UP Board Class 10th Hindi – शैक्षिक निबन्ध
UP Board Class 10th Hindi – शैक्षिक निबन्ध
UP Board Solutions for Class 10 Hindi शैक्षिक निबन्ध
शैक्षिक निंबन्ध
37. समाचार-पत्र
सम्बद्ध शीर्षक
- समाचार-पत्रों का महत्त्व
रूपरेखा–
- प्रस्तावना,
- समाचार-पत्रों का आविष्कार और विकास;
- समाचार-पत्रों के विविध रूप,
- समाचार-पत्रों का महत्त्व,
- समाचार-पत्रों से लाभ,
- समाचार-पत्रों से हानियाँ,
- उपसंहार।
प्रस्तावना जिज्ञासा एवं कौतूहल मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अपने आस-पास की एवं सुदूर स्थानों की नित नवीन घटनाओं को सुनने व जानने की मनुष्य की प्रबल इच्छा रहती है। पहले प्रायः व्यक्ति दूसरों से सुनकर या पत्र आदि के द्वारा अपनी जिज्ञासा का समाधान कर लेते थे, परन्तु अब विज्ञान के
आविष्कार एवं मुद्रण-यन्त्रों के विकास से समाचार-पत्र व्यक्ति की जिज्ञासा को शान्त करने के प्रमुख साधन हो गये हैं। यह एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा हम घर बैठे अपने समाज, राष्ट्र एवं विश्व की नवीनतम घटनाओं से अवगत रह सकते हैं। समाचार-पत्रों से पूरा विश्व एक परिवार बन गया है, जिसमें सभीं देश एक-दूसरे के सुख-दु:ख में सम्मिलित होते हैं।
समाचार-पत्रों का आविष्कार और विकास समाचार-पत्र का आविष्कार सर्वप्रथम इटली में हुआ। तत्पश्चात् अन्य देशों में भी धीरे-धीरे समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। भारत में समाचार-पत्र का प्रादुर्भाव अंग्रेजों के भारत आगमन पर प्रेस की स्थापना होने से माना जाता है। हिन्दी में ‘उदन्त मार्तण्ड’ नाम से पहला समाचार-पत्र निकला। शनैः-शनैः भारत में समाचार-पत्रों का विकास हुआ और हिन्दी, अंग्रेजी तथा विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में अनगिनत समाचार-पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। हिन्दी में आज नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, पंजाब केसरी, अमर उजाला, दैनिक जागरण, वीर अर्जुन, आज, दैनिक भास्कर आदि समाचार-पत्रों को चरम विकास उनकी बढ़ती हुई माँग का सूचक है।
समाचार-पत्रों के विविध रूप-आज देशी एवं विदेशी कितनी ही भाषाओं में समाचार-पत्र, प्रकाशित हो रहे हैं। इनमें से कुछ समाचार-पत्र प्रतिदिन प्रकाशित होते हैं, तो कुछ साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध-वार्षिक एवं वार्षिक। नये-नये समाचार-पत्र निकलते ही जा रहे हैं। आजकल प्रायः सभी समाचार-पत्र मनोरंजक सामग्री; यथा-लेख, कहानी, फैशन, स्वास्थ्य, खेल, ज्योतिष आदि; को अपने पत्र में नियमित स्थान देते हैं।
समाचार-पत्रों का महत्त्व-आज समाचार-पत्रों का महत्त्व सर्वविदित है। आज ‘प्रेस’ को लोकतन्त्र के चार स्तम्भों में से एक प्रमुख स्तम्भ माना जाता है। समाचार-पत्रों ने केवल भारतीय जनजीवन को ही प्रभावित नहीं किया है, अपितु भारतीयों में राष्ट्रीयता का संचार भी किया है। आधुनिक युग में समाचार-पत्रों की उपयोगिता ‘दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ गयी है। इनके द्वारा अपने देश के ही नहीं, विदेशों के समाचार भी घर बैठे प्राप्त होते हैं। सामाजिक उत्थान, राष्ट्रीय उन्नति तथा जन-कल्याण हेतु समाचार-पत्रों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ये सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों और अपराधों का प्रकाशन कर उनकी रोकथाम में मदद करते हैं। ये विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को जनता के सम्मुख लाकर राष्ट्रीय जागरण का तथा जनमत का निर्माण करके लोकतन्त्र के सच्चे रक्षक का कार्य करते हैं।
समाचार-पत्रों से लाभ-
( क) ज्ञानवर्द्धन का साधन-देश-विदेश में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी तथा भौगोलिक-सामाजिक परिवर्तनों का ज्ञान समाचार-पत्रों के माध्यम से मिल जाता है। विज्ञान, साहित्य, राजनीति, इतिहास, भूगोल आदि अनेक क्षेत्रों में हुई प्रगति का ज्ञान समाचार-पत्र ही कराते हैं। समाचार-पत्रों का सूक्ष्म अध्ययन करने वाला व्यक्ति सामान्य ज्ञान में कभी पीछे नहीं रहता।।
(ख) मनोरंजन का साधन–समाचारों की जानकारी से मानसिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है। इनमें प्रकाशित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सामग्री विशेष रूप से मनोरंजन प्रदान करती है। यात्रा के समय पत्र-पत्रिकाएँ यात्रा को सुगम एवं मनोरंजक बनाती हैं।।
(ग) कुरीतियों की समाप्ति समाचार-पत्रों से सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों को दूर करने में भी सहायता मिलती है। समाज में फैली अशिक्षा, दहेज, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह आदि बुरी प्रथाओं का परिहार होता है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, शोषण, अनाचार और अत्याचारों की घटनाओं को प्रकाशित कर असामाजिक तत्वों में भय उत्पन्न करने में सहायता मिलती है।
(घ) स्वस्थ जनमत का निर्माण-आज के प्रजातान्त्रिक युग में प्रत्येक राजनीतिक दल को अपनी विचारधारा जनता तक पहुँचानी होती है। स्वस्थ जनमत का निर्माण करने एवं राजनीतिक शिक्षा देने में समाचार-पत्रों का सर्वाधिक महत्त्व है। इस प्रकार समाचार-पत्र जनता और सरकार के बीच की कड़ी होते हैं।
समाचार-पत्रों से हानियाँ–समाचार-पत्र जहाँ देश का कल्याण करते हैं; वहीं इनसे हानियाँ भी होती हैं। ये किसी पूँजीपति, राजनीतिक नेता और साम्प्रदायिक दल की सम्पत्ति होते हैं; अतः इनमें जो समाचार या सूचनाएँ प्रकाशित होती हैं, उन्हें वे अपनी स्वार्थ–पूर्ति के आधार पर भी तोड़-मरोड़कर प्रकाशित करते हैं। बहुत-से समाचार-पत्र अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए झूठी अफवाह, निराधार एवं सनसनीपूर्ण संमाचार, अभिनेत्रियों के अश्लील चित्र प्रकाशित करते हैं। इनमें प्रकाशित जातिगत, साम्प्रदायिक एवं प्रादेशिक विचार कभी-कभी राष्ट्रीय एकता में भी बाधक होते हैं।
उपसंहार-आज के युग में समाचार-पत्र को महत्त्वपूर्ण शक्ति-स्तम्भ माना जाता है। अतः समाचार-पत्रों को ऐसे लोगों के हाथ में केन्द्रित न होने दें, जो देश में गड़बड़ी, अव्यवस्था और विद्रोह फैलाना चाहते हैं। इनके अध्ययन से स्वतन्त्र चिन्तन में बाधा नहीं पहुँचनी चाहिए। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि समाचार-पत्रों के स्वामियों, सम्पादकों एवं पत्रकारों को किसी भी राजनीतिक दल के हाथों अपनी स्वतन्त्रता नहीं बेचनी चाहिए। ऐसा करने से ही वे अपनी लेखनी की स्वतन्त्रता को बचाये रख सकेंगे और अपना दायित्व निभाने में सफल होंगे। समाचार-पत्रों में निष्पक्ष और नि:स्वार्थ होकर पूरी ईमानदारी से विचार व्यक्त किये जाने चाहिए, जिससे समाज व राष्ट्र का कल्याण हो सके।
38. पुस्तकालय [2014]
सम्बद्ध शीर्षक
- पुस्तकालय से लाभ [2012,13]
- आदर्श पुस्तकालय
- पुस्तकालय का महत्त्व [2014]
- पुस्तकालय की उपयोगिता [2016]
रूपरेखा–
- प्रस्तावना,
- पुस्तकालय का अर्थ,
- पुस्तकालयों के प्रकार,
- पुस्तकालय की उपयोगिता (लाभ),
- कुछ प्रसिद्ध पुस्तकालय,
- पुस्तकालयों के प्रति हमारे कर्तव्य,
- सुझाव,
- उपसंहार।
प्रस्तावना-ज्ञान-पिपासा मानव का स्वाभाविक गुण है। इसी की तृप्ति के लिए वह पुस्तकों का अध्ययन करता है। पुस्तकालय वह भवन है, जहाँ अनेक पुस्तकों का विशाल भण्डार होता है। पुस्तकालय से बढ़कर ज्ञान-पिपासा को शान्त करने का कोई अन्य उत्तम साधन नहीं है। यही पुस्तकें हमें असत् से सत् की ओर तथा अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती हैं और अन्तत: हमारी अन्त:प्रकृति में यह ध्वनि गूंज उठती है-” असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।”
पुस्तकालय का अर्थ–पुस्तकालय का अर्थ है-पुस्तकों की घर। इसमें विविध विषयों पर लिखित व संकलित पुस्तकों का विशाल संग्रह होता है। पुस्तकालय सरस्वती का पावन मन्दिर है, जहाँ जाकर मनुष्य सरस्वती की कृपा से ज्ञान का दिव्य आलोक पाता है। इससे उसकी मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं तथा उसके ज्ञान-नेत्र खुल जाते हैं। निर्धन व्यक्ति भी पुस्तकालय में विविध विषयों की पुस्तकों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त कर सकता है। महान् व्यक्तियों ने उत्तम पुस्तकों को सदैव प्रेरणास्रोत माना है और इनके द्वारा अनुपम ज्ञान प्राप्त किया है।
पुस्तकालयों के प्रकार–पुस्तकालय चार प्रकार के होते हैं–
- व्यक्तिगत,
- विद्यालय,
- सार्वजनिक तथा
- सरकारी।
व्यक्तिगत पुस्तकालयों से अधिक व्यक्ति लाभ नहीं उठा सकते। उनसे वही व्यक्ति लाभान्वित होते हैं, जिनकी वे सम्पत्ति हैं। विद्यालयों के पुस्तकालयों का उपयोग विद्यालय के छात्र और अध्यापक ही कर पाते हैं। इनमें अधिकांशत: विद्यार्थियों के उपयोग की ही पुस्तकें होती हैं। सरकारी पुस्तकालयों का उपयोग राजकीय कर्मचारी या विधान-मण्डलों के सदस्य ही कर पाते हैं। केवल सार्वजनिक पुस्तकालयों का ही उपयोग सभी व्यक्तियों के लिए होता है। इनमें घर पर पुस्तकें लाने के लिए। इनका सदस्य बनना पड़ता है। पुस्तकालय का एक महत्त्वपूर्ण अंग ‘वाचनालय’ होता है, जहाँ दैनिक समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ प्राप्त होती हैं, जिसे वहीं बैठकर पढ़ना होता है।
पुस्तकालय की उपयोगिता ( लाभ)-पुस्तकालय मानव-जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता हैं। वे ज्ञान, विज्ञान, कला और संस्कृति के प्रसार-केन्द्र होते हैं। पुस्तकालयों से अनेक लाभ हैं, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं
(क) ज्ञान-वृद्धि-पुस्तकालय ज्ञान के मन्दिर होते हैं। ज्ञान-वृद्धि के लिए पुस्तकालयों से बढ़कर अन्य उपयोगी साधन नहीं हैं। पुस्तकालयों के द्वारा मनुष्य कम धन खर्च करके बहुमूल्य ग्रन्थों का अध्ययन कर असाधारण ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
(ख) सदगुणों का विकास-विद्वानों की पुस्तकों को पढ़कर महान् बनने, नवीन विचारों और नवीन चिन्तन की प्रेरणा प्राप्त होती है। रुचिकर पुस्तकें पढ़ने से नवीन स्फूर्ति एवं नवीन चेतना प्राप्त होती है। तथा कुवासनाओं, कुसंस्कारों और अज्ञान का नाश होता है। पुस्तकालय में बालकों के लिए बाल-साहित्य भी उपलब्ध होता है, जिसको पढ़कर बच्चे भी अपने समय का सदुपयोग कर सकते हैं।
(ग) समाज का कल्याण-पुस्तकालय से व्यक्ति को तो लाभ होता ही है, सम्पूर्ण समाज का भी कल्याण होता है। प्रत्येक समाज एवं राष्ट्र प्राचीन साहित्य का अध्ययन करके नये सामाजिक नियमों का निर्माण कर सकता है। रूस के एक महत्त्वपूर्ण नेता लेनिन; जो रूस की प्रचलित व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन लाने में सहायक हुए; का अधिकांश समय पुस्तकों के अध्ययन में ही व्यतीत होता था।
(घ) श्रेष्ठ मनोरंजन एवं समय का सदुपयोग–घर पर खाली बैठकर गप्पे मारने की अपेक्षा पुस्तकालय में जाकर पुस्तकें पढ़ना अधिक उपयोगी होता है। इससे श्रेष्ठ ज्ञानार्जन के साथ पर्याप्त मनोरंजन भी होता है। मनोरंजन से रुचि का परिष्कार एवं ज्ञान की वृद्धि होती है।
(ङ) सत्संगति का लाभ–पुस्तकालय में पहुँचकर एक प्रकार से महान् विद्वानों, विचारकों तथा महापुरुषों से अप्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है। यदि हमें गाँधी, सुकरात, राम, कृष्ण, ईसा, महावीर आदि के श्रेष्ठ विचारों की संगति प्राप्त करनी है तो पुस्तकालय से उत्तम कोई अन्य स्थान नहीं है।
कुछ प्रसिद्ध पुस्तकालय-देश में पुस्तकालयों की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। .. नालन्दा और तक्षशिला में भारत के अति प्रसिद्ध पुस्तकालय थे, जो कि विदेशी आक्रान्ताओं के द्वारा; हमारी प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने के उद्देश्य से; नष्ट-भ्रष्ट कर दिये गये। इस समय भारत में कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, पटना, वाराणसी आदि स्थानों पर भव्य पुस्तकालय हैं, जहाँ पर शोधार्थी व सामान्य अध्येता भी उचित औपचारिकताओं का निर्वाह करके अध्ययन कर सकते हैं।
पुस्तकालयों के प्रति हमारे कर्तव्य-पुस्तकालय समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। उनके विकास से देशवासियों में नवचेतना का उदय होता है। पुस्तकालयों को क्षति पहुँचाने की प्रवृत्ति समाज के लिए घातक है; अत: पाठकों का कर्तव्य है कि जो पुस्तकें पुस्तकालय से ली जाएँ, उन्हें निश्चित समय पर लौटाया जाए। उन पर नाम लिखना, स्याही के धब्बे डालना, पन्ने या कतरन फाड़ना, पुस्तकों की साज-सज्जा को नष्ट करना आदि अनैतिकता तथा पुस्तकालय की क्षति है। पुस्तकालयों के नियमों का पालन करना एवं उन्हें दिनानुदिन विकसित करने में सहायक होना हमारा परम कर्तव्य है।
सुझाव–हमारे देश के गाँवों में जहाँ लगभग दो-तिहाई जनसंख्या निवास करती है, पुस्तकालयों का नितान्त अभाव है। ग्रामवासियों की निरक्षरता ओर अज्ञानता का मूल कारण भी यही है। ग्रामविकास की योजनाओं के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव में जनसंख्या के आधार पर पुस्तकालयों का निर्माण होना चाहिए।
उपसंहार-जीवन की सच्ची उन्नति इसी बात में है कि हम पुस्तकालय के महत्त्व को समझे और उनसे लाभ उठाएँ। सुयोग्य नागरिकों के चरित्र-निर्माण एवं समाज के उत्थान हेतु पुस्तकालयों के विकास के लिए सतत प्रयत्न किये जाने चाहिए। पुस्तकालयों में संग्रहीत पुस्तकों के माध्यम से ही हम अपने पूर्वजों की गौरवपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर से प्रेरणा प्राप्त करते हैं और उनके द्वारा स्थापित तेज और पुरुषार्थ को भावी पीढ़ी में उतारने को सचेष्ट होते हैं। इसलिए नियमित रूप से पुस्तकालयों में बैठकर अध्ययन करना हमारे आचरण का आवश्यक अंग होना चाहिए।
39. महापुरुष की जीवनी
सम्बद्ध शीर्षक
- राष्ट्रपिता : महात्मा गाँधी
- मेरे प्रिय नेता
- किसी महापुरुष के अनुकरणीय कार्य [2011]
रूपरेखा–
- प्रस्तावना,
- जीवन-परिचय एवं शिक्षा,
- दक्षिण अफ्रीका-गमन,
- भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के कर्णधार,
- गाँधीजी की मृत्यु,
- गाँधीजी का आदर्श व्यक्तित्व,
- वर्तमान समय में गाँधीजी की प्रासंगिकता,
- उपसंहार।।
प्रस्तावना–प्राचीन काल से लेकर आज तक हमारे देश में अनेक महान् विभूतियों, युगपुरुषों तथा सन्त-महात्माओं ने जन्म लिया। महात्मा गाँधी का जन्म भी यहीं की पवित्र-पावन भूमि पर हुआ था। सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर सम्पूर्ण श्व को शान्ति का पाठ पढ़ाने वाली महान् आत्मा, जिसने प्रेम का महान् आदर्श प्रस्तुत किया, ऐसे महात्मा का नाम सभी भारतीयों द्वारा बड़े आदर से लिया जाता है। भारतवासी उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ या ‘बापू’ कहकर पुकारते हैं। वे अहिंसा के अवतार, सत्य के देवता, अछूतों के प्राणाधार एवं राष्ट्र के पिता थे।
जीवन-परिचय एवं शिक्षा–महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को काठियावाड़ के अन्तर्गत पोरबन्दर नामक स्थान के एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। इनके पिता करमचन्द गाँधी राजकोट रियासत में दीवान थे। इनकी माता पुतलीबाई अत्यन्त धर्मपरायण, पूजा-पाठ में श्रद्धा रखने वाली एक आदर्श महिला थीं।
गाँधीजी की प्रारम्भिक शिक्षा राजकोट में हुई। वे मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करके सन् 1888 ई० में कानून का अध्ययन करने के लिए इंग्लैण्ड चले गये। सन् 1891 ई० में गाँधीजी बैरिस्टर होकर भारत लौटे और बम्बई में वकालत करना आरम्भ किया। ये झूठ से काम लेना पाप समझते थे और गरीबों के मुकदमों की पैरवी नि:शुल्क किया करते थे।
दक्षिण अफ्रीका-गमन—सन् 1893 ई० में एक गुजराती व्यवसायी के मुकदमे की पैरवी करने के लिए गाँधीजी को दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ की सरकार द्वारा भारतीयों के साथ अपमान व भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता था। गाँधीजी को स्वयं नाना प्रकार की अवमाननाएँ सहन करनी पड़ीं।। उन्होंने भारतीयों की राजनीतिक और सामाजिक दशा सुधारने के लिए ‘नैटाल कांग्रेस की स्थापना की और इस भेदभाव के विरुद्ध सत्याग्रह आन्दोलन आरम्भ किया। वहाँ उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा, परन्तु वे अपने दृढ़ संकल्प से अविचलित रहे। बीस वर्ष अफ्रीका में रहकर गाँधीजी भारत लौट आये।।
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के कर्णधार–भारत लौटने पर गाँधीजी ने पराधीन भारतीयों की दुर्दशा देखी। उन्होंने पराधीन भारत की बेड़ियों को काटने का निश्चय किया और अहमदाबाद के निकट साबरमती के तट पर एक आश्रम की स्थापना की और यहीं रहकर करोड़ों भारतीयों का मार्गदर्शन किया। गाँधीजी ने यहाँ भी अंग्रेजों के विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका में आजमाये गये सत्याग्रह और अहिंसा को असहयोग की नयी धार चढ़ाते हुए आजमाया। उनके नेतृत्व से भारतीयों में एक नयी स्फूर्ति आ गयी। उनके एक आह्वान पर लोग सत्याग्रह में भाग लेकर अपने प्राण निछावर करने के लिए स्वतन्त्रता-संग्राम में कूद पड़े
चल पड़े जिधर दो डगमग में, बढ़ गये कोटि पग उसी ओर।
पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि, गड़ गये कोटि दृग उसी ओर ॥
गाँधीजी ने मदनमोहन मालवीय, पं० मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास आदि के सहयोग से राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया। गाँधीजी को कांग्रेस का सभापति बनाया गया। इन्होंने कांग्रेस के सम्मुख खादी-प्रचार, अछूतोद्धार और मुस्लिम एकता की योजना रखी। सन् 1929 ई० में ‘साइमन कमीशन’ का बहिष्कार किया गया। सन् 1930 ई० में गाँधीजी ने डाण्डी में नमक सत्याग्रह करके ‘नमक-कानून’ को तोड़ा।
तदनन्तरं गाँधीजी कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में ‘गोलमेज कॉन्फ्रेन्स’ में भाग लेने इंग्लैण्ड गये। वहाँ से उनके लौटने पर आन्दोलन ने पुनः जोर पकड़ा। सन् 1942 ई० में गाँधीजी ने अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ का नारा लगाया तथा भारतीयों के लिए ‘करो या मरो’ का आह्वान किया। गाँधीजी के आह्वान पर भारतीय लोगों ने प्रशासन-शिक्षा आदि सभी क्षेत्रों में असहयोग प्रारम्भ कर दिया। इससे अंग्रेजों को यह समझ में आने लगा। कि भारत को अब अधिक समय तक गुलाम नहीं रखा जा सकता। अन्ततः उन्होंने भारत का दो भागों में विभाजन करके 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत की स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी।
गाँधीजी की मृत्यु-गाँधीजी की मानवतावादी नीति को मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति समझकर एक भ्रान्त युवक नाथूराम गोडसे ने प्रार्थना को जाते समय 30 जनवरी, 1948 ई० को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। ‘हे राम’ का उच्चारण करता हुआ मानवता का यह पोषक सदा के लिए सो गया।
गाँधीजी का आदर्श व्यक्तित्व-गाँधीजी केवल राजनीतिक नेता ही नहीं थे, वरन् वे समाजसुधारक एवं ग्राम-सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में हरिजनों की दयनीय दशा देखकर उनका उद्धार किया। समाज में नारी को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने का भरसक प्रयत्न किया। उनका विश्वास था कि भारत गाँवों में बसा हुआ है और गाँवों की उन्नति से ही देश की उन्नति हो सकती है।
गाँधीजी का व्यक्तित्व महान् था। उनकी ‘कथनी और करनी’ में कोई अन्तर नहीं था। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ उनके जीवन का मूलमन्त्र था। ‘सत्य और अहिंसा’ उनके दिव्य अस्त्र थे। ‘प्रेम और शान्ति उनका सन्देश था। ‘रामराज्य’ उनका स्वप्न था। ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं उनके हृदय के उद्गार थे।
वर्तमान समय में गाँधीजी की प्रासंगिकता–आज महापुरुषों को उनकी जयन्ती अथवा पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करना एक औपचारिकता मात्र रह गयी है। गाँधीजी का अनुयायी होने का दम भरने वाले नेता ही आज छल-छद्म, धोखाधड़ी व रिश्वतखोरी जैसे भ्रष्टाचार के मामलों में आकण्ठ डूबे दिखाई दे रहे हैं। गाँधीजी के देश में ही उनका गाँधीवाद नष्ट हो रहा है और लोकतन्त्र लड़खड़ा रहा है।
गाँधीजी ने स्वाधीनता और स्वावलम्बन के लिए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर उनकी होली जलायी थी और राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी थी, पर आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, विदेशी भाषा और विदेशी वस्तुओं को कण्ठहार बनाया जा रहा है। अहिंसा के पुजारी और शान्ति के दूत के ही देश में हिंसा, हत्या, अपहरण और बलात्कार आम हो गये हैं।
उपसंहार-संसार में अनेक महापुरुष हुए हैं, पर वस्तुतः गाँधीजी विश्व के सर्वश्रेष्ठ महापुरुषों में एक थे। यदि ईसा और बुद्ध धर्म-प्रचारक थे, वाशिंगटन तथा लेनिन कुशल राजनीतिज्ञ थे, कबीर और तुलसी जनता को भक्ति-रस में स्नान कराने वाले सन्त थे तो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एक साथ श्रेष्ठ सन्त, राजनीति विशारद, परम धर्मात्मा, समाज-सुधारक और मानवता के पोषक थे। गाँधीजी जैसे महापुरुष अमर होते हैं। तथा स्वार्थ, हिंसा और अनैतिकता के अन्धकार में भटकती मानवता के लिए प्रकाश-स्तम्भ के तुल्य होते हैं।
40. डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम
रूपरेखा-
- प्रस्तावना,
- शैक्षिक उपलब्धियाँ,
- जीवन की सफलताएँ,
- प्रेरणा के स्रोत,
- उपसंहार।
प्रस्तावना-तमिलनाडु के मध्यमवर्गीय परिवार में डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर, 1931 ई० को हुआ था। जिनका पूरा नाम-अबुल पाकिर जैनुलाब्दीन अबुल कलाम था। इनके पिता का नाम जैनुलाब्दीन था जो मछुआरों को किराये पर नाव देने का काम करते थे। इनको बचपन से ही पायलट बनकर आसमान की अनन्त ऊँचाइयों को छूने का सपना था। अपने इस सपने को साकार करने के लिए इन्होंने अखबार तक बेचा तथा मुफलिसी में भी अपनी पढ़ाई जारी रखी और संघर्ष करते हुए उच्च शिक्षा हासिल कर पायलट की भर्ती परीक्षा में सम्मिलित हुए। उस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बावजूद उनका चयन नहीं हो सका, क्योंकि उस परीक्षा के द्वारा केवल आठ पायलटों का चयन होना था और सफल अभ्यर्थियों की सूची में उनका नौंवा स्थान था। इस घटना से निराशा होने पर भी उन्होंने हार नहीं मानी और दृढ़-निश्चय के बल पर उन्होंने सफलता की ऐसी बुलन्दियाँ हासिल कीं, जिनके सामने सामान्य पायलटों की उड़ानें अत्यन्त तुच्छ नजर आती हैं।
शैक्षिक उपलब्धियाँ-उनका व्यक्तित्व एक तपस्वी और कर्मयोगी का रहा। इन्होंने संघर्ष करते हुए प्रारम्भिक शिक्षा रामेश्वरम् के प्राथमिक स्कूल से प्राप्त करने के बाद रामनाथपुरम् के शवट्ज़ हाईस्कूल से मैट्रिकुलेशन किया। इसके बाद वे उच्च शिक्षा के लिए तिरुचिरापल्ली चले गए। वहाँ के सेन्ट जोसेफ कॉलेज से उन्होंने बी.एस-सी. की उपाधि प्राप्त की। बी. एस-सी. के बाद 1958 ई० में उन्होंने मद्रास इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से एयरोनॉटिकल इन्जीनियरिंग में डिप्लोमा किया।
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉ० कलाम ने हावरक्राफ्ट परियोजना एवं विकास संस्थान में प्रवेश किया। इसके बाद 1962 ई० में वे भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन में आए, जहाँ उन्होंने सफलतापूर्वक कई उपग्रह प्रक्षेपण परियोजनाओं में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। परियोजना निदेशक के रूप में भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान एसएलवी 3 के निर्माण में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी प्रक्षेपण यान से जुलाई, 1980 ई० में रोहिणी उपग्रह का अन्तरिक्ष में सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया गया। 1982 ई० में वे भारतीय रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन में वापस निदेशक के तौर पर आए तथा अपना सारा ध्यान गाइडेड मिसाइल के विकास पर केन्द्रित किया। अग्नि मिसाइल एवं पृथ्वी मिसाइल के सफल परीक्षण का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। उस महान व्यक्तित्व ने भारत को अनेक मिसाइलें प्रदान कर इसके सामरिक दृष्टि से इतना सम्पन्न कर दिया कि पूरी दुनिया इन्हें ‘मिसाइल मैन’ के नाम से जानने लगी।
जीवन की सफलताएँ-जुलाई, 1992 ई० में वे भारतीय रक्षा मन्त्रालय में वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त हुए। उनकी देखरेख में भारत ने 1998 ई० में पोखरण में दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया और परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों की सूची में शामिल हुआ। वर्ष 1963-64 के दौरान कलाम ने अमेरिका के अन्तरिक्ष संगठन नाशा की भी यात्रा की। वैज्ञानिक के रूप में कार्य करने के दौरान अलग-अलग प्रणालियों को एकीकृत रूप देना उनकी विशेषता थी। उन्होंने अन्तरिक्ष एवं सामरिक प्रौद्योगिकी का उपयोग कर नए उपकरणों का निर्माण भी किया।
डॉ० कलाम की उपलब्धियों को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1981 ई० पद्मभूषण और 1990 ई० में पदम् विभूषण से सम्मानित किया। इसके बाद उन्हें विश्वभर के 30 से अधिक विश्वविद्यालयों ने डॉक्टरेट की मानद उपाधि से विभूषित किया। 1997 ई० में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।
एक दिन ऐसा भी आया जब उन्होंने भारत के सर्वोच्च पद पर 26 जुलाई, 2002 को ग्यारहवें राष्ट्रपति के रूप में पदभार ग्रहण किया। उन्होंने इस पद को 25 जुलाई, 2007 तक सुशोभित किया। वे राष्ट्रपति भवन को सुशोभित करने वाले प्रथम वैज्ञानिक हैं। राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल में उन्होंने कई देशों का दौरा किया एवं भारत का शान्ति का सन्देश दुनिया भर को दिया। इस दौरान उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया एवं अपने व्याख्यानों द्वारा देश के नौजवानों का मार्गदर्शन करने एवं उन्हें प्रेरित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।
सीमित संसाधनों एवं कठिनाइयों के होते हुए भी उन्होंने भारत को अन्तरिक्ष अनुसन्धान एवं प्रक्षेपास्त्रों के क्षेत्र में एक ऊँचाई प्रदान की। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कलाम जी का व्यक्तिगत जीवन बेहद अनुशासित रहा। वे शाकाहारी थे तथा कुरान एवं भगवद्गीता दोनों का अध्ययन करते थे। संगीत से उनका बेहद लगाव था। कलाम ने तमिल भाषा में कविताएँ भी लिखीं। जिनका अनुवाद विश्व की कई भाषाओं में हो चुका है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई प्रेरणास्पद पुस्तकों की भी रचना की है। भारत 2020 : नई सहस्राब्दी । के लिए एक दृष्टि’, ‘इग्नाइटेड माइण्ट्स : अनलीशिंग द पावर विदिन इण्डिया’, ‘इण्डिया माय ड्रीम’, ‘विंग्स ऑफ फायर’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। उनकी पुस्तकों का कई भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनका मानना है कि भारत तकनीकी क्षेत्र में पिछड़ जाने के कारण ही अपेक्षित उन्नति-शिखर पर नहीं पहुंच पाया है। इसलिए अपनी पुस्तक ‘भारत 2020 : नई सहस्राब्दी के लिए एक दृष्टि’ के द्वारा उन्होंने भारत के विकास-स्तर को 2020 तक विज्ञान के क्षेत्र में अत्याधुनिक करने के लिए देशवासियों को एक विशिष्ट दृष्टिकोण प्रदान किया। यही कारण है कि वे देश की नई पीढ़ी के लोगों के बीच काफी लोकप्रिय रहे हैं।
प्रेरणा के स्रोत–पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम हमेशा से युवाओं को ऊर्जावान बनाने के लिए उनका हौंसला बढ़ाते रहते थे। युवाओं के उज्ज्वल भविष्य के लिए उनकी कहीं कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें अपनाकर कोई भी छात्र बुलन्दियों को छू सकता है। उनकी कही बातें हमेशा युवाओं का मार्गदर्शन करती रहेंगी।
कलाम ने कहा था
चलो हम अपना आज कुर्बान करते हैं जिससे हमारे बच्चों को बेहतर कल मिले।.।।
भगवान उन्हीं की मदद करता है जो कड़ी मेहनत करते हैं। यह सिद्धान्त स्पष्ट होना आवश्यक है।
सपने सच हों, इसके लिए सपने देखना जरूरी है।
छात्रों को प्रश्न जरूर पूछना चाहिए, यह छात्र का सर्वोत्तम गुण है।
अगर एक देश को भ्रष्टाचार मुक्त होना है तो मैं यह महसूस करता हूँ कि हमारे समाज में तीन ऐसे लोग हैं जो ऐसा कर सकते हैं, ये हैं-पिता, माता और शिक्षक।
युवाओं के लिए कलाम का विशेष संदेश था—अलग ढंग से सोचने का साहस करो, आविष्कार का साहस करो. अज्ञात पथ पर चलने का साहस करो. असम्भव को खोजने का साहस करो और समस्याओं को जीतो और सफल बनो। ये वे महान गुण हैं जिनकी दिशा में तुम अवश्य काम करो।
हमें हार नहीं माननी चाहिए और समस्याओं को हम पर हावी नहीं होना चाहिए।
उपसंहार-डॉ० कलाम के निधन से समाज को जो अपूरणीय क्षति हुई है, उसे भर पाना नामुमकिन है, परन्तु उनके आदर्शों पर चलकर हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अवश्य दे सकते हैं। ऐसे युगपुरुष, महान वैज्ञानिक, दार्शनिक, कर्मयोगी और खुशहाल भारत के स्वप्नदृष्टा, जिनके व्यक्तित्व से देश की आने वाली पीढ़ियाँ प्रेरणा लेती रहेंगी।
41. छात्र और अनुशासन [2013, 14, 15, 16]
सम्बद्ध शीर्षक
- विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का महत्त्व [2013]
- विद्यार्थी जीवन में अनुशासन [2011, 16]
- जीवन में अनुशासन का महत्त्व [2018]
रूपरेखा-
- प्रस्तावना,
- विद्यार्थी और विद्या,
- अनुशासन का स्वरूप और महत्त्व,
- अनुशासनहीनता के कारण,
- निवारण के उपाय,
- उपसंहार।
प्रस्तावना विद्यार्थी देश का भविष्य हैं। देश के प्रत्येक प्रकार का विकास विद्यार्थियों पर ही निर्भर है। विद्यार्थी जाति, समाज और देश का निर्माता होता है; अतः विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना बहुत आवश्यक है। उत्तम चरित्र अनुशासन से ही बनता है। अनुशासन जीवन का प्रमुख अंग और विद्यार्थी जीवन की आधारशिला है। व्यवस्थित जीवन व्यतीत करने के लिए मात्र विद्यार्थी ही नहीं अपितु प्रत्येक मनुष्य के लिए अनुशासित होना अति आवश्यक है। आज विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता की शिकायत सामान्य-सी बात हो गयी है। इससे शिक्षा-जगत् ही नहीं, अपितु सारा समाज प्रभावित हुआ है।
विद्यार्थी और विद्या-‘विद्यार्थी’ का अर्थ है-‘विद्या का अर्थी’ अर्थात् विद्या प्राप्त करने की कामना करने वाला। विद्या लौकिक या सांसारिक जीवन की सफलता का मूल आधार है, जो गुरु-कृपा से प्राप्त होती है।
संसार में विद्या सर्वाधिक मूल्यवान् वस्तु है, जिस पर मनुष्य के भावी जीवन का सम्पूर्ण विकास तथा सम्पूर्ण नति निर्भर करती है। इसी कारण महाकवि भर्तृहरि विद्या की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि “विद्या ही मनुष्य का श्रेष्ठ स्वरूप है, विद्या भली-भाँति छिपाया हुआ धन है (जिसे दूसरा चुरा नहीं सकता) । विद्या ही सांसारिक भोगों को तथा यश और सुख को देने वाली है, विद्या गुरुओं की भी गुरु है। विद्या ही श्रेष्ठ ५. देवता है। राजदरबार में विद्या ही आदर दिलाती है, धन नहीं। अत: जिसमें विद्या नहीं, वह निरा पशु है। इस अमूल्य विद्यारूपी रत्न को पाने के लिए इसका जो मूल्य चुकाना पड़ता है, वह है तपस्या। इस तपस्या का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कवि कहता है
सुखार्थिनः कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
अनुशासन का स्वरूप और महत्त्व-‘अनुशासन’ का अर्थ है-बड़ों की आज्ञा (शासन) के पीछे (अनु) चलना। ‘अनुशासन का अर्थ वह मर्यादा है जिनका पालन ही विद्या प्राप्त करने और उसका उपयोग करने के लिए अनिवार्य होता है। अनुशासन का भाव सहज रूप से विकसित किया जाना चाहिए। थोपे जाने पर अथवा बलपूर्वक पालन कराये जाने पर यह लगभग अपना उद्देश्य खो देता है। विद्यार्थियों के प्रति प्रायः सभी को यह शिकायत रहती है कि वे अनुशासनहीन होते जा रहे हैं, किन्तु शिक्षक वर्ग को भी इसका कारण ढूंढ़ना चाहिए कि क्यों विद्यार्थियों की उनमें श्रद्धा विलुप्त होती जा रही है।
अनुशासनहीनता के कारण-वस्तुत: विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता एक दिन में पैदा नहीं हुई है। इसके अनेक कारण हैं, जिन्हें मुख्यत: निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा जा सकता है
(क) पारिवारिक कारण–बालक की पहली पाठशाला उसका परिवार है। माता-पिता के आचरण का बालक पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आज बहुत-से ऐसे परिवार हैं जिनमें माता-पिता दोनों नौकरी करते हैं या अलग-अलग व्यस्त रहते हैं। इससे बालक उपेक्षित होकर विद्रोही बन जाता है।
(ख) सामाजिक कारण–विद्यार्थी जब समाज में चतुर्दिक् व्याप्त भ्रष्टाचार, घूसखोरी, सिफारिशबाजी, भाई-भतीजावाद, फैशनपरस्ती, विलासिता और भोगवाद अर्थात् हर स्तर पर व्याप्त अनैतिकता को देखता है तो वह विद्रोह कर उठता है और अध्ययन की उपेक्षा करने लगता है।
(ग) राजनीतिक कारण-छात्र-अनुशासनहीनता का एक बहुत बड़ा कारण दूषित राजनीति है। आज राजनीति जीवन के हर क्षेत्र पर छा गयी है। सारे वातावरण को उसने इतना विषाक्त कर दिया है कि स्वस्थ वातावरण में साँस लेना कठिन हो गया है।
(घ) शैक्षिक कारण—छात्र-अनुशासनहीनता का कदाचित् सबसे प्रमुख कारण यही है। अध्ययन के लिए आवश्यक अध्ययन-सामग्री, भवन एवं अन्यान्य सुविधाओं का अभाव, कर्तव्यपरायण एवं चरित्रवान् शिक्षकों के स्थान पर अयोग्य, अनैतिक और भ्रष्ट अध्यापकों की नियुक्ति, अध्यापकों द्वारा छात्रों की कठिनाइयों की उपेक्षा करके ट्यूशन आदि के चक्कर में लगे रहना या मनमाने ढंग से कक्षाएँ लेना आदि छात्र-अनुशासनहीनता के प्रमुख शैक्षिक कारण हैं।
निवारण के उपाय-यदि शिक्षकों को नियुक्त करते समय सत्यता, योग्यता और ईमानदारी का आकलन अच्छी प्रकार कर लिया जाए तो प्राय: यह समस्या उत्पन्न ही न हो। प्रभावशाली, गरिमामण्डित, विद्वान् और प्रसन्नचित्त शिक्षक के सम्मुख विद्यार्थी सदैव अनुशासनबद्ध रहते हैं। पाठ्यक्रम को अत्यन्त सुव्यवस्थित वे सुनियोजित, रोचक, ज्ञानवर्धक एवं विद्यार्थियों के मानसिक स्तर के अनुरूप होना चाहिए।
छात्र-अनुशासनहीनता के उपर्युक्त कारणों को दूर करके ही हम इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। सबसे पहले वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था को इतना व्यावहारिक बनाया जाना चाहिए कि शिक्षा पूरी करके विद्यार्थी अपनी आजीविका के विषय में पूर्णत: निश्चिन्त हो सके। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा हो। शिक्षा सस्ती की जाए और निर्धन किन्तु योग्य छात्रों को नि:शुल्क उपलब्ध करायी जाए। परीक्षा-प्रणाली स्वच्छ हो, जिससे योग्यता का सही और निष्पक्ष मूल्यांकन हो सके।
उपसंहार—छात्रों के समस्त असन्तोषों का जनक अन्याय है। इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से अन्याय को मिटाकर ही देश में सच्ची सुख-शान्ति लायी जा सकती है। छात्र-अनुशासनहीनता का मूल भ्रष्ट राजनीति, समाज, परिवार और दूषित शिक्षा-प्रणाली में निहित है। इनमें सुधार लाकर ही हम विद्यार्थियों में व्याप्त अनुशासनहीनता की समस्या का स्थायी समाधान ढूंढ़ सकते हैं।
42. शिक्षा में क्रीड़ा का महत्त्व
सम्बद्ध शीर्षक
- राष्ट्रीय जीवन में क्रीड़ा का महत्त्व
- जीवन में खेलकूद का महत्त्व [2011, 12]
रूपरेखा-
- प्रस्तावना,
- जीवन में खेलों का महत्त्व,
- शिक्षा में खेलों का महत्त्व,
- राष्ट्रीय जीवन में खेलों का महत्त्व,
- भारत में खेलों की स्थिति,
- कुछ सुझाव,
- उपसंहार।
प्रस्तावना-मानव ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है। इसलिए समग्र मानवता को स्वस्थ, सबल और कर्म-निरत रखने के लिए खेलों को महत्त्व देना अत्यावश्यक है। महर्षि चरक का कथन है-‘ धर्मार्थकाम-मोक्षाणां आरोग्यं मूलकारणम्’; अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—ये चारों सिद्धियाँ तभी प्राप्त होती हैं जब शरीर स्वस्थ रहे और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए खेल आवश्यक हैं। खेलों की उपेक्षा करके जीवन के सन्तुलित विकास की कल्पना करना व्यर्थ है। यही कारण है कि प्रत्येक देश में स्वाभाविक रूप से खेलकूद (क्रीड़ा) और व्यायाम का महत्त्व होता है।
जीवन में खेलों का महत्त्व–महाकवि कालिदास ने कहा है कि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। तात्पर्य यह है कि किसी धर्म-साधना के लिए अथवा कर्तव्य-निर्वाह के लिए स्वस्थ और पुष्ट शरीर का होना अति आवश्यक है और शरीर को पुष्ट करने में खेलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। खिलाड़ी का शरीर स्वस्थ होता है और जब शरीर स्वस्थ रहेगा तो मन और मस्तिष्क भी स्वस्थ रहेंगे। एक कहावत हैं— ‘A healthy mind is in a healthybody’; अर्थात् स्वस्थ मस्तिष्क स्वस्थ शरीर में ही सम्भव है। अतः स्पष्ट है कि जीवन में खेलों का अत्यधिक महत्त्व है। खेलों से भाईचारा तथा आत्मविश्वास बढ़ता है, सहिष्णुता आती है और मिलकर रहने की या जीवन जीने की भावना उत्पन्न होती है।
शिक्षा में खेलों का महत्त्व-शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास करना है। सर्वांगीण विकास के अन्तर्गत शरीर, मन और मस्तिष्क भी आते हैं। खेलों से शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों का विकास होता है। विद्यार्थी ही नहीं, अपितु प्रत्येक व्यक्ति एक ही जैसी दिनचर्या व काम से ऊब जाता है। इसलिए ऐसी स्थिति में उसे परिवर्तन की जरूरत महसूस होती है। छात्रों की मन भी पुस्तकीय शिक्षा से अवश्य ही ऊबता है; अत: छात्रों की मानसिक स्थिति में परिवर्तन के लिए छात्रों को खेल खिलाना आवश्यक हो जाता है। इससे उनका मनोरंजन हो जाता है और एकरसता भी टूट जाती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनका शरीर पुष्ट और स्वस्थ हो जाता है।
खेलकूद अप्रत्यक्ष रूप से आध्यात्मिक विकास में भी सहायक होते हैं। खेलकूद से प्राप्त प्रफुल्लता और उत्साह से जीवन-संग्राम में जूझने की शक्ति प्राप्त होती है। इतना ही नहीं, सच्चा खिलाड़ी तो हानिलाभ, यश-अपयश, सफलता-असफलता को समान भाव से ग्रहण करने का भी अभ्यस्त हो जाता है।
राष्ट्रीय जीवन में खेलों का महत्त्व—किसी भी राष्ट्र का निर्माण भूमि, मनुष्य तथा उसकी संस्कृति के समन्वित रूप से होता है। इन सभी तत्त्वों में संस्कृति का विशेष महत्त्व है और खेल हमारी सांस्कृतिक विरासत भी हैं। सहयोग, प्रेम, अहिंसा, सहिष्णुता और एकता का इसमें विशेष महत्त्व है। ये सभी गुण खेलों के माध्यम से ही उत्पन्न होते हैं। खेल खेलते समय हमारी संकीर्ण मनोवृत्तियाँ; यथा-अस्पृश्यता, जातिवाद, धार्मिक विभेद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि अलगाववादी भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं और शुद्ध एकता की अनुभूति होती है। खेलों से राष्ट्रीयता की जड़े मजबूत होती हैं।
भारत में खेलों की स्थिति—हमें यह देखकर बहुत दु:ख होता है कि हमारे देश में खेलों की स्थिति बहुत दयनीय है। अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में जब कभी अपने देश का नाम देखने का मन करता है तो दुर्भाग्यवश हमें अन्त से प्रारम्भ की ओर देखना पड़ता है। कभी हॉकी में सिरमौर रहा हमारा देश आज वहाँ भी शून्यांक पर दिखाई देता है। जसपाल राणा, पी० टी० उषा, लिएण्डर पेस के बाद कुछ ही आशा की किरणें हैं, जो कभी-कभी अन्धकार में प्रकाश बिखेरती हैं। खेलों में राजनीति के प्रवेश ने उनका स्तर घटिया कर दिया है।
कैसी विडम्बना है कि विश्व की सर्वाधिक आबादी रखने वाले देशों में द्वितीय स्थान वाला भारत, ओलम्पिक खेलों में मात्र कुछ-एक काँस्य और रजत पदक ही प्राप्त कर पाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में एक से बढ़कर एक एथलीट्स मिल सकते हैं और यदि उन्हें उचित प्रशिक्षण दिया जाए तो वे अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में बहुत-सा सोना बटोर सकते हैं, पर ऐसा नहीं होता। पहुँच वालों के चहेते ही सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बनकर देश को अपमान का पूँट पीने को विवश करते हैं।
कुछ सुझाव-शरीर में स्फूर्ति और मन में उल्लास भरकर सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता की भावना जगाने वाले खेलों की उपेक्षा करना उचित नहीं है। खेल मनुष्य में सहिष्णुता, साहस, धैर्य और सरसता उत्पन्न करते हैं; अतः विद्यालय समय में ही कक्षावार खेल खिलाने तथा प्रतिस्पर्धात्मक मैच खिलाने की अनिवार्य व्यवस्था होनी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में ब्लॉक स्तर पर जो क्रीड़ा प्रतियोगिताएँ होती हैं, उनमें छात्रों के अलावा अन्य ग्रामीण युवक-युवतियों की प्रतिभागिता भी सुनिश्चित होनी चाहिए। हमारी सरकार ऐसी खेल नीति बनाये, जिसमें सभी प्रकार के खेलों के गिरते स्तर को सुधारने के लिए केवल नगरों में ही नहीं, अपितु ग्रामीण क्षेत्रों में भी अच्छे कोच तथा खेल के मैदान उपलब्ध कराये जाएँ।
उपसंहार—जीवन के प्रत्येक भाग में खेलों का अपना विशेष महत्त्व है, चाहे विद्यार्थी जीवन हो या सामाजिक। इन खेलों से स्फूर्ति, आनन्द, उल्लास, एकता, सद्भाव, सहयोग और सहिष्णुता जैसे मानवीय गुणों का विकास होता है, बन्धुत्व की भावना बढ़ती है और शरीर स्वस्थ रहता है। इसलिए खेलों के प्रति रुचि जगाने तथा खेलों के गिरते स्तर को उन्नत बनाने के लिए क्रीड़ा प्रतियोगिताओं का समय-समय पर आयोजन होना ही चाहिए। यदि सच्चे मन से और निष्पक्ष भाव से खेलों के विकास की ओर ध्यान दिया जाएगा तो ओलम्पिक के साथ-साथ अन्य राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भी देश को मान-सम्मान अवश्य मिलेगा।
43. जनतन्त्र और शिक्षा
सम्बद्ध शीर्षक
- सार्वजनिक शिक्षा अभियान
रूपरेखा—
- प्रस्तावना,
- जनतन्त्र का अर्थ,
- जनतन्त्र का उद्देश्य,
- जनतन्त्र के आधार,
- जनतन्त्र और शिक्षा,
- जनतन्त्र में शिक्षा,
- उपसंहार।
प्रस्तावना–शिक्षा जनतन्त्र के लिए संजीवनी और अमृत तुल्य है। जनतन्त्र में शिक्षा की समुचित व्यवस्था जनतन्त्र को प्रभावी और प्रोन्नत बनाती है। जनतन्त्र जीवन की एक पद्धति है, जिसमें व्यक्ति के अस्तित्व को महत्त्व प्रदान किया जाता है। शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व की विधायक है।
जनतन्त्र का अर्थ–जनतन्त्र एक व्यापक व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति से सम्बन्धित राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक सभी क्षेत्र आते हैं। जनतन्त्र शासन का वह रूप है, जिसमें शासन की शक्ति सम्पूर्ण जन-समाज के सदस्यों में निहित होती है। राजनीतिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति इसमें भाग लेने का अधिकारी है। यह जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता के प्रतिनिधियों का शासन है। केण्डेल के अनुसार, “जनतन्त्र एक आदर्श के रूप में जीवन की एक विधि है, जो व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं उसके उत्तरदायित्व पर आधारित है।” शिक्षा के क्षेत्र में जनतन्त्र के अनुसार व्यक्ति को समान सुविधा, स्वतन्त्रता एवं व्यक्तित्व-विकास के समान अवसर प्राप्त होते हैं।
जनतन्त्र का उद्देश्य-जनतन्त्र एक जीवन-दर्शन है। मानव के विकास एवं समाज के कल्याण में जनतन्त्र की सफलता निहित है। जनतन्त्र का लक्ष्य समाज की सभी क्रियाओं में व्यक्ति को समान रूप से अधिकार दिलाना है। उत्तम नागरिक का निर्माण जनतन्त्र का मुख्य कर्तव्य है। शिक्षा के आधार पर ही जनतन्त्र के व्यवहार एवं आदर्श निश्चित होते हैं।
जनतन्त्र के आधार–शिक्षा के क्षेत्र में जनतन्त्र की भावना को सफल बनाने के लिए कुछ उपाय बताये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं
- मानव व्यक्तित्व की सुरक्षा तथा आदर,
- प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता, समानता तथा सामाजिक न्याय की प्राप्ति,
- व्यक्ति की जनतन्त्र में आस्था, जागरूकता, क्षमता तथा योग्यता,
- अधिकार के साथ उत्तरदायित्व का निर्वाह,
- शान्तिपूर्ण विचार-विनिमय द्वारा समस्या का समाधान,
- अल्पसंख्यकों की सुरक्षा तथा धर्मनिरपेक्षता,
- सहयोग, सहिष्णुता तथा बन्धुत्व की भावना,
- विरोधी-विचारों तथा मत प्रकाशन के अधिकार तथा
- स्वस्थ एवं स्वतन्त्र जीवन-दर्शन।
जनतन्त्र व्यक्ति के आचरण द्वारा ही जीवित रहता है। शिक्षा द्वारा ही मनुष्य में वे सभी गुण आ सकते हैं, जिनकी जनतन्त्र में अपेक्षा की जाती है। अतः जनतन्त्र की सफलता हेतु अच्छी शिक्षा-व्यवस्था आवश्यक है। जनतन्त्र में अनिवार्य नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए।
जनतन्त्र और शिक्षा–सुयोग्य नागरिकों के ऊपर ही जनतन्त्र की सफलता आधारित होती है। शिक्षा द्वारा नागरिकों में विवेक का प्रादुर्भाव होता है। शिक्षा द्वारा ही मानव की भावनाओं को परिष्कृत कर मानवीय गुणों का विकास किया जाता है। जनतन्त्र में शिक्षा वह साधन है, जिससे व्यक्ति समाज के क्रिया-कलापों में सक्रिय भाग लेने में समर्थ होता है। समाज का निर्माण व्यक्ति करता है और व्यक्ति का निर्माण शिक्षा। शिक्षा जीवन की समस्याओं का समाधान करने के लिए साधन है। जनतन्त्र में जन-शिक्षा को प्रोत्साहन मिलता है।
शिक्षा का आदर्श स्वस्थ समाज का निर्माण करना है। जनतान्त्रिक शिक्षा व्यक्ति और समाज में सन्तुलन स्थापित करती है। जनतन्त्र में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का शारीरिक, बौद्धिक तथा नैतिक विकास करना है। समाज का यह दायित्व है कि वह व्यक्ति को प्रगति का वातावरण प्रदान करे, जिससे वह स्वहित साधन के साथ सामाजिक हित का भी संवर्द्धन करे। इस प्रकार जनतन्त्र और शिक्षा एक-दूसरे के पूरक हैं।।
जनतन्त्र में शिक्षा—
(क) उद्देश्य-जनतन्त्र की शिक्षा एक सन्तुलित शिक्षा है, जिसमें बौद्धिक विकास के साथ-साथ सामाजिक गुणों तथा व्यावहारिक कुशलता का विकास भी होता है। शिक्षा समाज में तथा विद्यालय में सम्पर्क स्थापित करने का कार्य करती है। जनतन्त्र में शिक्षा का उद्देश्य होता है-व्यक्ति को योग्य (आदर्श) नागरिक बनाना।
(ख) पाठ्यक्रम-जनतन्त्र में शैक्षिक पाठ्यक्रम व्यापक होता है। एच० के० हेनरी के अनुसार, पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सम्पूर्ण विद्यालय का वातावरण आता है, जिनका सम्बन्ध बालकों से होता है।” वास्तव में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत विद्यालय की वे सभी बहुमुखी क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं, जिनका अनुभव छात्र को विद्यालये, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, खेल आदि के द्वारा उपलब्ध होता है। पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि बालकों में स्वतन्त्र चिन्तन तथा विचारशक्ति उत्पन्न हो और उनकी निर्णयात्मक शक्ति का विकास हो।।
(ग) विद्यालय का उत्तरदायित्व–समाज में जनतन्त्रीय आदर्शों की स्थापना में विद्यालय का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। एच० जी० वेल्स के अनुसार, “विद्यालय संसार के लघु प्रतिरूप होने चाहिए, जिन्हें ग्रहण करने के हम इच्छुक हों।” विद्यालय छात्रों तथा समाज के जीवन में एकता लाता है तथा सामाजिक भावना का विकास करता है। विद्यालय के प्रशासन में राज्य का हस्तक्षेप जनतन्त्र के लिए बाधक होता है तथा विद्यालय को राजनीतिक व्यक्तियों की दुर्भावना का शिकार होना पड़ता है, जिससे विद्यालयों की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।
(घ) अनुशासन–जनतन्त्र में अनुशासन का तात्पर्य बालक-बालिकाओं को जनतन्त्र के सामाजिक जीवन के लिए तैयार करना है। जनतन्त्र का सामाजिक जीवन स्वच्छन्दता का नहीं होता, अपितु उसमें एक व्यवस्था होती है, अच्छा आचरण और अनुशासन होता है। अनुशासन की परीक्षा बालकों के व्यवहार से होती है। अच्छे आचरण और अच्छे व्यवहार से तात्पर्य अच्छे चरित्र से होता है। इस कार्य में विद्यालय, समाज, अध्यापक तथा अभिभावक सबको प्रयास करना चाहिए।
उपसंहार-इस प्रकार जनतन्त्र और शिक्षा की मूलभूत बातों पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनका मानव-जीवन में विशिष्ट महत्त्व है। टैगोर के अनुसार, “सफल शिक्षा समग्र जीवन को पूर्ण रूप से प्रभावित करती है।” जनतन्त्र और शिक्षा दोनों एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। शिक्षा जनतन्त्र की अनुजा है तथा शिक्षा और जनतन्त्र समान रूप से इस युग में पूजित तथा प्रतिष्ठित हैं।
44. जीवन में शिक्षा का महत्त्व
रूपरेखा
- प्रस्तावना,
- शिक्षा का उद्देश्य,
- शिक्षा की आवश्यकता,
- शिक्षा से ही समाज का उत्थान सम्भव,
- उपसंहार।
प्रस्तावना-शिक्षा-विहीन व्यक्ति सींग और पूँछरहित जानवर के समान होता है। शिक्षा मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाती है। मनुष्य के भीतर विकास की जो सम्भावनाएँ होती हैं, उन्हें विकसित करना ही शिक्षा का मुख्य कार्य है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य ने अपने लिए और न ही समाज के लिए उपयोगी हो पाता है। मानव सभ्यता का विकास, शिक्षा का ही विकास है। प्राचीन काल की शिक्षा में गुरु का अधिक महत्त्व रहता था। गुरुजनों ने जो सत्य उपलब्ध किया, उसे शिष्यों तक पहुँचाना वे अपना कर्तव्य समझते थे। पुस्तकीय ज्ञान को विद्यार्थियों के मस्तिष्क में ढूंस देना ही शिक्षा का मुख्य लक्ष्य स्वीकार नहीं किया जा सकता।
शिक्षा का उद्देश्य–शिक्षा का उद्देश्य है-संस्कार देना। मनुष्य के शारीरिक, मानसिक तथा भावात्मक विकास में योगदान देना शिक्षा का मुख्य कार्य है। शिक्षित व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहता है, स्वच्छता को जीवन में महत्त्व देता है और उन सभी बुराइयों से दूर रहता है, जिनसे स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। रुग्ण शरीर के कारण शिक्षा में बाधा पड़ती है। शिक्षा हमारे ज्ञान का विस्तार करती है। ज्ञान का प्रकाश जिन खिड़कियों से प्रवेश करता है, उन्हीं से अज्ञान और रूढ़िवादिता का अन्धकार निकल भागता है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपने परिवेश को पहचानने और समझने में सक्षम होता है। विश्व में ज्ञान का जो विशाल भण्डार है, उसे हम शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त कर सकते हैं। सृष्टि के रहस्यों को खोलने की कुंजी शिक्षा ही है। अशिक्षित व्यक्ति रूढ़ियों, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों का शिकार हो सकता है। शिक्षा हमारी भावनाओं का संस्कार करती है और हमारे दृष्टिकोण को उदार बनाती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य मानव का सर्वांगीण विकास करना है।
शिक्षा की आवश्यकता–समाजे मानवीय सम्बन्धों का ताना-बाना है। व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध अत्यन्त गहरा है। व्यक्ति के अभाव में समाज का अस्तित्व और समाज के अभाव में सभ्य मनुष्य की कल्पना कर सकना भी असम्भव है। समाज का स्वास्थ्य, व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। यदि समाज में रहने वाले व्यक्ति स्वस्थ, सुशिक्षित, उदार, संवेदनशील एवं परोपकारी होंगे, तो समाज अवश्य उन्नति करेगा। प्रत्येक सभ्य समाज की प्रमुख चिन्ता यही होती है कि वह किसी प्रकारे अपने नागरिकों की क्षमता को बढ़ा सके। समाज का प्रत्येक व्यक्ति समाज से जितना लेता है उससे अधिक देने में सक्षम हो सके तभी समाज का विकास सम्भव है। शिक्षित व्यक्ति में ही यह क्षमता विकसित हो सकती है। शिक्षित व्यक्ति ही एक अच्छा व्यापारी, कर्मचारी, डॉक्टर, अध्यापक, इंजीनियर अथवा नेता हो सकता है। शिक्षित व्यक्ति समाज में रहने के लिए बेहतर स्थान बना सकता है।
शिक्षा से ही समाज का उत्थान सम्भव–शिक्षा के प्रसार द्वारा ही समाज में समता, सहयोग एवं शोषणरहित व्यवस्था का निर्माण सम्भव है। आज भारत में साक्षरता अभियान पर बल दिया जा रहा है; क्योंकि साक्षर और शिक्षित नागरिक ही सामाजिक कुरीतियों से लड़ सकते हैं। रूढ़िबद्ध समाज में परिवर्तन लाने का साधन शिक्षा ही हो सकती है। शिक्षित व्यक्ति अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझ सकता है। वह आसानी से शोषण का शिकार नहीं हो सकता; क्योंकि प्राय: अज्ञानता ही मनुष्य को असहाय बनाती है।
शिक्षित व्यक्ति ही प्रजातन्त्र की सफलता में सहयोग दे सकते हैं। प्रजातन्त्र का आधार प्रबुद्ध जनमत है। शिक्षित व्यक्ति ही राष्ट्रीय समस्याओं को ठीक प्रकार से समझ सकता है। इस प्रकार शिक्षा प्रजातन्त्र की सफलता के लिए अत्यधिक आवश्यक है।
नारी मुक्ति आन्दोलन में भी शिक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षित नारी अपने परिवार तथा समाज के लिए उपयोगी भूमिका निभा सकती है। वह बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकती है, घर को सजा-सँवार सकती है, आत्म-निर्भर हो सकती है, अपने अधिकारों के लिए लड़ सकती है और शोषण का विरोध कर सकती है।
उपसंहार-निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन में शिक्षित नागरिकों की भूमिका ही महत्त्वपूर्ण हो सकती है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास है। व्यक्ति के विकास में ही समाज का विकास निहित है। 45. मेरे प्रिय साहित्यकार
45. मेरे प्रिय साहित्यकार (जयशंकर प्रसाद) [2010, 15]
सम्बद्ध शीर्षक
- मेरे प्रिय कवि [2013, 14]
- मेरे प्रिय लेखक [2009]
रूपरेखा–
- प्रस्तावना,
- साहित्यकार का परिचय,
- साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा,
- छायावाद के श्रेष्ठ कवि,
- श्रेष्ठ गद्यकार,
- उपसंहार।
प्रस्तावना–संसार में सबकी अपनी-अपनी रुचि होती है। किसी व्यक्ति की रुचि चित्रकारी में है तो किसी की संगीत में। किसी की रुचि खेलकूद में है तो किसी की साहित्य में। मेरी अपनी रुचि भी साहित्य में रही है। साहित्य प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में इतना अधिक रचा गया है कि उन सबका पारायण तो एक जन्म में सम्भव ही नहीं है। फिर साहित्य में भी अनेक विधाएँ हैं–कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी, निबन्ध आदि। अतः मैंने सर्वप्रथम हिन्दी-साहित्य को यथाशक्ति अधिकाधिक अध्ययन करने का निश्चय किया और अब तक जितना अध्ययन हो पाया है, उसके आधार पर मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार हैं-जयशंकर प्रसाद प्रसाद जी केवल कवि ही नहीं, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार भी हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी-साहित्य में युगान्तरकारी परिवर्तन किये हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा को एक नवीन अभिव्यंजनाशक्ति प्रदान की है। इन सबने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया है और वे मेरे प्रिय साहित्यकार बन गये हैं।
साहित्यकार का परिचय–श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन् 1889 ई० में काशी के प्रसिद्ध सुँघनी साहु परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री बाबू देवी प्रसाद था। लगभग 11 वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने काव्य-रचना आरम्भ कर दी थी। सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। इनके पिता, माता के बड़े भाई का देहान्त हो गया और परिवार का समस्त उत्तरदायित्व इनके सुकुमार कन्धों पर आ गया। गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए एवं अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना करने के उपरान्त 15 नवम्बर, 1937 ई० को आपका देहावसान हुआ। अड़तालीस वर्ष के छोटे-से जीवन में इन्होंने जो बड़े-बड़े काम किये, उनकी कथा सचमुच अकथनीय है।
साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा–प्रसाद जी की रचनाएँ सन् 1907-08 ई० में सामयिक पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। ये रचनाएँ ब्रजभाषा की पुरानी शैली में थीं, जिनका संग्रह ‘चित्राधार’ में हुआ। सन् 1913 ई० में ये खड़ी बोली में लिखने लगे। प्रसाद जी ने पद्य और गद्य दोनों में साधिकार रचनाएँ कीं। इनकी रचनाओं का वर्गीकरण अग्रवत् है
(क) काव्य-कानन-कुसुम, प्रेम पथिक, महाराणा का महत्त्व, झरना, आँसू, लहर और कामायनी (नामाव्य)।
(ख) नाटक इन्होंने कुल मिलाकर 13 नाटक लिखे। इनके प्रसिद्ध नाटक हैं–चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना और ध्रुवस्वामिनी।।
(ग) उपन्यास–कंकाल, तितली और इरावती।।
(घ) कहानी–प्रसाद जी की विविध कहानियों के पाँच संग्रह हैं—छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल।
(ङ) निबन्ध–प्रसाद जी ने साहित्य के विविध विषयों से सम्बन्धित निबन्ध लिखे, जिनका संग्रह है-काव्य और कली तथा अन्य निबन्ध।
छायावाद के श्रेष्ठ कवि–छायावाद हिन्दी कविता के क्षेत्र का एक आन्दोलन है, जिसकी अवधि सन् 1920-36 ई० तक मानी जाती है। ‘प्रसाद’ जी छायावाद के जन्मदाता माने जाते हैं। छायावाद एक आदर्शवादी काव्यधारा है, जिसमें वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, प्रेम, सौन्दर्य तथा स्वच्छन्दतावाद की सबल अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद की ‘आँसू’ नाम की कृति के साथ हिन्दी में छायावाद का जन्म हुआ। आँसू का प्रतिपाद्य है–विप्रलम्भ श्रृंगार। प्रियतम के वियोग की पीड़ा वियोग के समय आँसू बनकर वर्षा की भाँति उमड़ पड़ती है
जो घनीभूत पीड़ा थी, स्मृति सी नभ में छायी।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आयी।
प्रसाद जी के काव्य में छायावाद अपने पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देता है। इनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण . रचना है-‘कामायनी’ महाकाव्य, जिसमें प्रतीकात्मक शैली पर मानव-चेतना के विकास का काव्यात्मक निरूपण किया गया है।
श्रेष्ठ गद्यकार-प्रसाद जी की सर्वाधिक ख्याति नाटककार के रूप में है। इन्होंने गुप्तकालीन भारत को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत करके गाँधीवादी अहिंसामूलक देशभक्ति का सन्देश दिया है। साथ ही अपने समय के सामाजिक आन्दोलनों को सफल चित्रण किया है। नारी की स्वतन्त्रता एवं महिमा पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया है। इनके प्रत्येक नाटक का संचालन सूत्र किसी नारी पात्र के हाथ में ही रहता है। इनके उपन्यास और कहानियों में भी सामाजिक भावना का प्राधान्य है, जिनमें दाम्पत्य-प्रेम के आदर्श रूप का चित्रण किया गया है। इनके निबन्ध विचारात्मक एवं चिन्तनप्रधान हैं।
उपसंहार-पद्य और गद्य की सभी रचनाओं में इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं परिमार्जित हिन्दी है। इनकी शैली आलंकारिक एवं साहित्यिक है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनकी गद्य-रचनाओं में भी इनका छायावादी कवि हृदय झाँकता हुआ दिखाई देता है। मानवीय भावों और आदर्शों में उदारवृत्ति का सृजन विश्व-कल्याण के प्रति इनकी विशाल-हृदयता का सूचक है। हिन्दी-साहित्य के लिए प्रसाद जी की यह बहुत बड़ी देन है। अपनी विशिष्ट कल्पना-शक्ति, मौलिक अनुभूति एवं नूतन अभिव्यक्ति के फलस्वरूप प्रसाद जी हिन्दी-साहित्य में मूर्धन्य स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। समग्रत: यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जी का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुत महान् है, जिस कारण वे मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार रहे हैं।
46. मेरे प्रिय कवि : तुलसीदास [2016, 17]
सम्बद्ध शीर्षक
- लोकनायक तुलसीदास
- मेरा प्रिय कवि [2009, 10, 13]
- मेरा प्रिय साहित्यकार [2010]
रूपरेखा—
- प्रस्तावना,
- जन्म की परिस्थितियाँ,
- लोकनायक तुलसीदास,
- तुलसी के राम,
- निष्काम भक्ति-भावना,
- धर्म-समन्वय की भावना पर बल–
- सगुण-निर्गुण का समन्वय,
- कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय,
- युगधर्म समन्वय,
- सामाजिक समन्वय,
- साहित्यिक समन्वय,
- उपसंहार।
प्रस्तावना–संसार में अनेक प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं, जिनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। यदि मुझसे पूछा जाए कि मेरा प्रिय साहित्यकार कौन है? तो मेरा उत्तर होगा-महाकवि तुलसीदास। यद्यपि तुलसी के काव्य में भक्ति-भावना प्रधान है, परन्तु उनका काव्य कई सौ वर्षों के बाद भी भारतीय जनमानस में रचा-बसा हुआ है और उनका मार्ग-दर्शन कर रही है, इसलिए तुलसीदास मेरे प्रिय साहित्यकार हैं। उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य सौष्ठव ने मुझे अनायास अपनी ओर आकृष्ट किया है।
जन्म की परिस्थितियाँ—तुलसीदास जी का जन्म अत्यन्त विषम परिस्थितियों में हुआ था। हिन्दू समाज अशक्त होकर मुगलों के चंगुल में फंसा हुआ था। हिन्दू-समाज की संस्कृति और सभ्यता पर निरन्तर आघात हो रहे थे। कहीं पर कोई भी उचित आदर्श नहीं था। इस युग में मन्दिरों का विध्वंस और ग्रामों व नगरों का नाश दे रहा था। अच्छे संस्कार समाप्त हो रहे थे। तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था। सर्वत्र धार्मिक विषमता व्याप्त थी। विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी इफली, अपना राग अलापना आरम्भ कर दिया था। ऐसी स्थिति में भोली-भाली जनता यह समझने में असमर्थ थी कि वह किस सम्प्रदाय का आश्रय ले। दिग्भ्रमित जनता को ऐसे नाविक की आवश्यकता थी, जो उनकी जीवन-नौका को सँभाल सके। गोस्वामी तुलसीदास ने निराशा के अन्धकार में डूबी हुई जनता के समक्ष भगवान् राम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने जनता में अपूर्व आशा एवं शक्ति का संचार किया। युगद्रष्टा तुलसी ने अपनी रचना ‘श्रीरामचरितमानस’ के द्वारा विभिन्न मतों, सम्प्रदायों एवं धाराओं का समन्वय किया। उन्होंने अपने युग को नवीन दिशा, नई गति एवं नवीन प्रेरणा दी। सच्चे लोकनायक के समान उन्होंने लोगों को मानवता के सूत्र में बाँधने का सफल प्रयास किया।
लोकनायक तुलसीदास-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है-“लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके। भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार की परस्पर विरोधी संस्कृतियाँ, जातियाँ, आचार, निष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुसलीदास भी समन्वयकारी थे।”
तुलसी के राम-तुलसीदास उन राम के उपासक थे, जो सच्चिदानन्द परब्रह्म हैं तथा जिनका भूमि पर पापरूपी हरण करने के लिए अवतार होता है।
जब-जब होइ धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ॥
तब-तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।
तुलसीदास जी ने अपने काव्य में सभी देवी-देवताओं की स्तुति की है, लेकिन अन्त में वे यही कहते तुलसीद हैं।
माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे॥
निम्नलिखित पंक्तियों में भगवान राम के प्रति उनकी अनन्यता और भी अधिक पुष्ट हुई है–
एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास ।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ॥
तुलसीदास के समक्ष ऐसे राम का जीवन था, जो मर्यादाशील थे तथा शक्ति एवं सौन्दर्य के अवतार थे।
निष्काम भक्ति-भावना-सच्ची भक्ति वही है, जिसमें आदान-प्रदान का भाव नहीं होता। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। इस सन्दर्भ में तुलसी का तो यही कथन है
मो सम दीन ने दीन हित, तुम्ह समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंस मनि, हरहु विषम भवं भीर।।
धर्म-समन्वय की भावना-तुलसीदासजी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता धर्म-समन्वय है। इसे प्रवृत्ति के कारण वे वास्तविक अर्थों में लोकनायक कहलाए। उनके काव्य में धर्म-समन्वय के अग्रलिखित रूप दृष्टिगोचर होते हैं
(i) सगुण-निर्गुण का समन्वय ईश्वर के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों का विवाह दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित था। तुलसीदास ने कहा है सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
(ii) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय-तुलसीदास जी की भक्ति मनुष्य को संसार से विमुख करके अकर्मण्य बनाने वाली नहीं है, अपितु सत्कर्म की प्रबल प्रेरणा देने वाली है। उनका सिद्धान्त है कि राम के समान आचरण करो, रावण सदृश नहीं—
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा॥
तुलसी ने ज्ञान और भक्ति के धागे में राम के नाम का मोती पिरो दिया है, जो सबके लिए मान्य है–
हिय निर्गुन नयनन्हे सगुन, रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥
(iii) युगधर्म समन्वय-भगवान को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के बाह्य तथा आन्तरिक साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार बदलते रहते हैं और इन्हीं को युगधर्म की संज्ञा दी जाती है। तुलसीदास जी ने इनका भी समन्वय प्रस्तुत किया है
कृतयुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग।
(iv) सामाजिक समन्वय-तुलसीदास जी के समय में भारतीय समाज अनेक प्रकार की विषमताओं तथा कुरीतियों से ग्रस्त था। आपस में भेदभाव की खाई चौड़ी होती जा रही थी। ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, स्त्री-पुरुष तथा गृहस्थ व संयासो का अन्तर बढ़ता जा रहा था। रामकथा की चित्रात्मकता एवं विषय-सम्बन्धी अभिव्यक्ति इतनी व्यापक और सक्षम थी कि उससे तुलसीदास जी के दोनों उद्देश्य सिद्ध हो जाते थे। सन्त-असन्त का समन्वय, व्यक्ति और समाज का समन्वय तथा व्यक्ति और परिवार का समन्वय आदि तुलसीदास के काव्य में सर्वत्र दृष्टिगोचर हुआ है।
(v) साहित्यिक समन्वय-साहित्य की दृष्टि से भी तुलसी का काव्य अद्वितीय है। इनके काव्य में सभी रसों को स्थान मिला है जिनका प्रभाव इनके काव्य में देखने को मिलता है। साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छन्द, सामग्री, रस, अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं तथा विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं। तुलसी ने अपने काव्य में संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।
उपसंहार—तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व, व्यष्टि सभी के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। तुलसीदास जी को ‘आधुनिक दृष्टि ही नहीं, हर युग की दृष्टि मूल्यवान् मानेगी; क्योंकि मणि की चमक अन्दर से आती है बाहर से नहीं।।
कवि तुलसीदास जी की भाषा अत्यन्त सरल और सरस है। उन्होंने श्रीरामचरितमानस का जितना सरल गेयरूप में वर्णन किया है वह अतुलनीय है। यद्यपि मैंने जितने भी साहित्यों का अध्ययन किया है मानस जैसा सरलीकरण और शब्दों की अभिव्यक्ति किसी में नहीं पायी। अतैव इनकी अतुलनीय साहित्यिक विशेषताओं के कारण इनके बारे में यही कहा जा सकता है-
“कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।”