1857 का विद्रोह : प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम | Revolt of 1857
1857 का विद्रोह : प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम | Revolt of 1857
1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नाम से भी जाना जाता है ब्रितानी शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों और आगजनी से हुआ था और आगे चलकर इसने एक बड़ा रूप ले लिया। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की बढ़ती उपनिवेशवादी नीतियों एवं शोषण के खिलाफ इस आंदोलन ने अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी।
1857 की क्रान्ति का नामकरण (Nomenclature for this revolt)
1857 की क्रान्ति को इतिहास में कई नाम मिले. किसी ने इसे “1857 का विद्रोह ” कहा किसी ने “1857 का ग़दर”. अंग्रेजों ने जहाँ इसे सैन्य विद्रोह कहां वही सावरकर ने इसे 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया. अंग्रेजों का उद्देश्य भारतीयों में हो रही जन-जाग्रति को दबाना था,इसलिए उन्होंने माना कि ये कुछ सिपाहियों के विद्रोह था,जबकि कार्ल मैक्स पहले अंग्रेज थे जिन्होंने इसे राष्ट्रीय क्रान्ति कहां. वीर सावरकर ने 1909 में 1857 का स्वातंत्र्य समर नाम की किताब लिखी,ये किताब मराठी में थी,लेकिन इसके हिंदी,अंग्रेजी और विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुए जिससे कि कई स्वतन्त्रता-सेनानियों को प्रेरणा मिली. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मानने पर जोर दिया. वास्तव में स्वतंत्रता के बाद 1857 की क्रान्ति पर इतिहासविदों ने शोध करके विभिन्न मत दिए,जिनमें कुछ ने इसे भारतीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम नही माना. इन लोगों ने इस पर किताबें लिखी,
लेखक | किताब का नाम | वर्ष |
आरसी मजुमदार | सैन्य विद्रोह और 1857 की क्रान्ति | 1957 |
एसबी चौधरी | सिविल रिवोल्ट इन दी इंडियन म्युटिनीज1857-59 | 1957 |
एसबी चौधरी | थ्योरीज ऑफ़ दी इंडियन म्युनिटी | 1965 |
एस एन सेन | एटिन फिफ्टीसेवेन | 1957 |
केके दत्ता | रिफ्लेक्शन ऑन दी म्युटिनी | 1967 |
कुछ साउथ इंडियन इतिहासविदों ने भी इसे स्वतंत्रता का पहला संग्राम से मानने से इनकार किया और इस मामले को कोर्ट तक लेकर गए. उनका मानना था कि1806 में वेल्लोर में विद्रोह के बाद 1857 की क्रान्ति हुयी थी,इसलिए इसे पहला संग्राम नहीं माना जा सकता. 2007 मे कुछ सिख ग्रुप्स ने भी कहा कि 1845-46 में हुआ एंग्लो-सिख युद्ध प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हैं.
विभिन्न इतिहासकारों ने 1857 की क्रांति के स्वरूप में अलग अलग विचार प्रस्तुत किए हैं कुछ इतिहासकार इसे केवल एक ‘ सैनिक विद्रोह ‘ मानते हैं तो कुछ इसे ईसाईयों के विरुद्ध हिन्दू मुस्लिम का षड्यंत्र मानते हैं। इस क्रांति के बारे में विभिन्न विद्वानों के मत निम्न हैं –
1) सर जॉन लारेन्स एवं सीले – ‘1857 का विद्रोह सिपाही विद्रोह मात्र था ।’
2) आर . सी मजूमदार – ‘ यह न तो प्रथम था, न ही राष्ट्रीय था और यह स्वतंत्रता के लिए संग्राम भी नही था ।’
3) वीर सावरकर – ‘ यह विद्रोह राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए सुनियोजित युद्ध था ।’
4) जेम्स आउट्म एंव डब्ल्यू. टेलर – ‘ यह अंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दू एंव मुसलमानो का षडयंत्र था ।’
5) एल . आर. रीज – ‘ यह धर्मान्धों का ईसाईयों के विरुद्ध षडयंत्र था ।’
6) विपिनचंद्र – ‘ 1867 का विद्रोह विदेशी शासन से राष्ट्र को मुक्त कराने का देशभक्तिपूर्ण प्रयास था ।’
1857 के विद्रोह के प्रमुख कारण
“सन् 1857 का विप्लव भारत-भूमि पर ब्रितानी राज्य के इतिहास की सबसे अधिक रोमांचकारी और महत्वपूर्ण घटना थी। ” 1857 का विद्रोह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, अपितु यह अनेक कारणों का परिणाम थी, जो इस प्रकार थे-
1) राजनीतिक कारण
2) आर्थिक कारण
3) धार्मिक कारण
4 )सैनिक असन्तोष
5 )तात्कालिक कारण
1) राजनीतिक कारण
डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति : लार्ड डलहौजी (1848-56 ई.) ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करने के लिए विभिन्न अन्यायपूर्ण तरीके अपनाए। अतः देशी रियासतों एवं नवाबों में कंपनी के विरूद्ध गहरा असंतोष फैला। डलहौज़ी ने पंजाब, पीगू एवं सिक्किम के प्रति युद्ध कि नीति अपना कर उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने लैप्स के सिद्धांत को अपनाया। इस सिद्धांत का तात्पर्य है, ” जो देशी रियासतें कंपनी के अधीन हैं, उनको अपने उत्तराधिकारियों के बारे में ब्रिटिश सरकार के मान्यता व स्वीकृति लेनी होगी। यदि रियासतें ऐसा नहीं करेंगी, तो ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकारियों को अपनी रियासतों का वैद्य शासक नहीं मानेंगी। ” इस नीति के आधार पर डलहौजी ने निःसन्तान राजाओं के गोन लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इस आधार पर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बाघट, उदयपुर, झाँसी, नागपुर आदि रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाते हुए 1856 ई. में अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया।
कुलीनवर्गीय भारतीय तथा ज़मींदारों के साथ अंग्रेज़ों ने बुरा व्यवहार किया और उन्हें मिले समस्त विशेषाधिकारों को कम्पनी की सत्ता ने छीन लिया। ऐसी परिस्थिति में इस वर्ग के लोगों के असन्तोष का सामना भी ब्रिटिश सत्ता को करना पड़ा। भारतीय सरकारी कर्मचारियों ने अंग्रेज़ों द्वारा सरकारी नौकरियों में अपनायी जाने वाली भेदभावपूर्ण नीति का विरोध करते हुए विद्रोह में सिरकत की। कुल मिलाकर भारतीय जनता अंग्रेज़ों के बर्बर प्रशासन से तंग आकर उनकी दासता से मुक्त होना चाहती थी, इसलिए 1857 की क्रांति हुई।
2) आर्थिक कारण
1857 ई. की क्रान्ति के लिए ज़िम्मेदार आर्थिक कारण इस प्रकार हैं- भारतीयों के धन का निष्कासन तीव्र गति से इंग्लैण्ड की ओर हुआ। मुक्त व्यापार तथा अंग्रेज़ी वस्त्रों के भारत के बाज़ारों में अधिक मात्रा में आ जाने के कारण उसका प्रत्यक्ष प्रभाव यहाँ के कुटीर उद्योगों पर पड़ा, जिस कारण से यहाँ के कुटीर एवं लघु उद्योग नष्ट हो गये। लाखों व्यक्ति बेरोज़गार हो गए। 1834-1835 ई. में स्वयं गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने लिखा था कि, ‘व्यापार के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा कष्टप्रद उदाहरण नहीं। भारत का मैदान सूती कपड़ा बुनने वालों के अस्थि पंजरों से भरा हुआ है’। लॉर्ड विलियम बैंटिक ने अपने शासनकाल में बहुत-सी ‘माफी’ (दान की हुई भूमि) तथा ‘इनाम की भूमि’ को छीन लिया, जिसका प्रभाव यह हुआ कि, अनेक भारतीय ज़मींदार दरिद्र एवं कंगाल हो गए और इस तरह इन ज़मींदारों में अंग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ़ असन्तोष व्याप्त हो गया। कृषि के क्षेत्र में अंग्रेज़ों की ग़लत नीति के कारण भारतीय किसानों की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित स्थाई बंदोबस्त, रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के लिए प्रतिकूल साबित हुआ।
3) धार्मिक कारण
कहने के लिए तो ब्रिटिश सत्ता धर्म के मामले में तटस्थ थी, पर उसने ईसाई धर्म के प्रचार में अपना पूर्ण सहयोग दिया। ईसाई मिशनरियों का दृष्टिकोण भारत के प्रति बड़ा तिरस्कारपूर्ण था। उसका एक मात्र उद्देश्य भारत में अपनी सर्वोच्चता प्रदर्शित करना था। अंग्रेज़ अपनी नीति के अनुसार अधिकांश भारतीयों को ईसाई बनाकर भारत में अपने साम्राज्य को सुदृढ़ करना चाहते थे। यह तथ्य कम्पनी के अध्यक्ष ‘मैगल्ज’ के ‘हाउस ऑफ़ कॉमन्स’ में दिये गये एक भाषण से स्पष्ट होता है। उसने कहा था कि, “देवयोग से भारत का विस्तृत साम्राज्य ब्रिटेन को मिला है, ताकि ईसाई धर्म की पताका एक छोर से दूसरे छोर तक फहरा सके। प्रत्येक व्यक्ति को शीघ्र-अतिशीघ्र समस्त भारतीयों को ईसाई बनाने के महान कार्य को पूर्णतया सम्पन्न करने में अपनी समस्त शक्ति लगा देनी चहिए।” वे ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों को सरकारी नौकरी, उच्च पद एवं अनेक सुविधाएँ प्रदान करते थे। 1813 ई के कम्पनी के आदेश पत्र द्वारा ईसाई पादरियों को आज्ञा प्राप्त करके भारत आने की सुविधा प्राप्त हो गयी। परिणामतः बड़ी संख्या में ईसाई पादरी भारत आए, जिनका मुख्य उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना था। परिणामतः 1850 ई. में पास किये गये ‘धार्मिक नियोग्यता अधिनियम’ द्वारा हिन्दू रीति-रिवाजों में परिवर्तन लाया गया, अर्थात धार्मिक परिवर्तन से पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता था। इस क़ानून का मुख्य लाभ ईसाई बनने वालों का था। अंग्रेज़ों की इस नीति ने हिन्दू और मुसलमान दोनों में कम्पनी के प्रति संदेह उत्पन्न कर दिया।
4) सैनिक असन्तोष
1857 ई. की क्रान्ति में सैन्य असन्तोष की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। सेना में प्रथम धार्मिक विरोध 1806 ई. में वेल्लोर में तब हुआ था, जब लॉर्ड विलियम बैंटिक द्वारा माथे पर तिलक लगाने और पकड़ी पहनने पर रोक लगायी गई। लॉर्ड डलहौज़ी के समय सैनिक विद्रोह हो चुके थे। 1849 ई. में 22वें एन. आई का विद्रोह, 1850 ई. में 66वें एन.आई. का विद्रोह और 1852 ई. में 38 वें एन.आई. का विद्रोह प्रमुख थे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के अनुसार, “अवध के विलय ने सेना में साधारणतः और बंगाल सेना में विशेषतः विद्रोही भावना का संचार किया”। 1824 ई. में बैरकपुर में सैनिकों ने समुद्र पार जाने से इनकार कर दिया, जिसके कारण बर्मा रेजीमेण्ट को भंग कर दिया गया था। 1857 ई. में लॉर्ड कैनिंग द्वारा पारित ‘सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम’ के अंतर्गत सैनिकों को सरकार जहाँ चाहे वहीं कार्य करवा सकती थी। 1854 ई. के ‘डाकघर अधिनियम’ में सैनिकों की निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त हो गयी। सैन्य असंतोष के इसी वातावरण में चर्बीयुक्त एनफ़ील्ड राइफ़लों के प्रयोग के आदेश ने आग में घी का कार्य किया और ये सैनिकों के विद्रोह के के लिए तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ। के लिए तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ।
मंगल पाण्डे
29 मार्च, 1857 ई. को मंगल पाण्डे नामक एक सैनिक ने ‘बैरकपुर छावनी’ में अपने अफ़सरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और साथ ही उसकी बटालियम ’34 एन.आई.’ को भंग कर दिया। 24 अप्रैल को 3 एल.सी. परेड मेरठ में 90 घुड़सवारों में से 85 सैनिकों ने नये कारतूस लेने से इंकार कर दिया। आज्ञा की अवहेलना के कारण इन 85 घुडसवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 5 वर्ष का कारावास दिया गया। ‘खुला विद्रोह’ 10 मई, दिन रविवार को सांयकाल 5 व 6 बजे के मध्य प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम पैदल टुकड़ी ’20 एन.आई.’ में विद्रोह की शुरुआत हुई, तत्पश्चात् ‘3 एल.सी.’ में भी विद्रोह फैल गया। इन विद्रोहियों ने अपने अधिकारियों के ऊपर गोलियाँ चलाई। मंगल पाण्डे ने ‘हियरसे’ को गोली मारी थी, जबकि ‘अफ़सर बाग’ की हत्या कर दी गई थी।
विद्रोह का प्रसार
11 मई को मेरठ के क्रान्तिकारी सैनिकों ने दिल्ली पहुँचकर, 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इन सैनिकों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। शीघ्र ही विद्रोह लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बरेली, बनारस, बिहार तथा झांसी में भी फैल गया। अंग्रेज़ों ने पंजाब से सेना बुलाकर सबसे पहले दिल्ली पर अधिकार किया। 21 सितम्बर, 1857 ई. को दिल्ली पर अंग्रेज़ों ने पुनः अधिकार कर लिया, परन्तु संघर्ष में ‘जॉन निकोलसन’ मारा गया और लेफ्टिनेंट ‘हडसन’ ने धोखे से बहादुरशाह द्वितीय के दो पुत्रों ‘मिर्ज़ा मुग़ल’ और ‘मिर्ज़ा ख्वाज़ा सुल्तान’ एवं एक पोते ‘मिर्ज़ा अबूबक्र’ को गोली मरवा दी। लखनऊ में विद्रोह की शुरुआत 4 जून, 1857 ई. को हुई। यहाँ के क्रान्तिकारी सैनिकों द्वारा ब्रिटिश रेजीडेन्सी के घेराव के उपरान्त ब्रिटिश रेजिडेंट ‘हेनरी लॉरेन्स’ की मृत्यु हो गई। हैवलॉक और आउट्रम ने लखनऊ को दबाने का भरकस प्रयत्न किया, परन्तु वे असफल रहे। अन्ततः कॉलिन कैम्पवेल’ ने गोरखा रेजिमेंट के सहयोग से मार्च, 1858 ई. में शहर पर अधिकार कर लिया। वैसे यहाँ क्रान्ति का प्रभाव सितम्बर तक रहा।
5 जून, 1857 ई. को क्रान्तिकारियों ने कानपुर को अंग्रेज़ों से छीन लिया। नाना साहब को पेशवा घोषित किया गया, जिनका वास्तविक नाम ‘धोंदू पन्त’ था। तात्या टोपे ने इनका सहयोग किया। यहाँ पर विद्रोह का प्रभाव 6 सितम्बर तक ही रहा। कॉलिन कैम्पवेल के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना ने 6 सितम्बर, 1857 ई. को कानपुर को पुनः अपने क़ब्ज़े में कर लिया। तात्या टोपे कानपुर से फरार होकर झांसी पहुँच गये। रानी लक्ष्मीबाई, जो गंगाधर राव की विधवा थीं, वे भी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को झांसी की गद्दी न दिए जाने के कारण अंग्रेज़ों से नाराज़ थीं। तात्या टोपे के सहयोग से रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाये। इन दोनों ने ग्वालियर पर भी क्रान्ति का झण्डा फहराया और वहाँ के तत्कालीन शासक सिंधिया द्वारा विद्रोह में भाग लेने पर रानी ने नाना साहब को पेशवा घोषित किया, परन्तु शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने जून, 1858 ई. में ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। झांसी पर अंग्रेज़ी सेना ने ह्यूरोज के नेतृत्व में 3 अप्रैल, 1858 ई. को अधिकार कर लिया। ह्यूरोज ने रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर कहा कि, भारतीय क्रांतिकारियों में यह अकेली मर्द है। बरेली में ‘ख़ान बहादुर ख़ाँ’ ने स्वयं को नवाब घोषित किया। बिहार में जगदीशपुर के ज़मींदार ‘कुंअर सिंह’ ने बिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ विद्रोह का झण्डा फहराया। बनारस में हुए विद्रोह को कर्नल नील ने दबाया। जगदीशपुर के विद्रोह को अंग्रेज़ अधिकारी विलियम टेलर एवं मेजर विंसेट आयर ने दबाया।
बहादुरशाह ज़फ़र की गिरफ्तारी
जुलाई, 1858 ई. तक क्रान्ति के सभी स्थानों पर विद्रोह को दबा दिया गया। रानी लक्ष्मीबाई एवं तात्या टोपे ने विद्रोह में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इलाहाबाद की कमान ‘मौलवी लियाकत अली’ ने सम्भाली थी। कर्नल नील ने यहाँ के विद्रोह को समाप्त कर दिया। 20 सितम्बर, 1857 ई. को हुमायुँ के मक़बरे में शरण लिए हुए बहादुरशाह द्वितीय को पकड़ लिया गया। उन पर मुकदमा चला तथा उन्हें बर्मा (रंगून) निर्वासित कर दिया गया।
5) तात्कालिक कारण
इस क्रांति का सबसे प्रमुख एवं तात्कालिक कारण एनफील्ड रायफल ( Enfield Rifle ) के कारतूसों में चर्बी का प्रयोग होना था। इस राइफल के कारतूसों में गाय एवं सूअर की चर्बी का प्रयोग किया जाता था जिसे मुह से काटने के बाद प्रयोग किया जाता था इससे भारतीयों का धर्म भ्रष्ट हो सकता था। बैरकपुर छावनी से मंगल पांडे ने इसका विरोध किया जो धीरे धीरे पूरे देश में क्रांति के रुप में फैल गई।
क्रांति के असफल होने के कारण(Causes of the failure in 1857 revolution)
1857 की क्रान्ति सफल ना हो सकी, लेकिन इसने भारतीय जन-मानस पर काफी प्रभाव छोड़ा,जिसका परिणाम देश ने 100 वर्ष उपरान्त स्वतन्त्रता के पहले संग्राम के रूप में देखा. इसकी असफलता के कई कारण रहे-
- इस क्रान्ति के लिए कोई प्लानिंग नहीं थी ना कोई संगठन था. अलग-अलग जगहों पर होने के कारण भी इस क्रान्ति को दिशा नहीं मिल सकी,साथ ही हर जगह होने वाली क्रांति का समय भी अलग था. जिससे किसी भी इलाके में क्रान्ति की चिंगारी सुलगते ही अंग्रेज सतर्क हो जाते थे,और वो इसके दमन के लिए तैयार रहने लगे थे.
- हर नेता का एजेंडा अलग था, हालांकि सभी नेता अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ थे,लेकिन उनके एक साथ संगठित होकर क्रान्ति नहीं करने से वो अंग्रेजों के सामने कमजोर थे.
- बहुत सारी जगहों पर सामान्य-जन क्रान्ति की क्रूरता और इसके परिणामों से डरे हुए थे, क्योंकि इससे पहले भारतियों ने सत्ता के विरुद्ध कोई ऐसा सीधा युद्ध नही देखा था,जो समाज के बीच में से निकलकर आये.
- क्रांतिकारी जहाँ अपने पुराने हथियारों जैसे तलवार,तीर-कमान से लड़ रहे थे वही अंग्रेजों के पास अत्याधुनिक हथियार थे, जिससे उनके जीत की सम्भावना बढ़ गयी थी.
- कश्मीर,राजस्थान और पटियाला के शासक भी अंग्रेजों के साथ थे,जिससे क्रांतिकारीयों की शक्ति कम हो गयी थी. बड़े जमींदार और शाही घराने अंग्रेजों के साथ थे. इनके अलावा शिक्षित मिडील और अपर क्लास के लोग भी अंग्रेजों के पक्ष में थे,जिन्होंने क्रांतिक्रारीयों की बातों को अंध-विशवास और समाज की प्रगति के विरुद्ध घोषित कर दिया था.
- ये क्रान्ति भारत के कुछ हिस्सों मे ही हुई थी जिसमे भी विशेष उत्तर-पश्चिम भारत था,इसमें दक्षिण और पूर्वी भारत के इलाके जैसे मद्रास,बॉम्बे,बंगाल के अलावा पश्चिमी पंजाब भी इस क्रान्ति से अछुता रहा था.
विद्रोह के परिणाम
1857 ई. की इस महान क्रान्ति के विद्रोह के दूरगामी परिणाम रहे, जो निम्नलिखित हैं-
1) विद्रोह के समाप्त होने के बाद 1858 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अस्तित्व को समाप्त कर दिया, और अब भारत पर शासन का पूरा अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया। इंग्लैण्ड में 1858 ई. के अधिनियम के तहत एक ‘भारतीय राज्य सचिव’ की व्यवस्था की गयी, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक ‘मंत्रणा परिषद्’ बनाई गयी। इन 15 सदस्यों में 8 की नियुक्ति सरकार द्वारा करने तथा 7 की ‘कोर्ट ऑफ़ हाइरेक्टर्स’ द्वारा चुनने की व्यवस्था की गई।
2) स्थानीय लोगों को उनके गौरव एवं अधिकारों को पुनः वापस करने की बात कही गई। भारतीय नरेशों को महारानी विक्टोरिया ने अपनी ओर से समस्त संधियों के पालन करने का आश्वासन दिया, लेकिन साथ ही नरेशों से भी उसी प्रकार के पालन की आशा की। अपने राज्य क्षेत्र के विस्तार की अनिच्छा की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उन्होंने अपने राज्य क्षेत्र अथवा अधिकारों का अतिक्रमण सहन न करने तथा दूसरों पर अतिक्रमण न करने की बात कही, और साथ ही धार्मिक शोषण खत्म करने एवं सेवाओं में बिना भेदभाव के नियुक्ति की बात की गयी।
3) सैन्य पुनर्गठन के आधार पर यूरोपीय सैनिकों की संख्या को बढ़ाया गया। उच्च सैनिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति को बंद कर दिया गया। तोपखाने पर पूर्णरूप से अंग्रेज़ी सेना का अधिकार हो गया। अब बंगाल प्रेसीडेन्सी के लिए सेना में भारतीय और अंग्रेज़ सैनिकों का अनुपात 2:1 का हो गया, जबकि मद्रास और बम्बई प्रसीडेन्सियों में यह अनुपात 3:1 का हो गया। उच्च जाति के लोगों में से सैनिकों की भर्ती बन्द कर दी गयी।
4) 1858 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत ही भारत में गवर्नर-जनरल के पदनाम में परिवर्ततन कर उसे ‘वायसराय’ का पदनाम दिया गया।
5) क्रान्ति के विद्रोह के फलस्वरूप सामन्तवादी ढाँचा चरमरा गया। आम भारतीयों में सामन्तवादियों की छवि गद्दारों की हो गई, क्योंकि इस वर्ग ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों को सहयोग दिया था।
6) विद्रोह के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास हुआ और हिन्दू-मुस्लिम एकता ने ज़ोर पकड़ना शुरू किया, जिसका कालान्तर में राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
7) 1857 ई. की क्रान्ति के बाद साम्राज्य विस्तार की नीति का तो ख़ात्मा हो गया, परन्तु इसके स्थान पर अब आर्थिक शोषण के युग का आरम्भ हुआ।
8) भारतीयों के प्रशासन में प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में
9) अल्प प्रयास के अन्तर्गत 1861 ई. में ‘भारतीय परिषद् अधिनियम’ को पारित किया गया।
10) इसके अतिरिक्त ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में कमी, श्वेत जाति की उच्चता के सिद्धान्त का प्रतिपादन और मुग़ल साम्राज्य के अस्तित्व का ख़त्म होना आदि 1857 ई. के विद्रोह के अन्य परिणाम थे।
क्रान्ति की जगह और नेता (Centres/Places where the revolt took place and leaders)
1857 की क्रान्ति का प्रभाव पटना से लेकर राजस्थान तक फैला था. इस समय कानपूर, लखनऊ, बरेली, झाँसी, ग्वालियर और बिहार के कुछ जिले मुख्य रूप से इसमें शामिल थे जहाँ विद्रोह ज्यादा था. क्रान्ति भले सब जगह एक साथ और एक ही समय में ना हुई हो,लेकिन अंग्रेजों को अलग-अलग जगह पर विभिन्न स्वतंत्रता सेनानियों के नेतृत्व में कई छोटे-बड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा ,जिसका ब्रिटिश हुकुमत पर गहरा प्रभाव पड़ा.
- दिल्ली– यहाँ पर मुगल शासक बहादुर शाह जफर के साथ जनरल बख्त खान ने क्रान्ति कि अगुआई की,वो बरेली की फ़ौज को दिल्ली लेकर आये थे.
- लखनऊ– ये जगह तब अवध की राजधानी हुआ करती थी. यहाँ पर अवध के पूर्व राजा कि पत्नी बेगम हजरत महल ने क्रान्ति की अगुआई करी. बेगम के पुत्र बिरजिस कादिर को नवाब घोषित किया गया और उनके नेतृत्व में हिन्दू-मुस्लिम को एक समान महत्वपूर्ण पद दिए गये थे. अवध की पुरानी सेना के बिखरने के कारण कुछ विद्रोही सैनिक भी इस सेना में भर्ती हुए,और अंग्रेजों से युद्ध किया. आखिर में लखनऊ पर ब्रिटिश सेना ने कब्ज़ा कर लिया,और रानी नेपाल भाग गई.
- कानपुर – यहाँ से क्रान्ति का नेतृत्व पेशवा बाजीराव द्वितीय नाना साहेब कर रहे थे,उन्होंने क्रान्ति का साथ इसलिए दिया था क्युकी उनकी पेंशन ब्रिटिश सरकार ने बंद कर दी थी. उन्होंने कानपुर पर कब्जा कर लिया और खुद को पेशवा घोषित कर दिया. हालांकि उनकी यह विजय बहुत कम दिन तक बनी रही,और जल्द ही कानपूर पर ब्रिटिशर्स ने वापिस कब्ज़ा कर लिया. क्रान्ति को अंग्रेजों ने क्रुरतापूर्वक दबा दिया. नाना साहेब तो बचकर भाग निकले लेकिन उनके सेनापती तात्या टोपे ने जंग ज़ारी रखी और आखिर में वो ब्रिटिशर्स से लड़ते हुए शाहिद हुए.
- झांसी – यहाँ पर झाँसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर की मृत्यु हो जाने के कारण रानी लक्ष्मीबाई ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया,क्योंकि अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को राजा मानने से मना कर दिया था. उन्होंने अंग्रेजो से युद्ध किया जिसमे तात्या टोपे ने उनका साथ दिया. उन दोनों ने मिलकर ग्वालियर जीत लिया था. हालांकि बाद में अंग्रेजों ने ग्वालियर को वापिस जीत लिया था.लक्ष्मीबाई भी युद्ध करते हुए शहीद हुई थी.
- बिहार में 70 वर्षीय कुंवर सिंह ने क्रान्ति का नेतृत्व किया था. वो जगदीशपुर के जमींदार थे, और वें अंग्रेजों से उनका राज्य छीनने के कारण खफा थे.
- फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह भी क्रान्ति के नेता थे, मई 1857 में अवध की क्रांति के समय उनका नाम सामने आया था.
- बरेली के खान बहादुर अंग्रेजों द्वारा दी जाने वाली पेंशन से संतुष्ट नहीं थे,उन्होंने 40,000 की सेना के साथ अंग्रेजों का सामना किया.
- बैरकपुर : मंगल पांडे ब्रिटिश शासनकाल में एक सैनिक थे. 1857 की क्रांति की शुरुआत का श्रेय भी उन्हें ही जाता हैं. भारत में उस समय नयी एनफील्ड राइफल का उपयोग शुरू हुआ था. ये अफवाह थी कि इसमें गाय और सूअर की चर्बी का उपयोग किया गया हैं,इसलिए इससे हिन्दू और मुस्लिम धर्मो की भावनाएं आहात हो गयी. मंगल पण्डे जो कि एक कट्टर ब्राह्मिण थे,उन्होंने इसके उपयोग से ना केवल मना कर दिया बल्कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक्शन लेने की भी सोची. कलकत्ता के नजदीक बैरकपुर में 29 मार्च 2857 के दिन दोपहर में इन्होंने ब्रिटिश सार्जेंट और उनके सहायक को घायल कर दिया. पांडे के साथी सैनिकों ने भी इसमें उनका साथ दिया,इस कारण मंगल पांडे को मृत्यु दंड दिया गया.