RBSE Solutions for Class 12 Biology Chapter 35 मेंडल के आनुवंशिकता के नियम
RBSE Solutions for Class 12 Biology Chapter 35 मेंडल के आनुवंशिकता के नियम
Rajasthan Board RBSE Class 12 Biology Chapter 35 मेंडल के आनुवंशिकता के नियम
RBSE Class 12 Biology Chapter 35 पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उत्तर
RBSE Class 12 Biology Chapter 35 बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
मेण्डल की सफलता का मुख्य कारण था कि उन्होंने-
(अ) मटर के पौधे का चयन किया था।
(ब) अपने संकरण में केवल एक लक्षण को एक बार में लिया।
(स) वंशावली अभिलेख रखे थे।
(द) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपरोक्त सभी।
प्रश्न 2.
स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम सिद्ध किया जाता है-
(अ) Fi पीढ़ी की समस्त संतति लम्बी होती है।
(ब) लम्बे तथा बौने पौधे के 3 : 1 के अनुपात में प्रकटन द्वारा।
(स) F2 पीढ़ी में चिकने तथा झुर्रादार बीजों वाले पौधों के प्रकटन द्वारा।
(द) F2 पीढ़ी में लम्बे तथा बौने पौधों के प्रकटन द्वारा।
उत्तर:
(स) F2 पीढ़ी में चिकने तथा झुर्रादार बीजों वाले पौधों के प्रकटन द्वारा।
प्रश्न 3.
एक संकर संकरण की 2 पीढ़ी को लक्षण प्ररूप अनुपात होता है-
(अ) 9 : 3 : 3 : 1
(ब) 3 : 1
(स) 1 : 1
(द) 2 : 1
उत्तर:
(ब) 3 : 1
प्रश्न 4.
लाल तथा सफेद के संकरण से उत्पन्न संतति गुलाबी हैं। इसमें R जीन किस प्रकार का होना सिद्ध करता है?
(अ) संकर
(ब) अप्रभावी
(स) अपूर्ण प्रभावी
(द) उत्परिवर्ती
उत्तर:
(स) अपूर्ण प्रभावी
प्रश्न 5.
रुधिर वर्ग-AB समूह वाले मनुष्य का जीनोटाइप प्रभाव दिखाई देता है, जो कहलाता है-
(अ) प्रभावी-अप्रभावी
(ब) अपूर्ण प्रभाविता
(स) सहप्रभाविता
(द) संपूरक
उत्तर:
(स) सहप्रभाविता
प्रश्न 6.
घातक जीन में जीनप्ररूप अनुपात क्या होता है ?
(अ) 1 : 2 : 1
(ब) 3 : 1
(स) 2 : 1
(द) 9 : 3 : 3 : 1
उत्तर:
(स) 2 : 1
RBSE Class 12 Biology Chapter 35 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
आनुवंशिकी का जनक किसे कहते हैं। और क्यों ?
उत्तर:
आनुवंशिकी का जनक ग्रेगर जॉन मेण्डल को कहते हैं। क्योंकि इन्होंने सबसे पहले आनुवंशिकी के नियमों की खोज की थी जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होते हैं।
प्रश्न 2.
F2 पीढ़ी का एक संकर व द्विसंकर लक्षण प्ररूप (फीनोटाइप) अनुपात बतायें।
उत्तर:
एक संकर अनुपात 3 : 1
द्विसंकर अनुपात–9 : 3 : 3 : 1
प्रश्न 3.
बहुजीनी लक्षण क्या होते हैं ?
उत्तर:
जब एक विशेषक (आकृति या लक्षण) एक जीन द्वारा नियंत्रित होता है तो इसे एकल जीनी वंशानुक्रम कहते हैं। बहुत से विशेषक आकृति या लक्षण बहुत से अलग-अलग प्रकार के ज़ीनों द्वारा नियंत्रित होते हैं।
उदाहरण—मनुष्य में त्वचा का रंग व गेहूँ के दाने का रंग जीनों के संयुक्त प्रभाव के कारण होता है। ये अकेले प्रभावी नहीं होता है।
प्रश्न 4.
मेण्डल ने अपने प्रयोगों का शोध पत्र कहाँ व किस संस्था में पढ़ा था ?
उत्तर:
मेण्डल ने अपने मटर के पौधों पर किये गये प्रयोगों से प्राप्त परिणामों को ब्रौन सोसाइटी ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के समक्ष 08 फरवरी से 08 मार्च 1865 को प्रस्तुत किया अपने शोधकार्य को 1866 में सोसाइटी की वार्षिक पत्रिका में “पादपों में संकरण के प्रयोग” नामक पत्र प्रकाशित किया।
प्रश्न 5.
मेण्डल को मूल शोध पत्र किस भाषा में छपा था एवं उसका शीर्षक क्या था ?
उत्तर:
मेण्डल का मूल शोध पत्र जर्मन भाषा में “versuche Uber pflanzenhybriden” नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।
प्रश्न 6.
मेण्डल के कार्यों को दुबारा खोजने वाले वैज्ञानिकों के नाम बताइये।
उत्तर:
डी ब्रीज, कार्ल कारेंस एवं एरिन बान शर्मेक
RBSE Class 12 Biology Chapter 35 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
निम्न में अन्तर बताइए-
(i) समयुग्मजी व विषमयुग्मजी
(ii) प्रभावी व अप्रभावी विशेषक
(iii) जीन प्ररूप (जीनोटाइप और फीनोटाइप) लक्षण प्ररूप
(iv) एक संकर व द्विसंकर क्रॉस।
उत्तर:
(i) समयुग्मजी व विषमयुग्मजी में अन्तर (Homozygous and Heterozygous)-जब किसी पौधे के इकाई लक्षण के लिए कारकों के युग्म (Factor pair) या जीन्स (Genes) समान होते हैं तो यह पौधा उस लक्षण के लिए समयुग्मजी (Homozygous) कहलाता है। ऐसे पौधों के सभी युग्मक एकसमान होते हैं। जैसे- शुद्ध लम्बे (TT), शुद्ध बौने (tt) आदि । समयुग्मजी लक्षण विशेष के लिए शुद्ध होते हैं।
जब इकाई लक्षण के कारकों के युग्म या जीन्स विपरीत प्रभाव वाले होते हैं तो यह पौधा उस लक्षण के लिए विषमयुग्मजी (Heterozygous) कहलाता है। ऐसे पौधों से दो प्रकार के युग्मक बनते हैं। विषमयुग्मजी लक्षण विशेष के लिए संकर (Hybrid) होते हैं जैसे संकर लम्बे (Tt) पादप ।
(ii) प्रभावी व अप्रभावी विशेषक में अन्तर-जीवधारी के सभी लक्षण इकाइयों के रूप में रहते हैं। प्रत्येक इकाई लक्षण किसी विशेष कारक (Factor) या जीन (Gene) के युग्म (Pair) से निर्देशित होता है।
इस जीन युग्म का एक कारक माता से तथा दूसरा पिता से प्राप्त होता है। एक युग्म के दोनों जीन एक-दूसरे के विपरीत प्रभाव के भी हो सकते हैं। ऐसे युग्म का केवल एक ही जीन अपना प्रभाव प्रदर्शित करता है। अपने प्रभाव को प्रदर्शित करने वाले कारक को प्रभावी कारक और विपरीत प्रभाव वाले जीन को जो अपना प्रभाव प्रदर्शित नहीं कर सका, अप्रभावी कारक कहते हैं। इनके प्रभाव को प्रभाविता और अप्रभाविता से प्रदर्शित करते हैं। प्रभावी जीन को capital letter से दर्शाते हैं, जैसे लम्बे पौधों के लिए “T” से। अप्रभावी जीन को प्रभावी कारक के small letter से दर्शाते हैं, जैसे बौने पौधे के लिए ‘t’ से।
(iii) जीन प्ररूप (जीनोटाइप और फीनोटाइप) में अन्तर-जब व्यक्ति की आनुवंशिक संरचना को जो नर या मादा अपने जनकों से वंशानुक्रम में प्राप्त करते हैं, जीनप्ररूप (जीनोटाइप) कहलाते है। उदाहरण, विशुद्ध गोल बीज वाले जनक मटर के पौधे का लक्षण प्रारूप RR है तथा लक्षणप्ररूप किसी जीव के किसी एक या अधिक गुणों की बाह्य अभिव्यक्ति को लक्षणप्ररूप कहते हैं। उदाहरण बीजों के लिये गोल या झुरींदार आकृति है।
(iv) एक संकर क्रॉस व द्विसंकर क्रॉस में अन्तर-जब एक तुलनात्मक लक्षण को ध्यान में रखकर शुद्ध जनकों में संकरण (Cross) कारया जाता है तो इसे एकसंकर क्रॉस कहते हैं। प्रथम पीढ़ी प्रभावी लक्षण को प्रदर्शित करती है। प्रथम पीढ़ी की संतति में स्वपरागण कराने पर द्वितीय या F2 पीढ़ी में पौधे 3 : 1 के लक्षण प्रारूपिक या फीनोटिपिक अनुपात (Phenotypic ratio) में प्राप्त होते हैं। जैसे शुद्ध लम्बे तथा शुद्ध बौने पौधों के मध्य संकरण ।
जब दो तुलनात्मक लक्षणों को ध्यान में रखकर शुद्ध जनकों में संकरण कराया जाता है तो इसे द्विसंकर संकरण (dihybrid cross) कहते हैं। F1 पीढ़ी के पौधे प्रभावी लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं, जबकि F2 पीढ़ी के लिए F1 पीढ़ी के पौधों में स्वपरागण कराने पर पौधे 9 : 3 : 3 : 1 के लक्षण प्रारूपिक या फीनोटिपिक अनुपात में प्राप्त होते हैं। जैसे—शुद्ध पीले तथा गोल बीज वाले और हरे तथा झुर्रादार बीज वाले पौधों के मध्य संकरण ।
प्रश्न 2.
परिभाषित करें-
(i) युग्मविकल्पी (ऐलील)
(ii) सहप्रभाविता
(iii) बहुजीन
(iv) घातक जीन।
उत्तर:
(i) युग्मविकल्पी (ऐलील)-इसे युग्मविकल्पी या Allele or Allelomorphs भी कहते हैं। इसमें Allele किसी भी कारक अथवा जीन के दो या दो से अधिक विकल्पी रूप है। उदाहरण के लिये, मटर के पौधे में बीज को आकृति प्रदान करने वाले जीन के दो विकल्पी रूप हो सकते हैं। गोल (R) व झुर्रादार (r) गोल व झुर्रादार बीजों के लिए दोनों जीन एक-दूसरे के Allele हैं। इसी प्रकार मनुष्य में रक्त समूह को नियंत्रित करने वाले जीन के तीन ऐलील (Allele) IA, IB, तथा IO (I = इम्यूनोहीमोग्लोबिन जीन)। समजाती गुणसूत्र में एलील समान स्थान पर रहते हैं।
(ii) सहप्रभाविता (Colominance)—वंशागति का वह प्रकार जिसमें किसी विषमयुग्मजी (Heterozygous) के दोनों अलील अपना-अपना व बराबर का प्रभाव दिखाते हैं, सह प्रभाविता (Codominance) कहलाती है।
मानव में ABO रक्त समूह की वंशागति सहप्रभाविता का एक अच्छा उदाहरण है। मनुष्य में रक्त समूह का निर्धारण RBC पर उपस्थित एक एंटीजन द्वारा होता है। एंटीजन A की उपस्थिति से A रक्त समूह, B की उपस्थिति से B रक्त समूह A व B दोनों की उपस्थिति से AB रक्त समूह तथा किसी भी एंटीजन की अनुपस्थिति से O रक्त समूह बनता है।
जीन I इन एंटीजनों के निर्धारण से सम्बन्धित है तथा इसके तीन अलील, पाये जाते हैं। IA अलील-A एंटीजन निर्माण हेतु, IB अलील-B एंटीजन निर्माण हेतु जिम्मेदार होता है अलील i से कोई भी एंटीजन नहीं बनता। IA तथा IB प्रभावी तथा i अलील अप्रभावी होता है। किसी भी मनुष्य में कोई से दो अलील पाये जाते हैं।
IAIB संजोजन में दोनों अलील अपना-अपना समान प्रभाव दिखाते हैं। तथा A तथा B दोनों प्रकार के एंटीजन बनने के कारण रक्त समूह AB होता है। चूंकि दोनों अलील के फीनोटाइप की अभिव्यक्ति होती है अत: यह सहप्रभाविता का उदाहरण है।
(iii) बहुजीन (Polygene)-जब एक विशेषक (आकृति या लक्षण) एक जीन द्वारा नियंत्रित होता है तो इसे एकल जीनी वंशागति कहते हैं, बहुत से विशेषक बहुत से अलग-अलग प्रकार के जीनों द्वारा नियंत्रित होता है। उदाहरण के लिए मनुष्य में त्वचा का रंग व गेहूँ के दानों का रंग कई जीनों के संयुक्त प्रभाव के कारण होता है। उसमें से कोई भी अकेले प्रभावी नहीं होता है। एक विशेषक लक्षण को प्रभावित करने वाले बहुजीन (Polygenes) अलग-अलग गुणसूत्रों पर पाये जाते हैं। ये सभी जीन कुल प्रभाव प्रकट करने में समान व संचयी योगदान देते हैं। मानव त्वचा में रंग द्रव्य निर्माण में तीन या चार जीनों का सहयोग होता है। अत: त्वचा के रंग में बहुत गोरेपन से बहुत कालेपन के बीच अविच्छिन्त्र परिवर्तन होता है। बहुत जीनों द्वारा नियंत्रित इस प्रकार की वंशागति को मात्रात्मक वंशागति बहुजीनी (बहुत से जीनों के कारण उत्पन्न) कहते
(iv) घातकी जीन (Lethal Genes)-कुछ जीन बाहरी लक्षणों के नियंत्रण के साथ-साथ जीवों की जीवन क्षमता (Viability) को भी प्रभावित करते हैं।
फ्रांसीसी वैज्ञानिक एल. क्यूनोट (L. Cuenot) ने 1905 में चूहे के। शारीरिक रंग की वंशागति के परिणाम प्रस्तुत किये जो मेण्डल के विसंयोजन के नियम के अनुरूप नहीं थे। उन्होंने देखा कि चूहों में पीला लोमचर्म जीन (Y) की उपस्थिति के कारण होता है। यह भूरे रंग (y) पर प्रभावी होता है। जब पीले रंग के चूहों का संकरण परस्पर करवाया जाता है तो पीले व भूरे रंग के चूहे 2 : 1 में प्राप्त होते हैं। इस संकरण से प्राप्त भूरे चूहे समयुग्मजी थे। परन्तु पीले चूहे पूर्व की भाँति विषमयुग्मजी थे। अर्थात समयुग्मजी अवस्था YY में पीले चूहे जीवित नहीं रह पाते तथा Y जीन पीले रंग के लक्षण के साथ-साथ चूहों में जीवन-क्षमता को भी प्रभावित करता है तथा मृत्यु के लिये यह उत्तरदायी होता है। अतः समयुग्मजी अवस्था में Y जीन देह का पीला रंग प्रकट करने के साथ-साथ चूहे की मृत्यु भी हो जाती है। इसलिये पीला समयुग्मजी चूहा कभी दिखाई नहीं देता है।
इस प्रकार के जीन्स (YY) घातक जीन (Lethal genes) कहलाते हैं। और यह घटना घातकता (Lethality) कहलाती है। कुछ घातक जीन केवल समयुग्मजी स्थिति में भी घातक होते हैं और अप्रभावी घातक जीन कहलाते हैं। प्रभावी घातक विषमयुग्मजी स्थिति में भी मृत्युकारक हो सकते हैं।
प्रश्न 3.
मेण्डल की सफलता के कारण बताइये।
उत्तर:
मेण्डल की सफलता के कारण-
- मेण्डल ने जैविक प्रक्रिया की व्याख्या में सांख्यिकीय विश्लेषण व गणितीय तर्को का प्रयोग किया। इससे परिशुद्ध त्रुटि रहित परिणाम प्राप्त करने में मदद मिली।
- उनके प्रयोगों में प्रतिदर्शी (नूमनों) की बड़ी संख्या ने आँकड़ों को विश्वसनीयता प्रदान की।
- मेण्डल ने परीक्षणाधीन पौधों (test plants) को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अध्ययन किया तथा निष्कर्षों की पुष्टि से सिद्ध किया कि उनके द्वारा प्रस्तुत परिणाम वंशागति के सामान्य नियम प्रदर्शित करते हैं, केवल अपुष्ट विचार नहीं हैं।
- मेण्डल की सफलता का कुछ श्रेय उसके द्वारा चुने गये मटर के पौधों को भी जाता है, जिसमें अनेक लक्षणों हेतु विपर्यासी विभेदक/वैकल्पिक रूप उपस्थित थे। मेण्डल का प्रयोग से पहले किया मटर के पौधों का गहन अध्ययन उसकी सफलता का कारण बना।
प्रश्न 4.
अपूर्ण प्रभाविता का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अपूर्ण प्रभाविता (Incomplete Dominance)
वंशागति का वह प्रकार जिसमें किसी विषमयुग्मजी (Heterozygous) अवस्था में एक अलील अपना पूर्ण प्रभाव दिखाने में असमर्थ होता है, अत: दोनों जनकों के बीच का एक नया फीनोटाइप बन जाता है, अपूर्ण प्रभाविता कहलाता है। स्नेपड्रैगन या एंटीराइनम (Antirrhinum) व मिराबिलिस जलापा (Mirabilis jalapa) पौधे इसका अच्छा उदाहरण हैं। इसमें लाल रंग के पुष्प वाले शुद्ध पौधे RR का सफेद पुष्प वाले पौधे rr से संकरण कराने पर F1 में गुलाबी रंग के पुष्प (Rr) वाले पौधे मिलते हैं-
उदाहरण-F2 एक लाल (RR), दो गुलाबी (Rr) तथा एक सफेद अपूर्ण प्रभाविता समिश्र वंशागति (Blending iheritance) का खण्डन करती है क्योंकि गुलाबी पुष्पों में स्वपरागण कराने पर जनक रूप लाल व सफेद भी F2 पीढ़ी में प्राप्त हो जाते हैं। इससे लाल रंग के निर्माण से सम्बन्धित अलील (जीन) के किसी परिवर्तन के कारण इससे बना एंजाइम पूर्णरूपेण सक्षम नहीं होता।
प्रश्न 5.
मेण्डल ने अपने प्रयोगों में मटर को ही क्यों चुना ? समझाइये।
उत्तर:
मेण्डल ने अपने प्रयोग में मटर को इसलिए चुना क्योंकि मटर के पौधे चुनने के निम्न लाभ थे-
- किसी एक लक्षण के लिए विपर्यासी वैकल्पिक रूपों वाली अनेक किस्में उपलबध थी। उदाहरण के लिए बीज के रंग के लक्षण के लिए वैकल्पिक रूप पीला बीज व हरा बीज की किस्में उपलब्ध थीं।
- मटर सामान्यतः स्वपरागित होता है लेकिन इसमें आसानी से पर परागण भी कराया जा सकता है। मटर का स्वपरागित होना इसके पीढ़ी दर पीढ़ी समान लक्षण बनाये रखने के लिए उत्तरदायी है।
- मटर का पौधा एकवर्षीय व आसानी से उगने वाला है।
- संकरण से मिले संकर पूर्णत: उर्वर (Fertile) होते हैं तथा एक पौधे से अनेक बीज प्राप्त होने के कारण परिणामों का विश्लेषण आसान व प्रामाणिक था।
RBSE Class 12 Biology Chapter 35 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मेण्डल ने अपने प्रयोगों में मटर के किन आनुवंशिक लक्षणों की वंशागति का अध्ययन किया, समझाइए।
उत्तर:
मेण्डल ने अपने प्रयोगों में मटर के आनुवंशिक लक्षणों की वंशागति का अध्ययन करने के लिये अपने प्रयोग में लिए गए पौधों की जनकीय पीढ़ी कहा तथा उसे Parant (P) से प्रदर्शित किया। जनक पौधों से प्राप्त प्रथम संतति पीढ़ी को प्रथम संकरण कहते हैं। जिसे F1 से प्रदर्शित करते हैं जो कि स्वनिषेचन से उत्पन्न पौधों को द्वितीय संकरण संतति कहते हैं।
मेण्डल ने अपने प्रयोगों में कारक (Factor) शब्द का प्रयोग किया। वर्तमान में ये कारक ही जीन कहलाते हैं। मेण्डल ने उपरोक्त संकरण विधि द्वारा मटर के विभिन्न 07 विपर्यासी लक्षणों में से एक या अधिक लक्षणों को साथ लेकर निम्न प्रयोग किये तथा आनुवंशिकी के नियमों को प्रतिपादित किया-
1. एक संकर संकरण (Monohybrid cross)
2. द्विसंकर संकरण (Dihybrid cross)
3. बहुसंकर संकरण (Polyhybrid cross)
मेंडल द्वारा चुने गए विभिन्न विपर्यास लक्षण निम्नवत् हैं।
1. एक संकर संकरण (Monohyrid Cross)-मेण्डल ने वंशागति के अध्ययन के लिए विपरीत लक्षणों के एक युग्म (Alleles) के मध्य संकरण करवाया। इस हेतु उसने शुद्ध रूप से लम्बे (Pure tall) व शुद्ध बौने (Pure dwarf) पौधों के मध्य संकरण कराया प्रभावी लक्षण लम्बे (Tall) को T से तथा अप्रभावी लक्षण बौने (Dwarf) को t से प्रदर्शित किया।
इस संकरण से प्राप्त बीजों को उगाने से प्राप्त F1 पीढ़ी में सभी पौधे लम्बे प्राप्त हुए। इस संकरण में मेण्डल ने यह देखा कि F1 पीढ़ी में प्राप्त सभी पौधे अपने लम्बे जनक के समान थे। इनमें से कोई बौना नहीं था। इसी प्रकार के परिणाम अन्य विपर्यासी लक्षणों में संकरण कराने पर प्राप्त हुए। इन प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकला कि F1 पीढ़ी में दोनों विपर्यासी लक्षणों में से केवल एक लक्षण ही प्रकट हो जाता है, दूसरा लक्षण प्रकट नहीं हो पाता है।
इसके बाद F1 पीढ़ी के पौधों में स्व निषेचन कराकर बीज प्राप्त किये, जिसे उसने F1 पीढ़ी कहा। F2 पीढ़ी में लम्बे व बौने दोनों प्रकार के पौधे 3 : 1 के अनुपात को एक संकर लक्षण प्रारूपिक अनुपात कहा जाता है। जब इनके लक्षण प्ररूप देखे तो यह 1 : 2 : 1 (1TT : 2 Tt : 1 tt) का होता है अर्थात् लम्बे पौधों में समयुग्मी TT तथा विषमयुग्मी Tt जीन है। जबकि बौने पौधों में केवल समयुग्मी tt जीन है। इस प्रकार एक संकर का लक्षण प्ररूप अनुपात 3 : 1 तथा जीनी प्ररूप अनुपात 1: 2: 1 होती है।
2. द्विसंकर संकरण (Dihybrid Cross)—जब संकरण दो जोड़ी विपर्यासी लक्षणों वाले पौधों के मध्य करवाया जाता है तो इसे द्विसंकर संकरण कहते हैं। मेण्डल ने दो जोड़ी विपर्यासी लक्षणों जैसे-पीले व गोल समयुग्मी बीज (Yellow & Round ; YYRR) वाले पौधों का हरे तथा झुर्रादार समयुग्मी (Green and Wrinkled ; yyrr) वाले मटर के पौधों से संकरण करवाया। इसमें संकरण करवाने पर F1 पीढ़ी (प्रथम संतानीय पीढ़ी) में सभी पौधे पीले व गोल बीजों (YyRr) वाले उत्पन्न हुए। मटर के पौधे में बीज का पीला रंग बीज के हरे रंग पर तथा गोल बीज की आकृति झुर्रादार पर प्रभावी है F2 पीढ़ी के पौधों से उत्पन्न बीजों को वापस उगाने पर उनमें स्वनिषेचक/स्वपरागण द्वारा F2 पीढ़ी/द्वितीय संतानीय पीढ़ी) में चार प्रकार के पौधे प्राप्त होते हैं, जिनका समलक्षणी अनुपात (Phenotype) 9 : 3 : 3 : 1 प्राप्त हुआ। 9 / 16 में दोनों प्रभावी लक्षण अर्थात्-पीले व गोल बीज 3 / 16 में एक प्रभावी तथा एक अप्रभावी-पीले व झुर्रादार बीज 3 / 16 में एक अप्रभावी तथा दूसरा प्रभावी-हरे व गोल बीज 1 / 16 में दोनों अप्रभावी-हरे व झुदार बीज F2 पीढ़ी का समजीनी अनुपात 1: 2 : 2 : 4 : 1 : 2 : 1 : 2 : 1 आती है।
इस प्रयोग के आधार पर मेण्डल द्वारा स्वतन्त्र अपव्यूहन नियम (Law of Indepedent Assortment) का प्रतिपादन किया गया।
अतः इस प्रकार मेण्डल ने अपने प्रयोगों में मटर के पौधों का आनुवंशिक लक्षणों की वंशागति का अध्ययन अपने प्रयोगों के माध्यम से अच्छी तरह से समझाया है।
प्रश्न 2.
मेण्डल के विभिन्न नियमों को विस्तार से समझाइये।
उत्तर:
मेण्डल ने अपने प्रयोगों तथा उनके द्वारा प्राप्त परिणामों से वंशागति के महत्त्वपूर्ण विभिन्न नियमों का प्रतिपादन किया है जो कि मेण्डल के वंशागति के नियम या विभिन्न नियमों के नाम से जाने जाते हैं।
(i) प्रभाविता का नियम (Law of Dominance)-मेण्डल द्वारा किये गये मटर के एक संकरण प्रयोगों से प्राप्त F1 पीढ़ी में केवल एक प्रकार के एक लक्षण पौधे ही प्राप्त हुये। यदि लम्बे पौधे का बौने पौधे से संकरण करवाया जाये तो केवल लंबे पौधे प्राप्त होते हैं अर्थात् लम्बाई वाले लक्षण ने बौने वाले लक्षण को मटर के पौधे में प्रकट नहीं होने दिया। अत: लम्बाई वाले लक्षण को प्रभावी (Dominant Character) कहा गया। इसी प्रयोग के परिमाण को मेण्डल ने ‘‘प्रभाविता का नियम” कहा।
(ii) युग्मकों की शुद्धता का नियम अथवा विसंयोजन का नियम (Law of Purity of gametes or law of Segregation)—मेण्डल ने अपने एक संकर संकरण के प्रयोगों के परिणाम के आधार पर युग्मकों की शुद्धता का नियम अथवा विसंयोजन का नियम प्रतिपादित किया।
एक संकर संकरण के प्रयोगों में F1 पीढ़ी में एक समान संकर लम्बे पौधे प्राप्त होते हैं जबकि F2 पीढ़ी में स्वनिषेचन के पश्चात् जनक पौधों के समान लम्बे व बौने पौधे प्राप्त होते हैं। F1 पीढ़ी में लम्बे व बौनेपन के कारक एक साथ रहते हुए भी एक-दूसरे के साथ सम्मिश्रित नहीं होते हैं। अर्थात् एक पर दूसरे का प्रभाव नहीं पड़ता है। ये कारक F2 पीढ़ी में एक दूसरे से प्रथक होते हुए 75% लम्बे तथा 25% बौने पौधे बनते हैं। इस प्रकार युग्मक अपनी शुद्धता बनाये रखते हैं। इसे युग्मको की शुद्धता का नियम कहते हैं व युग्मक निर्माण के समय दोनों युग्मविकल्पी (Tt) एक दूसरे से विसंयोजित (Segregate) होकर अलग-अलग युग्मकों में पहुँच जाते हैं। F2 पीढ़ी में अप्रभावी लक्षण बौनापन भी प्रकट हो जाता है। अतः इस प्रकार युग्मकों में प्रभावी तथा अप्रभावी कारकों का विसंयोजन या पृथक् होना मेण्डल का विसंयोजन का नियम कहलाता है।
(iii) स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम (Law of Independent Assortment) : यह नियम द्विसंकर तथा उच्च स्तर के संकरणों पर लागू होता है। एक संकर संकरण पर लागू नहीं होता है। मेण्डल द्वारा किये गये द्विसंकर तथा उच्च संकरण के प्रयोगों में जब दो या दो से अधिक विपर्यासी लक्षणों के मध्य संकरण करवाया जाता है तो प्रथम F1 पीढ़ी में प्रभावी लक्षण वाले संयोग प्राप्त होते हैं परन्तु जब इनमें प्राप्त बीजों को उगाया जाता है एवं उनमें स्वनिषेचन करवाया जाता है तो वे एक-दूसरे से प्रभावित हुए बिना, स्वतन्त्र रूप से संतति में प्रकट होते हैं। अर्थात् एक लक्षण की वंशागति को दूसरे लक्षण की उपस्थिति से किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता है इसी को स्वतन्त्र अपव्यूहन को नियम कहते हैं।
प्रश्न 3.
मेण्डल के नियमों के विचलन को समझाइए।
उत्तर:
मेण्डल के नियमों के विचलन के अन्तर्गत निम्न नियम महत्त्वपूर्ण हैं जो कि विचलन नियम को प्रदर्शित करते हैं जैसे-
(i) अपूर्ण प्रभाविता (Incomplete Dominance)
दो विपरीत (तुलनात्मक) लक्षणों वाले कुछ पौधों में संकरण कराने पर F1 पीढ़ी में मध्यवर्ती लक्षण प्रकट होता है अर्थात् दो विपरीत लक्षणों में से कोई भी पूर्णतया प्रभावी लक्षण (dominant character) नहीं होता। दोनों लक्षण स्वयं को प्रदर्शित करते हैं। इस विशिष्टता को अपूर्ण प्रभाविता कहते हैं।
जब गुलाबाँस (4 O’clock या Mirabilas jalapa) के लाल पुष्प वाले पौधे तथा सफेद पुष्प वाले पौधे के मध्य संकरण कराया गया, तब F1 पीढ़ी में गुलाबी पुष्प वाले पौधे उत्पन्न हुए। जब F1 पीढ़ी के पादपों में स्वपरागण कराया जाता है, तब F2 पीढ़ी में लाल, गुलाबी व सफेद पुष्प वाले पौधे 1 : 2 : 1 के अनुपात में प्राप्त होते हैं। अपूर्ण प्रभाविता में F2 पीढ़ी का जीनोटाइप तथा फीनोटाइप अनुपात 1 : 2 : 1 होता है।
(ii) सहप्रभाविता (Co-dominance)
कुछ प्रयोगों में यह देखा गया कि दो विपरीत लक्षणों के संकरण के पश्चात् F1 पीढ़ी में दोनों ही लक्षण अपने आपको प्रकट करते हैं। इसे सहप्रभाविता कहते हैं।
अतः कह सकते हैं कि सहप्रभाविता में एक युग्मविकल्पी जोड़ों में विद्यमान दोनों प्रभावी एवं अप्रभावी कारक Fi पीढ़ी में लक्षण को प्रकट करने में समान रूप से योगदान करते हैं। इस प्रक्रिया को सह प्रभाविता कहते हैं।
इस प्रकार में युग्मविकल्पी (Allele) जोड़े के जीन एक-दूसरे के। लिए प्रभावी या अप्रभावी न होकर F1 संकरों में दोनों लक्षणों को समान रूप से अभिव्यक्त करते हैं। अतः सह-प्रभावी जीन वाले विषय युग्मजी में दोनों जीन लगभग साथ-साथ प्रकट होते हैं। ये पृथक्करण के नियम का पालन करते हैं और F2 पीढ़ी में समजीनी व समलक्षणी के रूप में 1 : 2 : 1 के अनुपात में होते हैं।
(iii) बहुविकल्पी ऐलील (Multiple alleles)
सामान्य एक जीन के दो प्ररूप होते हैं जैसे लंबा या छोटा (बौना), लाल या सफेद, भूरी आँखें या नीली आँखें आदि। ये जीन युग्मविकल्पी (Allele) भाग के दो प्रकार हैं। परन्तु अधिकांश जीन के दो से अधिक प्रकार के ऐलील होते हैं इन्हें बहुयुग्मविकल्पी (Multiple Allele) कहते हैं। इसका उदाहरण मानव में रक्त समूह की वंशागति होता है।
मनुष्य में चार रक्त समूहों का एक एकल जीन द्वारा निर्धारण किया जाता है। इस एक जीन के तीन एलीज्स IA, IB, और i होते हैं। समूह के ऐलील IA व IB दोनों प्रभावी है। अतः IA व IB अलील दोनों से युक्त रक्त समूह AB होता है क्योंकि IA व IB दोनों समूह सह प्रभावी होते हैं। जीन IO जब समयुग्मजी होता है तो रक्त समूह O होता है मानव रक्त समूहों के जीनोटाइप व फीनोटाइप नीचे चित्र द्वारा बताये गये हैं-
(iv) बहुप्रभाविता (Pleiotropy)—सामान्यतया कोशिकीय स्तर पर एक जीन का प्रभाव एक प्रकार से हो सकता है। यह एक जीन एक कार्य के लिये निर्धारित होता है किन्तु कुछ जीन एक से अधिक लक्षणों पर अपना प्रभाव दर्शाते हैं तो वह प्रभाव बहुप्रभाविता कहलाता है। इसके लिये बहुप्रभावी जीन निर्धारित रहते हैं।
अतः ऐसे जीन जो एक से अधिक लक्षणों अथवा विशेषकों को निर्धारित करते हैं, उन्हें बहुप्रभावी जीन कहते हैं। एक जीन के कई ऐलील हो सकते हैं और बहुत से जीनोटाइप हो सकते हैं। एक जीन कई जीनोटाइप को नियंत्रित कर सकता है। उदाहरण-ड्रोसोफिला में सफेद आँख के लिये अप्रभावी जीन समयुग्मजी स्थिति में विद्यमान होने पर कई और लक्षणों को प्रभावित करता है जैसेः पंखों की आकृति, उदर की आकृति। अतः सफेद आँख वाले ड्रोसोफिला में अवशेषी पंख और उदर कुंडलित पाये जाते हैं।
बहु प्रभाविता का एक अन्य महत्त्वपूर्ण उदाहरण वंशागत रोग, सिकल सेल एनीमिया (Sickel-cell anaemia) की वंशागति में मिलता है। यह रोग एक अप्रभावी जीन के कारण होता है।