HR 9 Sanskrit

Haryana Board 9th Class Sanskrit व्याकरणम् कारक एवं उपपद विभक्ति

Haryana Board 9th Class Sanskrit व्याकरणम् कारक एवं उपपद विभक्ति

HBSE 9th Class Sanskrit व्याकरणम् कारक एवं उपपद विभक्ति

(क) कारक एवं उपपद विभक्ति
किसी दूसरे के पद के समीप आ जाने के कारण जिस विभक्ति का प्रयोग किया जाता है, उसे उपपद विभक्ति कहते हैं; जैसेरामः देवेन सह विद्यालयं गच्छति। इस वाक्य में ‘सह’ के प्रयोग के कारण तृतीया विभक्ति आई है। अतः यह उपपद विभक्ति है। उपपद विभक्ति के लिए कारकों का ज्ञान अनिवार्य है। अतः उनका परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।

1. प्रथमा विभक्ति-सामान्यतया कर्तृवाच्य के कर्त्ता में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होता है; जैसे-रामः गृहं गच्छति (राम घर जाता है)। यहाँ ‘राम’ कर्ता है। इसलिए उसमें प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित स्थानों पर प्रथमा विभक्ति होती है
(क) सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होता है; जैसे हे बालकाः! यूयं कुत्र गच्छथ? (हे बालको! तुम कहाँ जाते हो?)
(ख) कर्मवाच्य के कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है; जैसे मया पाठः पठ्यते। (मेरे द्वारा पाठ पढ़ा जाता है।) यहाँ ‘पाठ’ में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है।

2. द्वितीया विभक्ति-सामान्यतया कर्तृवाच्य में कर्ता में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है; जैसे-रामः वनं गच्छति (राम वन को जाता है)। यहाँ ‘वन’ कर्म है। इसलिए उसमें द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित स्थानों पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है
(क) अधि + शी (सोना), अधि + स्था (बैठना या रहना), अधि + आस् (बैठना) धातुओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है; जैसे
(i) सः पर्यङ्कमधिशेते। (वह पलंग पर सोता है।)
(i) राजा सिंहासनमधितिष्ठति। (राजा सिंहासन पर बैठता है।)
(iii) पुरोहितः आसनमध्यास्ते। (पुरोहित आसन पर बैठता है।)

(ख) प्रति, अनु, विना, परितः, सर्वतः, उभयतः, अभितः, धिक् इत्यादि के योग में अर्थात् इन शब्दों का प्रयोग हो तो द्वितीया विभक्ति होती है।
(i) प्रति (की ओर) कृष्णः पाठशाला प्रति गच्छति। (कृष्ण पाठशाला की ओर जाता है।)
(ii) अनु (पीछे) मातरमनुगछति पुत्रः। (पुत्र माता के पीछे जाता है।)
(iii) विना (बिना) दानं विना मुक्तिः नास्ति। (दान के बिना मुक्ति नहीं होती।)
(iv) परितः (चारों ओर)-नगरं परितः उपवनानि सन्ति । (नगर के चारों ओर बाग है।)
(v) सर्वतः (सब ओर)-ग्रामं सर्वतः जलं वर्तते। (गाँव में सब ओर जल है।)
(vi) उभयतः (दोनों ओर) – गृहमुभयतः वृक्षाः सन्ति। (घर के दोनों ओर वृक्ष हैं।)
(vii) अभितः (दोनों ओर)-ग्रामम् अभितः नदी वहति । (गाँव के दोनों ओर नदी बहती है।)
(viii) धिक् (धिक्कार)-धिक तम् दुर्जनम्। (दुर्जन को धिक्कार है।)

3. तृतीया विभक्ति-जिस साधन के द्वारा कर्ता क्रिया को सिद्ध करता है, उस साधन में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। इसे करण कारक भी कहते हैं; जैसे-रामः हस्तेन लिखति (राम हाथ से लिखता है)। यहाँ पर राम द्वारा लिखने की क्रिया हाथ से बताई गई है। इसलिए लिखने के साधन ‘हाथ’ में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है।
व्याकरण (कारक, उपपद विभक्ति, संख्या एवं अव्यय) इसके अतिरिक्त निम्नलिखित स्थानों पर भी तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है
(क) कर्मवाच्य तथा भाववाच्य के कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है; जैसे कर्मवाच्य में-रामेण रावणः हन्यते। (राम के द्वारा रावण को मारा जाता है।) भाववाच्य में रामेण हस्यते। (राम के द्वारा हँसा जाता है।)
(ख) ‘प्रकृति’ इत्यादि शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है; जैसे रामः प्रकृत्या विनीतः। (राम स्वभाव से नम्र है।) मोहनः स्वभावेन क्रूरः। (मोहन स्वभाव से क्रूर है।)
(ग) किसी शरीर के अंग-विकार में तृतीया विभक्ति होती है; जैसे सुरेशः नेत्रेण काणः अस्ति। (सुरेश आँख से काना है।)
(घ) सह, साकम्, सार्धम्, अलम्, हीनः शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
(i) सह (साथ) देवेन सह कृष्णः गच्छति। (देव के साथ कृष्ण जाता है।)
(ii) साकम् (साथ) त्वया साकम् अन्यः कः आगमिष्यति? (तुम्हारे साथ अन्य कौन आएगा?)
(iii) सार्धम् (साथ)-मया सार्धम् कविता पठ। (मेरे साथ कविता पढ़ो।)
(iv) अलम् (बस)-अलम् प्रलापेन! (प्रलाप मत करो!)
(v) हीनः (रहित)-नरः विद्याहीनः न शोभते। (विद्या से रहित मनुष्य शोभा नहीं पाता।)

4. चतुर्थी विभक्ति-सामान्यतया सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है अर्थात् जिसको कुछ दिया जाए, उसमें चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है; जैसे-रामः कृष्णाय धनं यच्छति (राम कृष्ण को धन देता है)। यहाँ कृष्ण को धन देने की बात कही गई है। इसलिए ‘कृष्ण’ में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग किया गया है इसके अतिरिक्त निम्नलिखित स्थानों पर चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है।
(क) नमः, स्वस्ति, स्वाहा के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है
(i) नमः (नमस्कार) देवाय नमः । (देवता को नमस्कार हो।)
(ii) स्वस्ति (कल्याण)-सर्वेभ्यः स्वस्ति अस्तु। (सबका कल्याण हो।)
(iii) स्वाहा (आहुति डालना)-रुद्राय स्वाहा। (रुद्र के लिए स्वाहा।)

(ख) रुच्, द्रुह् धातुओं के योग में चतुर्थी विभक्ति आती है।
(i) मह्यं क्षीरं रोचते। (मुझे दूध अच्छा लगता है।)
(ii) रामः मह्यं द्रुह्यति। (राम मुझसे द्रोह करता है।)

5. पञ्चमी विभक्ति-सामान्यतया (अपादान) अलग होने के अर्थ में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है; जैसे-अहं गृहात् आगच्छामि (मैं घर से आता हूँ)। यहाँ ‘घर’ (जहाँ से मैं आता हूँ) में अपादान है। इसलिए उसमें पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित स्थानों पर पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है
(क) पूर्व, ऋते, प्रभृति, बहिर्, ऊर्ध्वम् के योग में पञ्चमी विभक्ति आती है।
(i) पूर्व (पहले) मोहनः दश वादनात् पूर्व पाठशालां गच्छति। (मोहन दस बजे से पहले पाठशाला जाता है।)
(ii) ऋते (बिना)-ऋते धनात् न सुखम्। (धन के बिना सुख नहीं।)
(iii) प्रभृति (से लेकर)-जन्मनः प्रभृति स्वामी दयानन्दः ब्रह्मचारी आसीत् । (जन्म से लेकर स्वामी दयानन्द ब्रह्मचारी थे।)
(iv) बहिर् (बाहर)-ग्रामात् बहिर् उद्यानम् अस्ति। (गाँव से बाहर बगीचा है।)
(v) ऊर्ध्वम् (ऊपर)-भूमे ऊर्ध्वम् स्वर्गं वर्तते। (भूमि के ऊपर स्वर्ग है।)

(ख) जुगुप्सा, विराम तथा प्रमादसूचक शब्दों के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।
(i) जुगुप्सा (घृणा)-सत्पुरुषः पापात् जुगुप्सते। (सज्जन पाप से घृणा करते हैं।)
(ii) विरम (अनिच्छा)-रामः अध्ययनात् विरमति। (राम अध्ययन से अनिच्छा करता है।)
(iii) प्रमाद (विमुखता)-स धर्मात् प्रमादयति। (वह धर्म से विमुखता करता है।)

(ग) जिससे भय होता है तथा जिससे रक्षा की जाए, उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है।
(i) बालकः कुक्कुरात् बिभेति। (बालक कुत्ते से डरता है।)
(i) ईश्वरः मां पापात् रक्षति। (ईश्वर मुझे पाप से बचाता है।)

(घ) निवारण करना (रोकना) अर्थ वाली धातुओं के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।
(i) मोहनः स्वमित्रं पापात् निवारयति। (मोहन अपने मित्र को पाप से रोकता है।)
(ii) कृषकः यवेभ्यः गां निवारयति। (किसान गाय को यवों से रोकता है।)

6. षष्ठी विभक्ति-सामान्यतया जिसका किसी से सम्बन्ध बताया जाए, उसमें षष्ठी विभक्ति होती है; जैसे-राज्ञः पुरुषः (राजा का पुरुष)। यहाँ पर ‘राजा’ का ‘पुरुष’ के साथ सम्बन्ध बताया गया है। इसलिए यहाँ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित स्थानों पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है
(क) ‘हेतु’ शब्द का प्रयोग होने पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है; जैसे पठनस्य हेतोः सोऽत्र वसति। (पढ़ने के लिए यह यहाँ रहता है।)

(ख) अधि + इ (पढ़ना), स्मृ (स्मरण करना) के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
(i) शिष्यः गुरोरधीते। (शिष्य गुरु से पढ़ता है।)
(ii) बालकः मातुः स्मरति। (बालक माता को स्मरण करता है।)

(ग) ‘तुल्य’ अर्थ वाले सम, सदृश इत्यादि शब्दों के योग में षष्ठी तथा तृतीया विभक्तियाँ होती हैं।
(i) तुल्य (समान)-देवः जनकस्य (जनकेन) तुल्यः । (देव पिता के समान है।)
(ii) सदृश (समान)-सा मातुः (मात्रा) सदृशी अस्ति। (वह माता के समान है।)

7. सप्तमी विभक्ति-अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति होती है। आधार को अधिकरण कहते हैं अर्थात् जो जिसका आधार होता है, उसमें सप्तमी विभक्ति होती है; जैसे-वृक्षे काकः तिष्ठति (पेड़ पर कौआ बैठा है)। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित स्थानों पर सप्तमी विभक्ति होती है
(क) जिस वस्तु में इच्छा होती है, उसमें सप्तमी विभक्ति होती है। तस्य मोक्षे इच्छा अस्ति। (उसकी मोक्ष में इच्छा है।)
(ख) स्निह (स्नेह करना) धातु के योग में सप्तमी विभक्ति होती है। माता पुत्रे स्निह्यति। (माता पुत्र पर स्नेह करती है।)
(ग) युक्तः, व्यापृतः, तत्परः, निपुणः, कुशलः इत्यादि शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है।
(i) युक्तः (नियुक्त)-सः अस्मिन् कार्ये नियुक्तोऽस्ति। (वह इस काम में नियुक्त है।)
(ii) व्यापृतः (संलग्न)-मोहनः निजकार्ये व्यापृतः अस्ति। (मोहन अपने काम में संलग्न है।)
(iii) तत्परः (प्रवृत्त)-सः पठने तत्परः अस्ति। (वह पढ़ने में प्रवृत्त है।)
(iv) निपुणः (निपुण)-रामः शिक्षणे निपुणः अस्ति। (राम शिक्षण में निपुण है।)
(v) कुशलः (दक्ष)-देवः अध्ययने कुशलः अस्ति। (देव अपने अध्ययन में दक्ष है।)

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