Haryana Board 10th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 12 अन्योक्तयः
Haryana Board 10th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 12 अन्योक्तयः
HBSE 10th Class Sanskrit अन्योक्तयः Textbook Questions and Answers
अन्योक्ति Summary in Hindi
अन्योक्ति पाठ-परिचय
अन्योक्ति का तात्पर्य है किसी की प्रशंसा अथवा निन्दा अप्रत्यक्ष रूप से अथवा किसी बहाने से करना। जब किसी प्रतीक या माध्यम से किसी के गुण की प्रशंसा या दोष की निन्दा की जाती है, तब वह पाठकों के लिए अधिक ग्राह्य होती है। प्रस्तुत पाठ ‘अन्योक्तयः’ में ऐसी ही सात अन्योक्तियों का संकलन है जिनमें राजहंस, कोकिल, मेघ, मालाकार, सरोवर तथा चातक के माध्यम से मानव को सवृत्तियों एवं सत्कर्मों के प्रति प्रवृत्त होने की प्रेरणा दी गई है। इन अन्योक्तियों में तीसरी और सातवीं अन्योक्ति को छोड़कर शेष सभी अन्योक्तियाँ पाण्डवराज जगन्नाथ कृत ‘भामिनीविलासः’ से संकलित की गई हैं। तीसरी अन्योक्ति महाकवि माघ की रचना है और सातवीं अन्योक्ति कवि भर्तृहरि द्वारा रचित ‘नीतिशतकम्’ से संकलित है।
पण्डितराज जगन्नाथ संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य कवि हुए हैं। ये आन्ध्र प्रदेश के तैलङ्ग ब्राह्मण थे। ये मुग़ल सम्राट शाहजहाँ की राजसभा में सम्मानित कवि थे। ये शाहजहाँ के बड़े पुत्र दाराशिकोह के शिक्षक रहे तथा ‘पण्डितराज’ की उपाधि से विभूषित किए गए। भामिनी विलास’ इनका प्रसिद्ध मुक्तक काव्य है। जिसके सभी पद्य प्रायः अन्योक्तिमूलक हैं। इस काव्य के चार विभाग हैं-
- अन्योक्तिविलासः,
- प्रास्ताविकविलासः,
- शृंगारविलासः तथा
- शान्तविलासः ।
अन्योक्तयः पाठरस्य सारांश:
‘अन्योक्तयः’ इस पाठ में संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रन्थों से कुछ पद्य संकलित किए गए हैं। इन पद्यों की विशेषता यह है कि इनमें किसी बहाने से या अप्रत्यक्ष रूप में किसी की प्रशंसा या निन्दा की गई है। इसीलिए इन्हें अन्योक्ति कहा जाता है। इन अन्योक्तियों का सारांश इस प्रकार है
अकेले राजहंस के द्वारा सरोवर की जो शोभा होती है वह हज़ारों बगुलों से नहीं होती, इसका आशय यही है कि किसी परिवार या देश की प्रतिष्ठा के लिए गुणहीनों की अपेक्षा कुछ एक गुणी व्यक्ति ही पर्याप्त होते हैं।
कवि राजहंस से पूछता है कि जिस सरोवर से तुमने कमलनाल खाए, कमलनियों का सेवन किया, पानी पिया उसका उपकार तुम कैसे चुकाओगे ? कवि के कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य को अपनी मातृभूमि का ऋण चुकाने के लिए यत्नशील रहना चाहिए।
कवि माली की प्रशंसा करते हुए कहता है कि भयंकर गर्मी में जो तुमने थोड़े से जल से इन वृक्षों को सींचकर पुष्ट किया वैसी पुष्टि तो वर्षा ऋतु में घनघोर बादलों के बरसने से भी नहीं होती, अर्थात् आवश्यकता पड़ने पर थोड़ी सहायता भी बहुत होती है।
कवि सरोवर को सम्बोधित करते हुए कहता है कि तुम्हारा जल कम हो जाने पर पक्षी और भौरे तो इधर-उधर नया आश्रय खोज लेते हैं परन्तु बेचारी मछलियाँ कहाँ जाएँगी ? कवि इस अन्योक्ति के माध्यम से कहना चाहता है कि मनुष्य को अवसरवादी न होकर कृतज्ञ होना चाहिए।
चातक को स्वाभिमान का प्रतीक बनाते हुए कवि कहता है कि वन में केवल एक ही स्वाभिमानी पक्षी चातक है। जो प्यासा रहकर मर तो सकता है परन्तु वर्षा की बूँद के अलावा वह किसी भी तालाब आदि का पानी ग्रहण नहीं करता। दूसरे शब्दों में कवि कहना चाहता है कि मनुष्य को अपने स्वाभिमान की रक्षा प्राणों का मूल्य चुकाकर भी करनी चाहिए।
कवि बादल को प्रतीक बनाकर कहता है कि जो तुमने अपनी वर्षा के द्वारा तपते पर्वतों को शीतलता दी, जंगलों को हरा-भरा किया, नदी नालों को जल से भर दिया और स्वयं खाली हो गए यही तुम्हारी सर्वोत्तम शोभा है। कहने का तात्पर्य है कि परोपकार के कार्यों में अपना सर्वस्व लुटाकर जो लोग निर्धन हो जाते हैं, उनका यश उन लोगों से कहीं अधिक होता है, जो धन पर कुंडली मारे बैठे रहते हैं। अन्तिम अन्योक्ति में चातक को माध्यम बनाकर कहा गया है कि हर किसी को देखकर माँगने के लिए हाथ नहीं फैला देना चाहिए, माँगने से पहले दाता की योग्यता का विचार अवश्य कर लेना चाहिए। आकाश में बहुत से बादल होते हैं उनमें से कुछ ही वर्षा करने वाले होते हैं अन्यथा शेष तो व्यर्थ में गरजते ही हैं। अतः कवि चातक से कहता है कि सबके सामने अपनी दीनता प्रकट न करके केवल बरसने वाले बादलों से तुम्हें जल की याचना करनी चाहिए।
अन्योक्तयः Chapter 12 Shemushi HBSE 10th Class प्रश्न 1.
अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत
(अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृतभाषा में लिखिए-)
(क) सरसः शोभा केन भवति ?
(ख) चातकः कं याचते ?
(ग) मीनः कदा दीनां गतिं प्राप्नोति ?
(घ) कानि पूरयित्वा जलदः रिक्तः भवति ?
(ङ) वृष्टिभिः वसुधां के आर्द्रयन्ति ?
उत्तराणि
(क) सरसः शोभा एकेन राजहंसेन भवति।
(ख) चातकः पुरन्दरं याचते।
(ग) मीनः सरसि सङ्कोचम् अञ्चति दीनां गतिं प्राप्नोति।
(घ) नानानदीनदशतानि पूरयित्वा जलदः रिक्तः भवति।
(ङ) वृष्टिभिः वसुधां अम्भोदाः आर्द्रयन्ति।
HBSE 10th Class Shemushi Chapter 12 अन्योक्तयः प्रश्न 2.
अधोलिखितवाक्येषु रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(अधोलिखित वाक्यों में रेखांकित पदों के आधार पर प्रश्ननिर्माण कीजिए-)
(क) मालाकारः तोयैः तरोः पुष्टिं करोति।
(ख) भृङ्गाः रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते।
(ग) पतङ्गाः अम्बरपथम् आपेदिरे।
(घ) जलदः नानानदीनदशतानि पूरयित्वा रिक्तोऽस्ति।
(ङ) चातकः वने वसति।
(च) अम्भोदाः वृष्टिभिः वसुधां आर्द्रयन्ति।
उत्तराणि-(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) मालाकार: कैः तरोः पुष्टिं करोति ?
(ख) भृङ्गाः कानि समाश्रयन्ते ?
(ग) के अम्बरपथम् आपेदिरे ?
(घ) क: नानानदीनदशतानि पूरयित्वा रिक्तोऽस्ति ?
(ङ) चातक: कुत्र वसति ?
(च) अम्भोदाः वृष्टिभिः काम् आर्द्रयन्ति ?
प्रश्न 3.
उदाहरणमनुसृत्य सन्धिं/सन्धिविच्छेदं वा कुरुत
(उदाहरण के अनुसार सन्धि/सन्धिविच्छेद कीजिए-)
(i) यथा-अन्य + उक्तयः = अन्योक्तयः
(क) …… + ….. = निपीतान्यम्बूनि
(ख) ……. + उपकारः = कृतोपकारः
(ग) तपन + ……. = तपनोष्णतप्तम्।
(घ) तव + उत्तमा = ………..
(ङ) न + एतादृशाः = …………
उत्तराणि
(क) निपीतानि + अम्बूनि = निपीतान्यम्बूनि
(ख) कृत + उपकारः = कृतोपकारः
(ग) तपन + उष्णतप्तम् = तपनोष्णतप्तम्।
(घ) तव + उत्तमा = तवोत्तमा
(ङ) न + एतादृशाः = नैतादृशाः।
(ii) यथा-पिपासितः + अपि = पिपासितोऽपि
(क) …….. …….. = कोऽपि
(ख) ….. + ….. = रिक्तोऽसि (ग) मीनः + अयम्
(घ) ….. + आर्द्रयन्ति = वृष्टिभिरार्द्रयन्ति।
उत्तराणि
(क) कः + अपि = कोऽपि
(ख) रिक्तः + असि = रिक्तोऽसि
(ग) मीनः + अयम् = मीनोऽयम्
(घ) वृष्टिभिः + आर्द्रयन्ति = वृष्टिभिरार्द्रयन्ति।
(iii) यथा-सरसः + भवेत् = सरसोवेत्
(क) खगः + मानी = ……………….
(ख) ……….. +नु = मीनो नु
उत्तराणि
(क) खगः + मानी – खगो मानी
(ख) मीनः + नु = मीनो नु।
(iv) यथा-मुनिः + अपि = मुनिरपि
(क) तोयैः + अल्पः
(ख) ….. + अपि = अल्पैरपि
(ग) तरोः + अपि = ………..
उत्तराणि
(क) तोयैः + अल्पैः = तोयैरल्पैः
(ख) अल्पैः + अपि = अल्पैरपि
(ग) तरोः + अपि = तरोरपि
प्रश्न 4.
उदाहरणनुसृत्य अधोलिखितैः विग्रहपदैः समस्तपदानि रचयत
(उदाहरण के अनुसार अधोलिखित विग्रहपदों से समस्तपदों की रचना कीजिए-)
विग्रहपदानि समस्तपदानि
यथा-पीतं च तत् पड्कजम् = पीतपङ्कजम्
(क) राजा च असौ हंसः – ………………………………
(ख) भीमः च असौ भानुः – ………………………………
(ग) अम्बरम् एव पन्थाः – ………………………………
(घ) उत्तमा च इयम् श्री: – ………………………………
(ङ) सावधानं च तत् मनः, तेन – ………………………………
उत्तराणि
विग्रहपदानि समस्तपदानि
यथा-पीतं च तत् पङ्कजम् = पीतपड्कजम्
(क) राजा च असौ हंसः = राजहंसः
(ख) भीमः च असौ भानुः = भीमभानुः
(ग) अम्बरम् एव पन्थाः = अम्बरपन्थाः
(घ) उत्तमा च इयम् श्री: = उत्तमाश्री:
(ङ) सावधानं च तत् मनः, तेन = सावधानमनसा।
प्रश्न 5.
उदाहरणमनुसृत्य निम्नलिखिताभिः धातुभिः सह यथानिर्दिष्टान् प्रत्ययान् संयुज्य शब्दरचनां कुरुत
(उदाहरण के अनुसार निम्नलिखित धातुओं के साथ यथानिर्दिष्ट प्रत्यय जोड़कर शब्दरचना कीजिए-)
प्रश्न 6.
पाठमनुसृत्य अधोलिखितानां मूलशब्दानां यथानिर्दिष्टेषु विभक्तिवचनेषु रूपाणि लिखत
(पाठ के अनुसार अधोलिखित मूलशब्दों के यथानिर्दिष्ट विभक्ति और वचनों में रूप लिखिए-)
उत्तराणि
प्रश्न 7.
अधोलिखितयोः श्लोकयोः भावार्थं हिन्दीभाषया आंग्लभाषया वा लिखत
(अधोलिखित श्लोकों के भावार्थ हिन्दी भाषा या अंग्रेजी भाषा में लिखिए-)
(क) आपेदिरे ……. कतमां गतिमभ्युपैति।
(ख) आश्वास्य …… सैव तवोत्तमा श्रीः॥
उत्तराणि
(क) भावार्थ:-कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को पक्षियों या भौरों की तरह अवसरवादी नहीं होना चाहिए, अपितु जिन व्यक्तियों या संसाधनों का भले दिनों में हम लाभ उठाते हैं, उन पर विपत्ति आ जाने पर हमें भी उनका सहभागी बनना चाहिए। यह सहभागिता या सहयोग सूखे सरोवर में मछली की भाँति हमारी विवशता से उपजी नहीं होना चाहिए; अपितु कृतज्ञता के भाव से ही हमें ऐसा सहयोग करना चाहिए।
(ख) भावार्थ:-परोपकारी मनुष्य परहित के कार्यों में अपनी सारी सम्पत्ति व्यय कर स्वयं अतिसाधारण जीवन व्यतीत करते हैं। उन्हें इस अभावग्रस्त अवस्था में देखकर लगता ही नहीं कि ये कभी धनसम्पन्न रहे होंगे। कवि कहता है कि ऐसे परोपकारी मनुष्यों की अभावग्रस्तता ही उनकी शोभा और यशस्विता का कारण बन जाती है। जैसे जल बरसा कर बादल शोभायमान होता है।
योग्यताविस्तारः
पाठपरिचय:
अन्येषां कृते या उक्तयः कथ्यन्ते ता उक्तयः (अन्योक्तयः) अत्र पाठे सङ्कलिता वर्तन्ते। अस्मिन् पाठे षष्ठश्लोकम् सप्तमश्लोकम् च अतिरिच्य ये श्लोकाः सन्ति ते पण्डितराजजगन्नाथस्य भामिनीविलास’ इति गीतिकाव्यात् सङ्कलिताः सन्ति। षष्ठः श्लोकः महाकवि-माघस्य ‘शिशुपालवधम्’ इति महाकाव्यात् गृहीतः अस्ति। सप्तमः श्लोकः महाकविभर्तृहरेः नीतिशतकात् उद्धृतः अस्ति।
पाठपरिचय-दूसरों के लिए जो उक्तियाँ कही जाती हैं, वे उक्तियाँ (अन्योक्तियाँ) इस पाठ में संकलित हैं। इस पाठ में छठे श्लोक और सातवें श्लोक को छोड़कर जो श्लोक हैं, वे पण्डितराज जगन्नाथ की ‘भामिनीविलासः’ नामक गीतिकाव्य से संकलित हैं। छठा श्लोक महाकवि माघ के ‘शिशुपालवधम्’ महाकाव्य से लिया गया है। सातवाँ श्लोक महाकवि भर्तृहरि के ‘नीतिशतकम्’ से उद्धृत है।
कविपरिचय:
पण्डितराजजगन्नाथः संस्कृतसाहित्यस्य मूर्धन्यः सरसश्च कविः आसीत्। सः शाहजहाँ-नामकेन मुगल-शासकेन स्वराजसभायां सम्मानितः। पण्डितराजजगन्नाथस्य त्रयोदश कृतयः प्राप्यन्ते।
- गङ्गालहरी
- अमृतलहरी
- सुधालहरी
- लक्ष्मीलहरी
- करुणालहरी
- आसफविलासः
- प्राणाभरणम्
- जगदाभरणम्
- यमुनावर्णनम्
- रसगङ्गाधरः
- भामिनीविलासः
- मनोरमाकुचमर्दनम्
- चित्रमीमांसाखण्डनम्।
एतेषु ग्रन्थेषु ‘भामिनीविलासः’ इति तस्य विविधपद्यानां सङ्ग्रहः।
महाकविमाधः-महाकविमाघस्य एकमेव महाकाव्यं प्राप्यते “शिशुपालवधम्” इति। भर्तृहरिः-महाकविभर्तृहरेः, त्रीणि शतकानि सन्ति-नीतिशतकम्, शृङ्गारशतकम् वैराग्यशतकं च।
कविपरिचय-पण्डितराज जगन्नाथ संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य और सरस कवि थे। वे शाहजहाँ नामक मुगलशासक द्वारा उनकी राजसभा में सम्मानित थे। पण्डितराज जगन्नाथ की 13 कृतियाँ मिलती हैं-
- गंगालहरी,
- अमृतलहरी,
- सुधालहरी,
- लक्ष्मीलहरी,
- करुणालहरी,
- आसफविलास
- प्राणाभरणम्,
- जगदाभरणम्
- यमुनावर्णनम्,
- रसगङ्गाधरः,
- भामिनीविलासः,
- मनोरमा-कुचमर्दनम्
- चित्रमीमांसाखण्डनम्।
इन ग्रन्थों में भामिनीविलासः’ इनके विविध पद्यों का संग्रह है। महाकवि माघ-महाकवि माघ का एक ही महाकाव्य मिलता है-‘शिशुपालवधम्’ इति। भर्तृहरि-महाकवि भर्तृहरि के तीन शतक हैं-
- नीतिशतकम्
- शृङ्गारशतकम् और
- वैराग्यशतकम्।
अधोदत्ताः विविधविषयकाः श्लोकाः अपि पठनीयाः स्मरणीयाश्च(नीचे दिए गए विविध विषयों के श्लोक भी पाठ करने से योग्य तथा याद करने योग्य हैं।)
हंसः हंसः श्वेतः बकः श्वेतः को भेदो बकहंसयोः।
नीरक्षीरविभागे तु हंसो हंसः बको बकः॥
हंस-हंस भी सफेद होता है और बगुला भी फिर बगुले और हंस में क्या भेद ? परन्तु दूध से पानी को अलग करने में तो हंस हंस ही होता है और बगुला बगुला ही। अर्थात् नीरक्षीर विवेक में ही दोनों की अलग पहचान होती है, हंस पानी को दूध से अलग कर लेता है और बगुला नहीं कर पाता।
एकमेव पर्याप्तम्-एकेनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम्।
सहैव दशभिः पुत्रैः भारं वहति रासभी॥
एक ही पर्याप्त-अकेले योग्य पुत्र के द्वारा (पुत्रवती होकर) सिंहनी निर्भय सोती है, (दस पुत्रों के द्वारा पुत्रवती होकर) भी गधी अपने दस पुत्रों के साथ भार ही ढोती है। अर्थात् बहुत से अयोग्य पुत्रों की अपेक्षा एक योग्य पुत्र उत्तम होता है।
पिकः-काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः।
वसन्तसमये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः॥
कोयल-कौआ काला होता है, कोयल भी काली होती है, फिर कोयल और कौए में क्या भेद ? वसन्त का समय आने पर (जब कोयल कूकती है तो) कौआ, कौआ पहचाना जाता है और कोयल कोयल पहचानी जाती है।
चातक-वर्णनम्-यद्यपि सन्ति बहूनि सरांसि,
स्वादुशीतल-सुरभि-पयांसि।
चातकपोतस्तदपि च तानि,
त्यक्त्वा याचति जलदजलानि॥
चातक-वर्णन-यद्यपि स्वादिष्ट, सुगन्धित जल वाले बहुत से सरोवर हैं तो भी चातक का बच्चा उन्हें छोड़कर बादलों के जल की ही याचना करना है।
HBSE 10th Class Sanskrit अन्योक्तयः Important Questions and Answers
प्रश्न 1.
अधोलिखितानां वाक्यानां/सूक्तीनां भावार्थं हिन्दीभाषायां लिखत
(अधोलिखित वाक्यों/सूक्तियों के भावार्थ हिन्दीभाषा में लिखिए-)
(क) एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत् ।
न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना ॥
(एक राजहंस के द्वारा सरोवर की जो शोभा होती है; वैसी शोभा उसके चारों ओर रहने वाले हजारों बगुलों से भी नहीं होती है।)
भावार्थ :-एकेन राजहंसेन —इत्यादि सूक्ति हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी भाग-2’ में संकलित ‘अन्योक्तयः’ पाठ से उद्धृत की गई है। इसमें संख्या आधिक्य की अपेक्षा गुणाधिक्य के चयन की बात कही गई है।
उपर्युक्त सूक्ति का भाव यह है कि एक गुणी व्यक्ति जिस कार्य को सिद्ध कर सकता है। हजारों निर्गुणी भी उसे नहीं कर सकते हैं। जैसे चन्द्रमा अकेला ही रात्रि के अन्धकार को दूर कर सकता है जबकि असंख्य तारे उस कार्य को नहीं कर सकते। अतः हमें परिमाण की अपेक्षा गुणवत्ता (Quantity की अपेक्षा Quality ) को महत्त्व देना चाहिए।
(ख) एक एव खगो मानी वने वसति चातकः।
पिपासितो वा म्रियते याचते वा पुरन्दरम् ॥
(वन में एक ही स्वाभिमानी पक्षी ‘चातक’ वन में रहता है जो प्यासा होते हुए भी या तो प्यासा ही मर जाता है या
भावार्थ :-‘एक एव खगो मानी —-‘ इत्यादि सूक्ति हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी भाग-2’ में संकलित ‘अन्योक्तयः’ पाठ से उद्धृत है। इसमें स्वाभिमान के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है।
भावार्थ यह है कि स्वाभिमानी व्यक्ति प्राणों के संकट में पड़ जाने पर अपनी स्वाभिमानी वृत्ति का परित्याग नहीं करता है। वह दीन-हीन होकर जीने की अपेक्षा स्वाभिमानपूर्वक प्राण त्याग करना अधिक अच्छा समझता है। जैसे चातक को प्यासे रहकर मर जाना स्वीकार है परन्तु मेघ के अतिरिक्त तालाब, नदी आदि अन्य किसी स्रोत का पानी पीना स्वीकार नहीं है।
(ग) यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ।
(हे चातक ! तुम आकाश में प्रकट होने वाले सभी मेघों के समक्ष याचना मत किया करो।)
भावार्थ :- प्रस्तुत सूक्ति हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक “शेमुषी भाग-2′ में संकलित ‘अन्योक्तयः’ पाठ से उद्धृत है। इसमें चातक को सभी मेघों के आगे पानी के लिए प्रार्थना करने से रोका गया है।
सूक्ति का भाव यह है कि संसार में भले और बूरे हर प्रकार के मनुष्य रहते हैं। हमें हर व्यक्ति के समक्ष अपनी समस्या को नहीं रखना चाहिए। क्योंकि जहाँ आपकी करुण पुकार को सुनने वाला कोई नहीं ऐसे अरण्यरोदन से कोई लाभ नहीं होता है।
प्रश्न 2.
स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(स्थूलपदों के आधार पर प्रश्ननिर्माण कीजिए-)
(क) राजहंसेन सरसः शोभा भवेत्।
(ख) राजहंसेन मृणालपटली भुक्ता।
(ग) मालाकारेण तरोः पुष्टि: भीमभानौ निदाघे व्यरचि।
(घ) चातकः पुरन्दरं याचते।
(ङ) अम्भोदाः वृष्टिभिः वसुधाम् आर्द्रयन्ति।
उत्तराणि-(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) केन सरसः शोभा भवेत् ?
(ख) राजहंसेन का भुक्ता?
(ग) मालाकारेण कस्य पुष्टि: भीमभानौ निदाघे व्यरचि?
(घ) कः पुरन्दरं याचते?
(ङ) अम्भोदाः वृष्टिभिः काम् आर्द्रयन्ति?
प्रश्न 3.
अधोलिखित-प्रश्नानां प्रदत्तोत्तरविकल्पेषु शुद्धं विकल्पं विचित्य लिखत
(अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर के लिए दिए गए विकल्पों में से शुद्ध विकल्प चुनकर लिखिए-)
(क) ‘अल्पैरपि’ पदस्य सन्धिविच्छेदोऽस्ति.
(i) अल्पै + रपि
(ii) अल्पः + अपि
(iii) अल्पैः + अपि
उत्तरम्:
(iii) अल्पैः + अपि।
(ख) ‘तव + उत्तमा’ अत्र सन्धियुक्तपदम्-
(i) तवुत्तमा
(ii) तवोत्तमा
(iii) तवौत्तमा
(iv) तवेत्तमा।
उत्तरम्:
(ii) तवोत्तमा।
(ग) ‘राजहंसः’ अस्मिन् पदे कः समासोऽस्ति ?
(i) कर्मधारयः
(ii) तत्पुरुषः
(iii) अव्ययीभावः
(iv) द्वन्द्वः ।
उत्तरम्:
(i) कर्मधारयः
(घ) ‘पर्वतकुलम्’ इति पदस्य समास-विग्रहः
(i) पर्वतस्य कुलम्
(ii) पर्वतं च कुलं च तयोः समाहारः
(iii) पर्वतं च तत् कुलम्
(iv) पर्वतानां कुलम्।
उत्तरम्:
(iv) पर्वतानां कुलम्।
(ङ) ‘पूरयित्वा’ इति पदे कः प्रत्ययः ?
(i) त्व
(ii) तल्
(iii) क्त्वा
(iv) क्त।
उत्तरम्:
(iii) क्त्वा
(च) एक …… खगो मानी वने वसति चातकः।
(रिक्तस्थानपूर्तिः अव्ययपदेन)
(i) एव
(ii) ह्यः
(iii) न
(iv) च।
उत्तरम्:
(i) एव
(छ) उपवने ……… बालिकाः क्रीडन्ति।
(रिक्तस्थानपूर्तिः उचितसंख्यापदेन)
(i) त्रयः
(iii) तिस्रः
(iv) तृतीया।
उत्तरम्:
(ii) तिस्रः।
(ज) वृष्टिभिः वसुधां के आर्द्रयन्ति ?
(i) गगनाः
(ii) अम्भोदाः
(iii) चातकाः
(iv) बहवः।
उत्तरम्:
(ii) अम्भोदाः।
(झ) सरसः शोभा केन भवति ?
(i) राजहंसेन
(ii) चातकेन
(iii) बकसहस्रेण
(iv) महामत्स्ये न।
उत्तम्
(i) राजहंसेन।।
(ब) ‘वने’ अत्र का विभक्तिः प्रयुक्ता ?
(i) प्रथमा
(ii) सप्तमी
(iii) तृतीया
(iv) चतुर्थी।
उत्तर
(i) सप्तमी।
यथामिन् उत्तरत
(ट) “पठितव्यः’ इति पदस्य प्रकृति-प्रत्ययौ लिखत।
(ठ) ‘मा ब्रूहि दीनं वचः । (अत्र किम् अव्ययपदं प्रयुक्तम्)
(ड) रे राजहंस ! वद तस्य सरोवरस्य’ (‘वद’ अत्र क: लकारः प्रयुक्तः?)
(ढ) दिसम्बरमासे 31 दिनानि भवन्ति । (अङ्कस्थाने संस्कृतसंख्यावाचक-विशेषणं लिखत)
(ण) वेदा: 4 सन्ति। (अङ्कस्थाने संस्कृतसंख्यावाचकविशेषणं लिखत)
(त) पताः अम्बरपथम् आपेदिरे। (रेखाङ्कितपदेन प्रश्ननिर्माणं कुरुत)
उत्तराणि-
(ट) ‘पठितव्यः’ = पठ् + तव्यत्।
(ठ) ” इति अव्ययपदं प्रयुक्तम्।
(ड) यद’ अत्र लोट् लकारः प्रयुक्तः ।
(ढ) दिसम्बरमासे एकत्रिंशत् दिनानि भवन्ति ।
(ण) वेदाः पाचारः सन्ति।
(त) के अम्बरपथम् आपेदिरे?
अन्योक्ति पठित-अवबोधनम्
1. निर्देश:-अधोलिखितं गद्यांशं पठित्वा एतदाधारितान् प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृत-पूर्णवाक्येन लिखत
(अधोलिखित गद्यांश को पढ़कर इन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत के पूर्ण वाक्य में लिखिए-)
एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत्।
न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना॥1॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) केन सरसः शोभा भवेत् ?
(ii) तीरवासि किमस्ति ?
(iii) बकसहस्रेण कस्य शोभा न भवेत् ?
उत्तराणि
(i) राजहंसेन सरसः शोभा भवेत्।
(ii) तीरवासि बकसहस्रम् अस्ति।
(iii) बकसहस्रेण सरस: शोभा न भवेत् ।
(ख) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) अत्र ‘सरसः’ इति पदे का विभक्तिः प्रयुक्ता ?
(ii) ‘परितस्तीरवासिना’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
(iii) ‘बकसहस्त्रेण’ इति पदस्य प्रयुक्तं विशेषणं किम् ?
(iv) ‘भवेत्’ अत्र कः लकारः प्रयुक्तः ? ।
(v) ‘तद्’ इति सर्वनामशब्दस्य अत्र श्लोके प्रयुक्तं पदं किमस्ति ?
उत्तराणि:
(i) षष्ठी + विभक्तिः ।
(ii) परितः + तीरवासिना।
(iii) तीरवासिना।
(iv) विधिलिङ्लकारः।
(v) सा। (तद् – स्त्रीलिङ्गम्, प्रथमाविभक्तिः, एकवचनम्) ।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-एकेन राजहंसेन सरसः या शोभा भवेत्। परितः तीरवासिना बकसहस्रेण सा (शोभा) न (भवति) ॥
शब्दार्थाः-सरस = (तडागस्य) तालाब का। बकसहस्रेण = (बकानां सहस्रेण) हज़ारों बगुलों से। परितः = (सर्वतः) चारों ओर। तीरवासिना = (तटनिवासिना) किनारे पर रहनेवालों के द्वारा।
सन्दर्भः-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘अन्योक्तयः’ नामक पाठ से लिया गया है। (यह पद्य पण्डितराज जगन्नाथ के भामिनीविलासः’ नामक गीतिकाव्य से संकलित है।)
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य में राजहंस को प्रतीक बनाकर गुणियों की प्रशंसा की गई है और बगुलों को प्रतीक बनाकर गुणहीनों की निन्दा। __सरलार्थः-एक राजहंस के द्वारा सरोवर की जो शोभा होती है, उसके चारों ओर किनारे पर रहने वाले हज़ारों बगुलों के द्वारा भी वह शोभा नहीं होती है।
भावार्थ:- कुल या राष्ट्र की प्रतिष्ठा एवं मान-मर्यादा को बनाए रखने के लिए हज़ारों गुणहीनों की अपेक्षा कुछ गुणी व्यक्ति अधिक उपयोगी होते हैं।
2. भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता
न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि।
रे राजहंस ! वद तस्य सरोवरस्य,
कृत्येन केन भवितासि कृतोपकारः ॥2॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) का भुक्ता ?
(ii) कानि निपीतानि ?
(iii) कानि सेवितानि ?
(iv) अत्र कः सम्बोधित: ?
(v) कस्य कृतोपकारः भवितुं कथितः ?
उत्तराणि:
(i) मृणालपटली भुक्ता।
(ii) अम्बूनि निपीतानि।
(iii) नलिनानि सेवितानि।
(iv) अत्र राजहंसः सम्बोधितः ।
(v) सरोवरस्य कृतोपकारः भवितुं कथितः ।
(ख) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) “निपीतान्यम्बूनि’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
(ii) ‘सरसः’ इत्यर्थे प्रयुक्तं पदं किम् ?
(iii) ‘भविष्यसि’ इत्यर्थे प्रयुक्तं क्रियापदं किम् ?
(iv) ‘कृतः उपकारः येन सः’-इति स्थाने प्रयुक्तं समस्तपदं किम् ?
(v) ‘रे राजहंस ! वद तस्य सरोवरस्य’-अत्र क्रियापदं किमस्ति।
उत्तराणि:
(i) निपीतानि + अम्बूनि।
(ii) सरोवरस्य।
(iii) भवितासि। (लुट्लकारः, मध्यमपुरुषः, एकवचनम्)
(iv) कृतोपकारः।
(v) वद।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-रे राजहंस ! यत्र भवता मृणालपटली भुक्ता, अम्बूनि निपीतानि नलिनानि निषेवितानि। तस्य सरोवरस्य केन कृत्येन कृतोपकारः भविता असि, वद॥
शब्दार्थाः-भुक्ता = (खादिता) खाए गए। मृगालपटली = (कमलनालसमूहः) कमलनाल का समूह। निपीतानि = (निः शेषेण पीतानि) भली-भाँति पीया गया। अम्बूनि = (जलानि) जल। नलिनानि = (कमलानि) कमलनियों को। निषेवितानि = (सेवितानि) सेवन किए गए। भविता = (भविष्यति) होगा। कृत्येन = (कार्येण) कार्य से। कृतोपकारः = (कृतः उपकारः येन सः) उपकार किया हुआ (प्रत्युपकार करने वाला)।
सन्दर्भः-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘अन्योक्तयः’ नामक पाठ से लिया गया है। (यह पद्य पण्डितराज जगन्नाथ के भामिनीविलासः’ नामक गीतिकाव्य से संकलित है।)
प्रसंगः-प्रस्तुत पद्य में राजहंस को प्रतीक बनाकर मातृभूमि का ऋण चुकाने के लिए प्रेरित किया गया है।
सरलार्थ:-अरे राजहंस ! जहाँ तुमने कमलनाल खाए हैं, कमलनियों का सेवन किया है, जल पीया है, उस सरोवर का प्रत्युपकार आपके द्वारा किस प्रकार किया जाएगा, बताओ।
भावार्थ:-कवि का तात्पर्य है कि मनुष्य को कृतज्ञ होना चाहिए। जिस मातृभूमि ने हमें अपने आंचल में आवास, भोजन के लिए अन्न, पीने के लिए मधुर जल, फल-फूल, वनस्पतियाँ तथा अन्य सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं, उसका ऋण चुकाने के लिए हमें कुछ ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे मातृभूमि और उसके पर्यावरण की सुरक्षा में सहयोग हो सके।
3. तोयैरल्पैरपि करुणया भीमभानौ निदाघे,
मालाकार ! व्यरचि भवता या तरोरस्य पुष्टिः।
सा किं शक्या जनयितुमिह प्रावृषेण्येन वारां,
धारासारानपि विकिरता विश्वतो वारिदेन॥3॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) अत्र कः सम्बोधितः ?
(ii) मालाकारेण तरोः पुष्टिः कैः व्यरचि ?
(ii) मालाकारेण तरोः पुष्टिः कदा व्यरचि ?
(iv) विश्वतः वारिदः कान् विकिरति ?
(v) वारिदः कीदृशः कथितः ?
उत्तराणि
(i) अत्र मालाकारः सम्बोधितः ।
(ii) मालाकारेण तरोः पुष्टिः अल्पैः तोयैः व्यरचि।
(iii) मालाकारेण तरो: पुष्टिः भीमभानौ निदाघे व्यरचि।
(iv) वारिदः विश्वतः वारां धारासारान् विकिरति।
(v) वारिदः प्रावृषेण्यः कथितः।
(ख) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘तोयैरल्यैरपि’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
(ii) तरोः + अस्य – अस्य सन्धिं कुरुत।
(iii) ‘जलदः’ इत्यस्य अत्र कः पर्यायः ?
(iv) ‘जनयितुम्’ अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
(v) ‘सा किं शक्या……’ अत्र सा इति सर्वनाम कस्मै प्रयुक्तम् ?
उत्तराणि:
(i) तोयैः + अल्पैः + अपि।
(ii) तरोरस्य।
(iii) वारिदः।
(iv) तुमुन्।
(v) पुष्ट्यै।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-हे मालाकार ! भीमभानौ निदाघे अल्पैः तोयैः अपि भवता करुणया अस्य तरोः या पुष्टिः व्यरचि। प्रावृषेण्येन विश्वतः वारां धारासारान् अपि विकिरता वारिदेन इह जनयितुम् सा (पुष्टिः) किम् शक्या॥ __ शब्दार्था:-तोयैः = (जलैः) जल से। भीमभानौ = (भीमः भानुः यस्मिन् सः भीमभानुः तस्मिन्) ग्रीष्मकाल में (सूर्य के अत्यधिक तपने पर)। निदाघे = (ग्रीष्मकाले) ग्रीष्मकाल में। मालाकार = (हे मालाकार !) हे माली!। व्यरचि = (रचयति) रचता है। तरोः = (वृक्षस्य) वृक्ष की। पुष्टिः = (पुष्टता, वृद्धिः) पोषण। जनयितुम् = (उत्पादयितुम्) उत्पन्न करने के लिए। प्रावृषेण्येन = (वर्षाकालिकेन) वर्षाकालिक। वाराम् = (जलानाम्) जलों के। धारासारान् = (धाराणाम् आसारान्) धाराओं का प्रवाह। विकिरता = (जलं वर्षयता) जल बरसाते हुए। वारिदेन = (जलदेन) बादल के द्वारा।
सन्दर्भ:-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के अन्योक्तयः’ नामक पाठ से लिया गया है। (यह पद्य पण्डितराज जगन्नाथ के भामिनीविलासः’ नामक गीतिकाव्य से संकलित है।)
प्रसंगः-प्रस्तुत पद्य में माली को प्रतीक बनाकर आवश्यकता के समय दी गई अल्प सहायता को भी बहुमूल्य बताया गया है।
सरलार्थ:-हे माली ! आपके द्वारा ग्रीष्मकाल में भयंकर गर्मी में करुणावश थोड़े से जल से भी वृक्षों का जो पोषण किया जाता है; वह पोषण वर्षाकाल में चारों ओर से जलों की धारा प्रवाह वर्षा करने वाले बादल के द्वारा भी क्या इस संसार में किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं।
भावार्थ:-कठिन परिस्थितियों में घोर आवश्यकता पड़ने पर की गई अल्प सहायता अनावश्यक रूप में की गई बड़ी सहायता की अपेक्षा कहीं अधिक प्रशंसनीय एवं उपादेय होती है। प्यास के कारण मरणासन्न व्यक्ति को पिलाया गया दो बूंट पानी यदि उस व्यक्ति के प्राण बचा देता है तो किसी पर्व पर लगाई गई पानी की छबील से वह दो घंट पानी पिलाना कहीं अधिक पुण्यकारी एवं तुष्टीकारक होता है।
4. आपेदिरेऽम्बरपथं परितः पतङ्गाः ,
भृङ्गा रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते।
सङ्कोचमञ्चति सरस्त्वयि दीनदीनो,
मीनो नु हन्त कतमां गतिमभ्युपैतु॥4॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) अम्बरपथं के आपेदिरे ?
(ii) भृङ्गाः कानि समाश्रयन्ते ?
(iii) मीन: कदा दीनदीनः भवति ?
(iv) सङ्कोचं किम् अञ्चति ?
(v) अत्र कः सम्बोधितः ?
उत्तराणि
(i) अम्बरपथं पतङ्गाः आपेदिरे।
(ii) भृङ्गाः रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते।
(iii) सरसि सङ्कोचम् अञ्चति मीन: दीनदीनः भवति।
(iv) सङ्कोचं सरः अञ्चति।
(v) अत्र सरः सम्बोधितः।
(ख) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘खगाः’ इत्यर्थे अत्र प्रयुक्तं पदं किम् ?
(ii) ‘आपेदिरेऽम्बरपथं परितः पतङ्गाः ‘ अत्र क्रियापदं किम् ?
(iii) ‘विकासम्’ इत्यस्य विपरीतार्थकपदम् अत्र किम् ?
(iv) ‘सरस्त्वयि’ अत्र त्वयि इति सर्वनामपदं कस्मै प्रयुक्तम् ?
(v) अत्र श्लोके ‘अञ्चति’ इति पदे का विभक्तिः प्रयुक्ता ?
उत्तराणि:
(i) पतङ्गाः ।
(ii) आपेदिरे।
(iii) सङ्कोचम्।
(iv) सरसे।
(v) सप्तमी विभक्तिः ।
[ √अञ्च् + शतृ = अञ्चत्, नपुंसकलिङ्गम्, सप्तमी विभक्तिः, एकवचनम्]
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-सरः त्वयि सङ्कोचम् अञ्चति, पतङ्गाः परितः अम्बरपथम् आपेदिरे, भृङ्गाः रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते। हन्त, दीनदीनः मीनः नु कतमां गतिम् अभ्युपैतु॥ .
शब्दार्था:-आपेदिरे = (प्राप्तवन्तः) प्राप्त कर लिए। अम्बरपथम् = (आकाशमार्गम्) आकाश-मार्ग को। पतङ्गाः = (खगाः) पक्षी। भृङ्गा = (भ्रमराः) भौरे। रसालमुकुलानि = (रसालानां मुकुलानि) आम की मञ्जरियों को। सङ्कोचम् अञ्चति = (सङ्कोचं गच्छति) संकुचित होने पर। मीनः = (मत्स्यः) मछली। अभ्युपैतु = (प्राप्नोतु) प्राप्त करें।
सन्दर्भ:-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘अन्योक्तयः’ नामक पाठ से लिया गया है। (यह पद्य पण्डितराज जगन्नाथ के ‘भामिनीविलासः’ नामक गीतिकाव्य से संकलित है।)
प्रसंग-प्रस्तुत पद्य में सरोवर को सम्बोधित करते हुए, दुर्दिनों में उसमें रहने वाली मछलियों की दुर्दशा पर दुःख व्यक्त किया गया है।
सरलार्थ:-हे सरोवर ! तेरे सूख जाने पर पक्षी आकाश में चारों ओर चले जाते हैं, भौरे आम की मंजरियों का आश्रय ले लेते हैं। हाय ! अत्यन्त दीन अवस्था को प्राप्त बेचारी मछली किस गति को प्राप्त करे।
भावार्थ:-कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को पक्षियों या भौरों की तरह अवसरवादी नहीं होना चाहिए, अपितु जिन व्यक्तियों या संसाधनों का भले दिनों में हम लाभ उठाते हैं, उन पर विपत्ति आ जाने पर हमें भी उनका सहभागी बनना चाहिए। यह सहभागिता या सहयोग सूखे सरोवर में मछली की भाँति हमारी विवशता से उपजी नहीं होना चाहिए; अपितु कृतज्ञता के भाव से ही हमें ऐसा सहयोग करना चाहिए।
5. एक एव खगो मानी वने वसति चातकः।
पिपासितो वा म्रियते याचते वा पुरन्दरम् ॥5॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) चातकः कीदृशः खगः अस्ति ?
(ii) पिपासितः चातकः किं करोति ?
(iii) चातकः कुत्र वसति ?
(iv) चातकः कं याचते ?
उत्तराणि
(i) चातकः एकः मानी खगः अस्ति ?
(ii) पिपासितः चातक: म्रियते वा पुरन्दरं याचते वा।
(iii) चातकः वने वसति।
(iv) चातकः पुरन्दरं याचते।
(ख) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘इन्द्रम्’ इत्यर्थे प्रयुक्तं पदं किम् ?
(ii) ‘दीनः’ इत्यस्य प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(iii) ‘पिपासितः’ अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
(iv) ‘एक एव’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
(v) ‘याचते’ इति क्रियापदस्य कर्मपदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) पुरन्दरम्।
(ii) मानी।
(iii) क्त।
(iv) एकः + एव।
(v) पुरन्दरम्।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-एक एव मानी खगः चातक: वने वसति। वा पिपासितः म्रियते पुरन्दरम् याचते वा॥ शब्दार्थाः-मानी = (स्वाभिमानी) स्वाभिमानी। पुरन्दरम् = (इन्द्रम्) इन्द्र को। पिपासितः = (तृषितः) प्यासा।
सन्दर्भ:-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘अन्योक्तयः’ नामक पाठ से लिया गया है। (यह पद्य पण्डितराज जगन्नाथ के भामिनीविलासः’ नामक गीतिकाव्य से संकलित है।)
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य में चातक को प्रतीक बनाकर स्वाभिमानिता की प्रशंसा की गई है।
सरलार्थ:-एक ही स्वाभिमानी पक्षी चातक वन में निवास करता है, वह प्यासा होते हुए भी या तो मर जाता है या इन्द्र से जल याचना करता है। चातक के सम्बन्ध में यह माना जाता है कि वह केवल आकाश से बरसती हुई वर्षा की बूंदों से ही अपनी प्यास बुझाता है, तालाब आदि का पानी नहीं पीता।
भावार्थ:-स्वाभिमानी व्यक्ति प्राणों के संकट में पड़ जाने पर भी अपनी स्वाभिमानिता का त्याग नहीं करता। वह दीन-हीन होकर जीने की अपेक्षा स्वाभिमानपूर्वक प्राण त्याग करना अधिक उत्तम समझता है। जैसे चातक को प्यासे रहकर मर जाना स्वीकार है, परन्तु तालाब आदि का जल पीकर जीवन धारण करना नहीं।
6. आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्णतप्त
मुद्दामदावविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पूरयित्वा,
रिक्तोऽसि यजलद ! सैव तवोत्तमा श्रीः ॥6॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) पर्वतकुलं कीदृशम् अस्ति ?
(ii) जलदः कीदृशानि काननानि आश्वास्यति ?
(iii) उत्तमा श्रीः कस्य अस्ति ?
(iv) अत्र कः सम्बोधितः ?
(v) जलदः रिक्तः कथं भवति ?
उत्तराणि
(i) पर्वतकुलं तपनोष्णतप्तम् अस्ति।
(ii) जलद; उद्दामवविधुराणि काननानि आश्वास्यति।
(iii) उत्तमा श्रीः जलदस्य अस्ति।
(iv) अत्र जलदः सम्बोधितः।
(v) जलद: नाना-नदी-नदशतानि पूरयित्वा रिक्तः भवति।
(ख) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘पूर्णः’ इत्यस्य विलोमपदम् अत्र किम् ?
(ii) ‘तपनोष्णतप्तम्’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
(iii) ‘आश्वास्य’ अत्र कः उपसर्गः प्रयुक्तः ?
(iv) ‘पूरयित्वा’ अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
(v) ‘रिक्तोऽसि यजलद !’ अत्र क्रियापदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) रिक्तः ।
(ii) तपन + उष्णतप्तम्।
(iii) आ।
(iv) क्त्वा।
(v) असि।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-हे जलद ! तपनोष्णतप्तं पर्वतकुलम् आश्वास्य उद्दामदावविधुराणि काननानि च (आश्वास्य) नानानदीनदशतानि पूरयित्वा च यत् रिक्तः असि तव सा एव उत्तमा श्रीः॥
शब्दार्थाः-आश्वास्य = (समाश्वास्य) सन्तुष्ट करके। पर्वतकुलम् = (पर्वतानां कुलम्) पर्वतों के समूह को। तपनोष्णतप्तम् = (तपनस्य उष्णेन तप्तम्) सूर्य की गर्मी से तपे हुए को। उद्दामदावविधुराणि = (उन्नतकाष्ठरहितानि) ऊँचे काष्ठों (वृक्षों) से रहित । काननानि = (वनानि) वन। नानानदीनदशतानि = (नाना नद्यः, नदानां शतानि च) अनेक नदियों और सैंकड़ों नदों को। पूरयित्वा = (पूर्णं कृत्वा) पूर्ण करके, भरकर। श्रीः = शोभा।
सन्दर्भ:-सन्दर्भ:-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘अन्योक्तयः’ नामक पाठ से लिया गया है। (यह पद्य महाकवि माघ द्वारा रचित ‘शिशुपालवधम्’ से संकलित है।)
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य में दानशीलता की प्रशंसा की गई है।
सरलार्थ:-हे बादल ! सूर्य की गर्मी से तपे हुए पर्वतों के समूह को और ऊँचे वृक्षों से रहित वनों को सन्तुष्ट करके अनेक नदी-नालों को जल से परिपूर्ण करके तुम स्वयं रिक्त हो गए हो, वही तुम्हारी सर्वोत्तम शोभा है।
आशय यही है कि परोपकारी पुरुष दूसरों को सुखी और सम्पन्न बनाने के लिए सर्वस्व लुटा देते हैं और स्वयं अभावग्रस्त रह जाते हैं, यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है, यही उनके यश को बढ़ाने वाला कारक है।
भावार्थ:-परोपकारी मनुष्य परहित के कार्यों में अपनी सारी सम्पत्ति व्यय कर स्वयं अतिसाधारण जीवन व्यतीत करते हैं। उन्हें इस अभावग्रस्त अवस्था में देखकर लगता ही नहीं कि ये कभी धनसम्पन्न रहे होंगे। कवि कहता है कि ऐसे परोपकारी मनुष्यों की अभावग्रस्तता ही उनकी शोभा और यशस्विता का कारण बन जाती है। जैसे जल बरसा कर बादल शोभायमान होता है।
7. रे रे चातक ! सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयता
मम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः।
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा,
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ॥7॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) सावधान मनसा कः शृणोतु ?
(ii) गगने बहवः के सन्ति ?
(iii) कीदृशं वचः मा ब्रूहि ?
(iv) अम्भोदाः वृष्टिभिः काम् आर्द्रयन्ति ?
(v) अत्र कवेः मित्रं कः अस्ति ?
(vi) कविः चातकं किं कर्तुं कथयति ?
(vii) गगने कीदृशाः अम्भोदाः सन्ति ?
उत्तराणि
(i) सावधान मनसा चातकः शृणोतु ।
(ii) गगने बहवः अम्भोदाः सन्ति।
(iii) दीनं वचः मा ब्रूहि।
(iv) अम्भोदाः वृष्टिभिः वसुधाम् आर्द्रयन्ति।
(v) अत्र कवेः मित्रं चातकः अस्ति।
(vi) कविः चातकं किं कर्तुं कथयति ?
(vii) गगने कीदृशाः अम्भोदाः सन्ति ?
(ख) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘अम्भोदाः बहवः’ अत्र विशेष्यपदं किम् ?
(ii) ‘शोषयन्ति’ इत्यस्य प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(iii) ‘व्यर्थम्’ इत्यस्य प्रयुक्तं पर्यायपदं किम् ?
(iv) अत्र श्लोके सम्बोधनपदं किमस्ति ?
(v) ‘वृष्टभिरार्द्रयन्ति’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
उत्तराणि:
(i) अम्भोदाः ।
(ii) आर्द्रयन्ति।
(iii) वृथा।
(iv) चातक।
(v) वृष्टिभिः + आर्द्रयन्ति।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः- रे रे मित्र चातक ! सावधानमनसा क्षणं श्रूयताम्, गगने हि बहवः अम्भोदाः सन्ति, सर्वे अपि एतादृशाः न (सन्ति) केचित् धरिणीं वृष्टिभिः आर्द्रयन्ति, केचिद् वृथा गर्जन्ति, (त्वम्) यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतः दीनं वचः मा ब्रूहि ॥
शब्दार्थाः-सावधानमनसा = (ध्यानेन) ध्यान से। अम्भोदाः = (मेघाः) बादल। गगने = (आकाशे) आकाश में। आर्द्रयन्ति = (जलेन क्लेदयन्ति) जल से भिगो देते हैं। वसुधाम् = (पृथ्वीम्) पृथ्वी को। गर्जन्ति = [गर्जनं (ध्वनिम्) कुर्वन्ति] गर्जना करते हैं। पुरतः = (अग्रे) आगे, सामने। मा = (न) नहीं, मत। वचः = (वचनम्) वचन।
अन्योक्तयः
सन्दर्भ:–सन्दर्भ:-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘अन्योक्तयः’ नामक पाठ से लिया गया है। (यह पद्य कवि भर्तहरि के नीतिशतक से संकलित है।)
प्रसंगः-प्रस्तुत पद्य में चातक के माध्यम से बताया गया है कि प्रत्येक से माँगना उचित नहीं होता; क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति दानी नहीं होता।
सरलार्थ:-हे मित्र चातक! सावधान मन से क्षणभर सुनो। आकाश में अनेक बादल रहते हैं, पर सभी ऐसे उदार नहीं होते। कुछ तो वर्षा से पृथ्वी को गीला कर देते हैं, परन्तु कुछ व्यर्थ ही गरजते हैं। अतः तुम जिस-जिसको देखते हो, उस-उसके सामने दीन वचन कहकर अपनी दीनता प्रकट मत करो।
भावार्थ:-किसी से माँगना दीनता को प्रकट करना है। स्वाभिमानी व्यक्ति को पहले तो माँगना ही नहीं चाहिए। यदि जीवन में कोई माँगने की स्थिति बन भी जाए तो अच्छी तरह सोच-विचार कर केवल उसी से माँगना चाहिए, जिससे देने का सामर्थ्य और देने की प्रवृत्ति हो। सबके सामने हाथ फैला-फैला कर अपनी दीनता का ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए।