Bihar Board

1917 की बोल्शेविक क्रांति (अक्टूबर क्रांति) के कारण

1917 की बोल्शेविक क्रांति (अक्टूबर क्रांति) के कारण

रूस की बोल्शेविक क्रांति अनेक कारणों का परिणाम थी। ये कारण वर्षों से संचित हो रहे थे। इस क्रांति के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे——

1917 की वोल्शेविक क्रांति (अक्टूवर क्रांति) के कारण

राजनीतिक कारण
⊗ निरंकुश एवं अत्याचारी शासन
⊗ रूसीकरण की नीति
⊗ राजनीतिक दलों का उदय
⊗ नागरिक एवं राजनीतिक स्वतंत्रता का अभाव
⊗ रूस की राजनीतिक प्रतिष्ठा में कमी
⊗ 1905 की क्रांति का प्रभाव
⊗ प्रथम विश्वयुद्ध में रूस की पराजय
⊗ जार निकोलस द्वितीय और जारीना की भूमिका
सामाजिक कारण
⊗ किसानों की स्थिति
⊗ किसानों का विद्रोह
⊗ मजदूरों की स्थिति
⊗ सुधार आंदोलन
आर्थिक कारण
⊗ दुर्बल आर्थिक स्थिति
⊗ औद्योगिकीकरण की समस्या
धार्मिक कारण
धार्मिक स्वतंत्रता की कमी
वौद्धिक कारण
रूस में बौद्धिक जागरण

राजनीतिक कारण

निरंकुश एवं अत्याचारी शासन-क्रांति के पूर्व रूस में रोमोनोव वंश का शासन था। इस वंश के शासकों ने स्वेच्छाचारी राजतंत्र की स्थापना की। रूस का सम्राट जार अपने-आपको ईश्वर का प्रतिनिधि समझता था। वह सर्वशक्तिशाली था। राज्य की सारी शक्तियाँ उसी के हाथों में केंद्रित थीं। उसकी सत्ता पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं था। राज्य के अतिरिक्त वह रूसी चर्च का भी प्रधान था। इतना शक्तिशाली होते हुए भी वह प्रजा के सुख-दुःख के प्रति पूर्णतः लापरवाह था। वह दिन-रात चापलूसों और चाटुकारों से घिरा रहता था। अतः, प्रशासनिक अधिकारी मनमानी करते थे। प्रजा जार और उसके अधिकारियों से भयभीत और त्रस्त रहती थी। ऐसी स्थिति में प्रजा की स्थिति बिगड़ती गई और उनमें असंतोष बढ़ता गया।
रूसीकरण की नीति-रूस में विभिन्न प्रजातियों के निवासी थे। इनमें स्लावों की संख्या सबसे अधिक थी। इनके अतिरिक्त फिन, पोल, जर्मन, यहूदी इत्यादि भी थे। सबों की भाषा, रीति-रिवाज अलग-अलग थे। इसलिए, रूसी सरकार ने देश की एकता के लिए रूसीकरण की नीति अपनाई। संपूर्ण देश पर रूसी भाषा, शिक्षा और संस्कृति लागू करने का प्रयास किया गया। जार की नीति थी-एक जार, एक चर्च और एक रूस। सरकार की इस नीति से अल्पसंख्यक व्यग्र हो गए। 1863 में पोलों ने रूसीकरण की इस नीति के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। यद्यपि यह विद्रोह दबा दिया गया, परंतु इससे अल्पसंख्यकों में अलगाववादी भावना बढ़ती गई।
राजनीतिक दलों का उदय-19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से रूस में राजनीतिक दलों का उत्कर्ष हुआ। बौद्धिक जागरण के
परिणामस्वरूप जारशाही के विरुद्ध जनता संगठित होने लगी। इनका नेतृत्व प्रबुद्ध विचारकों ने किया। किसानों की समस्याओं को लेकर नारोदनिक आंदोलन चलाया गया जिसके प्रमुख नेता हर्जेन, चर्नीशेवस्की और मिखाइल बाकनिन थे। इन लोगों ने कृषक समाजवाद की स्थापना का नारा दिया। कार्ल मावर्स के एक प्रशंसक और समर्थक प्लेखानोव, जिसे रूस का पहला साम्यवादी माना जाता है, ने 1883 में रूसी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (Russian Social Democratic Party) की स्थापना की। इस दल ने मजदूरों को संघर्ष के लिए संगठित करना आरंभ किया। मजदूर मार्क्स के दर्शन से प्रभावित हुए। प्लेखानोव के अतिरिक्त लेनिन ने भी मार्क्सवाद का प्रचार किया। 1900 में सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी (Socialist Revolutionary Party) की स्थापना हुई। इसने किसानों की समस्याओं पर ध्यान दिया। लेनिन ने इस्करा (Iskra) नामक पत्र का संपादन कर क्रांतिकारी आदर्शों का प्रचार किया।
1903 में संगठनात्मक मुद्दों को लेकर सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी दो दलों में विभक्त हो गई-वोल्शेविक (बहुमतवाले) एवं मेन्शेविक (अल्पमतवाले)। मेन्शेविक संवैधानिक रूप से देश में राजनीतिक परिवर्तन चाहते थे तथा मध्यवर्गीय क्रांति के समर्थक थे। परंतु, बोल्शेविक इसे असंभव मानते थे और क्रांति के द्वारा परिवर्तन लाना चाहते थे जिसमें मजदूरों की विशेष भूमिका हो (सर्वहारा क्रांति)। 1912 में बोल्शेविक समाचारपत्र प्रावदा (Pravda) का प्रकाशन कर दल की नीतियों का प्रचार किया गया। इससे बोल्शेविक दल का प्रभाव अधिक व्यापक हो गया। इसी दल के नेता लेनिन के नेतृत्व में 1917 की रूसी क्रांति हुई।
नागरिक एवं राजनीतिक स्वतंत्रता का अभाव-निरंकुश जारशाही के अंतर्गत रूसी जनता को किसी प्रकार का राजनीतिक
अधिकार नहीं था। विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी। व्यक्तिगत और प्रेस की भी स्वतंत्रता नहीं थी। जनता की कार्यवाहियों पर जासूस कड़ी निगरानी रखते थे। पुलिस किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर कारण बताए बिना साइबेरिया के
यातना-गृह में भेज सकती थी। सरकार की अनुमति के बिना कोई न तो रूस से बाहर जा सकता था और न ही रूस में प्रवेश कर सकता था। देश में राजनीतिक संस्थाओं का अभाव था। रूस की संसद ड्यूमा (Duma) में भी राजतंत्र-समर्थक ही थे। इससे जनता का असंतोष बढ़ा।
रूस की राजनीतिक प्रतिष्ठा में कमी-पीटर महान के शासनकाल में (1682-1725) रूस की शक्ति और प्रतिष्ठा में अत्यधिक वृद्धि हुई, परंतु 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा में कमी आ गई। वाल्कन युद्धों में उसे सफलता
नहीं मिली। 1854-56 के क्रीमिया युद्ध में भी रूस की पराजय हुई। 1904-05 के रूसी-जापानी युद्ध में पराजय से रूस को गहरा आघात लगा। छोटे-से एशियाई देश से पराजित होने से रूस की महानता का भ्रम टूट गया। उसकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई। जनता में भी असंतोष और विद्रोह की भावना बढ़ी। परिणामस्वरूप, 1905 रूस में पहली क्रांति हुई।
1905 की क्रांति का प्रभाव-1904 तक बढ़ती महँगाई के कारण श्रमिकों की स्थिति दयनीय हो गई। उनकी वास्तविक मजदूरी में बीस प्रतिशत की गिरावट आई। ऐसी स्थिति में बड़ी संख्या में श्रमिकों ने मजदूरी में बढ़ोतरी, काम के घंटों में कमी करने तथा अपनी स्थिति में सुधार के लिए हड़ताल की। सेंट पीटर्सबर्ग की हड़ताल में एक लाख से अधिक श्रमिकों ने भाग लिया। ऐसी ही परिस्थिति में 9 जनवरी 1905 (ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार 22 जनवरी) के खूनी रविवार (लाल रविवार) के दिन सेना ने निहत्थे मजदूरों और उनके परिवार पर गोली चलाई जिसमें हजारों लोग मारे गए एवं घायल हुए। ये लोग रोटी की माँग करते हुए जुलूस के रूप में सेंट पीटर्सबर्ग स्थित राजमहल की ओर जा रहे थे। इस नरसंहार से रूसी स्तब्ध रह गए।
सेना और नौसेना में भी इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई एवं विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो गई। देशभर में हड़ताले हुईं। छात्रों ने
विश्वविद्यालयों का बहिष्कार किया। मध्यम वर्ग के लोगों ने भी नागरिक स्वतंत्रता की कमी को लेकर विरोध प्रकट किया।
विद्रोह पर नियंत्रण करने के लिए जार ने सुधारों का दिखावा किया। ड्यूमा (प्रातिनिधिक संस्था) का गठन किया गया। इसका कोई परिणाम नहीं निकला। अत:, एक के बाद एक दो ड्यूमाएँ भंग कर दी गई। तीसरे में जार ने प्रतिक्रियावादियों को सदस्य बनाया। सरकार ने इस विद्रोह को दबा दिया। जनता को संतुष्ट करने के लिए उसने ड्यूमा (Duma) के पुनर्गठन एवं इसकी सहमति के बिना कोई कानून नहीं बनाने का आश्वासन दिया। रूसी-जापानी युद्ध में लाखों रूसी सैनिक हताहत हुए। कृषि और उद्योग पर भी युद्ध का विनाशकारी प्रभाव पड़ा। बड़े स्तर पर युद्ध में सेना की भरती से कारखानों में काम करनेवाले
श्रमिकों की कमी हो गई। सेना को रसद की आपूर्ति करने से रोटी की कमी हो गई। रोटी के लिए जगह-जगह दंगे होने लगे। 1905 की क्रांति ने 1917 की क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।
प्रथम विश्वयुद्ध में रूस की पराजय-प्रथम विश्वयुद्ध में रूस भी सम्मिलित हुआ। जार का मानना था कि युद्ध के अवसर पर
जनता सरकार का समर्थन करेगी तथा देश के अंदर सरकार-विरोधी प्रतिरोध कमजोर पड़ जाएगा। परंतु, जार की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। विश्वयुद्ध में रूस की लगातार हार होती गई। सैनिकों के पास न तो अस्त्र-शस्त्र थे और न ही पर्याप्त रसद और वस्त्र। अत:, रूसी सेना की हार होती गई। रूसी सेना की कमान स्वयं जार ने सँभाल रखी थी। पराजय से उसकी प्रतिष्ठा को गहरी ठेस लगी। इस स्थिति से रूसी और अधिक क्षुब्ध और क्रुद्ध हो गए। वे पूरी तरह जारशाही को समाप्त करने के लिए कटिबद्ध हो गए। वस्तुतः, प्रथम विश्वयुद्ध में पराजय 1917 की रूसी क्रांति का तात्कालिक कारण बना।
जार निकोलस द्वितीय और जारीना की भूमिका-क्रांति के समय रूस का सम्राट जार निकोलस द्वितीय था। वह एक कमजोर शासक था। वह स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम नहीं था। वह पूरी तरह अपनी पत्नी जारीना और उसके समर्थकों के हाथों की कठपुतली था। जारीना भी एक बदनाम और रहस्यमय पादरी रासपुटिन के प्रभाव में थी। रासपुटिन ने जारीना को पूरी तरह अपने वश में कर रखा था। जारीना के माध्यम से उसने प्रशासन एवं जार पर भी अपना प्रभाव जमा रखा था। इससे जनता में आक्रोश व्याप्त था।

सामाजिक कारण

किसानों की स्थिति-1861 तक रूस में अधिकांश किसान बँधुआ मजदूर थे। वे सामंतों के अधीन थे और जमीन से बँधे हुए थे। क्रीमिया युद्ध में पराजय के उपरांत जार एलेक्जेंडर द्वितीय ने 1861 में किसानों को राहत देने के लिए कृषिदासता (serfdom) की प्रथा समाप्त कर दी। इससे किसानों को कुछ राहत तो मिली, परंतु उनकी स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ। किसानों को जमीन तो मिली, लेकिन उसके लिए भारी कीमत चुकानी पड़ी। इससे उनपर कर्ज का बोझ बढ़ गया। कृषि को विकसित करने का कोई प्रयास नहीं हुआ। किसानों के पास छोटे-छोटे भूखंड थे जिनपर वे परंपरागत ढंग से खेती करते थे। उनके पास धन नहीं था कि वे कृषि का विकास कर उपज बढ़ा सकें। दूसरी ओर, उनपर करों का बोझ भी डाल दिया गया। इससे उनकी स्थिति दयनीय होती चली गई। कर चुकाने के लिए उन्हें अपनी जमीन गिरवी रखनी पड़ी अथवा बेचनी पड़ी। अतः, वे पुन: खेतिहर मजदूर मात्र बनकर रह गए।
किसानों का विद्रोह-रूसी समाज में अधिक संख्या में होने के बावजूद किसानों की स्थिति सबसे अधिक खराब थी। अपनी स्थिति से मजबूर होकर किसानों ने बार-बार विद्रोह किए। एक अनुमान के अनुसार, 1858-60 के मध्य रूसी किसानों ने 284 बार विद्रोह किए। बाध्य होकर जार ने 1861 में कृषिदासता को समाप्त कर दिया, परंतु इससे किसानों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ। अतः, उनके विद्रोह होते रहे। 1905 के बाद किसान-विद्रोहों की संख्या बढ़ती ही गई। किसानों का समर्थन प्राप्त करने के लिए रूसी प्रधानमंत्री पीटर स्टोलीपीन (1906-110 ने किसानों को जमीन खरीदने को उत्प्रेरित किया। इससे किसानों का संपन्न कुलक वर्ग उभरा। पीटर का मानना था कि सरकार कुलकों पर क्रांतिकारियों के विरुद्ध भरोसा कर सकती थी, परंतु साधारण किसान वर्ग की स्थिति दयनीय बनी रही। अतः, किसान 1917 की क्रांति के मजबूत स्तंभ बन गए। लेनिन ने भी अपनी अप्रैल थीसिस (April Thesis) में जमीन अथवा किसानों को पहला स्थान दिया।
मजदूरों की स्थिति-यद्यपि रूस औद्योगिक दृष्टि से यूरोप का एक पिछड़ा राष्ट्र था, परंतु 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से रूस में भी उद्योगों का विकास हुआ। इससे मजदूरों की संख्या बढ़ी, परंतु किसानों के समान उनकी स्थिति भी दयनीय थी। उनपर अनेक प्रतिबंध लगे हुए थे। सरकार उन्हें संगठित होने देना नहीं चाहती थी। इसलिए, श्रमिक संघों के निर्माण पर रोक लगा दी गई थी। मजदूरों को आवश्यकता से अधिक घंटों तक काम करना पड़ता था, उन्हें मजदूरी कम दी जाती थी तथा कारखानों में असहनीय स्थिति में काम करना पड़ता था। इसके विरोध में मजदूरों ने संघर्ष आरंभ किया और हड़ताल की। बाध्य होकर सरकार ने कारखाना अधिनियम बनाकर मजदूरों को कुछ सुविधाएँ देने का प्रयास किया, परंतु इससे स्थिति में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। क्षुब्ध मजदूरों ने 1905 में देशव्यापी हड़ताल की जिसमें लाखों मजदूरों ने भाग लिया। 1905-17 के बीच भी मजदूरों की अनेक हड़तालें हुईं। किसानों के समान मजदूर भी जारशाही के प्रबल विरोधी बन गए।
सुधार आंदोलन-रूसी नागरिकों का एक वर्ग ऐसा था जो चाहता था कि रूस में सुधार आंदोलन जार के द्वारा किए जाएँ। जार
एलेक्जेंडर द्वितीय ने कई सुधार कार्यक्रम चलाए भी, परंतु इससे सुधारवादी संतुष्ट नहीं हुए। इनमें से कुछ ने निहिलिस्ट आंदोलन (Nihilist Movement) आरंभ किया। निहिलिस्ट (Nihilist) स्थापित व्यवस्था को आतंक का सहारा लेकर समाप्त करना चाहते थे। 1881 में जार एलेक्जेंडर द्वितीय की हत्या निहिलिस्टों ने कर दी। इन निहिलिस्टों के विचारों से प्रभावित होकर क्रांतिकारी जारशाही के विरुद्ध एकजुट होने लगे।

आर्थिक कारण

दुर्वल आर्थिक स्थिति-क्रांति के समय रूस की आर्थिक स्थिति दयनीय थी। राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि-कर था, परंतु कृषि का विकास नहीं होने तथा सामंती व्यवस्था के कारण पूरा राजस्व नहीं मिल पाता था। उद्योग-धंधों और व्यापार से भी पूरी आमदनी नहीं होती थी। दूसरी ओर, राजस्व-व्यवस्था भी अव्यवस्थित थी। अनेक युद्धों, विशेषकर रूसी-जापानी युद्ध और प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लेने से रूस दिवालियापन के कगार पर पहुँच गया। इससे सामान्यजन, विशेषतः किसानों और मजदूरों की स्थिति दयनीय बन गई |
औद्योगिकीकरण की समस्या-यद्यपि 19वीं शताब्दी से रूस का औद्योगिकीकरण आरंभ हुआ तथापि सरकार के पास स्पष्ट औद्योगिक नीति का अभाव था। उद्योगों का स्वामित्व जार अथवा कुलीन वर्ग के पास था। कल कारखाने सुनियोजित रूप से नहीं लगाए गए। अधिकांश उद्योग सेंट पीटर्सबर्ग और मास्को के इर्द-गिर्द लगाए गए। रूस के औद्योगिक पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण था राष्ट्रीय पूँजी एवं पूँजीपति वर्ग का अभाव। इससे रूस में विदेशी पूँजी का निवेश बढ़ा। विदेशी पूँजीपति अपने लाभ के लिए मजदूरों का शोषण कर अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाते थे। इससे मजदूरों का असंतोष बढ़ता गया।

धार्मिक कारण

धार्मिक स्वतंत्रता की कमी-नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के ही समान रूसियों को धार्मिक स्वतंत्रता भी नहीं थी। यद्यपि रूस में विभिन्न धार्मिक संप्रदायवाले-कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, मुस्लिम, बौद्ध-निवास करते थे, परंतु वहाँ पर रूसी कट्टरपंथी ईसाई धर्म एवं चर्च का वर्चस्व था। जार धार्मिक मामलों का भी प्रधान था। लोगों को अपनी इच्छानुसार पूजा-अर्चना करने और अपने धार्मिक विचारों को अभिव्यक्त करने की अनुमति नहीं थी।

बौद्धिक कारण

रूस में वौद्धिक जागरण-19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रूस में बौद्धिक जागरण हुआ जिसने लोगों को निरंकुश राजतंत्र के विरुद्ध बगावत करने की प्रेरणा दी। अनेक विख्यात लेखकों एवं बुद्धिजीवियों-लियो टॉल्सटाय, ईवान तुर्गनेव, फ्योदोर
दोस्तोवस्की, मैक्सिम गोर्की, पावलोविच एंटन चेखव-ने अपनी रचनाओं द्वारा सामाजिक अन्याय एवं भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था का विरोध कर एक नए प्रगतिशील समाज के निर्माण का आह्वान किया। टॉल्सटाय ने सामंतवाद और किसानों के शोषण की
कटु आलोचना की। उसकी विख्यात पुस्तक युद्ध और शांति (War and Peace) है। ईवान तुर्गनेव ने अपने उपन्यास फादर्स एंड सन्स (Fathers and Sons) में युवाओं को इस बात के लिए उत्प्रेरित किया कि वे अत्याचारों का डटकर मुकाबला करें। उसके एक अन्य उपन्यास दि वर्जीन स्वायल (The Virgin Soil) से प्रेरित होकर युवाओं ने निहिलिस्ट आंदोलन चलाया। दोस्तोवस्की ने अनेक प्रेरक उपन्यास लिखे जिनमें सर्वविख्यात है क्राइम एंड पनिशमेंट (Crime and Punishment) । मैक्सिम गोर्की के उपन्यास माँ (The Mother) में रूस की दयनीय स्थिति का अवलोकन किया जा सकता है। जनता इनके विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुई। चेखव ने अनेक कहानियाँ एवं नाटक लिखे जिनमें तत्कालीन सामाजिक जीवन का
वर्णन किया गया। उनके नाटकों में विख्यात हैं दि श्री सिस्टर्स (The Three Sisters) तथा दि चेरी ऑचर्ड (The Cherry Orchard)। रूसी लोग, विशेषतः किसान और मजदूर, कार्ल मार्क्स के दर्शन से भी गहरे रूप से प्रभावित हुए। अपनी रचनाओं– कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो (Communist Manifesto) और दास कैपिटल (Das Kapital) द्वारा मार्क्स ने समाजवादी विचारधारा और वर्गसंघर्ष के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उसने नारा दिया-विश्व के मजदूरों, एक हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के लिए अभावों और कष्टों के अलावा और कुछ नहीं है। मार्क्स के विचारों से श्रमिक वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हुआ। वे शोषण और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने को तत्पर हो गए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *