाए गए। लुई फिलिप विद्रोह की व्यापकता से घबड़ा उठा। उसने गीजो को बर्खास्त कर सुधार लागू करने की घोषणा की। अगले ही दिन उत्तेजित जनता पर पुलिस ने गोली चला दी। इसमें अनेक व्यक्ति मारे गए। इनके शवों को लेकर पेरिस में प्रदर्शन किया गया। क्रोधित जनता ने राजमहल को घेर लिया। फिलिप को किसी से भी सहायता नहीं मिली। विवश होकर 24 फरवरी को वह राजगद्दी छोड़कर इंगलैंड भाग गया।
राजा के भागने के बाद क्रांतिकारियों ने फ्रांस में द्वितीय गणराज्य की स्थापना की। शासन चलाने के लिए एक अस्थायी सरकार की स्थापना की गई। नई व्यवस्था के अनुरूप 21 वर्ष से अधिक आयु के सभी वयस्क पुरुषों को मताधिकार मिला। उन्हें
रोजगार की गारंटी भी दी गई। मजदूरों को काम दिलाने के लिए राष्ट्रीय कारखाने खोले गए। उन्हें बेकारी भत्ता भी दिया गया। इन कार्यों से श्रमिकों की स्थिति में विशेष सुधार नहीं आया। उनका असंतोष बना रहा। जून में श्रमिकों का व्यापक विद्रोह हुआ जिसे सरकार ने दबा दिया। गणतंत्रवादियों का नेता लामार्टिन तथा सुधारवादियों का लुई ब्लॉ था। इन दोनों में मतभेद आरंभ हो गया। अतः, नवंबर में द्वितीय गणराज्य का नया संविधान बना। इसके अनुसार, कार्यकारिणी का प्रधान जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति को बनाया गया। लुई नेपोलियन गणतंत्र का राष्ट्रपति बना। 1848 की क्रांति के परिणामस्वरूप फ्रांस में एक नए प्रकार के राष्ट्रवाद का उत्थान हुआ जिसका आधार सैनिक शक्ति था। 1852 में नेपोलियन ने गणतंत्र को समाप्त कर दिया और स्वयं फ्रांस का सम्राट बन गया। गणतंत्रवादियों की पराजय हुई और राजतंत्र विजयी हुआ।
इटली-1848 की क्रांति की लपटें इटली में भी पहुँची। इटली के क्रांतिकारी एकीकरण की भावना से प्रेरित होकर कार्य कर रहे थे। मेजिनी, कावूर, गैरीबाल्डी जैसे राष्ट्रवादी इटली के छोटे-छोटे और बिखरे राज्यों का एकीकरण कर एकीकृत इटली का निर्माण करना चाहते थे। वे वियना काँग्रेस द्वारा की गई व्यवस्था और मेटरनिक की प्रतिक्रियावादी नीतियों का विरोध कर रहे थे। 1848 में इतालवी राज्यों में विद्रोह की चिनगारी सुलग उठी। मिलान और पोप के राज्य में विद्रोह हो गया। सार्डिनिया-पिडमौंट के राजा चार्ल्स एलबर्ट ने मार्च के महीने में एक उदारवादी संविधान की घोषणा की तथा इटली के राष्ट्रवादियों से मिलकर ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर दिया। कुछ समय के लिए लोम्बार्डी और वेनेशिया से ऑस्ट्रिया का आधिपत्य समाप्त हो गया। परंतु, यह अस्थायी विजय थी।
जर्मनी-1848 में जर्मनी में भी क्रांति हुई। मेटरनिक के पतन की सूचना से उत्साहित होकर राष्ट्रवादियों ने जर्मनी के विभिन्न भागों में विद्रोह किए। प्रशा के राजा फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ ने वैधानिक शासन की स्थापना की। बवेरिया के राजा को गद्दी छोड़नी पड़ी। वहाँ भी वैधानिक शासन लागू किया गया। सैक्सनी और हनोवर के शासकों ने भी उदारवादी संविधानों की घोषणा की। 18 मई 1848 को सर्व-जर्मन नेशनल असेंबली के निर्वाचित सदस्यों ने फ्रैंकफर्ट संसद का गठन किया। संसद ने संपूर्ण जर्मन राष्ट्र के लिए एक संविधान का प्रारूप तैयार किया। इसके अनुसार, शासन का प्रधान एक संवैधानिक राजा को होना था। संसद ने फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ को जर्मनी का ताज दिया, परंतु उसने इसे अस्वीकार कर दिया। विलियम उन राजाओं के साथ हो गया जो निर्वाचित संसद के विरोधी थे। संसद में कुलीनों और सैनिकों ने भी विरोध प्रकट किया। मध्यम
वर्ग ने श्रमिकों की माँगों का विरोध किया। इस अंत:कलह में फ्रैंकफर्ट संसद को भंग करना पड़ गया। जर्मनी के एकीकरण का प्रयास विफल हो गया।
ऑस्ट्रिया-1848 की क्रांतियों में इटली और जर्मनी में केंद्राभिमुखी शक्तियों को बढ़ावा मिला, परंतु ऑस्ट्रिया साम्राज्य में केंद्र से विमुख होने की प्रवृत्ति बढ़ी। ऑस्ट्रिया प्रतिक्रियावादी शक्तियों का केंद्र था। उसकी निरंकुशता के विरोध में जनता उठ खड़ी हुई। मेटरनिक को ऑस्ट्रिया छोड़कर भागना पड़ा। इसके साथ ही संपूर्ण मेटरनिक-व्यवस्था ध्वस्त हो गई। ऑस्ट्रियाई सम्राट फर्डिनेंड को उदारवादी संविधान लागू करना पड़ा।
हंगरी-हंगरी ऑस्ट्रियाई साम्राज्य के अधीन था। 1848 में ऑस्ट्रिया के साथ हंगरी में भी क्रांति हुई। हंगरी में राष्ट्रवादी भावना को विकसित करने में कोसूथ और फ्रांसिस डिक का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कोसूथ लोकतांत्रिक विचारधारा का समर्थक था। वह वर्गविहीन समाज की स्थापना करना चाहता था। 1848 में फ्रांस में लुई फिलिप के पतन से उत्साहित होकर कोसूथ ने संवैधानिक सुधारों की माँग की तथा एक सशक्त आंदोलन चलाया। बाध्य होकर ऑस्ट्रिया को हंगरी में अनेक संवैधानिक सुधार लागू करने पड़े। मार्च 1848 में हंगरी के लिए अलग मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गई जिसमें सिर्फ हंगरी के नागरिकों को ही स्थान दिया गया। हंगरी में राष्ट्रीय सुरक्षा सेना का गठन किया गया। सामंती व्यवस्था समाप्त कर दी गई। प्रेस को स्वतंत्रता दी गई। एक प्रतिनिधि सभा अथवा डायट का गठन किया गया। इसकी बैठक प्रत्येक वर्ष राजधानी बुडापेस्ट में बुलाई जानी थी। इन परिवर्तनों द्वारा हंगरी पर से ऑस्ट्रियाई प्रभाव समाप्त कर उसे राष्ट्रीय दर्जा दिया गया।
बोहेमिया-हंगरी के समान बोहेमिया भी ऑस्ट्रियाई साम्राज्य के अधीन था। 1848 के घटनाक्रम का प्रभाव बोहेमिया पर भी पड़ा। वहाँ भी स्वायत्त शासन की मांग उठाई गई। बोहेमिया की बहुसंख्यक जनता चेक प्रजाति की थी। ऑस्ट्रिया ने बोहेमिया में प्रशासनिक स्वायत्तता देने की माँग मान ली, परंतु आंदोलन के हिंसात्मक होने के कारण इसे कुचल दिया गया।
पोलैंड-पोलैंड पर रूस का प्रभाव था। निरंकुश जारशाही के विरुद्ध 1830 में वहाँ विद्रोह हुआ था जिसे दबा दिया गया। 1848 में पुनः विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। क्रांतिकारियों की सहायता न तो इंगलैंड ने की और न ही फ्रांस ने। अतः, रूस ने पोलैंड की क्रांति को कुचल दिया। यद्यपि 1848 में उदारवादी-राष्ट्रवादी ताकतों की पूरी विजय नहीं हुई, प्रतिक्रियावादी तत्त्वों ने उन्हें दबा दिया, परंतु शासकों को यह बात समझ में आ गई कि उदारवादी-राष्ट्रवादी शक्तियों को संवैधानिक सुविधाएँ देकर ही क्रांतियों पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता था। इसलिए, मध्य और पूर्वी यूरोप के शासकों ने उदारवादी कदम उठाए। हैप्सबर्ग राजवंश द्वारा शासित क्षेत्रों और रूस में भू-दासत्व और बेगारी की प्रथा समाप्त कर दी गई। हंगरी में अधिक
स्वायत्तता दी गई, परंतु इससे मैग्यार जाति का प्रभुत्व बढ़ा।
1830-48 की क्रांतियों की सामान्य विशेषताएँ-इस अवधि में यूरोप में जहाँ भी क्रांतियाँ हुईं उनमें एकसमान बात यह थी कि सभी क्रांतिकारी प्रतिक्रियावादी और निरंकुश शासन की समाप्ति चाहते थे। वे उदारवाद और राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित थे। राष्ट्र उनके लिए सर्वोपरि था, व्यक्ति नहीं। इसी प्रकार, वे वैधानिक शासन की भी माँग कर रहे थे। इटली और जर्मनी के क्रांतिकारी क्रांति द्वारा एकीकृत राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे। अन्य स्थानों में निरंकुशवाद से स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा मुख्य मुद्दा बन गया।
राष्ट्रवाद के प्रभाव-18वीं-19वीं शताब्दियों में यूरोप में जिस राष्ट्रवाद की लहर चली उसके व्यापक और विश्वव्यापी प्रभाव हुए। (i) राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर अनेक राष्ट्रों में क्रांतियों और आंदोलन हुए।
राष्ट्रवाद के प्रभाव
♦ नए राष्ट्रों का उदय
♦ एशिया -अफ्रीका के उपनिवेशों पर प्रभाव
♦ भारत पर प्रभाव
♦ भारतीय धर्मसुधार आंदोलन के नेताओं पर प्रभाव
♦ निरंकुश और प्रतिक्रियावादी शक्तियों का प्रभाव कमजोर होना
♦ संकीर्ण राष्ट्रवाद का उदय
♦ साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा
इनके परिणामस्वरूप, अनेक नए राष्ट्रों का उदय हुआ। इटली और जर्मनी के एकीकृत राष्ट्र का उदय भी इसी का परिणाम था। (ii) यूरोपीय राष्ट्रवाद के विकास का प्रभाव एशिया और अफ्रीका पर भी पड़ा। यूरोपीय उपनिवेशों के आधिपत्य के विरुद्ध वहाँ भी औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय आंदोलन आरंभ हो गए। (iii) भारतीय राष्ट्रवादी भी यूरोपीय राष्ट्रवाद से प्रभावित हुए। मैसूर के टीपू सुलतान ने फ्रांसीसी क्रांति से प्रभावित होकर जैकोबिन क्लब की स्थापना की एवं स्वयं इसका
सदस्य भी बना। उसने अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम में स्वतंत्रता का प्रतीक वृक्ष लगवाया। उसने अनवरत अँगरेजों से संघर्ष किया। (iv) धर्मसुधार आंदोलन के भारतीय नेताओं ने भी राष्ट्रवादी भावनाओं से प्रभावित होकर राष्ट्रीय आंदोलनों को अपना समर्थन दिया तथा राष्ट्रीय चेतना को जगाने का प्रयास आरंभ कर दिया। राजा राममोहन राय अंतरराष्ट्रीयता के समर्थक बन गए। उन्होंने 1821 की नेपल्स की क्रांति की विफलता पर निराशा प्रकट की, परंतु 1823 की स्पेनिश आंदोलन की सफलता पर हर्ष प्रकट किया। 1857 के विद्रोह के बाद भारत में राष्ट्रीयता की भावना बलवती हुई। (v) राष्ट्रवाद के विकास ने प्रतिक्रियावादी शक्तियों और निरंकुश शासकों का प्रभाव कमजोर कर दिया। (vi) राष्ट्रवाद का नकारात्मक प्रभाव भी पड़ा। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से राष्ट्रवाद ‘संकीर्ण राष्ट्रवाद’ में बदल गया। अत:, प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हित की दुहाई देकर उचित-अनुचित सब कार्य करने लगा। (vii) राष्ट्रवादी प्रवृत्ति ने साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। यूरोप का प्रत्येक शक्तिशाली
राष्ट्र, यथा-जर्मनी, फ्रांस, इंगलैंड, रूस, यहाँ तक कि अमेरिका भी साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी दौड़ में संलग्न हो गया। इस प्रवृत्ति ने अंतत: प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। इस प्रकार, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की भावना ने यूरोप के साथ-साथ संपूर्ण विश्व पर प्रभाव डाला। इससे विश्व के राजनीतिक मानचित्र में परिवर्तन आया।