PSEB 10th Class Social Science Solutions History उद्धरण संबंधी प्रश्न
PSEB 10th Class Social Science Solutions History उद्धरण संबंधी प्रश्न
PSEB 10th Class SST Solutions History उद्धरण संबंधी प्रश्न
(1)
‘पंजाब’ फ़ारसी के दो शब्दों-‘पंज’ तथा ‘आब’ के मेल से बना है। इसका अर्थ है-पाँच पानियों अर्थात् पांच दरियाओं की धरती। ये पांच दरिया हैं-सतलुज, ब्यास, रावी, चिनाब व जेहलम। पंजाब भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर स्थित है। 1947 ई० में भारत का बंटवारा होने पर पंजाब दो भागों में बांटा गया। इसका पश्चिमी भाग पाकिस्तान बना दिया गया। पंजाब का पूर्वी भाग वर्तमान भारतीय गणराज्य का उत्तरी-पश्चिमी सीमा-प्रान्त बन गया है। पाकिस्तानी पंजाब जिसे पश्चिमी पंजाब कहा जाता है, में आजकल तीन दरिया-रावी, चिनाब व जेहलम बहते हैं। भारतीय पंजाब जिसे कि ‘पूर्वी पंजाब’ कहा जाता है, में दो दरिया ब्यास व सतलुज ही रह गए हैं। वैसे यह नाम ‘पंजाब’ इतना सर्वप्रिय है कि दोनों पंजाब के लोग आज भी अपने-अपने हिस्से में आए पंजाब को ‘पश्चिमी’ या ‘पूर्वी’ कहने की बजाए ‘पंजाब’ ही कहते हैं। हम इस पुस्तक में जमुना तथा सिंध के मध्य पुरातन पंजाब के बारे में पढ़ेंगे।
(a) पंजाब किस भाषा के शब्द-जोड़ से मिलकर बना है? इसका अर्थ भी बताएं।
उत्तर-
‘पंजाब’ फ़ारसी के दो शब्दों-‘पंज’ तथा ‘आब’ के मेल से बना है। जिसका अर्थ है-पांच पानियों अर्थात् पांच दरियाओं (नदियों) की धरती।।
(b) भारत के बंटवारे के बाद ‘पंजाब’ शब्द उचित क्यों नहीं रह गया ?
उत्तर-
बंटवारे से पहले पंजाब पांच दरियाओं की धरती था, परन्तु बंटवारे के कारण इसके तीन दरिया पाकिस्तान में चले गए और वर्तमान पंजाब में केवल दो दरिया (ब्यास तथा सतलुज) ही शेष रह गए।
(c) किन्हीं तीन दोआबों का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
- दोआबा सिन्ध सागर-इस दोआबे में दरिया सिन्ध तथा दरिया जेहलम के मध्य का प्रदेश आता है। यह भाग अधिक उपजाऊ नहीं है।
- दोआबा चज-चिनाब तथा जेहलम नदियों के मध्य क्षेत्र को चज दोआबा के नाम से पुकारते हैं। इस दोआब के प्रसिद्ध नगर गुजरात, भेरा तथा शाहपुर हैं।
- दोआबा रचना-इस भाग में रावी तथा चिनाब नदियों के बीच का प्रदेश सम्मिलित है जो काफ़ी उपजाऊ है। गुजरांवाला तथा शेखुपुरा इस दोआब के प्रसिद्ध नगर हैं।
(2)
इब्राहिम लोधी के बुरे व्यवहार के कारण अफगान सरदार उससे नाराज थे। अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए उन्होंने आलम खाँ को दिल्ली का शासक बनाने की योजना बनाई। उन्होंने इस उद्देश्य के लिए बाबर की सहायता लेने का फैसला किया। परन्तु 1524 ई० में अपने जीते हुए इलाकों का प्रबन्ध करके बाबर काबुल गया ही था कि दौलत खाँ लोधी ने अपनी सेनाएँ इकट्ठी करके अब्दुल अज़ीज से लाहौर छीन लिया। उसके उपरान्त उसने सुलतानपुर में से दिलावर खाँ को निकाल कर दीपालपुर में आलम खाँ को भी हरा दिया। आलम खाँ काबुल में बाबर की शरण में चला गया। फिर दौलत खाँ लोधी ने सियालकोट पर हमला किया पर वह असफल रहा। दौलत खाँ की बढ़ रही शक्ति को समाप्त करने के लिए तथा बाबर की सेना को पंजाब में से निकालने के लिए इब्राहिम लोधी ने फिर अपनी सेना भेजी। दौलत खाँ लोधी ने उस सेना को करारी हार दी। परिणाम स्वरूप केन्द्रीय पंजाब में दौलत खाँ लोधी का स्वतन्त्र राज्य स्थापित हो गया।
(a) इब्राहिम लोधी के किन्हीं दो अवगुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
- इब्राहिम लोधी पठानों के स्वभाव तथा आचरण को नहीं समझ सका।
- उसने पठानों में अनुशासन स्थापित करने का असफल प्रयास किया।
(b) दिलावर खां लोधी दिल्ली क्यों गया ? इब्राहिम लोधी ने उसके साथ क्या बर्ताव किया?
उत्तर-
दिलावर खां लोधी अपने पिता की ओर से आरोपों की सफाई देने के लिए दिल्ली गया। इब्राहिम लोधी ने दिलावर खां को खूब डराया धमकाया। उसने उसे यह भी बताने का प्रयास किया कि विद्रोही को क्या दण्ड दिया जा सकता है। उसने उसे उन यातनाओं के दृश्य दिखाए जो विद्रोही लोगों को दी जाती थीं और फिर उसे बन्दी बना लिया। परन्तु वह किसी-न-किसी तरह जेल से भाग निकला। लाहौर पहुंचने पर उसने अपने पिता को दिल्ली में हुई सारी बातें सुनाईं। दौलत खां समझ गया कि इब्राहिम लोधी उससे दो-दो हाथ अवश्य करेगा।
(3)
गुरु नानक देव जी से पहले पंजाब में मुसलमान शासकों की सरकार थी। इसलिए मुसलमान सरकार में ऊँची से ऊँची पदवी प्राप्त कर सकते थे। उनके साथ सम्मान जनक व्यवहार किया जाता था। सरकारी न्याय उनके पक्ष में ही होता था। उस समय का मुस्लिम समाज चार श्रेणियों में बंटा हुआ था-अमीर तथा सरदार, उलेमा व सैय्यद, मध्य श्रेणी व गुलाम।
मुस्लिम समाज में महिलाओं को कोई सम्मानयोग्य स्थान प्राप्त नहीं था। अमीरों तथा सरदारों की हवेलियों में स्त्रियों के ‘हरम’ होते थे। इन स्त्रियों की सेवा के लिए दासियाँ तथा रखैलें रखी जाती थीं। उस समय पर्दे का रिवाज आम था। साधारण मुसलमान घरों में स्त्रियों के रहने के लिए पर्देदार अलग स्थान बना होता था। उस स्थान को ‘जनान खाना’ कहा जाता था। इन घरों की स्त्रियाँ बुर्का पहन कर बाहर निकलती थी। ग्रामीण मुसलमानों में सख्त पर्दे की प्रथा नहीं थी।
(a) मुस्लिम समाज कौन-कौन सी श्रेणियों में बंटा हुआ था?
उत्तर-
15वीं शताब्दी के अन्त में मुस्लिम समाज चार श्रेणियों में बंटा हुआ था-
- अमीर तथा सरदार,
- उलेमा तथा सैय्यद,
- मध्य श्रेणी तथा
- गुलाम अथवा दास।
(b) मुस्लिम समाज में महिलाओं की दशा का वर्णन करो।
उत्तर-
मुस्लिम समाज में महिलाओं की दशा का वर्णन इस प्रकार है
- महिलाओं को समाज में कोई सम्मान जनक स्थान प्राप्त नहीं था।
- अमीरों तथा सरदारों की हवेलियों में स्त्रियों को हरम में रखा जाता था। इनकी सेवा के लिए दासियां तथा रखैलें रखी जाती थीं।
- समाज में पर्दे की प्रथा प्रचलित थी। परन्तु ग्रामीण मुसलमानों में पर्दे की प्रथा सख्त नहीं थी।
- साधारण परिवारों में स्त्रियों के रहने के लिए अलग स्थान बना होता था। उसे ‘जनान खाना’ कहा जाता था। यहां से स्त्रियां बुर्का पहन कर ही बाहर निकल सकती थीं।
(4)
ज्ञान-प्राप्ति के बाद जब गुरु नानक देव जी सुलतानपुर लोधी वापस पहुंचे तो वे चुप थे। जब उन्हें बोलने के लिए मजबूर किया गया तो उन्होंने केवल यह कहा-‘न कोई हिन्द्र न मुसलमान।’ जब दौलत खाँ, ब्राह्मणों तथा काज़ियों ने इस वाक्य का अर्थ पूछा तो गुरु साहिब ने कहा कि हिन्दू व मुसलमान दोनों ही अपने-अपने धर्मों के सिद्धान्तों को भूल चुके हैं। इन शब्दों का अर्थ यह भी था कि हिन्दू व मुसलमानों में कोई फर्क नहीं तथा वे एक समान हैं। उन्होंने इन महत्त्वपूर्ण शब्दों से अपने संदेश को शुरू किया। उन्होंने अपना अगला जीवन ज्ञान-प्रचार में व्यतीत कर दिया। उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा देकर लम्बी उदासियां (यात्राएँ) शुरू कर दी।
(a) गुरु नानक देव जी ने ज्ञान प्राप्ति के बाद क्या शब्द कहे तथा उनका क्या भाव था?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने ज्ञान प्राप्ति के बाद ये शब्द कहे-‘न कोई हिन्दू न कोई मुसलमान।’ इसका भाव था कि हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही अपने धर्म के मार्ग से भटक चुके हैं।
(b) गुरु नानक देव जी के परमात्मा सम्बन्धी विचारों का संक्षेप में वर्णन करो।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के परमात्मा सम्बन्धी विचारों का वर्णन इस प्रकार है
- परमात्मा एक है-गुरु नानक देव जी ने लोगों को बताया कि परमात्मा एक है। उसे बांटा नहीं जा सकता। उन्होंने एक ओंकार का सन्देश दिया।
- परमात्मा निराकार तथा स्वयंभू है-गुरु नानक देव जी ने परमात्मा को निराकार बताया और कहा कि परमात्मा का कोई आकार व रंग-रूप नहीं है। फिर भी उसके अनेक गुण हैं जिनका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार परमात्मा स्वयंभू तथा अकालमूर्त है। अतः उसकी मूर्ति बना कर पूजा नहीं की जा सकती।
- परमात्मा सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् है-गुरु नानक देव जी ने परमात्मा को सर्वशक्तिमान् तथा सर्वव्यापी बताया। उनके अनुसार वह सृष्टि के प्रत्येक कण में विद्यमान है। उसे मन्दिर अथवा मस्जिद की चारदीवारी में बन्द नहीं रखा जा सकता।
- परमात्मा सर्वश्रेष्ठ है -गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा सर्वश्रेष्ठ है। वह अद्वितीय है। उसकी महिमा तथा महानता का पार नहीं पाया जा सकता।
- परमात्मा दयालु है-गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा दयालु है। वह आवश्यकता पड़ने पर अपने भक्तों की सहायता करता है।
(5)
गुरु नानक देव जी के सांसारिक व्यवहार के प्रति उपेक्षा देख कर कालू जी उदास रहने लगे। आखिरकार गुरु जी की रुचियों में बदलाव लाने के लिए मेहता कालू जी ने उन्हें घर की भैंसें चराने का काम सौंप दिया। गुरु जी पशुओं को खेतों की तरफ ले तो जाते पर उनका ध्यान न रखते। वह अपना ध्यान ईश्वर में लगा लेते। भैंसें खेतों को उजाड़ देती। मेहता कालू जी को इस बारे में कई उलाहने मिलते। उन उलाहनों से तंग आकर मेहता जी ने गुरु जी को खेती का काम संभाल दिया। गुरु जी ने उस काम में भी कोई दिलचस्पी न दिखाई। हार कर मेहता कालू जी ने गुरु जी को व्यापार में लगाना चाहा। मेहता जी ने उनको 20 रुपए दिए तथा किसी मंडी में सच्चा तथा लाभ वाला सौदा करने को कहा। उनकी छोटी उम्र होने के कारण उनके साथ भाई बाला को भेजा गया। उन्हें रास्ते में फ़कीरों का एक टोला मिला जो कि भूखा था। गुरु नानक देव जी ने सारी रकम की रसद लाकर उन फ़कीरों को रोटी खिला दी। जब वे खाली हाथ घर लौटे तो मेहता जी बड़े दुखी हुए। जब उन्होंने 20 रुपयों का हिसाब मांगा तो गुरु जी ने सच बता दिया। इस घटना को ‘सच्चा सौदा’ कहा जाता है।
(a) ‘सच्चा सौदा’ से क्या भाव है?
उत्तर-
सच्चा सौदा से भाव है-पवित्र व्यापार जो गुरु नानक साहिब ने अपने 20 रु० से फ़कीरों को रोटी खिला कर किया था।
(b) गुरु नानक देव जी ने अपने प्रारम्भिक जीवन में क्या-क्या व्यवसाय अपनाए?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी पढ़ाई तथा अन्य सांसारिक विषयों की उपेक्षा करने लगे थे। उनके व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए. उनके पिता जी ने उन्हें पशु चराने के लिए भेजा। वहां भी गुरु नानक देव जी प्रभु चिन्तन में मग्न रहते और पशु दूसरे किसानों के खेतों में चरते रहते थे। किसानों की शिकायतों से तंग आकर मेहता कालू जी ने गुरु नानक देव जी को व्यापार में लगाने का प्रयास किया। उन्होंने गुरु नानक देव जी को 20 रुपए देकर व्यापार करने भेजा, परन्तु गुरु जी ने ये रुपये संतों को भोजन कराने में व्यय कर दिये। यह घटना सिक्ख इतिहास में ‘सच्चा सौदा’ के नाम से प्रसिद्ध है।
(6)
लंगर संस्था, जिसे गुरु नानक देव जी ने आरम्भ किया था, गुरु अंगद देव जी ने उसे जारी रखा। गुरु अमरदास जी के समय में भी यह संस्था विस्तृत रूप से जारी रही। उनके लंगर में ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य तथा शूद्रों को बिना किसी भेद-भाव के एक ही पंगत में बैठ कर इकट्ठे लंगर छकना पड़ता था। गुरु जी की आज्ञानुसार लंगर किए बगैर कोई भी उन्हें नहीं मिल सकता था। मुगल सम्राट अकबर तथा हरीपुर के राजा को भी गुरु साहिब को मिलने से पहले लंगर में से भोजन छकना पड़ा था। इस तरह से यह संस्था सिक्ख धर्म के प्रचार का एक शक्तिशाली साधन सिद्ध हुई।
(a) लंगर प्रथा से क्या भाव है?
उत्तर-
लंगर प्रथा अथवा पंगत से भाव उस प्रथा से है जिसके अनुसार सभी जातियों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक ही पंगत में इकट्ठे बैठकर खाना खाते थे।
(b) मंजी-प्रथा से क्या भाव है तथा इसका क्या उद्देश्य था?
उत्तर-
मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी ने की थी। उनके समय में सिक्खों की संख्या काफ़ी बढ़ चुकी थी। परन्तु गुरु जी की आयु अधिक होने के कारण उनके लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर अपनी शिक्षाओं का प्रचार करना कठिन हो गया था। अत: उन्होंने अपने सारे आध्यात्मिक प्रदेशों को 22 भागों में बांट दिया। इनमें से प्रत्येक भाग को ‘मंजी’ कहा जाता था। प्रत्येक मंजी छोटे-छोटे स्थानीय केन्द्रों में बंटी हुई थी जिन्हें पीड़ियां (Piris) कहते थे। मंजी प्रणाली का सिक्ख धर्म के इतिहास में विशेष महत्त्व है। डॉ० गोकुल चन्द नारंग के शब्दों में, “गुरु जी के इस कार्य ने सिक्ख धर्म की नींव सुदृढ़ करने तथा देश के सभी भागों में प्रचार कार्य को बढ़ाने में विशेष योगदान दिया।”
(7)
गुरु अर्जुन देव जी ने अमृतसर सरोवर के बीच 1588 ई० में ‘हरिमंदिर साहिब’ का निर्माण कार्य करवाया। ऐसा माना जाता है कि हरिमंदिर साहिब की नींव का पत्थर 1589 ई० में सूफी फकीर, मीयां मीर ने रखा। हरिमंदिर साहिब के दरवाजे चारों तरफ रखे गए, भाव यह कि यह मन्दिर चारों जातियों तथा चारों दिशाओं से आने वाले लोगों के लिए खुला था। हरिमंदिर साहिब का निर्माण भाई बुड्डा सिंह जी तथा भाई गुरदास जी की देख-रेख में हुआ जो 1601 ई० में पूरा हुआ। सितम्बर 1604 ई० में हरिमंदिर साहिब में आदि ग्रन्थ की स्थापना कर दी गई। भाई बुड्डा सिंह जी को वहाँ का पहला ग्रन्थी बनाया गया था। __ अमृतसर में हरिमंदिर साहिब का निर्माण सिक्ख धर्म की दृढ़ता- पूर्वक स्थापना के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य था। इससे सिक्खों को हिन्दू तीर्थ-स्थानों की यात्रा करने की ज़रूरत न रही। अमृतसर सिक्खों का ‘मक्का’ तथा ‘गंगाबनारस’ बन गया।
(a) हरिमंदिर साहिब की नींव कब तथा किसने रखी?
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब की नींव 1589 ई० में उस समय के प्रसिद्ध सूफ़ी सन्त मियां मीर ने रखी।
(b) हरिमंदिर साहिब के बारे में जानकारी दीजिए।
उत्तर-
गुरु रामदास जी के ज्योति जोत समाने के पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने ‘अमृतसर’ सरोवर के बीच हरिमंदिर साहिब का निर्माण करवाया। इसका नींव पत्थर 1589 ई० में सूफ़ी फ़कीर मियां मीर जी ने रखा। गुरु जी ने इसके चारों ओर एक-एक द्वार रखवाया। ये द्वार इस बात के प्रतीक हैं कि यह मंदिर सभी जातियों तथा धर्मों के लोगों के लिए समान रूप से खुला है। हरिमंदिर साहिब का निर्माण कार्य भाई बुड्डा जी की देख-रेख में 1601 ई० में पूरा हुआ। 1604 ई० में हरिमंदिर साहिब में आदि ग्रन्थ साहिब की स्थापना की गई और भाई बुड्डा जी वहां के पहले ग्रन्थी बने।
हरिमंदिर साहिब शीघ्र ही सिक्खों के लिए ‘मक्का’ तथा ‘गंगा-बनारस’ अर्थात् एक बहुत बड़ा तीर्थ-स्थल बन गया।
(8)
दो मुग़ल बादशाह-अकबर तथा जहांगीर गुरु अर्जुन देव जी के समकालीन थे। चूंकि गुरुओं के उपदेशों का उद्देश्य जाति-पाति, ऊँच-नीच, अंध-विश्वास तथा धार्मिक कट्टरता से रहित समाज की स्थापना करना था, इसलिए अकबर गुरुओं को पसंद करता था। पर जहाँगीर गुरु अर्जुन देव जी की बढ़ती हुई ख्याति को पसंद नहीं करता था। उसे इस बात का गुस्सा भी था कि हिन्दुओं के साथ-साथ कई मुसलमान भी गुरु जी से प्रभावित हो रहे थे। कुछ समय पश्चात् शहज़ादा खुसरो ने अपने पिता जहांगीर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। जब शाही सेनाओं ने खुसरो का पीछा किया तो वह भाग कर पंजाब आ गया तथा गुरु जी से मिला। इस पर जहांगीर ने जो पहले ही गुरु अर्जुन देव जी के विरुद्ध कार्यवाही करने का बहाना ढूंढ रहा था विद्रोही खुसरो की सहायता करने के अपराध में गुरु जी पर दो लाख रुपयों का जुर्माना कर दिया। गुरु जी ने इस जुर्माने को अनुचित मानते हुए इसे अदा करने से इन्कार कर दिया। इस पर उनको शारीरिक यातनाएँ देकर 1606 ई० में शहीद कर दिया गया।
(a) जहांगीर गुरु अर्जुन देव जी को क्यों शहीद करना चाहता था?
उत्तर-
जहांगीर को गुरु अर्जन देव जी की बढ़ती हुई ख्याति से ईर्ष्या थी। जहांगीर को इस बात का दुःख था कि हिन्दुओं के साथ-साथ कई मुसलमान भी गुरु साहिब से प्रभावित हो रहे हैं।
(b) गुरु अर्जुन देव जी की शहादत पर एक नोट लिखिए।
उत्तर-
मुग़ल सम्राट अकबर के पंचम पातशाह (सिक्ख गुरु) गुरु अर्जन देव जी के साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। परन्तु अकबर की मृत्यु के पश्चात् जहांगीर ने सहनशीलता की नीति छोड़ दी। वह उस अवसर की खोज में रहने लगा। जब वह सिक्ख धर्म पर करारी चोट कर सके। इसी बीच जहांगीर के पुत्र खुसरो ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया। खुसरो पराजित होकर गुरु अर्जन देव जी के पास आया। गुरु जी ने उसे आशीर्वाद दिया। इस आरोप में जहांगीर ने गुरु अर्जन देव जी पर दो लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया। परन्तु गुरु अर्जन देव जी ने जुर्माना देने से इन्कार कर दिया। इसलिए उन्हें बन्दी बना लिया गया और अनेक यातनाएं देकर शहीद कर दिया गया। गुरु अर्जन देव जी की शहीदी से सिक्ख भड़क उठे। वे समझ गए कि उन्हें अब अपने धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने पड़ेंगे।
(9)
गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्खों के दसवें तथा आखिरी गुरु हुए हैं। गुरु नानक देव जी ने सिक्ख धर्म की स्थापना का कार्य किया था। उनके आठ उत्तराधिकारों ने धीरे-धीरे सिक्ख धर्म का प्रचार व प्रसार किया। पर उस कार्य को संपूर्ण करने वाले गुरु गोबिन्द सिंह जी ही थे। उन्होंने 1699 ई० में खालसा की स्थापना कर के सिक्ख मत को अन्तिम रूप दिया। उन्होंने सिक्खों में विशेष दिलेरी, बहादुरी तथा एकता की भावना उत्पन्न कर दी। सीमित साधनों तथा बहुत थोड़े सिक्ख-सैनिकों की सहायता से उन्होंने मुगल साम्राज्य के अत्याचारों का विरोध किया। अपने देहान्त से पहले उन्होंने गुरु-परम्परा का अंत करते हुए गुरु की शक्ति गुरु ग्रन्थ साहिब तथा खालसा में बांटी। इसीलिए उनमें एक ही समय में आध्यात्मिक नेता, उच्च कोटि का संगठन-कर्ता, जन्म-सिद्ध सेनानायक, प्रतिभाशाली विद्वान तथा उत्तम सुधारक के गुण विद्यमान थे।
(a) गुरु गोबिन्द राय जी का जन्म कब और कहां हुआ? उनके माता-पिता का नाम भी बताओ।
उत्तर-
22 दिसम्बर, 1666 ई० को पटना में उनकी माता का नाम गुजरी जी और पिता का नाम श्री गुरु तेग बहादुर जी था।
(b) गुरु गोबिन्द सिंह जी के सेनानायक के रूप में व्यक्तित्व का वर्णन करो।
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी एक कुशल सेनापति तथा वीर सैनिक थे। पहाड़ी राजाओं तथा मुगलों के विरुद्ध लड़े गए प्रत्येक युद्ध में उन्होंने अपने वीर सैनिक होने का परिचय दिया। तीर चलाने, तलवार चलाने तथा घुड़सवारी करने में तो वे विशेष रूप से निपुण थे। गुरु जी में एक उच्च कोटि के सेनानायक के भी सभी गुण विद्यमान थे। उन्होंने कम सैनिक तथा कम युद्ध सामग्री के होते हुए भी पहाड़ी राजाओं तथा मुग़लों के नाक में दम कर दिया। चमकौर की लड़ाई में तो उनके साथ केवल चालीस सिक्ख थे, परन्तु गुरु जी के नेतृत्व में उन्होंने वे हाथ दिखाए कि एक बार तो हजारों की मुग़ल सेना घबरा उठी।
(10)
1699 ई० को वैशाखी के दिन गुरु गोबिन्द राय जी ने आनन्दपुर साहिब में सभा बुलाई। उस सभा की संख्या लगभग अस्सी हज़ार थी। जब सभी लोग अपने-अपने स्थान पर बैठ गए तो गुरु जी ने म्यान में से तलवार निकाल कर जोरदार शब्दों में कहा-तुममें से कोई ऐसा व्यक्ति है जो धर्म के लिए अपना सिर दे सके ? गुरु जी ने ये शब्द तीन बार दोहराए। तीसरी बार पर लाहौर-निवासी दया राम (क्षत्रिय) ने उठ कर गुरु जी के सामने अपना शीश झका दिया। गुरु जी उसे पास के एक तम्बू में ले गए। फिर वे तम्बू से बाहर आए और उन्होंने पहले की तरह ही एक और व्यक्ति का शीश मांगा। इस बार दिल्ली का धर्म दास (जाट) अपना सिर. भेंट करने के लिए आगे आया। गुरु साहिब उसे भी साथ के तम्बू में ले गए। इस प्रकार गुरु जी ने पांच बार शीश की मांग की और पांच व्यक्तियों भाई दयाराम तथा भाई धर्मदास के अतिरिक्त भाई मोहकम चंद (द्वारका का धोबी) भाई साहिब चंद (बीदर का नाई) तथा भाई हिम्मत राय (जगन्नाथ पुरी का कहार) ने गुरु जी को अपने सिर भेंट किए। कुछ समय पश्चात् गुरु जी उन पाँचों व्यक्तियों को केसरिया रंग के सुन्दर वस्त्र पहना कर लोगों के बीच में ले आए। उस समय स्वयं भी गुरु जी ने वैसे ही वस्त्र पहने हुए थे। लोग. उन पाँचों को देख कर आश्चर्यचकित हुए। गुरु साहिब ने उन्हें ‘पाँच-प्यारे’ की सामूहिक उपाधि दी।
(a) खालसा का सृजन कब और कहां किया गया ?
उत्तर-
1699 ई० में आनन्दपुर साहिब में।
(b) खालसा के नियमों का वर्णन करो।
उत्तर-
खालसा की स्थापना 1699 ई० में गुरु गोबिन्द सिंह जी ने की। खालसा के नियम निम्नलिखित थे
- प्रत्येक खालसा अपने नाम के साथ ‘सिंह’ शब्द लगाएगा। खालसा स्त्री अपने नाम के साथ ‘कौर’ शब्द लगाएगी।
- खालसा में प्रवेश से पूर्व प्रत्येक व्यक्ति को ‘खण्डे के पाहुल’ का सेवन करना पड़ेगा। तभी वह स्वयं को खालसा कहलवाएगा।
- प्रत्येक ‘सिंह’ आवश्यक रूप से पांच ‘ककार’ धारण करेगा-केश, कड़ा, कंघा, किरपान तथा कछहरा।
- सभी सिक्ख प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करके उन पांच बाणियों का पाठ करेंगे जिनका उच्चारण ‘खण्डे का पाहुल’ तैयार करते समय किया गया था।
(11)
बंदा सिंह बहादुर का असली निशाना सरहिन्द था। यहाँ के सबेदार वजीर खां ने सारी उम्र गरु गोबिन्द सिंह जी को तंग किया था। उसने आनन्दपुर साहिब तथा चमकौर साहिब के युद्धों में गुरु जी के खिलाफ फौज भेजी थी। यहीं पर उनके छोटे साहिबजादों को दीवार में चिनवा दिया गया था। वजीर खां ने हज़ारों निर्दोष सिक्खों तथा हिन्दुओं के खून से अपने हाथ रंगे थे। इसलिए बंदा बहादुर तथा सिक्खों को वजीर खां पर बहुत गुस्सा था। जैसे ही पंजाब में बंदा बहादुर के सरहिन्द की तरफ बढ़ने की खबरें पहुँची तो हजारों लोग बंदा सिंह बहादुर के झंडे के तले एकत्रित हो गए। सरहिन्द के कर्मचारी, सुच्चा नंद का भतीजा भी 1,000 सैनिकों के साथ बंदे की सेना में जा मिला। दूसरी तरफ वजीर खाँ की फौज की गिनती लगभग 20,000 थी। उसकी सेना में घुड़सवारों के अतिरिक्त बंदूकची तथा तोपची व हाथी सवार भी थे।
(a) हुक्मनामे में गुरु (गोबिन्द सिंह) जी ने पंजाब के सिक्खों को क्या आदेश दिए?
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर उनका राजनीतिक नेता होगा तथा वे मुग़लों के विरुद्ध धर्मयुद्ध में बंदे का साथ दें।
(b) चप्पड़-चिड़ी तथा सरहिन्द की लड़ाई का वर्णन करो।
उत्तर-
सरहिन्द के सूबेदार वज़ीर खान ने गुरु गोबिन्द सिंह जी को जीवन भर तंग किया था। इसके अतिरिक्त उसने गुरु साहिब के दो साहिबजादों को सरहिन्द में ही दीवार में चिनवा दिया था। इसलिए बंदा सिंह बहादुर इसका बदला लेना चाहता था। जैसे ही वह सरहिन्द की ओर बढ़ा, हजारों लोग उसके झण्डे तले एकत्रित हो गए। सरहिन्द के कर्मचारी, सुच्चा नंद का भतीजा भी 1,000 सैनिकों के साथ बंदा की सेना में जा मिला। परन्तु बाद में उसने धोखा दिया। दूसरी ओर वज़ीर खान के पास लगभग 20,000 सैनिक थे। सरहिन्द से लगभग 16 किलोमीटर पूर्व में चप्पड़चिड़ी के स्थान पर 22 मई, 1710 ई० को दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। वज़ीर खान को मौत के घाट उतार दिया गया। शत्रु के सैनिक बड़ी संख्या में सिक्खों की तलवारों के शिकार हुए। वज़ीर खान की लाश को एक पेड़ पर टांग दिया गया। सुच्चा नंद जिसने सिक्खों पर अत्याचार करवाये थे, की नाक में नकेल डाल कर नगर में उसका जुलूस निकाला गया।
(12)
1837 ई० में भारत का गवर्नर-जनरल लार्ड ऑक्लैड-अफगानिस्तान में रूस के बढ़ते हुए प्रभाव से भयभीत हो गया। वह यह भी महसूस करता था कि दोस्त मुहम्मद अंग्रेजों के शत्रु रूस से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध कायम कर रहा था। इन हालातों में लार्ड ऑकलैंड ने दोस्त मुहम्मद की जगह शाह शुजाह को (अफगानिस्तान का भूतपूर्वकशासक जो अंग्रेजों की पैन्शन पर पलता था) अफगानिस्तान का शासक बनाना चाहा। इस उद्देश्य से 26 जून, 1838 ई० को अंग्रेज सरकार की आज्ञा से अंग्रेजों, रणजीत सिंह तथा शाह शुजाह के दरम्यान, एक संधि हुई जिसे ‘त्रिपक्षीय संधि’ कहा जाता है। इसके अनुसार अफगानिस्तान के होने वाले शासक शाह शुजाह ने अपनी तरफ से महाराजा के अफगानों से जीते गए सारे प्रदेश (कश्मीर, मुलतान, पेशावर, अटक, डेराजात आदि) पर उसका अधिकार स्वीकार कर लिया। महाराजा ने उस संधि की एक शर्त कि अफगान-युद्ध के समय वह अंग्रेजों को अपने इलाके में से होकर आगे जाने देगा, न मानी। इस पर अंग्रेजों तथा महाराजा के सम्बन्धों में बड़ी दरार पैदा हो गई। जून, 1839 ई० को महाराजा का देहान्त हो गया।
(a) रणजीत सिंह का जन्म कब हुआ तथा उसके पिता का क्या नाम था?
उत्तर-
रणजीत सिंह का जन्म 13 नवम्बर, 1780 को हुआ। उसके पिता का नाम सरदार महा सिंह था।
(b) त्रिपक्षीय सन्धि क्या थी?
उत्तर-
त्रिपक्षीय सन्धि 26 जून, 1838 ई० में महाराजा रणजीत सिंह, अंग्रेज़ों तथा शाह शुजाह के बीच हुई। इसकी शर्ते निम्नलिखित थीं
- महाराजा रणजीत सिंह द्वारा विजित प्रदेश शाह शुजाह के राज्य में नहीं मिलाए जाएंगे।
- तीनों में से कोई भी किसी विदेशी की सहायता नहीं करेगा।
- महाराजा रणजीत सिंह सिन्ध के उस भाग पर भी नियन्त्रण कर सकेगा जिस पर उसका अभी-अभी अधिकार हुआ था।
- एक का दुश्मन अन्य दोनों का दुश्मन समझा जाएगा।
- सिन्ध के मामले में अंग्रेज़ तथा महाराजा रणजीत सिंह मिल कर जो भी निर्णय करेंगे, वह शाह शुजाह को मान्य होगा।
- शाह शुजाह महाराजा रणजीत सिंह तथा अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी भी देश से अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं करेगा।
(13)
यद्यपि लार्ड हार्डिग ने सिक्खों को हराकर पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया, पर लाहौर सरकार
को कमजोर अवश्य कर दिया। अंग्रेजों ने लाहौर राज्य के सतलुज के दक्षिण स्थित क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने दोआबा बिस्त जालन्धर के उपजाऊ क्षेत्रों पर अधिकार जमा लिया। कश्मीर, कांगड़ा और हजारा के पहाड़ी राज्य लाहौर राज्य से स्वतंत्र कर दिए गए। लाहौर राज्य की सेना कम कर दी गई। लाहौर राज्य से बहुत बड़ी धनराशि वसूल की गई। पंजाब को आर्थिक और सैनिक दृष्टि से इतना कमज़ोर कर दिया गया कि अंग्रेज़ जब भी चाहें उस पर कब्जा कर सकते थे।
(a) महाराजा रणजीत सिंह के बाद कौन उसका उत्तराधिकारी बना?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के बाद खड़क सिंह उसका उत्तराधिकारी बना।
(b) लाहौर की दूसरी सन्धि की धाराएं क्या थी?
उत्तर-
लाहौर की दूसरी सन्धि 11 मार्च, 1846 ई० को अंग्रेज़ों तथा सिक्खों के बीच हुई। इसकी मुख्य धाराएं निम्नलिखित थीं
- ब्रिटिश सरकार महाराजा दलीप सिंह और नगरवासियों की रक्षा के लिए लाहौर में बड़ी संख्या में सेना रखेगी। यह सेना 1846 ई० तक वहां रहेगी।
- लाहौर का किला और नगर अंग्रेज़ी सेना के अधिकार में रहेंगे।
- लाहौर-सरकार 9 मार्च, 1846 ई० को सन्धि द्वारा अंग्रेज़ों को दिए गए क्षेत्रों के जागीरदारों तथा अधिकारियों का सम्मान करेगी।
- लाहौर-सरकार को अंग्रेजों को दिए प्रदेशों के किलों में से तोपों के अतिरिक्त खज़ाना या सम्पत्ति लेने का कोई अधिकार नहीं होगा।
(14)
जनवरी 1848 ई० में लार्ड हार्डिग के स्थान पर लार्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बना। वह भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने में विश्वास रखता था। सबसे पहले उसने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने का फैसला किया। मुलतान के मूलराज और हज़ारा के चतर सिंह और उसके पुत्र शेर सिंह द्वारा विद्रोह कर देने पर उन्हें सिक्खों के साथ युद्ध करने का बहाना मिल गया। दूसरे आंग्ल-सिक्ख युद्ध में सिक्खों की हार के बाद पहले ही निश्चित नीति को वास्तविक रूप देने का काम विदेश सचिव हैनरी इलियट (Henry Elliot) को सौंपा गया। इलियट ने कौंसिल आफ रीजेंसी के सदस्यों को एक सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर कर दिया। उस सन्धि के अनुसार महाराजा दलीप सिंह को राजगद्धी से उतार दिया गया। पंजाब की सारी सम्पत्ति पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया। कोहेनूर हीरा इंगलैंड की महारानी (विक्टोरिया) के पास भेज दिया गया। महाराजा दलीप सिंह की 4 लाख और 5 लाख के बीच पेंशन निश्चित कर दी गई। उसी दिन हैनरी इलियट ने लाहौर दरबार में लार्ड डलहौजी की ओर से घोषणा-पत्र पढ़कर सुनाया गया। इस घोषणा-पत्र में पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने को उचित ठहराया गया।
(a) पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में कब शामिल किया गया ? उस समय भारत का गवर्नर जनरल कौन था?
उत्तर-
पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में 1849 ई० में सम्मिलित किया गया। उस समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी था।
(b) महाराजा दलीप सिंह के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर-
महाराजा दलीप सिंह पंजाब (लाहौर राज्य) का अंतिम सिक्ख शासक था। प्रथम ऐंग्लो-सिक्ख युद्ध के समय वह नाबालिग था। अत: 1846 ई० की भैरोंवाल की सन्धि के अनुसार लाहौर-राज्य के शासन प्रबन्ध के लिए एक कौंसिल ऑफ़ रीजैंसी की स्थापना की गई। इसे महाराज के बालिग होने तक कार्य करना था। परन्तु दूसरे ऐंग्लोसिक्ख युद्ध में सिक्ख पुनः पराजित हुए। परिणामस्वरूप महाराजा दलीप सिंह को राजगद्धी से उतार दिया गया और उसकी 4-5 लाख रु० के बीच वार्षिक पेंशन निश्चित कर दी गई। पंजाब अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बन गया।
(15)
अमृतसर और रायकोट के बूचड़खाने पर आक्रमण करके कई बूचड़ों को मार दिया। कूकों को सबके सामने फांसी की सजा दी जाती परन्तु वे अपने मनोरथ से पीछे न हटते। जनवरी 1872 में 150 कूकों का जत्था बूचड़ों को सज़ा देने के लिए मलेरकोटला पहुँचा। 15 जनवरी, 1872 को कूकों और मलेरकोटला की सेना के मध्य घमासान युद्ध हुआ। दोनों पक्षों के अनेक व्यक्ति मारे गये। अंग्रेज़ सरकार ने कूकों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए अपनी सेना मलेरकोटला भेजी। 65 कूकों ने स्वयं को गिरफ्तार करवा दिया। उनमें से 49 कूकों को 17 जनवरी 1872 ई० में तोपों से उड़ा दिया गया। सरकारी मुकद्दमें के पश्चात् 16 कूकों को भी 18 जनवरी 1872 ई० में तोपों से उड़ा दिया। श्री सतगुरु रामसिंह जी को देश निकाला देकर रंगून भेज दिया गया। कई नामधारी सूबों को काले पानी भेज दिया। कइयों को समुद्र के पानी में डुबोकर मार दिया गया और कई कूकों की जायदाद जब्त कर ली गई। इस प्रकार अंग्रेज़ सरकार ने हर प्रकार से जुल्म ढाये परन्तु लहर तब तक चलती रही जब तक 15 अगस्त, 1947 ई० को देश आजाद नहीं हो गया।
(a) श्री सतगुरु राम सिंह जी ने अंग्रेज़ सरकार से असहयोग क्यों किया?
उत्तर-
क्योंकि श्री सतगुरु राम सिंह जी विदेशी सरकार, विदेशी संस्थाओं तथा विदेशी माल के कट्टर विरोधी थे।
(b) नामधारियों और अंग्रेजों के मध्य मलेरकोटला में हुई दुर्घटना का वर्णन करो।
उत्तर-
नामधारी लोगों ने गौ-रक्षा का कार्य आरम्भ कर दिया था। गौ-रक्षा के लिए वे कसाइयों को मार डालते थे। जनवरी, 1872 को 150 कूकों (नामधारियों) का एक जत्था कसाइयों को दण्ड देने मलेरकोटला पहुंचा। 15 जनवरी, 1872 ई० को कूकों और मालेरकोटला की सेना के बीच घमासान लड़ाई हुई। दोनों पक्षों के अनेक व्यक्ति मारे गए। अंग्रेजों ने कूकों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए अपनी विशेष सेना मालेरकोटला भेजी। 65 कूकों ने स्वयं अपनी गिरफ्तारी दी। उनमें से 49 कूकों को 17 जनवरी, 1872 ई० को तोपों से उड़ा दिया गया। सरकारी मुकद्दमों के पश्चात् 16 कूकों को भी 18 जनवरी 1872 ई० में तोपों से उड़ा दिया।
(16)
अशांति और क्रोध के इस वातावरण में अमृतसर और गाँवों के लगभग 25,000 लोग 13 अप्रैल, 1919 ई० को वैशाखी वाले दिन जलियाँवाला बाग में जलसा करने के लिए इकट्ठे हुए। जनरल डायर ने उसी दिन साढ़े नौ बजे ऐसे जलसों को गैर कानूनी करार दे दिया, परन्तु लोगों को उस घोषणा का पता नहीं था। इसी कारण जलियांवाला बाग़ में जलसा हो रहा था। जनरल डायर को अंग्रेजों के कत्ल का बदला लेने का मौका मिल गया। वह अपने 150 सैनिकों समेत जलियाँवाला बाग के दरवाजे के आगे पहुंच गया। बाग में आने-जाने के लिए एक ही तंग रास्ता था। जनरल डायर ने उसी रास्ते के आगे खड़े होकर लोगों को तीन मिनट के अन्दर-अन्दर तितर-बितर हो जाने का आदेश दिया परन्तु ऐसा करना असम्भव था। तीन मिनट के बाद जनरल डायर ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। लगभग 1000 लोग मारे गए और 3000 से भी अधिक जख्मी हो गए। जलियाँवाला बाग की घटना के बाद देश की स्वतंत्रता की लहर को एक नया रूप मिला। इस घटना का बदला सरदार ऊधम सिंह ने 21 वर्ष पश्चात् इंग्लैंड में सर माइकल ओ डायर (जो घटना के समय पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर था) को गोली मारकर उसकी हत्या करके लिया।
(a) जलियाँवाला बाग़ की दुर्घटना का बदला किसने और कैसे लिया?
उत्तर-
जलियाँवाला बाग़ की दुर्घटना का बदला शहीद ऊधमसिंह ने 21 वर्ष बाद इंग्लैंड में सर माइकल ओ’डायर की गोली मारकर हत्या करके लिया।
(b) जलियाँवाला बाग़ की दुर्घटना के क्या कारण थे?
उत्तर-
जलियाँवाला बाग़ की दुर्घटना निम्नलिखित कारणों से हुई
- रौलेट बिल-1919 में अंग्रेजी सरकार से ‘रौलेट बिल’ पास किया। इसके अनुसार पुलिस को जनता के दमन के लिए विशेष शक्तियां दी गईं। अतः लोगों ने इनका विरोध किया।
- डॉ० सत्यपाल तथा डॉ० किचलू की गिरफ्तारी-रौलेट बिल के विरोध में पंजाब तथा अन्य स्थानों पर हड़ताल हुई। कुछ नगरों में दंगे भी हुए। अतः सरकार ने पंजाब के दो लोकप्रिय नेताओं डॉ० सत्यपाल तथा डॉ० किचलू को गिरफ्तार कर लिया। इससे जनता और भी भड़क उठी।
- अंग्रेजों की हत्या-भड़के हुए लोगों पर अमृतसर में गोली चलाई गई। जवाब में लोगों ने पांच अंग्रेजों को मार डाला। अतः नगर का प्रबन्ध जनरल डायर को सौंप दिया गया। इन सब घटनाओं के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में एक आम सभा हुई जहां भीषण हत्याकांड हुआ।
(17)
अकाली जत्थों ने चरित्रहीन महन्तों के अधिकार से गुरुद्वारों को खाली करवाने का काम आरम्भ किया। उन्होंने हसन अब्दाल स्थित गुरुद्वारा, पंजा साहिब, जिला शेखूपुरा का गुरुद्वारा सच्चा सौदा तथा अमृतसर जिले का गुरुद्वारा चोला साहिब महन्तों से खाली करवा लिए। तरनतारन में अकालियों की महन्तों से मुठभेड़ हो गई। स्यालकोट स्थित गुरुद्वारा बाबा की बेर और लायलपुर (फैसलाबाद) जिला के गुरुद्वारे गोजरां में भी ऐसे ही हुआ।.अकाली दल फिर भी गुरुद्वारों को स्वतंत्र करवाने में जुटा रहा। 20 फरवरी, 1921 ई० को ननकाना साहिब गुरुद्वारा में एक बड़ी दुर्घटना घटी। जब अकाली जत्था शांतिपूर्वक ढंग से गुरुद्वारा पहुंचा तो वहाँ के महन्त नारायण दास ने 130 अकालियों का कत्ल करवा दिया। अंग्रेज़ सरकार ने अकालियों के प्रति कोई भी सहानुभूति प्रदर्शित न की। पर सारे प्रांत के मुसलमानों और हिन्दुओं ने अकालियों के प्रति सहानुभूति दिखाई।
(a) चाबियाँ वाला मोर्चा क्यों लगाया गया?
उत्तर-
अंग्रेजी सरकार ने दरबार साहिब अमृतसर की गोलक की चाबियां अपने पास दबा रखी थीं जिन्हें प्राप्त करने के लिए सिक्खों ने चाबियों वाला मोर्चा लगाया।
(b) गुरु का बाग़ घटना ( मोर्चे) का वर्णन करो।
उत्तर-
गुरुद्वारा ‘गुरु का बाग़’ अमृतसर से लगभग 13 मील दूर अजनाला तहसील में स्थित है। यह गुरुद्वारा महंत सुन्दरदास के पास था जो एक चरित्रहीन व्यक्ति था। शिरोमणि कमेटी ने इस गुरुद्वारे को अपने हाथों में लेने के लिए 23 अगस्त, 1921 ई० को दान सिंह के नेतृत्व में एक जत्था भेजा। अंग्रेजों ने इस जत्थे के सदस्यों को बन्दी बना लिया।
इस घटना से सिक्ख भड़क उठे। सिक्खों ने कई और जत्थे भेजे जिन के साथ अंग्रेजों ने बहुत बुरा व्यवहार किया। सारे देश के राजनीतिक दलों ने सरकार की इस कार्यवाही की कड़ी निन्दा की। अंत में अकालियों ने ‘गुरु का बाग़’ मोर्चा शांतिपूर्ण ढंग से जीत लिया।