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1905 की रूसी क्रांति के कारण

1905 की रूसी क्रांति के कारण

1905 की रूसी क्रांति के कारण

रूसी क्रांति 1905 क्रांति के कारण, 1905 ki rusi kranti ke karan 1905 की रूसी क्रांति के लिए जो परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं, उनका विवरण है –

रूस का औद्योगिक विकास 

रूसी जार अलेक्जेण्डर तृतीय (1881-94 ई.) का शासन निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी होते हुए भी उसके शासन काल में रूस का औद्योगिक विकास पर्याप्त हुआ । जिसके फलस्वरूप रूस में कई कल-कारखाने स्थापित किये गये । इन कल-कारखानों में कार्य करने के लिए गाँव-गाँव से मजदूर काफी तादात में जा पहुँचे । अभी तक ये मजदूर गाँव में पृथक-पृथक कृषि कार्य में संलग्न रहते थे और दूर-दूर अपनी-अपनी झोपड़ियाँ बना कर रहते थे । लेकिन अब वे कारखानों में साथ-साथ कार्य करने लगे और एक साथ मजदूर कालोनियों में निवास करने लगे । जिसके परिणामस्वरूप उनमें परस्पर एकता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ ।

औद्योगीकरण का एक परिणाम यह भी सामने आया कि रूस में नगरों एवं शहरों की संख्या में वृद्धि हुई । शहरी वातावरण का सीधा प्रभाव मजदूर कालोनियों पर पड़ा, जिससे मजदूर वर्ग में जागरूकता आ गयी और वे अपने अधिकारों को समझने लगे । इसलिए वे अपने शोषण के विरूद्ध और अपने अधिकारों को पाने के लिए सोचने लगे । जब इन मजदूर कालोनियों में समाजवादी नेताओं द्वारा समाजवादी सिद्धांतों का प्रचार किया गया, तब वे राजनीतिक अधिकारों की माँग शुरू कर दी । लेकिन जब जार द्वारा इनकी माँगों को पूरा नहीं किया गया, तो रूस में क्रांति की स्थिति निर्मित हो गयी ।

इस प्रकार जैसा कि इतिहासकार हेजेन लिखते हैं कि “अलेक्जेण्डर तृतीय ने परोक्ष रूप से अपने सुधारों द्वारा रूस में उन शक्तियों को जन्म दिया, जो अन्तत: तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हुई।”

निरंकुश जारशाही

रूस में राजतंत्रीय शासन व्यवस्था थी । यहाँ के जार निरंकुशता के उपासक थे। वे दैवी अधिकार के सिद्धान्त पर विश्वास करते थे । अलेक्जेण्डर तृतीय घोर निरंकुश था । उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र निकोलस द्वितीय सिंहासनारूढ़ हुआ। तब रूसी जनता ने नये जार से शासन में सुधार की आशा की । लेकिन उसकी आशाओं में शीघ्र ही तुषारापात हो गया । क्योंकि निकोलस द्वितीय ने राज्याभिषेक के दिन घोषित किया कि “मैं एकतन्त्र स्वेच्छाचारी शासन के सिद्धान्तों का उसी दृढ़ता के साथ अनुसरण करूँगा, जैसे कि मेरे पूर्वज करते आये हैं ।”

निकोलस निरंकुश होने के साथ-साथ दुर्बल प्रकृति और अनिश्चित स्वभाव का भी था। उस पर उसकी पत्नी जरीना का अत्यधिक प्रभाव था । इसके अतिरिक्त रासपुटिन नामक पादरी, प्रतिक्रियावादी पोबीदोनोस्टेव तथा प्लेहव का भी प्रभाव था । ऐसे लोगों की सलाह पर शासन चलाने का परिणाम यह हुआ कि पूरे रूसी प्रशासन में प्रतिक्रिया के बादल छा गये । निकोलस प्रतिनिधि सभाओं के सुझावों को मूर्खतापूर्ण स्वप्न कहा करता था। उसने जनता पर असहनीय करों का बोझ लाद दिया। प्रेसों में सेंसर लगा दिया। शिक्षण संस्थाओं को गुप्तचरों से भर दिया। किसी का जीवन सुरक्षित नहीं था। किसी को कभी भी जेल में डाला जा सकता था या साइबेरिया के ठंडे उजाड़ प्रदेश में निर्वासित किया जा सकता था। इन परिस्थितियों में जनता का असंतोष तीव्र होने लगा, जो आगे चलकर क्रांति के रूप में प्रस्फुटित हुआ ।

रूसी जातियों पर अत्याचार

इस समय रूस में अ-रूसी जातियों जैसे पोल, फिन, यहूदी आदि निवास करती थीं। यें जातियाँ अपनी सभ्यता-संस्कृति के प्रति अत्यधिक कट्टर थीं और स्वतंत्र होने के लिए प्रयत्नशील थीं । जबकि जार इनका रूसीकरण करना चाहता था । इन अ-रूसी जातियों ने जार के इस मनसूबे के विरूद्ध विरोध का झण्डा खड़ा किया, जिसका जार ने बड़ी निरंकुशता के साथ दमन करना शुरू किया । इससे रूस में अ-रूसी जातियों के कारण जारशाही के विरूद्ध असंतोष और व्यापक हो गया, जो रूसी क्रांति की अनिवार्यता को बलवती बनाया ।

बौद्धिक क्रांति

किसी भी क्रांति के लिए देश में बौद्धिक जागरण का होना नितान्त आवश्यक है। इसके बिना राजनितिक क्रांति संभव नहीं हो सकती और यदि होती भी है तो वह प्राय: असफल हो जाती है ।

रूस में क्रांति के पूर्व विद्वानों एवं लेखकों ने जार के विरूद्ध अनेंक पुस्तकें लिखकर प्रचार किया तथा जनता में जागरूकता पैदा की । ऐसे लेखकों में टाल्स्टाय, मेक्सिम गोर्की, एवं दास्तावेस्की का नाम विशेष उल्लेखनीय है । इन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों से जनता को निरंकुश जारशाही के विरूद्ध प्रेरित किया । इसी समय बहुत से रूसी नवयुवक भी विदेशों से शिक्षा प्राप्त कर वापस अपने देश लौटे, जो जार के दैवी सिद्धांत को मानने के लिए तैयार न थे और इन्होंने अपने देश में उदार सरकार स्थापित करने का प्रयत्न किया। अपने “लिबरेशन” नामक समाचार पत्र के माध्यम से निरंकुश जारशाही के विरूद्ध पुरजोर प्रचार किया । 1904 ई. में इन्होंने ‘यूनियन आफ लिबरेटर्स’ नामक संस्था की स्थापना करके अपने कार्य को और गति प्रदान की । जिससे रूस में सर्वत्र निरंकुश जारशाही के विरूद्ध वातावरण निर्मित होता चला गया, जो अन्तत: क्रांति के रूप में उदीयमान हुआ ।

रूस में विभिन्न राजनीतिक दलो का अभ्युदय

इस समय रूस में राजनीतिक परिस्थितियाँ काफी तेजी से परिवर्तित हो रहीं थी। उसी समय कार्ल माक्र्स के सिद्धांतों का प्रचार भी तीव्र गति से हो रहा था। निहिलिस्ट पार्टी पुन: अपनी शक्ति को संगठित करने में संलग्न थी । अराजकतावादी पार्टी और सोसल डमोक्रेटिक पार्टी की भी स्थापना हो गयी । अराजकतावादी पार्टी ने नारा दिया कि “देश को सरकार की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह जनता का दमन करती है ।”
सोसल डमोक्रेटिक पार्टी के सदस्य मुख्यत: किसान और मजदूर थे । कालान्तर में यह पार्टी बोल्शेविक एवं मेन्शेविक पार्टियों में विभाजित हो गयी । यद्यपि इन सभी राजनीतिक पार्टियों के सिद्धांत परस्पर भिन्न-भिन्न थे, लेकिन इन सभी का एक ही उद्देश्य था कि जार के शासन का अंत करके रूस में जनतंत्रात्मक सरकार की स्थापना की जाय ।
अत: यें सभी राजनीतिक पार्टियाँ सामूहिक रूप से मजदूरों को जारशाही शासन के विरूद्ध भड़काना शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप रूस में क्रांति की स्थिति निर्मित हो सकी।

रूस-जापान युद्ध (1904-05 ई.)

इस युद्ध में जापान जैसे छोटे देश से रूस बुरी तरह पराजित हो गया । इससे रूसी शासन की अयोग्यता और भ्रष्टाचार का भांडा फूट गया । अत: रूस में निरंकुश जारशाही के विरूद्ध व्याप्त असंतोष आक्रोश में परणित हो गया । आक्रोशित जनता ने 1904 ई. में घोर प्रतिक्रियावादी मंत्री प्लेहव की हत्या कर दी । अत: जार ने प्लेहव के स्थान पर एक उदार व्यक्ति प्रिंस मिस्र्की को अपना मंत्री बनाया । जिसने कुछ सुधार करने का प्रयास भी किया। लेकिन जार सुधार के लिए राजी न हुआ । जिससे मजदूर संघ द्वारा कारखानों में हड़ताल कर दी गयीं । मजदूर बाजारों में जुलूस निकालने लगे । फिर भी जार का रवैया नहीं बदला और उसका दमन चक्र जारी रहा । फलत: रूस में व्याप्त आक्रोश क्रमश: क्रांति का स्वरूप धारण करने लगा।

तात्कालिक कारण (खूनी रविवार) 

22 जनवरी 1905, रविवार को सेण्ट पीटर्सवर्ग के मजदूर हजारों की तादात में फादर गेपन नामक पादरी के नेतृत्व में जार को अपनी कठिनाईयाँ सुनाने के लिए एक शान्त जुलूस में जा रहे थे । उनके पास कोई हथियार भी नहीं था । फिर भी ज्यों ही जुलूस राज प्रसाद के समीप पहुँचा, तो जार के इशारे पर सैनिकों ने उन्हें गोलियों से भून दिया। जिसमें अनेंक मजदूर मारे गये । राज महल के सामने लाशों का ढ़ेर लग गया । इतिहास में यह घटना खूनी रविवार के नाम से प्रसिद्ध है। इस घटना के कारण रूस के क्षितिज पर क्रांति के बादल छा गये और शीघ्र ही पूरा रूस क्रांति के आगोश में समा गया ।

1905 की रूसी क्रांति की घटनाएँ

खूनी रविवार की घटना ने रूसी जनता को भड़का दिया । इससे रूस में सर्वत्र क्रांति के चिन्ह प्रकट होने लगे । जगह-जगह पुलिस तथा सरकारी अधिकारियों का वध किया जाने लगा। सर्वत्र अग्निकाण्ड का ताण्डव शुरू हुआ । देहातों में किसानों की भीड़ जमीदारों को लूटने लगी और उनका वध करने लगी । उनके घर-सम्पत्ति को आग के हवाले कर दिया । चारो तरफ अराजकता छा गयी । जार के चाचा सर्जियस की हत्या कर दी गयी । हर तरफ से सुधार की मांग होने लगी ।

अत: जोसटोप के वैधानिक शासन की माँग करने वाले सदस्यों के साथ श्रमिक आन्दोलन के संचालकों ने मिलकर अगस्त 1905 में जार को प्रतिनिधि सभा की स्थापना करके शासन में सुधार करने की घोषणा करने के लिए विवश किया । जार ने अपने प्रतिक्रियावादी मंत्री थोबीडोनो स्टैफ को पदच्युत करके उसके स्थान पर काउण्ट विटे को मंत्री नियुक्त किया और घोषणा की कि ड्यूमा की बिना अनुमति के कोई भी कानून लागू नहीं होगा। लेकिन जार ने अपनी दूसरी घोषणा के द्वारा प्रथम घोषणा के प्रभाव को सीमित कर दिया । जिससे सुधारवादियों के मन्सूबे पर पानी फिर गया। यद्यपि ड्यूमा का निर्वाचन भी हुआ, उसका अधिवेशन भी बुलाया गया, लेकिन सुधार की माँगे पूरी न हो सकीं। बल्कि जार द्वारा सुधारवादी क्रांतिकारियों का बड़ी कठोरता के साथ दमन कर दिया गया और रूस में पुन: जारशाही की निरंकुशता स्थापित हो गयी।
इस क्रांति की स्मृति के बतौर एक मात्र निर्बल ड्यूमा ही अवशेष रही । इस प्रकार 1905 में हुई रूसी क्रांति अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल हो गयी ।

1905 की रूसी क्रांति की असफलता के कारण

1905 की रूसी क्रांति कई कारणवश असफल हो गयी, जिनमें कुछ प्रमुख कारणों का विवरण निम्नानुसार प्रस्तुत है –

 
1. राजनीतिक दलों में परस्पर एकता का अभाव – क्रांति का संचालन विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा किया जा रहा था। इन दलों का उद्देश्य तो एक था, लेकिन इनके सिद्धांत भिन्न-भिन्न थे । जिससे इनमें परस्पर समंजस्य स्थापित नहीं हो पाया और उनके बीच एकता का अभाव बना रहा । इससे क्रांति की गति धीमी हो गयी और वह अपने उद्देश्य को पाये बगैर ही असफल हो गयी ।

2. क्रांति में नेतृत्व की कमी –  रूस की निरंकुश जारशाही का अंत करने के लिए और रूसी शासन व्यवस्था में सुधार लाने के लिए यह क्रांति की गयी थी, किन्तु इस क्रांति में विभिन्न सिद्धांत वाले व्यक्तियों एवं राजनीतिक दलों ने भाग लिया था । जो अपनी-अपनी योजनानुसार क्रांति को संचालित किया, जिससे क्रांति के संचालन में एकरूपता नहीं आ पायी । अर्थात् क्रांति में नेतृत्व विहीनता की स्थिति निर्मित हो गयी । जिसके कारण क्रांति व्यवस्थित एवं सुनियोजित तरीके से संचालित नहीं हो सकी और अन्तत: असफल हो गयी ।

3. क्रांतिकारियों के पास धन का अभाव – 1905 की रूसी क्रांति की असफलता का कारण क्रांतिकारियों के पास धन की कमी भी थी। जिसके अभाव में क्रांतिकारी हथियार सामग्री नहीं जुटा पाये । हथियारों के अभाव में निहत्थे क्रांतिकारियों का जार की सेना द्वारा दमन कर दिया गया । इसके अतिरिक्त धन की कमी क्रांति को व्यवस्थित ढ़ंग से संचालित करने में भी आड़े आयी ।

4. रूसी सेना का जार के प्रति वफादार होना – इस क्रांति की असफलता का एक मुख्य कारण यह भी था कि रूसी सेना जार का भरपूर सहयोग दिया और उसके आदेश का अक्षरश: पालन करते हुए उसने क्रांतिकारियों पर आक्रमण किया । जिससे क्रांति की गति कमजोर पड़ गयी और वह असफल हो गयी ।

5. क्रांतिकारियों को विदेशों से सहयोग न मिलना – 1905 की क्रांति इसलिए भी असफल हो गयी, क्योंकि विदेशों की जनतांत्रिक सरकारों द्वारा रूसी क्रांतिकारियों का कोई सहयोग नहीं किया गया । अगर क्रांतिकारियों को विदेशी सहयोग मिलता तो रूसी क्रांति का परिणाम कुछ और ही होता ।

1905 की रूसी क्रांति का प्रभाव

1905 की रूसी क्रांति के माध्यम से सुधारवादियों द्वारा किया गया प्रयास निष्फल हो गया और रूस में एक बार पुन: जारशाही की निरंकुशता स्थापित हो गयी । जार निकोलस द्वितीय ने स्टालिपिन नामक एक प्रतिक्रियावादी को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। उसने पुलिस को विशेषाधिकार प्रदान करके क्रांतिकारियों का बड़ी कठोरता से दमन किया। हजारों की संख्या में लोग फाँसी पर चढ़ा दिये गये और अनेक लोगों को साइबेरिया निर्वासित कर दिया गया । उसने मताधिकार को सीमित करके ड्यूमा को निर्बल बना दिया और उसके क्रांतिकारी स्वरूप का अंत कर दिया। किसान वर्ग को क्रांति से पृथक करने के लिए उन्हें मीर के अधिकार से मुक्त करके उनको भूमि स्वामी बना दिया गया । इन कार्यों से स्टालिपिन के प्रति विरोध बहुत बढ़ गया और सितम्बर 1911 में उसकी हत्या कर दी गयी।

लेकिन उसकी हत्या के बाद भी रूस में प्रतिक्रियावाद का अंत नहीं हुआ और देश तब भी सभी जुल्मों को सहन कर रहा था । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि क्रांति का अंत हो गया है, जबकि वास्तव में क्रांति का अंत नहीं हुआ था, बल्कि वह भूमिगत होकर अन्दर ही अन्दर सुलगती रही, जिसका भयंकर विस्फोट 1917 की क्रांति के रूप में हुआ, जिसने निरंकुश जारशाही के तख्ते को उखाड़ फेंका और उसके स्थान पर समाजवादी शासन व्यवस्था की स्थापना संभव हुई ।
इस क्रांति के सम्बंध में लिप्सन महोदय ने ठीक ही कहा है कि “जार की अन्धी सरकार ने समय को नहीं पहचाना । उसने अवसर को हाथ से खो दिया। फलत: सुधार आन्दोलन क्रांतिकारी हो गया, जिसने आगे चलकर जार के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया। साथ ही उसने रूसी सामाजिक व्यवस्था को भी एक नयी दिशा में परिवर्तित कर दिया।”

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