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RBSE Class 9 Social Science Solutions History Chapter 4 वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद

RBSE Class 9 Social Science Solutions History Chapter 4 वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद

पाठ-सार

 औद्योगीकरण के कारण सन् 1700 से 1995 के बीच 139 लाख वर्ग कि.मी. जंगल यानी दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 93 प्रतिशत भाग को औद्योगिक इस्तेमाल, खेती-बाड़ी, चरागाहों व जलाऊ लकड़ी के लिए साफ कर दिया गया।
( 1 ) वनों का विनाश क्यों –
वनों के लुप्त होने को सामान्यतः वन विनाश कहते हैं। औपनिवेशिक भारत में वन विनाश के कुछ कारण ये हैं-
( 1.1 ) जमीन की बेहतरी-
(1) 1600 ई. के बाद भारत की जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई, खाद्य पदार्थों की माँग में वृद्धि हुई, वैसे-वैसे जंगलों को साफ कर खेती की सीमाओं का विस्तार किया गया।
(2) ब्रिटिश काल में भारत में 1880 से 1920 के बीच व्यावसायिक फसलों के उत्पादन को जमकर प्रोत्साहन देने तथा जंगलों को अनुत्पादक समझने के कारण खेती योग्य जमीन के क्षेत्रफल में 67 लाख हैक्टेयर की बढ़त हुई ।
( 1.2 ) पटरी पर स्लीपर –
(1) 1820 के दशक में शाही नौसेना के लिए जहाजों के निर्माण हेतु हिन्दुस्तान से बड़े पैमाने पर पेड़ काट कर लकड़ी निर्यात की गई।
(2) 1850 के दशक में शाही सेना के आवागमन और औपनिवेशक व्यापार हेतु रेल लाइनों को बिछाने के लिए स्लीपरों तथा इंजन को चलाने हेतु ईंधन के तौर पर लकड़ी की भारी जरूरत थी। भारत में रेल लाइनों का जाल 1860 के दशक में तेजी से फैला। सरकार ने आवश्यक मात्रा की लकड़ी की पूर्ति हेतु निजी ठेके दिए । इन ठेकेदारों ने बिना सोचे-समझे पेड़ काटे और रेल लाइनों के इर्द-गिर्द जंगल तेजी से गायब हुए ।
(1.3 ) बागान-यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए इनके बागान बने और बागानों के लिए भी प्राकृतिक वनों का भारी हिस्सा साफ किया गया।
(2) व्यावसायिक वानिकी की शुरुआत
(i) स्थानीय लोगों द्वारा जंगलों के उपयोग तथा व्यापारियों द्वारा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को रोकने हेतु अंग्रेजों ने ब्रैंडिस नामक जर्मन विशेषज्ञ को बुलाकर देश का पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया । ब्रैंडिस ने 1864 में भारतीय वन सेवा की स्थापना की और 1865 के भारतीय वन अधिनियम को सूत्रबद्ध करने में सहयोग दिया।
(ii) वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर विविध प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया इनकी जगह सीधी पंक्ति में एक ही किस्म के पेड़ लगा दिए गए। इसे बागान कहा जाता है।
(iii) 1865 के वन अधिनियम को दो बार संशोधन किया गया। पहले 1878 में और फिर 1927 में। 1878 वाले अधिनियम में जंगलों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया – (1) आरक्षित (2) सुरक्षित और (3) ग्रामीण ।
(2.1 ) लोगों का जीवन कैसे प्रभावित हुआ?
(1) वन विभाग ने जहाजों और रेलवे के लिए इमारती लकड़ी हेतु सागौन और साल जैसी प्रजातियों को प्रोत्साहित किया गया और दूसरी किस्में काट डाली गईं।
(2) वन अधिनियम के बाद अब स्थानीय लोगों को घर के लिए लकड़ी काटना, पशुओं को चराना, कंद मूल फल इकट्ठा करना आदि रोजमर्रा की गतिविधियाँ गैर कानूनी बन गईं। पुलिस और जंगल के चौकीदार उन्हें तंग करने लगे।
( 2.2 ) वनों के नियमन से खेती कैसे प्रभावित हुई ?
(1) यूरोपीय उपनिवेशवाद का सबसे गहरा प्रभाव झूग या भूमंतु खेती की प्रथा पर दिखाई दिया क्योंकि सरकार ने घुमन्तू खेती पर रोक लगाने का फैसला किया।
(2) इसके पीछे उसने तीन कारण बताए (i) ऐसी खेती की जमीन पर इमारती लकड़ी के पेड़ नहीं लगाए जा सकते थे। (ii) जंगल जलाते समय बाकी बेशकीमती पेड़ों के जलने का खतरा रहता था तथा (iii) इसके कारण सरकार को लगान का हिसाब रखना मुश्किल था।
(3) इसके परिणामस्वरूप अनेक समुदायों को जंगलों से विस्थापित कर दिया गया।
( 2.3 ) शिकार की आजादी किसे थी?
(1) वन कानूनों से पहले जंगलों में या उनके आस पास रहने वाले बहुत सारे लोग हिरन, तीतर जैसे छोटे-मोटे शिकार करके जीवनयापन करते थे।
(2) वन कानूनों ने लोगों को शिकार के परम्परागत अधिकार से वंचित कर दिया गया।
(3) अंग्रेज अफसरों के लिए अब बड़े जानवरों का आखेट एक खेल बन गया। औपनिवेशिक शासन के दौरान शिकार का चलन बढ़ा और कई प्रजातियाँ लगभग पूरी तरह लुग हो गई। अकेले जार्ज यूल नामक अंग्रेज अफसर ने 400 बाघों को मारा था।
( 2. 4 ) नए व्यापार, नए रोजगार और नई सेवाएँ –
(1) जंगलों पर वन विभाग का नियंत्रण हो जाने से कई समुदाय अपने परंपरागत पेशे छोड़कर वन उत्पादों का व्यापार करने लगे।
(2) भारत में ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन उत्पादों के व्यापार की इजारेदारी सौंप दी।
( 3 ) अनेक चरवाहे और घुमन्तू समुदाय अब सरकार की निगरानी में फैक्ट्रियों, खदानों व बागानों में काम करने को मजबूर हो गए। यहाँ उनकी मजदूरी बहुत कम थी तथा परिस्थितियाँ अत्यधिक खराब थीं।
(3) वन विद्रोह –
हिन्दुस्तान और दुनियाभर में वन्य समुदायों ने अपने ऊपर थोपे गए बदलावों के खिलाफ बगावत की।
( 3.1 ) बस्तर के लोग –
(1) बस्तर छत्तीसगढ़ के सबसे दक्षिणी छोर पर आंध्रप्रदेश, उड़ीसा व महाराष्ट्र की सीमाओं से लगा हुआ क्षेत्र है।
(2) बस्तर में मारिया और मुरिया गौंड, धुरवा, भतरा, हलबा आदि अनेक आदिवासी समुदाय रहते हैं।
(3) ये लोग मानते हैं कि हरेक गाँव को उसकी जमीन ‘धरती माँ’ से मिली है। वे गाँव की सीमा के भीतर समस्त प्राकृतिक संपदाओं की देखभाल करते हैं।
(4) एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के जंगल से लकड़ी लेना चाहते हैं तो इसके बदले में उन्हें एक छोटा शुल्क अदा करना पड़ता है।
(5) हर वर्ष एक बड़ी सभा का आयोजन होता है जहाँ गाँवों के समूह के मुखिया जुटते हैं और जंगल सहित सभी मुद्दों पर चर्चा होती है।
( 3.2 ) लोगों के भय –
(1) औपनिवेशिक सरकार ने 1905 में जब जंगलों के दो तिहाई हिस्से को आरक्षित करने, घुमन्तू खेती को रोकने और शिकार व अन्य उत्पादों के संग्रह पर पाबन्दी लगाने के प्रस्तावों पर बस्तर के लोग परेशान हो गए।
(2) कुछ गाँवों में लोगों को आरक्षित वनों में पेड़ों की मुफ्त कटाई – ढुलाई करने की शर्त पर रहने दिया गया।  ये ग्राम ‘वन ग्राम’ कहे जाने लगे। बाकी गाँव के लोगों को वहाँ से हटा दिया गया।
( 3 ) नेथानार गाँव के गुंडा धूर के नेतृत्व में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी और दमनकारी कानूनों से जुड़े राज्य के लोगों को लूटा, जलाया तथा अनाज का पुनर्वितरण किया।
(4) सरकार ने दमनचक्र चलाया, गाँव के लोग भाग कर जंगलों में चले गए तथा सरकार गुंडा धूर को नहीं पकड़ पायी ।
(5) परिणामत: आरक्षण का काम कुछ समय के लिए रोक दिया गया तथा आरक्षित क्षेत्र को भी आधा कर दिया गया।
( 4 ) जावा के जंगलों में हुए बदलाव –
इण्डोनेशिया में जावा वह क्षेत्र है जहाँ डचों ने वन प्रबन्धन की शुरुआत की थी । अंग्रेजों की तरह वे भी जहाज बनाने के लिए यहाँ से लकड़ी हासिल करना चाहते थे । यहाँ के पहाड़ों पर घुमन्तू खेती करने वाले अनेक समुदाय रहते थे।
( 4.1 ) जावा के लकड़हारे –
(1) जावा में कलांग समुदाय के लोग कुशल लकड़हारे और घुमन्तू किसान थे।
(2) डचों ने जब 18वीं सदी में वनों पर नियंत्रण स्थापित करना प्रारंभ किया तो उन्होंने कोशिश की कि उनके लिए काम करें।
(3) कलांग 1770 ई. में कलांगों ने एक डच किले पर हमला करके इसका प्रतिरोध किया ।
( 4.2 ) डच वैज्ञानिक वानिकी
(1) डच उपनिवेशकों ने 19वीं सदी में जावा में वन कानून लागू कर ग्रामीणों को जंगल पर पहुँच कर अनेक बंदिशें थोप दीं ।
(2) जहाज और रेल लाइनों के निर्माण ने वन प्रबन्धन और वन सेवाओं को लागू किया गया तथा भारी मात्रा में जावा से स्लीपरों का निर्यात किया गया ।
(3) पेड़ काटने और लकड़ी ढोने के लिए ब्लैन्डांगडिएन्स्टेन व्यवस्था लागू की गई ।
( 4.3 ) सामिन की चुनौती-
(1) सन् 1890 में जब रान्दुब्लातुंग गाँव के निवासी सामिन ने जंगलों में राजकीय मालिकाने पर चुनौती दी तो जल्दी ही एक व्यापक आंदोलन खड़ा हो गया ।
(2) समिनवादियों ने जमीन पर लेट कर डचों के जमीन के सर्वेक्षण का विरोध किया तो दूसरे लोगों ने लगान या जुर्माना भरने या बेगार करने से इन्कार कर दिया।
( 44 ) युद्ध और वन विनाश –
(1) पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जंगलों पर गहरा प्रभाव पड़ा।
(2) भारत में अंग्रेजों की जंगी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बेतहाशा पेड़ काटे गए।
(3) जावा में जापानियों ने वनवासियों को जंगल काटने के लिए बाध्य करके युद्ध उद्योग के लिए जंगलों का निर्मम दोहन किया ।
( 4.5 ) वानिकी में नए बदलाव –
(1) अस्सी के दशक में वनों से इमारती लकड़ी हासिल करने के बजाय जंगलों का संरक्षण ज्यादा महत्त्वपूर्ण लक्ष्य बन गया ।
(2) इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वन प्रदेशों में रहने वाले लोगों की मदद ली जाने लगी।
(3) स्थानीय वन समुदाय और पर्यावरणविद अब वन- प्रबंधन के वैकल्पिक तरीकों के बारे में सोचने लगे हैं।

RBSE Class 9 Social Science वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद InText Questions and Answers

पृष्ठ 81

प्रश्न 1.
एक मील लंबी रेल की पटरी के लिये 1,760 से 2,000 तक स्लीपरों की जरूरत थी। यदि 3 मीटर लंबी बड़ी लाइन की पटरी बिछाने के लिये एक औसत कद के पेड़ से 3-5 स्लीपर बन सकते हैं तो हिसाब लगाकर देखें कि एक मील लंबी पटरी बिछाने के लिए कितने पेड़ काटने होंगे?

पृष्ठ 83

प्रश्न 1.
यदि 1862 में भारत सरकार की बागडोर आपके हाथ में होती और आप पर इतने व्यापक पैमाने पर रेलों के लिए स्लीपर और ईंधन आपूर्ति की जिम्मेदारी होती तो आप इसके लिए कौन-कौन से कदम उठाते?
उत्तर:
रेलों के लिए स्लीपर और ईंधन आपूर्ति की जिम्मेदारी होने पर इसके लिए हम निम्न कदम उठाते-

  • हम एक सुनियोजित योजना बनाकर वन काटने की इजाजत देते। अन्धाधुन्ध वृक्ष-कटाई की कभी मंजूरी नहीं देते।
  • वृक्षों की कटाई के साथ-साथ उनके संरक्षण का भी ध्यान रखते।
  • वन सम्पदा के उपयोग सम्बन्धी नियम तय करते।
  • वन सम्पदा के उपयोग के लिए स्थानीय लोगों के हितों का भी ध्यान रखा जाता।
  • विभिन्न वैकल्पिक संसाधनों यथा लोहे अथवा पत्थरों के स्लीपर तथा ईंधन के लिये कोयले का उपयोग किये जाने पर भी जोर देते।
  • जितनी संख्या में पेड़ों की कटाई आवश्यक होती उससे अधिक नये पेड़ भी अवश्य लगाये जाते।

पृष्ठ 86

प्रश्न 1.
वन-प्रदेशों में रहने वाले बच्चे पेड़-पौधों की सैकड़ों प्रजातियों के नाम बता सकते हैं। आप पेड़-पौधों की कितनी प्रजातियों के नाम जानते हैं?
उत्तर:
हम पेड़-पौधों की निम्न प्रजातियों के नाम बता सकते हैं-

  • साल
  • सागौन
  • बलूत (ओक)
  • पोपलर
  • देवदार
  • महुआ
  • बाँस
  • सेमूर
  • तेंदू
  • रबड़
  • बबूल
  • खेजड़ी
  • बरगद
  • शहतूत
  • शीशम
  • चन्दन
  • सियादी
  • फर
  • स्यूस
  • लार्च

पृष्ठ 96

प्रश्न 1.
जहाँ आप रहते हैं क्या वहाँ के जंगली इलाकों में कोई बदलाव आये हैं? ये बदलाव क्या हैं और क्यों हुए हैं ?
उत्तर:
जहाँ हम रहते हैं, वहाँ के जंगली इलाकों में वर्तमान में अनेक बदलाव आये हैं। इनमें मुख्य निम्न हैं-

  • पहले इन जंगलों से लकड़ी का अन्धाधुन्ध दोहन किया गया था जिससे ये जंगल लगभग वृक्षविहीन हो गये थे। वर्तमान में इन जंगली इलाकों में लकड़ी हासिल करने की बजाय जंगलों का संरक्षण अधिक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य बन गया
  • ग्रामीणों द्वारा वनों की रक्षा की जाती है।
  • जंगली इलाकों में वृक्षों की संख्या बढ़ने लगी है।
  • इस क्षेत्र के नदी-नालों का भी संरक्षण किया जा रहा है।
  • जानवरों के शिकार पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।
  • कुछ इलाके वन्य जीव अभयारण्य के रूप में विकसित किये गये हैं।
  • पशुओं के अवैध शिकार तथा अवैध वन दोहन पर रोक लगाई गई है।
  • चारों ओर हरियाली नजर आने लगी है।

ये बदलाव इसलिए हुए हैं, क्योंकि अब हम वन संरक्षण पर अधिक ध्यान देने लगे हैं।

RBSE Class 9 Social Science वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक काल के वन प्रबंधन में आए परिवर्तनों ने इन समूहों को कैसे प्रभावित किया-
(1) झूम-खेती करने वालों को
(2) घुमंतू और चरवाहा समुदायों को
(3) लकड़ी और वन-उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को
(4) बागान मालिकों को
(5) शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज अफसरों को
उत्तर:
(1) झूम-खेती करने वालों को-वन प्रबंधन की नीति में आये परिवर्तन का झूम-खेती करने वालों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। उनके लिए अपना गुजारा करना मुश्किल हो गया। खेती की इस पद्धति को प्रतिबंधित कर दिये जाने के कारण उन्हें दूसरा व्यवसाय अपनाना पड़ा तथा उनके स्वतंत्र जीवन-यापन की पुरातन व्यवस्था चरमरा गई। विभिन्न क्षेत्रों में उनका शोषण होने लगा। साथ ही नई नीति ने एक तरह से उन्हें बंधुआ मजदूर बना दिया।

(2) घुमंतू और चरवाहा समुदायों को-घुमंतू और चरवाहा समुदायों को सुरक्षित वनों में अपनी गतिविधियाँ चलाने से रोक दिया गया। फलतः उनकी रोजी-रोटी प्रभावित हुई। वनोत्पादों के व्यापार को रोके जाने से इन समुदायों के लिए आय के स्रोत बंद हो गये तथा इनका जीवन-यापन कठिन हो गया। अनेक समुदायों को जंगलों में उनके घरों से जबरन विस्थापित कर दिया गया। कुछ को अपना पेशा बदलना पड़ा तो कुछ ने छोटे-बड़े विद्रोहों के द्वारा प्रतिरोध किया।

(3) लकड़ी और वन-उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को-औपनिवेशिक काल के वन प्रबन्धन में आये परिवर्तनों से लकड़ी और वन उत्पादों का व्यापार करने वाली कम्पनियों को बहुत लाभ पहुंचा। वन प्रबंधन की नीति के तहत ब्रिटिश सरकार ने इन फर्मों को लकड़ी तथा वनोत्पाद का व्यापार करने का एकाधिकार दे दिया। फलतः उन्होंने बड़ी मात्रा में वनों के दोहन तथा आदिवासियों के शोषण द्वारा बहुत धन जुटाया।

(4) बागान मालिकों को-बागान मालिकों को वन प्रबन्धन में आये परिवर्तनों से बहुत अधिक लाभ हुआ। प्राकृतिक वनों का भारी हिस्सा साफ कर चाय, कॉफी, रबर आदि के नये-नये बागान विकसित किये गये। इन बागानों में आदिवासियों से बहत कम मजदूरी पर काम करवाया जाता था। चूँकि इन उत्पादों का निर्यात होता था, अतः सरकार एवं बागान मालिकों दोनों को बहुत अधिक लाभ होता था।

(5) शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज अफसरों को-वन प्रबन्धन नीति के तहत जंगलों में शिकार करना प्रतिबंधित कर दिया गया। वनों में रहने वालों की पारंपरिक शिकार प्रथा को गैरकानूनी करार दे दिया गया। राजा-महाराजा तथा ब्रिटिश अधिकारी इन नियमों के बावजूद शिकार करते रहे। उनके साथ सरकार की मौन सहमति थी। चूँकि बड़े जंगली जानवरों को अंग्रेज आदिम, असभ्य तथा बर्बर समुदाय का सूचक मानते थे, अतः भारत को सभ्य बनाने के नाम पर इन जानवरों का शिकार चलता रहा। अकेले जॉर्ज यूल नामक अंग्रेज अफसर ने 400 बाघों को मारा था।

प्रश्न 2.
बस्तर और जावा के औपनिवेशिक वन प्रबंधन में क्या समानताएँ हैं?
उत्तर:
औपनिवेशिक काल में बस्तर तथा जावा में वन प्रबंधन में निम्नलिखित समानताएँ थीं-
(1) यूरोपीय औपनिवेशिक शासन द्वारा वन प्रबन्धन-बस्तर तथा जावा दोनों जगह यूरोपीय औपनिवेशिक सरकार द्वारा वन प्रबन्धन किया गया था। बस्तर में अंग्रेजों का शासन था तो जावा में डचों का शासन था। इनकी वन नीतियाँ लगभग समान थीं तथा अपने हितों पर आधारित थीं।

(2) समान उद्देश्य-अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य था कि अपनी शाही नौसेना के लिए इमारती लकड़ी की नियमित आपूर्ति के लिए बस्तर के वनों का दोहन किया जाये। डच लोगों का उद्देश्य भी यही था। अंग्रेजों के समान वे भी शाही नौसेना के लिए इमारती. लकड़ी चाहते थे।

(3) वैज्ञानिक वानिकी का आरम्भ-अंग्रेजों ने वैज्ञानिक वानिकी आरम्भ की, जिसके अन्तर्गत प्राकृतिक वनों को काट दिया गया तथा ब्रिटिश उद्योग की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए नई प्रजातियाँ लगाई गईं। डच लोगों ने भी वैज्ञानिक वानिकी आरम्भ करके अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप पेड़ लगाए।

(4) विभिन्न वन कानून-अंग्रेजों ने विभिन्न वन कानूनों के माध्यम से स्थानीय लोगों पर अनेक प्रतिबंध लगाए। उनके आने-जाने पर, पशुओं की चराई, लकड़ी लेने आदि पर प्रतिबंध थे। घुमंतू खेती पर रोक लगा दी तथा जंगल के दो-तिहाई हिस्से को आरक्षित कर दिया। डचों ने भी विभिन्न कानूनों के माध्यम से ग्रामवासियों की वनों तक पहुँच पर अनेक प्रतिबंध लगाए। अब केवल कुछ विशेष उद्देश्यों के लिए ही लकड़ी काटी जा सकती थी।

(5) ग्रामीण वन नीति तथा ब्लैन्डाँगडिएन्स्टेन-स्थानीय लोगों का समर्थन पाने के लिए अंग्रेजों ने ‘वन ग्राम नीति’ अपनाई। इसके अन्तर्गत कुछ गाँवों को इस शर्त पर आरक्षित वनों में रहने की आज्ञा दे दी थी कि वे पेड़ों को काटने, ढोने तथा आग से बचाने में वन विभाग के लिए मुफ्त काम करेंगे। डच लोगों ने जावा में कुछ गाँवों को इस शर्त पर कर देने से छूट दे दी, यदि वे इमारती लकड़ी को काटने तथा ढोने के लिए मुफ्त श्रमिक तथा जानवर प्रदान करने के लिए सामूहिक रूप से कार्य करें। .

(6) यूरोपीय फर्मों को फायदा-दोनों ही जगह औपनिवेशिक सरकारों ने यूरोपीय फर्मों को फायदा पहुंचाया तथा स्थानीय लोगों का शोषण किया।

प्रश्न 3.
सन् 1880 से 1920 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के वनाच्छादित क्षेत्र में 97 लाख हेक्टेयर की गिरावट आयी। पहले के 10.86 करोड़ हेक्टेयर से घटकर यह क्षेत्र 9.89 करोड़ हेक्टेयर रह गया था। इस गिरावट में निम्नलिखित कारकों की भूमिका बताएँ-
(1) रेलवे
(2) जहाज निर्माण
(3) कृषि-विस्तार
(4) व्यावसायिक खेती
(5) चाय-कॉफी के बागान
(6) आदिवासी और किसान।
उत्तर:
(1) रेलवे-1860 के दशक से भारत में रेल लाइनों का जाल तेजी से फैला। अतः रेल की पटरियाँ बिछाने के लिए आवश्यक स्लीपरों के लिए अत्यधिक संख्या में पेड़ काटे गये। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 1 मील लंबी पटरी बिछाने के लिए 1760-2000 स्लीपरों की जरूरत होती थी जिसके लिए लगभग 500 पेड़ों की आवश्यकता होती थी। 1890 तक लगभग 25,500 कि.मी. लम्बी लाइनें बिछायी जा चुकी थीं। इस कार्य को बहुत तेजी से किया गया क्योंकि रेलवे सैनिकों तथा वाणिज्यिक वस्तुओं को एक जगह से दूसरी जगह तक लाने-ले जाने में सहायक था। फलतः वनों का तेजी से ह्रास हुआ।

(2) जहाज निर्माण-जहाज निर्माण उद्योग वन क्षेत्र में कमी के लिए दूसरा सबसे बड़ा कारण था। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक इंग्लैण्ड में ओक के वन लगभग समाप्त हो चुके थे अतः भारतीय वनों की कठोर तथा टिकाऊ लकड़ियों पर अंग्रेजों की नजर पड़ी। उन्होंने इसकी अंधाधुंध कटाई शुरू की। फलतः वनों का तेजी से ह्रास हुआ।

(3) कृषि-विस्तार-इन वर्षों के दौरान आबादी में तेजी से वृद्धि हुई। फलतः कृषि उत्पादों की मांग में भी तेजी से वृद्धि हुई। किन्तु, सीमित कृषि भूमि के कारण बढ़ती आबादी की मांग को तेजी से पूरा नहीं किया जा सकता था। ऐसी स्थिति में औपनिवेशिक सरकारों ने कृषि-भूमि में वृद्धि करने की सोची। 1880 से 1920 के बीच खेती योग्य जमीन के
क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई। इसके लिए वनों का सफाया किया गया तथा वन क्षेत्र में कमी आई।

(4) व्यावसायिक खेती-व्यावसायिक खेती ने भी भारत में वन क्षेत्रों को प्रभावित किया। अंग्रेजों ने व्यावसायिक फसलों जैसे पटसन, गन्ना, गेहूँ व कपास के उत्पादन को बढ़ावा दिया। इस तरह की खेती के लिए अधिक उपजाऊ भूमि की आवश्यकता थी। उपलब्ध भूमि पर पारंपरिक तरीके से वर्षों से की जा रही खेती के कारण वह खास उपजाऊ नहीं रह गई थी। अतः नई उपजाऊ भूमि के लिए जंगलों को साफ किया जाने लगा। फलतः वनों का तेजी से ह्रास हुआ।

(5) चाय-कॉफी के बागान-यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ की बढ़ती मांग के कारण इनके बागानों के विकास को प्रोत्साहित किया गया। इसके लिए यूरोपीय लोगों को परमिट दिया गया तथा हर संभव सहायता दी गई। बाड़ाबन्दी करके जंगलों को साफ कर बागान विकसित किये गये। वनवासियों को न्यूनतम मजदूरी पर पेड़ काटकर बागान के लिए जमीन तैयार करने के साथ-साथ बागान के विकास संबंधी अन्य कार्यों में लगाया गया। इस तरह वन तथा वनवासी दोनों को ही नुकसान पहुँचाया गया।

(6) आदिवासी और किसान-आदिवासी और किसानों के द्वारा भी वन क्षेत्रों को नुकसान पहुँचता था। आदिवासी तथा किसान वन क्षेत्रों को जलाकर घुमंतू कृषि करते थे, वन्य जीवों का शिकार करते थे तथा घर बनाने को एवं ईंधन की लकड़ी के लिए पेड़ों को काटते थे।

प्रश्न 4.
युद्धों से जंगल क्यों प्रभावित होते हैं?
उत्तर:
युद्धों से जंगल निम्न कारणों से प्रभावित होते हैं-

  • युद्ध की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वृक्षों को अन्धाधुन्ध काट दिया जाता है। जिसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में वन नष्ट हो जाते हैं।
  • शत्रु द्वारा वनों पर अधिकार के डर से, कभी-कभी सरकारें स्वयं वनों को काटना आरम्भ कर देती हैं, लकड़ी चीरने के कारखानों को नष्ट कर देती हैं तथा लट्ठों के ढेरों को जला देती हैं। जावा पर जापानियों के कब्जे से ठीक पहले डचों ने इसी प्रकार की नीति अपनाई थी।
  • युद्ध के दौरान अन्य देश के वनों पर अधिकार करने वाली शक्तियाँ अपने युद्ध उद्योग के लिए पेड़ों को अन्धाधुन्ध काट देती हैं। जैसा कि दूसरे विश्व युद्ध में जावा पर अपने अधिकार के समय जापान ने किया था।
  • वन अधिकारियों को युद्ध में फँसा देखकर, कुछ लोग वनों को काटकर अपनी कृषि भूमि का विस्तार करना आरम्भ कर देते हैं। विशेषकर जिन लोगों को पहले वनों से बाहर निकाला गया था, वे फिर से वनों पर अपना अधिकार कर लेते हैं। इस प्रकार का उदाहरण जावा में देखा गया था।
  • सेनाएँ अपने आप को तथा युद्ध सामग्री को घने वनों में छिपा देती हैं ताकि उन पर कोई हमला न कर सके। शत्रु भी विरोधी सैनिकों तथा उनकी युद्ध सामग्री पर कब्जा करने के लिए वनों को निशाना बनाते हैं।
  • युद्धों में व्यस्त हो जाने के कारण सरकारों का ध्यान वनों का सुव्यवस्थित ढंग से विकास करने के कार्यों से हट जाता है और परिणामस्वरूप बहुत से वन लापरवाही का शिकार हो जाते हैं।

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