CTET, TET, NOTES IN HINDI | आनुवंशिकता तथा वातावरण का प्रभाव
CTET, TET, NOTES IN HINDI | आनुवंशिकता तथा वातावरण का प्रभाव
आनुवंशिकता तथा वातावरण का प्रभाव
Introduction
> प्राचीनकाल के विद्वानों का यह मत था कि बीज के अनुसार वृक्ष और फल उत्पन्न होते हैं अर्थात् माता-पिता के अनुसार ही उसकी संतान होती है (Like Begets Like)। आधुनिक काल में, विशेष रूप से व्यवहारवादियों ने वातावरण को महत्व दिया है।
> वाटसन (. B. Watson, 1920) का विचार है कि “वातावरण के प्रभाव से शिशु को डॉक्टर, वकील, कलाकार, नेता आदि कुछ भी बनाया जा सकता है, भले ही शिशु का आनुवंशिकी कुछ भी रहा हो तथा एक समाज के व्यक्ति शारीरिक और
मानसिक दृष्टि से असमान होते हैं।”
> इन असमानताओं या विभिन्नताओं का कारण कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार वंशानुक्रम है तथा अन्य के अनुसार, भिन्नताओं का कारण वातावरण है।
> विज्ञान के क्षेत्र में इन अध्ययनों का आरंभ डार्विन तथा मनोविज्ञान के क्षेत्र में इन अध्ययनों का आरंभ गाल्टन ने किया। जहाँ एक ओर कुछ मनोवैज्ञानिक वंशानुक्रम को महत्व देते हैं और कुछ वातावरण को, वहीं दूसरी ओर दोनों वर्ग के विद्वान
एक-दूसरे के विचारों का खंडन भी करते रहे हैं। पीटरसन (Peterson) (1948) के अनुसार, “व्यक्ति को उसके माता-पिता के द्वारा उसके पूर्वजों से जो प्रभाव (Stock) प्राप्त होता है, वही उसका वंशानुक्रम है।”
> वुडवर्थ और मारिक्वस (1956) के अनुसार, “वंशानुक्रम में वे सभी कारक आ जाते हैं, जो व्यक्ति में जीवन आरंभ के समय उपस्थित होते हैं, जन्म के समय नहीं, वरन् गर्भाधान के समय अर्थात् जन्म से लगभग 9 माह पूर्व उपस्थित होते हैं।”
> डिंकमेयर (Dinkmeyer, 1965) के अनुसार, “वंशानुगत कारक वे जन्मजात विशेषताएँ हैं जो बालक में जन्म के समय से पायी जाती हैं।” माता के रज और पिता के वीर्य कणों में बालकों का वंशानुक्रम निहित होता है। गर्भाधान के समय जीन (Genes) भिन्न प्रकार से संयुक्त होते हैं। अतः एक ही माता-पिता की संतानों में भिन्नता दिखायी देती है। यह भिन्नता का नियम (Law of Variation) है। प्रत्यागमन के नियम (Law of Regression) के अनुसार, प्रतिभाशाली माता पिता की संतानें दुर्बल-बुद्धि कि भी हो सकती हैं।
बालकों के विकास में आनुवंशिकता तथा वातावरण का महत्व
Importance of Heredity and Environment in DevelopmentofChildren
व्यक्ति के व्यवहार के निर्धारण में आनुवंशिकता (Heredity) तथा वातावरण (Environment) के तुलनात्मक महत्व (Relative Importance) को दिखाने के लिए मनोवैज्ञानिक ने निम्नांकित दो तरह के अध्ययन (Studies) किये हैं-
1. जुड़वाँ बच्चों का अध्ययन (Studies of Twin Children)
2. पोष्य बच्चों का अध्ययन (Studies of Foster Children)
1. जुड़वाँ बच्चों का अध्ययन (Studies of Twin Children) – जुड़वाँ बच्चे (Tiwin Children) दो तरह के होते हैं एकांकी जुड़वाँ बच्चे (Identical Twin Children) तथा भ्रात्रीय जुड़वाँ बच्चे (Fraternal Twin Children) एकांकी जुड़वाँ बच्चों की आनुवंशिकता (Heredity) बिल्कुल ही समरूप (Identical) होती है, क्योंकि ऐसे बच्चे का जन्म माँ के एक अंडाणु (Ovum) के गर्भित होने के फलस्वरूप होता है। कोशिका विभाजन (Cell Divison) के दौरान एक ही गर्भित अंडाणु किसी कारण से
दो स्वतंत्र भागों में बँटकर दो बच्चे को जन्म देता है। ऐसे बच्चे या तो दोनों लड़का या दोनों ही लड़की होते हैं।
> भ्रात्रीय जुड़वाँ बच्चों का जन्म इसलिए हो पाता है कि माँ के दो अंडाणु (Ovum) एक ही साथ पिता के दो अलग-अलग शुक्राणु (Sperm) द्वारा गर्भित हो जाते हैं। स्वभावतः ऐसे जुड़वाँ बच्चों की आनुवंशिकता समान या समरूप नहीं होती है,
क्योंकि इसमें दो अलग-अलग गर्भित अंडाणु होते हैं । ऐसे बच्चों का यौन (Sex) कुछ भी
हो सकता है अर्थात् एक लड़का तथा एक लड़की या दोनों लड़का या दोनों लड़की।
> मनोवैज्ञानिकों ने आनुवंशिकता तथा वातावरण के तुलनात्मक महत्व को दिखाने के लिए जुड़वाँ बच्चों पर अध्ययन किया; जो इस प्रकार है-
(a) एकांकी जुड़वाँ बच्चे जिनका पालन-पोषण एक समान वातावरण में हुआ है : गेसेल तथा थॉम्प्सन (Gesell and Thompson, 1929) ने इस पर अध्ययन किया । इन्होंने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष दिया कि व्यक्तित्व का निर्धारण वातावरण की समानता तथा आनुवंशिकता की समानता दोनों के आधार पर होता है।
(b) एकांकी जुड़वाँ बच्चे जिनका पालन-पोषण अलग-अलग वातावरण में हुआ यह अध्ययन मनोवैज्ञानिक न्यूमैन, फ्रीमैन तथा हालजिंगर (Newman, Freeman & Holzinger, 1937) ने किया। इन्होंने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला
कि व्यक्तित्व कुछ तो आनुवंशिकता द्वारा तथा कुछ वातावरण द्वारा निर्धारित होता है। अतः व्यक्तित्व आनुवंशिकता तथा वातावरण दोनों की अंतःक्रिया (Interaction) द्वारा निर्धारित होता है।
2. पोष्य बच्चों का अध्ययन (Studies of Foster Children): मनोवैज्ञानिकों ने पोष्य बच्चों का अध्ययन करके वातावरण तथा आनुवंशिकता (Heredity) के तुलनात्मक महत्व का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के द्वारा मनोवैज्ञानिकों ने दो प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया है-
* क्या पोष्य बच्चों के व्यवहार में अपने वास्तविक माता-पिता के व्यवहार से अधिक समानता होती है?
* यदि अनुकूल वातावरण में ऐसे बच्चों को रखकर पाला-पोसा जाय तो क्या उनके कुछ खास गुणों, जैसे—बुद्धि (Intelligence) आदि में परिवर्तन आता है ?
> पहले प्रश्न के संबंध में मनोवैज्ञानिक बर्क्स (Burks, 1928), स्कील्स (Skeels, 1938) और स्कोडक (Skodak, 1939) ने किया। इन सभी मनोवैज्ञानिक के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि बुद्धि के निर्धारण में वातावरण तथा
आनुवंशिकता दोनों का महत्व है, न कि किसी एक का ।
> दूसरे प्रश्न के संदर्भ में, मनोवैज्ञानिकों ने कुछ अध्ययन करके यह दिखा दिया कि पोष्य बच्चे (Foster Children) को कुछ अनुकूल वातावरण (Favourable Environment) मिलने पर उनकी बुद्धि के स्तर में थोड़ी-सी वृद्धि होती है।
> एच. ई. गैरेट (H. E. Garrett, 1960) का विचार है कि “यह निश्चित है कि वंशानुक्रम और वातावरण एक-दूसरे को सहयोग देनेवाले प्रभाव या कारक हैं तथा दोनों ही बालक की सफलता के लिए आवश्यक हैं।”
> आर. एस. वुडवर्थ (R. S. Woodworth, 1956) का कथन है कि “व्यक्ति के जीवन और विकास पर प्रभाव डालने वाली प्रत्येक बात वंशानुक्रम और वातावरण के क्षेत्र में आ जाती है, परंतु ये बातें इतने पेचीदा ढंग से संयुक्त होती हैं कि प्रायः
वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभावों में अंतर करना कठिन हो जाता है।”
> अतः बालक के व्यक्तित्व और व्यवहार को समझने में वातावरण और वंशानुक्रम की पारस्परिक अंतःक्रियाओं (Interactions) तथा इन प्रभावों से संबंधित कारकों की अंतःक्रियाओं को समझना आवश्यक है। वंशानुक्रम एक निर्धारक कारक है तथ वातावरण एक सामान्य शक्ति या कारक है। ये दोनों ही कारक एक-दूसरे के पूरक हैं।
आनुवंशिकता के नियम
Law of Heredity
> आनुवंशिकता की क्रियाविधि (Mechanisms) का वर्णन करने के लिए जोहान गिग्रर मेंडल (Johan Gregor Mendel) ने महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने विभिन्न तरह के मटरों (Peas) को संकरित (Crossing) कर आनुवंशिकता के आधारभूत
नियमों (Cardinal Principles) का प्रतिपादन किया।
> मेंडल ने अपने विस्तृत प्रयोगों के परिणाम को 1866 में प्रकाशित किया, लेकिन कई कारणों से उनके प्रयोगों की ओर 1900 ई. तक लोगों का ध्यान बहुत नहीं गया।
> 1900 ई. में ही तीन शोधकर्ता (Researcher) नीदरलैंड, आस्ट्रिया तथा जर्मनी में स्वतंत्र रूप से प्रयोग कर उसी परिणाम पर पहुँचे, जिस पर मेंडल 34 साल पहले पहुँच चुके थे। इन तीन शोधकर्ताओं ने मेंडल के नियम को वैध ठहराया और उन्हें आनुवंशिकता का आधारभूत नियम (Cardinal Principle or Law of Heredity) की संज्ञा दी।
> मेंडल के इस आनुवंशिकता में दो नियम सम्मिलित हैं:
(a) पृथक्करण का सिद्धांत (Principle of Segregation)
(b) स्वतंत्र फुटायी का सिद्धांत (Principle of Independent Assortment)
> पृथक्करण का सिद्धांत (Principle of Segregation) यह बताता है कि जो गुण पहली संकर पीढ़ी (First Hybrid Generation) में दबा रहता है या छिपा रहता है, वे समाप्त नहीं हो जाते, बल्कि बाद की संकर पीढ़ी के कुछ सदस्यों में
दिखायी देते हैं।
> पृथक्करण के सिखांत में उनका कहना था कि दये हुए गुण अन्य गुणों के साथ मिलकर अपना अस्तित्व नहीं खो देते हैं, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी फिर दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी तक अपने मूल रूप में अलग अस्तित्व (Segregated
Existence) बनाये रखते हैं।
> मानव शिशुओं में पृथक्करण के सिद्धांत का क्रियान्वयन स्पष्ट रूप से होता पाया गया है। विशेष रूप से आनुवंशिक रोग (Genetic Disease) में इस सिद्धांत की क्रियान्वयनता देखने को मिलती है।
> स्वतंत्र छैटायी का सिद्धांत (Principle of Independent Assortment) यह बताता है कि किसी एक आनुवंशिक गुण (Genetic Treat) का वितरण दूसरे आनुवंशिक गुण के वितरण से प्रभावित नहीं होता, अर्थात स्वतंत्र होता है। जैसे—मेंडल
ने अपने प्रयोग में पाया कि मटर के पौधे के फूल का रंग मटर के फली (Pods) के आकार, डंठल की लंबाई इत्यादि गुणों से स्वतंत्र (Independent) होता है।
व्यक्तियों की आनुवंशिकता के संबंध में निम्नलिखित बिन्दु महत्वपूर्ण हैं-
(a) बालक की आनुवंशिकता में सिर्फ उसके माता-पिता की देन नहीं होती, बल्कि बालक की आनुवंशिकता का आधा भाग माता-पिता से, एक-चौथाई भाग दादा-दादी से, नाना-नानी से, शेष भाग परदादा-परदादी, परनाना-परनानी इत्यादि से मिलता है। अर्थात् एक शिशु पूर्णतः अपने माता-पिता पर ही निर्भर नहीं करता, अपने पूर्वजों के गुणों को अपने में कुछ हद तक सम्मिलित किये रहता है।
(b) क्रोमोजोम्स सदा जोड़े में रहते हैं। क्रोमोजोम्स में जीन भी जोड़े में होते हैं। इन्हीं जीन के आधार पर शिशुओं के गुणों का निर्धारण होता है।
(c) किसी भी नवजात शिशु को 23 क्रोमोजोम्स माता से तथा 23 क्रोमोजोम्स पिता से मिलते हैं। इस तरह कुल 46 क्रोमोजोम्स बालक या नवजात शिशु में होते हैं। इनमें 22 जोड़े यानी 44 क्रोमोजोम्स बालक या बालिका में आकार एवं विस्तार में समान होते हैं। इन्हें ऑटोजोम्स (Autosomes) कहा जाता है।
23वाँ जोड़ा यौन क्रोमोजोम्स (Sex Chromosomes) होता है, जो बालिका में समान अर्थात् xx होता है, परंतु बालक में भिन्न अर्थात् XY होता है। Y क्रोमोजोम्स x क्रोमोजोम्स की अपेक्षा छोटा होता है तथा इसमें X क्रोमोजोम्स की तुलना में कम जीन
होते हैं। मानव में शिशु के यौन (Sex) का निर्धारण माता-पिता द्वारा होता है न कि माता द्वारा।
आनुवंशिकता तथा वातावरण का बालकों की शिक्षा के लिए महत्व
Importance of Heredity and Environment for Education of Children
> बालकों की शिक्षा में आनुवंशिकता (Heredity) तथा वातावरण (Environment) दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों में शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, नैतिक तथा चारित्रिक विकास करना है।
> इन उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए आनुवंशिकता और वातावरण दोनों पहलू महत्वपूर्ण हैं, जैसे-अगर बालक की आनुवंशिकता काफी अच्छी है परंतु उसे अच्छा वातावरण नहीं मिल पाया है, तो उसका शैक्षिक विकास (Educational Development) ठीक से नहीं हो पायेगा । यदि बालक आनुवंशिकता के दृष्टिकोण से निम्न तथा पिछड़ा हुआ है, परंतु उसे यदि एक अच्छे, वातावरण, जैसे अच्छे स्कूल में शिक्षा-दीक्षा दी जाये तो तुलनात्मक दृष्टिकोण से उसका विकास भी उतना श्रेष्ठ नहीं होगा।
> कुछ प्राकृतिक प्रवृतियाँ ऐसी हैं जिनका वातावरण के माध्यम द्वारा काफी हद तक विकास नहीं किया जा सकता। जैसे—कितना भी हम शैक्षिक वातावरण को उन्नत क्यों न कर दें, सभी बालक को वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, चित्रकार, प्रशासक
नहीं बनाया जा सकता है।
बालकों की आनुवंशिकता तथा वातावरण का शिक्षकों के लिए महत्व
> शिक्षकों के लिए बालकों की आनुवंशिकता तथा वातावरण की जानकारी रखना महत्वपूर्ण है। जागरूक एवं अच्छे शिक्षकों को लिए यह आवश्यक होता है कि वे बालकों की आनुवंशिकता एवं अन्य जैविक गुणों (Biological Traits) से परिचित हो जाये तथा उनके घर, परिवार एवं सामाजिक वातावरण, जिसमें वे रहते हैं उससे भली भाँति अवगत हो जाएँ। उससे बालकों के बौद्धिक विकास, समायोजन तथा अनुशासन संबंधी समस्याओं को शिक्षक स्वयं हल कर सकने में समर्थ हो जायेंगे।
उदाहरणस्वरूप-
⇒ एक बालक स्कूल में इसलिए दुर्व्यवहार (Misbehave) कर सकता है क्योंकि उसमें एक असामान्य ग्रंथीय अवस्था (Abnormal Glandular Condition) हो सकता है या वह इसलिए भी दुर्व्यवहार कर सकता है क्योंकि वह एक ऐसे परिवार
से आता है जहाँ अच्छा तौर-तरीका कभी सिखाया ही नहीं गया हो।
⇒ वर्ग में एक बालक कुछ सीखने में इसलिए असमर्थ हो सकता है क्योंकि उसमें उपयुक्त विटामिन की मात्रा पर्याप्त नहीं है या वह ढंग से सीखने के लिए प्रेरित भी नहीं हो सकता है।
⇒ यदि शिक्षक को बालक की आनुवंशिकता एवं जैविक पृष्ठभूमि का ज्ञान हो तथा साथ-ही-साथ यदि वह पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण से भली-भाँति परिचित हो, तो वह इससे स्वयं ही शिक्षार्थियों की कई समस्याओं का समाधान आसानी से
कर सकता है।
⇒ ब्लेयर, जोन्स तथा सिम्प्सन (Blair, Jones & Simpson, 1965) ने इस संबंध में कहा है “बालकों को समझने के लिए शिक्षक (a) उन्हें एक जैविक प्राणी जिनकी अपनी आवश्यकताएँ एवं लक्ष्य होते हैं, के रूप में निश्चित रूप से समझें तथा
(b) उनके सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक वातावरण को पहचानें जिनका वे एक हिस्सा हैं।”
> शिक्षक को बालकों की कुछ मूल प्रवृत्तियों के बारे में उनके आनुवंशिक तथ्यों से पता चलता है। इससे शिक्षक को बालकों में वांछनीय प्रवृत्तियों (Desired Tendencies) के विकास के लिए तथा अवांछनीय प्रवृतियों (Undesired Tendencies) को
समाप्त कर उसके प्रभाव से बचाने में मदद मिलती है।
> शिक्षक विद्यालय में विभिन्न प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों का आयोजन करके शैक्षिक वातावरण को उन्नत बना सकते हैं, जिसका प्रभाव बालकों के समन्वित विकास पर अनुकूल पड़ सकता है।
आनुवंशिकी/वंशानुक्रम के प्रचलित सिद्धांत
*बीजकोष की निरंतरता का सिद्धांत * समानता का सिद्धांत
* प्रत्यागमन का सिद्धांत
* अर्जित गुणों के संक्रमण का सिद्धांत
* मेंडल का सिद्धांत
बालक पर आनुवंशिकी/वंशानुक्रम का प्रभाव
* मूल शक्तियों पर प्रभाव * शारीरिक लक्षणों पर प्रभाव
* प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव * व्यावसायिक योग्यता पर प्रभाव
* सामाजिक स्थिति पर प्रभाव * चरित्र पर प्रभाव
* महानता पर प्रभाव
* वृद्धि पर प्रभाव
परीक्षोपयोगी तथ्य
◆ आनुवंशिकता से तात्पर्य शारीरिक एवं मानसिक गुणों के संचरण (Transmission) से होता है, जो माता-पिता से बच्चों में जीन के माध्यम से प्रवेश करता है।
◆ वातावरण (Environment) का तात्पर्य व्यक्ति में उन सभी तरह की उत्तेजनाओं (Stimulations) से होता है जो गर्भधारण से मृत्यु तक उसे प्रभावित करती है।
◆ 1950 ई. में विशेषज्ञों द्वारा यह पता लगाया कि जीन में मुख्य रूप से दो जैविक अणु (OrganicMolecule) होते हैं, जिन्हें DNA (DeoxyribonucleicAcid) तथा RNA (Ribonucleic Acid) कहा जाता है।
◆ जीन द्वारा आनुवंशिक गुणों का संचरण होता है।
◆ मानव जीवन की शुरुआत एक गर्भित अंडाणु (Fertilised egg) से होती है। एक गर्भित अंडाणु में क्रोमोजोम्स के 23 जोड़े होते हैं अर्थात् मनुष्य संयुक्त कोशिका में कुल 46 गुणसूत्र होते हैं। इस 46 क्रोमोजोम्स में 23 क्रोमोजोम्स माँ से तथा 23 क्रोमोजोम्स पिता से मिलता है।
◆ क्रोमोजोम्स में एक ही विशेष संरचना (Structure) होती है, जिसे जीन (Gene) कहा जाता है। इसी जीन द्वारा माता-पिता या अपने पुरखों के गुण अपने शिशुओं में आते हैं।
◆ बालकों की शिक्षा में आनुवंशिकता एवं वातावरण का महत्वपूर्ण स्थान है। बालकों की आनुवंशिकता एवं वातावरण से अच्छी तरह परिचित होने पर शिक्षक बालकों के बौद्धिक विकास, समायोजन तथा अनुशासन संबंधी समस्याओं को हल करने में समर्थ रहते हैं।
◆ आनुवंशिकता का नियम (Law of Haredity) (जिसे मेण्डल ने अपने शोध के आधार पर प्रतिपादित किया था) से यह पता चलता है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में व्यक्तियों में गुणों में विभिन्नता क्यों और कैसे होती है ?
◆ मानव व्यक्तित्व आनुवंशिकता और वातावरण की अंतःक्रिया का परिणाम है।
◆ व्यक्तित्व एवं बुद्धि में वंशानुक्रम की महत्वपूर्ण भूमिका है।
> “सुजननशास्त्र का पिता’ फ्रांसिस गाल्टन को कहा जाता है। उन्होंने 1883 ई. में सुजननिकी शब्द का पहली बार प्रयोग किया। सुजननशास्त्र में मानव के आनुवांशिक गुणों में सुधार से संबंधी अध्ययन किया जाता है।
> डाउन सिंड्रोम एक अनुवांशिक या क्रोमोसोम जनित विकार है, जो शरीर में क्रोमोजोम्स का एक अतिरिक्त जोड़ा बन जाने से होती है। जिससे शिशु के शरीर में क्रोमोसोम की संख्या बढ़कर 47 हो जाती है। जिसके फलस्वरूप शारीरिक विकास और मस्तिष्क के विकास की गति अवरूध हो जाती है।
★★★