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Haryana Board 9th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 4 कल्पतरूः

Haryana Board 9th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 4 कल्पतरूः

HBSE 9th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 4 कल्पतरूः

HBSE 9th Class Sanskrit कल्पतरूः Textbook Questions and Answers

कल्पतरुः (कल्प का वृक्ष) पाठ-परिचय

प्रस्तुत पाठ आधुनिक संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कथा ग्रन्थ ‘वेतालपञ्चविंशतिः’ से संकलित है। यह ग्रन्थ पच्चीस कथाओं का संग्रह है। इस कथा में वेताल राजा विक्रम को एक-एक करके पच्चीस कथाएँ सुनाता है। ये कथाएँ अत्यन्त रोचक, भाव प्रधान और विवेक की परीक्षा लेने वाली हैं।

पाठ में वर्णित कथा के अनुसार विद्याधरपति जीमूतकेतु के घर के उद्यान में एक कल्पवृक्ष लगा हुआ था। जीमूतकेतु ने अपने पुत्र जीमूतवाहन को युवराज के पद पर बैठा दिया और कहा कि उद्यान में स्थित कल्पवृक्ष तुम्हारे लिए सदा पूज्य है। परोपकारी ‘जीमूतवाहन ने सोचा मैं इस वृक्ष से अभीष्ट मनोरथ सिद्ध करूँगा। कल्पवृक्ष के पास पहुँचकर उसने कहा हे देव! तुमने हमारे पूर्वजों

की अभीष्ट इच्छाएँ पूरी की हैं, तो मेरी भी एक इच्छा पूरी कर दो। आप इस पृथ्वी को निर्धनों से रहित कर दो। उस कल्पवृक्ष ने पलभर में ही स्वर्ग की ओर उड़कर पृथ्वी पर इतने धन की वर्षा की कि कोई भी निर्धन नहीं रहा। इस प्रकार जीमूतवाहन ने कल्पवृक्ष से सांसारिक द्रव्यों को न माँगकर संसार के प्राणियों के दुःखों को दूर करने का वरदान माँगा। क्योंकि धन तो पानी की लहर के समान चंचल है, केवल परोपकार ही इस संसार का सर्वोत्कृष्ट तथा चिरस्थायी तत्त्व है।

HBSE 9th Class Sanskrit कल्पतरूः Textbook Questions and Answers

I. अधोलिखितानां सूक्तिानां भावं हिन्दी भाषायां लिखत
(निम्नलिखित सूक्तियों के भाव हिन्दी भाषा में लिखिए)
(क) संसारसागरे आशरीरमिदं सर्वं धन वीचिवच्चञ्चलम्।
(ख) एकः परोपकार एवास्मिन् संसारेऽनश्वरः। .
(ग) यथा पृथ्वीमदरिद्रां पश्यामि, तथा करोतु देव।
उत्तराणि:
(क) भावार्थ प्रस्तुत सूक्ति ‘वेतालपञ्चविंशतिः’ से संकलित पाठ ‘कल्पतरुः’ में से उद्धृत है। महापुरुषों ने इस संसार को समुद्र कहा है। इस संसार में शरीर सहित जो कुछ धन-धान्यादि है, वह नाशवान है। जिस प्रकार समुद्र में लहरें उठती हैं और थोड़ी देर बाद उसी में विलीन हो जाती हैं; उसी प्रकार इस संसार रूपी समुद्र में मनुष्य का शरीर, उसकी धन-सम्पत्ति आदि लहरों की भाँति नाशवान है। संसार की प्रत्येक वस्तु नश्वर है। केवल मनुष्य के द्वारा किया गया सत्कर्म ही स्थिर है।

(ख) भावार्थ-प्रस्तुत सूक्ति ‘वेतालपञ्चविंशतिः’ से संकलित पाठ ‘कल्पतरुः’ में से उद्धृत है। इस संसार में एक परोपकार ही अनश्वर है, जो युग के अन्त तक यश फैलाता है। दूसरों की भलाई के लिए किया गया कार्य परोपकार है। मनुष्य द्वारा एकत्रित की गई धन-सम्पत्ति, सुख-ऐश्वर्य आदि सभी वस्तुएँ नश्वर हैं। न तो मनुष्य इन वस्तुओं को साथ लेकर पैदा होता है और न ही मृत्यु
के समय इन्हें साथ लेकर जाता है। जो मनुष्य दूसरों की भलाई के लिए कोई कार्य करता है, वह कार्य अमर हो जाता है। उस कार्य को याद करके लोग युगों तक उस परोपकारी मनुष्य को याद करते हैं। इसलिए परोपकार की भावना से किए गए कार्यों के द्वारा मनुष्य की ख्याति युगों-युगों तक बनी रहती है।

(ग) भावार्थ प्रस्तुत सूक्ति ‘वेतालपञ्चविंशतिः’ से संकलित पाठ ‘कल्पतरुः’ में से उद्धृत है। जीमूतवाहन ने अपने पिता की आज्ञा से अपने पूर्वजों द्वारा सुरक्षित कल्पवृक्ष से प्रार्थना की कि हे देव! तुमने हमारे पूर्वजों की अभीष्ट इच्छाएँ पूरी की हैं। इसलिए मेरी प्रार्थना के अनुसार इस पृथ्वी को निर्धनों से रहित कर दो। पौराणिक मान्यता के अनुसार कल्पवृक्ष एक ऐसा वृक्ष है जिसके नीचे बैठकर की जाने वाली कल्पना पूरी होती है। जीमूतवाहन ने सारी पृथ्वी की निर्धनता मिटाने के लिए कल्पवृक्ष से प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना को सुनकर कल्पवृक्ष ने इतने धन की वर्षा की कि इस पृथ्वी पर कोई भी निर्धन नहीं रहा।

II. अधोलिखितान् गद्यांशान् पठित्वा एतदाधारितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतपूर्णवाक्येन लिखत
(निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर संस्कृत के पूर्ण वाक्यों में लिखिए)
(1) अस्ति हिमवान् नाम सर्वरत्नभूमिः नगेन्द्रः। तस्य सानोः उपरि विभाति कञ्चनपुरं नाम नगरम्। तत्र जीमूतकेतुः इति श्रीमान् विद्याधरपतिः वसति स्म। तस्य गृहोद्याने कुलक्रमागतः कल्पतरुः स्थितः। स राजा जीमूतकेतुः तं कल्पतरुम् आराध्य तत्प्रसादात् च बोधिसत्वांशसम्भवं जीमूतवाहनं नाम पुत्रं प्राप्नोत्।
(क) कञ्चनपुरं नाम नगरं कुत्र विभाति?
(ख) हिमालयस्य सानोः उपरि किं नाम नगरं विभाति?
(ग) ‘विद्याधरपतिः’ इति पदस्य समास विग्रहं कुरुत।
(घ) तत्र कः वसति स्म?
(ङ) राजा कस्मात् प्रसादात् जीमूतवाहनं नाम पुत्र प्राप्नोत् ?
उत्तराणि:
(क) कञ्चनपुरं नाम नगरं हिमवानस्य सानोः उपरि विभाति।
(ख) हिमालयस्य सानोः उपरि कञ्चनपुरं नाम नगरं विभाति।
(ग) विद्याधराणां पतिः।
(घ) तत्र जीमूतकेतुः इति नाम श्रीमान् विद्याधरपतिः वसति स्म।
(ङ) राजा कल्पतरुम् आराध्य तत् प्रसादात् जीमूतवाहनं नाम पुत्रं प्राप्नोत्।

(2) “अहो ईदृशम् अमरपादपं प्राप्यापि पूर्वैः पुरुषैः अस्माकं तादृशं फलं किमपि न प्राप्तम्। किन्तु केवलं कैश्चिदेव कृपणैः कश्चिदपि अर्थः अर्थितः। तदहम् अस्मात् कल्पतरोः अभीष्टं साधयामि” इति। एवम् आलोच्य सः पितुः अन्तिकम् आगच्छत् ।
(क) अस्माकं पूर्वजैः किं प्राप्यापि किमपि न प्राप्तम्?
(ख) अस्माकं कैः तादृशं फलं न प्राप्तम् ?
(ग) ‘अर्थोऽर्थितः’ इति पदस्य सन्धिच्छेदं कुरुत।
(घ) अस्मात् अहं किं साधयामि?
(ङ) सः जीमूतवाहनः कुत्र आगच्छत् ?
उत्तराणि:
(क) अस्माकं पूर्वजैः ईदृशम् अमरपादपं प्राप्यापि किमपि न प्राप्तम्।
(ख) अस्माकं पूर्वः पुरुषैः तादृशं फलं न प्राप्तम्।
(ग) अर्थः + अर्थः
(घ) अहं अस्मात् कल्पतरोः अभीष्टं साधयामि।
(ङ) जीमूतवाहनः पितुः अन्तिकम् आगच्छत् ।

(3) “देव! त्वया अस्मत्पूर्वेषाम् अभीष्टाः कामाः पूरिताः, तन्ममैकं कामं पूरय। यथा पृथिवीम् अदरिद्राम्
पश्यामि, तथा करोतु देव” इति। एवंवादिनि जीमूतवाहने “त्यक्तस्त्वया एषोऽहं यातोऽस्मि” इति वाक् तस्मात् तरोः उदभूत्।
(क) दरिद्रा का अस्ति?
(ख) त्वया केषाम् अभीष्टाः पूरिताः?
(ग) ‘करोतु’, इति पदे कः लकारः?
(घ) जीमूतवाहनः कल्पतरुना किम् अयाचत्?
(ङ) कल्पतरुः किम् उक्त्वा उद्भूत?
उत्तराणि:
(क) दरिद्रा पृथ्वी अस्ति।
(ख) त्वया अस्मत् पूर्वेषाम् अभीष्टाः कामाः पूरिताः ।
(ग) लोट् लकार, प्रथमपुरुषैकवचनः।
(घ) जीमूतवाहनः कल्पतरुना अयाचत् यत्-“यथा पृथिवीम् अदरिद्राम् पश्यामि, तथा करोतु देव।”
(ङ) त्यक्तस्त्वया एषोऽहं यातोऽस्मि इति उक्त्वा कल्पतरुः उद्भूत्।

III. स्थूलपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(स्थूल पदों के आधार पर प्रश्न निर्माण कीजिए)
(क) उद्याने कल्पतरुः स्थितः।
(ख) अस्मान् शक्रः अपि बाधितु न शक्नुयात्।
(ग) परोपकारः एव संसारे अनश्वरः।
(घ) जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य उवाच।
(ङ) कल्पतरुः भुवि वसूनि अवर्षत्।
उत्तराणि:
(क) कुत्र कल्पतरुः स्थितः?
(ख) अस्मान् कः अपि बाधितु न शक्नुयात् ?
(ग) कः एव संसारे अनश्वरः?
(घ) जीमूतवाहनः कम् उपगम्य उवाच?
(ङ) कल्पतरुः कुत्र वसूनि अवर्षत् ?

IV. अधोलिखितानि वाक्यानि घटनाक्रमानुसारं पुनः लिखत
(निम्नलिखित वाक्यों को घटनाक्रम के अनुसार दोबारा लिखिए)
(अ)
(क) तत्र जीमूतकेतुः श्रीमान् विद्याधरपतिः वसति स्म।
(ख) स्वसचिवैः प्रेरितः राजा तं यौवराज्ये अभिषिक्तवान्।
(ग) जीमूतवाहनः महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च अभवत् ।
(घ) हिमवानस्य उपरि कञ्चनपुरं नाम नगरं विभाति।
(ङ) सः बोधिसत्वांशसम्भवं जीमूतवाहनं नाम पुत्रं प्राप्नोत् ।
उत्तराणि:
(घ) ‘हिमवानस्य उपरि कञ्चनपुरं नाम नगरं विभाति।
(क) तत्र जीमूतकेतुः श्रीमान् विद्याधरपतिः वसति स्म।
(ङ) सः बोधिसत्वांशसम्भवं जीमूतवाहनं नाम पुत्रं प्राप्नोत्।
(ग) जीमूतवाहनः महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च अभवत्।
(ख) स्वसचिवैः प्रेरितः राजा तं यौवराज्ये अभिषिक्तवान्।

(ब)
(क) जीमूतकेतुः कल्पतरोः प्रासादात् जीमूतवाहनं नाम पुत्रं प्राप्नोत्।
(ख) कल्पतरुः दिवं समुत्पत्य भुवि वसूनि अवर्षत्।
(ग) जीमूतकेतोः गृहोद्याने कुलक्रमागतः कल्पतरुः स्थितः।
(घ) ततः जीमूतवाहनस्य सर्वजीवानुकम्पया सर्वत्र यशः प्रथितम्।
(ङ) जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य उवाच यथा पृथिवीम् अदरिद्राम् पश्यामि तथा करोतु देव।
उत्तराणि:
(ग) जीमूतकेतोः गृहोद्याने कुलक्रमागतः कल्पतरुः स्थितः।
(क) जीमूतकेतुः कल्पतरोः प्रासादात् जीमूतवाहनं नाम पुत्रं प्राप्नोत्।।
(ङ) जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य उवाच-यथा पृथिवीम् अदरिद्राम् पश्यामि तथा करोतु देव।
(ख) कल्पतरुः दिवं समुत्पत्य भुवि वसूनि अवर्षत्।
(घ) ततः जीमूतवाहनस्य सर्वजीवानुकम्पया सर्वत्र यशः प्रथितम्।

v. अधोलिखित प्रश्नानाम् चतुषु वैकल्पिक उत्तरेषु उचितमुत्तरं चित्वा लिखत
(निम्नलिखित प्रश्नों के दिए गए चार विकल्पों में से उचित उत्तर का चयन कीजिए)
1. हिमवानस्य सानोरुपरि किं नाम नगरं विभाति?
(i) सज्जनपुरम्
(ii) चन्दनपुरम्
(iii) कञ्चनपुरम्
(iv) अमरपुरम्
उत्तरम्:
(iii) कञ्चनपुरम्

2. कुलक्रमागत् कल्पतरुः कुत्र स्थितः?
(i) राजप्रासादे
(ii) गृहोद्याने
(iii) राजोपवने
(iv) देवोद्याने
उत्तरम्:
(ii) गृहोद्याने

3. संसारसागरे किं वीचिवच्चञ्चलम् ?
(i) वनम्
(ii) जनम्
(iii) धनम्
(iv) सर्वम्
उत्तरम्:
(iii) धनम्

4. अस्मिन् संसारे एकः कः अनश्वरः?
(i) परोपकारः
(ii) जीवनः
(iii) नामः
(iv) शरीरः
उत्तरम्:
(i) परोपकारः

5. कल्पतरुः दिवं समुत्पत्य भुवि कानि अवर्षत् ?
(i) जलानि
(ii) वसूनि
(iii) हिमानि
(iv) अन्नानि
उत्तरम्:
(ii) वसूनि

6. ‘परोपकारः’ अत्र किं विग्रहपदम्?
(i) परषाम् उपकारः
(ii) परेषाम् अपकारः
(iii) परेषा उपकारः
(iv) परेषाम् उपकारः
उत्तरम्:
(iv) परेषाम् उपकारः

7. ‘गृहोद्याने’ इति पदे कः समासः?
(i) तत्पुरुषः
(ii) कर्मधारयः
(iii) द्वन्द्वः
(iv) अव्ययीभावः
उत्तरम्:
(i) तत्पुरुषः

8. ‘गुण + मतुप्’ इति संयोगे किं रूपम्?
(i) गुणवान्
(ii) गूणवान्
(iii) गणवान्
(iv) गुणवानः
उत्तरम्:
(i) गुणवान्

9. ‘स्वस्ति’ शब्दस्य योगे का विभक्तिः स्यात् ?
(i) तृतीया
(ii) चतुर्थी
(iii) पञ्चमी
(iv) षष्ठी
उत्तरम्:
(ii) चतुर्थी

10. ‘इन्द्रः’ इति पदस्य पर्यायपदं किम्?
(i) देवः
(ii) शिवः
(iii) शक्रः
(iv) शुक्रः
उत्तरम्:
(ii) शक्रः

11. ‘विद्याधराणां पतिः’ अत्र किं समस्तपदम?
(i) विद्यधरापतिः
(ii) विद्यधारापतिः
(iii) विद्याधारपतिः
(iv) विद्याधरपतिः
उत्तरम्:
(iv) विद्याधरपतिः

12. ‘अनश्वरः’ इति पदस्य विशेष्य पदं किम्?
(i) कल्पतरुः
(ii) परोपकारः
(iii) दानवीरः
(iv) राजा
उत्तरम्:
(ii) परोपकारः

13. ‘जीमूतवाहनः’ इति पदस्य विशेषणपदं किम्?
(i) परोपकारः
(ii) दानवीरः
(iii) अनश्वरः
(iv) कल्पतरुः
उत्तरम्:
(i) दानवीरः

योग्यताविस्तारः

यह पाठ ‘वेतालपञ्चविंशतिः’ नामक कथा संग्रह से लिया गया है, जिसमें मनोरञ्जक एवम् आश्चर्यजनक घटनाओं के माध्यम से जीवनमूल्यों का निरूपण किया गया है। इस कथा में जीमूतवाहन अपने पूर्वजों के काल से गृहोद्यान में आरोपित कल्पवृक्ष से सांसारिक द्रव्यों को न माँगकर संसार के प्राणियों के दुःखों को दूर करने का वरदान माँगता है क्योंकि, धन तो पानी की लहर के समान चंचल है, केवल परोपकार ही इस संसार का सर्वोत्कृष्ट तथा चिरस्थायी तत्त्व है।

(क) ग्रन्थ परिचय “वेतालपञ्चविंशतिका” पच्चीस कथाओं का संग्रह है। इस नाम की दो रचनाएँ पाई जाती हैं। एक शिवदास (13वीं शताब्दी) द्वारा लिखित ग्रन्थ है जिसमें गद्य और पद्य दोनों विधाओं का प्रयोग किया गया है। दूसरी जम्भलदत्त की रचना है जो केवल गद्यमयी है। इस कथा में कहा गया है कि राजा विक्रम को प्रतिवर्ष कोई तान्त्रिक सोने का एक फल देता है। उसी तान्त्रिक के कहने पर राजा विक्रम श्मशान से शव लाता है। जिस पर सवार होकर एक वेताल मार्ग में राजा के मनोरंजन के लिए कथा सुनाता है। कथा सुनते समय राजा को मौन रहने का निर्देश देता है। कहानी के अन्त में वेताल राजा से कहानी पर आधारित एक प्रश्न पूछता है। राजा उसका सही उत्तर देता है। शर्त के अनुसार वेताल पुनः श्मशान पहुँच जाता है। इस तरह पच्चीस बार ऐसी ही घटनाओं की आवृत्ति होती है और वेताल राजा को एक-एक करके पच्चीस कथाएँ सुनाता है। ये कथाएँ अत्यन्त रोचक, भाव-प्रधान और विवेक की परीक्षा लेने वाली हैं।

(ख) क्त क्तवतु प्रयोगः
क्त-इस प्रत्यय का प्रयोग सामान्यतः कर्मवाच्य में होता है।
क्तवतु इस प्रत्यय का प्रयोग कर्तृवाच्य में होता है।
क्त प्रत्ययः
जीमूतवाहनः हितैषिभिः मन्त्रिभिः उक्तः।
कृपणैः कश्चिदपि अर्थः अर्थितः।
त्वया अस्मत्कामाः पूरिताः।
तस्य यशः प्रथितम् (कर्तृवाच्य में क्त)
क्तवतु प्रत्ययः
सा पुत्रं यौवराज्यपदेऽभिषिक्तवान्।
एतदाकर्ण्य जीमूतवाहनः चिन्तितवान्।
स सुखासीनं पितरं निवेदितवान्।
जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उक्तवान्।

(ग) लोककल्याण-कामना-विषयक कतिपय श्लोक
(1) सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥
अर्थात् सभी सुखी हों, सभी नीरोग रहें, सभी कल्याण को देखें, किसी को भी दुःख की प्राप्ति न हो।

(2) सर्वस्तरतु दुर्गाणि, सर्वो भद्राणि पश्यतु।
सर्वः कामानवाप्नोतु, सर्वः सर्वत्र नन्दतु ॥
अर्थात् सभी दुर्ग को पार कर जाएँ, सभी कल्याण देखें, सभी की कामनाएँ पूरी हों, सभी सब जगह प्रसन्न रहें।

(3) न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ॥
अर्थात् न तो मुझे राज्य की इच्छा है, न स्वर्ग की और न ही पुनः जन्म लेने की। मैं तो केवल यही कामना करता हूँ कि दुःख से सन्तप्त प्राणियों के दुखों का विनाश हो जाए।
अध्येतव्यः ग्रन्थःवेतालपञ्चविंशतिकथा, अनुवादक, दामोदर झा, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, 1968

HBSE 9th Class Sanskrit कल्पतरूः Important Questions and Answers

कल्पतरूः  गद्यांशों के सप्रसंग हिन्दी सरलार्थ एवं भावार्थ

1. अस्ति हिमवान् नाम सर्वरत्नभूमिः नगेन्द्रः। तस्य सानोः उपरि विभाति कञ्चनपुरं नाम नगरम् । तत्र जीमूतकेतुः इति श्रीमान् विद्याधरपतिः वसति स्म। तस्य गृहोद्याने कुलक्रमागतः कल्पतरुः स्थितः। स राजा जीमूतकेतुः तं कल्पतरुम् आराध्य तत्प्रसादात् च बोधिसत्वांशसम्भवं जीमूतवाहनं नाम पुत्रं प्राप्नोत्। सः जीमूतवाहनः महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च अभवत्। तस्य गुणैः प्रसन्नः स्वसचिवैश्च प्रेरितः राजा कालेन सम्प्राप्तयौवनं तं यौवराज्ये अभिषिक्तवान् । कदाचित् हितैषिणः पितृमन्त्रिणः यौवराज्ये स्थितं तं जीमूतवाहनं उक्तवन्तः–“युवराज! योऽयं सर्वकामदः कल्पतरुः तवोद्याने तिष्ठति स तव सदा पूज्यः। अस्मिन् अनुकूले स्थिते सति शक्रोऽपि अस्मान् बाधितुं न शक्नुयात्” इति।

शब्दार्थ-हिमवान = हिमालय। नगेन्द्रः = पर्वतों का राजा। सानोः उपरि = चोटी के ऊपर। विभाति = सशोभित है। कुलक्रमागतः = कुल परंपरा से प्राप्त हुआ। आराध्य = आराधना करके। दानवीरः = दानी। सर्वभूतानुकम्पी = सब प्राणियों पर दया करने वाला। सचिवैः = मन्त्रियों द्वारा। प्रेरितः = प्रेरणा से। अभिषिक्तवान् = अभिषेक कर दिया। यौवराज्ये = युवराज के पद पर। हितैषिणः = हित चाहने वालों के द्वारा। सर्वकामदः = सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाला। शक्रः = इन्द्र। न शक्नुयात् = समर्थ नहीं होगा। बाधितुं = कष्ट पहुँचाने में।

प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘कल्पतरुः’ में से उद्धृत है। यह पाठ संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कथा ग्रन्थ ‘वेतालपञ्चविंशतिः’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस गद्यांश में जीमूतवाहन के घर के उद्यान में स्थित कल्पवृक्ष के महत्व के विषय में बताया गया है।

सरलार्थ-सभी रत्नों की भूमि पर्वतों का राजा हिमालय है। उसकी चोटी पर कञ्चनपुर नामक नगर सुशोभित है। वहाँ श्रीमान् विद्याधरपति जीमूतकेतु रहता था। उसके घर के उद्यान में वंश परम्परा से प्राप्त कल्पवृक्ष लगा हुआ था। राजा जीमूतकेतु ने उस कल्पवृक्ष की पूजा करके तथा उसकी कृपा से बोधिसत्व के अंश से उत्पन्न जीमूतवाहन नामक पुत्र को प्राप्त किया। वह महानु,

दानवीर तथा सब प्राणियों पर दया करने वाला था। उसके गुणों से प्रसन्न तथा मन्त्रियों से प्रेरित राजा ने उचित समय पर यौवन सम्पन्न अपने पुत्र जीमूतवाहन का युवराज के पद पर अभिषेक कर दिया। युवराज के पद पर स्थित उस जीमूतवाहन से उसके हितैषी पिता एवं मन्त्रियों ने कहा-“हे युवराज! जो यह सारी इच्छाओं को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष तुम्हारे उद्यान में स्थित है, वह तुम्हारे लिए सदा पूज्य है। इसके अनुकूल रहने पर इन्द्र भी हमें कोई बाधा नहीं पहुँचा सकता।”

भावार्थ-पौराणिक मान्यता के अनुसार कल्पवृक्ष एक ऐसा वृक्ष है, जो याचकों (माँगने वालों) की इच्छा की पूर्ति करता है। जीमूतवाहन के उद्यान में भी वही कल्पवृक्ष स्थित था। वह देवतुल्य था। इसलिए जीमूतवाहन के पिता ने कहा कि यह वृक्ष तुम्हारे लिए सदा पूजनीय है। इस वृक्ष की कृपा से इन्द्र भी तुम्हें पराजित नहीं कर सकते।

2 एतत् आकर्ण्य जीमूतवाहनः अचिन्तयत्-“अहो ईदृशम् अमरपादपं प्राप्यापि पूर्वैः पुरुषैः अस्माकं तादृशं फलं किमपि न प्राप्तम्। किन्तु केवलं कैश्चिदेव कृपणैः कश्चिदपि अर्थः अर्थितः। तदहम् अस्मात् कल्पतरोः अभीष्टं साधयामि” इति। एवम् आलोच्य सः पितुः अन्तिकम् आगच्छत्। आगत्य च सुखमासीनं पितरम् एकान्ते न्यवेदयत्-“तात! त्वं तु जानासि एव यदस्मिन् संसारसागरे आशरीरम् इदं सर्वं धनं वीचिवत् चञ्चलम्। एकः परोपकार एव अस्मिन् संसारे अनश्वरः यो युगान्तपर्यन्तं यशः प्रसूते। तद् अस्माभिः ईदृशः कल्पतरुः किमर्थं रक्ष्यते? यैश्च पूर्वैरयं ‘मम मम’ इति आग्रहेण रक्षितः, ते इदानी कुत्र गताः?” तेषां कस्यायम? अस्य वा के ते? तस्मात् परोपकारैकफलसिद्धये त्वदाज्ञया इमं कल्पपादपम् आराधयामि।

शब्दार्थ-आकर्ण्य + एतत् = यह सुनकर। प्राप्यापि (प्राप्य + अपि) = प्राप्त करके भी। अमरपादपं = अमर वृक्ष को। पूर्वैः पुरुषैः = पूर्वजों के द्वारा । नासादितम् = नहीं प्राप्त किया। कृपणैः = कंजूस लोगों के द्वारा । साधयामि = मैं सिद्ध करता हूँ। अर्थितः = मांगा गया। अन्तिकम् = समीप। वीचिवत् = लहरों की भाँति । चञ्चलम् = नश्वर, क्षणिक। परोपकार = दूसरों का उपकार । यशः = यश। आराधयामि = मैं पूजा करता हूँ।

प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘कल्पतरुः’ से उद्धृत है। यह पाठ संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कथा ग्रन्थ ‘वेतालपञ्चविंशतिः’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस गद्यांश में बताया गया है कि अपने पूर्वजों से प्राप्त कल्पतरु के द्वारा जीमूतवाहन ने परोपकार करने की इच्छा व्यक्त की।

सरलार्थ यह सुनकर जीमूतवाहन ने मन में विचार किया-“अरे! आश्चर्य है। ऐसे अमर वृक्ष को प्राप्त करके भी हमारे पूर्वजों ने ऐसा कोई भी फल प्राप्त नहीं किया और सिर्फ कुछ कंजूस लोगों के द्वारा थोड़ा धन ही माँगा गया। अतः मैं इस वृक्ष से अभीष्ट मनोरथ सिद्ध करता हूँ।” ऐसा सोचकर वह पिता के पास आया। आकर सुखपूर्वक बैठे हुए पिता से एकान्त में निवेदन किया-“पिता जी! आप तो जानते हैं कि इस संसार रूपी सागर में शरीर सहित सारा धन लहरों की भाँति चंचल (नश्वर) होता है। इस संसार में एक परोपकार ही अनश्वर है, जो युग के अन्त तक यश फैलाता है। यदि ऐसा है तो हम ऐसे कल्पवृक्ष की रक्षा क्यों कर रहे हैं?” जिन पूर्वजों ने ‘मेरा मेरा’ कहकर इस वृक्ष की रक्षा की, वे अब कहाँ गए? उनमें से यह किसका है? या इसके वे कौन हैं? तो आपकी आज्ञा से ‘परोपकार’ की फल सिद्धि के लिए मैं इस कल्पवृक्ष की आराधना करता हूँ।

भावार्थ-यह संसार समुद्र के समान है। इसमें धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य आदि लहरों की तरह क्षणभंगुर हैं। इस संसार में केवल परोपकार ही एक ऐसी वस्तु है जो कभी समाप्त नहीं होती। प्रत्येक युग में परोपकारी मनुष्य का यश फैलता रहता है।

3. अथ पित्रा ‘तथा’ इति अभ्यनुज्ञातः स जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य उवाच-“देव! त्वया अस्मत्पूर्वेषाम् अभीष्टाः कामाः पूरिताः, तन्ममैकं कामं पूरय। यथा पृथ्वीम् अदरिदाम् पश्यामि, तथा करोतु देव” इति। एवंवादिनि जीमूतवाहने “त्यक्तस्त्वया एषोऽहं यातोऽस्मि” इति वाक् तस्मात् तरोः उदभूत्। क्षणेन च स कल्पतरुः दिवं समुत्पत्य भुवि तथा वसूनि अवर्षत् यथा न कोऽपि दुर्गत आसीत्। ततस्तस्य जीमूतवाहनस्य सर्वजीवानुकम्पया सर्वत्र यशः प्रथितम्।

शब्दार्थ-अभ्यनुज्ञातः (अभि + अनुज्ञातः) = अनुमति प्राप्त कर। कामाः = कामनाएँ, इच्छाएँ। पूरिताः = पूरी की गईं। अदरिद्राम् = दरिद्रता से रहित, सम्पन्न। वाक् = वाणी, शब्द। दिवम् = स्वर्ग में। समुत्पत्य = उड़कर। भुवि = पृथ्वी पर। वसूनि = धन। अवर्षत् = बरसाया। दुर्गत = पीड़ित। सर्वजीवानुकम्पया = सब जीवों पर दया करने से। प्रथितम् = प्रसिद्ध हो गया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘कल्पतरुः’ से उद्धृत है। यह पाठ संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कथा ग्रन्थ ‘वेतालपञ्चविंशतिः’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस गद्यांश में बताया गया है कि जीमूतवाहन की प्रार्थना से कल्पवृक्ष ने स्वर्ग की ओर उड़ते हुए पृथ्वी पर अत्यधिक धन की वर्षा की।

सरलार्थ-पिता के द्वारा ‘अच्छा ठीक है’ इस प्रकार अनुमति पाकर कल्पवृक्ष के पास पहुँचकर जीमूतवाहन ने कहा-“हे देव! तुमने हमारे पूर्वजों की अभीष्ट इच्छाएँ पूरी की हैं तो मेरी एक इच्छा भी पूरी कर दो। आप इस पृथ्वी को निर्धनों से रहित कर दो देव।” जीमूतवाहन के ऐसा कहते ही उस वृक्ष से वाणी निकली, “तुम्हारे द्वारा इस तरह त्यागा हुआ मैं जा रहा हूँ।” उस कल्पवृक्ष ने क्षणभर में ही स्वर्ग की ओर उड़ कर पृथ्वी पर इतने धन की वर्षा की कि कोई भी निर्धन नहीं रहा। इस प्रकार सब प्राणियों पर दया करने से उस जीमूतवाहन का यश सब जगह फैल गया।

भावार्थ-दयालु एवं परोपकारी व्यक्ति सदा-सदा के लिए अमर हो जाता है। जीमूतवाहन ने परोपकार एवं निर्धनों पर दया करके अपने पूर्वजों की धरोहर कल्पवृक्ष का त्याग किया जिससे उसका यश सर्वत्र फैल गया।

अभ्यासः
1. एकपदेन उत्तरं लिखत
(एक पद में उत्तर लिखिए)
(क) जीमूतवाहनः कस्य पुत्रः अस्ति?
(ख) संसारेऽस्मिन् कः अनश्वरः भवति?
(ग) जीमूतवाहनः परोपकारैकफलसिद्धये कम् आराधयति?
(घ) जीमूतवाहनस्य सर्वभूतानुकम्पया सर्वत्र किं प्रथितम्?
(ङ) कल्पतरुः भुवि कानि अवर्षत् ?
उत्तराणि:
(क) जीमूतकेतोः,
(ख) परोपकारः,
(ग) कल्पपादपम्,
(घ) यशः,
(ङ) वसूनि

2. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत
(निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए)
(क) कञ्चनपुरं नाम नगरं कुत्र विभाति स्म?
(ख) जीमूतवाहनः कीदृशः आसीत्?
(ग) कल्पतरोः वैशिष्ट्यमाकर्ण्य जीमूतवाहनः किम् अचिन्तयत्?
(घ) हितैषिणः मन्त्रिणः जीमूतवाहनं किम् उक्तवन्तः?
(ङ) जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य किम् उवाच?
उत्तराणि:
(क) कञ्चनपुरं नाम नगरं हिमालय पर्वतस्य सानोः उपरि विभाति स्म।
(ख) जीमूतवाहनः महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च आसीत्।
(ग) कल्पतरोंः वैशिष्ट्यमाकर्ण्य जीमूतवाहनः अचिन्तयत्-‘परोपकारैकफलसिद्धये इमं कल्पपादपम् आराधयामि।’
(घ) हितैषिणः मन्त्रिणः जीमूतवाहनं उक्तवन्तः यत्-‘युवराज! योऽयं सर्वकामदः कल्पतरुः तवोद्याने तिष्ठति स तव
सदा पूज्यः। अस्मिन् अनुकूले स्थिते सति शक्रोऽपि अस्मान् बाधितुं न शक्नुयात्।’
(ङ) जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य उवाच-‘यत्-“देव! त्वया अस्मत्पूर्वेषाम् अभीष्टाः कामाः पूरिताः तन्ममैकं कामं ..
पूरय। यथा पृथिवीम् अदरिद्राम् पश्यामि, तथा करोतु देव”।

3. अधोलिखितवाक्येषु स्थूलपदानि कस्मै प्रयुक्तानि?
(निम्नलिखित वाक्यों में स्थूल पद किसके लिए प्रयुक्त किए गए हैं)
(क) तस्य सानोरुपरि विभाति कञ्चनपुरं नाम नगरम्।
(ख) राजा सम्प्राप्तयौवनं तं यौवराज्ये अभिषिक्तवान्।
(ग) अयं तव सदा पूज्यः।।
(घ) तात! त्वं तु जानासि यत् धनं वीचिवच्चञ्चलम् ।
उत्तराणि:
(क) हिमवते,
(ख) जीमूतवाहनाय,
(ग) कल्पवृक्षाय,
(घ) जीमूतकेतवे।

4. अधोलिखितानां पदानां पर्यायपदं पाठात चित्वा लिखत
(निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द पाठ से चुनकर लिखिए)
(क) पर्वतः = …………………………….
(ख) भूपतिः = = …………………………….
(घ) धनम् = …………………………….
(ङ) इच्छितम् = …………………………….
(च) समीपम् = …………………………….
(छ). धरित्रीम् = …………………………….
(ज) कल्याणम् = …………………………….
(झ) वाणी = …………………………….
(ञ) वृक्षः = …………………………….
उत्तराणि:
(क) पर्वतः . = नगेन्द्रः
(ख) भूपतिः = राजा
(ग) इन्द्रः = शक्रः
(घ) धनम् = अर्थ
(ङ). इच्छितम् = अर्थित
(च) समीपम् = अन्तिकम्
(छ) धरित्रीम् = पृथ्वीम्
(ज): कल्याणम् = हितम्
(झ) वाणी = वाक्
(ञ) वृक्षः = तरुः

5. ‘क’ स्तम्भे विशेषणानि ‘ख’ स्तम्भे च विशेष्याणि दत्तानि। तानि समुचितं योजयत
(स्तम्भ ‘क’ में विशेषण व ‘ख’ स्तम्भ में विशेष्य पद दिए गए हैं, उन्हें उचित ढंग से जोड़िए)
‘क’ स्तम्भ – ‘ख’ स्तम्भ
कुलक्रमागतः = परोपकारः
दानवीरः = मन्त्रिभिः
हितैषिभिः = जीमूतवाहनः
वीचिवच्चञ्चलम् = कल्पतरुः
अनश्वरः = धनम्
उत्तराणि:
‘क’ स्तम्भ – ‘ख’ स्तम्भ
कुलक्रमागतः – कल्पतरुः
दानवीरः – जीमूतवाहनः
हितैषिभिः – मन्त्रिभिः
वीचिवच्चञ्चलम् – धनम्
अनश्वरः – परोपकारः

6. स्थूल पदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(स्थूलपदों के आधार पर प्रश्ननिर्माण कीजिए)
(क). तरोः कृपया सः पुत्रम् अप्राप्नोत् ।
(ख) सः कल्पतरवे न्यवेदयत्।
(ग) धनवृष्ट्या कोऽपि दरिद्रः नातिष्ठत्।
(घ) कल्पतरुः पृथिव्यां धनानि अवर्षत्।
(ङ) जीवानुकम्पया जीमूतवाहनस्य यशः प्रासरत् ।
उत्तराणि:
(क) कस्य कृपया सः पुत्रम् अप्राप्नोत्?
(ख) सः कस्मै न्यवेदयत्?
(ग) कया कोऽपि दरिद्रः नातिष्ठत्?
(घ) कल्पतरुः कुत्र धनानि अवर्षत् ?
(ङ) कया जीमूतवाहनस्य यशः प्रासरत् ?

7. “स्वस्ति तुभ्यम्” स्वस्ति शब्दस्य योगे चतुर्थी विभक्तिः भवति। इत्यनेन नियमेन अत्र चतुर्थी विभक्तिः प्रयुक्ता। एवमेव (कोष्ठकगतेषु पदेषु) चतुर्थी विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(“स्वस्ति तुभ्यम्” स्वस्ति शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। यहाँ इस नियम में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। इसी प्रकार (कोष्ठक में दिए शब्दों में) चतुर्थी विभक्ति प्रयोग करके रिक्त स्थान पूर्ण कीजिए)
(i) स्वस्ति …………….. (राजा)
(ii) स्वस्ति ……………… (प्रजा)
(iii) स्वस्ति …………….. (छात्र)
(iv) स्वस्ति …………….. (सर्वजन)
उत्तराणि:
(i) स्वस्ति राजे
(ii) स्वस्ति प्रजायै
(iii) स्वस्ति छात्राय
(iv) स्वस्ति सर्वजनाय

(ख) , कोष्ठकगतेषु पदेषु षष्ठी विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(कोष्ठक में दिए शब्दों में छठी विभक्ति का प्रयोग करके रिक्त स्थान पूरे कीजिए)
(i) तस्य …………….. उद्याने कल्पतरुः आसीत्। (गृह)
(ii) सः …………….. अन्तिकम् अगच्छत् । (पित)
(iii) ……………. सर्वत्र यशः प्रथितम् । (जीमूतवाहन)
(iv). अयं …………….. तरुः? (किम्)
उत्तराणि:
(i) तस्य गृहस्य उद्याने कल्पतरुः आसीत्।
(ii) सः पितुः अन्तिकम् अगच्छत्।
(iii) जीमूतवाहनस्य सर्वत्र यशः प्रथितम्।
(iv) अयं कस्य तरुः?

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