UK 10TH HINDI

UK Board 10 Class Hindi – (व्याकरण) – कारक

UK Board 10 Class Hindi – (व्याकरण) – कारक

UK Board Solutions for Class 10th Hindi – (संस्कृत व्याकरण और अनुवाद) – कारक

कारक का अर्थ और परिभाषा
अर्थ — ‘कारक’ शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार ‘कृ’ धातु से ‘ण्वुल्’ प्रत्यय करके ‘कारक’ शब्द निष्पन्न होता है, जिसका शाब्दिक अर्थ करनेवाला होता है, किन्तु व्याकरण के अन्तर्गत यह व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। व्याकरण में यह ‘सम्बन्ध’ का द्योतक है।
वाक्य में संज्ञा अथवा सर्वनाम की क्रिया पर जो निर्भरता है, अथात् उनमें क्रिया के साथ समन्वय की जो व्यवस्था है, उसे ‘सम्बन्ध’ कहते हैं।
कारक की परिभाषा – ‘साक्षात् क्रियान्वयित्वं कारकत्वम्’ अर्थात् क्रिया से साक्षात् (सीधा ) सम्बन्ध रखनेवाले विभक्तियुक्त पदों को ‘कारक’ कहते हैं।” जिन शब्दों का क्रिया से सीधा सम्बन्ध नहीं होता, वे ‘कारक’ नहीं कहलाते; यथा— ‘सोमदत्तः यज्ञदत्तस्य पुस्तकं पठति’ (सोमदत्त यज्ञदत्त की पुस्तक पढ़ता है) । यहाँ सोमदत्त पाठक है और पुस्तक पढ़ी जाती है; अतः दोनों कारक हैं, किन्तु यज्ञदत्त का पठन क्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं है, उसका सम्बन्ध पुस्तक से है; अतः ‘यज्ञदत्त’ कारक नहीं है। इस प्रकार ‘सम्बन्ध’ (षष्ठी विभक्ति के सन्दर्भ में) को कारक नहीं कह सकते।
कारक के प्रकार
हिन्दी में आठ कारक माने गए हैं – (1) कर्त्ता, (2) कर्म, (3) करण, (4) सम्प्रदान, (5) अपादान, (6) सम्बन्ध, (7) अधिकरण, (8) सम्बोधन। लेकिन संस्कृत के विद्वान् ‘सम्बन्ध’ और ‘सम्बोधन’ को कारक की परिभाषा के अनुसार क्रिया से सम्बन्ध न होने के कारण कारक नहीं मानते, वे छह ही कारक मानते हैं। कहा भी गया है-
कर्त्ता, कर्म च करणं सम्प्रदानं तथैव च।
अपादानमधिकरणं चेत्याहु कारकाणि षट् ॥
विभक्ति प्रयोग
विभक्ति – सभी शब्दों के अन्त में ‘सु’, ‘औ’, ‘जस्’ आदि प्रत्यय लगते हैं। इन्हीं प्रत्ययों के आधार पर उनके सात विभक्तियों में रूप चलते हैं। ये प्रत्यय ‘सुप्’ प्रत्यय कहलाते हैं। इन्हीं को ‘सुप् विभक्ति’ कहते हैं। धातुओं में ‘तिपू’, ‘तस्’, ‘झि’ (अन्ति) आदि प्रत्यय लगते हैं। ये तिङ् प्रत्यय कहलाते हैं। इन्हीं प्रत्ययों को ‘तिङ् विभक्ति’ भी कहते हैं।
कारक एवं विभक्ति पर्याय नहीं हैं— इन कारकों का बोध क्रमश: प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी एवं सप्तमी विभक्तियाँ कराती हैं; इसीलिए भ्रान्तिवश कुछ लोग कारक एवं विभक्ति को पर्यायवाची मान बैठते हैं, किन्तु ये दोनों पृथक् वस्तुएँ हैं। यदि कारक एवं विभक्ति एक ही वस्तु होते तो प्रथमा विभक्ति का प्रत्येक शब्द कर्त्ता या द्वितीया विभक्ति का प्रत्येक शब्द कर्म होता, किन्तु न तो प्रथमा विभक्ति का प्रत्येक शब्द कर्त्ता है और न ही द्वितीया विभक्ति का प्रत्येक शब्द कर्म है; जैसे—- बालि रामेण हतः । यहाँ पर बालि कर्म है, किन्तु यहाँ बालि प्रथमा विभक्ति का शब्द है और राम कर्त्ता है, लेकिन उसमें प्रथमा विभक्ति का प्रयोग न होकर ‘रामेण’ तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है।
संस्कृत में सात विभक्तियाँ होती हैं, कुछ लोग सम्बोधन की गणना भी विभक्ति में करते हुए आठ विभक्तियाँ मानते हैं, किन्तु सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति के ही शब्दों का प्रयोग किया जाता है; अतः उसे विभक्ति नहीं माना जा सकता है। कारकों एवं विभक्तियों में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, जिसे निम्नलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा रहा है-
विभक्ति कारक कारक-चिह्न
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी
पञ्चमी
षष्ठी
सप्तमी
सम्बोध
कर्त्ता
कर्म
करण
सम्प्रदान
अपादान
सम्बन्ध
अधिकरण
सम्बोधन
ने
को
से (with), के द्वारा
के लिए, को
से (from) अलग होने में
का, की, के, रा, री, रे
में, पर, ऊपर
रे, भो, अरे, ओ (!)
सामान्यतः विभक्तियों का सम्बन्ध क्रिया से होता है, परन्तु कुछ अव्ययों के योग में विशेष विभक्ति का प्रयोग किया जाता है, इन्हीं विशिष्ट विभक्तियों को उपपद विभक्ति कहते हैं; जैसे – त्वं पित्रा सह कुत्र गच्छसि ? सह, साथ के योग में तृतीया विभक्ति होती है; अतः यहाँ पित्रा में तृतीया उपपद विभक्ति है।
कारकों एवं विभक्तियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
1. कर्त्ता कारक
‘स्वतन्त्रः कर्त्ता।’ अर्थात् किसी भी क्रिया को स्वतन्त्रतापूर्वक करने वाले को कर्त्ता कहते हैं। इसका चिह्न ‘ने’ है; जैसे – संजय ने चोर को पकड़ा। कहीं-कहीं पर इस चिह्न का लोप भी हो जाता है; जैसे—अंजू खाना खाती है। संस्कृत में कर्त्ता के तीन पुरुष होते हैं – प्रथम पुरुष (स:, तौ, ते, रामः, कृष्णः, अनु, लता आदि ), मध्यम पुरुष (त्वम्, युवाम्, यूयम्), उत्तम पुरुष ( अहम्, आवाम्, वयम्) । साथ ही कर्त्ता के तीन लिङ्ग — पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग होते हैं। वाक्य में सामान्य अवस्था में कर्त्ता कारक को प्रथमा विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है।
वाक्य में कर्त्ता की स्थिति के अनुसार संस्कृत में वाक्य तीन प्रकार के होते हैं—
1. कर्तृवाच्य – वाक्य में कर्त्ता की प्रधानता होती है और उसमें सदैव प्रथमा विभक्ति ही होती है; जैसे—साक्षी पठति ।
2. कर्मवाच्य – वाक्य में कर्म की प्रधानता होती है और उसमें सदैव प्रथमा विभक्ति तथा कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति होती है; जैसे— मोहनेन ग्रन्थः पठ्यते ।
3. भाववाच्य – वाक्य में भाव (क्रियातत्त्व) की ही प्रधानता होती है। कर्त्ता में तृतीया विभक्ति और क्रिया सदैव प्रथम पुरुष एकवचन (आत्मनेपद) की प्रयुक्त होती है; जैसे – सोहनेन गम्यते ।
वाक्य में कर्त्ता के अनुसार ही क्रिया का प्रयोग किया जाता है अर्थात् कर्त्ता जिस पुरुष और वचन का होता है, वाक्य में क्रिया भी उसी पुरुष और वचन की प्रयोग की जाती है; जैसे—
(1) कंसः कृष्णेन हतः ।               (कंस कृष्ण द्वारा मारा गया । )
(2) रामः पततिः ।                       ( राम गिरता है। )
(3) तौ कन्दुकेन क्रीडतः ।          (वे दोनों गेंद से खेलते हैं। )
(4) अहं पुस्तकं पठामि ।            (मैं पुस्तक पढ़ता हूँ।)
(5) किं यूयं पत्राणि लेखिष्यथ ?   ( क्या तुम सब पत्र लिखोगे ? )
उपर्युक्त वाक्यों में मोटे छपे शब्द कर्त्ता हैं और उन्हीं के अनुसार वाक्य में क्रियाओं का प्रयोग किया गया है।
2. कर्म कारक
महर्षि पाणिनि ने कर्म कारक को परिभाषित करते हुए कहा है— ‘कर्तुरीप्सिततमं कर्म’। अर्थात् कर्त्ता जिस पदार्थ को सबसे अधिक चाहता है, वह कर्म है। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि जिसके ऊपर क्रिया के व्यापार का फल पड़ता है, उसे कर्म कारक कहते हैं। कर्म कारक का चिह्न ‘को’ है। वाक्य में सामान्य अवस्था में कर्म कारक को द्वितीया विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है।
उदाहरणार्थं— ‘देवदत्तः ओदनं भुङ्क्ते ।’ यहाँ कर्त्ता है ‘ देवदत्त’, उसकी अपनी क्रिया है ‘खाना’, इस खाना क्रिया से उसे ‘ओदन’ इष्टतम अर्थात् सर्वाधिक पसन्द है; अतः यहाँ ‘ओदन’ की कर्म संज्ञा है।
‘देवदत्तः पयसा ओदनं भुङ्क्ते’ अर्थात् देवदत्त दूध से भात खा रहा है। यहाँ भी ‘भुङ्क्ते’ क्रिया से ‘ओदन’ ही ईप्सिततम है, ‘पय’ नहीं; अतः ‘ओदन’ की कर्म संज्ञा हुई है, ‘पय’ की नहीं।
इसी प्रकार कर्म कारक के प्रयोग के कुछ अन्य उदाहरण हैं— (1) कृष्णः मन्दिरं गच्छति । (2) पयसा ओदनं भुङ्क्ते । (3) रामः श्यामं पश्यति। (4) बालकः पुस्तकं पठति। (5) सः फलम् आनयति ।
उपर्युक्त वाक्यों में ‘मन्दिरं, ओदनं, श्यामं, पुस्तकं, फलम्’ में कर्म कारक है।
संस्कृत में सोलह ऐसी धातुएँ हैं, जिनके साथ दो कर्मों का प्रयोग किया जा सकता है। इन दोनों कर्मों में एक प्रधान अर्थात् मुख्य कर्म कहलाता है और दूसरा गौण । इनमें जिस कर्म का क्रिया से सीधा सम्बन्ध होता है, वह प्रधान कर्म होता है और जिसका क्रिया से सीधा सम्बन्ध नहीं होता, वह गौण कर्म होता है; जैसे— पथिकः माणवकं पन्थानं पृच्छति । ‘पन्थानं’ मुख्य कर्म है; क्योंकि राहगीर के लिए पन्थ अर्थात् रास्ता ही ( राहगीर बच्चे से रास्ता पूछता है।) यहाँ पर ‘माणवकं’ गौण कर्म है और अभीष्ट है। संस्कृत में इस गौण कर्म को ही अकथित कर्म भी कहते हैं और इसमें भी मुख्य कर्मवाली द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। संस्कृत की उन सोलह धातुओं और उनका अकथित कर्मों के साथ प्रयोग यहाँ दिखाया जा रहा है-
क्रम उदाहरण वाक्य कारक विभक्ति धातु
अकथित कर्म
(गौणकर्म)
मुख्य
कर्म 
1.
देवदत्तः गां पयः दोग्धि ।
(देवदत्त गौ से दूध दुहता है | )
गो पयस्
द्वितीया
(गां; पयः)
दुह्
2.
वामनः बलिं वसुधां याचते।
(वामनजी बलि से पृथ्वी माँगते हैं। )
सज्जनः अविनीतं विनयं याचते ।
(सज्जन दुर्विनीत से विनय की प्रार्थना करता है।)
बलि

 

अविनीत

वसुधा

 

विनय

द्वितीया
(बलिं; वसुधां )
द्वितीया
(अविनीतं; विनयं)
याच्

 

याच्

3.
देवदत्तः तण्डुलान् ओदनं पचति ।
(देवदत्त चावलों से भात पकाता है।)
तण्डुल ओदन
द्वितीया
(तण्डुलान्; ओदनं)
पच्
4.
नृपः गर्गान् शतं दण्डयति ।
(राजा गर्गों पर सौ रुपयों का दण्ड लगाता है।)
गर्ग शत
द्वितीया
(गर्गान् शतं )
दण्ड्
5.
गोपः व्रजं गाम् अवरुणद्धि ।
(ग्वाला बाड़े में गाय को रोकता है।)
व्रज गो
द्वितीया
(व्रजं; गाम्)
रुध्
6.
पथिक: माणवकं पन्थानं पृच्छति।
(राहगीर बच्चे से रास्ता पूछता है ।)
माणवक
पन्था
(पथिन्)
द्वितीया
(माणवकं; पन्थानं)
प्रच्छ्
7.
मालाकार: वृक्षं फलानि अवचिनोति ।
(माली पेड़ से फल चुनता है।)
वृक्ष फल
द्वितीया
(वृक्षं; फलानि )
अव + चि
8.
आचार्य: माणवकं धर्मं ब्रूते ।
(आचार्य बच्चे को धर्म का उपदेश करता है |)
माणवक धर्म
द्वितीया
(माणवकं; धर्म)
ब्रू
9.
आचार्य: माणवकं धर्मं शास्ति ।
(आचार्य बच्चे को धर्म का शासन करता है।)
माणवक धर्म
द्वितीया
(माणवकं; धर्म)
शास्
10.
यज्ञदत्तः देवदत्तं शतं जयति ।
(यज्ञदत्त देवदत्त से सौ रुपये जीतता है।)
देवदत्त शत
द्वितीया
(देवदत्तं; शतं )
जि
11.
देवगणः क्षीरनिधिं सुधां मध्नाति ।
(देवगण क्षीरसागर से अमृत मथते हैं।)
क्षीरनिधि सुधा
द्वितीया
(क्षीरनिधि; सुधां)
मथ्
12.
तस्कर: देवदत्तं शतं मुष्णाति ।
(चोर देवदत्त के सौं रुपये चुराता है।)
देवदत्त शत
द्वितीया
(देवदत्तं; शतं)
मुष्
13.
अजपाल:- ग्रामम् अजां नयति ।
(गड़रिया गाँव में बकरी ले जाता है।)
ग्राम अजा
द्वितीया
(ग्रामम्; अजां)
नी
14.
अजपाल:- ग्रामम् अजां हरति ।
(गड़रिया गाँव में बकरी हर कर ले जाता है।)
ग्राम अजा
द्वितीया
(ग्रामम्; अजां)
15.
अजपाल: ग्रामम् अजां कर्षति ।
(गड़रिया गाँव में बकरी खींचकर ले जाता है।)
ग्राम अजा
द्वितीया
(ग्रामम्; अजां)
कृष्
16.
अजपाल: ग्रामम् अजां वहति ।
(गड़रिया गाँव में बकरी ढोकर ले जाता है ।)
ग्राम अजा
द्वितीया
(ग्रामम्; अजां )
वह्
विशेष—उपर्युक्त सोलह धातुओं के अतिरिक्त इनके अर्थवाली अन्य धातुओं के भी ‘अकथित कर्म’ हो सकते हैं।
3. करण कारक
साधकतमं करणम्। अर्थात् क्रिया की सिद्धि में अत्यन्त सहायक वस्तु अथवा साधन को करण कारक कहते हैं। सरल शब्दों में हम इस प्रकार कह सकते हैं कि जिसकी सहायता से या जिसके द्वारा कार्य पूर्ण होता है; उसमें करण कारक होता है। इसका चिह्न ‘से’ (with) तथा ‘के द्वारा’ है; यथा-सा हस्ताभ्यां कार्यं करोति ( वह हाथों से कार्य करती है)। यहाँ पर हाथों के द्वारा कार्य सम्पन्न हो रहा है; अतः ‘हस्ताभ्याम्’ में करण कारक है। वाक्य में करण कारक को तृतीया विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है।
कुछ अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं, जिनमें मोटे छपे शब्द करण कारक हैं-
(1) दात्रेण लुनाति ।                    (दराँत से काटता है।)
(2) परशुना छिनत्ति ।                 (फरसे से काटता है।)
(3) जलेन मुखं प्रक्षालयति ।        (जल से मुँह धोता है |)
(4) देवदत्तः पादाभ्यां चलति ।     (देवदत्त पैरों से चलता है।)
(5) देवदत्तः पादेन खञ्जः ।           (देवदत्त पैर से लँगड़ा है |)
उपर्युक्त वाक्यों में चौथे वाक्य में पैर चलने का साधन हैं; अत: उनमें करण कारक है, किन्तु पाँचवें वाक्य में उसी साधन में विकार उत्पन्न हो गया है, जिस कारण उसके चलने के कार्य में बाधा पड़ अवश्य रही है, किन्तु वह साधन अभी भी है; अतः उसमें करण कारक ही है। इसीलिए अन्य वाक्यों की भाँति उसमें भी करण कारक की विभक्ति ‘तृतीया विभक्ति’ का प्रयोग हुआ है । इसी प्रकार के अन्य उदाहरण भी हैं, जिनका अध्ययन आप अगले अध्याय ‘विभक्ति प्रकरण’ के अन्तर्गत करेंगे।
4. सम्प्रदान कारक
‘कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानम्।’ अर्थात् दान के कर्म से कर्त्ता जिसे प्रसन्न करना चाहता है, वह ‘सम्प्रदान’ है। जिसे कोई वस्तु दी जाए, लेकिन वापस न ली जाए, वह सम्प्रदान कहलाता है। इसका चिह्न ‘के लिए’ अथवा ‘को’ है। वाक्य में सम्प्रदान कारक को चतुर्थी विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है; जैसे-
(1) वानराय फलानि देहि ।              (बन्दर को फल दो। )
(2) बालकेभ्यः मिष्टान्नानि ददाति ।  (बालकों के लिए मिठाइयाँ देता है।)
(3) विप्राय गां ददाति ।                   (ब्राह्मण को गाय देता है |)
यहाँ मोटे छपे शब्दों में सम्प्रदान कारक है; क्योंकि इन्हीं को कर्त्ता ने क्रमशः ‘फल’, ‘मिष्टान्न’ एवं ‘गो’ दान (प्रदान) करके इन्हें प्रसन्न करना चाहा है।
‘क्रियया यमभिप्रैति सौऽपि सम्प्रदानम्।’ अर्थात् न केवल दान (देने की क्रिया) कर्म के द्वारा जो अभिप्रेत हो, उसे सम्प्रदान कहा जाए, वरन् किसी क्रिया विशेष द्वारा भी जो कर्त्ता को अभिप्रेत हो, उसे भी सम्प्रदान कारक कहा जाए। कहने का आशय यही है कि किसी वस्तु को देकर प्रसन्न करने पर ही सम्बन्धित प्राणी में सम्प्रदान कारक नहीं होता, बल्कि किसी भी क्रिया द्वारा जब वह इच्छित प्राणी को सन्तुष्ट अथवा प्रसन्न करना चाहता है तो उस सन्तुष्ट होनेवाले प्राणी ( अभिप्रेत ) में भी सम्प्रदान कारक होता है; जैसे—
(1) सा वत्सायै नृत्यति ।                        (वह बेटी के लिए नाचती है।)
(2) मदन: अश्वाय घासम् आनयति ।     (मदन घोड़े के लिए घास लाता है। )
यहाँ पर कर्त्ता ‘सा’ नृत्य क्रिया द्वारा अपनी ‘वत्सा’ को प्रसन्न करना चाहती है अर्थात् वह अपना नृत्य बेटी को प्राप्त कराना (देना, समर्पित करना) चाहती है; अतः बेटी (वत्सा) में भी सम्प्रदान कारक है।
इसी प्रकार द्वितीय वाक्य में मदन घास लाने की क्रिया घोड़े की सन्तुष्टि (तृप्ति, प्रसन्नता) के लिए कर रहा है; अत: उसमें भी (क्रिया द्वारा अभिप्रेत अश्व में) सम्प्रदान कारक है। सम्प्रदान कारक के कुछ अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं-
(1) राजा विप्राय गां ददाति ।                 (राजा ब्राह्मण को गाय देता है ।)
(2) शिष्यः उपाध्याय पुस्तकं ददाति ।   (शिष्य उपाध्याय को पुस्तक देता है।)
(3) ब्राह्मणी माणवकाय भिक्षां ददाति ।  (ब्राह्मणी बालक को भिक्षा दे रही है। )
(4) सः ब्राह्मणाय गां ददाति ।                (वह ब्राह्मण को गाय देता है।)
(5) कः तुभ्यं फलं ददाति ?                    (तुम्हें कौन फल देता है ?)
(6) भिक्षुकः आहाराय भ्रमति ।              (भिक्षुक भोजन के लिए घूमता है।)
(7) सैनिका: देशाय प्राणान् त्यजन्ति ।    (सैनिक देश के लिए प्राण त्यागते हैं।)
उपर्युक्त वाक्यों में मोटे छपे शब्द सम्प्रदान कारक के उदाहरण हैं।
5. अपादान कारक
‘ध्रुवमपायेऽपादानम्।’ अर्थात् जिस पुरुष स्थान या वस्तु से मन- कल्पित अथवा प्रत्यक्ष वियोग (पृथकत्व) होता है, उसे ‘अपादान’ कहते हैं। इसका चिह्न ‘से’ (from, अलग होने में) है। वाक्य में अपादान कारक को पञ्चमी विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है; जैसे-
(1) बालकः गृहात् आगच्छति ।  (बालक घर से आता है।)
(2) अहं नगरात् आगच्छामि ।   (मैं नगर से आता हूँ।)
(3) वृक्षात् पत्राणि पतन्ति ।        (वृक्ष से पत्ते गिरते हैं।)
(4) सैनिक: अश्वात् पतितः ।      (सैनिक घोड़े से गिरा है ।)
(5) रमेशः विद्यालयात् स्वगृहं याति ।  (रमेश विद्यालय से अपने घर जाता है।)
उपर्युक्त वाक्यों में क्रमशः बालक घर (गृह) से, मैं नगर से, पत्ते वृक्ष से, सैनिक अश्व से तथा रमेश विद्यालय से अलग हो रहा है; अतः इन सभी में अपादान कारक है।
6. सम्बन्ध
हिन्दी में तो सम्बन्ध को कारक माना गया है, किन्तु संस्कृत में इसे कारक नहीं माना गया है; क्योंकि सम्बन्ध में संज्ञा का क्रिया के साथ सम्बन्ध व्यक्त नहीं होता, वरन् संज्ञा अथवा सर्वनाम से सम्बन्ध प्रकट होता है और संस्कृत में कारक उसे ही कहा जाता है, जिसका क्रिया से सीधा सम्बन्ध होता है।
संज्ञा अथवा सर्वनामों का यह सम्बन्ध मुख्य रूप से चार प्रकार का होता है-
(अ) स्वाभाविक सम्बन्ध — जैसे— वणिकस्य धनम् । (व्यापारी का धन ) ।
(ब) जन्य-जनक भाव सम्बन्ध – जैसे—मातुः तनया । (माता की पुत्री ) ।
(स) अवयवावयविभाव सम्बन्ध – जैसे—शरीरस्य अंगम् । (शरीर का अंग ) ।
(द) स्थान्यादेश भाव सम्बन्ध – जैसे—इष्टकायाः पथः । ( ईंटों का मार्ग ।)
इन सम्बन्धों को निम्नलिखित वाक्यों में समझा जा सकता है-
(1) संजीवस्य पिता श्री रामपालसिंहः अस्ति ।  (संजीव के पिता श्री रामपाल सिंह हैं। )
(2) लक्ष्मणः रामस्य भ्राता आसीत् ।   (लक्ष्मण राम के भाई थे। )
(3) द्रौपदी द्रुपदस्य पुत्री आसीत्।    (द्रौपदी द्रुपद की पुत्री थी । )
(4) विद्या सर्वस्य धनम् अस्ति ।    (विद्या सबका धन है। )
(5) पशोः पादः स्वस्थः न अस्ति ।    (पशु का पैर स्वस्थ नहीं है ।)
(6) मृत्तिकाया: मयूरः अस्माकम् अस्ति ।    (मिट्टी का मोर हमारा है। )
उपर्युक्त बाक्यों में मोटे छपे शब्द सम्बन्ध को व्यक्त कर रहे हैं। हिन्दी में सम्बन्धवाचक शब्दों के साथ ‘रा, री, रे’ तथा ‘का, की, के शब्दांश जुड़े होते हैं। संस्कृत में इस ‘सम्बन्ध’ को वाक्य में षष्ठी विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है।
7. अधिकरण कारक
‘आधारोऽधिकरणम्।’ अर्थात् जिस वस्तु अथवा स्थान पर कार्य किया जाता है, उस आधार में अधिकरण कारक होता है। इसके चिह्न ‘में, पर, ऊपर’ हैं।
यह बात ध्यान रखने योग्य है कि अधिकरण क्रिया का साक्षात् आधार नहीं हुआ करता है, वह तो कर्त्ता और कर्म का आधार हुआ करता है। क्रिया कर्त्ता या कर्म में रहती है।
आधार या अधिकरण तीन प्रकार का होता है-
(1) औपश्लेषिक, (2) वैषयिक, (3) अभिव्यापक ।
उपश्लेषमूलक आधार औपश्लेषिक कहलाता है । उपश्लेष का अर्थ है – संयोगादि सम्बन्ध। ‘देवदत्तः कटे आस्ते ।’ (देवदत्त चटाई पर बैठता ” है।) यहाँ कर्त्ता हैं देवदत्त, उसमें बैठने की क्रिया है । देवदत्त का आधार है। ‘क:’ (चटाई), उसके साथ देवदत्त का संयोग सम्बन्ध है; अतः ‘क: ‘ औपश् लेषिक आधार है। इसी प्रकार ‘यतिः वने वसति’ में ‘वन’ औपश्लेषिक आधार है।
विषयता सम्बन्ध से सम्पन्न होनेवाला आधार वैषयिक आधार कहलाता है। उदाहरण के लिए – ‘देवदत्तस्य मोक्षे इच्छा अस्ति।’ इस विषय है मोक्ष; अतः यह वैषयिक आधार है। वाक्य में कर्त्ता है देवदत्त, उसकी मोक्ष में इच्छा है; अर्थात् उसकी इच्छा का
जिस आधार पर कोई वस्तु समस्त अवयवों में व्याप्त होकर रहती है, वह आधार अभिव्यापक आधार कहलाता है। उदाहरणार्थ – ‘सर्वस्मिन् आत्मा अस्ति।’ आत्मा समस्त प्राणियों में रहती है; अतः ‘सर्व’ अभिव्यापक आधार है।
वाक्य में अधिकरण कारक को सप्तमी विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है; जैसे-
(1) नगरेषु जनाः निवसन्ति। (नगरों में लोग रहते हैं ।)
(2) बालकाः विद्यालये पठन्ति । (बालक विद्यालय में पढ़ते हैं ।)
(3) सिंह वने वसति । (सिंह वन में रहता है।)
(4) वनेषु सिंहाः गर्जन्ति । (वनों में सिंह गरजते हैं।)
(5) गङ्गायां जलं वर्त्तते ।   (गंगा में जल है।)
(6) शिक्षक: पाठशालायां पाठयति । (शिक्षक पाठशाला में पढ़ाता है।)
उपर्युक्त वाक्यों में मोटे छपे शब्दों में आधार होने के कारण अधिकरण कारक है।
8. सम्बोधन
जिसे पुकारा जाता है, सम्बोधित किया जाता है अथवा आकृष्ट किया जाता है, वह सम्बोधन है। इसके चिह्न ‘हे’, ‘भों’, ‘अरे’ इत्यादि हैं। वाक्य में . सम्बोधन को प्रथमा विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है; जैसे—
(1) भो छात्र! इहागच्छ। (अरे छात्र ! यहाँ जाओ।)
(2) अरे बालका! उत्तिष्ठत पठत च। (अरे बालको! उठो और पढ़ो। )
(3) भो अमृतस्य पुत्रा ! (अरे अमृत पुत्रो!)
(4) रे मोहन ! किमपश्य: ? (रे मोहन ! क्या देखते थे ? )
(5) हे बाले ! भोजनं पच ।  (हे बाला ! भोजन पका । )
उपर्युक्त वाक्यों में मोटे छपे शब्दों में पुकारने के कारण सम्बोधन है।
विशेष 1. सम्बोधन कारक के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के एकवचन से कुछ परिवर्तन होता है। शेष दोनों वचनों में प्रथमा विभक्ति जैसे ही प्रयोग होते हैं।
विशेष 2. ‘तदादिकानां सम्बोधनं नास्ति’ तदादिक अर्थात् सर्वनाम शब्दों के साथ सम्बोधन का प्रयोग नहीं होता है; क्योंकि तदादिक (सर्वनाम) शब्दों को पुकारा नहीं जाता है।
विशेष 3. कारकों का सीधा सम्बन्ध क्रियाओं से होता है, किन्तु सम्बोधन का सम्बन्ध सीधा शब्द ( कर्त्ता) से होता है। यही कारण है कि इसकी गणना कारकों में नहीं होती है।
अभ्यास (हल सहित)
1. निम्नलिखित सूत्रों में से किसी एक की व्याख्या कीजिए और उसका उदाहरण दीजिए—
(1) सूत्र – स्वतन्त्रः कर्त्ता ।
व्याख्या- किसी क्रिया को करने में जो स्वतन्त्र होता है, अर्थात् जिसे क्रिया को सम्पन्न करने के लिए आश्रय की आवश्यकता नहीं होती, वह ‘कर्त्ता’ कहलाता है।
उदाहरण – बालकेन पाठः पठ्यते ।
(2) सूत्र – कर्तुरीप्सिततमं कर्म ।
अर्थ – कर्त्ता जिसकी सबसे अधिक इच्छा करता है, वह ‘कर्म’ है। व्याख्या- किसी वाक्य में सम्पन्न होनेवाली क्रिया का कर्ता जिस कार्य को सम्पन्न करने की इच्छा से कार्य करता है, वह कार्य ‘कर्म’ कहलाता है।
उदाहरण – रामः पत्रं लिखति । ( राम पत्र लिखता है । )
(3) सूत्र – कर्मणि द्वितीया ।
अर्थ- कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है।
व्याख्या- किसी वाक्य के कर्म के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
उदाहरण – (1) रामः पत्रं लिखति । (2) सीता पुस्तकं पठति । (3) स: पुस्तकं पठति ।
(4) सूत्र – साधकतमं करणम् ।
अर्थ- सबसे अधिक साधक ‘करण’ है।
व्याख्या- किसी वाक्य में सम्पन्न होनेवाली क्रिया को करने में जो सबसे अधिक सहायक हो, वह ‘करण’ कारक है।
उदाहरण – रामः बाणेन रावणं हतवान् ।
(5) सूत्र – कर्तृकरणयोस्तृतीया ।
अर्थ – करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है।
व्याख्या – सभी प्रकार के करण कारकों में तृतीया विभक्ति होती है। उपर्युक्त उदाहरण में बाण से रावण को मारा जाता है, इसलिए ‘बाणेन’ में तृतीया विभक्ति है।
उदाहरण –
(1) सः स्वमुखेन किमपति नवदति ।
(2) अहं हस्ताभ्यां कार्याणि करोमि ।
(3) प्रतीकः लेखन्या पत्रं लिखति ।
(6) सूत्र – कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानम् ।
अर्थ — दान-कर्म के द्वारा कर्त्ता जिसे सन्तुष्ट करता है, वह सम्प्रदान
व्याख्या- किसी वाक्य में सम्पन्न होनेवाली क्रिया में जब कर्त्ता किसी को कोई वस्तु देकर क्रिया को करता है तो जिसे वह वस्तु दी जाती है वह ‘सम्प्रदान कारक’ कहलाता है।
उदाहरण –
( 1 ) विप्राय गां ददाति ।
(2) इदं पुस्तकं मह्यम् देहि ।
(7) सूत्र – ध्रुवमपायेऽपादानम् ।
अर्थ– स्वयं से अलग करनेवाला ध्रुव (मूल) अपादान है।
व्याख्या- किसी वाक्य में सम्पन्न होनेवाली क्रिया के अन्तर्गत जब कोई वस्तु किसी वस्तु से अलग हो रही हो तो जिस वस्तु से वह अलग हो रही है, वह वस्तु ‘अपादान कारक’ कहलाती है।
उदाहरण– वृक्षात् पर्णानि पतन्ति ।
(8) सूत्र – आधारोऽधिकरणम्।
अर्थ – आधार अधिकरण है।
व्याख्या – किसी वाक्य में सम्पन्न होनेवाली क्रिया को जिस वस्तु या स्थान पर किया जाता है, वह उस क्रिया का आधार होता है और यही आधार ‘अधिकरण कारक’ कहलाता है।
उदाहरण – मुनि वने वसति ।
(9) सूत्र – सप्तम्यधिकरणे च ।
अर्थ – अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है। व्याख्या – अधिकरण कारक में सदैव सप्तमी विभक्ति होती है।
उदाहरण – सः खट्वायां शेते।
2. कोष्ठके प्रदत्तेषु शब्देषु शुद्धं शब्दं चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत ( कोष्ठक में दिए गए शब्दों में से शुद्ध शब्द चुनकर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए ) –
(क) गङ्गा ………….. निस्सरति। (हिमालयेन / हिमालयात् ।
(ख) पिता …………. सह आगतः। (पुत्रस्य/ पुत्रेण)
उत्तरम् –
(क) गंगा हिमालयात् निस्सरति।
(ख) पिता पुत्रेण सह आगतः ।

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