UK Board 10th Class Social Science – (भूगोल) – Chapter 1 संसाधन एवं विकास
UK Board 10th Class Social Science – (भूगोल) – Chapter 1 संसाधन एवं विकास
UK Board Solutions for Class 10th Social Science – सामाजिक विज्ञान – (भूगोल) – Chapter 1 संसाधन एवं विकास
पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
1. बहुवैकल्पिक प्रश्न—
(i) लौह अयस्क किस प्रकार का संसाधन है?
(क) नवीकरण योग्य
(ख) जैव
(ग) प्रवाह
(घ) अनवीकरण योग्य।
उत्तर- (क) नवीकरण योग्य।
(ii) ज्वारीय ऊर्जा निम्नलिखित में से किस प्रकार का संसाधन है?
(क) पुन: पूर्ति योग्य
(ख) मानवकृत
(ग) अजैव
(घ) अचक्रीय ।
उत्तर- (क) पुन: पूर्ति योग्य
(iii) पंजाब में भूमि निम्नीकरण का निम्नलिखित में से मुख्य कारण क्या है?
(क) गहन खेती
(ख) वनोन्मूलन
(ग) अधिक सिंचाई
(घ) अति पशुचारण।
उत्तर — (ग) अधिक सिंचाई ।
(iv) निम्नलिखित में से किस प्रान्त में सीढ़ीदार (सोपानी) खेती की जाती है?
(क) पंजाब
(ख) हरियाणा
(ग) उत्तर प्रदेश के मैदान
(घ) उत्तराखण्ड |
उत्तर- (घ) उत्तराखण्ड |
(v) इनमें से किस राज्य में काली मृदा पायी जाती है?
(क) जम्मू और कश्मीर
(ख) गुजरात
(ग) राजस्थान
(घ) झारखण्ड
उत्तर- (ग) गुजरात।
2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए-
(i) तीन राज्यों के नाम बताएँ जहाँ काली मृदा पायी जाती है। इस पर मुख्य रूप से कौन-सी फसल उगाई जाती है?
उत्तर— उन तीन राज्यों के नाम जहाँ काली मृदा पायी जाती है निम्नलिखित हैं— (1) महाराष्ट्र, (2) गुजरात, (3) मध्य प्रदेश |
काली मृदा कपास की खेती के लिए महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसी कारण इसे ‘काली कपास मृदा’ के नाम से भी पुकारा जाता है।
(ii) पूर्वी तट के नदी डेल्टाओं पर किस प्रकार की मृदा पायी जाती है? इस प्रकार की मृदा की तीन मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर – पूर्वी तट के नदी डेल्टाओं पर जलोढ़ मृदा पायी जाती है। इस मृदा का जमाव महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियाँ, अपने डेल्टाई भाग में करती हैं। इस प्रकार की मृदा की तीन मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) इस मिट्टी की संरचना रेत, सिल्ट और मृत्तिका के विभिन्न अनुपात से होती है।
(2) जलोढ़ मृदा बहुत उपजाऊ होती है। इस मृदा में पोटाश, फास्फोरस और चूना पर्याप्त मात्रा में होता है; अतः इस पर चावल, गेहूँ, गन्ना तथा दलहन फसलें पैदा की जाती हैं।
(3) सूखे क्षेत्रों में यह मृदा क्षारीय हो जाती है जिसे उचित उपचार और सिंचाई द्वारा अधिक पैदावार देने योग्य बनाया जा सकता है।
(iii) पहाड़ी क्षेत्रों में मृदा अपरदन की रोकथाम के लिए क्या कदम उठाने चाहिए?
उत्तर – मृदा के कटाव और उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहा जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में वनोन्मूलन, अति पशुचारण, निर्माण और खनन जैसे मानवीय तत्त्व एवं पवन, हिमनदी और जल आदि प्राकृतिक तत्त्व मृदा अपरदन के लिए उत्तरदायी हैं। पहाड़ी क्षेत्रों पर मानवीय क्रियाओं को नियन्त्रित करने के लिए अतिरिक्त ढाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के समानान्तर जुताई, सीढ़ीदार कृषि तथा वृक्ष मेखला का विकास करके मृदा अपरदन को रोका जा सकता है।
(iv) जैव और अजैव संसाधन क्या होते हैं? कुछ उदाहरण दें।
उत्तर : जैव संसाधन – वे संसाधन, जिनकी प्राप्ति जीवमण्डल से होती हो और उनमें जीवन पाया जाता हो, जैव संसाधन कहलाते हैं; जैसे – मनुष्य, वनस्पति जगत, प्राणिजगत, पशुधन आदि ।
अजैव संसाधन – वे सभी निर्जीव वस्तुएँ, जो मानव के लिए उपयोगी हों, अजैव संसाधन कहलाती हैं। चट्टानें तथा खनिज इसका प्रमुख उदाहरण हैं।
3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 120 शब्दों में दीजिए-
(i) भारत में भूमि उपयोग प्रारूप का वर्णन करें। वर्ष 1960-61 से वन के अन्तर्गत क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण वृद्धि नहीं हुई, इसका क्या कारण है?
उत्तर : भारत में भूमि उपयोग प्रारूप – भारत का कुल भूमि क्षेत्रफल 32-8 लाख वर्ग किमी है। परन्तु इसके 93 प्रतिशत भू-भाग केही भूमि उपयोग आँकड़े उपलब्ध हैं। उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में भूमि उपयोग सन्तुलित नहीं है। 2014-15 के आँकड़ों से स्पष्ट है कि भूमि का सर्वाधिक 45.5% उपयोग शुद्ध बोए गए क्षेत्र के अन्तर्गत तथा सबसे कम उपयोग 1% विविध वृक्ष एवं उपवनों के अन्तर्गत है। इसके अतिरिक्त वनों के अन्तर्गत 22.3% क्षेत्र है। स्थायी चरागाहों के अन्तर्गत भी भूमि कम है। अतः भूमि उपयोग का यह प्रारूप देश में असन्तुलित प्रारूप को प्रकट करता है। देश में भूमि उपयोग का यह प्रारूप राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर भी सन्तुलित रूप में नहीं है। इसलिए भारत जैसे अधिक जनसंख्या और सीमित भूमि संसाधन वाले देशों में नियोजित व सन्तुलित भूमि उपयोग प्रारूप स्थापित करने की अधिक आवश्यकता है।
वन क्षेत्र में सीमित वृद्धि— भारत में वन क्षेत्र पर्याप्त एवं सन्तुलित नहीं है। वर्ष 2015 में देश में 23% भाग पर वन क्षेत्र हैं किन्तु इसे सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता। जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि और गैर-कृषि कार्यों में भूमि की आवश्यकता को पूरा करने के लिए भी वनों को बड़ी बेरहमी से काटा गया है। वास्तव में यदि देश में वननीति और वन संरक्षण अधिनियम न बने होते तो वनों का विनाश और भी तेजी से होता । देश में वनों को काटने की चाहत का प्रभावी होना एवं वन संरक्षण के प्रति उदासीनता ही आज वास्तव में सीमित वन क्षेत्रों के लिए उत्तरदायी कारण हैं। जो
(ii) प्रौद्योगिक और आर्थिक विकास के कारण संसाधनों का अधिक उपयोग कैसे हुआ है ?
उत्तर – किसी क्षेत्र के आर्थिक विकास के लिए संसाधनों की उपलब्धता अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु प्रौद्योगिकी और संस्थाओं में तदनुरूप परिवर्तन के अभाव में मात्र संसाधनों की उपलब्धता से विकास को सम्भव नहीं किया जा सकता है। देश में बहुत-से ऐसे क्षेत्र हैं जो संसाधनों में समृद्ध होते हुए भी प्रौद्योगिकी के अभाव में संसाधनों का पर्याप्त उपयोग नहीं कर पाए और विकास में पिछड़ रहे हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखण्ड जल एवं वन संसाधन की दृष्टि से सम्पन्न राज्य है किन्तु उचित प्रौद्योगिकी के अभाव से इन संसाधनों का यहाँ पर्याप्त उपयोग नहीं किया जा रहा है। जबकि यही संसाधन एवं भौगोलिक परिस्थिति स्विट्जरलैण्ड के पास हैं और वहाँ इनको पर्यटन के रूप में ही नहीं, आर्थिक विकास की दृष्टि से भी प्रौद्योगिकी उपयोग से विकसित किया गया है। अतः यह कहना उचित है कि प्रौद्योगिकी आर्थिक विकास को गति प्रदान करती है तथा इन दोनों के द्वारा संसाधनों का अधिक मात्रा में उपयोग होने लगता है । वास्तव में प्रौद्योगिकी और आर्थिक विकास दोनों ही संसाधनों के उचित उपयोग के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। विकसित देशों के पास यह दोनों ही उपलब्ध हैं इसलिए ये देश अपने ही संसाधनों का नहीं बल्कि विश्व के अन्य देशों के संसाधनों को भी आयात करके उनका उपयोग कर रहे हैं।
अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
• विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1—प्रौद्योगिक और आर्थिक विकास के कारण संसाधनों का अधिक उपयोग कैसे हुआ है?
उत्तर – किसी क्षेत्र के आर्थिक विकास के लिए संसाधनों की उपलब्धता अत्यन्त आवश्यक है । परन्तु प्रौद्योगिकी और संस्थाओं में तदनुरूप परिवर्तन के अभाव में मात्र संसाधनों की उपलब्धता से विकास को सम्भव नहीं किया जा सकता है। देश में बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जो संसाधनों में समृद्ध होते हुए भी प्रौद्योगिकी के अभाव में संसाधनों का पर्याप्त उपयोग नहीं कर पाए और विकास में पिछड़ रहे हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखण्ड जल एवं वन संसाधन की दृष्टि से सम्पन्न राज्य है किन्तु उचित प्रौद्योगिकी के अभाव से इन संसाधनों का यहाँ पर्याप्त उपयोग नहीं किया जा रहा है, जबकि यही संसाधन एवं भौगोलिक परिस्थिति स्विट्जरलैण्ड के पास हैं और वहाँ इनको पर्यटन के रूप में ही नहीं, आर्थिक विकास की दृष्टि से भी प्रौद्योगिकी उपयोग से विकसित किया गया है।
अत: यह कहना उचित है कि प्रौद्योगिक आर्थिक विकास को गति प्रदान करती है तथा इन दोनों के द्वारा संसाधनों का अधिक मात्रा में उपयोग होने लगता है । वास्तव में प्रौद्योगिक और आर्थिक विकास दोनों ही संसाधनों के उचित उपयोग के लिए महत्त्वपूर्ण है। विकसित देशों के पास यह दोनों ही उपलब्ध हैं इसलिए ये देश अपने ही संसाधनों का नहीं बल्कि विश्व के अन्य देशों के संसाधनों को भी आयात करके उनका उपयोग कर रहे हैं।
प्रश्न 2 – मृदा निर्माण के मुख्य कारकों पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर- मृदा निर्माण करने वाले कारक
मृदा निर्माण करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-
- जलवायु — मृदा को नियन्त्रित करने वाले कारकों में जलवायु का स्थान सर्वोपरि है। जलवायु शैलों का अपक्षय एवं अपरदन कर उन्हें शिलाचूर्ण में परिणत कर देती है। तापमान में वृद्धि या कमी से शैलों का विस्तार एवं सिकुड़न होता है, जिससे शैल कणों का वियोजन हो जाता है। अधिक वर्षा वाले प्रदेशों में शैलों का अपक्षय एवं अपरदन तीव्रता से होने के कारण मृदा निर्माण की प्रक्रिया सतत रूप से चलती रहती है । शीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में तापमान एवं वर्षा की मात्रा में घट-बढ़ के कारण मृदा की ऊपरी परत में पोषक तत्त्वों की वृद्धि होने से मृदा की उर्वरता में भी वृद्धि हो जाती है । शीतप्रधान प्रदेशों में ताप की कमी के कारण मृदा का निर्माण नहीं हो पाता है।
- पैतृक शैलों की प्रकृति — मृदा का निर्माण पैतृक शैलों के विखण्डन से होता है; अतः मृदा में मूल चट्टानों के गुण स्वाभाविक रूप से पाए जाते हैं; उदाहरण के लिए ज्वालामुखीकृत शैलों के विखण्डन से काली मिट्टी का निर्माण होता है। यह मिट्टी बहुत अधिक उर्वर होती है तथा कपास उत्पादन में प्रमुख स्थान रखती है।
- भूमि की बनावट – मृदा निर्माण में भूमि की बनावट का भी प्रभाव पड़ता है। सामान्य ढालू भूमि पर वर्षा का जल भूमि के अन्दर अधिक गहराई तक प्रवेश नहीं कर पाता; अतः मृदा के पोषक तत्त्व ऊपरी परत में ही रह जाते हैं। इसके विपरीत अधिक ढालू भूमि पर मृदा के पोषक तत्त्व जल के साथ घुलकर निचले भागों में एकत्र हो जाते हैं जिससे ऊपरी परत की उर्वरा शक्ति में कमी आ जाती है। अत्यधिक वर्षा वाले भागों में भी मिट्टी के पोषक तत्त्वों का बहाव हो जाने के फलस्वरूप उसकी उर्वरता में कमी आ जाती है।
- वनस्पति आवरण – जिन प्रदेशों में पर्णपाती या पतझड़ी वनस्पति उगती है, वहाँ वृक्षों की पत्तियाँ शैलचूर्ण में सड़-गलकर मिट्टी को उर्वर बना देती हैं। इससे मिट्टी में जीवांशों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। सूक्ष्म जीवाणुओं की विघटन प्रक्रिया से भी जीवांश का निर्माण होता है, जिससे मृदा की उर्वरता में वृद्धि हो जाती है । परन्तु जिन प्रदेशों में पेड़-पौधे सदैव हरे-भरे बने रहते हैं, वहाँ अपक्षालन की क्रिया कम होने के कारण मृदा में जीवांशों की मात्रा में कम वृद्धि हो पाती है, फलस्वरूप मृदा की उर्वरता में अपेक्षाकृत कम वृद्धि होती है । परन्तु जीवांशों की वृद्धि के लिए वनस्पति की सघनता तथा सूक्ष्म जीवाणुओं का पर्याप्त संख्या में होना भी आवश्यक है।
प्रश्न 3 – संसाधन संरक्षण क्या है? संसाधनों का संरक्षण क्यों आवश्यक है?
अथवा संसाधनों के नियोजन से आप क्या समझते हैं? संसाधनों के संरक्षण के उपाय सुझाइए ।
उत्तर – हमारे पर्यावरण में उपलब्ध प्रत्येक वस्तु जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रयुक्त की जा सकती है और जिसको बनाने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध है, जो आर्थिक रूप से सम्भाव्य और सांस्कृतिक रूप से मान्य है, एक ‘संसाधन’ है।
संसाधन संरक्षण
मानव द्वारा संसाधनों के प्रबन्धन को संरक्षण कहते हैं। विश्व में अधिकांश संसाधन सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं। अतः उनका कम मात्रा में अधिक एवं सुरक्षित उपयोग करना संरक्षण कहलाता है। दूसरे शब्दों में, ” प्राकृतिक संसाधनों का कम-से-कम मात्रा में अधिकतम उपयोग ही संसाधन संरक्षण है।” एल० सी० ग्रे के अनुसार, “संरक्षण से तात्पर्य वर्तमान और भविष्य के बीच किसी संसाधन को उपयोग में लाने का संघर्ष है।” वास्तव में, संसाधन संरक्षण में भावी पीढ़ी की आवश्यकता और आकांक्षाओं का भाव भी निहित है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों का न्यायसंगत और योजनाबद्ध उपयोग ही संरक्षण हैं। मानव ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए अधिक और उनके संरक्षण की चिन्ता किए बिना उनका अन्धाधुन्ध उपयोग किया है। इसके कुछ अपवाद हैं। कई समुदाय अपने निजी प्रयासों से पेड़-पौधों और पशुओं का अपने तरह से संरक्षण करने में जुटे हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान में विश्नोई जाति के लोग पेड़-पौधों और पशुओं के संरक्षण के लिए कुछ सिद्धान्तों का अनुसरण करते हैं।
संसाधन हमारे पर्यावरण के अंग हैं। इनके सही उपयोग से ही पर्यावरण को बनाए रखा जा सकता है। संसाधनों के दुरुपयोग और आवश्यकता से अधिक उपयोग द्वारा पर्यावरण को बिगाड़ा जा सकता है। नवीकरण योग्य संसाधनों के सही उपयोग से समस्याएँ कम उत्पन्न होती हैं। आवश्यकता से अधिक संसाधनों का उपयोग वर्तमान पर्यावरण के विनष्टीकरण का कारण बनता है। अनवीकरणीय संसाधनों के प्रति तो और अधिक सावधानी की आवश्यकता है क्योंकि इन्हें पुनः नहीं बनाया जा सकता है। हमें इनके संरक्षण के लिए अधिकाधिक उपाय अपनाने चाहिए।
प्रश्न 4 – संसाधन नियोजन क्या है? संसाधन नियोजन की प्रक्रिया के सोपानों (चरणों) का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर : संसाधन नियोजन का अर्थ-संसाधन नियोजन वह कला अथवा तकनीक है, जिसके द्वारा हम अपने संसाधनों का प्रयोग विवेकपूर्ण ढंग से करते हैं।
संसाधन नियोजन की प्रक्रिया-संसाधन नियोजन एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें निम्नलिखित सोपान हैं—
- देश के विभिन्न प्रदेशों में संसाधनों की पहचान कर उनकी तालिका बनाना। इस कार्य में क्षेत्रीय सर्वेक्षण, मानचित्र बनाना और संसाधनों का गुणात्मक एवं मात्रात्मक अनुमान लगाना व मापन करना ।
- संसाधन विकास योजनाएँ लागू करने के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी, कौशल और संस्थागत नियोजन ढाँचा तैयार करना ।
- संसाधन विकास योजनाओं और राष्ट्रीय विकास योजना में समन्वय स्थापित करना।
प्रश्न 5 – भूमि के ह्रास (निम्नीकरण ) का क्या अर्थ है? भूमि ह्रास के उत्तरदायी कारण क्या हैं?
अथवा मृदा अपरदन क्या है? मृदा संरक्षण के उपायों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर- मिट्टी के कटाव अथवा भू-क्षरण का अर्थ
मिट्टी के कटाव का अर्थ है, भूमि की उर्वरा शक्ति का नष्ट होना । दूसरे शब्दों में, मिट्टी की ऊपरी परत के कोमल तथा उपजाऊ कणों को प्राकृतिक कारकों (जल, नदी, वर्षा तथा वायु) या प्रक्रमों द्वारा एक स्थान से हटाया जाना ही भूमि का कटाव कहलाता है। यह कटाव अत्यधिक उपजाऊ भूमि को शीघ्र ही बंजर बना देता है। भारत में लगभग एक चौथाई कृषि भूमि, भूमि कटाव से प्रभावित है। असम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा आदि राज्य भूमि – कटाव की समस्या से अत्यधिक प्रभावित हैं।
भूमि (मिट्टी) कटाव के प्रकार
मिट्टी का कटाव निम्नलिखित तीन प्रकार से होता है-
- धरातलीय या परतदार कटाव – तेज मूसलाधार वर्षा के कारण जब धरातल का ऊपरी उत्पादक भाग तेज पानी से बह जाता है, तब उसे धरातलीय या परतदार कटाव कहते हैं।
- कछार वाला कटाव – नदियाँ अथवा तेज बहने वाली जल-धाराओं के द्वारा जो कटाव होता है, उसे कछार वाला कटाव कहते हैं। इसमें मिट्टी कुछ गहराई तक कट जाती है तथा भूमि सतह पर नालियाँ व गड्ढे बन जाते हैं।
- वायु का कटाव – तेज मरुस्थलीय हवाओं के द्वारा धरातल की सतह की उपजाऊ मिट्टी उड़ जाती है जो उड़कर अन्य स्थानों पर ऊँचे-ऊँचे मिट्टी के टीले बना देती है।
मिट्टी के कटाव के कारण
मिट्टी के कटाव के मुख्य कारण निम्नांकित हैं—
- तीव्र एवं मूसलाधार वर्षा । भारत में 90% वर्षा केवल 4 महीने में हो जाती है।
- नदियों का तीव्र बहाव एवं उनमें उत्पन्न बाढ़ ।
- वनों का अत्यधिक विनाश।
- खेतों को जोतकर खुला छोड़ देना।
- तेज हवाएँ चलना।
- कृषि भूमि पर पशुओं द्वारा अनियन्त्रित चराई ।
- खेतों पर मेड़ों का न होना ।
- भूमि का अत्यधिक ढालू होना।
- पानी के निकास की उचित व्यवस्था न होना ।
- कृषि करने के दोषपूर्ण ढंग; जैसे – ढालू भूमि पर सीढ़ीदार जुताई न करना, फसलों के हेर-फेर के दोषपूर्ण ढंग इत्यादि।
मिट्टी के कटाव को रोकने के उपाय
मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय कारगर सिद्ध हो सकते हैं-
- वृक्षारोपण – वृक्ष लगाकर जल की गति को नियन्त्रित किया जा सकता है और बाढ़ के प्रकोप से भूमि के कटाव को रोका जा सकता है। हरियाणा व उत्तर प्रदेश की पश्चिमी सीमा की ओर पश्चिमी हवाओं (पछुआ हवा) से होने वाले कटाव को रोकने हेतु एक बहुत विस्तृत क्षेत्र में वन लगाए गए हैं।
- नदियों पर बाँध बनाना – नदियों पर बाँध बनाकर जल के तीव्र प्रवाह को रोककर भूमि के कटाव को रोका जा सकता है।
- खेतों की मेड़बन्दी करना – खेतों पर ऊँची मेड़बन्दी करना, भूमि के कटाव को रोकने का कारगर उपाय है। मेड़ मिट्टी के जीवांशों को बहने से रोक देती है।
- पशुओं की अनियन्त्रित चराई पर रोक – खुली या जुती हुई भूमि में पशुओं को नहीं चराना चाहिए क्योंकि पशुओं के खुरों से मुलायम मिट्टी कट जाती है और वायु अपने साथ उड़ा ले जाती है अथवा जल में बह जाती है।
- ढाल के विपरीत जुताई करना – ढालू खेती की जुताई ढाल के विपरीत करनी चाहिए, इस प्रकार बनी नालियाँ पानी की गति कम कर कटाव को रोकने में सहायक होती हैं।
- जल निकासी की उचित व्यवस्था करना – खेतों जल-निकास की उचित व्यवस्था कर भूमि कटाव को कुछ सीमा तक रोका जां सकता है। पर्वतों पर सीढ़ीदार खेत बनाकर यह कार्य सुविधापूर्वक किया जा सकता है।
- खेतों पर हरी खाद वाली फसलें उगाना – खेतों में मूँग नं० 1, सनई, ढेंचा जैसी हरी खाद वाली फसलें उगानी चाहिए। इससे मिट्टी को उपजाऊ तत्त्व अर्थात् जीवांश प्राप्त होते हैं तथा कटाव भी कम हो जाता है।
- नाली एवं गड्ढों को समतल बनाना —अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में जल बहने से गहरी नालियाँ एवं गड्ढे बन जाते हैं। मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए इन नालियों तथा गड्ढों को मिट्टी से भरते रहना चाहिए।
- वन संरक्षण – वनों की अन्धाधुन्ध कटाई पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। भारत सरकार ने अनेक वनों को सुरक्षित वन घोषित कर दिया है।
- जल के बहाव-मार्गों का निर्माण–वर्षा तथा अन्य प्रकार के जल के उचित ढंग से बहने के लिए नालों व नालियों का निर्माण किया जाना चाहिए जिससे जल इधर-उधर बहकर भूमि का कटाव न कर पाए। नदियों, नालों व नहरों के किनारों को ऊँचा किया जाना चाहिए ताकि बाढ़ का पानी इधर-उधर न फैल पाए ।
भारत में इस समस्या के स्थायी समाधान हेतु सन् 1953 ई० में ‘केन्द्रीय भू-संरक्षण बोर्ड’ की स्थापना की गई तथा निम्नलिखित तीन लक्ष्य निर्धारित किए गए –
(i) कटी-फटी भूमि को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित करना,
(ii) मरुभूमि के विस्तार को नियन्त्रित करना तथा
(iii) वर्तमान कृषिगत भूमि की उपजाऊ शक्ति में कमी न आने देना ।
इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए देहरादून, कोटा, जोधपुरऊटकमण्ड एवं बेलोरी में अनुसन्धानशालाएँ स्थापित की गई हैं ।
मिट्टी के कटाव से हानियाँ
मिट्टी के कटाव से अनेक हानियाँ होती हैं जिनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं-
- भूमि का अनुपजाऊ हो जाना – मिट्टी के कटाव से भूमि ऊबड़-खाबड़ तथा अनुपजाऊ बन जाती है।
- बाढ़ का प्रकोप – भूमि के उपजाऊ तत्त्व नष्ट हो जाने के कारण वहाँ पर कोई वनस्पति नहीं होती, जिससे भूमि का और अधिक कटाव होने लगता है तथा बाढ़ आने लगती हैं।
- नदियों के मार्ग में परिवर्तन — कटाव से नदियों के तल में मिट्टी या रेत जमा हो जाता है जिससे नदियों का मार्ग बदल जाता है।
- कृषि उत्पादन में कमी – मिट्टी के कटाव से भूमि ऊबड़-खाबड़ उपजाऊ हो जाती है, जिससे कृषि योग्य भूमि की मात्रा कम हो जाती है फलस्वरूप कृषि उत्पादन घट जाता है।
- सिंचाई में कठिनाई नदियों व नालों की सतह नीची हो जाने से सिंचाई में कठिनाई होती है।
- परिवहन में कठिनाई – भूमि कटाव से नदियों के तल में मिट्टी या रेत के जम जाने तथा नदियों द्वारा मार्ग परिवर्तन से परिवहन कार्य में कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
• लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – संसाधन नियोजन क्यों आवश्यक है? नियोजन प्रक्रिया के विभिन्न सोपान बताइए।
अथवा संसाधन नियोजन क्या है? संसाधन नियोजन क्यों आवश्यक है?
उत्तर— संसाधनों का नियोजन वर्तमान एवं भावी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। संसाधनों का दीर्घ अवधि तक उपयोग करने के लिए नियोजन एक सर्वमान्य रणनीति है। विशेष रूप से भारत जैसे देश में जहाँ संसाधनों की उपलब्धता में बहुत अधिक विविधता है वहाँ देश के सन्तुलित विकास के लिए प्रान्तीय और स्थानीय स्तर पर संसाधन नियोजन की आवश्यकता और भी अधिक है।
संसाधन नियोजन एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें निम्नलिखित तीन सोपान महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं—
- देश के विभिन्न प्रदेशों में संसाधनों की पहचान एवं आकलन करना। इस कार्य के लिए क्षेत्रीय सर्वेक्षण, मानचित्रण तथा गुणात्मक व मात्रात्मक मूल्यांकन किया जाता है।
- संसाधन विकास योजना लागू करने के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी, कौशल तथा संस्थागत ढाँचा तैयार करना।
- संसाधन विकास योजनाओं में राष्ट्रीय स्तर से स्थानीय स्तर तक समन्वय स्थापित करना ।
प्रश्न 2 – भू-संसाधन क्या है? इसका सर्वोचित उपयोग क्यों आवश्यक है?
उत्तर – प्रकृति द्वारा प्रदत्त वह संसाधन, जिस पर हम निवास करते हैं, अनेक प्रकार के आर्थिक क्रियाकलाप करते हैं तथा जिसका विभिन्न रूपों में उपयोग करते हैं, भू-संसाधन कहलाता है।
भूमि एक सीमित संसाधन है, इसका निर्माण या विस्तार सम्भव नहीं है, इसलिए उपलब्ध भूमि का विभिन्न उद्देश्यों के लिए उपयोग सावधानी और योजनाबद्ध तरीके से करना अत्यन्त आवश्यक है। इसके अतिरिक्त भू-संसाधन पर्वतीय, पठारी, मैदानी और द्वीपीय रूपों में होता है। भूमि के इन विविध रूपों का उपयोग अलग-अलग उद्देश्यों से किया जाता है इसलिए भी भूमि का सर्वोचित उपयोग आवश्यक है।
प्रश्न 3 – संसाधनों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर – प्रकृति- प्रदत्त निःशुल्क उपहार जैसे मृदा, जल, वायु, सूर्य प्रकाश, पेड़-पौधे, खनिज पदार्थ, जंगली पशु आदि जिनसे मानव की अनेक आवश्यकताएँ पूर्ण होती हैं या उसके लिए उपयोगी होती हैं अथवा | उपयोगिता में सहायक होती हैं, ‘संसाधन’ कहलाते हैं। प्रकृति ने मानव को अमूल्य प्राकृतिक उपहार प्रदान किए हैं, परन्तु इन्हें मानव के लिए उपयोगी | बनाने में कुछ अदृश्य तत्त्वों का हाथ रहता है। स्वास्थ्य, इच्छा-शक्ति, तकनीकी ज्ञान एवं राष्ट्रीय संगठन आदि ऐसे अदृश्य तत्त्व हैं, जो महत्त्वपूर्ण संसाधन हैं। संसाधन का अर्थ केवल प्राकृतिक तत्त्व ही नहीं है, अपितु मानवीय या सांस्कृतिक तथ्य भी महत्त्वपूर्ण संसाधन होते हैं। इस प्रकार कोई भी वह वस्तु, जो मानव के लिए उपयोगी हो अथवा उपयोगिता में सहायक हो, संसाधन कहलाती है।
प्रश्न 4 – सामान्यतः संसाधनों को कितने भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है?
उत्तर – सामान्य आधार पर संसाधनों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है—
- प्राकृतिक संसाधन – वे संसाधन, जो मानव को प्रकृति द्वारा निःशुल्क उपहारस्वरूप प्राप्त हुए हैं, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं; जैसे – शैल, मिट्टियाँ, जल, पवन, सूर्यातप, प्राकृतिक वनस्पति, जीव-जन्तु आदि ।
- मानवीय संसाधन – किसी क्षेत्र में निवास करने वाली जनसंख्या मानवीय संसाधन कहलाती है। प्राकृतिक संसाधनों का विकास उस क्षेत्र के निवासियों के कौशल और तकनीकी ज्ञान तथा उसके निरन्तर विकास पर निर्भर करता है।
प्रश्न 5 – मानव संसाधनों के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर – किसी राष्ट्र का सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन उसकी जनसंख्या होती है, परन्तु व्यक्तियों की संख्या से ही मानव संसाधनों का ज्ञान नहीं हो पाता क्योंकि उनमें से अनेक अशिक्षित, अकुशल, अप्रशिक्षित तथा अस्वस्थ हो सकते हैं; अत: मानव संसाधनों का विकास जनसंख्या के कौशल तथा तकनीकी ज्ञान से ही सम्भव हो सकता है। मानव संसाधनों के विकास से प्राकृतिक संसाधनों के विकास को प्रोत्साहन मिलता है; उदाहरण के लिए— अफ्रीका महाद्वीप में प्राकृतिक संसाधन विपुल मात्रा में विद्यमान हैं, परन्तु वहाँ के निवासियों (मानव संसाधन) में उपयुक्त तकनीकी ज्ञान के अभाव के कारण संसाधनों का समुचित विकास नहीं हो पाया है।
प्रश्न 6 – सम्पूर्ति या आपूर्ति संसाधनों से क्या अभिप्राय है?
उत्तर – कुछ संसाधन ऐसी प्रकृति के होते हैं जिनका उपयोग निरन्तर किया जा सकता है, ऐसे संसाधनों को सम्पूर्ति या आपूर्ति संसाधनों नाम से पुकारा जाता है; उदाहरण के लिए — वन, जलवायु एवं सूर्य के प्रकाश का उपयोग सतत रूप में किया जा सकता है। भूतल को जल की प्राप्ति वर्षा द्वारा होती है। वर्षा का जल कुछ तो भूतल द्वारा सोख लिया जाता है, कुछ वाष्पीकरण द्वारा पुनः वायुमण्डल में पहुँच जाता है तथा शेष जल ढाल की ओर बहने लगता है। यह जल नदी का रूप लेकर सागर में मिल जाता है। सागरों पर वाष्पीकरण की क्रिया आरम्भ होती है, जिससे बादलों का निर्माण होता है तथा भूतल पर पुनः वर्षा होती है। यह क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है और भविष्य में भी चलता रहेगा।
प्रश्न 7 – अपूर्व या अनापूर्ति संसाधनों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर- ऐसे संसाधन, जो कुछ समय उपभोग के उपरान्त समाप्त हो जाते हैं, ‘अपूर्य संसाधन’ कहलाते हैं। इन्हें ‘अनापूर्ति संसाधन’ भी कहा जाता है। विश्व में इन संसाधनों की उपलब्धि सीमित होती है; जैसे – कोयला एवं खनिज तेल तथा अन्य खनिज संसाधन । यदि इन संसाधनों का उपयोग इसी गति से चलता रहा तो वे शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगे तथा दुर्लभ संसाधनों की श्रेणी में आ जाएँगे। वैज्ञानिकों द्वारा लगाए गए एक अनुमान के अनुसार कोयला आगामी 200 वर्षों तक ही उपलब्ध हो सकता है, यदि इसका उपभोग इसी प्रकार किया जाता रहा। अतः इन संसाधनों का उपयोग एवं उपभोग बड़ी मितव्ययिता के साथ किया जाना चाहिए ।
प्रश्न 8 – मृदा के निर्माण में जलवायु सबसे महत्त्वपूर्ण कारक किस प्रकार है? दो कारणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर – मृदा निर्माण की प्रक्रिया बहुत मन्द गति से होती है। जलवायु मृदा निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है जिसमें दो प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
- बहते हुए जल और पवनों के कारण चट्टानों का घर्षण एवं कटाव होता है जिससे मृदा का निर्माण होता है।
- पवनों द्वारा एक स्थान से घिसे हुए चट्टानी चूर्ण को उड़ाकर अन्यत्र जमा करने से भी मृदा का निर्माण होता है।
प्रश्न 9 – संसाधनों के संरक्षण का क्या अभिप्राय है? संसाधनों के संरक्षण के दो उद्देश्य बताइए ।
उत्तर – मानव द्वारा संसाधनों के प्रबन्धन को संसाधन संरक्षण कहते हैं। संसाधन संरक्षण के उद्देश्य हैं-
- संसाधनों के संरक्षण का मुख्य उद्देश्य वर्तमान पीढ़ी को सतत लाभ प्रदान कराना है।
- इसमें भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पूर्ति का भाव भी निहित है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि प्राकृतिक संसाधनों का न्यायसंगत और योजनाबद्ध उपयोग ही संरक्षण है।
प्रश्न 10 – भारत में मृदाओं के वर्गीकरण का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर – भारत में मृदाओं के वर्गीकरण का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है—
(1) जलोढ़ मृदा
(2) काली मृदा
(3) लाल और पीली मृदा
(4) लैटेराइट मृदा
(5) मरुस्थली मृदा
(6) वन मृदा ।
• अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – संसाधन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर – मानव के विभिन्न उद्देश्यों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति अथवा किसी कठिनाई का निवारण करने वाले अथवा निवारण में योग देने वाले स्रोतों को संसाधन कहा जाता है।
प्रश्न 2 – उत्पत्ति तथा समाप्य के आधार पर संसाधनों का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर – उत्पत्ति के आधार पर संसाधन — सौर शक्ति, जलीय ऊर्जा, जलवायु आदि ।
समाप्ति के आधार पर संसाधन – कोयला एवं खनिज तेल, लौह खनिज, मैग्नीज, बॉक्साइट, सोना-चाँदी ।
प्रश्न 3 – प्राकृतिक संसाधनों के वर्गीकरण का क्या आधार है ?
उत्तर – प्राकृतिक संसाधनों का वर्गीकरण निम्नलिखित आधारों पर किया जाता है—
(1) उत्पत्ति (उद्गम) के आधार पर, (2) उपलब्धता के आधार पर तथा (3) विकास की अवस्था के आधार पर।
प्रश्न 4 स्रोतों के आधार पर संसाधनों को कितने भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है?
उत्तर— स्रोतों के आधार पर संसाधनों को पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) खनिज संसाधन, (2) मृदा संसाधन, (3) वनस्पति संसाधन, (4) जल संसाधन, (5) जीवीय संसाधन |
प्रश्न 5 – उपलब्धता के आधार पर संसाधनों के कितने वर्ग होते हैं?
उत्तर— उपलब्धता (आपूर्ति) के आधार पर संसाधनों के दो वर्ग होते हैं-
(1) सम्पूर्ति या सतत संसाधन तथा (2) अनापूर्ति अथवा संचित संसाधन ।
प्रश्न 6 – आपूर्ति संसाधन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर – वे संसाधन, जो कभी समाप्त नहीं होते तथा जिनका उपयोग निरन्तर रूप में किया जा सकता है, सम्पूर्ति संसाधन कहलाते हैं; जैसे – जल, पवन, प्राकृतिक वनस्पति व सूर्यातप आदि ।
प्रश्न 7 – किसी राष्ट्र का भविष्य किन तथ्यों पर निर्भर करता है?
उत्तर – किसी राष्ट्र का भविष्य उसमें उपलब्ध प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों पर निर्भर करता है।
प्रश्न 8 – किसी देश या प्रदेश का आर्थिक विकास किन कारकों पर निर्भर करता है?
उत्तर – किसी देश या प्रदेश का आर्थिक विकास कई कारकों पर निर्भर करता है-
(1) उस देश या प्रदेश में उपलब्ध विभिन्न प्रकार के संसाधन, (2) जनसंख्या की आवश्यकता एवं आकांक्षाएँ तथा (3) जनसंख्या का कौशल और तकनीकी ज्ञान ।
प्रश्न 9 – नवीकरण संसाधनों के दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर – (1) सौर ऊर्जा, (2) पवन ऊर्जा ।
प्रश्न 10 – उत्पत्ति तथा समाप्यता के आधार पर संसाधनों का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर- उत्पत्ति के आधार पर – जैव और अजैव संसाधन | समाप्यता के आधार पर नवीकरण योग्य और अनवीकरण योग्य संसाधन ।
प्रश्न 11 – जलोढ़ मृदा की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर – जलोढ़ मृदा की दो विशेषताएँ हैं—
(1) जलोढ़ मृदा बहुत उपजाऊ होती है।
(2) जलोढ़ मृदा में गहन कृषि की जाती है।
प्रश्न 12 – रियो डी जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन कब आयोजित किया गया था?
अथवा 1992 में प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय पृथ्वी सम्मेलन कहाँ आयोजित किया गया ?
उत्तर – जून 1992 में ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरो में प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय पृथ्वी सम्मेलन आयोजित किया गया था।
• बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1 – रियो डी जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन आयोजित किया था-
(अ) 1990 में
(ब) 1991 में
(स) 1992 में
(द) 1993 में।
उत्तर – ( स ) 1992 में।
प्रश्न 2 – भारत में मैदानी क्षेत्र का क्षेत्रफल है-
(अ) 43 प्रतिशत
(ब) 30 प्रतिशत
(स) 27 प्रतिशत
(द) 46 प्रतिशत ।
उत्तर- (अ) 43 प्रतिशत ।
प्रश्न 3. -भारत में किस मिट्टी का विस्तार सर्वाधिक क्षेत्रफल में है-
(अ) जलोढ़
(ब) काली
(स) लैटेराइट
(द) लाल व पीली ।
उत्तर- (अ) जलोढ़ ।
प्रश्न 4 – लैटेराइट मिट्टी का रंग कैसा होता है-
(अ) लाल
(ब) काला
(स) पीला
(द) भूरा।
उत्तर- (स) पीला ।
प्रश्न 5 – उत्तराखण्ड राज्य में कौन-सी मिट्टी पायी जाती है-
(अ) जलोढ़
(बं) पर्वतीय
(सं) लैटेराइट
(द) काली या रेगुर ।
उत्तर – (ब) पर्वतीय।