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Haryana Board 9th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 5 सूक्तिमौक्तिकम्

Haryana Board 9th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 5 सूक्तिमौक्तिकम्

HBSE 9th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 5 सूक्तिमौक्तिकम्

HBSE 9th Class Sanskrit सूक्तिमौक्तिकम् Textbook Questions and Answers

सूक्तिमौक्तिकम् (सुन्दर वचन रूपी मोती) पाठ-परिचय 

प्रस्तुत पाठ का संकलन संस्कृत साहित्य के विभिन्न नीतिग्रन्थों से किया गया है। संस्कृत साहित्य में नीतिग्रन्थों की समृद्ध परम्परा रही है। इनमें सारगर्भिता और सरल रूप में नैतिक शिक्षाएँ दी गई हैं, जिनका उपयोग करके मनुष्य अपने जीवन को समृद्ध बना सकता है। ऐसे ही मनोहारी और बहुमूल्य सुभाषित यहाँ संकलित हैं।

इस पाठ में कुल आठ सूक्तियों का संकलन किया गया है। पहली सूक्ति ‘मनुस्मृति’ से संकलित है। इस सूक्ति में चरित्र के संरक्षण पर बल दिया गया है। दूसरी सूक्ति ‘विदुरनीति’ से संकलित है, जिसमें अपने से प्रतिकूल आचरण न करने के विषय में बताया गया है। मधुर वचन बोलने की शिक्षा देने वाली तीसरी सूक्ति ‘चाणक्यनीति’ से संकलित है। परोपकार के महत्त्व की शिक्षा देने वाली चौथी सूक्ति ‘सुभाषितरत्नभाण्डागारम्’ से ली गई है।

पाँचवीं सूक्ति में गुण के महत्त्व के विषय में बताया गया है जिसका संकलन ‘मृच्छकटिकम्’ से किया गया है। सज्जनों एवं दुर्जनों की मित्रता में अन्तर बताने वाली छठी सूक्ति ‘नीतिशतकम्’ से ली गई है। सातवीं सूक्ति ‘भामिनीविलास’ से संकलित है। इस सूक्ति में सज्जनों की तुलना हंस से की गई है। अन्तिम सूक्ति ‘हितोपदेश’ से संकलित है। इस सूक्ति में गुणवान् लोगों के पास रहने पर बल दिया गया है।

HBSE 9th Class Sanskrit सूक्तिमौक्तिकम् Textbook Questions and Answers

I. अधोलिखितानां सूक्तिानां भावं हिन्दी भाषायां लिखत
(निम्नलिखित सूक्तियों के भाव हिन्दी भाषा में लिखिए)
(क) प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
(ख) परोपकाराय सतां विभूतयः।
(ग) छायेव मैत्री खल सज्जनानाम् ।
(घ) आस्वायतोयाः प्रवहन्ति नद्यः।
उत्तराणि
(क) भावार्थ प्रस्तुत सूक्ति ‘चाणक्यनीति’ से संकलित श्लोक ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ में से उद्धृत है। मधुर वचन बोलने से सभी प्रसन्न होते हैं। अतः हर मनुष्य को मृदुभाषी होना चाहिए। उसकी वाणी में इतनी मिठास हो कि उसे सुनते ही उसके शत्रु का हृदय भी पिघल जाए। मधुर बोली में एक ऐसा जादू होता है जो हर एक को अपना बना लेता है। अतः मनुष्य को सदैव मधुर वचन ही बोलने चाहिएँ।

(ख) भावार्थ प्रस्तुत सूक्ति ‘सुभाषितरत्नभाण्डागारम्’ नामक ग्रन्थ से संकलित श्लोक ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ में से उद्धृत है। सज्जनों की सम्पत्तियाँ परोपकार के लिए होती हैं। सज्जन पुरुष अपनी सम्पत्ति स्वयं पर न खर्च करके जरूरतमंद लोगों की सहायता के लिए खर्च करते हैं। जिस प्रकार नदियाँ अपने जल को स्वयं नहीं पीतीं, वृक्ष अपने फलों को स्वयं नहीं खाते तथा बादल अपनी वर्षा के जल से उत्पन्न किए गए फसलों के अनाज स्वयं नहीं खाते अपितु इन सबका उपयोग जरूरतमंद समाज के लोग ही करते हैं, उसी प्रकार सज्जन पुरुष अपनी सम्पत्ति से जरूरतमंदों की सहायता करते हैं।

(ग) भावार्थ-प्रस्तुत सूक्ति ‘नीतिशतकम्’ से संकलित श्लोक ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ में से उद्धृत है। दुष्ट एवं सज्जनों की मित्रता छाया के समान होती है। दुष्ट व्यक्ति भी मित्रता करता है और सज्जन व्यक्ति भी मित्रता करता है। परन्तु दोनों की मैत्री, दिन के पूर्वार्द्ध एवं परार्द्ध कालीन छाया की भाँति होती है। जिस प्रकार छाया दिन की शुरुआत में बड़ी होती है तथा फिर आहिस्ता-आहिस्ता छोटी होती जाती है, उसी प्रकार दुष्टों की मित्रता पहले गहरी होती है और धीरे-धीरे कम हो जाती है। इसके विपरीत जिस प्रकार दोपहर में छाया छोटी होती है, धीरे-धीरे बढ़ती है, इसी प्रकार सज्जनों की मित्रता पहले कम तथा धीरे-धीरे दूसरे के गुण-स्वभाव आदि समझकर बढ़ती है।

(घ) भावार्थ-प्रस्तुत सूक्ति ‘हितोपदेश’ नामक ग्रन्थ से संकलित श्लोक ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ में से उद्धृत है। खारे समुद्र में मिलने पर स्वादिष्ट जल वाली नदियों का जल अपेय हो जाता है। जैसी संगति होती है वैसे ही व्यक्तित्व का निर्माण होता है। यदि मनुष्य गुणवानों के बीच में रहता है तो उनके गुणों के प्रभाव से गुणवान बन जाता है। परन्तु यदि गुणहीनों के बीच गुणयुक्त व्यक्ति भी चला जाए तो उसके गुण दुर्गुण में बदल जाते हैं। इसी बात को समझाने के लिए कहा गया है कि नदियों का जल पीने योग्य होता है परन्तु खारे जल वाले समुद्र में नदियाँ मिल जाती हैं तो उनका स्वादिष्ट जल भी खारा हो जाता है।

II. अधोलिखितान् श्लोकान् पठित्वा एतदाधारितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतपूर्णवाक्येन लिखत
(निम्नलिखित श्लोकों को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर संस्कृत के पूर्ण वाक्यों में लिखिए)
(1) वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः॥ -मनुस्मृतिः
(क) यत्नेन किं रक्षेत्?
(ख) किम् एति याति च?
(ग) कस्मात् क्षीणः अक्षीणः?
उत्तराणि:
(क) यत्नेन वृत्तं रक्षेत्।
(ख) वित्तम् एति याति च।
(ग) वित्ततः क्षीणः अक्षीणः।

(2) प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्माद् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥
(क) प्रियवाक्येन के तुष्यन्ति?
(ख) सर्वे जन्तवः केन तुष्यन्ति?
(ग) तस्मात् किम् एव वक्तव्यम्?
उत्तराणि:
(क) प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे जन्तवः तुष्यन्ति।
(ख) प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे जन्तवः तुष्यन्ति।
(ग) तस्माद् प्रियवाक्यम् एव वक्तव्यम्।

(3) गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा।
गुणयुक्तो दरिद्रोऽपि नेश्वरैरगुणैः समः॥
(क) सदा गुणेषु कैः प्रयत्नः कर्तव्यः?
(ख) सदा पुरुषैः केषु प्रयत्नः कर्तव्यः?
(ग) ईश्वरैः अगुणैः समः कः न अस्ति?
उत्तराणि:
(क) सदा गुणेषु पुरुषैः प्रयत्नः कर्तव्यः।
(ख) सदा पुरुषैः गुणेषु प्रयत्नः कर्तव्यः ।
(ग) दरिद्रः अपि गुणयुक्तः ईश्वरैः अगुणैः समः न अस्ति।

III. स्थूलपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत.
(स्थूल पदों के आधार पर प्रश्न निर्माण कीजिए)
(क) यत्नेन वृत्तं रक्षेत्।
(ख), पुरुषैः गुणेषु प्रयत्नः कर्तव्यः।
(ग) मरालैः वियोगेण सरोवराणां हानिः भवति।
(घ) नद्यः आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति।
(ङ) सतां विभूतयः परोपकाराय भवन्ति।
उत्तराणि:
(क) यत्नेन किं रक्षेत?
(ख) पुरुषैः केषु प्रयत्नः कर्तव्यः?
(ग) कैः वियोगेण सरोवराणां हानिः भवति?
(घ) काः आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति?
(ङ) केषां विभूतयः परोपकाराय भवन्ति?

IV. अधोलिखित प्रश्नानाम् चतुषु वैकल्पिक उत्तरेषु उचितमुत्तरं चित्वा लिखत
(निम्नलिखित प्रश्नों के दिए गए चार विकल्पों में से उचित उत्तर का चयन कीजिए)
1. यत्नेन किं रक्षेत?
(i) वित्तं
(ii) वृन्तं
(iii) वृत्तं
(iv) विन्तं
उत्तरम्:
(iii) वृत्तं

2. पुरुषैः केषु प्रयत्नः कर्तव्यः?
(i) धनेषु
(ii) वित्तेषु
(iii) वृत्तेषु
(iv) गुणेषु
उत्तरम्:
(iv) गुणेषु

3. गुणज्ञेषु के गुणाः भवन्ति?
(i) गुणाः
(ii) धनाः
(iii) जनाः
(iv) नराः
उत्तरम्:
(i) गुणाः

4. कैः सह सरोवराणां हानिः भवति?
(i) विद्वानैः
(ii) शृगालैः
(iii) मरालैः
(iv) श्वानैः
उत्तरम्
(iii) मरालैः

5. जन्तवः केन तुष्यन्ति?
(i) प्रियवाक्येन
(ii) प्रियफलेन
(iii) प्रियधनेन
(iv) प्रियमित्रेण
उत्तरम्
(i) प्रियवाक्येन

6. ‘कुत्रापि’ इति पदे कः सन्धिविच्छेदः?
(i) कु + त्रापि
(ii) कुत्र + आपि
(iii) कुत्रा + पि
(iv) कुत्र + अपि
उत्तरम्
(iv) कुत्र + अपि

7. ‘छाया + इव’ इति पदे सन्धियुक्त पदम्
(i) छायाय
(ii) छायाऽइव
(iii)छायेव
(iv) छायैव
उत्तरम्:
(iii) छायेव

8. ‘खलसज्जनानाम्’ इति पदे कः समासः?
(i) तत्पुरुषः
(ii) द्वन्द्वः
(iii) द्विगुः
(iv) बहुव्रीहिः
उत्तरम्:
(ii) द्वन्द्वः

9. ‘सह’ पदस्य योगे का विभक्तिः ?
(i) चतुर्थी
(ii) तृतीया
(iii) पञ्चमी
(iv) द्वितीया
उत्तरम्:
(ii) तृतीया

10. ‘वृत्तं पदस्य पर्यायवाची पदं लिखत
(i) वित्तं
(ii) चरित्रं
(iii) धनमं
(iv) दुर्गुणं
उत्तरम्:
(ii) चरित्रं

योग्यताविस्तारः

संस्कृत साहित्य में नीति-ग्रन्थों द्वारा नैतिक शिक्षाएँ दी गई हैं, जिनका उपयोग करके मनुष्य अपने जीवन को सफल और समृद्ध बना सकता है। ऐसे ही बहुमूल्य सुभाषित यहाँ संकलित हैं, जिनमें सदाचरण की महत्ता, प्रियवाणी की आवश्यकता, परोपकारी पुरुष का स्वभाव, गुणार्जन की प्रेरणा, मित्रता का स्वरूप और उत्तम पुरुष के सम्पर्क से होने वाली शोभा की प्रशंसा और सत्संगति की महिमा आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है। संस्कृत-साहित्य में सारगर्भित, लौकिक पारलौकिक एवं नैतिकमूल्यों वाले सुभाषितों की बहुलता है जो देखने में छोटे प्रतीत होते हैं, किन्तु गम्भीर भाव वाले होते हैं। मानव-जीवन में इनका अतीव महत्त्व है।

भावविस्तारः
(क) आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः समुद्रमासाथ भवन्त्यपेयाः।
खारे समुद्र में मिलने पर स्वादिष्ट जलवाली नदियों का जल अपेय हो जाता है। इसी भावसाम्य के आधार पर कहा गया है कि “संसर्गजाः दोषगुणाः भवन्ति।”

(ख) छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ।
दुष्ट व्यक्ति मित्रता करता है और सज्जन व्यक्ति भी मित्रता करता है। परन्तु दोनों की मैत्री, दिन के पूर्वार्द्ध एवं परार्द्ध कालीन छाया की भाँति होती है। वास्तव में दुष्ट व्यक्ति की मैत्री के लिए श्लोक का प्रथम चरण “आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण” कहा गया है तथा सज्जन की मैत्री के लिए द्वितीय चरण ‘लम्वीपुरा वृद्धिमती च पश्चात्’ कहा गया है।

भाषिकविस्तारः
(1) वित्ततः वित्त शब्द से तसिल् प्रत्यय किया गया है। पंचमी विभक्ति के अर्थ में लगने वाले तसिल् प्रत्यय का तः ही शेष रहता है। उदाहरणार्थ-सागर + तसिल् = सागरतः, प्रयाग + तसिल = प्रयागतः, देहली + तसिल = देहलीतः आदि। इसी प्रकार वृत्ततः शब्द में भी तसिल् प्रत्यय लगा करके वृत्ततः शब्द बनाया गया है। .

(2) उपसर्ग-क्रिया के पूर्व जुड़ने वाले प्र, परा आदि शब्दों को उपसर्ग कहा जाता है। जैसे-‘ह’ धातु से उपसर्गों का योग होने पर निम्नलिखित रूप बनते हैं
प्र + ह – प्रहरति, प्रहार (हमला करना)
वि + ह – विहरति, विहार (भ्रमण करना)
उप + हृ – उपहरति, उपहार (भेंट देना)
सम् + हृ – संहरति, संहार (मारना)

(3) शब्दों को स्त्रीलिङ्ग में परिवर्तित करने के लिए स्त्री प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। इन प्रत्ययों में टापू व ङीप् । मुख्य हैं।
जैसे- बाल + टाप् – बाला
अध्यापक + टाप् – अध्यापिका
लघु + ङीप् – लघ्वी
गुरु + ङीप् – गुर्वी

HBSE 9th Class Sanskrit सूक्तिमौक्तिकम् Important Questions and Answers

(क) परोपकारविषयकं श्लोकद्वयम् अन्विष्य स्मृत्वा च कक्षायां सस्वरं पठ।
1. परोपकाराय वहन्ति नद्यः।
परोपकाराय दुहन्ति गावः।
परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः।
परोपकारार्थमिदं शरीरम् ॥

2.श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन,
दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन।
विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारेण न चन्दनेन।

उत्तरम् छात्र इन श्लोकों को याद करें तथा अध्यापक के सहयोग से उनका कक्षा में सस्वर पाठ करें।

(ख) नद्याः एकं सुन्दरं चित्रं निर्माय संकलय्य वा वर्णयत यत् तस्याः तीरे मनुष्याः पशवः खगाश्च निर्विघ्नं जलं पिबन्ति।

उत्तरम् छात्र अध्यापक की सहायता से नदी का चित्र बनाएँ तथा वर्णन करें कि उसके तट पर मनुष्य, पशु, पक्षी सभी बिना कष्ट के पानी पी रहे हैं।

सूक्तिमौक्तिकम्  श्लोकों के सप्रसंग हिन्दी सरलार्थ एवं भावार्थ

1. वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः॥ -मनुस्मृतिः

अन्वय-वृत्तं यत्नेन संरक्षेत वित्तम् एति च याति च, वित्ततः क्षीणः अक्षीणः वित्तः हतः तु हतः।

शब्दार्थ-वृत्तं = चरित्र। यत्नेन = प्रयत्नपूर्वक। संरक्षेद् = रक्षा करनी चाहिए। वित्तमेति (वित्तम् + एति) = पैसा आता है। याति = जाता है। क्षीणः = नष्ट हुआ। अक्षीणः = नष्ट न हुआ।

प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ से उद्धृत है। इस श्लोक का संकलन ‘मनुस्मृति’ से किया गया है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस सूक्ति में चरित्र की रक्षा के विषय में बताया गया है।

सरलार्थ-चरित्र की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए क्योंकि धन तो आता-जाता रहता है। धन से हीन (नष्ट) व्यक्ति तो सम्पन्न (नष्ट न हुआ) हो सकता है, परन्तु चरित्र से हीन व्यक्ति तो पूरी तरह नष्ट हो जाता है।

भावार्थ-इस जीवन में मनुष्य के लिए सबसे मूल्यवान वस्तु उसका चरित्र है। क्योंकि अन्य वस्तुएँ तो जाने या विनष्ट होने के बाद पुनः प्राप्त हो सकती हैं। परन्तु चरित्र के नष्ट होने पर उसकी पुनः प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः मनुष्य को अपने चरित्र की रक्षा हर स्थिति में करनी चाहिए।

2. श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ -विदुरनीतिः

अन्वय-धर्मसर्वस्वं श्रूयतां श्रुत्वा च अवधार्यताम् एव। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।

शब्दार्थ धर्मसर्वस्वं = धर्म का सार। अवधार्यताम् = ग्रहण करो, पालन करो। आत्मनः = अपने से। प्रतिकूलानि = प्रतिकूल व्यवहार का। परेषां = दूसरों के प्रति। समाचरेत् = आचरण नहीं करना चाहिए।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तिमौक्तिकम’ से उद्धृत है। इस सूक्ति का संकलन महान् नीतिज्ञ विदुर द्वारा रचित ‘विदुरनीति’ से किया गया है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस श्लोक में अपने प्रतिकूल दूसरों के प्रति आचरण न करने के विषय में बताया गया है।

सरलार्थ-धर्म का सार सुनो और सुनकर उसे ग्रहण करो अर्थात् उसका पालन करो। अपने से प्रतिकूल व्यवहार का आचरण दूसरों के प्रति कभी नहीं करना चाहिए।

भावार्थ धर्म का सार यही है कि हमें कभी भी दूसरों के प्रति अपने से विपरीत आचरण नहीं करना चाहिए।

3. प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्माद् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥ -चाणक्यनीतिः

अन्वय सर्वे जन्तवः प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति तद् तस्माद् एव वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता।

शब्दार्थ-प्रियवाक्यप्रदानेन = प्रिय वाक्य बोलने से। तुष्यन्ति = सन्तुष्ट होते हैं। वक्तव्यम् = कहने चाहिए। वचने = बोलने में। दरिद्रता = कंजूसी, निर्धनता।

प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ सूक्तिमौक्तिकम्’ से उद्धृत है। यह श्लोक ‘चाणक्यनीति’ नामक ग्रन्थ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस श्लोक में बताया गया है कि हमें मधुर वाणी ही बोलनी चाहिए।

सरलार्थ-सभी प्राणी मधुर वाक्य बोलने से सन्तुष्ट होते हैं, अतः मधुर वचन ही बोलने चाहिएँ तथा बोलने में कैसी दरिद्रता या निर्धनता।

भावार्थ-प्रत्येक मानव को मृदुभाषी होना चाहिए। उसकी वाणी में इतनी मिठास हो कि उसे सुनते ही उसके शत्रु का हृदय भी पिघल जाए। मीठे बोल में एक ऐसा जादू होता है जो हर एक को अपना बना लेता है। मधुर वाणी बोलने में कुछ भी धन नहीं लगता। मीठी वाणी का मूल्य तो केवल बुद्धिमान व्यक्ति ही लगा सकता है।

4. पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः
परोपकाराय सतां विभूतयः ॥ -सुभाषितरत्नभाण्डागारम्

अन्वय-नद्यः स्वयमेव अम्भः न पिबन्ति, वृक्षाः स्वयं फलानि न खादन्ति। वारिवाहाः खलु सस्यं न अदन्ति, सतां विभूतयः परोपकाराय (भवन्ति)।

शब्दार्थ-नाम्भः (न + अम्भः) = पानी नहीं। खादन्ति = खाते हैं। अदन्ति = खाते हैं। सस्यम् = अन्न, फसल। वारिवाहाः = । बादल । सतां = सज्जनों की। विभूतयः = सम्पत्तियाँ।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ से उद्धृत है। यह श्लोक ‘सुभाषितरत्नभाण्डागारम’ से संकलित है।
सन्दर्भ-निर्देश इस श्लोक में परोपकारी पुरुष के स्वभाव के विषय में बताया गया है।

सरलार्थ-नदियाँ स्वयं जल नहीं पीती हैं, वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते हैं। बादल निश्चय ही फसल का भक्षण नहीं करते। इसी प्रकार सज्जनों की सम्पत्तियाँ भी दूसरों के उपकार के लिए होती हैं।

भावार्थ-नदियों में बहता हुआ जल नदी के काम न आकर देश और समाज के काम आता है। वृक्ष में लगे हुए फल स्वयं वृक्ष के उपयोग नहीं आता अपितु कोई अन्य ही उसका उपयोग करता है। इसी प्रकार बादल की वर्षा से जो अनाज पैदा होता है उसे बादल नहीं खाते। समाज के लोग ही उस अनाज को खाते हैं। इसी प्रकार सज्जनों की जो भी सम्पत्ति होती है, उसका उपयोग सज्जन स्वयं न करके समाज के लोगों की सहायता में लगा देते हैं। क्योंकि सज्जनों की सबसे बड़ी सम्पत्ति तो दूसरों का उपकार करना है।

5. गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा।
गुणयुक्तो दरिद्रोऽपि नेश्वरैरगुणैः समः॥ -मृच्छकटिकम्

अन्वय पुरुषैः सदा गुणेषु एव हि प्रयलः कर्त्तव्यः । गुणयुक्त दरिद्रः अपि अगुणैः ईश्वरैः समः न (अपितु तेभ्योऽधिक इति भावः)

शब्दार्थ-गुणेष्वेव (गुणेषु + एव) = गुणों में ही। अगुणैः = गुणहीनों से। ईश्वरैः = ऐश्वर्यशाली। समः = समान।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तिमौक्तिकम् से उद्धत है। यह श्लोक महाकवि शूद्रक विरचित ‘मृच्छकटिकम्’ नामक नाटक से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस श्लोक में गुणों को प्राप्त करने की प्रेरणा के विषय में बताया गया है।

सरलार्थ-मनुष्य को सदा गुणों को प्राप्त करने का ही प्रयास करना चाहिए। दरिद्र होता हुआ भी गुणवान व्यक्ति ऐश्वर्यशाली गुणहीन के समान नहीं हो सकता।

भावार्थ मनुष्यों को सदा गुणों के अर्जन में ही प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि गुणवान् निर्धन व्यक्ति भी गुणहीन धनिकों से बढ़कर है। अर्थात् निर्धन गुणवान् व्यक्ति धनवान् गुणहीन व्यक्ति से श्रेष्ठ है। क्योंकि गुणवान् व्यक्ति अपने गुणों से धन एकत्रित कर सकता है, जबकि गुणहीन व्यक्ति धन का नाश करता है।

6. आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ॥ -नीतिशतकम्

अन्वय-खल सज्जनानाम् मैत्री आरम्भगुर्वी, क्रमेण क्षयिणी पुरा लध्वी पश्चात् वृद्धिमती च दिनस्य पूर्वार्द्ध-परार्द्ध भिन्ना छाया इव (भवति)।

शब्दार्थ खल सज्जनानाम् = दुर्जनों और सज्जनों की। मैत्री = मित्रता। आरम्भगुर्वी = आरम्भ में बड़ी, क्रमेण । क्षयिणी = क्रम से क्षीण होने वाली। पुरा लघ्वी = पहले छोटी। पश्चात् वृद्धिमती च = और पीछे बढ़ने वाली। दिनस्य = दिन के। पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना = पूर्वार्द्ध और अपरार्द्ध में भिन्न रूप वाली। छाया इव = छाया की तरह होती है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ से उद्धृत है। यह ‘भर्तृहरि’ द्वारा रचित ‘नीतिशतकम्’ नामक ग्रन्थ से संकलित है। .

सन्दर्भ-निर्देश-प्रस्तुत श्लोक में दुर्जनों और सज्जनों की मित्रता में अन्तर के विषय में बताया गया है।

सरलार्थ-दुर्जनों की मित्रता प्रारम्भ में अधिक दिन के पूर्वार्द्ध के समान तथा क्रम से क्षीण होने वाली तथा सज्जनों की मित्रता पहले कम और बाद में बढ़ने वाली दिन के उत्तरार्द्ध की छाया की तरह होती है।

भावार्थ-दुर्जनों की मित्रता दिन के प्रथम आधे भाग में रहने वाली छाया की तरह प्रारम्भ में अधिक और फिर धीरे-धीरे कम होती जाती है एवं सज्जनों की मित्रता उत्तरार्ध की छाया की तरह पहले कम और बाद में बढ़ने वाली होती है।

7. यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु
हँसा महीमण्डलमण्डनाय।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां
येषां मरालैः सह विप्रयोगः ॥ -भामिनीविलासः

अन्वय महीमण्डलमण्डनाय हंसाः यत्रापि कुत्रापि गता भवेयुः हि हानिः तु तेषां सरोवराणाम् येषां मरालैः सह विप्रयोगः (भवति)।

शब्दार्थ-मण्डनाय = सुशोभित करने के लिए। हंसा = हंस। मराला = हंस । सरोवराणां = तालाबों का। विप्रयोगः = वियोग, अलग होना। हानि = हानि।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ से उद्धृत है। यह श्लोक पं० जगन्नाथ द्वारा रचित ‘भामिनीविलास’ नामक ग्रन्थ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस श्लोक में उत्तम पुरुष के सम्पर्क से होने वाली शोभा की प्रशंसा के विषय में बताया गया है।

सरलार्थ पृथ्वीमण्डल को सुशोभित करने के लिए हंस जहाँ-कहीं भी अर्थात् सभी जगह प्रवेश करने में समर्थ हैं, हानि तो उन सरोवरों की ही है जिनका उन हंसों से वियोग हो जाता है।

भावार्थ-इस श्लोक में कवि ने हंसों के माध्यम से उत्तम पुरुष की प्रशंसा की है। हंस जिस सरोवर में रहते हैं, उस सरोवर की शोभा अपने-आप बढ़ जाती है। उसी प्रकार उत्तम पुरुष जिस स्थान पर रहते हैं उस स्थान का महत्त्व अपने-आप ही बढ़ जाता है। परिस्थितिवश जब हंस तालाब को छोड़कर जाता है तो उसके जाने का दुःख तालाब को सहन करना पड़ता है। उसी प्रकार जब उत्तम पुरुष किसी अन्य स्थान पर जाने लगते हैं तो उनके जाने का दुःख उस स्थान के लोगों को सहना पड़ता है। हंस के समान उत्तम पुरुष पृथ्वी पर सभी जगह अपना स्थान बना लेते हैं।

8. गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ।
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।
आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः ॥ -हितोपदेशः

अन्वय-गुणज्ञेषु गुणाः गुणाः भवन्ति, निर्गुणं प्राप्य ते दोषाः भवन्ति। नद्यः आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति समुद्रम् आसाद्य अपेयाः भवन्ति।

शब्दार्थ-गुणज्ञेषु = गुणों को जानने वालों में । दोषाः = दुर्गुण । आस्वायतोयाः = स्वादयुक्त जल वाली। आसाद्य = प्राप्त करके। अपेयाः = न पीने योग्य।

प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ से लिया गया है। इस श्लोक का संकलन पं० नारायण द्वारा रचित ‘हितोपदेश’ से किया गया है।

सन्दर्भ-निर्देश इस श्लोक में गुणवान लोगों के सम्पर्क में रहने के लाभ के विषय में बताया गया है।

सरलार्थ गुणों को जानने वाले लोगों में रहने के कारण ही गुण, गुण होते हैं। गुणहीनों को प्राप्त करके वे (गुण) दोष बन जाते हैं। नदियाँ स्वादयुक्त जल वाली होती हैं, परन्तु समुद्र को प्राप्त करके न पीने योग्य हो जाती हैं।

भावार्थ-दोष और गुण संसर्ग से ही उत्पन्न होते हैं। गुणवानों के बीच में यदि कोई निर्गुण व्यक्ति भी रहता है तो वह उनके सम्पर्क से गुणवान बन जाता है। दूसरी ओर, निर्गुणों के सम्पर्क में आकर गुणवान् व्यक्ति भी निर्गुण बन जाता है। जैसे स्वादिष्ट जल वाली नदियों का पानी जब समुद्र में मिलता है तो उसके सम्पर्क में स्वादिष्ट जल भी खारा बन जाता है।

अभ्यासः

1. एकपदेन उत्तरं लिखत
(एक पद में उत्तर लिखिए)
(क) वित्ततः क्षीणः कीदृशः भवति?
(ख) कस्य प्रतिकूलानि कार्याणि परेषां न समाचरेत्?
(ग) कुत्र दरिद्रता न भवेत्?
(घ) वृक्षाः स्वयं कानि न खादन्ति?
(ङ) का पुरा लघ्वी भवति?
उत्तराणि:
(क) अक्षीणः,
(ख) आत्मनः,
(ग) वचने,
(घ) फलानि,
(ङ) दिनस्य छाया।

2. अधोलिखितप्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषयां लिखत
(निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए)
(क) यत्नेन किं रक्षेत् वित्तं वृत्तं वा?
(ख) अस्माभिः (किं न समाचरेत्) कीदृशम् आचरणं न कर्त्तव्यम्?
(ग) जन्तवः केन तुष्यन्ति?
(घ) सज्जनानां मैत्री कीदृशी भवति?
(ङ) सरोवराणां हानिः कदा भवति?
उत्तराणि:
(क) यत्नेन वृत्तं रक्षेत्।
(ख) अस्माभिः आत्मनः प्रतिकूलम् आचरणं न कर्त्तव्यम्।
(ग) जन्तवः प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति।
(घ) सज्जनानां मैत्री पुरा लध्वी पश्चात् च वृद्धिमती भवति।
(ङ) मरालैः सह वियोगेण सरोवराणां हानिः भवति।

3. ‘क’ स्तम्भे विशेषणानि ‘ख’ स्तम्भे च विशेष्याणि दत्तानि, तानि यथोचितं योजयत
(स्तम्भ ‘क’ में विशेषण शब्द व स्तम्भ ‘ख’ में विशेष्य शब्द दिए गए हैं, उन्हें यथोचित जोडिए)
‘क’ स्तम्भः – ‘ख’ स्तम्भः
(क) आस्वायतोयाः (1) खलानां मैत्री
(ख) गुणयुक्तः (2) सज्जनानां मैत्री
(ग) दिनस्य पूर्वार्द्धभिन्ना (3) नद्यः
(घ) दिनस्य परार्द्धभिन्ना (4) दरिद्रः
उत्तराणि:
‘क’ स्तम्भः – ‘ख’ स्तम्भः
(क) आस्वाद्यतोयाः (3) नद्यः
(ख) गुणयुक्तः (4) दरिद्रः
(ग) दिनस्य पूर्वार्द्धभिन्ना (1) खलानां मैत्री
(घ) दिनस्य परार्द्धभिन्ना (2) सज्जनानां मैत्री

4. अधोलिखितयोः श्लोकद्वयोः आशयं हिन्दीभाषया आङ्ग्लभाषया वा लिखत
(निम्नलिखित दो श्लोकों के आशय (भावार्थ) हिन्दी भाषा अथवा अंग्रेजी भाषा में लिखिए)
(क) आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ॥

(ख) प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥
उत्तराणि:

(क) भावार्थ प्रस्तुत श्लोक में आचार्य भर्तृहरि ने दुष्टों और सज्जनों की मित्रता में अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है कि जिस प्रकार छाया दिन की शुरुआत में बड़ी होती है तथा फिर आहिस्ता-आहिस्ता छोटी होती जाती है, उसी प्रकार दुष्टों की मित्रता पहले गहरी होती है और धीरे-धीरे कम होती जाती है। इसके विपरीत जिस प्रकार दोपहर में छाया छोटी होती है, धीरे-धीरे बढ़ती है, इसी प्रकार सज्जनों की मित्रता पहले कम तथा धीरे-धीरे दूसरे के गुण-स्वभाव आदि समझकर बढ़ती है।

(ख) भावार्थ-प्रस्तुत श्लोक में आचार्य चाणक्य ने वचन के महत्त्व के विषय में कहा है कि मधुर वचन बोलने से सभी प्रसन्न होते हैं, अतः मनुष्य को सदैव मधुर वचन बोलने में कृपणता नहीं करनी चाहिए।

5. अधोलिखितपदेभ्यः भिन्नप्रकृतिकं पदं चित्वा लिखत
(निम्नलिखित शब्दों से भिन्न प्रकृति वाले शब्द चुनकर लिखें)
(क) वक्तव्यम्, कर्तव्यम्, सर्वस्वम्, हन्तव्यम्।
(ख) यत्नेन, वचने, प्रियवाक्यप्रदानेन, मरालेन।
(ग) श्रूयताम्, अवधार्यताम्, धनवताम्, क्षम्यताम्।
(घ) जन्तवः, नद्यः, विभूतयः, परितः।
उत्तराणि:
(क) सर्वस्वम्,
(ख) मरालेन,
(ग) धनवताम्,
(घ) परितः।

6. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्नवाक्यनिर्माणं कुरुत
(स्थूल पदों के आधार पर प्रश्न वाक्य का निर्माण कीजिए)
(क) वृत्ततः क्षीणः हतः भवति।
(ख) धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा अवधार्यताम्।
(ग) वृक्षाः फलं न खादन्ति।
(घ) खलानाम् मैत्री आरम्भगुर्वी भवति।
उत्तराणि:
(क) कस्मात् क्षीणः हतः भवति?
(ख) किं श्रुत्वा अवधार्यताम् ?
(ग) के फलं न खादन्ति?
(घ) केषाम् मैत्री आरम्भगुर्वी भवति?

7. अधोलिखितानि वाक्यानि लोट्लकारे परिवर्तयत
(निम्नलिखित वाक्यों का लोट्लकार में परिवर्तन कीजिए)
यथा-सः पाठं पठति। – सः पाठं पठतु।
(क) नद्यः आस्वाद्यतोयाः सन्ति। ……………………………..
(ख) सः सदैव प्रियवाक्यं वदति। ……………………………..
(ग) त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचरसि। ……………………………..
(घ) ते वृत्तं यत्नेन संरक्षन्ति। ……………………………..
(ङ) अहम् परोपकाराय कार्यं करोमि। ……………………………..
उत्तराणि:
(क) नद्यः आस्वाद्यतोयाः सन्ति। नद्यः आस्वाधतोयाः सन्तु।
(ख) · सः सदैव प्रियवाक्यं वदति। सः सदैव प्रियवाक्यं वदतु।
(ग) त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचरसि। त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचर।
(घ) . ते वृत्तं यत्नेन संरक्षन्ति। ते वृत्तं यत्नेन संरक्षन्तु।
(ङ) अहं परोपकाराय कार्यं करोमि। अहं परोपकाराय कार्यं करवाणि।

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