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WBBSE 10th Class Hindi Solutions रचना – निबंध–लेखन

WBBSE 10th Class Hindi Solutions रचना – निबंध–लेखन

West Bengal Board 10th Class Hindi Solutions रचना – निबंध–लेखन

West Bengal Board 10th Hindi Solutions

निबन्ध-लेखन

निबंध उस गद्य-रचना को कहते हैं जिसमें किसी विषय का वर्णन किया गया हो। निबंध के माध्यम से लेखक उस विषय के बारे में अपने विचारों और भावों को बड़े प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने की कोशिश करता है। एक श्रेष्ठ, सुगठित एवम् व्यवस्थित निबंध-लेखक को विषय का अच्छा ज्ञान होना चाहिए, उसकी भाषा पर अच्छी पकड़ होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अभिव्यक्ति होती है। इसलिए एक ही विषय पर हमें अलग-अलग तरीकों से लिखे गए निबंध मिलते हैं।
किसी एक विषय पर विचारों को क्रमबद्ध कर सुंदर, सुगठित और सुबोध भाषा में लिखी गई रचना को निबंध कहते हैं। अनेक विद्वानों ने निबंध शब्द की पृथक्-पृथक् व्याख्या की है—
1. निबंध अनियमित, असीमित और असंबद्ध रचना है।
2. निबंध वह लेख है जिसमें किसी गहन विषय पर विस्तृत और पांडित्यपूर्ण विचार किया जाता है।
3. मन की उन्मुक्त उड़ान निबंध कहलाती है ।
4. मानसिक विश्व का बुद्धि-विलास ही निबंध है ।
5. सीमित समय और सीमित शब्दों में क्रमबद्ध विचारों की अभिव्यक्ति ही निबंध हैं ।
अच्छे निबंध की विशेषताएँ-
एक अच्छे/श्रेष्ठ निबंध की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
(1) निबंध की भाषा विषय के अनुरूप होनी चाहिए ।
(2) विचारों में परस्पर तारतम्यता होनी चाहिए ।
(3) विषय से संबंधित सभी पहलुओं पर निबंध में चर्चा की जानी चाहिए ।
(4) निबंध के अंतिम अनुच्छेद में ऊपर कही गई सभी बातों का सारांश होना चाहिए ।
(5) वर्तनी शुद्ध होनी चाहिए तथा उसमें विराम-चिह्नों का उचित प्रयोग किया जाना चाहिए ।
(6) निबंध लिखते समय शब्दों की सीमा का अवश्य ध्यान रखना चाहिए ।
(7) निबंध किसी निश्चित उद्देश्य तथा एक विषय को लेकर लिखा जाना चाहिए ।
(8) निबंध में लेखक का व्यक्तित्व प्रतिफलित होना आवश्यक है ।
(9) निबंध अधिक विस्तृत न होकर संक्षेप में होना चाहिए ।
(10) निबंध-लेखन विचारों की एक अखंड धारा होती है, उसका एक निश्चित परिणाम होना चाहिए ।
प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से निबंध निम्नलिखित प्रकार के होते हैं —
1. वर्णनात्मक (माघ मेले का वर्णन, यात्रा का वर्णन, किसी त्योहार का वर्णन, विविध आयोजनों का वर्णन आदि) ।
2. विवरणात्मक (ताजमहल, हिमालय आदि) ।
3. भावप्रधान (मेरी माँ, मेरा प्रिय मित्र आदि) ।
4. विचारप्रधान (समय नियोजन, सच्ची मित्रता, स्वदेश प्रेम आदि) ।
निबंध-लेखन : पूर्व तैयारी :
निबंध लेखन से पूर्व विषय के विभिन्न बिंदुओं/पक्षों पर गहराई से विचार करना अपेक्षित है । विषय की निश्चित धारणा मन में बना लेनी चाहिए ताकि कोई आवश्यक बिंदु न छूटने पाए। इस दृष्टि से लेखक को अपने साथियों से चर्चा करके निबंध की रूपरेखा तैयार कर लेना उपयुक्त रहता है ।
रूपरेखा-निर्माण के बाद विषय संबंधी सामग्री तथा विभिन्न स्रोतों का संचयन करना उपयोगी होता है। उद्धरणों, विषयानुकूल उदाहरण सूक्तियों, तर्कों, प्रमाणों का संकलन कर लेना चाहिए ताकि उनका उपयुक्त प्रयोग किया जा सके।
निबंध लिखने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए ।
1. विभिन्न स्रोतों से विषय संबंधी जानकारी प्राप्त की जानी चाहिए।
2. छात्रों द्वारा अपने अध्यापक के साथ विषय पर चर्चा करने के उपरांत विषय की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए ।
3. रूपरेखा के आधार पर निबंध लिखते समय छात्रों द्वारा यथा-प्रसंग अपने निजी अनुभवों का उल्लेख किया जाना चाहिए।
निबंध का गठन : निबंध के तीन अंग होते हैं — (क) प्रस्तावना या भूमिका (ख) विषय का प्रतिपादन (ग) उपसंहार ।
यह पहले से निश्चित कर लेना चाहिए कि जितनी जानकारी विषय के संबंध में है, उसमें से कितनी प्रस्तावना में रहनी चाहिए, कितनी निबंधों के मुख्य अंश में और कितनी उपसंहार में ।
(क) प्रस्तावना :- प्रस्तावना ऐसी हो जो पाठक के मन में निबंध के विषय के प्रति उत्सुकता उत्पन्न कर दे । प्रस्तावना लंबी नहीं होनी चाहिए। कुछ ही वाक्यों के बाद विषय पर पहुँच जाना चाहिए ।
(ख) विषय का प्रतिपादन :-विषय के प्रतिपादन की दृष्टि से तथ्यों, भावों और विचारों का तर्कसंगत रूप में संयोजन किया जाना चाहिए । साथ ही उनकी क्रमबद्धता और सुसंबद्धता का ध्यान रखा जाना अपेक्षित है ।
  • निबंध के मुख्य अंश में सभी बातें और सभी विचार अलग-अलग अनुच्छेदों में लिखने चाहिए। एक अनुच्छेद में सामान्यत: एक ही बात या विचार रखा जाए। बातों और विचारों को प्रस्तुत करने में एक निश्चित क्रम होना चाहिए । सभी अनुच्छेद आपस में संबद्ध होने चाहिए, जिससे विचारों की एक श्रृंखला बनी रहे । ऐसा करने से ही निबंध सुगठित होता है और उसमें कसावट आती है ।
  • जहाँ आवश्यकता हो उद्धरण वहीं देना चाहिए । उद्धरण गद्य तथा पद्य दोनों में हो सकते हैं।
  • निबंध की भाषा शुद्ध, प्रांजल और विषय के अनुकल होनी चाहिए। यदि भाषा में किसी प्रकार की शिथिलता या कमज़ोरी रह जाती है तो निबंध का वांछित प्रभाव पाठक पर नहीं पड़ता।
(ग) उपसंहार :- निबंध के अंत में, विषय- विवेचन के आधार पर निश्चित निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए । इसका अंत इस प्रकार लिखा जाए कि निबंध का पाठक पर स्थायी प्रभाव पड़े।
प्रारंभ में सामान्य और परिचित विषयों पर निबंध लिखने का अभ्यास करना चाहिए । फिर गंभीर विषयों पर निबंध लिखने चाहिए । यहाँ कुछ निबंधों के उदाहरण दिए गए हैं

साहित्यिक निबंध

मेरी प्रिय पुस्तक ‘श्रीरामचरितमानस’

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) श्री रामचरितमानस की विशेषताएँ (3) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- जिस प्रकार मनुष्य की आँखें आकाश में असंख्य तारों के होते हुए भी ध्रुव तारे को ही खोजती हैं। उपवन में अनेक प्रकार के पुष्पों के होते हुए भी गुलाब का अपना महत्व है । उसी प्रकार हिंदी साहित्य में हजारों ग्रंथों के होते हुए भी ‘श्रीरामचरितमानस’ सबसे अधिक लोकप्रिय ग्रंथ है । यही वह महान ग्रंथ है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को उचित दिशा प्रदान करता है। आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व इस महाकाव्य की रचना हुई तथा आज भी इस महान रचना का महत्व सर्वाधिक है। यह एक विश्वप्रसिद्ध साहित्यिक एवं आध्यात्मिक ग्रंथ है। यही एकमात्र हिंदी का ऐसा ग्रंथ है जो हिंदी एवं अहिंदी भाषी सभी का प्रिय एवं सम्माननीय ग्रंथ है । ‘श्रीरामचरितमानस’ सदियों से एक महान ग्रंथ के रूप में स्वीकृत एवम् लोकप्रिय बना हुआ है।
‘श्रीरामचरितमानस’ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पावन चरित्र की झाँकी प्रस्तुत की गई है । महाकवि तुलसीदास ने संवत् 1631 में इसे लिखना प्रारंभ किया तथा यह महान ग्रंथ संवत् 1633 में लिखकर पूरा हुआ । इस ग्रंथ की रचना अवधी भाषा में हुई है। इसमें सात कांड हैं—बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किन्धाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड।
तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ एक ऐसा ग्रंथ है जिसके अध्ययन से प्रत्येक व्यक्ति को संतुष्ट, सुखी तथा सर्वहितकारी जीवन व्यतीत करने में सहायता मिलती है ।
श्रीरामचरितमानस सदाचार की शिक्षा देने वाला एक महाकाव्य है। इस ग्रंथ के प्रारंभ में ही कवि ने सदाचार के संबंध में कहा है कि, वे ही व्यक्ति वन्दनीय हैं जो दुःख सहकर भी दूसरों के दोषों को प्रकट नहीं करते —
जे सहि दुख परछिद्र दुरावा । वंदनीय जेहिं जग जस पावा ।।
तुलसीदास जी का दृष्टिकोण व्यापक था । उन्होंने उसी व्यक्ति और वस्तु को सर्वश्रेष्ठ माना है, जिससे सबका हित होता हो, किसी एक का नहीं—
कीरति भनिति भूति भल सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ।।
‘श्रीरामचरितमानस’ में तुलसीदास ने जिन पात्रों की सृष्टि की है वे मानव-जीवन के आदर्श पात्र हैं। ‘श्रीरामचरितमानस’ में आदर्श भाई, आदर्श पत्नी, आदर्श पुत्र, आदर्श माता, आदर्श पिता, आदर्श सेवक, आदर्श राजा एवं आदर्श प्रजा को प्रस्तुत करके तुलसीदास जी ने उच्चस्तरीय मानव-आदर्श की कल्पना की है ।
‘श्रीरामचरितमानस’ में एक ऐसे राज्य की कल्पना की गई है जिसमें कोई किसी से वैर नहीं करता। जिसमें सभी प्रेम के साथ रहते हैं तथा अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। जहाँ सभी उदार हों, कोई भी निर्धन न हो, कोई भी अज्ञानी न हो, किसी को भी दुःख न हो, किसी को रोग न हो। आजादी के बाद गाँधीजी ने भी भारत में ऐसे ही रामराज्य की कल्पना की थी ।
‘श्रीरामचरितमानस’ का स्थान हिंदी-साहित्य में ही नहीं, जगत् के साहित्य में निराला है। इसके जोड़ का ऐसा ही सर्वांगसुंदर उत्तम काव्य के लक्षणों से युक्त भगवान की आदर्श मानव-लीला तथा उनके गुण, प्रभाव, रहस्य और प्रेम के गहन-तत्व को अत्यंत सरस, रोचक एवं ओजस्वी शब्दों में व्यक्त करने वाला कोई दूसरा ग्रन्थ हिंदी-भाषा में ही नहीं, कदाचित् संसार की किसी भी भाषा में आज तक नहीं लिखा गया ।
उपर्युक्त गुणों के कारण ही ‘श्रीरामचरितमानस’ मेरा सर्वाधिक प्रिय ग्रंथ है।

मेरे प्रिय कवि : तुलसीदास अथवा, लोकनायक तुलसीदास

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) तुलसीदास के जन्म की पृष्ठ-भूमि (3) तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में (4) तुलसीदास की निष्काम भक्ति-भावना (5) तुलसी की समन्वय साधना (6) तुलसी के दार्शनिक विचार (7) तुलसीकृत रचनाएँ (8) उपसंहार ।

राम छोड़कर और की जिसने करी न आस ।
रामचरितमानस-कमल, जय हो तुलसीदास ।। 
प्रस्तावना :- मैंने हिंदी साहित्य के अंतर्गत कबीर, सूर, तुलसी, देव, घनानंद, बिहारी आदि अनेक कवियों का अध्ययन किया । आधुनिक कवि प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा तथा दिनकर का भी अध्ययन किया है किंतु भक्त-कवि तुलसीदास ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया । तुलसी के काव्य की अलौकिकता के समक्ष मैं सदैव नत-मस्तक होता रहा हूँ। उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य-सौष्ठव ने मुझे स्वाभाविक रूप से आकृष्ट किया है।
तुलसीदास का जन्म ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ जब हिंदू समाज अशक्त होकर विदेशी चंगुल में फँस चुका था । हिंदू समाज की संस्कृति और सभ्यता प्राय: विनष्ट हो चुकी थी तथा कहीं कोई आदर्श नहीं रह गया था । इस काल में मन्दिरों का विध्वंस हो रहा था, ग्रामों तथा नगरों का विनाश हुआ वहीं संस्कारों की भ्रष्टता भी चरम सीमा पर थी । तलवार के दबाव से हिंदुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था।
लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास ने अंधकार के गर्त में डूबी हुई जनता के सामने भगवान राम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया। इससे जनता में आशा और शक्ति का संचार हुआ । युगद्रष्टा गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस’ द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त विभिन्न मतों, संप्रदायों तथा धाराओं का समन्वय किया। उन्होंने उस युग को नवीन दिशा, नई गति तथा नवीन प्रेरणा प्रदान की। उन्होंने सच्चे लोकनायक के समान वैमनस्य की चौड़ी खाई को भरने का सफल प्रयास किया ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, “लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके क्योंकि भारतीय समाज में नाना प्रकार की विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचार-निष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं । भगवान बुद्ध समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुलसीदास समन्वयकारी थे ।”
जब ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों से संबंधित विवाद, दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित था तो तुलसीदास ने कहा—
सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा । गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ।।
साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छंद, रस तथा अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया । उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं । विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं । तुलसी ने अपने काव्य में संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया ।
तुलसी के बारह ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं। ये ग्रंथ हैं—’श्रीरामचरितमानस’, ‘विनय-पत्रिका’, ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘दोहावली’, ‘रामललानहछू’, ‘पार्वतीमंगल’, ‘जानकीमंगल’, ‘बरवै रामायण’, ‘वैराग्य संदीपनी’, ‘श्रीकृष्णगीतावली’ तथा ‘रामाज्ञाप्रश्नावली’ । तुलसीदास की ये रचनाएँ विश्व-साहित्य की अनुपम एवम् अमूल्य निधि हैं।
उपसंहार :- तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व तथा व्यक्ति और समाज आदि सभी के लिए महत्वपूर्ण सामग्री दी है । तुलसी को आधुनिक दृष्टि ही नहीं, प्रत्येक युग की दृष्टि मूल्यवान मानेगी, क्योंकि मणि की चमक अंदर से आती है बाहर से नहीं । वस्तुत: तुलसीदास हिंदी साहित्य के सर्वाधिक प्रतिभासंपन्न तथा युग को नवीन दिशा प्रदान करने वाले महान कवि हैं।

कबीर दास अथवा मेरे प्रिय भक्त कवि

रूपरेखा : (1) जन्मकालीन परिस्थितियाँ (2) जीवन वृत्त (3) समाज सुधार । (4) धार्मिक सिद्धान्त (5) हिन्दी साहित्य में कबीर का स्थान (6) उपसंहार ।

महात्मा कबीर का जन्म संवत् 1456 में हुआ था । कबीर पंथियों ने इनके जन्म के सम्बन्ध में यह दोहा लिखा है—
चौदह सौ छप्पन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ भए ।
जेठ सुदी बरसाइत की, पूरनमासी प्रकट भए ।।
किंवदंती के अनुसार कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । लोक-लाज के कारण वह इन्हें लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ आई थी । वहाँ से नीमा और नीरू नामक जुलाहा दम्पत्ति इन्हें ले आये, जिनके द्वारा इनका पालन-पोषण हुआ। कबीर के बाल्यकाल का विवरण अभी तक अज्ञात ही है पर इतना अवश्य है कि उनकी शिक्षा-व्यवस्था यथावत् नहीं हुई थी । उन्होंने स्वयं लिखा है —
मसि कागद छूऔ नहिं, कलम गही नहिं हाथ ।
संक्रांतिकाल में पथ-प्रदर्शन करने वाले किसी भी व्यक्ति को जहाँ जनता के अंधविश्वासों और मूर्खतापूर्ण कृत्यों का खण्डन करना पड़ता है, वहाँ उसे समन्वय का एक बीच का मार्ग भी निकालना पड़ता है। यही कार्य कबीर को भी करना पड़ा है। जहाँ इन्होंने पण्डितों, मौलवियों, पीरों, सिद्धों और फकीरों को उनके पाखण्ड और ढोंग के लिये फटकारा, वहाँ उन्होंने एक ऐसे सामान्य धर्म की स्थापना की जिसके द्वार सबके लिए खुल गये थे। एक ओर इन्होंने हिन्दुओं के तीर्थ, वृत्त, मठ, मन्दिर, पूजा आदि की आलोचना की तो दूसरी ओर मुसलमानों के रोजा, नमाज और मस्जिद की भी खूब निन्दा की। माला फेरने वाले पण्डित-पुजारियों के विषय में उन्होंने कहा—
माला फेरत. जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ।।
×       ×      ×      ×       ×     ×     ×     ×
जप माला छापा तिलक, सरै न एको काम ।
मन काँचे नाचे वृथा, साँचे राँचे राम ।।
कबीर निर्गुणकारी थे, साकार भक्ति में उन्हें विश्वास नहीं था, इसलिए स्थान-स्थान पर उन्होंने मूर्ति-पूजा का विरोध किया-
पाहन पूजै हरि मिलें, तो, मैं पूजूँ पहार ।
चाकी कोई न पूजई, घीस खाय संसार ।।
कवि के लिए प्रतिभा, शिक्षा, अभ्यास ये तीनों बातें आवश्यक होती हैं। कबीर ने न तो कहीं शिक्षा प्राप्त की थी और न किसी गुरु के चरणों में बैठकर काव्य-शास्त्र का अभ्यास ही किया था, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे ज्ञान से शून्य थे। भले ही उनमें परावलम्बी ज्ञान न रहा हो, परन्तु स्वावलम्बी ज्ञान की उनमें कमी नहीं थी। उन्होंने सत्संग से पर्याप्त ज्ञान संचय किया था। वे बहुश्रुत थे, उनके काव्य में विभिन्न प्रतीकों तथा अलंकारों की छटा दिखाई पड़ती है। उनके रूपक और उलटबांसियों के विरोधाभास तो अद्वितीय हैं । भाषा सधुक्कड़ी होने पर भी अभिव्यक्तिपूर्ण है।
कबीर को कोई-कोई विद्वान केवल समाज सुधारक और ज्ञानी मानते हैं, परन्तु कबीर में समाज सुधारक, ज्ञानी और कवि, तीनों रूप मिलकर एकाकार हो गये हैं। वे सर्वप्रथम समाज-सुधारक थे, उसके पश्चात् ज्ञानी और उसके पश्चात् कवि । कबीर ने अपनी प्रखर भाषा और तीखी भावाभिव्यक्ति से साहित्यिक मर्यादाओं का अतिक्रमण भले ही कर दिया हो परन्तु उन्होंने जो काव्य-सृजन किया, उसके द्वारा साहित्य तथा धर्म में युगान्तर अवश्य उपस्थित हुआ।

महाकवि सूरदास अथवा मेरे प्रिय कवि

रूपरेखा : (1) भूमिका, (2) जीवन-परिचय, (3) साहित्य-सेवा, (4) उपसंहार ।

वात्सल्य भाव के अमर गायक महाकवि सूरदास मध्यकाल में चलने वाली सगुण भक्तिधारा के अन्तर्गत चलने वाली कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि थे। इन्हें हिन्दी – साहित्य – आकाश का सूर्य एवं एक अमर विभूति माना जाता है ।
महाकवि सूरदास का जन्म सम्वत् 1535 में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण-परिवार में हुआ मान जाता है। इस बात में मत-भेद पाया जाता है कि सूरदास जन्मान्ध थे या नहीं । एक मत के लोग मानते है कि सूरदास जन्म से ही अन्धे थे ।
कविवर सूरदास गोस्वामी वल्लभाचार्य के परम शिष्य, उनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित ‘अष्टछाप’ के कवियों में सर्वप्रमुख कवि थे । उनके आदेश से श्रीनाथ जी के मन्दिर में स्वरचित पद गाकर भजन-कीर्तन किया करते थे।
सूरदास की रचनाओं की संख्या तेईस-चौबीस तक कही जाती है; पर उपलब्ध और मुख्य तीन रचनाओं के नाम हैं – सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी । इन की कीर्ति का आधार स्तम्भ है – सूरसागर । सूरसागर में कवि ने श्रीमद्भगवत पुराण के दशम स्कन्ध के आधार पर कृष्ण-लीलाओं का गायन करते हुए भी अपनी अद्भुत मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। इनमें राधा की परिकल्पना तो कवि की अपनी देन है ही, सूरसागर में संकलित ‘भ्रमरगीत’ को भी कवि ने अपनी मौलिक कल्पना से नया रूप-रंग प्रदान कर दिया है और भी अनेक मौलिक उद्भावनाओं से कृष्ण-जीवन को नया स्वरूप प्रदान किया है। सूरकाव्य में वात्सल्य रस प्रधान है।
वात्सल्य के बाद ‘सूरसागर’ का दूसरा प्रमुख रस है शृंगार । शृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों का वर्णन अत्यन्त सजीव एवं ताजगी लिए हुए है । ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग की रचना इन्होंने निर्गुण-निराकारवाद, ज्ञान-योग के खण्डन के लिए तो की ही थी, वियोग-शृंगार का उत्कर्ष दिखाना भी उसका उद्देश्य प्रतीत होत है। अपने लीला के पदों में कविवर सूरदास ने सख्यभाव का भी उत्कर्ष दिखाया है । सूरदास की दूसरी रचना ‘सूर सारावली के 1103 पदों में सूरसागर का सार संकलित किया गया है। हँ, कृष्ण लीला के जो प्रसंग सूरसागर में नहीं आ पाए, कुछ ऐसे प्रसंग भी इसमें वर्णित हैं ।
सूरदास का समस्त काव्य मनोविज्ञान का सुंदर अध्ययन है, विशेषकर वात्सल्य वर्णन । सूर के वात्सल्य वर्णन के बारे में डाँ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है – “यशोदा के वात्सल्य में सब कुछ है, जो माता शब्द को इतना महिमामय बनाए हुए है। यशोदा के बहाने सूरदास ने मातृ-हृदय का ऐसा स्वाभाविक, सरल और हृदयग्राही चित्र खींचा है कि आश्चर्य होता है। माता संसार का ऐसा पवित्र रहस्य है, जिसे कवि के अतिरिक्त किसी को व्याख्या करने का अधिकार नहीं । सूरदास जहाँ पुत्रवती जननी के प्रेम-पोषक हृदय को छूने में समर्थ हुए हैं, वहाँ वियोगिनी माता के करुणा विगलित हृदय को छूने में भी समर्थ हुए हैं।”

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

रूपरेखा : (1) जीवन वृत्त (2) काव्य की पृष्ठभूमि (3) रचनायें (4) काव्य की विशेषतायें (5) उपसंहार ।

वर्तमान काव्यधारा के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त का जन्म संवत् 1943 में झाँसी जिले के चिरगाँव नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता का नाम सेठ रामचरण था । वैष्णव भक्त होने के साथ-साथ सेठ जी का कविता के प्रति भी असीम अनुराग था । वे’कनकलता’ के नाम से कविता किया करते थे। गुप्त जी का पालन-पोषण भक्ति एवम् काव्यमय वातावरण में ही हुआ । वातावरण के प्रभाव से गुप्त जी बाल्यावस्था से ही काव्य रचना करने लगे थे। गुप्त जी की शिक्षा-व्यवस्था घर पर ही हुई। अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे झाँसी आये किन्तु वहाँ उनका मन न लगा । काव्य-रचना की ओर प्रारम्भ से ही उनकी प्रवृति थी। एक बार अपने पिता जी की उस कॉपी में, जिसमें वे कविता किया करते थे, अवसर पाकर एक छप्पय लिख दिया । पिता जी ने जब कॉपी खोली और उस छप्पय को पढ़ा, तब वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने मैथिलीशरण को बुलाकर महाकवि होने का आशीर्वाद दिया।
गुप्त जी की प्रारम्भिक रचनायें कलकत्ता के ‘जातीय पत्र’ में प्रकाशित हुआ करती थी। पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने पर उनकी रचनायें ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने लगीं। द्विवेदी जी ने समय-समय पर उनकी रचनाओं में संशोधन किया और उन्हें ‘सरस्वती’ में प्रकाशित कर उन्हें प्रोत्साहन दिया । द्विवेदी जी से प्रोत्साहन पाकर गुप्त जी की काव्य-प्रतिभा जाग उठी और शनैः-शनै: उसका विकास होने लगा । आज के हिन्दी साहित्य को गुप्त जी की काव्य-प्रतिभा पर गर्व है ।
गुप्त जी अपने जीवन के प्रथम चरण से ही काव्य-रचना में प्रवृत्त रहे । राष्ट्र प्रेम, समाज प्रेम, राम, कृष्ण तथा बुद्ध सम्बन्धी पौराणिक आख्याओं एवं राजपूत, सिक्ख तथा मुस्लिम संस्कृति प्रधान ऐतिहासिक कथाओं को लेकर गुप्त जी ने लगभग चालीस काव्य-ग्रन्थों की रचना की है। गुप्त जी ने मौलिक ग्रन्थों के अतिरिक्त बंगला के काव्य-ग्रन्थों का अनुपम अनुवाद भी किया है। अनुवादित रचनायें ‘मधुप’ के नाम से हैं। उन्होंने फारसी के विश्व-विश्रुत कवि उमर खैयाम की रुबाइयों का अनुवाद भी अंग्रेजी के द्वारा हिन्दी में किया है। रंग में भंग, जयद्रथ वध, भारत भारती, शकुन्तला, वैतालिका, पद्मावती, किसान, पंचवटी, स्वदेशी संगीत, हिन्दू-शक्ति, सौरन्ध्री, वन वैभव, वक संहार, झंकार, अनघ, चन्द्रहास, तिलोत्तमा, विकट भट, मंगल घट, हिडिम्बा, अंजलि, अर्ध्य, प्रदक्षिणा और जय भारत उनके काव्य हैं। ‘साकेत’ पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से उन्हें मंगला प्रसाद पारितोषिक भी प्राप्त हुआ था । ‘जय भारत’ उनकी नवीनतम कृति थी ।
गुप्त जी की ‘भारत-भारती’ में देश-प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है । अंग्रेजी शासन के विरोध में होने के कारण यह पुस्तक कुछ समय तक जब्त भी रही थी। इसमें उन्होंने अतीत गौरव की भव्य झाँकी प्रस्तुत की है। भारतवर्ष की तत्कालीन दुर्दशा पर दुःख प्रकट करते हुए आपने लिखा है-
हम कौन थे क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी ।
आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्यायें सभी ।।
भारतवर्ष में स्त्री जाति चिरकाल से उपेक्षित रही है। गुप्त जी उनकी इस दशा पर दुःखी हो उठते हैं—
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।
गुप्त जी की कविता की भाषा सरल और सुबोध है । उसे साधारण से साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है । गुप्त जी की कविता में कोमलता और माधुर्य का अभाव है। कहीं कहीं तो रुखा गद्य-सा जान पड़ता है । इनकी कविता की सफलता का रहस्य भाषा तथा भावों की सुबोधता है न कि उनका काव्य-सौन्दर्य । एक आलोचक का विचार है, कि गाँधी जी जो कुछ भी अपने भाषणों में कह देते थे, प्रेमचन्द जी उसे अपने उपन्यासों में और मैथिलीशरण उसे अपनी कविता में ज्यों का त्यों कुछ उलट-फेर करके उतार दिया करते थे ।

उपन्यास-सम्राट प्रेमचन्द अथवा, मेरे प्रिय लेखक (मॉडल प्रश्न – 2007)

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) जीवन परिचय (3) साहित्य सेवा (4) रचनागत विशेषताएँ (5) उपसंहार ।

प्रेमचन्द का जन्म बनारस के निकट लमही नामक गाँव में सन् 1880 में हुआ था। उनके पिता मुंशी अजायब राय डाकखाने के एक साधारण लिपिक थे, अत: परिवार की आर्थिक स्थिति सामान्य थी । प्रेमचन्द जी के बचपन का नाम धनपत राय था । इनकी साहित्यिक प्रतिभा से प्रभावित होकर दयाराम निगम नामक एक उर्दू लेखक ने इनका नाम प्रेमचन्द रखा ।
प्रेमचन्द जी महान कथा-शिल्पी थे । उपन्यास तथा कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे। उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ उर्दू में लिखी गयीं, किन्तु कुछ समय बाद ही वे हिन्दी में लिखने लगे। यही कारण है कि प्रेमचन्द जी को हिन्दी तथा उर्दू भाषा-भाषियों में समान रूप से लोकप्रियता मिली। प्रेमचन्दजी के साहित्य को हम निम्न रूप में श्रेणीबद्ध कर सकते हैं
उपन्यास :- सेवासदन, कर्मभूमि, कायाकल्प, निर्मला, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रय, वरदान, रंगभूमि, गबन तथा गोदान आदि।
कथा-संग्रह :-सप्त सरोज, प्रेम पचीसी, प्रेम प्रसूना, प्रेम पूर्णिमा, प्रेमतीर्थ, प्रेम प्रमोद, प्रेम द्वादशी, प्रेम प्रतिज्ञा, कफन, नवनिधि, पाँच फूल, मानसरोवर के 8 खण्ड आदि ।
नाटक :- प्रेम की वेदी, कर्बला, संग्राम, रूठी रानी ।
निबन्ध संग्रह :- कुछ विचार तथा निबन्ध-संग्रह ।
जीवनी :-कलम, त्याग और तलवार, दुर्गादास और महात्मा शेखसादी ।
बाल-साहित्य :- कुत्ते की कहानी, जंगल की कहानियाँ, रामचर्चा और मनमोदक ।
अनुवाद :-टाल्स्टाय की कहानियाँ, सुखदास, चाँदी की डिबिया, हड़ताल आदि ।
रचनागत विशेषताएँ :-प्रेमचन्द जी ने अपनी कला को जीवन के प्रति समर्पित किया, अत: उनके प्रत्येक शब्द और वाक्य में जीवन की अनुगूंज सुनाई देती है। उनकी रचनाएँ भारत के दीन-दुःखी किसानों, शोषित मजदूरों, सामाजिक दुष्प्रवृत्तियों की शिकार अबलाओं की मर्मव्यथा का सजीव चित्र देकर पाठकों के हृदय में सच्ची सहानुभूति जगाती हैं तथा उनसे जटिल समस्याओं का निदान ढूँढ़ने की प्रेरणा देती हैं।
उपसंहार :- प्रेमचन्द जी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति हैं । उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी का स्थान विश्व साहित्य-कला शिल्पियों की प्रथम श्रेणी में प्रतिष्ठित हो चुका है। शोषितों, दलितों तथा दीन-दुखियों को कथानायक बनाकर एवं उनकी मूक व्यथा को वाणी प्रदान कर प्रेमचन्द जी ने जैसी लोकप्रियता अर्जित की है वह बाद के किसी भी हिन्दी लेखक को प्राप्त नहीं हो सकी।

शैक्षिक निबंध

देशप्रेम

रूपरेखा : : (1) प्रस्तावना (2) देशप्रेम की स्वाभाविकता (3) देश-प्रेम का महत्व (4) उपसंहार ।

देशप्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित ।
आत्मा के विकास से जिसमें, मानवता होती है विकसित ।।
प्रस्तावना :-मनुष्य जिस देश अथवा समाज में पैदा होता है, उसकी उन्नति में सहयोग देना उसका प्रथम कर्त्तव्य है, अन्यथा उसका जन्म लेना व्यर्थ है। देशप्रेम की भावना ही मनुष्य को बलिदान और त्याग की प्रेरणा देती है। मनुष्य जिस भूमि पर जन्म लेता है, जिसका अन्न. खाकर, जल पीकर अपना विकास करता है उसके प्रति प्रेम की भावना का उसके जीवन में सर्वोच्च स्थान होता है। इसी भावना से ओत-प्रोत होकर कहा गया है-
‘जननी जन्मभूमिश्च सवर्गादपि गरीयसी’ (अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं ।)
देशप्रेम की स्वभाविकता : मनुष्य तथा पशु आदि जीवधारियों की तो बात ही क्या, फूल-पौधों में भी अपने देश के लिए मिटने की चाह होती है । पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने पुष्प के माध्यम से इस अभिलाषा का अत्यंत सुंदर वर्णन किया है-
मुझे तोंड़ लेना वनमाली उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि को शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक ।
अपने देश अथवा अपनी जन्मभूमि के प्रति प्रेम होना मनुष्य की एक स्वाभाविक भावना है ।
देश-प्रेम का महत्व :- देश-प्रेम विश्व के सभी आकर्षणों से बढ़कर है। यह एक ऐसा पवित्र तथा सात्विक भाव है जो मनुष्य को लगातार त्याग की प्रेरणा देता है। देश-प्रेम का संबंध मनुष्य की आत्मा से है । मानव की हार्दिक इच्छा रहती है कि उसका जन्म जिस भूमि पर हुआ है, वहीं पर वह मृत्यु को वरण करे । विदेशों में रहते हुए भी व्यक्ति अंत समय में अपनी मातृभूमि का दर्शन करना चाहता है।
देशप्रेम की भावना मनुष्य की उच्चतम भावना है। देश-प्रेम के सामने व्यक्तिगत लाभ का कोई महत्व नहीं है । जिस मनुष्य के मन में देश के प्रति अपार प्रेम और लगाव नहीं है, उस मानव के हृदय को कठोर, पाषाण-खंड कहना ही उपयुक्त होगा। इसीलिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण के अनुसार-
भरा नहीं है जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं ।
हृदय नहीं पत्थर है वह, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।।
जो मानव अपने देश के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर देता है तो वह अमर हो जाता है, किंतु जो देश-प्रेम तथा मातृभूमि के महत्व को नहीं समझता, वह तो जीवित रहते हुए भी मृतक जैसा है—
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है ।।
केवल राष्ट्र हित में राजनीति करने वाला व्यक्ति ही देश-प्रेमी नहीं है । स्वस्थ व्यक्ति सेना में भर्ती होकर, मजदूर, किसान व अध्यापक अपना कार्य मेहनत, निष्ठा तथा लगन से करके और छात्र अनुशासन में रहकर देश-प्रेम का परिचय दे सकते हैं ।
उपसंहार :- प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपना सब कुछ अर्पित करके भी देश की रक्षा तथा विकास में सहयोग दें। हम देश में कहीं भी रहें, किसी भी रूप में रहें, अपने कार्य को ईमानदारी से तथा देश के हित को सर्वोपरि मानकर करें । आज जब देश अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं से जूझ रहा है, ऐसे समय में प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि हम अपने व्यक्तिगत सुखों का त्याग करके देश के सम्मान की रक्षा तथा विकास के लिए तन-मन-धन को अर्पित कर दें ।
प्रत्येक नागरिक के लिए छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के ये शब्द आदर्श बन जाएँ-
जिएँ तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे या हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।

विद्यार्थी और अनुशासन

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) अनुशासन न होने से उत्पन्न समस्या (3) अनुशासन से लाभ (4) विद्यार्थियों के लियेअनुशासन की अनिवार्यता (5) उपसंहार ।

अनु-शासन, इन दो शब्दों के मेल से ‘अनुशासन’ शब्द बना है। इसमें ‘अनु’ उपसर्ग का अर्थ है-पश्चात, बाद में साथ आदि । ‘शासन’ का अर्थ है नियम, विधान, कानून आदि । इस प्रकार दोनों के मेल से बने अनुशासन का सामान्य एवं व्यावहारिक अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति जहाँ भी हो, वहाँ के नियमों, उपनियमों तथा कायदे-कानून के अनुसार शिष्ट आचरण करे । एक आदमी अपने घर में अपने छोटों या नौकर-चाकरों के साथ जिस तरह का व्यवहार कर सकता है, वैसा घर के बाहर अन्य लोगों के साथ नहीं कर सकता। घर से बाहर समाज का अनुशासन भिन्न होता है । इसी तरह दफ्तर में आदमी को एक अलग तरह के माहौल में रहना और वहाँ के नियम-कानूनों का पालन करना होता है । इसी तरह मन्दिर का नियम-अनुशासन अलग होता है, बाजार एवं मेले का अनुशासन अलग हुआ करता है। ठीक इसी तरह एक छात्र जिस विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने जाता है, वहाँ उसे एक अलग तरह के माहौल में रहना पड़ता है। वहाँ का अनुशासन भी उपर्युक्त सभी स्थानों से सर्वथा भिन्न हुआ करता है । अतः व्यक्ति जिस किसी भी तरह के माहौल में हो, वहाँ के मान्य नियमों, सिद्धान्तों का पालन करना उसका कर्त्तव्य हो जाता है। इस कर्त्तव्य का निर्वाह करने वाला व्यक्ति ही अनुशासित एवं अनुशासनप्रिय कहलाता है।
सन् 1974 ई० की समग्रक्रांति के प्रणेता जयप्रकाश नारायण तथा आपातकाल विरोधी आंदोलन के नेताओं ने शासन के विरुद्ध विद्यार्थी वर्ग का खुलकर प्रयोग किया। विरोधी आंदोलनों के परिणामस्वरूप मई, सन् 1977 ई० के बाद तो अनुशासनहीनता चारों ओर फैलती जा रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात आपातकाल से पहले तक का समय ऐसा था, जब स्कूल-कॉलेजों में अनुशासन का पूर्ण रूप से पालन कर छात्रों में गुरुजनों के प्रति श्रद्धा का भाव था । वे नियमित रूप से एकाग्रचित होकर अध्ययन करते थे। अब तो छात्र आये दिन कोई न कोई उपद्रव खडा करते रहते हैं ।
अनुशासन तोड़ने पर शारीरिक दण्ड देना कानूनी अपराध है। तब विद्यार्थी को किस तरह डराकर रखा जाये ? तुलसीदास जी ने कहा है, ‘भय बिनु होय न प्रीति ।’ जब भय नहीं तो विद्रोह होना स्वाभाविक है।
आज के स्वार्थपूर्ण, अस्वस्थ वातावरण में विद्यार्थियों को शांत और नियम में रहना अस्वाभाविक जान पड़ता है। अस्वस्थ प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह उसकी जागरूकता का परिचायक है। जिस प्रकार अग्नि, जल और अणुशक्ति का रचनात्मक तथा विध्वंसात्मक दोनों रूपों में प्रयोग सम्भव है, उसी प्रकार युवा-शक्ति का उपयोग भी ध्वंसात्मक और रचनात्मक दोनों रूपों में किया जा सकता है। युवा-शक्ति का रचनात्मक उपयोग ही राष्ट्र-हित में वांछनीय है । यह तभी सम्भव है जब शिक्षक की भूमिका गरिमापूर्ण हो तथा राजनीति को शिक्षा से दूर रखा जाये।

शिक्षक दिवस

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मोत्सव के रूप में (3) उपसंहार ।

डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन प्रसिद्ध दार्शनिक, शिक्षा शास्त्री एवं संस्कृत विषय के प्रकाण्ड विद्वान थे। सन् 1962 से 1967 ई. तक वे भारत के राष्ट्रपति भी रहे । राष्ट्रपति पद पर प्रतिष्ठत होने से पहले वे शिक्षा जगत् से जुड़े हुए थे। प्रेसीडेंसी कॉलेज, मद्रास में इन्होंने दर्शनशास्त्र पढ़ाया और सन् 1921 से सन् 1936 ई. तक इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर पद को अलंकृत किया। सन् 1936 ई० से सन् 1939 ई. तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पूर्वी  देशों के धर्म और दर्शन के स्पालिंडन प्रोफेसर पद को सम्मानित किया। सन् 1939 से सन् 1948 ई. तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। राष्ट्रपति बनने के बाद इनके प्रशंसकों ने इनका जन्मदिन सार्वजनिक रूप से मनाना चाहा तो इन्होंने जीवनपर्यन्त स्वयं शिक्षक रहने के कारण पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा व्यक्त की । तब से हर वर्ष पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
शिक्षकों को गरिमा प्रदान करने का दिन है- शिक्षक दिवस। शिक्षक राष्ट्र के निर्माता और राष्ट्र संस्कृति के संरक्षक हैं। अध्यापक का पर्यायवाची शब्द गुरू है। उपनिषद के अनुसार गु अर्थात् अंधकार और रू का अर्थ है निरोधक। अंधकार का निरोध करने वाला गुरू कहा जाता है। वे शिक्षा द्वारा बालकों के मन में सुसंस्कार डालते हैं तथा उनके अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर देश का अच्छा नागरिक बनाने का प्रयास करते हैं। राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षक का कार्यक्षेत्र विस्तृत है। किन्तु यह दिवस प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च तथा वरिष्ठ माध्यमिक शिक्षण संस्थाओं तक ही सीमित है।
प्रत्येक प्रादेशिक सरकार अपने स्तर पर शिक्षण के प्रति समर्पित और विद्यार्थियों के प्रति प्रेम रखने वाले शिक्षकों की सूची तैयार करती है। ऐसे वरिष्ठ और योग्य शिक्षकों को मंत्रालय द्वारा 5 सितम्बर को सम्मानित किया जाता है।
शिक्षक ज्ञान की कुंजी होते हैं। उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिये शिक्षक दिवस का अपना महत्व है। मगर आज शिक्षकों तथा छात्रों का रूप बदल गया है। आज शिक्षकों का लक्ष्य सही दिशा और ज्ञान देने की अपेक्षा धन कमाना हो गया है। छात्र भी शिक्षक के महत्व को नहीं समझते। उनके हृदय में शिक्षक के प्रति श्रद्धा का भाव न रहकर, उन्हें उपहार देकर अपने नम्बर बढ़वाने की लालसा रखते हैं ।
जिस मूल-भाव या उद्देश्य के लिये शिक्षक दिवस मनाया जाता है, वर्तमान समय में वह उद्देश्य लुप्त हो गया है । अब शिक्षक दिवस मनाने की औपचारिकता ही शेष बची है ।
यही वजह है कि आज शिक्षा का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। शिक्षा मात्र व्यवसाय बन कर रह गई है। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य शिक्षक और छात्र भूलते जा रहे हैं। आज शिक्षक को सम्मानित करना राजनीतिक दावपेंच के अंतर्गत आ गया है। इसी वजह से अच्छे और अनुकरणीय शिक्षक इस सम्मान से वंचित रह जाते हैं। यदि शासकीय प्रशासन, निष्पक्ष भाव से योग्य शिक्षकों को ही सम्मानित करे और उन्हें पद्मश्री जैसे अलंकारों से विभूषित करे तो शिक्षक दिवस की गरिमा बनी रह सकती है।

हिन्दी दिवस

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) हिन्दी के अस्तित्व की सुरक्षा (3) हिन्दी की समृद्धि (4) उपसंहार ।

देश आजाद होने के पश्चात् संविधान सभा ने 14 सितम्बर, सन् 1949 ई० को हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया। संविधान के अनुच्छेद 343 में लिखा गया-
“संघ की सरकारी भाषा देवनागरी लिपि हिन्दी होगी और संघ के सरकारी प्रयोजनों के लिये भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा । अधिनियम के खण्ड दोमें लिखा गया कि इस संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी प्रयोजनों के लिये अंग्रेजी का प्रयोग सहायक भाषा के रूप में होता रहेगा। अनुच्छेद (ख) धारा तीन में व्यवस्था दी गई कि संसद उक्त पंद्रह वर्ष की कालावधि के पश्चात् विधि द्वारा अंग्रेजी भाषा का (अथवा) अंकों के देवनागरी रूप का ऐसे प्रयोजन के लिये प्रयोग उपबन्धित कर सकेगी जैसे की ऐसी विधि में उल्लेखित हो।
इसके साथ ही अनुच्छेद एक के अधीन संसद की कार्यवाही हिन्दी अथवा अंग्रेजी में सम्पन्न होगी। 26 जनवरी, सन् 1965 ई० के बाद संसद की कार्यवाही केवल हिन्दी में ही निष्पादित होगी, बशर्ते संसद कानून बनाकर कोई अन्य व्यवस्था न करे।”
14 सितम्बर हिन्दी दिवस, हिन्दी के राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने का गौरवपूर्ण दिन है। हिन्दी दिवस, एक पर्व के रूप में मनाया जाता है। हिन्दी के प्रचार के लिए प्रदर्शनी, गोष्ठी, मेला, सम्मेलन तथा समारोहों का आयोजन किया जाता है। यह दिन हिन्दी की सेवा करने वालों को पुरस्कृत करने का दिन है। सरकारी, अर्द्धसरकारी कार्यालयों तथा बड़े उद्योगिक क्षेत्रों में हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह और हिन्दी पखवाड़ा के रूप में मनाकर हिन्दी के प्रति प्रेम प्रकट किया जाता है।
भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में हिन्दी जैसी लोकभाषा की उपेक्षा का अर्थ है लोकभावना की उपेक्षा । लोकभावना की उपेक्षा करके कोई लोकतन्त्र कैसे और कब तक टिक सकता है ? पिछले ढाई सौ वर्षों में भारत की तीन प्रतिशत आबादी भी अंग्रेजी नहीं सीख पाई। यदि अंग्रेजी सिखाई नहीं जा सकी तो क्या अंग्रेजी लादी जाती रहेगी? यह कैसी विडम्बना है कि केवल दो प्रतिशत अंग्रेजीपरस्त लोग देश की 98 प्रतिशत जनता पर अपना भाषाई आधिपत्य जमाए हुए हैं, जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है ।
हिन्दी के प्रति उनकी जो वचनबद्धता थी वे आज उसे भूल गये हैं। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाकर भी हिन्दी का अपमान किया गया। अंग्रेजी सहायक भाषा होकर भी उन्नति, प्रगति और समृद्धि का सोपान बन गई। अंग्रेजी को आधुनिक जीवन के लिये अनिवार्य माना जाने लगा। आज तो स्कूल-कॉलेज सभी कुकुरमुत्ते की भाँति अंग्रेजी-माध्यम में बदलते जा रहे हैं। अंग्रेजी का प्रयोग न करने वाला पिछड़ा कहलाता है। हिन्दी बोलने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। अंग्रेजी बोलने वालों को हर क्षेत्र में वरीयता दी जाती है।
हिन्दी के चापलूस, स्वार्थी और भ्रष्ट अधिकारियों ने हिन्दी के विकास और समृद्धि के नाम पर अदूरदर्शिता और विवेकहीनता का परिचय दिया है। राजकीय कोष से हर वर्ष करोड़ों रुपये हिन्दी का उपकार करने के लिए खर्च किये जाते हैं, लेकिन यह सब केवल दिखावा है ।
परिणामस्वरूप हिन्दी समृद्धशाली होने के बावजूद अपने ही घर में अपने ही लोगों द्वारा हेय दृष्टि से देखी जा रही है। हिंदी भाषी बुद्धिजीवी तथा हिन्दी समर्थक अपने स्वार्थपूर्ति के चक्कर में हिन्दी के प्रति अपनी आवाज ठीक ढंग से नहीं उठाते। भारतेंदु आदि मनीषियों ने जो सपना देखा था वह साकार नहीं हो सका –
अपने ही घर में हो रहा अपमान हिंदी का,
पैरों तले रौंदा रहा सम्मान हिंदी का ।
हिन्दी-भाषी बुद्धिजीवी हिन्दी के पक्ष में लच्छेदार भाषण तो देते हैं, मगर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिये सक्रिय रूप से कोई कार्य नहीं करते। परिणामस्वरूप बृहत रूप से बोली और समझी जाने वाली भाषा होकर भी इसे वह सम्मान प्राप्त नहीं हुआ, जिसकी वह अधिकारिणी थी। राष्ट्रभाषा हिन्दी होने के बावजूद सरकारी कार्य अभी भी अंग्रेजी में होते हैं। हिन्दी में पत्र-व्यवहार तो एक प्रकार से खत्म हो गया है। आज हिन्दी की पत्र-पत्रिकायें धन तथा पाठकों के अभाव में बंद होती जा रही हैं। आजादी के पहले जितनी पत्र-पत्रिकायें निकलती थीं उनकी तुलना में आज पत्र-पत्रिकाओं की संख्या नगण्य है।
अत: हिन्दी दिवस सिर्फ एक दिखावे का पर्व बनकर रह गया है। यह आवश्यक है कि हम हिंदी के प्रति प्रेम प्रकट करें तथा हिंदी के विकास के लिये पूर्ण रूप से अपना योगदान करें। भारतवासियों को यह शपथ लेनी होगी कि स्वतंत्रता के पूर्व हिन्दी को जो आश्वासन दिया गया था, उसे सच्चे अर्थों में पूरा करेंगे और इस बात का ध्यान रखेंगे कि उसकी सहायक भाषा बनकर कोई उसे निगल न ले। ऐसा करके ही हम सच्चे अर्थों में हिन्दी दिवस मना सकेंगे और हिन्दी के प्रति अपनी निष्ठा और श्रद्धा व्यक्त कर सकेंगे। यह निश्चित है कि हिन्दी भाषा की ज्वलंत प्राण-शक्ति सारे विरोधों को अनायास काट देगी और भारत-भारती के रूप में प्रतिष्ठित होगी । गोपाल सिंह ‘नेपाली’ के शब्दों में –
इस भाषा में हर मीरा को मोहन की माला जपने दो ।
हिन्दी है भारत की बोली तो अपने-आप पनपने दो ।

जीवन में खेल का महत्व

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) खेल-कूद का जीवन में महत्व (3) खेल-कूद मनोरंजन का भी उत्कृष्ट साधन है (4) उपसंहार ।

मानव-जीवन परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ उपहार है और खेल जीवन के रस-प्राण हैं। खेल के बिना जीवन जड़ है। खेलमय जीवन में ही जागृति और उत्थान है। जैनेंद्र जी कहते हैं – “जीवन दायित्व का खेल है और खेल में जीवन दायित्व की प्राण-संजीवनी शक्ति है।”
वैदिक काल से ही मनुष्य की इच्छा रही है कि मेरा शरीर पत्थर के समान मजबूत हो और दिनोंदिन वह फूले-फले । इस इच्छा की पूर्ति निरोगी काया द्वारा हो सकती है जिसके लिये जरूरी है खेल।
गतिशीलता जीवन का लक्षण है और गतिशीलता निर्भर करती है स्वस्थ शरीर पर। जीवन भोग का कोश है। इंद्रियजनित इच्छा और सुख की तृप्ति के लिए चाहिए शक्ति। शक्ति के लिए जरूरी है आत्मविश्वास। आत्मविश्वास खेल द्वारा बढ़ता है। खेलों के कई रूप हैं, मनोविनोद तथा मनोविज्ञान के खेल और धनोपार्जन कराने वाले खेल। मनोरंजन वाले खेलों में हैं – ताश, शतरंज, कैरम, जादुई-करिश्मे आदि। व्यायाम के खेलों में हैं – एथेलेटिक्स, कुश्ती, निशानेबाजी, घूँसेबाजी, घुड़दौड़, साइक्लिंग, जूडो, तीरंदाजी, हॉकी, वालीबॉल, फुटबॉल, टेनिस, क्रिकेट, कबड्डी, खो-खो आदि । धनोपार्जन के खेलों में सर्कस, जादू के खेल तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेले जाने वाले खेल आते हैं।
मनोरंजन के खेल मानसिक व्यायाम के साधन हैं। खेल मानसिक थकावट दूर कर जीवन में नवस्फूर्ति भर देता है।
खेल-कूद से मनुष्य में पूरी तन्मयता से काम करने की भावना जागृत होती है। जब कोई खेलता है तो वह जीतने के लिये अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग करता है। इससे जीवन में किसी भी काम को करने के लिये खिलाड़ी प्रवृत्ति से काम करने का स्वभाव विकसित होता है।
खेल मनुष्य में सहनशीलता की भावना उत्पन्न करता है। खेलते वक्त लगी चोट उसे प्रतिशोध लेने की बजाय पीड़ा सहने की शक्ति देती है।
खेलने से व्यक्ति जीवन के संघर्ष में सफलता की शिक्षा भी पाता है। खेल में वह अपनी बुद्धि तथा शरीर से संघर्ष करता हुआ विजय प्राप्त करता है। यही स्वभाव उसको जीवन के संघर्षों में निर्भय होकर लड़ने तथा विजय पाने की शक्ति प्रदान करता है।
नैपोलियन को हराने वाले अंग्रेज नेल्सन ने कहा था – The war of waterloo was won in the fields of Eton, तात्पर्य यह है कि मैंने वाटरलू के युद्ध में जो सफलता पाई है उसका प्रशिक्षण ईटन के खेल के मैदान में मिला था।
अत: हम कह सकते हैं कि खेल के माध्यम से हम जीवन के सभी मूल्यों को प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त करते हैं। खेल नैतिकता का पाठ पढ़ाता है और शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ बनाता है। इसलिए जीवन में खेल का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राय: कहा जाता है :-
“तेज होते हैं, पहिए तेल से,
तेज होते हैं, बच्चे खेल से ।”

मेरा प्रिय खेल

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) क्रिकेट खेल का प्रारम्भ (3) क्रिकेट खेल की विधि (4) भारत में क्रिकेट (5) उपसंहार ।

मानव-जीवन में खेल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हमारे देश में अनेक प्रकार के खेल है। हॉकी, फुटबॉल, बास्केटबॉल, टेनिस, शतरंज, टेबल टेनिस, गोल्फ, पोलो, बिलियर्ड, क्रिकेट आदि। ये सारे खेल विश्व-भर में खेले जाते हैं। इन सारे खेलों में मेरा प्रिय खेल है क्रिकेट।
क्रिकेट और हॉकी वर्तमान समय में सबका प्रिय खेल है। इनके मैचों का सीधा प्रसारण दूरदर्शन पर भी दिखाया जाता है। क्रिकेट बैट, बॉल और स्टम्प का खेल है।
क्रिकेट के लिए मैदान चाहिए। खेल सीधा और आसान होने के बावजूद परिश्रम से भरा हुआ है। खेल के मैदान के बीचो-बीच चौकोर रेखा खींची जाती है, जिसके दोनों किनारों पर तीन-तीन स्टम्प लगाए जाते हैं और उनके ऊपर दो गिल्लियाँ रखी जाती हैं। दोनों दलों में 11-11 खिलाड़ी होते हैं। खेल आरम्भ करने के पहले टॉस होता है और जो टीम ठोस जीतती है वह अपनी इच्छानुसार गेंद फेंकना या बैटिंग चुनती है। खेल के नियमों को ध्यान में रखते हुए निर्णय देने के लिए अम्पायर की जरूरत होती है। जो आउट, नो बॉल, वाइड बॉल आदि का निर्णय देता है। खेल प्रारम्भ होने पर बैटिंग करने वाले दल के दो खिलाड़ी मैदान में उतरते हैं। वे पैड, हेलमेट, ग्लब्ज, बैट आदि लेकर आते हैं और दूसरी टीम के सभी खिलाड़ी बोलिंग और फिल्डिंग के लिए मैदान में उतरते हैं। बैटिंग करने वाले खिलाड़ी के पीछे एक खिलाड़ी विकेट-कीपर की हैसियत से खड़ा होता है। फिल्डिंग के लिए अन्य खिलाड़ी मैदान में चारों तरफ बिखर जाते हैं। उनमें से एक खिलाड़ी बॉलिंग करता है। गेंदबाजी क्रमानुसार टीम के अच्छे गेंदबाजों द्वारा बारी-बारी से की जाती है। खेल के लिए ओवर निश्चित होते हैं। उन ओवरों में जितनी गेदें फेंकी जाती हैं उनमें अधिक से अधिक रन बनाने की कोशिश की जाती है और दूसरी टीम, जो गेंदबाजी करती है उसे अधिक रन बनाकर मैच जीतना होता है।
क्रिकेट का आनंद ही कुछ अलग है। दर्शकों की नजर एक-एक गेंद पर होती है। हर चौके-छक्के पर लोग उछल पड़ते हैं। क्रिकेट का मौसम आने पर, मैं अपने दोस्तों के साथ मैदान में क्रिकेट खेलने जाता हूँ। भारत का जब भी मैच होता है, मैं सब काम छोड़कर मैच देखने लगता हूँ।
क्रिकेट देखते समय जब भारतीय टीम को हारते देखता हूँ तो मुझे बड़ा गुस्सा आता है और मन करता है कि मैं मैदान में उतर कर चौके-छक्के की बरसात कर दूँ।

समाचार-पत्र की आत्मकथा

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) ज्ञानवर्धन (3) मनोरंजन (4) समाचार-पत्रों का दायित्व । (5) उपसंहार।

मैं समाचार-पत्र हूँ । मेरा आरम्भ सोलहवीं शताब्दी में चीन में हुआ था । ‘पीकिंग-गजट’ विश्व का पहला समाचार पत्र था। भारत का पहला समाचार-पत्र इण्डिया-गजट था जो अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था। हिन्दी का सबसे पहला समाचार-पत्र उदंत-मार्तंड था, जो सन् 1826 ई० में कोलकाता में प्रकाशित हुआ था । अब तो विश्वभर में मैं छप रहा हूँ। केवल भारतवर्ष में ही लगभग 2,400 दैनिक समाचार-पत्र तथा 400 साप्ताहिक पत्र प्रकाशित होते हैं ।
संसार के विभिन्न भागों में मैं कैसे प्राप्त होता हूँ, इसकी भी एक कहानी है। प्रत्येक देश की अपनी कुछ समाचार एजेंसियाँ होती हैं, ये एजेंसियाँ किसी समाचार को टेलीप्रिन्टर द्वारा विश्व के सभी समाचार-पत्रों को भेज देती हैं। इसके अतिरिक्त छोटे-बड़े सभी समाचार-पत्रों के अपने संवाददाता होते हैं, जो अपने-अपने समाचार-पत्रों के लिए समाचार एकत्र करते हैं ।
आज मैं आधुनिक युग का अनिवार्य अंग बन चुका हूँ। जनमत के निर्माण में मेरा बहुत बड़ा योगदान है। मैं प्रजातन्त्र का चौथा आधार स्तम्भ हूँ। समाचार पत्र के सम्पादक सरकार की उचित आलोचना करके, उसे ठीक रास्ते पर चलने के लिये विवश कर देते हैं । सबल समाचार पत्र बड़े-बड़ों की खटिया खड़ी कर देते हैं। आधुनिक युग में समाचार पत्रों की शक्ति अपरिमित हो गयी है। बड़े नेता भी इनके सामने विनीत भाव से खड़े रहते हैं ।
मैं ज्ञान-वृद्धि का सरल, सस्ता तथा प्रभावशाली साधन हूँ। समाचार-पत्रों में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आदि सभी तरह के समाचार प्रकाशित होते हैं। समाचार पत्रों में समाचारों के अतिरिक्त सम्पादकीय लेख भी होते हैं। ये सम्पादकीय लेख पाठकों का ज्ञान बढ़ाते हैं। सम्पादक के नाम पाठक पत्र लिखकर अपने विचार तथा समस्याएँ सरकार के सामने रख सकते हैं | समाचार पत्रों में खेलकूद के समाचार, बाल-जगत, वैज्ञानिक लेख, कहानियाँ, कविताएँ आदि भी प्रकाशित होती हैं, जो सभी प्रकार की रुचि रखने वाले पाठकों का ज्ञानवर्द्धन तथा मनोरंजन करती हैं । समाचार-पत्रों में नौकरी के लिए प्रकाशित विज्ञापनों से विज्ञापनदाता को अच्छे कर्मचारी तथा बेरोजगारों को अच्छी नौकरी मिल जाती है । विवाह-सम्बन्धी विज्ञापन वर-वधू की खोज का काम आसान कर देते हैं ।
मैं अत्यन्त उपयोगी होते हुए भी कुछ कारणों से हानिकारक भी हूँ । प्राय: समाचार-पत्र किसी न किसी संस्था से सम्बन्धित होते हैं। ये संस्थाएँ कभी-कभी जनता में अपनी विचार-धारा फैलाने के लिये मेरा सहारा लेती हैं, इससे जनता पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता । इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिक समाचार-पत्र पाठकों के दृष्टिकोण को संकीर्ण बनाते हैं तथा राष्ट्र में गलत संदेश का संचरण करते हैं। झूठे विज्ञापन लोगों को गुमराह करते हैं । अश्लील विज्ञापन युवावर्ग को पतनोन्मुख बना देते हैं। उन पर शासन-तंत्र की कड़ी निगाह रहनी चाहिए ।

शिक्षा का उद्देश्य

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) उद्देश्य एवं लाभ (3) शिक्षा की आवश्यकता (4) सच्ची शिक्षा के अभाव का दुष्परिणाम (5) उपसंहार ।

शिक्षा ज्ञानवर्धन का साधन है। सांस्कृतिक जीवन के उत्कर्ष का माध्यम है । उत्तम शिक्षा उज्ज्वल चरित्र का निर्माण करती है और जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध कराती है। वह अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करते हुए जीवन जीने की कला सिखलाती है और उदात्त व्यक्तित्व के विकास का अवसर प्रदान करती है ।
‘शिक्षा’ शब्द ‘शिक्ष’ धातु में ‘अ’ तथा ‘टाप’ प्रत्यय जोड़ने पर बनता है। इसका अर्थ है अधिगम, अध्ययन तथा ज्ञान- ग्रहण । शिक्षा के लिये वर्तमान युग में शिक्षण, ज्ञान, विद्या, एजुकेशन आदि अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग होता है।
‘एजुकेशन’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Educare तथा Educere शब्दों से मानी जाती है। Educare शब्द का अर्थ है To educate, to bring up, to raise अर्थात् शिक्षित करना, पालन-पोषण करना तथा ऊपर उठाना। Educere का अर्थ है, पथ-प्रदर्शन करना। इस तरह एजूकेशन का अर्थ है प्रशिक्षण, संवर्द्धन तथा पथ-प्रदर्शन करने का कार्य (The act of training, bringing up & leading out) ।
शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास करना है। बच्चा जन्म लेते ही जीवन की शिक्षा ग्रहण करने लगता है। बड़े होने पर स्कूल, कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण कर सभ्य तथा सुशिक्षित बनता है। अलग-अलग क्षेत्रों में ज्ञान हासिल कर मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य पाता है। शिक्षा का उद्देश्य मूल रूप से मनुष्य का बाह्य और आंतरिक विकास करना होता है।
जीवन जीने के लिए व्यवहारिक ज्ञान और प्राणी-प्राणी में आपसी प्रेम का भाव शिक्षा जगाती है। ज्ञान और शिक्षा पाकर मनुष्य सभ्य, सुशील और मधुर बनता है।
आधुनिक समय में शिक्षा का उद्देश्य बदल गया है। पहले शिक्षा का जो स्वरूप था, आज की शिक्षा उससे बिल्कुल भिन्न है। आज केवल किताबी ज्ञान हासिल कर डिग्री प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य बन गया है।
विनोबा भावे जी ने ‘जीवन और शिक्षण’ नामक निबंध में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य पर व्यापक प्रकाश डाला है और आज की शिक्षण प्रणाली की विकृतियों को उद्घाटित किया है।
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ जीवन जीने की कला की प्राप्ति करना भी है। किन्तु आज स्कूलों, कॉलेजों में केवल किताबी शिक्षा दी जाती है। बच्चे जब उस शिक्षा को प्राप्त कर जगत में निकलते हैं तब उन्हें सारी शिक्षा बेमानी लगती है।
अधिकतर बच्चों के लिये शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री हासिल करना रह गया है। इसी कारण वे न तो किताबी ज्ञान पूर्ण रूप से प्राप्त कर पाते हैं और न ही जगत् का व्यावहारिक ज्ञान हासिल कर पाते हैं। वास्तव में सरकार द्वारा अपनायी जाने वाली शिक्षा-पद्धति ही उचित नहीं है।

शिक्षा और व्यवसाय अथवा, आधुनिक शिक्षा प्रणाली

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) आधुनिक शिक्षा का आरम्भ (3) दोष (4) शिक्षा की आवश्यकता (5) लाभ (6) सुधार (5) उपसंहार ।

शिक्षा और व्यवसाय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शिक्षा के बिना जीविकोपार्जन सम्भव नहीं है, व्यवसाय के बिना शिक्षा बेकार है। अतः शिक्षा और व्यवसाय मानवीय प्रगति के सम्बल हैं।
प्राचीन युग में शिक्षा का अर्थ ज्ञानार्जन करना था। उस समय शिक्षा धनोपार्जन का माध्यम नहीं थी।
समय-परिवर्त्तन के साथ भारतीय जनता में अंग्रेजी के साथ-साथ आधुनिक विषय जैसे विज्ञान, वाणिज्य-शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि सीखने का प्रचलन चला। वर्तमान शिक्षा प्रणाली का इतिहास बहुत पुराना है। जब भारत पराधीन था, विदेशी शासकों ने अपने स्वार्थ के लिये अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति को भारत में प्रचलित किया था। मैकाले इसके प्रवर्त्तक थे। यह शिक्षा नीति भारतीय संस्कृति, परम्परा एवं राष्ट्रीय जीवन के विपरीत थी।
पिछले कुछ वर्षों में समाज की मान्यताओं, मूल्यों, आवश्यकताओं, समस्याओं और विचारधाराओं में बहुत परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों के साथ समाज का सामंजस्य होना आवश्यक है। इन परिवर्तनों के अनुरूप शिक्षा के स्वरूप, प्रणाली और व्यवस्था में परिवर्तन आया है। अब शिक्षा व्यवस्था को अधिक उपयोगी, व्यावहारिक तथा जीविकोपार्जन का माध्यम बनाया जा रहा है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली की महत्वपूर्ण देन है – बाबू संस्कृति अर्थात् कुर्सी पर बैठकर काम करने की प्रवृत्ति और नागरिक संस्कृति अर्थात नगरों तथा महानगरों में रहकर ही काम करने की प्रवृत्ति। परिणामस्वरूप नगरों में जहाँ तेजी से बेकारी बढी है वहीं गाँव का विकास उतनी तेजी से नहीं हो पा रहा है।
व्यावसायिक शिक्षा व्यक्ति को सामाजिकता से परिचित कराती है। शिक्षा रोजगार पैदा नहीं करेगी, वह तो व्यक्ति को रोजगार प्राप्त करने में सहायता पहुँचाती है। व्यावसायिक शिक्षा से व्यक्ति का दृष्टिकोण व्यापक बनेगा।
व्यावसायिक शिक्षा की दृष्टि से देश में आई.आई.टी, तकनीकी शिक्षा, औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र, कृषि विश्वविद्यालयों तथा वैज्ञानिक संस्थानों का जाल बिछ गया है। व्यावसायिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये देश भर में कई स्कूलों में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को लागू किया गया है, ताकि अधिक से अधिक संख्या में छात्रों को इसका लाभदायक फल मिल सके।
देश में व्यावसायिक शिक्षा कार्यक्रम को तकनीकी और शैक्षणिक सहायता प्राप्त कराने के लिये जुलाई, सन् 1993 ई० में भोपाल में केंद्रीय व्यावसायिक शिक्षा संस्थान की स्थापना की गई है।
किन्तु इन सारे पाठ्यक्रमों और शिक्षा-विधियों ने छात्रों पर अत्यधिक बोझ लाद दिया है। सभी विषयों के अधकचरे ज्ञान ने उसे रटंत-तोता बनाकर छोड़ दिया है।
व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भी, प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना छात्रों के लिये अति आवश्यक हो गया है। इन परीक्षाओं को पास करने के पश्चात् नौकरी न मिलना और अर्थाभाव की वजह से निजी व्यवसाय न कर पाने से युवाओं में कुण्ठा और निराशा का भाव भरता जा रहा है।
शिक्षा-प्रवेश की भेदभावपूर्ण नीति ने उच्च तकनीकी तथा वैज्ञानिक शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े वर्गों के लिए आसन सुरक्षित कर दिया है, इसी कारण योग्य छात्र बाहर की धूल फाँकने को मजबूर हो जाता है।
देश में बढ़ती बेरोजगारी, युवाओं में पनपती दुष्प्रवृत्तियाँ तथा असामाजिक कार्यों की तरफ झुकाव, देश को अराजकता की तरफ धकेल रहा है। हमारी शिक्षा का व्यवसाय के साथ सामंजस्य और संतुलन होना चाहिए और शिक्षा जीविका-केन्द्रित होनी चाहिए ।

राष्ट्र निर्माण में युवा पीढ़ी का सहयोग

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) युवा पीढ़ी का कर्त्तव्य (3) युवा पीढ़ी का योगदान (4) उपसंहार ।

राष्ट्र-निर्माण में युवा पीढ़ी का सहयोग राष्ट्र के प्रति उसके दायित्व की अनुभूति का ज्वलंत प्रमाण है। यही उसकी राष्ट्र-वंदना, और राष्ट्र-पूजा है। यह सहयोग उसके राष्ट्र-प्रेम, देशभक्ति तथा मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना को प्रकट करता है। राष्ट्र का प्रत्येक महान् कार्य युवकों के सहयोग के बिना अधूरा ही रह जाता है। निर्माण सदैव बलिदानों पर आधारित होता है। बलिदान की भावना युवा पीढ़ी में बलवती होती है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, सुखदेव, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, बिस्मिल जैसे सहस्रों युवकों ने राष्ट्र-निर्माण के लिये अपना जीवन बलिदान कर दिया। गांधीजी के नेतृत्व में लाखों नौजवानों ने स्वतंत्रता की लड़ाई में भागीदारी की। अपने जीवन को जेलों में सड़ाया, लेकिन स्वतंत्रता की माँग नहीं छोड़ी। इन्हीं वीरों को याद करते हुए दिनकर जी ने कहा था –
जो अगणित लघु दीप हमारे ।
तूफानों में एक किनारे ।
जल-जलकर बुझ गये किसी दिन ।
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ।
कलम आज उनकी जय बोल ।
इसी प्रकार सन् 1974 ई० में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित किया, तब लाखों युवकों ने इंदिरा गाँधी की तानाशाही के विरुद्ध आवाज उठाई और जेल गये। युवा-देशभक्तों का राष्ट्र-निर्माण के विविध क्षेत्रों में सहयोग सदा स्मरणीय रहेगा।
युवा पीढ़ी समाचार-पत्रों के माध्यम से समय-समय पर अपने उच्च विचारों को अभिव्यक्ति देकर जन-जागरण का शंखनाद कर सकती है और देश की वैचारिक सम्पदा की अभिवृद्धि कर सकती है ।
आज देश बढ़ती हुई जनसंख्या से परेशान है। देश के युवा वर्ग परिवार नियोजन द्वारा देश की इस समस्या को कम कर सकते हैं।
दहेज की कुप्रथा की वजह से कई लड़कियों को अपनी जान गँवानी पड़ती है। अतः युवा पीढ़ी को देश की इस कुप्रथा को दूर करने के लिये बिना दहेज विवाह करने का प्रण लेना चाहिए ताकि देश की कुरीतियों का अंत हो सके और देश स्वस्थ, स्वच्छ और सुंदर बन सके ।
देश के प्रौढ़ व वयोवृद्ध वर्ग का यह नैतिक दायित्व है कि वह युवाओं का सही मार्गदर्शन करें। उनके सुखद जीवन-यापन की अपेक्षित सुविधायें जुटायें और उनके भविष्य निर्माण के लिये सच्चे दिल से प्रयास करें। आज धर्म-गुरु व राजनीतिक नेता युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट करने में सबसे आगे हैं। अत: सामान्य जन को इस दिशा में गम्भीरता से सोचना चाहिये और युवा वर्ग के प्रति सामाजिक दायित्व का परिपालन करना चाहिये ।
भारतीय समाज अनेक पाखण्डों और कुप्रथाओं से ग्रस्त है। नई पीढ़ी इन कुप्रथाओं को दूर करने की प्रतिज्ञा कर ले तो देश को ऊँच-नीच के भेदभाव, नारी-शोषण, यौन-उत्पीड़न और बलात्कार के संकट से मुक्त किया जा सकता है। चोरी, छीना-झपटी, अपहरण, हत्या, पाखण्ड और अंधविश्वास से देश को मुक्ति दिलाई जा सकती है।
गरीबों, बाल मजदूरों जैसे निरक्षर लोगों को साक्षर बनाकर युवा पीढ़ी देश में जागृति और नई चेतना का भाव भर सकते हैं।
आज युवा पीढ़ी का एक अंश आक्रोश, आंदोलन और हड़ताल द्वारा राष्ट्र को क्षति पहुँचा रही है। अत: युवाओं को ऐसे कार्यों से बचना चाहिये और अपने रचनात्मक कार्यों से राष्ट्र की उन्नति में सक्रिय योगदान करना चाहिये । जैनेंद्र जी ने कहा था “युवकों का उत्साह ताप बन कर न रह जाये, यदि उसमें तप भी मिल जाये तो और अधिक निर्माणकारी हो सकता है ।”

विश्व पर्यावरण दिवस

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) अनेकानेक उद्योग-धन्धों के कारण (3) पर्यावरण को बचाने के उपाय (4) उपसंहार ।

पूरे विश्व में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने और समस्या के समाधान के लिये हर वर्ष पाँच जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य संस्थाओं द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण गोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं, जिसमें पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिये सुझाव प्रस्तुत किये जाते हैं।
पर्यावरण प्रदूषण से मानव अस्तित्व पर संकट आ गया है। औद्योगीकरण और नगरीकरण की वजह से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। कारण यह है कि विकास के लिये घने-घने वन-उपवन उजाड़ दिये गये हैं जिससे प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, पूरा वायुमण्डल प्रदूषित हो गया है।
भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण भी वनों को नष्ट किया जा रहा है। परिणामत: चट्टानों का खिसकना, भूमि-कटाव से ग्रामों के अस्तित्व का लोप होना, अनियंत्रित वर्षा, सूखा, बाढ़ और निरंतर तापमान में वृद्धि हो रही है।
आज देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 1,880 लाख हेक्टेयर हिस्सा भू-क्षरण का शिकार है । सन् 1977 ई० के बाद आज तक खतरनाक भू-क्षरण वाले क्षेत्रों का विस्तार दुगुना हो गया है। जंगलों को काट कर समतल बनाया जा रहा है, जिसका परिणाम यह हुआ कि आपूर्ति क्षमता की तुलना में जलावन के लिये लकड़ी की माँग गुना अधिक हो गयी है ।
प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करने का परिणाम यह है कि जीवन के लिये अति आवश्यक वस्तु, हवा भी जहरीली हो गई है। महानगरों में चलने वाले परिवहन के अनेक साधन दिन-प्रतिदिन वायु को और अधिक दूषित करते जा रहे हैं । औद्योगिक कल-कारखानों से निकलने वाला धुआँ तथा राख भी वायु को अत्यधिक प्रदूषित कर रहा है ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा लगाये गए अनुमान के अनुसार विश्व के लगभग आधे शहरों में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा हानिकारक स्तर तक पहुँच गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रदूषित जल से होने वाले निम्नलिखित रोग बतलाये हैं – हैजा, डायरिया, टायफाईड, पालियोमाईटिस, राउण्डवर्म, फाईलेरिया, मलेरिया, डेंगू फीवर आदि।
कभी बाढ़, कभी सूखा तथा तरह-तरह की बीमारियों की वजह यही पर्यावरण प्रदूषण है। अत: प्रकृति को प्रदूषण से बचाने के लिये पर्यावरण दिवस के दिन सबको प्रकृति की रक्षा करने का संदेश दिया जाता है तथा हर व्यक्ति से अपील की जाती है कि वह कम से कम एक पौधा अवश्य लगाये । वृक्षारोपणं इस समस्या का मुख्य समाधान है।
हमें चाहिए कि गंदगी तथा जल-जमाव करके बीमारियों को जन्म न दें। वातावरण को स्वच्छ तथा साफ-सुथरा रखना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है। अत: पर्यावरण की सुरक्षा सभी को करनी चाहिए, ताकि मानव-जाति को नष्ट होने से बचाया जा सके । विश्व पर्यावरण दिवस हमें इसी जिम्मेदारी की याद दिलाता है ।

विद्यार्थी जीवन

रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) विद्यार्थी जीवन की स्थिति (3) विद्यार्थी जीवन में ज्ञानार्जन, विद्या तथा चरित्र का महत्व (4) विद्यार्थी के आवश्यक गुण (5) प्राचीन विद्यार्थी और आधुनिक विद्यार्थी (4) विद्यार्थी के कर्त्तव्य (5) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- विद्यार्थी ही देश के भावी कर्णधार हैं। विद्यार्थी-जीवन, मानव-जीवन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण काल है। जन्म के समय बालक अबोध होता है। शिक्षा के द्वारा उसके जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है, उसकी बुद्धि विकसित की जाती है। जिस काल में वह पूर्ण मनोयोग से विद्याध्ययन करता है, उस काल को विद्यार्थी जीवन कहते हैं।
विद्यार्थी-जीवन की स्थिति :- विद्यार्थी-जीवन, मानव-जीवन का सर्वश्रेष्ठ काल है। इस काल में मनुष्य जो कुछ सीखता है वह आजन्म उसके काम आता है। विद्यार्थी-जीवन मानव के जीवन की ऐसी विशिष्ट अवस्था है, जिसमें उसे सही दिशा का बोध होता है। इसी कारण, इस काल को अत्यंत सावधानी से व्यतीत करना चाहिए ।
विद्यार्थी- जीवन में ज्ञानार्जन, विद्या तथा चरित्र का महतव :- विद्यार्थी का उद्देश्य केवल विद्या प्राप्त करना नहीं होता अपितु ज्ञान की वृद्धि, शारीरिक-मानसिक विकास एवं चारित्रिक सद्गुणों की वृद्धि भी उसका लक्ष्य होता है। विद्याध्ययन का काल ही वह काल है जिसमें सहयोग, प्रेम, सत्यभाषण, सहानुभूति, साहस आदि गुणों का विकास किया जाता है। अनुशासन, शिष्टाचार आदि प्रवृत्तियाँ भी इसी समय जन्म लेती हैं ।
विद्यार्थी जीवन में विद्या के साथ ही चारित्रिक विकास का भी महत्वपूर्ण स्थान है। चरित्रहीन व्यक्ति अपने जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता । चरित्र के द्वारा ही विद्यार्थी में अनेक सद्गुणों का विकास होता है, अतः विद्यार्थी – जीवन में चरित्र-निर्माण की आवश्यकता पर विशेष बल दिया जाता है।
विद्यार्थी के आवश्यक गुण :- प्राचीनकाल में आचार्यों ने विद्यार्थी के लिए आवश्यक गुणों की चर्चा इस प्रकार की है—
काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च ।
अल्पहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणम् ।।
विद्यार्थी का प्रमुख कार्य विद्या का अध्ययन है। उसे श्रेष्ठ विद्या प्राप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए। अपने से छोटे अथवा किसी भी वर्ग के पास यदि अच्छी विद्या है तो उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
प्राचीन विद्यार्थी और आधुनिक विद्यार्थी :- प्राचीन काल में छात्र नगर के जीवन से दूर पवित्र आश्रमों में गुरू के संरक्षण में शिक्षा ग्रहण करता था। वह सादा जीवन बिताकर, गुरू की इच्छा से कार्य करता था। वह विद्वान, तपस्वी, योगी तथा सदाचारी होता था। उसके विचार उच्चकोटि के होते थे। आज का विद्यार्थी अपने इस बहुमूल्य जीवन के प्रति सजग और गंभीर नहीं रह गया है। आज तो वह पैसे के बल पर मात्र पैसे के लिए विद्या प्राप्त करता है। शिक्षा नौकरी का पर्याय बनकर रह गई है। विद्यार्थी के लिए स्वाध्याय एवं आत्मोन्नति का विशेष महत्व नहीं रहा है। विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता और स्वच्छंदता की प्रवृत्ति बढ़ रही है। उनमें विनयशीलता का अभाव स्पष्ट दिखाई देता है । अध्यापकों का अपमान, दिन-रात के लड़ाई-झगड़े, आंदोलन, हड़ताल ही मानों उनके जीवन का लक्ष्य बन गया है ।
विद्यार्थी के कर्त्तव्य :- भारत एक स्वतंत्र देश है। उसकी आजादी की रक्षा करना प्रत्येक विद्यार्थी का कर्त्तव्य है। इसके लिए यह आवश्यक है कि हम आदर्श विद्यार्थी बनें। हमारी शिक्षा का उद्देश्य अधिकाधिक ज्ञानार्जन होना चाहिए, केवल नौकरी पाना नहीं । केवल नौकरी प्राप्त करके हम न तो देश का और ना ही समाज का भला कर सकते हैं। शिक्षा नौकरीपरक न होकर रोजगारपरक होनी चाहिए। इस विशाल राष्ट्र की दृढ़ता एवं प्रगति के लिए विद्यार्थी को अत्यंत सबल, सक्षम और शिक्षित होना चाहिए। उसे अपनी संस्कृति तथा मूल्यों को अपनाना चाहिए तथा पाश्चात्य सभ्यता के अंधे अनुकरण से बचना चाहिए। गुणी और साहसी विद्यार्थी ही देश की रक्षा का भार उठाने में सक्षम होगा।
उपसंहार :- विद्यार्थी को देश का सच्चा निर्माता तभी कहा जा सकता है, जब वह चारित्रिक, मानसिक, शारीरिक दृष्टि से पूर्ण समर्थ हो । विद्यार्थी को चाहिए कि अपने विद्यार्थी जीवन को मौज-मस्ती का साधन न बनाकर उसे शिक्षा ग्रहण करने में लगाए । विद्यार्थी-जीवन की सफलता ही विद्यार्थी के उन्नति की आधारशिला है।

पुस्तकालय का महत्व

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) पुस्तकालयों के प्रकार (3) महत्व (4) पुस्तकालय से लाभ-ज्ञान की प्राप्ति (5) मनोरंजन का स्वस्थ साधन, दुर्लभ तथ्यों की प्राप्ति के साधन(6) पठन-पाठन में सहयोगी (7) भारत में पुस्तकालयों की स्थिति (8) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- पुस्तकालय का अर्थ होता है ‘पुस्तकों का घर’, अर्थात् जहाँ पुस्तकों को रखा जाता हो या संग्रह किया जाता हो । अतः पुस्तकों के उन सभी संग्रहालयों को पुस्तकालय कहा जा सकता है, जहाँ पुस्तकों का उपयोग पठन-पाठन के लिए किया जाता हो । पुस्तकों को ज्ञान-प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम माना गया है। पुस्तकें ज्ञान-राशि के अथाह भंडार को अपने में संचित किए रहती हैं। ज्ञान ही ईश्वर है तथा सत्य एवं आनंद है ।
केवल एक कमरे में पुस्तकें भर देने से ही वह पुस्तकालय नहीं बन जाती, अपितु यह ऐसा स्थान है जहाँ पुस्तकों के उपयोग आदि का सुनियोजित विधान होता है ।
पुस्तकालयों के प्रकार :- पुस्तकालय के विभिन्न प्रकार होते हैं । जैसे (i) व्यक्तिगत पुस्तकालय (ii) विद्यालय एवं महाविद्यालय के पुस्तकालय (iii) सार्वजनिक पुस्तकालय (iv) सरकारी पुस्तकालय आदि ।
व्यक्तिगत पुस्तकालय के अंतर्गत पुस्तकों के वे संग्रहालय आते हैं, जिनमें कोई-कोई व्यक्ति अपनी विशेष रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार पुस्तकों का संग्रह करता है । विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के अंतर्गत वे पुस्तकालय आते हैं, जिनमें छात्रों तथा शिक्षकों के पठन-पाठन हेतु पुस्तकों का संग्रह किया जाता है। कोई भी व्यक्ति इसका सदस्य बनकर इसका उपयोग कर सकता है। सरकारी पुस्तकालयों का प्रयोग राज्य कर्मचारियों एवं सरकारी अनुमति प्राप्त विशेष व्यक्तियों द्वारा किया जाता है।
पुस्तकालयों का महत्व :-पुस्तकालय सरस्वती देवी की आराधना-मंदिर है। यह व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र तीनों के लिए महत्वपूर्ण है । पुस्तकें ज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन हैं । इनसे मनुष्यों के ज्ञान का विकास होता है तथा उनका दृष्टिकोण व्यापक होता है । एक ज्ञानी व्यक्ति ही समाज एवं राष्ट्र के साथ-साथ मानवता का कल्याण कर सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार पुस्तकें खरीद नहीं सकता । कोई भी व्यक्ति आर्थिक रूप से इतना सशक्त नहीं होता कि वह मनचाही पुस्तकें खरीद सकें । बहुधा पैसा जुटा लेने पर भी पुस्तकें प्राप्त नहीं होती हैं, क्योंकि उनमें से कुछ का प्रकाशन बंद हो चुका होता है और उनकी प्रतियाँ दुर्लभ हो जाती हैं । पुस्तकालय में जिज्ञासु अपनी आवश्यकता एवम् प्रयोजन के अनुसार सभी पुस्तकों को प्राप्त कर लेता है तथा उनका अध्ययन करता है ।
पुस्तकालय से लाभ :-पुस्तकालय ज्ञान का भंडार होता है । विषयगत ज्ञान के वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने के लिए तथा उस विषय से संबंधित ज्ञान प्राप्त करने के लिए अन्य पुस्तकों के अध्ययन के लिए पुस्तकालय की आवश्यकता होती है ।
प्रत्येक मनुष्य के लिए मनोरंजन आवश्यक होता है तथा मनोरंजन के लिए पुस्तकों से अच्छा कोई साधन नहीं है । यह मनोरंजन के साथ-साथ संसार के अन्य विषयों की जानकारी भी बढ़ाती है ।
किसी भी विषय पर शोध एवं अनुसंधानात्मक कार्यों के लिए पुस्तकालयों में संग्रहित पुस्तकों से व्यक्ति उन दुर्लभतथ्यों को प्राप्त कर सकता है जिनकी जानकारी उसे अन्य किसी प्रकार से नहीं हो सकती ।
पुस्तकालय छात्र तथा अध्यापक दोनों के पठन-पाठन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षक तथा छात्र दोनों हीअपनी बौद्धिक शक्तियों एवं विषयगत ज्ञान के विस्तार की दृष्टि से पुस्तकालय में संग्रहित पुस्तकों से लाभान्वित होते हैं।
भारत में पुस्तकालयों की स्थिति :- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने गाँव-गाँव में पुस्तकालयों की स्थापना करने का एक अभियान चलाया था जो अनेक कारणों से असफल रहा। इन पुस्तकों की सामग्री राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए थी। उसमें ज्ञान, बौद्धिक विकास की सामग्री का अभाव था । अतः जन सामान्य ने इसकी ओर रुचि नहीं दिखलाई । सरकारी नीति की उदासीनता के कारण यह योजना असफल हो गई ।
उपसंहार :- पुस्तकालय ज्ञान का वह भंडार है जो हमें ज्ञान प्रदान करता है । ज्ञान की प्राप्ति से ही मनुष्य वास्तविक अर्थों में मनुष्य बनता है। ऐसे ही मनुष्यों से समाज या राष्ट्र का कल्याण होता है । अत: पुस्तकालय हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक है। आज सरकार तथा स्वयं सेवी सामाजिक संस्थाओं को संपूर्ण देश में अधिक से अधिक पुस्तकालयों की स्थापना करनी चाहिए ।

भूकम्प : एक प्राकृतिक प्रकोप

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) धन-जन की अपार क्षति (3) कहीं निर्माण-तो कहीं विनाश (4) उपसंहार ।

सृष्टि के आरम्भ से ही मनुष्य का प्रकृति के साथ अटूट सम्बन्ध रहा है। प्रकृति के साथ मनुष्य के संघर्ष की कहानी भी सृष्टि के प्रारम्भ से ही चली आ रही है। प्रकृति अपने विभिन्न रूपों में मानव के सामने आती है। प्रकृति के मोहक तथा भयानक दोनों ही रूप हैं। जहाँ प्रकृति का मोहक रूप हमारा मन मोह लेता है, वहीं इसके रौद्र रूप के स्मरण मात्र से हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बाढ़, सूखा, अकाल, महामारी, भूकम्प आदि प्रकृति के रौद्र रूप हैं ।
भूकम्प शब्द ‘भू’ और ‘कम्प’ इन दो शब्दों के योग से बना है। भू का सामान्य अर्थ है – भूमि और कम्प का – काँपना या हिलना-डुलना है । अत: जब भूमि काँप उठती है तो उसे भूकम्प कहते हैं । लेकिन समस्त पृथ्वी एक साथ नहीं काँपती। एक बार में पृथ्वी का कोई एक विशेष भाग ही काँपता है ।
जब पृथ्वी की सतह अचानक हिलती या कम्पित होती है तो उसे भूकम्प कहते हैं। सतह के कम्पन के साथ प्रकृति सर्वनाश करनेवाली जो प्रकोप प्रकट करती है, उसी को भूकम्प की संज्ञा दी जाती है। भूपटल का फटना भूकम्प का लक्षण है। ज्वालामुखी के उद्गार भी भूकम्प के कारण बनते हैं। भूमि की चट्टानों के असंतुलन से भी भूकम्प आ सकता है।
भूकम्प की उत्पत्ति सृष्टि के निर्माणकर्ता का मायावी कौतुक है। प्रकृति का माया रूपी हृदय जब डोलता है तो वह अपना प्रकोप प्रकट करता है।
जिस प्रकार जल-प्रलय प्रकृति का विनाशक ताण्डव है, उसी प्रकार भूकम्प उससे भी भयानक विनाशक विक्षोभ है। दो-चार सेकेंड के हल्के भूकम्प से ही छोटे भवन, दीर्घ प्रासाद और उच्च अट्टालिकाएँ काँपती हुई पृथ्वी के चरण चूमने लगती हैं। गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं। शवों के ढेर लग जाते हैं। सभी चीजें नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। 20 अक्टूबर, सन् 1991 ई. को उत्तरकाशी में आये भूकम्प में 15,000 से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हुई और सहस्रों लोग घायल हुए। सन् 1993 के लातूर एवं उस्मानाबाद क्षेत्रों के विनाशकारी भूकम्प की चपेट में 81 गाँवों पर कहर बरपा जिसमें 25 से ज्यादा गाँव श्मशान में बदल गये ।
भूकम्प का प्रभाव नदियों पर भी पड़ता है। पहाड़ों के नीचे धँसने से, या चट्टानों, पत्थरों और गीली मिट्टी के जमाव से नदी का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। नदी का प्रवाह अवरुद्ध होने और पानी जमा होने से वह स्थान झील के रूप में परिणत हो जाता है। जलमग्न भवन भूकम्प के प्रकोप से बचकर भी प्रकृति की प्रकोप के चपेट में आ जाते हैं। सन् 1978 ई० में भूकम्प के कारण भूस्खलन से गंगोत्री मार्ग पर 500 मीटर ऊँचा मिट्टी-पत्थर का ढेर लग गया। गंगाजल अवरुद्ध हो गया। फलस्वरूप वहाँ झील बन गई।
भूकंप प्रकृति का क्षोभ ही नहीं वरदान भी है। 16 दिसम्बर, सन् 1880 को आये नैनीताल के भूकम्प से चाइना पीक के लिये एक सुगम मार्ग स्वयं ही बन गया था। इससे जगह-जगह झरने फूट पड़े थे। इस प्रकार भूकम्प ने नैनीताल के सौंदर्य को विस्तार दिया था ।
भूकम्प के प्राकृतिक प्रकोप विनाश के अमिट चिह्न पृथ्वी पर छोड़ जाते हैं। मनुष्य की स्मृति में भी आतंक के ऐसे अवशेष छोड़ जाते हैं जो सपने में भी उसे आतंकित कर जाते हैं। गुजरात और उड़ीसा के भूकंप ऐसे ही थे। प्रत्येक ध्वंस नये निर्माण का संदेश लेकर आता है। प्रकृति में नाश और निर्माण दोनों ही शक्तियाँ हैं ।
इस प्रकार भूकम्प जब बस्तियों को नष्ट करता है तब मनुष्य फिर कुछ नया और सुंदर बनाने की चेष्टा करता है। प्रकृति का प्रकोप मनुष्य को फिर से कुछ नया और बेहतर बनाने की शक्ति प्रदान करता है। इस प्रकार भूकंप शाप भी है औरवरदान भी ।

राष्ट्रभाषा हिंदी

रूपरेखा : : (1) प्रस्तावना (2) भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी (3) हिन्दी ही क्यों (4) भारत की सांस्कृतिक भाषा हिन्दी (5) राष्ट्रभाषा से राजभाषा (6) विदेशों में हिन्दी (7) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक भाषा होती है, जिसमें उस देश के प्रशासनिक कार्य किये जाते हैं तथा देश के अधिकांश लोग पारस्परिक व्यवहार में उस भाषा का प्रयोग करते हैं। उसी भाषा के माध्यम से उस देश के वैदेशिक सम्बन्ध संचालित होते हैं। राष्ट्रीय न्यायालयों के कार्य उसके ही प्रयोग से सम्पन्न किये जाते हैं। विश्वविद्यालयों में उच्चशिक्षा के लिये उसका ही प्रयोग होता है। जिस देश में एक से अधिक भाषाएँ प्रचलित होती हैं, उस देश की किसी एक भाषा को राजभाषा, सम्पर्क भाषा अथवा राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। ऐसी भाषा के बोलने-समझने वालों की संख्या सर्वाधिक होती है और अन्य लोगों द्वारा वह काफी सरलता से सीख ली जाती है। भारत में स्वतंत्रता- पूर्व शासकों की भाषा अंग्रेजी प्रशासन, शिक्षा, न्याय आदि की प्रमुख भाषा थी। किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया तथा हिन्दी के साथ-साथ कुछ समय के लिये अंग्रेजी को भी सरकारी कामकाज के लिये अस्थायी रूप में स्वीकार कर लिया गया था, ताकि इस बीच अहिन्दी भाषा-भाषी भी हिन्दी की जानकारी हासिल कर लें ।
भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी :- भारत विश्व का सर्वाधिक विशाल गणतन्त्र है, जो संघात्मक होते हुए भी एकात्मक है। यहाँ पंजाब की भाषा पंजाबी, बंगाल की बंगला, केरल की मलयालम, उड़ीसा की उड़िया, असम की असमी, आंध्र की तेलगू तथा तमिलनाडु की भाषा तमिल है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक था कि किसी ऐसी भाषा की खोज की जाय जो उक्त सारे क्षेत्रों के बीच एकसूत्रता स्थापित कर सके। इस दृष्टि से राष्ट्रीय नेताओं ने खड़ी बोली हिन्दी को सर्वाधिक उपयोगी पाकर उसे ही भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया ।
हिन्दी ही क्यों :- भारत द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानने के कई कारण हैं । यह लगभग हजार वर्षों से भारतीय जनता के बीच लोकप्रिय रही है। आज देश की लगभग आधी जनसंख्या अच्छी तरह हिन्दी लिख-बोल सकती है । वाणिज्य, तीर्थयात्रा, परिवहन आदि क्षेत्र में हिन्दी का प्रचार काफी अच्छा है। देश भर के तीर्थों में हिन्दी के जानकार पंडित, पुजारी तथा पण्डे हैं। रेलवे स्टेशनों के कुली हिन्दी बोल लेते हैं। भारत के बाहर श्रीलंका, बर्मा, गुयाना, मारीशस, फिजी, सुरीनाम आदि देशों में भी हिन्दी जानने वालों की काफी अच्छी संख्या है । इतनी अधिक लोकप्रियता के साथ-साथ हिन्दी को अपनाने का एक कारण यह भी है कि यह बहुत ही सरल भाषा है, इसे सीखने में विशेष असुविधा नहीं होती। इसकी देवनागरी लिपि भी सरल एवं वैज्ञानिक है। मराठी एवं नेपाली भाषाओं की लिपियाँ नागरी लिपि की ही प्रतिरूप हैं । अतः उन भाषा-भाषियों के लिए हिन्दी सीखना अत्यधिक सरल है। हिन्दी की यह भी एक विशेषता है कि संस्कृत की उत्तराधिकारिणी होने के कारण इसने भारत की प्राचीनतम परम्परा की अधिकांश विशेषताओं को अपने भीतर समेट लिया है। अपनी इन्हीं कतिपय विशिष्टताओं के कारण हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा बन सकी है।
राष्ट्रभाषा से राजभाषा :- स्वतंत्र भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया तथा उसी क्षण से यह भी निश्चित हो गया कि 15वर्षों बाद देश के सरकारी कामकाज हिन्दी में होने लगेंगे । किन्तु सन् 1965 में तमिलनाडु द्वारा विरोध किए जाने पर यह निश्चय किया गया कि जब तक सभी अहिन्दी भाषी प्रान्त हिन्दी में पत्र-व्यवहार करना स्वीकार न करें, तब तक उनके साथ अंग्रेजी में पत्र-व्यवहार किया जायेगा । गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब आदि ने तो हिन्दी में पत्र-व्यवहार आरंभ कर दिया तथा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार एवं राजस्थान ने हिन्दी को अपनी राजभाषा घोषित कर दिया । 1985 ई० में स्थिति यह रही कि केन्द्र सरकार के तथा संसद के सारे कार्य दोनों भाषाओं अर्थात् हिन्दी और अंग्रेजी में किए जाने लगे। सेवा आयोगों में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी भी परीक्षा का माध्यम मान ली गई ।
उपसंहार :- राजनीतिक कारणों से यदा-कदा हिन्दी साम्राज्यवाद के नाम पर हिन्दी के विरोध की आवाज उठने लगती हैं तथापि हिन्दी का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। देश की जनता राष्ट्रीय कर्त्तव्य एवं दायित्व के प्रति जागरूक है, अत: हिन्दी-विरोधियों का प्रभाव नगण्य है। हिन्दी चलचित्रों की व्यापक लोकप्रियता तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी हिन्दी प्रेमियों के प्रयास जैसे साधनों से इसका प्रचार क्षेत्र सहजता से ही बढ़ता जा रहा है। सरकारी तथा गैर- सरकारी संस्थाओं की चेष्टा से न्याय, औषधि, यांत्रिकी, वाणिजय आदि क्षेत्रों के लिए विभिन्न शब्दावलियों का निर्माण-कार्य तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। यह विश्वास सहज ही पनपता है कि इस शताब्दी के अन्त तक भारत अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा की विवशता से पूर्ण मुक्त हो जाएगा एवं राज्यों में राज्य की तथा केन्द्र में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का अक्षुण्ण स्थान प्राप्त हो सकेगा ।

भारत में साक्षरता अभियान

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) पराधीन भारत में निरक्षरता (3) निरक्षरता एक अभिशाप है (4) स्वतंत्र भारत में निरक्षरता के दूरीकरण की चेष्टा (5) साक्षरता का महत्व (6) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- देश के अगणित मनुष्य यदि अज्ञान के अंधकार में डूबे रहें, यदि मनुष्यत्व विकास के सभी सम्भव पथ अवरुद्ध हो जायँ, यदि अशिक्षा, अन्याय, अपमान तथा शोषण से जीवन संकुचित होता रहे, तब हमारा सब कुछ व्यर्थ हो जायेगा। ज्ञान-विज्ञान का प्रकाशमय जगत् सदा के लिये हमसे दूर हो जायेगा। किसी देश की उन्नति के मूल में उस देश की जनता की जागरुकता ही मुख्यतः हुआ करती है। वस्तुतः मानव के अंतर में अमित शक्ति सुप्त रहती है। जागृत रूप में यही शक्ति देश को आगे बढ़ाती है और यह शक्ति जागृत होती है शिक्षा के द्वारा ।
पराधीन भारत में निरक्षरता :- अंग्रेजों के भारत में आने से पूर्व मंडप, टोल, चौपाल, वटवृक्षतल, मदरसा, पाठशाला आदि विभिन्न स्थानों में जो परंपरागत शिक्षादान की व्यवस्था थी, उनके द्वारा भी देश का काफी बड़ा भाग साक्षरता प्राप्त कर लेता था। पर अंग्रेजों के आगमन के बाद पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से यहाँ का सब कुछ बदल गया । पराधीन भारत में शिक्षा का क्षेत्र बिल्कुल संकुचित हो गया । देश के विदेशी शासक यहाँ शिक्षा का प्रसार कतई नहीं चाहते थे । उनका एकमात्र उद्देश्य था देश का अबाध शोषण । गरीबी और निरक्षरता बहुत बढ़ गयी । प्राय: दो सौ वर्ष के अंग्रेजी शासन में पूरे देश में साक्षर लोगों की संख्या मात्र चौदह प्रतिशत ही रही । सन्1930 में कानून द्वारा प्राइमरी शिक्षा को अनिवार्य बनाया गया । किन्तु सरकार की उदासीनता के कारण यह कानून देश में तत्परतापूर्वक नहीं लागू किया गया । फलतः निरक्षरता का परिणाम पूर्ववत् बना रहा ।
निरक्षरता अभिशाप है :- निरक्षरता किसी भी देश के निवासियों के लिये एक अभिशाप है। देश के बहुसंख्यक लोग शिक्षा के अभाव में चरमहीनता और वंचना का जीवन बिताते हैं। वे समझ नहीं पाते कि सब कुछ होते हुए भी वे उनसे क्यों वंचित हैं, क्यों वे इतने निगृहीत हैं। अपने भाग्य की दुहाई देते रहते हैं। समाज के विभिन्न अंगों से उन पर अत्याचार होता है। उनका शोषण होता है। निरक्षरता के कारण, लगता है कि मनुष्यत्व का अधिकार ही गँवा बैठे हैं । उनमें गण-तंत्रात्मक बोध के साथ ही आत्मसम्मान की भावना भी लुप्त हो गयी है ।
स्वतन्त्र भारत में निरक्षरता के दूरीकरण की चेष्टा :-युग संचित इस अभिशाप से देशवासियों को मुक्त करने के लिये स्वतन्त्र भारत में शिक्षा की नवीन योजना बनाई गई है। देश की जनता में शिक्षा को अधिकाधिक व्यापक बनाने के लिये सरकार ने राधाकृष्णन, मुदालियर और कोठारी कमीशनों का गठन किया । आज देश से निरक्षरता उन्मूलन करना नितान्त आवश्यक हो गया है। इस दिशा में कार्य हो रहा है, पर अभी तक साक्षर लोगों की संख्या में आशानुरूप वृद्धि नहीं हुई है। शहरों में ही शिक्षित और साक्षर लोगों की संख्या अधिक है, गाँवों में बहुत कम । जनसंख्या की द्रुत वृद्धि को ध्यान में रखते हुए ही निरक्षरता दूरीकरण की व्यवस्था को भी अधिक गतिमुखर बनाना पड़ेगा।
उपसंहार :- देश की जनता को शिक्षा का अधिकार देना पड़ेगा। उनमें गणतान्त्रिक चेतना का संचार करना पड़ेगा। निरक्षरता के दूर होते ही आत्मनिर्भर हो जायगा देश । समृद्धि के दिगन्त उन्मोचित होंगे । चरित्र-गठन और उन्नत जीवन-मान–इन लक्ष्यों की प्राप्ति शिक्षा के व्यापक प्रसार से ही हो सकेगी। केवल प्राइमरी और माध्यमिक स्तरों की शिक्षा को अनिवार्य बना देने से ही काम नहीं चलेगा। देश के अगणित व्यस्क लोगों को साक्षर बनाने की योजना को भी वास्तविक रूप से लागू करना पड़ेगा। जब तक यह नहीं होता, तब तक अनवरत सक्रियतापूर्वक इस दिशा में लगा रहना पड़ेगा ।

व्यायाम और स्वास्थ्य

भगवान बुद्ध ने कहा था – “हमारा कर्त्तव्य है कि हम अपने शरीर को स्वस्थ रखें अन्यथा हम अपने मन को सक्षम और शुद्ध नहीं रख पाएँगे ।”
आज की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में इंसान को फुर्सत के दो पल भी नसीब नहीं हैं। घर से दफ्तर, दफ्तर से घर, तो कभी घर ही तफ्तर बन जाता है यानि इंसान के काम की कोई सीमा नहीं है। वह हेमाश खुद को व्यस्त रखता है । इस व्यस्तता के कारण आज मानव शरीर तनाव, थकान, बीमारी इत्यादि का घर बनता जा रहा है। आज उसने हर प्रकार की सुख-सुविधाएँ तो अर्जित कर ली हैं, किन्तु उसके सामने शारीरिक एवं मानसिक तौर पर स्वस्थ रहने की चुनौती आ खड़ी हुई है ।
यद्यपि चिकित्सा एवं आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में मानव ने अनेक प्रकार की बीमारियों पर विजय हासिल की है, किन्तु इससे उसे पर्याप्त मानसिक शान्ति मिल गई है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। तो क्या मनुष्य अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ कर रहा है ? यह ठीक है कि काम जरूरी है, लेकिन काम के साथ-साथ स्वास्थ्य का भी ख्याल रखा जाए, तो यह सोने-पे-सुहागा वाली बात ही होगी। महात्मा गाँधी ने भी कहा है – “स्वास्थ्य ही असली धन है, सोना और चाँदी नहीं।”
सचमुच यदि व्यक्ति स्वस्थ न रहे तो उसके लिए दुनिया की हर खुशी निरर्थक होती है । रुपये के ढेर पर बैठकर आदमी को तब ही आनन्द मिल सकता है, जब वह शारीरिक रूप से स्वस्थ्य हो। स्वास्थ्य की परिभाषा के अन्तर्गत केवल शारीरिक रूप से स्वस्थ्य होना ही नहीं, बल्कि मानसिक रूप से स्वस्थ होना भी शामिल है। व्यक्ति शारीरिक रूप से स्वस्थ हो, किन्तु मानसिक परेशानियों से जूझ रहा हो, तो भी उसे स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। उसी व्यक्ति को स्वस्थ कहा जा सकता है, जो शारीरिक एवं मानसिक दोनों रूप से स्वस्थ हो । साइरस ने ठीक कहा है कि अच्छा स्वास्थ्य एवं अच्छी समझ, जीवन के दो सर्वोत्तम वरदान हैं ।
व्यक्ति का शरीर एक यन्त्र की तरह है। जिस तरह यन्त्र को सुचारु रूप से चलाने के लिए उसमें तेल-ग्रीस आदि का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार मनुष्य को अपने शरीर को क्रियाशील एवं अन्य विकारों से दूर रखने के लिए शरीरिक व्यायाम करना चाहिए । शिक्षा एवं मनोरंजन के दृष्टिकोण से भी व्यायाम का अत्यधिक महत्त्व है। शरीर के स्वस्थ रहने पर ही व्यक्ति कोई बात सीख पाता है अथवा खेल, नृत्य-संगीत एवं किसी प्रकार के प्रदर्शन का आनन्द उठा पाता । अस्वस्थ व्यक्ति के लिए मनोरंजन का कोई महत्त्व नहीं रह जाता ।
जॉनसन ने कहा है – “उत्तम स्वास्थ्य के बिना संसार का कोई भी आनन्द प्राप्त नहीं किया जा सकता।”
देखा जाए तो स्वास्थ्य की दृष्टि से व्यायाम के कई लाभ हैं – इससे शरीर की मांसपेशियाँ एवं हड्डियाँ मजबूत होती हैं । रक्त का संचार सुचारु रूप से होता है । पाचन क्रिया सुदृढ़ होती है। शरीर को अतिरिक्त ऑक्सीजन मिलती है और फेफड़े मज़बूत होते हैं। व्यायाम के दौरान शारीरिक अंगों के सक्रिय रहने के कारण शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है । इस तरह व्यायाम मनुष्य के शारीरिक विकास के लिए आवश्यक है ।
किसी कवि ने ठीक ही कहा है –
“पत्थर-सी हों मांसपेशियाँ, लोहे-सी भुजदण्ड अभय ।
नस-नस में हो लहर आग की तभी जवानी पाती जय ।”
इस तरह, स्वास्थ्य एवं व्यायाम का एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। व्यायाम के बिना शरीर आलस्य, अकर्मन्यता एवं विभिन्न प्रकार की बीमारियों का घर बन जाता है । नियमित व्यायाम शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से आवश्यक है । इस सन्दर्भ में हिप्पोक्रेट्स ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही है – “यदि हम प्रत्येक व्यक्ति को पोषण और व्यायाम की सही राशि दे सकते, जो न बहुत कम होती और न बहुत ज्यादा, तो हमें स्वस्थ रहने का सबसे सुरक्षित रास्ता मिल जाता।” अतः हमें इनकी शिक्षा को जीवन में उतारने की कोशिश करनी चाहिए ।

समय और उसका सदुपयोग

कबीर ने मृत्यु को अवश्यम्भावी बताकर जीवन के एक-एक पल का सदुपयोग करने की सीख देते हुए कहा है –
“काल करै सो आज कर, आज करै सो अब ।
पल में परलय होएगी, बहुरि करैगा कब ।।”
‘परीक्षा में तो अभी काफ़ी दिन बाकी हैं, कल से पढ़ना शुरू कर देंगे’, ऐसा सोचकर कुछ विद्यार्थी कभी नहीं पढ़ते, किन्तु परीक्षा नियत समय एवं तिथि पर ही होती है। परीक्षा के प्रश्नों को देखकर उन्हें लगता है कि यदि उन्होंने समय का सदुपयोग किया होता, तो परीक्षा हॉल में यूँ ही खाली नहीं बैठना पड़ता । इसलिए कहा गया है – “अब पछताए होत क्या, ज़ब चिड़िया चुग गई खेत।” प्रसिद्ध लेखक मेसन ने समय की महिमामण्डित वर्णन करते हुए कहा है – “स्वर्ण के प्रत्येक कण की तरह ही समय का प्रत्येक क्षण भी मूल्यवान है ।” प्लेटफॉर्म पर खड़ी रेलगाड़ी अपने यात्रियों की प्रतीक्षा नहीं करती और देर से पहुँचने वाले अफ़सोस करते रह जाते हैं।
इसी तरह, समय भी किसी की प्रतीक्षा नहीं करता । अंग्रेजी में कहा गया है ‘Time and tide waits for none’ अर्थात् समय और समुद्र की लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करते । मानव जीवन में समय की महत्ता को समझाने के लिए प्रकृति में भी उदाहरण भरे पड़े हैं। कभी-कभी बरसात के मौसम में वर्षा इतनी देर से शुरू होती है कि खेतों में लगी फसलें सूख जाती हैं। ऐसे में भला वर्षा होने का भी क्या लाभ ! भक्त कवि तुलसीदास ने प्रकृति के इसी उदाहरण का उल्लेख करते हुए जीवन में समय की महत्ता को इस प्रकार से समझाया है –
‘का बरखा जब कृषी सुखाने ।
समय चूकि पुनि का पछताने ।।”
एक बार एक चित्रकार ने समय का चित्र बनाया, जिसमें एक अति सुन्दर व्यक्ति हँसता हुआ दोनों हाथ फैलाए खड़ा था । सामने से उसके केश सुन्दर दिख रहे थे, पर पीछे से वह बिल्कुल गंजा था। इस चित्र के माध्यम से चित्रकार यह सन्देश देना चाहता था कि समय जब आता है, तो आपकी ओर बाँहें फैलाए आता है। ऐसे में यदि आपने सामने से आते हुए समय के केश पकड़ लिए, तो वह आपके काबू में होगा, किन्तु यदि आपने उसे निकल जाने दिया, तो पीछे से आपके हाथ उसके गंजे सिर पर फिसलते रह जाएँगे और फिर वह आपकी पकड़ में नहीं आएगा। इसलिए समय को पहचानकर उसका सदुपयोग करना चाहिए। समय के सदुपयोग में ही जीवन की सफलता का रहस्य निहित है। राजा हो या रंक, मूर्ख हो या विद्वान्, समय किसी के लिए अपनी गति मन्द नहीं करता । इसलिए सबको जीवन में सफलता पाने के लिए समय का सदुपयोग करना ही पड़ता है। आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनकी सफलता का रहस्य जीवन के हर पल का सदुपयोग ही रहा है ।
जो व्यक्ति अपना निश्चित कार्यक्रम बनाकर, मानसिक वृत्तियों को स्थिर एवं संयमित करके कार्य करता है, उसे जीवन-संग्राम में अवश्य सफलता प्राप्त होती है। वैसे तो यह नियम प्रत्येक आयु वर्ग के व्यक्ति पर लागू होता है, किन्तु विद्यार्थी जीवन में इस नियम की सर्वाधिक महत्ता है। जो विद्यार्थी नियत समय में पूर्ण मनोयोग के साथ अपनी पढ़ाई करते हैं, उन्हें सफलता अवश्य मिलती है। इस तरह, समय का अपव्यय करना तो आत्महत्या के समान है ही, समय का दुरुपयोग भी उससे कुछ कम नहीं ।

यदि मैं किसान होता

भारत एक कृषि प्रधान देश है। हमारी सम्पन्नता मुख्यतः हमारे कृषि उत्पादन पर निर्भर करती है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भारतीय कृषक की एक बड़ी भूमिका है। वास्तव में भारत कृषकों की भूमि है । हमारी75% जनता गांवों में रहती है।
भारतीय किसान का सर्वत्र सम्मान होता है । वही सम्पूर्ण भारतवासियों के लिए अन्न एवं सब्जियाँ उत्पन्न करता है । पूरा वर्ष भारतीय कृषक खेत जोतने, बीज बोने एवं फसल उगाने में व्यस्त रहता है। वास्तव में उसका जीवन अत्यन्त व्यस्त होता है, तथापि मुझमें भी एक किसान बनने की इच्छा जाग्रत होती है ।
यदि मैं किसान होता तो अन्य किसानों की भांति ही रोज प्रात: तड़के उठता और अपने हल एवं बैल लेकर खेतों की ओर चला जाता, वहाँ घंटों खेत जोतता, तत्पश्चात नाश्ता करता । हमारे घर-परिवार के सदस्य मेरे लिए खेत पर ही खाना लाते । खाने के पश्चात पुन: अपने काम में व्यस्त हो जाता । मैं अपने खेतों में कृषि के प्रति कठोर परिश्रम करता और अपने परिश्रम के माध्यम से अधिक-से-अधिक फसल के उत्पादन का प्रयास करता जिससे अपने घर-परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए राष्ट्र के आर्थिक विकास में भी एक नागरिक की हैसियत से अपनी भूमिका पालन करता ।
यदि मैं किसान होता तो अपने खलिहान में दो-चार दुधारु गाय, भैंस एवं बकरी जैसे पशुओं का पालन करता जिससे हमें शुद्ध दुग्ध की प्राप्ति होती जिसका उपयोग मैं अपने घर-परिवार के सदस्यों के लिए करता साथ ही उसका एक भाग बाजार में बिक्री कर कुछ नकद आय की उपार्जन भी करता। किसान होने के नाते मैं अपने घर के तथा खेत-खलिहान के आस-पास अधिक-से-अधिक पेड़-पौधे लगाकर प्रोदुषण-मुक्त पर्यावरण के संरक्षण में अपनी भागीदारी का पालन करता।
किसान बहुत सीधा-सादा जीवन जीता है। उसका पहनावा ग्रामीण होता है। वह घास फूस के झोपड़ों में रहता है, हालांकि बहुत से कृषकों के पक्के मकान भी हैं। उसकी सम्पत्ति कुछ बैल, हल एवं कुछ एकड़ धरती ही होती है । वह अधिकतर अभावों का जीवन जीता है। तथापि, एक किसान राष्ट्र की आत्मा होता है। हमारे दिवंगत प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया था ‘जय जवान, जय किसान’ । उन्होंने कहा था कि कृषक राष्ट्र का अन्नदाता है। उसी पर कृषि उत्पादन निर्भर करता है । अतएव, एक किसान होने के नाते मैं उनके स्वप्नों को साकार करने की यथासंभव प्रयास करता ।

यदि मैं प्रधानमंत्री होता

यदि मैं प्रधानमंत्री होता-अरे! यह मैं क्या सोचने लगा । प्रधानमंत्री बन पाना खाला जी का घर है क्या ? भारत जैसे महान् लोकतंत्र का प्रधानमंत्री बनना वास्तव में बहुत बड़े गर्व और गौरव की बात है, इस तथ्य से भला कौन इन्कार कर सकता है । प्रधानमंत्री बनने के लिए लम्बे और व्यापक जीवन-अनुभवों का, राजनीतिक कार्यों और गतिविधियों का प्रत्यक्ष अनुभव रहना बहुत ही आवश्यक हुआ करता है। प्रधानमंत्री बनने के लिए जनकार्यों और सेवाओं की पृष्ठभूमि रहना भी जरूरी है और इस प्रकार के व्यक्ति का अपना जीवन भी त्याग-तपस्या का आदर्श उदाहरण होना चाहिए । आज के युग में छोटे-बड़े प्रत्येक देश और उसके प्रधानमंत्री को कई तरह के राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय दबाबों, कूटनीतिज्ञों के प्रहारों को झेलते हुए कार्य करना पड़ता है। अतः प्रधानमंत्री बनने के लिए व्यक्ति को चुस्त-चालक, कूटनीति-प्रवण और दबाव एवं प्रहार सह सकने योग्य मोटी चमड़ी वाला होना भी बहुत आवश्यक माना जाता है । निश्चय ही मेरे पास ये सारी योग्यताएँ और ढिठाइयाँ नहीं हैं; फिर भी अक्सर मेरे मन-मस्तिष्क में यह बात मथती रहा करती है, रह-रहकर गूँज-गूंज उठा करती है कि यदि मैं प्रधान मंत्री होता, तो ?
यदि मैं प्रधानमंत्री होता, तो सब से पहले स्वतंत्र भारत के नागरिकों के लिए, विशेष कर नई पीढ़ियों के लिए, पूरी सख्ती और निष्ठुरता से काम लेकर एक राष्ट्रीय चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा एवं उपायों पर बल देता ।
आज स्वतंत्र भारत में जो संविधान लागू है, उसमें बुनियादी कमी यह है कि वह देश का अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अनुसूचित जाति, जन-जाति आदि के खानों में बाँटने वाला तो है, उसने हरेक के लिए कानून विधान भी अलग-अलग बना रखे हैं जबकि नारा समता और समानता का लगाया जाता है। यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो संविधान में सभी के लिए एक शब्द ‘भारतीय’ और समान संविधान-कानून लागू करवाता ताकि विलगता की सूचक सारी बातें स्वत: ही खत्म हो जाएँ। भारत केवल भारतीयों का रह जाए न कि अल्प-संख्यक, बहुसंख्यक आदि का ।
यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो सभी तरह की निर्माण-विकास योजनाएँ इस तरह से लागू करवाता कि वे राष्ट्रीय संसाधनों से ही पूरी हो सकें । उनके लिए विदेशी धन एवं सहायता का मोहताज रह कर राष्ट्र की आन-बान को गिरवी न रखना पड़ता । दबावों में आकर इस तरह की आर्थिक नीतियाँ या अन्य योजनाएँ लागू न करने देना कि जो राष्ट्रीय स्वाभिमान के विपरीत तो होती ही हैं, निकट भविष्य में कई प्रकार की आर्थिक एवं सांस्कृतिक हानियाँ भी पहुँचाने वाली हैं।
यदि मैं प्रधानमंत्री होता, तो भ्रष्टाचार का राष्ट्रीयकरण कभी न होने देता। किसी भी व्यक्ति का भ्रष्टाचार सामने आने पर उसकी सभी तरह की चल-अचल सम्पत्ति को तो छीन कर राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करता ही, चीन तथा अन्य कई देशों की तरह भ्रष्ट कार्य करने वाले लोगों के हाथ-पैर कटवा देना, फाँसी पर लटका या गोली से उड़ा देने जैसे हृदयहीन कहे-माने जाने वाले उपाय करने से भी परहेज नहीं करता । इसी प्रकार तरह-तरह के अलगाववादी तत्वों को न तो उभरने देता और उभरने पर उनके सिर सख्ती से कुचल डालता । राष्ट्रीयहित, एकता और समानता की रक्षा, व्यक्ति के मान-सम्मान की रक्षा और नारी-जाति के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार का दमन मैं हर संभव उपाय से करता-करवाता ।
इस तरह स्पष्ट है कि यदि मैं भारत का प्रधानमन्त्री होता, तो देश एवं जनता को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं शैक्षिक स्तर पर सुदृढ़ कर भारत को पूर्णत: खुशहाल देश बनाने का अपना सपना साकार करता, ताकि हमारा देश पुनः सोने की चिड़िया कहलाने लगे ।

यदि मैं शिक्षक होता अथवा, एक शिक्षक का सपना

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) आदर्श शिक्षक (3) शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन (4) आदर्श शिक्षक के कर्तव्य (5) उपसंहार ।

शिक्षक होना सचमुच बहुत बड़ी बात हुआ करती है । शिक्षक की तुलना उस सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से भी कर सकते हैं। जैसे संसार के प्रत्येक प्राणी और पदार्थ को बनाना ब्रह्मा का कार्य है, उसी प्रकार उस सब बने हुए को संसार के व्यावहारिक ढाँचे में ढालना, व्यवहार योग्य बनाना, सजा-संवार कर प्रस्तुत करना वास्तव में शिक्षक का ही काम हुआ करता |
यदि मैं शिक्षक होता, तो एक वाक्य में कहूँ तो हर प्रकार से शिक्षकत्व के गौरव, विद्या, उसकी शिक्षा, उसकी आवश्यकता और महत्त्व को पहले तो स्वयं भली प्रकार से जानने और हृदयंगम करने का प्रयास करता; फिर उस प्रयास के आलोक में ही अपने पास शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा से आने वाले विद्यार्थियों को सही और उचित शिक्षा प्रदान करता, जैसा कबीर कह गए हैं ;
“गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि खोट ।
भीतर हाथ सहार दे, बहार बाहे चोट ।। “
अर्थात् जिस प्रकार एक कुम्हार कच्ची और गीली मीटी को मोड़-तोड़ और कुशल हाथों से एक साँचे में ढालकर घड़ा बनाया करता है उसी प्रकार मैं भी अपनी सुकुमार-मति से छात्रों का शिक्षा के द्वारा नव-निर्माण करता, उन्हें एक नये साँचे में ढालता। जैसे कुम्हार, मिट्टी से घड़े का ढाँचा बना कर उसे भीतर से एक हाथ का सहारा दे और बाहर से ठोंक कर उसमें पड़े गर्त आदि को समतल बनाया करता है, उसे भीतर से एक हाथ का सहारा दे और बाहर से ठोक कर उसमें पड़े गर्त आदि को समतल बनाया करता है, उसी प्रकार मैं अपने छात्रों के भीतर यानि मन-मस्तिष्क में ज्ञान का सहारा देकर उनकी बाहरी बुराइयाँ भी दूर करके हर प्रकार से सुडौल, जीवन का भरपूर आनन्द लेने के योग्य बना देता । लेकिन सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि मैं शिक्षक नहीं हूँ और जो शिक्षक हैं, वे अपने कर्त्तव्य का इस प्रकार गुरुता के साथ पालन करना नहीं चाहते।
यदि मैं शिक्षक होता तो न केवल स्वयं आदर्श शिक्षक बनता बल्कि अपने छात्रों को आदर्श गुरु की पहचान भी बताता। एक गुरु वे होते हैं, जिसके बीते हुए कल आपके आनेवाले कल के मार्गदर्शक बन सकते हैं। इसलिए किसी ऐसे आदर्श को खोजें जो आपको अपना शिष्य भी बना सके। एक अच्छा गुरु आपको सही राह दिखा सकता है लेकिन एक घटिया गुरु आपको गुमराह कर सकता है। याद रखें – “अच्छे गुरु आपकी प्यास नहीं बुझाते, बल्कि आपको प्यासा बनाएंगे। वे आपको जिज्ञासु बनाते है।”
एक राजा की कहानी है, जो किसी ऐसे व्यक्ति का सम्मान करना चाहता था जिसने समाज की उन्नति के लिए सबसे ज्यादा योगदान किया हो। हर तरह के लोग, जिनमें डॉक्टर और व्यवसायी भी आये थे, मगर राजा उनसे प्रभावित नहीं हुआ। अंत में एक बुजुर्ग इंसान आया, जिसके चेहरे पर चमक थी और उसने खुद के एक शिक्षक बताया। राजा ने अपने सिंहासन से उतर और झुककर उस शिक्षक को सम्मानित किया। समाज के भविष्य को बनाने और संवारने में सबसे बड़ा योगदान शिक्षक का ही होता है – इस मूलमंत्र को मैं एक शिक्षक के रूप में सदैव याद रखता यदि में शिक्षक होता ।

आत्मकथात्मक निबंध

पुस्तक की आत्मकथा

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) उपयोगिता (3) राम की जीवन गाथा (4) उपसंहार ।

मैं हिन्दी-साहित्य का एक प्रमुख महाकाव्य हूँ, मेरी रचना तुलसीदास ने की थी। उस महापुरुष ने मेरी रचना कर हिन्दी-साहित्य को धन्य बनाया । मैं भी अन्य पुस्तकों की भाँति ही एक पुस्तक हूँ, लेकिन मेरा सौभाग्य इसी में है कि मेरे प्रमुख पात्र, मर्यादा एवं शील सम्पन्न प्रभु श्री रामचन्द्रजी हैं। मुझे कई बार पढ़ने के बाद भी पाठकगण बार-बार पढ़ना चाहते हैं। राम का नाम लेने से मुक्ति मिल सकती है, किन्तु मुझमें इस प्रकार की कोई शक्ति विद्यमान नहीं है जिससे मैं मनुष्यों को मोक्ष दे सकूँ । यह शक्ति तो प्रभु श्री रामचन्द्र जी में है, जो प्रत्येक युग में अवतार लेकर लोगों के दुःख-दर्द का हरण करते हैं तथा अत्याचारियों का विनाश करते हैं। मेरे रचयिता के शब्दों में—
जब-जब होहि धरम की हानी, बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ।
तब-तब धर प्रभु मनुज शरीरा, हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा ।
मुझे सामान्य जन ही नहीं, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एवं ज्ञानी महात्मा जन भी अपने घर में श्रद्धा और भक्ति के साथ रखते हैं। वे लोग प्रभु श्री रामचन्द्रजी की गाथा पढ़ने एवं सुनने के लिए मुझे अपने पास रखते हैं। मेरी सुरक्षा के लिए वे मुझे लाल रंग के आवरण से हमेशा ढँककर रखते हैं तथा पढ़ते समय वे मुझे खोलकर एक रेहल नामक सुविधाजनक आसन पर रख देते हैं। यदि आपको मेरे सम्बन्ध में और अधिक जानकारी प्राप्त करनी है तो, आप उन महात्माओं से नि:संकोच पूछ सकते हैं जो लोग सदैव मुझे अपने पास रखते हैं ।
मैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र की जीवन-गाथा हूँ। इसीलिए लोग मुझे ‘रामचरित मानस’ कहते हैं। श्री रामचन्द्र परमेश्वर हैं। शक्ति, शील और सौन्दर्य-उनकी तीन विभूतियाँ हैं।
मेरे रचयिता ने मुझे शंकर-पार्वती के संवाद के रूप में प्रस्तुत किया है। शिव पार्वती से कहते हैं :
उमा कहौं मैं अनुभव अपना ।
बिनु हरिभजन जगत सब सपना ।।
श्रीराम भी शिव का पूजन करते हैं और कहते हैं :—
शिव द्रोही मम दास कहावा । सो नर मोहि सपनेहु नहि भावा ।।
श्री रामचन्द्रजी ने तो यहाँ तक कह डाला है कि—
शंकर प्रिय मम द्रोही शिव द्रोही ममदास ।
सो नर करहि कल्प-भर घोर नरक मँह वास ।
मुझसे अत्याचारी राजा भी भयभीत होते हैं, क्योंकि मैं उन्हें चेतावनी देते हुए यह कहती हूँ कि—
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी । सो नृप अवसि नरक अधिकारी ।
मेरे अन्दर वे तमाम गुण उपलब्ध हैं जिनका अनुकरण कर व्यक्ति एक आदर्श नागरिक बन सकता है । माता का पुत्र के साथ, पिता का पुत्र के साथ, भाई का भाई के साथ, स्वामी का सेवक के साथ, राजा का प्रजा के साथ, कैसा सम्बन्ध होना चाहिए इन सबका वर्णन मुझमें निहित है।

गंगा की करुण गाथा

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) गंगा के प्रदूषित होने के कारण (3) प्रदूषण से बचाने के उपाय (4) उपसंहार ।

मैं गंगा हूँ – वही गंगा, जिसे भागीरथ ने स्वर्ग से धरती पर उतारा था और जिसमें सगर पुत्रों का उद्धार किया था। तब से लेकर आज तक मैं लोगों की आस्था तथा श्रद्धा का पात्र हूँ । पृथ्वी पर मेरा जन्म भूगोलवेत्ताओं के अनुसार हिमालय की गोद से हुआ । गंगोत्री से लगभग 15 मील दूर गोमुख से मैं प्रकट होती हूँ। मेरे बारे में यह विश्वास आदिकाल से ही चला आ रहा है कि गंगा का जल कभी खराब नहीं होता। समय बदलने के साथ ही मेरी स्थिति में भी परिवर्तन आया । अब मेरा जल इतना प्रदूषित हो चुका है कि लोग गंगाजल की बजाय ‘मिनरल वाटर’ को अधिक महत्व देने लगे हैं।
आजकल मुझमें न जाने कितने ही प्रकार की गंदगी, दूषित जल और अनेक प्रकार के जहरीले पदार्थ बहा दिए जाते हैं। जैसे-जैसे कल-कारखानों, उद्योगों की संख्या बढ़ती जा रही है, मेरा जल प्रदूषित होता जा रहा है। मेरे तट के पास के कारखानों से टनों-टन कूड़ा-करकट तथा दूषित जल मेरी धारा में प्रतिदिन बहाए जा रहे हैं। जो लोग मुझमें स्नान करने आते हैं, जल को प्रदूषित करने में उनका भी कम योगदान नहीं हैं। वे मेरे जल में साबुन, गंदे कपड़े धोने, जानवरों को नहलाने तथा मरे जानवरों को बहाने के साथ लाश को भी बहा देते हैं। इससे मेरा जल दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होता जा रहा है।
वैज्ञानिकों की गंभीर चेतावनी के बाद सन् 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी में गंगाजल के शुद्धिकरण की दिशा में लोगों को जागृत करने के लिए कदम उठाए। लेकिन उनकी मृत्यु के कारण कुछ समय के लिए यह कार्यक्रम थम-सा गया । 5 जनवरी, 1985 को राजीव गाँधी के समय में ‘केन्द्रीय गंगा प्रधिकरण’ की स्थापना की गई तथा 292 करोड़ रुपए का एक वृहत् कार्यक्रम बनाया गया। इस संदर्भ में पहला गंगा-शद्धिकरण का पहल कार्य हरिद्वार तथा ऋषिकेश और फिर वाराणसी में हुआ। मेरी शुद्धिकरण के प्रति केवल भारत सरकार ही नहीं बल्कि कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का भी योगदान है। इसमें मुख्य रूप से नीदरलैण्ड, ब्रिटेन और फ्रांस सहयोगी हैं ।
यदि लोगों तथा सरकार का मेरे प्रति यह सहानुभूतिपूर्ण रवैया रहा तो निश्चय ही मैं अपनी खोई हुई गरिमा को फिर से पाने में सफल हो सकूंगी। लेकिन अपने लाभ के लिए मैं उद्योग-धंधों को भी नष्ट नहीं करना चाहती। ऐसी व्यवस्था की जाय जिससे कारखाने और उद्योग तो बने रहें लेकिन उनसे उत्पन्न प्रदूषण का खात्मा हो जाय । जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन मेरी करुण गांथा का अंत होगा लेकिन क्या कभी ऐसा हो पाएगा ?

सामाजिक-सांस्कृतिक निबंध

महँगाई

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) महँगाई के कारण (3) महँगाई के कारण आने वाली समस्या (4) महँगाई को दूर करने का उपाय (5) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- भारत की आर्थिक समस्याओं के अन्तर्गत महँगाई सबसे प्रमुख समस्या है। वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि इतनी तेजी से हो रही है कि आज जब किसी वस्तु को पुन: खरीदने जाते हैं तो उस वस्तु का मूल्य पहले से अधिक बढ़ा हुआ होता है ।
महँगाई के कारण :- वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि, अर्थात् महँगाई के अनेक कारण हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :-
(क) जनसंख्या में तेजी से वृद्धि :- भारत में जनसंख्या के विस्फोट ने वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाने की दृष्टि से बहुत अधिक सहयोग दिया है। जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, उतनी तेजी से वस्तुओं का उत्पादन नहीं हो रहा है, जिससे अधिकांश वस्तुओं के मूल्यों में निरंतर वृद्धि हो रही है ।
(ख) कृषि उत्पादन-व्यय में वृद्धि :- भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है । गत अनेक वर्षों से खेती में काम आने वाले उपकरणों, उर्वरकों आदि के मूल्यों में वृद्धि हुई है, फलत: उत्पादित वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होती जा रही है। अधिकांश वस्तुओं का मूल्य प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि-पदार्थों के मूल्यों से संबंधित है। इसी कारण जब कृषि-मूल्यों में वृद्धि होती है तो देश में प्राय: सभी वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं ।
(ग) कृत्रिम रूप से वस्तुओं की आपूर्ति में कमी :- वस्तुओं का मूल्य माँग और पूर्ति पर आधारित है। बाजार में वस्तुओं की कमी होते ही उनके मूल्य में वृद्धि हो जाती है। अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से भी व्यापारी वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा करके महँगाई बढ़ा देते हैं ।
महँगाई के कारण होने वाली समस्याएँ :- महँगाई नागरिकों के लिए अभिशापस्वरूप है । भारत एक गरीब देश है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या के आय के साधन सीमित हैं। इस कारण साधारण नागरिक और कमजोर वर्ग के व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते । बेरोजगारी इस कठिनाई को और भी अधिक जटिल बना देती है ।
महँगाई को दूर करने के उपाय :- यदि महँगाई इसी दर से बढ़ती रही तो देश के आर्थिक विकास में बहुत बड़ी बाधा उपस्थित हो जाएगी। इससे अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयाँ जन्म लेंगी। अत: महँगाई की इस समस्या को अमूल नष्ट करना अति आवश्यक है ।
महँगाई को दूर करने के लिए सरकार को समयबद्ध कार्यक्रम बनाना होगा। किसानों को सस्ते मूल्य पर खाद, बीज और उपकरण उपलब्ध कराने होंगे, ताकि कृषि उत्पादन का मूल्य कम हो सके । मुद्रा-प्रसार को रोकने के लिए घाटे की व्यवस्था समाप्त करनी होगी तथा घाटे को पूरा करने के लिए नए नोट छापने की प्रणाली बंद करना होगा। जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए निरंतर प्रयास करने होंगे, ताकि वस्तुओं का उचित बँटवारा हो सके ।
उपसंहार :- महँगाई के कारण हमारी अर्थव्यवस्था में अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं । घाटे की अर्थव्यवस्था ने इस समस्या को और अधिक बढ़ा दिया है । यद्यपि सरकार की ओर से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में किए जाने वाले प्रयासों द्वारा महँगाई की इस प्रवृत्ति को रोकने का प्रयास निरंतर किया जा रहा है, तथापि इस दिशा में अभी तक पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी है। यदि समय रहते महँगाई की इस समस्या पर नियंत्रण नहीं किया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और हमारी प्रगति के सारे रास्ते बंद हो जाएँगे, भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमा लेगा और नैतिक मूल्य पूर्णतया समाप्त हो जाएँगे ।

बेरोजगारी

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) बेरोजगारी-एक प्रमुख समस्या (3) बेरोजगारी-एक अभिशाप (4) बेरोजगारी के कारण (5) बेरोजगारी दूर करने के उपाय (6) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर रोजगार की तलाश में भटकते हुए नवयुवक के चेहरे पर निराशा और चिंता के भाव आजकल देखना सामान्य-सी बात हो गयी है। कभी-कभी रोजगार की तलाश में भटकता हुआ युवक अपनी डिग्रियाँ फाड़ने अथवा जलाने के लिए विवश दिखाई देता है । वह रात को देर तक बैठकर अखबारों के विज्ञापनों को पढ़ता है, आवेदन-पत्र लिखता है। साक्षात्कार देता है और नौकरी न मिलने पर पुन: रोजगार की तलाश में भटकता रहता है। युवक अपनी योग्यता के अनुरूप नौकरी खोजते रहते हैं। घर के लोग उसे निकम्मा समझते हैं, समाज के लोग आवारा कहते हैं, जबकि स्वयं बेचारा निराशा की नींद सोता है और आँसुओं के खारेपन को पीकर समाज को अपनी मौन-व्यथा सुनाता है ।
बेरोजगारी का अर्थ :- बेरोजगारी का अभिप्राय उस स्थिति से है जब कोई योग्य तथा काम करने के लिए इच्छुक व्यक्ति प्रचलित मजदूरी की दरों पर कार्य करने के लिए तैयार हो और उसे काम न मिलता हो । बालक, वृद्ध, रोगी, अक्षम एवं अपंग व्यक्तियों को बेरोजगार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । जो व्यक्ति काम करने के इच्छुक नहीं हैं और परजीवी हैं, वे भी बेरोजगारों की श्रेणी में नहीं आते ।
एक प्रमुख समस्या :- भारत की आर्थिक समस्याओं के अंतर्गत बेरोजगारी एक प्रमुख समस्या है । वस्तुतः यह एक ऐसी बुराई है, जिसके कारण केवल उत्पादक मानव-शक्ति ही नष्ट नहीं होती वरन देश का भावी आर्थिक विकास ही अवरुद्ध हो जाता है। जो श्रमिक अपने कार्य द्वारा देश के आर्थिक विकास में सक्रिय सहयोग दे सकते थे. वे कार्य के अभाव में बेरोजगार रह जाते हैं। यह स्थिति हमारे विकास में बाधक है ।
एक अभिशाप :- बेरोजगारी किसी भी देश या समाज के लिए अभिशाप है। इससे एक ओर निर्धनता, भुखमरी तथा मानसिक अशांति फैलती है तो, दूसरी ओर युवकों में आक्रोश तथा अनुशासनहीनता बढ़ती है। चोरी, डकैती, हिंसा, अपराध-वृत्ति एवं आत्महत्या आदि समस्याओं के मूल में एक बड़ी सीमा तक बेरोजगारी ही विद्यमान है । बेरोजगारी एक ऐसा भयंकर विष है जो संपूर्ण देश के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को दूषित कर देता है। अतः उसके कारणों को खोजकर उनका निराकरण अत्यधिक आवश्यक है।
बेरोजगारी के कारण :- भारत में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं जिनमें प्रमुख निम्न हैं-
(क) जनसंख्या में वृद्धि :-बेरोजगारी का प्रमुख कारण है जनसंख्या में तीव्र वृद्धि । विगत कुछ दशकों में भारत में जनसंख्या का विस्फोट हुआ है।
(ख) दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली :- भारतीय शिक्षा सैद्धांतिक अधिक है, लेकिन व्यावहारिकता में शून्य है। इसमें पुस्तकीय ज्ञान पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है।
(ग) कुटीर उद्योगों की उपेक्षा :-अंग्रेजी सरकार की कुटीर उद्योग विरोधी नीति के कारण देश में कुटीर उद्योग-धंधों का पतन हो गया, जिससे अनेक कारीगर बेकार हो गए ।
(घ) औद्योगीकरण की मंद प्रक्रिया :-विगत पंचवर्षीय योजनाओं में देश में औद्योगिक विकासके लिए प्रशंसनीय कदम उठाए गए हैं, किंतु समुचित रूप से देश को औद्योगीकरण नहीं किया जा सका है ।
(ङ) कृषि का पिछड़ापन :- भारत की लगभग 72% जनता कृषि पर निर्भर है । कृषि के क्षेत्र में अत्यंत पिछड़ी हुई दशा के कारण कृषि बेरोजगारी व्यापक हो गई है ।
बेरोजगारी दूर करने के उपाय :-बेरोजगारी दूर करने में निम्नलिखित उपाय सहायक सिद्ध हो सकते हैं-
(क) जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण :- जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि ही बेरोजगारी का मूल कारण है । अत: इस पर नियंत्रण बहुत आवश्यक है। जनता को परिवार नियोजन का महतव समझाते हुए उसमें छोटे परिवार के प्रति चेतना जाग्रत करनी चाहिए ।
(ख) शिक्षा प्रणाली में व्यापक परिवर्तन :-शिक्षा को व्यवसाय-प्रधान बनाकर शारीरिक श्रम को उचित महत्व दिया जाना चाहिए ।
(ग) कुटीर उद्योगों का विकास :-सरकार द्वारा कुटीर उद्योगों के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
(घ) औद्योगीकरण :- देश में व्यापक स्तर पर औद्योगीकरण किया जाना चाहिए। इसके लिए विशाल उद्योगों की अपेक्षा लघुस्तरीय उद्योगों का अधिक विकास करना चाहिए ।
(ङ) सहकारी खेती :- कृषि के क्षेत्र में अधिकाधिक व्यक्तियों को रोजगार देने के लिए सहकारी खेती को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए ।
(च) राष्ट-निर्माण संबंधी विविध कार्य :- देश में बेरोजगारी को दूर करने के लिए राष्ट्र-निर्माण संबंधी विविध कार्यों का विस्तार किया जाना चाहिए, जैसे- सड़कों का निर्माण, रेल-परिवहन का विकास, पुल-निर्माण, बाँध-निर्माण तथा वृक्षारोपण आदि ।
उपसंहार :- भारत सरकार बेरोजगारी के प्रति जागरुक है तथा इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम भी उठा रही है। परिवार-विनियोजन, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कच्चा माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने की सुविधा, कृषि-भूमि की हदबन्दी, नए-नए उद्योगों की स्थापना, अप्रंटिस (प्रशिक्षु) योजना, प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना, आदि अनेकानेक कार्य ऐसे हैं जो बेरोजगारी को दूर करने में एक सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं ।

सांप्रदायिकता : कारण व समाधान

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) सांप्रदायिकता का कारण (3) सांप्रदायिक संघर्ष के कारण (4) भारत में सांप्रदायिकता (5) सांप्रदायिक घटनाएँ (6) सांप्रदायिकता के दुष्परिणाम (7) सांप्रदायिकता का समाधान (6) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- भारत एक अरब से भी अधिक आबादी वाला विशाल देश है । यह स्वयं में एक संसार है। इसमें अनेक भाषाओं, अनेक जातियों और अनेक धर्मों के लोग रहते हैं। उनके खान-पान, वेश-भूषा और रीति-रिवाज भी अलग-अलग हैं। यह एक मात्र ऐसा देश है, जहाँ सबसे अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। यहाँ हिंदू बहुसंख्यक हैं, किंतु साथ ही मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी आदि सभी यहाँ के समान स्तर के समान अधिकार के नागरिक हैं। सभी धर्मावलंबी यहाँ अपने तौर-तरीके, रीति-रिवाज और परंपराओं का पालन करते हैं। इतनी सब भिन्नताओं के होते हुए भी उनमें एक मूलभूत एकता है और वह यह है कि ये हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई बाद में हैं, पहले भारतीय हैं। कोई भी सम्प्रदाय अथवा धर्म मानव-मानव को लड़ाई की बात नहीं कहता ।
उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने कहा था–
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ।
हिंदी हैं, हमवतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा ।।
सांप्रदायिकता का कारण :-जब कोई सम्प्रदाय अथवा धर्म स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और अन्य संप्रदायों को निम्न मानने लगता है, तब उसके मन में अपने सम्प्रदाय के प्रति एक अहंकार की बू आने लगती है । इसी कारण वह दूसरे सम्प्रदाय के प्रति घृणा, विद्वेष और हिंसा का भाव रखने लगता है |
सांप्रदायिक संघर्ष के कारण :- भारत में सांप्रदायिकता की समस्या प्रारंभ से ही धार्मिक की अपेक्षा मुख्यतः राजनीतिक रही है। कुछ स्वार्थी राजनेता अपने अथवा अपने दल के लाभ हेतु भड़काऊ भाषण देकर आग में घी डाल देते हैं । परिणामस्वरूप संप्रदाय के अंधे लोग अन्य धर्मांधों से भिड़ जाते हैं और सारा जनजीवन दूषित कर देते हैं ।
भारत में सांप्रदायिकता :- भारत में सांप्रदायिकता का प्रारंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ। शासन और शक्ति पाकर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने धर्म को आधार बनाकर हिंदू जन-जीवन को रौंद डाला। हिंदुओं के धार्मिक तीर्थों को तोड़ा, देवी-देवताओं को अपमानित किया, बहू-बेटियों को अपवित्र किया, जान-माल का हरण किया। परिणामस्वरूप, हिंदू जाति के मन में उन पाप-कर्मों के प्रति गहरी घृणा भर गई, जो आज तक भी जीवित है । छोटी-छोटी घटना पर हिंदू- मुस्लिम संघर्ष का भड़क उठना उसी घृणा का सूचक है।
सांप्रदायिक घटनाएँ :- सांप्रदायिकता को भड़काने में अंग्रेज शासकों का गहरा षडयंत्र था । आजादी से पूर्व अनेक खूनी संघर्ष हुए। आजादी के बाद तो विभाजन का जो संघर्ष हुआ, भीषण नर-संहार हुआ । उसे देखकर समूची मानवता बिलख-बिलखकर रो पड़ी थी ।
सांप्रदायिकता के दुष्परिणाम :- सांप्रदायिकता का उन्माद देश में कभी-कभी ऐसी कटुता पैदा कर देती है कि आये दिन हिंदू-मुस्लिम दंगे होते हैं। इसके द्वारा तोड़-फोड़, आगजनी और नर-संहार का ऐसा तांडव होता है कि मानवता का सिर शर्म से झुक जाता है ।
सांप्रदायिकता का समाधान :- भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है । हमारे अपने देश में सांप्रदायिकता की समस्या का समाधान कठिन अवश्य है, किंतु असंभव नहीं । सांप्रदायिकता का अन्धापन अज्ञान तथा अविवेक से पैदा होता है । इसलिए शिक्षा का प्रसार सर्वोत्तम उपाय है ।
देश में कानून का शासन स्थापित किया जाय, अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति चाहे हिंदू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई, समान कानून का पालन करे । कानून का उल्लंघन करने पर दण्ड भी समान रूप में दिया जाए। साम्प्रदायिकता फैलाने वाले को दंडित किया जाए। जनसंचार के माध्यमों द्वारा सांप्रदायिकता विरोधी कार्यक्रम प्रसारित किए जाएं ।
उपसंहार :- प्रत्येक मानव का यह अधिकार है कि वह अपनी इच्छानुसार धर्म का पालन करे। किसी मानव को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने धार्मिक अन्धविश्वास के कारण दूसरों की उन्नति के मार्ग की बाधा बन जाए । यदि कोई सांप्रदायिकता की संकुचित भावना से प्रेरित होकर अपने धर्म का विकास तथा दूसरे धर्म का उपहास करता है तो इससे निश्चय ही राष्ट्र, विश्व तथा संपूर्ण मानवता को क्षति पहुँचेगी । अतः सांप्रदायिकता के अभिशाप को समाप्त किए बिना मानवता की सुरक्षा संभव नहीं है ।

राष्ट्रीय एकता

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) भारत में अनेकता के विविध रूप (3) राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता (4) राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ (5) जातिवाद (6) राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के उपाय – सर्वधर्म समभाव (7) समष्टि-हित की भावना (8) एकता का विश्वास, शिक्षा का प्रसार (9) राजनैतिक वातावरण की स्वच्छता (10) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- भारत अनेक धर्मों, जातियों और भाषाओं का देश है। धर्म, जाति एवं भाषाओं की दृष्टि से विविधता होते हुए भी भारत में प्राचीनकाल से ही एकता की भावना विद्यमान रही है। जब कभी किसी ने उस एकता को खंडित करने का प्रयास किया है, भारत का एक-एक नागरिक सजग हो उठा है । राष्ट्रीय एकता को खंडित करने वाली शक्तियों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हो जाता है। राष्ट्रीय एकता हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव का अभिमान नहीं है, वह नर नहीं, नर-पशु है –
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।
वह नर नहीं नर-पशु निरा है और मृतक समान है ।
राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय :- राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय है- संपूर्ण भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक एकता। हमारे कर्मकांड, पूजा-पाठ, खान-पान, रहन-सहन और वेश-भूषा में अंतर हो सकता है। इनमें अनेकता भी हो सकती है, किंतु हमारे राजनीतिक और वैचारिक दृष्टिकोण में एकता है। इस प्रकार अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है।
भारत में अनेकता के विविध रूप :- भारत जैसे विशाल देश में अनेकता का होना स्वाभाविक ही है। धर्म के क्षेत्र में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि विविध धर्मावलंबी यहाँ निवास करते हैं । इतनी विविधताओं के होते हुए भी भारत अत्यंत प्राचीनकाल से एकता के सूत्र में बँधा रहा है ।
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता :- राष्ट्र की आंतरिक शक्ति तथा सुव्यवस्था और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता होती है । भारतवासियों में यदि जरा-सी भी फूट पड़ेगी तो अन्य देश हमारी स्वतंत्रता को हड़पने के लिए तैयार बैठे हैं ।
राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ :- राष्ट्रीय एकता की भावना का अर्थ मात्र यह नहीं है कि हम एक राष्ट्र से संबद्ध हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए एक-दूसरे के प्रति भाईचारे की भावना आवश्यक है। आजादी के समय हमने सोचा था कि पारस्परिक भेदभाव समाप्त हो जाएगा किंतु सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जातीयता, अज्ञानता और भाषागत अनेकता ने अब तक पूरे देश को आक्रांत कर रखा है ।
राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न कर देने वाले कारण निम्न हैं :—
(i) सांप्रदायिकता :- राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा सांप्रदायिकता की भावना है। सांप्रदायिकता एक ऐसी बुराई है जो मानव-मानव में फूट डालती है, समाज को विभाजित करती है। जहाँ भी द्वेष, घृणा और विरोध है, वहाँ धर्म नहीं है । राष्ट्रवादी शायर इकबाल ने कहा है-
“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ।
हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा ।।”
सांप्रदायिक कटुता को दूर करने के लिए हमें परस्पर सभी धर्मों का आदर करना चाहिए ।
(ii) भाषागत विवाद :- भारत बहुभाषी राष्ट्र है। विभिन्न प्रांतों की अलग-अलग बोलियाँ और भाषाएँ हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा को श्रेष्ठ और उसके साहित्य को महान मानता है।
मातृभाषा को सीखने के बाद संविधान में स्वीकृत 18 भाषाओं में से किसी भी भाषा को सीख लें तथा राष्ट्रीय एकता के निर्माण में सहयोग प्रदान करें ।
(iii) प्रांतीयता अथवा प्रादेशिकता की भावना :- प्रांतीयता अथवा प्रादेशिकता की भावना भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। कभी-कभी किसी अंचल विशेष के निवासी अपने लिए पृथक् अस्तित्व की माँग रखते हैं।
(iv) जातिवाद :- भारत में जातिवाद सदैव प्रभावी रहा है। कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था टूटी है और जाति-प्रथा कहर रूप से उभरी है। जातिवाद ने भारतीय एकता को बुरी तरह प्रभावित किया है ।
राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के उपाय :- वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं—
(1) सर्वधर्म समभाव :- सभी धर्मों की आदर्श एवं श्रेष्ठ बातें समान दिखाई देती हैं। सभी धर्मों का समान रूप से आदर होनी चाहिए ।
(2) समष्टि-हित की भावना :- हम अपनी स्वार्थ भावना को भूलकर समष्टि-हित का भाव विकसित कर लें।
(3) एकता का विश्वास :- भारत की अनेकता में ही एकता का निवास है। सभी नागरिकों को प्रेम और सद्भाव द्वारा एक-दूसरे में अपने प्रति विश्वास पैदा करनी चाहिए ।
(4) राजनीतिक वातावरण की स्वच्छता :- स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेजों ने तथा स्वतंत्रता के बाद राजनेताओं ने जातीय विद्वेष तथा हिंसा भड़काये हैं। किसी संप्रदाय विशेष का मसीहा बनकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इन स्वार्थी राजनेताओं का बहिष्कार करना चाहिए |
उपसंहार :- आज विकास के साधन बढ़ रहे हैं, भौगोलिक दूरियाँ कम हो रही हैं, किंतु आदमी और आदमी के बीच दूरी बढ़ती ही जा रही है। हम सभी को मिलकर राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए। ऐसा करने पर भारत एक सबल राष्ट्र बन सकेगा ।

इक्कीसवीं सदी का भारत

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) परिवर्तनशील भारत (3) इक्कीसवीं सदी का भारत (4) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- लगभग 25-30 वर्ष पूर्व अंग्रेजी साहित्य के एक लेखक ने ‘इक्कीसवीं सदी की दुनिया’ नामक लेख लिखा था, जिसमें यह बताया गया था कि इक्कीसवीं सदी में मानव-समाज औद्योगिकता की अनेक मंजिलें तय करते हुए उस जगह तक जा पहुँचेगा, जहाँ आदमी शून्य होगा और मशीनें सर्वोत्तम । यह चाँद तक पहुँचेगा तथा आकाश पर जगमगाते सितारों की खोज करेगा किंतु मशीनों के माध्यम से। यह वह समय होगा जब मानव की समस्त वौद्धिक शक्तियाँ मशीन के कलपुर्जों को समर्पित कर दी जाएँगी । विकास के अंतिम चरण में मनुष्य स्वनिर्मित मशीनों का दास होकर रह जाएगा ।
इक्कीसवीं सदी का भारत :-कल्पना में जब भी इक्कीसवीं सदी का भारत उभरता है तो उसके दो स्पष्ट छोर दिखाई देते हैं । इनमें से एक आधुनिक और वैज्ञानिक विश्व से जुड़ा है तो, दूसरा काठ के बने गाड़ी के दो पहियों के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने को विवश है।
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं पर अरबों रुपया खर्च हो रहा है। इससे भारत का आधुनिकीकरण तो हो रहा है, किंतु इसका लाभ देश के अधिकांश वर्ग को नहीं मिल रहा है। इससे यह खतरा भी हो सकता है कि भारत का एक बहुत छोटा वर्ग अति-आधुनिक साधनों और सुविधाओं का भोग कर रहा होगा और एक बहुत बड़ा वर्ग अपनी जीविका के लिए ही संघर्ष कर रहा होगा ।
इक्कीसवीं सदी के भारत के रूप में कल्पना कीजिए कि देश का एक ऐसा वर्ग होगा जो केवल अपने हाथ की एक अँगुली से बटन दबाकर रात का खाना अपनी मेज पर मँगवाएगा तथा दूसरा बटन दबाकर जूठे बर्तन भी साफ कराएगा। इस सदी का व्यक्ति राकेटों पर सवार होकर चंद्रमा की यात्रा करेगा तथा घण्टों या मिनटों में ब्रह्मांड का चक्कर लगाकर वापस अपने घर लौट सकेगा। किसी कार्यालय में बैठे लिपिक को पूरे दिन टाइप करने की आवश्यकता नहीं, अपितु संपूर्ण रिपोर्टिंग को कंप्यूटर की मदद से कुछ ही देर में प्रिंटर द्वारा लेखा-जोखा प्रस्तुत कर देगा। दूसरी ओर भारत में एक ऐसा वर्ग भी होगा जो अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान के लिए दर-दर भटक रहा होगा ।
इक्कीसवीं सदी और भारत :- संपन्न देशों की नकल करके इक्कीसवीं सदी की बात करने वाले भारत की इसके क्षेत्र में तैयारी बहुत कम है। हमारे देश में 21 वीं सदी की बात के लिए हड़बड़ाहट अधिक है, तैयारी कम है।
अत्यधिक प्रयासों के बाद भी हम अपनी कृषि को पूर्णत: वैज्ञानिक आधार नहीं दे पाए हैं। अभी भी बहुत कम किसान ऐसे हैं जो कृषि के वैज्ञानिक तरीकों और साधनों का प्रयोग कर पाते हैं, किंतु दस वर्ष बाद हम अवश्य इतने समर्थ हो जायेंगे कि अपने देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए खाद्यान्नों का निर्यात भी कर सकें।
हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ उनके समुचित दोहन की। इस शताब्दी में हम इन संसाधनों का भरपूर और समुचित उपयोग कर सकने की स्थिति में होंगे ।
उपसंहार :- हमें विश्वास है कि सन् 2010 ई० तक हम विकास की उस निर्णायक स्थिति में अवश्य पहुँच जायेंगे जहाँ भारत का कोई बालक भूखा नहीं सो सकेगा, कोई ऐसा तन नहीं होगा जिस पर वस्त्र नही होगा तथा कोई ऐसा परिवार न होगा जिसके सिर पर छत न हो, अर्थात् प्रत्येक नागरिक को रोटी, कपड़ा और मकान सुलभ होगा ।

दूरदर्शन का प्रभाव

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) दूरदर्शन का आविष्कार, उपयोग, प्रभाव (3) दूरदर्शन से लाभ तथा हानियाँ (4) उपसहार ।

प्रस्तावना :- दूरदर्शन अर्थात् टेलीविजन आधुनिक युग में मनोरंजन के साथ-साथ सूचनाओं की प्राप्ति का भी महत्वपूर्ण साधन है। केवल पच्चीस-तीस वर्ष पहले तक भारतीय समाज में दूरदर्शन का उपयोग महानगरों के कुछ संपन्न परिवार ही कर पाते थे तथा इस पर सीमित कार्यक्रम ही प्रसारित होते थे, किंतु आज स्थिति यह है कि दूरदर्शन देश के प्रत्येक शहर तथा गाँव तक पहुँच चुका है। देश की अधिकांश आबादी तक यह कोठियों से लेकर झुग्गी-झोंपड़ी तक अपने पैर पसार चुका है। दूरदर्शन के उपग्रह द्वारा प्रसारण संबंधी सुविधा के कारण आजकल सैकड़ों चैनलों एवम् कार्यक्रमों की भरमार है ।
दूरदर्शन का आविष्कार :-25 जनवरी, सन् 1926 को इंग्लैण्ड में एक इंजीनियर जान बेयर्ड ने रायल इन्स्टीट्यूट’ के सदस्यों के सामने टेलीविजन का सर्वप्रथम प्रदर्शन किया था। उसने कठपुतली के चेहरे का चित्र रेडियो की तरंगों की सहायता से वैज्ञानिकों के सामने प्रदर्शित किया था। विज्ञान के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी ।
दूरदर्शन का उपयोग :- आधुनिक समाज में दूरदर्शन का उपयोग मनोरंजन, शिक्षा, साहित्य, संगीत, सूचना आदि विभिन्न क्षेत्रों के लिए किया जा रहा है। आज यह मनोरंजन का सबसे सस्ता और सुलभ साधन है। अब लोगों को फिल्म देखने के लिए सिनेमा हॉल तक नहीं जाना पड़ता है। क्रिकेट मैच को देखने के लिए मैदान पर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। पूरे विश्व के समाचार तथा विभिन्न संस्कृतियों के आधार-व्यवहार आदि का दृश्यावलोकन भी घर बैठे हो जाता है। इसके माध्यम से विभिन्न कक्षाओं के लिए शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण भी किया जाता है, जिससे छात्रों को अध्ययन में सुविधा मिलती है । यू. जी. सी. का कंट्रीवाइड क्लास रूम टीचिंग ऐसा ही कार्यक्रम है तथा दूरदर्शन का ज्ञान-दर्शन चैनल शिक्षा प्रदान करने वाला चैनल है जो बहुत उपयोगी है ।
दूरदर्शन का प्रभाव :- दूरदर्शन आज प्रत्येक परिवार का एक आवश्यक अंग बन गया है, जिसका परिवार तथा समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति, परिवार तथा समाज पर दूरदर्शन का प्रभाव लाभकारी है या हानिकारक यह प्रश्न विचारणीय है । अतः लाभ-हानि के दृष्टिकोण से दूरदर्शन के प्रभाव का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है:
दूरदर्शन से लाभ – दूरदर्शन समाज के लिए निम्न क्षेत्रों में उपयोगी है-
दूरदर्शन आज के समय में सबसे सस्ता एवं सुलभ मनोरंजन प्रदान करता है। इसमें केवल बिजली का थोड़ा-सा खर्च लगता है। लोग घर पर बैठकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार कार्यक्रम देखते हैं|
दूरदर्शन के पर्दे पर विश्व मानव समुदाय की विभिन्न संस्कृतियों से संबंधित कार्यक्रम आते रहते हैं, जिससे हम उनकी संस्कृति से परिचित हो जाते हैं। जिन स्थानों पर जाना सम्भव नहीं होता उनकी भी जानकारी मिल जाती है ।
दूरदर्शन के माध्यम से हम महत्वपूर्ण व्यावसायिक सूचनाएँ एवं शिक्षा संबंधी अनेक तथ्यों की जानकारियाँ अपने घर में ही प्राप्त कर लेते हैं। इसका लाभ हमें शैक्षणिक एवं व्यावसायिक स्तर पर प्राप्त होता है ।
दूरदर्शन के कारण बच्चों की बुद्धि का विकास भी शीघ्रता से संभव हो गया है। आज उन्हें बाघ और सिंह का अंतर बताने के लिए किसी चिड़ियाघर ले जाने की आवश्यकता नहीं है । हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर, रॉकेट आदि को टेलीविजन के पर्दे पर देखकर ही पहचान करना सीख जाते हैं ।
दूरदर्शन से हानियाँ :- जहाँ दूरदर्शन से अनेक लाभ हैं, वहीं दूसरी ओर समाज को इससे अनेक हानियाँ भी हैं, उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-
  1. समय की हानि :- मनुष्य के लिए मनोरंजन आवश्यक है, मनुष्य असमय एवं अनावश्यक मनोरंजन में समय नष्ट करता है, इससे उसके कार्य करने की क्षमता में कमी आ जाती है।
  2. स्वास्थ्य की हानि :- दूरदर्शन से निकलने वाली प्रकाश की किरणें मनुष्य के नेत्र एवं त्वचा पर अत्यंत हानिकारक प्रभाव डालती हैं, क्योंकि इस प्रकाश की किरणें साधारण प्रकाश की किरणों से भिन्न होती हैं ।
  3. चरित्र का हनन :- दूरदर्शन के कार्यक्रमों से जहाँ एक ओर ज्ञान का विकास होता है, वहीं इसके प्रभाव से समाज का चारित्रिक पतन भी हो रहा है। मनोरंजन के कार्यक्रमों में व्यावसायिकता का बोलबाला है, उनमें नैतिक आदर्शों को छोड़ दिया जाता है । अश्लीन एवं फूहड़ दृश्य, द्विअर्थी गीत-संवाद, हिंसात्मक एवं वीभत्स घटनाओं आदि का प्रसारण मानव-मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालता है। इससे समाज में अपराध तथा अनैतिक कार्य की प्रवृत्ति बढ़ रही है ।
  4. बच्चों के भविष्य पर कुप्रभाव :- दूरदर्शन का सबसे बुरा प्रभाव बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर पड़ता है। बच्चे अल्पायु से ही बंदूक का खेल खेलने लगते हैं। कार्टून फिल्मों को देखने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं, जिसका सीधा प्रभाव उनकी पढ़ाई पर, उनके भविष्य पर पड़ता है।
उपसंहार :- दूरदर्शन मानव जीवन का एक अति-आवश्यक अंग है, किंतु इसका संयमित और नियंत्रित उपयोग ही करना चाहिए ।

दहेज-प्रथा: एक अभिशाप

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) दहेज-प्रथा का प्रारंभ (3) दहेज का अर्थ (4) दहेज प्रथा के विस्तार के कारण (5) दहेज-प्रथा से हानियाँ (6) समस्या का समाधान (5) उपसंहार ।

‘कहती है नन्हीं-सी बाला, मैं कोई अभिशाप नहीं ।।
लज्जित होना पड़े पिता को, मैं कोई ऐसा पाप नहीं ।”
‘दहेज बुरा रिवाज है, बेहद बुरा । बेहद बुरा । बस चले तो दहेज लेने वालों और देने वालों को ही गोली मार देनी चाहिए, फिर चाहे फाँसी ही क्यों न हो जाए। पूछो, आप लड़के का विवाह करते हैं कि उसे बेचते हैं।” – मुंशी प्रेमचंद
दहेज प्रथा वर्तमान समाज का कलंक बन गई है। भारतीय समाज का यह कलंक निरंतर विकृत रूप धारण करता जा रहा है । समय रहते इस रोग का निदान और उपचार आवश्यक है, अन्यथा समाज की नैतिक मान्यताएँ नष्ट हो जाएँगी और मानव-मूल्य समाप्त हो जायेंगे ।
दहेज-प्रथा का प्रारंभ :-महर्षि मनु ने ‘मनुस्मृति’ में अनेक विवाहों का उल्लेख किया है। ब्रह्म-विवाह के अंतर्गत कन्या को वस्त्र और आभूषण देने की बात कही गई है। कन्या के माता-पिता अपनी सामर्थ्य और इच्छानुसार वस्त्र और अलंकार दिया करते थे, किंतु उसमें बड़ी मात्रा में दिए जाने वाले दहेज का उल्लेख नहीं है ।
दहेज का अर्थ :-दहेज का तात्पर्य उन संपत्ति और वस्तुओं से है, जिन्हें विवाह के समय वधू-पक्ष की ओर से वर-पक्ष को दिया जाता है । मूल रूप से इसमें स्वेच्छा की भावना निहित है, किंतु आज दहेज का अर्थ बिल्कुल अलग हो गया है, अब तो इसका अर्थ उस संपत्ति अथवा मूल्यवान वस्तुओं से है, जिन्हें विवाह की एक शर्त के रूप में कन्या-पक्ष द्वारा वर पक्ष के प्रति विवाह से पूर्व अथवा बाद में पूरा करना पड़ता है ।
दहेज-प्रथा के विस्तार के कारण :- दहेज प्रथा के विस्तार के प्रमुख कारण निम्न हैं—
  1. धन के प्रति अधिक आकर्षण :- वर्तमान युग भौतिकवादी युग है। समाज में धन का महत्व बढ़ता जा रहा है। धन सामाजिक प्रतिष्ठा और पारिवारिक प्रतिष्ठा का आधार बन गया है। वर-पक्ष ऐसे परिवार में ही संबंध स्थापित करना चाहता है, जो धनी हो तथा अधिक से अधिक धन दहेज के रूप में दे सके ।
  2. जीवन-साथी चुनने का सीमित क्षेत्र :- भारतीय समाज अनेक जातियों तथा उपजातियों में विभाजित है। सामान्यत: प्रत्येक माता-पिता अपनी पुत्री का विवाह अपनी ही जाति या उससे उच्च जाति के लड़के के साथ करना चाहते हैं । इसी कारण वर-पक्ष की ओर से दहेज की माँग होती है।
  3. शिक्षा और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा :- वर्तमान युग में शिक्षा बहुत महँगी है। इसके लिए पिता को कभी-कभी अपने पुत्र की शिक्षा पर अपनी सामर्थ्य से अधिक धन खर्च करना पड़ता है। इस धन की पूर्ति वह पुत्र के विवाह के अवसर पर दहेज प्राप्त करके करना चाहता है।
दहेज-प्रथा से हानियाँ :- दहेज-प्रथा ने हमारे समाज को पथभ्रष्ट और स्वार्थी बना दिया है। समाज में फैला यह रोग इस तरह जड़ जमा चुका है कि कन्या के माता-पिता के रूप में जो लोग दहेज की बुराई करते हैं वे ही अपने पुत्र के विवाह के अवसर पर मनचाहा दहेज माँगते हैं। इससे समाज में अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हो गई हैं तथा अनेक नवीन समस्याएँ विकराल रूप धारण करती जा रही हैं, जैसे-
  1. बेमेल विवाह :- दहेज-प्रथा के कारण निर्धन माता-पिता अपनी पुत्री के लिए उपयुक्त वर प्राप्त नहीं कर पाते और मजबूरी में उन्हें अपनी पुत्री का विवाह अयोग्य लड़के से करना पड़ता है। दहेज देने में असमर्थ माता-पिता को अपनी कम उम्र की लड़कियों का विवाह अधिक अवस्था के पुरुषों से करना पड़ता है ।
  2. ऋणग्रस्तता :- दहेज-प्रथा के कारण वर-पक्ष की माँग को पूरा करने के लिए कई बार कन्या के माता-पिता को ऋण भी लेना पड़ता है। फलत: वे आमृत्यु ऋण की चक्की में पिसते रहते हैं ।
  3. कन्याओं का दुःखद वैवाहिक जीवन :- वर-पक्ष की माँग के अनुसार दहेज न देने अथवा उसमें किसी प्रकार की कमी रह जाने के कारण ‘नव वधू’ को सुसराल में अपमानित होना पड़ता है।
  4. अविवाहिताओं की संख्या में वृद्धि :- आर्थिक दृष्टि से दुर्बल परिवारों की जागरुक युवतियाँ गुणहीन तथा निम्नस्तरीय युवकों से विवाह करने की अपेक्षा अविवाहित रहना उचित समझती हैं, जिससे अनैतिक संबंधों और यौन-कुंठाओं जैसी अनेक सामाजिक विकृतियों को बढ़ावा मिलता है ।
समस्या का समाधान :- दहेज-प्रथा समाज के लिए निश्चित ही एक अभिशाप है। कानून और समाज-सुधारकों ने दहेज से मुक्ति के अनेक उपाय सुझाए हैं। प्रमुख उपाय निम्न हैं—
  1. कानून द्वारा प्रतिबंध :- अनेक लोगों का विचार था कि दहेज के लेन-देन पर कानून द्वारा प्रतिबन्ध लगा दिया जाय । इसीलिए 9 मई, 1961 ई० को भारतीय संसद ने ‘दहेज निरोधक अधिनियम’ स्वीकार कर लिया गया ।
  2. अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन :- अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देने से वर का चुनाव करने के क्षेत्र में विस्तार होगा तथा युवतियों के लिए योग्य वर खोजने में सुविधा होगी। इससे दहेज की माँग में कमी आएगी।
  3. युवकों को स्वावलंबी बनाया जाए :-स्वावलम्बी होने पर युवक अपनी इच्छा से लड़की का चयन कर सकेंगे । स्वावलंबी युवकों पर माता-पिता का दबाव कम होने पर दहेज के लेन-देन में स्वत: कमी आएगी।
  4. लड़कियों की शिक्षा :- जब युवतियाँ भी शिक्षित होकर स्वावलंबी बनेंगी तो वे स्वयं नौकरी करके अपना जीवन-निर्वाह करने में समर्थ हो सकेंगी। विवाह एक विवशता के रूप में भी न होगा, जिसका वर पक्ष प्राय: अनुचित लाभ उठाता है ।
  5. जीवन साथी चुनने का अधिकार :- प्रबुद्ध युवक-युवतियों को अपना जीवन साथी चुनने के लिए अधिक छूट मिलनी चाहिए ।
उपसंहार :- दहेज-प्रथा एक सामाजिक बुराई है, एक कलंक है, हमारे समाज का कोढ़ है। इसके विरुद्ध स्वस्थ जनमत का निर्माण होना चाहिए । जब तक समाज में चेतना नहीं आएगी, दहेज के दैत्य से मुक्ति पाना असंभव है । राजनेताओं, समाज-सुधारकों तथा शिक्षित युवक-युवतियों आदि सभी के सहयोग से दहेज प्रथा का अंत हो सकता है ।

भारतीय समाज में नारी का स्थान अथवा, भारतीय नारी : दशा और दिशा

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) भारतीय नारी का अतीत (3) मध्यकाल में भारतीय नारी (4) आधुनिक युग में नारी (5) पाश्चात्य प्रभाव (6) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- मानव-जीवन का रथ सिर्फ एक पहिए से नहीं चल सकता । उसकी समुचित गति के लिए दोनों पहिए होने चाहिए । गृहस्थी की गाड़ी नर और नारी के सहयोग व सद्भावना से प्रगति के पथ पर अविराम गति से बढ़ सकती है। स्त्री केवल पत्नी ही नहीं, अपितु योग्य मित्र, परामर्शदात्री, सचिव, सहायिका, माता के समान उस पर सर्वस्व न्यौछावर करने वाली तथा सेविका की तरह सच्ची सेवा करने वाली हैं। गृहस्थी का कोई भी कार्य उसकी सम्मति के बिना नहीं हो सकता । किंतु भारतीय समाज में नारी की स्थिति सदैव एक समान न रहकर बड़े उतार-चढ़ावों से गुजरी है।
भारतीय नारी का अतीत :-प्राचीनकाल में स्त्रियों को आदर और सम्मान से देखा जाता था। लोगों की मान्यता थी कि जिस घर में स्त्रियों का सम्मान होता है; वह घर सुखी तथा स्वर्ग बन जाता है। कहा गया है। — ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः।’ भारत का इतिहास पृष्ठ नारी की गौरव-गरिमा से मंडित है।
वेद तथा उपनिषद् काल में नारी को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। उन्हें समाज में सामाजिक अधिकार प्राप्त थे। याज्ञवल्क्य और गार्गी का शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। मैत्रेयी विख्यात ब्रह्मवादिनी थीं। मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारत में अपने काल की विख्यात विदुषी महिला थीं। स्त्रियाँ अपने पति के साथ युद्ध-क्षेत्र में भी जाती थीं।
मध्यकाल में भारतीय नारी :- मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति बदतर हो गयी थी। स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। मुसलमानों के आक्रमण से हिंदू समाज का ढाँचा चरमरा गया । मुसलमानों के लिए नारी भोग-विलास तथा वासना-पूर्ति मात्र की वस्तु थी । इसी कारण नारी का कार्य-क्षेत्र घर की चहारदारी के भीतर सिमट कर रह गया, जिससे समाज में अशिक्षा, बाल-विवाह प्रथा, सती-प्रथा, परदा-प्रथा का प्रचलन बढ़ा ।
आधुनिक युग में नारी :- धीरे-धीरे विचारकों तथा नेताओं ने नारी की स्थिति पर ध्यान दिया। राजा राममोहन राय ने ‘सती-प्रथा’ का अंत कराया। महर्षि दयानंद ने महिलाओं को समान अधिकार दिए जाने की आवाज उठाई। गाँधीजी ने जीवन भर महिला उत्थान का कार्य किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारी वर्ग में चेतना का विशेष विकास हुआ। स्त्रियाँ समाज में पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलने को तैयार हुई । भारतीय संविधान में भी यह घोषणा की गई कि “राज्य, धर्म, जाति, संप्रदाय, लिंग आदि के आधार पर किसी भी नागरिक में विभेद नहीं होगा।”
आज भारतीय नारियाँ जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं । चिकित्सा, मनोविज्ञान, कानून, फिल्म निर्माण, वायुयान की पायलट, ट्रक ड्राइवर, खेल का मैदान आदि क्षेत्रों में महिलाएँ पुरुषों से पीछे नहीं हैं। ये ललित कलाओं, जैसे–संगीत, नृत्य, चित्रकला, छायांकन (फोटोग्राफी) में विशेष दक्षता प्राप्त कर रही हैं । वाणिज्य तथा विज्ञान के क्षेत्र में भी स्त्रियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। स्त्रियों की सामाजिक चेतना जाग उठी है। वे समाज की दुर्दशा के प्रति सजग व सावधान हैं। वे समाज-सुधार के कार्यक्रम में व्यस्त हैं। भारत की वर्तमान समस्याओं— भुखमरी, महँगाई, बेकारी, देहेज-प्रथा आदि को सुलझाने के लिए भी वे प्रयत्नशील हैं ।
श्रीमती इंदिरा गाँधी, श्रीमती सरोजिनी नायडू, श्रीमती सुचेता कृपलानी, श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित, लता मंगेशकर, श्रीमती किरण बेदी, मेधा पाटकर, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम आदि ऐसी भारतीय नारियाँ हैं जिन पर भारतवर्ष को सदैव गर्व रहेगा ।
पाश्चात्य – प्रभाव :- आजकल अधिकांश स्त्रियाँ पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता से अधिक प्रभावित हैं। वे फैशन व आडंबर को जीवन का सार समझकर भोगवाद की ओर अग्रसर हो रही हैं। वे सादगी से विमुख होकर पैसा कमाने की होड़ में अनैतिकता की ओर उन्मुख हो रही हैं। इस प्रकार वे स्वयं गुड़िया बनकर पुरुषों के हाथों में खेल रही हैं ।
उपसंहार :-नारी को अपने गौरवपूर्ण अतीत को ध्यान में रखकर त्याग, समर्पण, स्नेह, सरलता आदि गुणों को नहीं भूलना है । यूरोपीय संस्कृति के व्यामोह में न फँसकर भारतीयता को बनाये रखना चाहिए । इससे समाज का और उनका दोनों का हित हो सकेगा। नारी के इस चिरकल्याणमय रूप को लक्ष्य कर कवि जयशंकर प्रसाद ने नारी का अत्यंत सजीव चित्रण किया है.
“नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग-तल में,
पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में ।”

नारी-शिक्षा का महत्व

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) नारी शिक्षा की आवश्यकता (3) उपसंहार ।

नारी स्नेह और सौजन्य की देवी है। वह पशु के समान आचरण करने वाले व्यक्ति को भी मनुष्य बनाती है। मधुर वाणी से वह जीवन को मधुमय बनाती है। मानवीय सदगुणों के पूर्ण विकास, परिवार तथा समाज की शांति, बच्चों के चरित्र-निर्माण और देश के निर्माण में स्त्री की अहम भूमिका है। अतः नारी शिक्षा का महत्व स्वयंसिद्ध है। एक पुरुष की शिक्षा का अर्थ केवल एक व्यक्ति की शिक्षा है, जबकि एक नारी की शिक्षा का अर्थ सम्पूर्ण परिवार की शिक्षा है।
भारतेंदु जी ने स्त्री शिक्षा के विषय में कहा था, “स्त्री अगर शिक्षित होगी तो वह अपने बच्चों को शिक्षित कर सकती है। अनपढ़ माता की संतान अपना विकास उस तरह नहीं कर सकती, जिस तरह एक शिक्षित माता की संतान कर सकती है। देश के विकास में भी स्त्री शिक्षा सहायक होगी, स्त्री शिक्षित होगी तो देश दोनों हाथों से काम करेगा। देश की उन्नति में कोई संदेह नहीं रहेगा।”
नारी-जीवन मुख्यतः पत्नी, माता, बहन और बेटी में बँटा होता है। शिक्षित पत्नी परिवार को सुंदर ढंग से जीने की कला सिखलाती है। नारी स्नेह, सुख, शांति और श्री की वृद्धि करती है। परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों में समन्वय, सामंजस्य स्थापित करने में सफल होती है।
शिक्षित नारी अपने अस्तित्व और शक्ति को पहचानने में समर्थ होती है, तब वह शोषण का शिकार कम होती है। अशिक्षित नारी अपने अधिकार तथा शक्ति से अनभिज्ञ होती है। अशिक्षित नारी स्वभावत: दुर्बल होती है। वह प्राय: जादू-टोना, भूत-प्रेत में विश्वास करती है। प्रगतिशील कदम उठाने में असमर्थ होती है। वह कुरीतियों और कुसंस्कारों की लक्ष्मण रेखा पार करते हुए हिचकती है। इसलिये निरक्षर नारी के जीवन में अंधकार होता है। पुत्री के रूप में वह माता-पिता के लिये बोझ होती है। पत्नी के रूप में उसका पृथक् अस्तित्व नहीं होता । पुत्र के बड़े होने पर वह उसके आश्रय में परमुखापेक्षी जीवन में जीती है।
शिक्षित नारी में आत्मविश्वास जागृत होता है। वह रुढ़ परम्पराओं और कुसंस्कारों को त्याग कर, अपने पैरों पर खड़ी होती है और अपने सम्मान तथा अस्तित्व की रक्षा करती है।
शिक्षित नारी में सभी परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति होती है। स्त्रियाँ रोजगार कर सकती है और अपने घर की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बना सकती है। अतः नारी के लिये पूर्णत: सुशिक्षित होना अत्यंत आवश्यक है। राष्ट्र-निर्माण के लिए नारी-शिक्षा एक अनिवार्य शर्त है।

राष्ट्र-निर्माण में नारी का योगदान

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) समाज निर्माण तथा (3) राष्ट्र निर्माण में सहयोग (4) उपसंहार ।

राष्ट्रनिर्माण में सहयोग देना हर देशवासी का कर्त्तव्य है। राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया आदिकाल से लेकर आज तक नारियों ने पुरुषों का साथ देकर, उसकी जीवन यात्रा को सफल बनाया है और उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर अपने नैसर्गिक वरदानों से राष्ट्रीय जीवन में अक्षय शक्ति का संचार किया है।
अपने-अपने राष्ट्रों के निर्माण में विश्वप्रसिद्ध महिला प्रधानमंत्रियों का योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। इस सन्दर्भ में भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, श्रीलंका की सिरीमावो भंडारनायके, वर्तमान राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगे, इजरायल की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती गोल्डामायर और ग्रेट ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती मार्गरेट थैचर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
नारी ने हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर राष्ट्र के उत्थान में सक्रिय सहयोग दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षिका बन उसने भारत को शिक्षित किया, साथ ही राजनीति के क्षेत्र में प्रधानमंत्री, विधायक, सांसद और मंत्री बन कर ख्याति पाई। न्याय के क्षेत्र में भी उसका योगदान कम नहीं है। हर न्यायालय में महिला वकील पाई जाती है। महिला न्यायाधीशों ने तो अपने जोखिम भरे, साहसपूर्ण और अद्भुत निर्णयों द्वारा समग्र राष्ट्र को चमत्कृत किया है।
कार्यरत् महिलाओं में प्रथम महिला वायु-सुरक्षा अधिकारी प्रेमा माथुर, पहली महिला छाताधारी सैनिक गीता घोष, पहली वायुयान पायलेट रूबी बनर्जी, अत्याधुनिक वायुयान की कमाण्डर सौदामिनी देशमुख, सुर्खा जादव और पहली ट्रेन ड्राइवर मुमताज काटावाला का नाम स्मरणीय है।
पहली भारतीय महिला आई०पी०एस० अधिकारी किरण बेदी ने अपने कार्यकाल में जेल में सुधार लायी, उसके लिये उन्हें मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
भारत की प्रथम महिला डॉ. प्रेमा मुखर्जी और हृदयरोग विशेषज्ञा डॉ. पद्मावती. तथा दीन-दुखियों की सेविका मदर टेरेसा का नाम कभी भुलाया नहीं जा सकता।
आदिकाल से ही हम देखते हैं कि स्त्रियों ने देश के निर्माण में निरंतर योगदान किया है और भविष्य में भी करती रहेंगी। घर-समाज सभी जगह उन्होंने अपनी छवि को आलोकित किया है। शिक्षा का क्षेत्र हो अथवा वाणिज्य का, खेल का हो या संगीत का, ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जहाँ स्त्रियों ने अपनी विशिष्टता का परिचय न दिया हो। अत: हम कह सकते हैं कि राष्ट्र-निर्माण में नारी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है और रहेगा। महिलाओं का यह योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता।

धर्म और साम्प्रदायिकता

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) भारत में विविध धर्म (3) विविध सम्प्रदाय (4) उपसंहार ।

जीवन को सुचारु रूप से संचालित करने वाले श्रेष्ठ सिद्धान्तों का समूह धर्म कहलाता है। समस्त मानवीय व्यवहारों का श्रेयस्कर पक्ष ही धर्म है। धर्म व्यक्ति का सहज स्वभाव है, कर्त्तव्य है। अत: धर्म का क्षेत्र व्यापक है।
अपने धर्म के प्रति अटूट आस्था, विश्वास तथा श्रद्धा समर्पित करना साम्प्रदायिकता नहीं, बल्कि दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णुता का भाव ही साम्प्रदायिकता है। सत्य पर सभी धर्मों का समान अधिकार है, लेकिन जब एक धर्म सत्य पर केवल अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहता है तो वह सम्प्रदायिकता का रूप ले लेता है।
भारत में साम्प्रदायिकता की नई परिभाषा दी जा रही है। धर्म ने सम्प्रदाय का रूप ले लिया है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का अर्थ है, सर्वधर्म-समभाव का त्याग एवं अन्य धर्मों के प्रति अनुदारता एवं असहिष्णुता का प्रदर्शन।
हिन्दुओं का एक सिख सम्प्रदाय भारत में शांत भाव से जीवन-यापन कर रहा था। मगर राजनीतिक कारणों ने सिखों को उग्र बना दिया। पंजाब में निर्दोष हिन्दुओं की हत्या और आतंक के कारण वहाँ मरघट-सी शांति छा जाती थी। पराजित उग्रवादियों ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक की हत्या कर दी।
विश्व में मुस्लिम राष्ट्र धनाढ्य हैं, क्योंकि तेल-स्रोत पर यवनों का अधिकार है। वे अरबों रुपया हर वर्ष धर्म के नाम पर खर्च करते हैं।
दूसरा विश्व धर्म ईसाई है। ये सामूहिक धर्म-परिवर्तन में विश्वास करते हैं। हिन्दू जब जाग्रत हुए तो इस धर्म-परिवर्तन के विरोध में विद्रोह उठ खड़ा हुआ। जाति-उपजाति की साम्प्रदायिकता ने शूद्र और पिछड़ी जातियों में संघर्ष और सवर्णों में आपस के संघर्ष को जन्म दिया। पिछड़ी जतियों को हर क्षेत्र में प्राथमिकता देकर वर्ग-संघर्ष की भावना को अंकुरित किया गया, जिसने साम्प्रदायिकता का रूप ले लिया। सवर्णों के परस्पर संघर्ष ने मिथ्या स्वाभिमान तथा झूठे अहम्को जन्म दिया।
साम्प्रदायिकता की भावना इस युग में खूब फल-फूल रही है। कोई भी धर्म संकीर्णता और अनुदारता की वकालत नहीं करता, किन्तु कोई भी धर्मावलम्बी दूसरों के प्रति घृणा, अविश्वास और असहिष्णुता की भावना से मुक्त नहीं हैं। साम्प्रदायिक दंगों का कारण यही है। कहते सभी हैं— “मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना” मगर वैर-भावना से कोई मुक्त नहीं है।
नैतिकता का पतन साम्प्रदायिकता की वृद्धि में सहायक हुआ है। साम्प्रदायिकता से बचना है तो मानवता के महामंत्र का प्रचार होना चाहिए ।
एक कवि कहता है-
“मैं न बँधा हूँ देश-काल की जंग लगी जंजीर में ।
मैं न खड़ा हूँ जाति-पाँति की ऊँची-नीची भीड़ में ।
मेरा तो आराध्य आदमी, देवालय हर द्वार है ।
कोई नहीं पराया मेरा, घर सारा संसार है ।”

बढ़ती जनसंख्या – एक अभिशाप

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) भारत की जनसंख्या (3) जनसंख्या वृद्धि के कारण (4) जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम (5) समाधान के उपाय (5) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- भारत की अनेक समस्याओं में जनसंख्या की समस्या सबसे अधिक विकराल है। आजादी के बाद केवल इसी समस्या के कारण भारतवर्ष में गरीबी, बेरोजगारी तथा अन्य समस्याएँ आज तक सुलझ नहीं पाई हैं। भारत की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यहाँ प्रत्येक मिनट सैंतालीस बच्चे पैदा होते हैं ।
भारत की जनसंख्या :- आज विश्व का हर छठा नागरिक भारतीय है। चीन के बाद भारत की आबादी विश्व में सर्वाधिक है । एक अरब भारतीयों के धरती, खनिज और अन्य साधन वही हैं, जो आज से पाँच दशक पूर्व थे। लोगों, के पास भूमि कम, आय कम और समस्याएँ अधिक बढ़ती जा रही हैं। बेरोजगारों, अशिक्षितों की संख्या बढ़ती जा रही है। बेरोजगारों की संख्या 6 करोड़ से अधिक हो गई है ।
जनसंख्या-वृद्धि के कारण :- जनसंख्या वृद्धि के अनेक कारण हैं। भारत की अधिकांश जनता ग्रामों में निवास करती है। यहाँ लड़कियों को कम ही पढ़ाया जाता है। बेचारी कन्याएँ 14-15 वर्ष की आयु में ही मातृत्व के बोझ से दब जाती हैं। गरीब लोग बच्चों को आय का स्रोत मानकर अधिक बच्चे पैदा करते हैं। इसीलिए देश की आबादी बढ़ जाती है।
जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम :- जनसंख्या के बढ़ने से अनेक बुराइयों का जन्म होता है। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी ग्रामीण जनता में अंधविश्वासों का बोलबाला है। भारत में अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, रोग, भ्रष्टाचार, अनाचार आदि की समस्याएँ दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं। देश की जनसंख्या का अधिकांश भाग गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करता है । चारों ओर आलस्य, दरिद्रता, कलह, रोग, अनाचार, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, महँगाई, चोरी, डकैतियाँ, लूटपाट तथा अन्य असामाजिक एवम् आर्थिक बुराइयों का बोलबाला है ।
जनसंख्या-वृद्धि के कारण भारत की सारी योजनाएँ विफल हो जाती हैं। देश का उचित विकास नहीं हो पा रहा है। खुशहाली की जगह लाचारी बढ़ रही है । रोजगारी से पेरशान लोगं हिंसा, उपद्रव और चोरी-डकैती करने लगते हैं। देश में अपराध बढ़ने लगते हैं तथा नैतिकता का पतन होता है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाती है तथा राष्ट्रीय चरित्र की क्षति होती है। अधिक संतान उत्पन्न करने से माँ तथा बच्चे का स्वास्थ्य बिगड़ता है और देश की कार्य क्षमता एवं राष्ट्रीय आय में कमी आती है ।
समाधान के उपाय :- जनसंख्या-वृद्धि रोकना सबसे आवश्यक कदम है। प्रत्येक नागरिक अपने परिवार को नियोजित करे । केवल एक या दो बच्चे ही पैदा करे । लड़का-लड़की को समान दृष्टि से देखा जाए तो भी जनसंख्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है। जन-संचार माध्यमों तथा समाज-सेवी संस्थाओं के माध्यम से परिवार नियोजन का व्यापक प्रचार किया जा रहा है। लड़के-लड़की की विवाह की आयु बढ़ाकर क्रमश: 21 वर्ष तथा 18 वर्ष कर दी गई है । इस कानून के बाद भी अनेक स्थानों पर बाल विवाह हो रहे हैं। परिवार नियोजन के साधनों के उचित उपयोग से जन्म दर को मनचाहे समय तक रोका जा सकता है।
भारत में परिवार कल्याण का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। हर्ष का विषय है कि भारतीय अब इसका महत्व समझने लगे हैं ।
उपसंहार :- परिवार नियोजन के महत्व को अच्छी प्रकार समझ लेने पर ही देश की प्रगति सम्भव है। परिवार- कल्याण के साथ ही देश-कल्याण भी जुड़ा है । प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह जनसंख्या वृद्धि की समस्या के प्रति सावधान हो तथा राष्ट्र-हित में परिवार नियोजन को अपनाए । जनसंख्या की समस्या कानून द्वारा नहीं, अपितु जन-जागरण तथा शिक्षा द्वारा हल करना संभव है।

भ्रष्टाचार

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि (3) भ्रष्टाचार के विविध रूप (4) भ्रष्टाचार के कारण (5) भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय (6) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है। इस भ्रष्टाचाररूपी दानव ने संपूर्ण भारत को अपनी चपेट में ले रखा है । भ्रष्टाचार आज केवल भारत की नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व की समस्या है। इस दानव से छुटकारा पाना ही आज संपूर्ण मानव समाज की समस्या बन चुकी है।
भ्रष्टाचार का अर्थ :- भ्रष्टाचार का अर्थ है – भ्रष्ट आचरण । भ्रष्टाचार किसी की हत्या, मार-काट, लूट-पाट, हेरा-फेरी कुछ भी करा सकता है । भ्रष्टाचार ने अपने देश, जाति और समाज को अवनति के गड्ढे में ढकेल दिया है।
भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि :- भ्रष्टाचार का मूल रूप में उदय कहाँ से हुआ यह तथ्य तो स्पष्ट नहीं है, किन्तु यह स्पष्ट है कि स्वार्थ-लिप्सा इसकी जननी तथा भौतिक ऐश्वर्य की चाह इसका पिता है। पुरातन युग में दक्षिणा, मध्यकाल में भेंट तथा आधुनिक काल में उपहार आदि सभी भ्रष्टाचार के विभिन्न रूप हैं।
भ्रष्टाचार के विविध रूप :- आज भारतीय जीवन का कोई क्षेत्र, सरकारी अथवा गैर-सरकारी, सार्वजनिक या निजी ऐसा नहीं जो भ्रष्टाचार से अछूता रहा हो। किंतु फिर भी हम इसे तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त कर रहे हैं।
  1. राजनैतिक भ्रष्टाचार :- यह भ्रष्टाचार का प्रमुख रूप है। भ्रष्टाचार के सारे रूप इसके ही संरक्षण में पनपते हैं। इसके अंतर्गत लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव जीतने के लिए अपनाया गया भ्रष्ट आचरण आता है।
  2. प्रशासनिक भ्रष्टाचार :- इसके अंतर्गत उच्च पदों पर आसीन सचिव, अधिकारी, कार्यालय अधीक्षक, अधिशासी अभियन्ता, पुलिस अधिकारी, बाबू, चपरासी सभी आते हैं। कितना भी कठिन कार्य हो पैसा हाजिर तो कार्य भी फटाफट हो जाता है ।
  3. व्यावसयिक भ्रष्टाचार :- इसके अंतर्गत खाद्य पदार्थों में मिलावट, घटिया व नकली औषधियाँ-निर्माण, जमाखोरी, चोरी तथा अन्यान्य भ्रष्ट तरीके देश तथा समाज को कमजोर बनाने के लिए अपनाए जाते हैं। मसालों में मिलावट, दाल-चावलों में पत्थर, घी में चर्बी, सरसों के तेल में अर्जीमोन की मिलावट, पैट्रोल में कैरोसीन की मिलावट आदि व्यावसायिक भ्रष्टाचार के अंतर्गत ही आते हैं ।
भ्रष्टाचार के कारण :- भ्रष्टाचार के इतने अधिक फैलने के कारण हैं-‘यथा राजा तथा प्रजा।’ जब आज के नेता तथा प्रशासक सभी भ्रष्ट हैं तो अधीनस्थ कर्मचारी भी जी भर कर भ्रष्टाचार में डूबे रहते हैं। पैसा सभी को प्रिय होता है। बहती गंगा में सभी हाथ धो रहे हैं ।
भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय :- भ्रष्टाचार दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं :-
  1. भारतीय संस्कृति की ओर ध्यान आकृष्ट करना :- संस्कृत और देशी भाषाओं का शिक्षण अनिवार्य करना आवश्यक है । इससे जीवन के मूल्य दृढ़ तथा पोषक बनेंगे । लोग धर्म-भीरु बनेंगे तथा दुराचार से घृणा करेंगे । टी.वी. पर भारतीय संस्कृति का प्रचार होना चाहिए ।
  2. चुनाव प्रक्रिया को बदलना :- भ्रष्टाचार को हटाने के लिए वर्तमान चुनाव-पद्धति में परिवर्तन आवश्यक है । जनता ईमानदार प्रत्याशियों को विजयी बनाए । चुनाव आयोग तथा राजनीतिक दलों को मिलकर ऐसे नियम बनाने चाहिए कि स्वच्छ छवि वाले तथा शिक्षित लोग ही चुनाव लड़ सकें तथा उनके चुनाव का पूरा खर्च सरकार को वहन करना चाहिए। इससे चुनावी भ्रष्टाचार मिट सकता है। राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले धन पर पाबन्दी लगनी चाहिए ।
  3. कर-प्रणाली में सुधार :- सरकार अनेक प्रकार के करों को समाप्त कर तीन या चार आवश्यक करें ही जनता पर लगाए और कर-प्रणाली को इतनी सरल बना दे कि सामान्य तथा अशिक्षित लोग भी वांछित कर आसानी से अदा कर सकें ।
  4. शासन-व्यय में कटौती :- शासन-व्यय में कटौती करके सबके सामने सादगी का आदर्श रखा जाए । भारतीय जीवन-पद्धति की यह विशेषता है कि वह हमेशा त्यागोन्मुखी रही है, इसलिए तड़क-भड़क तथा अनावश्यक व्यय में कटौती की जानी चाहिए ।
  5. देश-भक्ति की भावना पैदा करना :- प्रत्येक नागरिक राष्ट्र को महान समझकर सदैव उसके गौरव को बनाए रखने के लिए तत्पर रहे।
  6. स्वदेश चिंतन अपनाना :- प्रत्येक भारतवासी को स्वदेशी वस्तुओं को ही क्रय करना है- ऐसी भावना प्रत्येक नागरिक में आनी चाहिए। इससे देश का धन देश में ही रहेगा तथा देश की समृद्धि बढ़ेगी ।
  7. कठोर कानून बनाना :- कानून को इतना कठोर बना दिया जाए कि हर अपराधी को उसके अपराध की उचीत सजा मिल सके ।
  8. सामाजिक बहिष्कार :- भ्रष्ट व्यक्ति का समाज से बहिष्कार किया जाए, उनके साथ रोटी-रोजी आदि किसी प्रकार का व्यवहार न किया जाए ।
उपसंहार :- सदाचार रामबाण औषधि और परम धन है। आज हमारे देश में भ्रष्टाचार मिटाना है तो सदाचारी, सरल, सादगी-प्रिय लोगों का सादर अभिनंदन किया जाना चाहिए। इससे दुराचार मिटेगा तथा सदाचार की पुनः प्रतिष्ठा हो सकेगी। देश भी विकास के मार्ग पर प्रगति करता हुआ अग्रसर होगा ।

भारतीय जीवन पर पाश्चात्य प्रभाव

  1. रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) पश्चिमी प्रभाव (3) परिणाम (4) उपसंहार ।
जब दो भिन्न सभ्यता-संस्कृतियाँ आमने-सामने अर्थात् सम्पर्क में आया करती हैं, तब वे दोनों सामान्य स्तर पर एक-दूसरे का कुछ-न-कुछ प्रभाव भी अवश्य ही ग्रहण किया करते हैं। यह अलग बात है कि उनमें से जो दुर्बल और पराजित सभ्यता-संस्कृति हुआ करती है, वह सबल और विजेता संस्कृति का कुछ अधिक ही प्रभाव ग्रहण करती है। लेकिन जहाँ तक भारतीय जीवन, समाज और सभ्यता – संस्कृति का प्रश्न है; इसमें तो पाश्चात्य प्रभाव ग्रहण करने में कमाल ही कर दिया है ।
भारतीय जन-समाज का ऐसा एक भी क्षेत्र अपनी सभ्यता-संस्कृति के तत्त्वों के लिए सुरक्षित रह पाया हो, ऐसा कहीं भूल से भी दिखाई नहीं देता। हमारी भाषा, हमारी वेश-भूषा, हमारा रहन-सहन, खान-पान और आम व्यवहार सभी कुछ इस सीमा तक पश्चिमी हो चुका है कि उसमें यदि कहीं कभी कुछ भारतीय दीख भी जाता है, तो वह बदरंग एवं बदरूप-सा, अजीब एवं अजनबी-सा प्रतीत होता है । उस सब में पहुँच कर लगने लगता है, जैसे हम अपने देश या घर में होकर कहीं विदेश में किसी पराए घर में आ गए हैं ।
आज हम पश्चिम ही का खा-पी, पहन, ओढ़ और सभी कुछ कर रहे हैं। यहाँ तक कि हमारी संस्कृति की पहचान तक गायब हो गई है। उसमें पश्चिम के अपतत्त्वों का सम्मिश्रण इस सीमा तक हो चुका है कि खोजने की चेष्टा करने पर भी अपना कुछ नहीं मिल पाता । अपनी भाषाएँ तो अपनी रही हीं नहीं, उनमें लिखे जा रहे साहित्य ने व्यक्त हो रहे भाव-विचार और वर्णित पर्यावरण तक उधार के लगते हैं। कला के अन्य किसी भी रूप में भारतीयता नहीं रह गई, बल्कि उसका भीतर-बाहर का सभी कुछ पश्चिमी रंग में रंग चुका है ।
पश्चिम ने भारत को जो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान दिया है, एक राष्ट्रीयता एवं एक जातीयता की भावना दी है, उस सब के कारण हमें उस का आभारी भी होना चाहिए। आधुनिक प्रौद्योगिकी, तकनीक आदि देकर भी पश्चिम ने निश्चय ही हमें बहुत उपकृत किया है। काम के समय काम, विश्राम के समय विश्राम, आनन्द-मौज के समय आनन्द-मौज, अनेक तरह की अन्ध धारणाओं के प्रति अस्वीकार, राष्ट्रीय चरित्र और व्यवहार जैसा और भी कुछ अच्छा है पश्चिम में । लेकिन सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि हम भारतीय उस अच्छे को अपनाने की तरफ ध्यान नहीं दे सके ।

भारतीय नारी पर पाश्चात्य प्रभाव

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) पश्चिमी अनुकरण (3) उपभोक्ता सामग्री (4) उपसंहार ।

पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति ने यों तो भारतीय जीवन और समाज के किसी भी अंग को अछूता नहीं रहने दिया; पर लगता है कि भारतीय नारी-समाज, उसका प्रत्येक अंग उससे सर्वाधिक प्रभावित हुआ है । इसी कारण वह आज सर्वाधिक प्रताड़ित एवं प्रपीड़ित भी है । पाश्चात्य नारी समाज और उसकी सभ्यता-संस्कृति, पाश्चात्य शिक्षा और रीति नीतियों के प्रभाव से आज की नारी ने स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली है, पर सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि उसने न तो स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ ही समझा है और न अनुशासन ही सीखा है ।
शिक्षा, स्वावलम्बन, आर्थिक स्वतंत्रता, घर से बाहर निकल कर जीवन-समाज को नेतृत्व दे पाने की क्षमता, घर की चार-दीवारी और चूल्हे-चौके तक ही अपने को सीमित न रख जीवन के किसी भी उद्योग-धंधे या व्यवसाय में अपनी दक्षता का परिचय देना जैसी अनके बातें भारतीय नारी ने पश्चिम से सीखी हैं। उन सभी बातों को शुभ परिणामदायक कहा जा सकता है। इस से भारतीय नारी के जीवन में नया आत्मविश्वास जागा है। उसे नये क्षितिजों के उद्घाटन करने में काफी सफलता प्राप्त हुई है। यह भी पश्चिम का ही प्रभाव है कि आज भारतीय नारी घूँघट के भीतर सिकुड़ी छुई मुई बनी रहने वाली नहीं रह गई, न ही वह कल की तरह पुरुषों को देख कर लज्जा से सिकुड़ कुमड़े की बेल-सी ही बनी रह गई हैं। आज वह धड़ल्ले से हर विषय पर, हर किसी के साथ बातचीत कर सकती है। वह पुरुषों की तरह एवरेस्ट की चोटी पर तो अपने पाँव रख ही आई है, चन्द्रलोक की यात्रा भी कर आई है। इन सभी बातों को भारतीय नारी-जीवन के लिए अच्छा एवं सुखद कहा जा सकता है।
इन अच्छाइयों के साथ-साथ भारतीय नारी ने पश्चिम से कुछ ऐसी बातें भी सीखीं या ऐसे प्रभाव भी ग्रहण किए हैं, जिन्हें भारतीय सभ्यता-संस्कृति की दृष्टि से उचित एवं अच्छा नहीं माना या कहा जा सकता। उस तरह के पाश्चात्य प्रभावों ने नारी को एक प्रकार का चलता-फिरता मॉडल इश्तिहार या पोस्टर या फिर उपभोक्ता सामग्री बना कर रख दिया है। परम्परागत शब्दों में कहा जाए, तो एक बार फिर वह भोग्या मात्र बन कर रह गई है। फैशन में अंधी आज की नारी ने आज अपना अंग-प्रत्यंग तक सभी कुछ उधाड़ कर रख दिया है। इस सीमा तक वह उघड़ने लगी है कि उस का सौन्दर्य भदेस, सुकुमारता माँस का लज़ीज़ टुकड़ा और तन-बदन नग्न होकर अश्लीलता का प्रतिरूप-सा प्रतीत होता है। वह किसी भी तरह से अपने उपयोग करने देने के लिए तैयार हो जाती है कि जब उसे कड़क नोटों की खड़क या चमकीले सिक्कों की खनक सुन पड़ती है।
कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि अभी तक तो भारतीय नारी न तो पूर्णतया पाश्चात्य ही बन पाई है और न अपने भारतीय स्वरूपाकार को ही निखार पाई है। वह एक ऐसे दोराहे पर पहुँच चुकी है, जहाँ से आगे किधर अच्छा या बुरा है; वह न तो अभी तक समझ पा रही है और न निर्णय ही कर पा रही है।

बाल-मज़दूर समस्या अथवा, बाल श्रमिक समस्या

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) मानवता के नाम पर कलंक (3) दयनीय जीवन (4) उपसंहार।

इब्ने इंशा की एक कविता का अंश-
यह बच्चा कैसा बच्चा है
जो रेत पे तनहा बैठा है
ना इसके पेट में रोटी है
ना इसके तन पर कपड़ा है
ना इसके पास खिलौनों में
कोई भालू है कोई घोड़ा है
ना इसका जी बहलाने को
कोई लोरी है, कोई झूला है ।
आज परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन गईं और बन रही हैं कि ऐसे बच्चे हर कहीं शहर हो या ग्राम, बाजार हो या मुहल्ला सब जगह देखने को मिल जाते हैं जिनके हाथ-पैर रात-दिन की कठिन मेहनत-मज़दूरी के लिए विवश होकर धूल-धूसरित तो हो चुके होते हैं, अक्सर कठोर एवं छलनी भी हो चुके होते हैं । चेहरों पर बालसुलभ मुस्कान के स्थान पर अवसाद की गहरी रेखाएँ स्थायी डेरा डाल चुकी होती हैं। फूल की तरह ताजा गन्ध से महकते रहने योग्य फेफड़ों में धूल, धुआँ, रोएँ-रेशे भरकर उसे अस्वस्थ एवं दुर्गन्धित कर चुके होते है । गरीबीजन्य बाल-मज़दूरी करने की विवशता ही इसका एकमात्र कारण मानी जाती है। ऐसे बाल मज़दूर कई बार तो डर, भय, बलात् कार्य करने जैसी विवशता के बोझ-तले दबे-घुटे प्रतीत हुआ करते हैं और कई बार बड़े बूढ़ों की तरह दायित्व बोध से दबे हुए भी। कारण कुछ भी हो, बाल-मज़दूरी न केवल किसी एक स्वतंत्र राष्ट्र बल्कि समूची मानवता के माथे पर कलंक है।
छोटे-छोटे बालक मज़दूरी करते हुए घरों, ढाबों चायघरों, छोटे होटलों आदि में तो अक्सर मिल ही जाते हैं, छोटी-बड़ी फैक्टरियों के अस्वस्थ वातावरण में भी मज़दूरी का बोझ ढोते हुए दीख जाया करते हैं। कश्मीर का कालीन-उद्योग, दक्षिण भारत का माचिस एवं पटाखे बनाने वाला उद्योग ; महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल की बीड़ी-उद्योग तो पूरी तरह से टिका ही बाल-मज़दूरों के श्रम पर हुआ है।
बाल-मज़दूरों का एक अन्य वर्ग भी है। कन्धे पर झोला लादे इस वर्ग के मजदूर इधर-उधर फिके हुए गन्दे, फटे, तुड़े-मुड़े कागज बीनते दिखाई दे जाते हैं या फिर पोलिथीन के लिफाफे तथा पुराने प्लास्टिक के टुकड़े एवं टूटी-चप्पलें-जूते आदि। कई बार गन्दगी के ढेरों को कुरेद कर उनमें से टिन, प्लास्टिक, लोहे आदि की वस्तुएँ चुनते, राख मेंकोयले के टुकड़े बीनते हुए भी इन्हें देखा जा सकता है। ये सब चुन कर कबाड़खानों पर जा कर बेचने पर इन्हें बहुत कम दाम मिल पाता है जबकि ऐसे कबाड़ खरीदने वाले लखपति-करोड़पति बन जाया करते हैं। बाल-मज़दूरों के इस तरह के और वर्ग भी हो सकते हैं ।
आखिर में बाल-मजदूर आते कहाँ से हैं ? सीधा-सा उत्तर है कि एक तो गरीबी की मान्य रेखा से भी नीचे रहने वाले घर-परिवारों से आया करते हैं। फिर चाहे ऐसे घर-परिवार ग्रामीण हों या नगरीय झुग्गी-झोंपड़ पट्टियों के निवासी, दूसरे अपने घर-परिवार से गुमराह होकर आए बालक । पहले वर्ग की विवशता तो समझ में आती है कि वे लोग मज़दूरी करके अपने घर-परिवार के अभावों की खाई पाटना चाहते हैं। दूसरे उन्हें पढ़ने-लिखने के अवसर एवं सुविधायें ही नहीं मिल पाती । लेकिन दूसरे गुमराह होकर मज़दूरी करने वाले बाल-वर्ग के साथ कई प्रकार की कहानियाँ एवं समस्याएँ जुड़ी रहा करती हैं। जैसे पढ़ाई में मन न लगने या पनुतीर्ण हो जाने पर मार के डर से घर-परिवार से दूर भाग आना; सौतेली माँ यामाता-पिता के सौतले एवं कठोर व्यवहार से पीड़ित होकर घर त्याग देना, बुरी आदतों और बुरे लोगों की संगत के कारण घरों में न रह पाना या फिर कामचोर होना आदि कारणों से घरों से भाग कर और नगरों में पहुँच कई बार अच्छे घर-परिवार के बालकों को भी विषम परिस्थितियों में मज़दूरी करने के लिए विवश हो जाना पड़ता है। और भी कई वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं ।
देश का भविष्य कहे-माने जाने वाले बच्चों-बालकों को किसी भी कारण से मज़दूरी करनी पड़े, इसे मानवीय नहीं कहा जा सकता । एक तो घरों में बालकों के रह सकने योग्य सुविधाएँ-परिस्थितियाँ पैदा करना आवश्यक है, दूसरे स्वयं राज्य को आगे बढ़कर बालकों के पालन की व्यवस्था सम्हालनी चाहिए। सभी समस्या का समाधान सभ्वव हो सकता है ।

भिखारी-समस्या अथवा, भिक्षावृत्ति

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) कारण (3) उपसंहार ।

भारत में, भारत की राजधानी दिल्ली में भी भीख माँगना कानूनी दृष्टि से अपराध है। स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ वर्ष बाद ही इस प्रकार के कानून का प्रावधान किया गया था कि जिस के अन्तर्गत भीख माँगना या मँगवाना दोनों को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया था। इस घोषणा के बाद ऐसे भिखारी-निरोधक घर भी बनाए गये थे कि जहाँ भीख माँगने वाले शरण पा सकें । वहाँ रह कर अपनी योग्यतानुसार कोई काम-धन्धा सीख कर बाहर आएँ और काम कर के अपना जीवन-यापन सम्मानपूर्वक कर सकें । लेकिन इस भारी कानून व्यवस्था का प्रावधान एवं कानून का प्रभाव बहुत ही कम समय तक रहा । धीरे-धीरे फिर उसी प्रकार, बल्कि पहले से भी कहीं अधिक, प्रत्येक स्थान पर भिखारियों की भीड़ बढ़ने लगी ।
ये भिखारी कहाँ से आते हैं, और इन के विरुद्ध कानून के रक्षक एवं ठेकेदार पुलिस वाले कोई कार्यवाही क्यों नहीं करते, ‘नवभारत टाइम्स’ को प्रकाशित रिपोर्ट में अच्छा प्रकाश डाला गया है। उसके अनुसार – “बच्चों को अगवा कर के, अनाथ बच्चों, बेसहारा औरतों, अपाहिजों को डरा-धमका कर भीख माँगने के लिए मजबूर करने वाले माफिया गैंग दिन-प्रतिदिन फल-फूल रहे हैं और इसके पोषण में पुलिस की भागीदारी भी समान रूप से है । दिल्ली के विभिन्न इलाकों में पुलिस का भिखारियों या इस व्यवसाय के माफिया गिरहों से हफ्ता तक बन्धा हुआ है ।” बहुत पहले स्व० श्रीमती महादेवी वर्मा ने एक चीनी भाई के संस्मरण में भी इस प्रकार के भीख मंगवानेवाले माफिया गिरोह का सजीव वर्णन किया है ।
दिल्ली-समेत प्राय: समस्त नगरों-महानगरों में ऐसे इलाके अवस्थित हैं कि जहाँ भीख माँगने का बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान भिखारी जैसे रूप बनाना, विशेष दयनीय स्वर निकालना, हाथ-पैर हिलाकर करुणा उभार भीख देने को विवश कर देना आदि सभी कुछ सिखाया जाता है। अच्छे-भले लोगों और स्वस्थ बच्चों तक को अपाहिज बना कर भीख मंगवाई जाती है । बूढ़े-बूढ़ी अपनी असमर्थता जता कर, बच्चे वाली औरतें बच्चों के अनाथ होने और पालन का दायित्व निभाने जैसी बातें कह कर ऐसे हाव-भाव प्रदर्शित करती है, अनके तो हाथ धोकर पीछे ही पड़ जाती हैं कि कुछ देकर ही पीछा छुड़ाना संभव हो पाता है ।
देवी-देवताओं-विशेषकर शनि-मंगल और माता के नाम पर भी भीख माँगी जाती है। शनि-मंगल के चित्र लेकर और माता के भजन गाकर बच्चों- औरतों को चौराहों पर, बसों में भीख मांगते हुए अक्सर देखा जा सकता है, इस प्रकार भीख मांगने के अनेक तरीके हैं। भिखारी समस्या के अनेक रूप हैं; क्योंकि अब लोग इन हथकण्डों को अक्सर समझने लगे हैं, इस कारण जो वास्तव में अपाहिज एवं बेसहारा होने के कारण भीख पाने के अधिकारी हैं, कई बार उन्हें भी वंचित रह जाना पड़ता है। यों किसी भी हालत में भीख मांगना अच्छा नहीं होता है ।

वृक्षारोपण अथवा, वृक्षारोपण : सांस्कृतिक दायित्व

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) वृक्षों का महत्व (3) वृक्षों के प्रति मानव की निर्दयता (4) सांस्कृतिक दायित्व (5) उपसंहार ।

वृक्षारोपण का सामान्य अर्थ है – वृक्ष लगाना । प्रयोजन है – वन-सम्पदा के रूप में प्रकृति से हमें जो कुछ भी प्राप्त होता आ रहा है, वह नियमपूर्वक हमेशा आगे भी प्राप्त होता रहे ; ताकि हमारे जीवन-समाज का सन्तुलन, हमारे पर्यावरण की पवित्रता और सन्तुलन नियमित बने रह सकें । वृक्षारोपण करना एक प्रकार का सहज सांस्कृतिक दायित्व स्वीकार किया गया है ।
वृक्षारोपण मानव-समाज का सांस्कृतिक दायित्व है, इसे अन्य दृष्टि से भी देखा और प्रमाणित किया जा सकता है मानव सभ्यता का उदय और आरम्भिक आश्रय प्रकृति यानि वन-वृक्ष ही रहे हैं। उसकी सभ्यता-संस्कृति के आरम्भिक विकास का पहला चरण भी वन-वृक्षों की सघन छाया में ही उठाया गया । यहाँ तक कि उसकी समृद्धतम साहित्य-कला का सृजन और विकास ही वनालियों की सघन छाया और प्रकृति की गोद में ही सम्भव हो सका, यह एक पुरातत्त्व एवं इतिहास-सिद्ध बात है । प्राचीन काल में हरे वृक्ष को काटना पाप समझा जाता था, सूखे वृक्ष भले ही घरेलू उपयोग के लिए काटे जाते थे । कदम्ब वृक्ष को भगवान कृष्ण का प्रिय समझकर श्रद्धा दी जाती थी । अशोक का वृक्ष शुभ और मंगलदायक माना जाता था। तभी तो सीता ने अशोक वृक्ष से प्रार्थना की थी – “तस अशोक मम करहु अशोका ।” यह था प्राचीन भारत में वन संम्पदा का महत्व । आरम्भ में ग्रन्थ लिखने के लिए कागज के समान जिस सामग्री का प्रयोग किया गया, वे भूर्ज या भोजपत्र भी तो विशेष वृक्षों के पत्ते ही थे। संस्कृति की धरोहर माने जाने वाले कई ग्रन्थों की भोजपत्रों पर लिखी गई पाण्डुलिपियाँ आज भी कहीं-कहीं उपलब्ध हैं । सांस्कृतिक भाव धारा की बुनियाद ही जब वन-वृक्षों की छाया में रखी गई और विकास कर पाई, तब यदि वृक्षारोपण को एक सांस्कृतिक दायित्व कहा-माना जाता है, तो यह उचित ही है ।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ होने से पहले तक देश में आरक्षित-अनारक्षित सभी तरह के वृहद वनों की भरमार रही । परन्तु बीसवीं शती के स्वार्थान्ध मानव ने वनों का दोहन कर के धन कमाने का मार्ग तो अपना लिया, पर नए वृक्षारोपण के दायित्व को कतई भुला दिया। इसी कारण आज मानव-सभ्यता को पर्यावरण-सम्मन्धी कई तरह की समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है ।
जो हो, अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। अब भी निरन्तर वृक्षारोपण और उनके रक्षण के सांस्कृतिक दायित्व का निर्वाह कर सृष्टि को अकाल भावी-विनाश से बचाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज दोनों स्तरों पर इस ओर प्राथमिक स्तर पर ध्यान दिया जाना परम आवश्यक है।

आधुनिक जीवन और कंप्यूटर अथवा, आधुनिक यंत्र- पुरुष- कंप्यूटर

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) कंप्यूटर की परिभाषा (3) कंप्यूटर के उपयोग (4) कंप्यूटर और मानव-मस्तिष्क (5) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- गत कुछ वर्षों से कंप्यूटर की चर्चा जोर-शोर से सारे विश्व में हो रही है। देश को कंप्यूटरकृत करने के प्रयास किए जा रहे हैं। अनेक उद्योग-धंधों और संस्थानों में कंप्यूटर का प्रयोग होने लगा है। कंप्यूटरों के उन्मुक्त आयात के लिए देश के द्वार खोल दिए गए हैं।
कंप्यूटर क्या है ? :- हमारे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन पर छा जाने वाला कंप्यूटर एक ऐसा यांत्रिक मस्तिष्क है, जिसमें विभिन्न गणित संबंधी सूत्रों और तथ्यों के संचालन का कार्यक्रम पहले ही समायोजित कर दिया जाता है । इसके आधार पर कंप्यूटर न्यूनतम समय में गणना कर तथ्यों को प्रस्तुत कर देता है। कंप्यूटर का हिंदी नाम ‘संगणक’ है ।
चार्ल्स वेबेज पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में पहला कंप्यूटर बनाया था । वह कंप्यूटर लम्बी गणनाएँ कर सकता था और उनके परिणामों को मुद्रित कर देता था। कंप्यूटर स्वयं ही गणना करके जटिल-से-जटिल समस्याओं के हल मिनटों और सेकेण्डों में निकाल सकता है ।
कम्प्यूटर के उपयोगों को इन शीर्षकों में बाँटकर देखा जा सकता है –
  1. बैंकिंग के क्षेत्र में :- भारतीय बैंक में खातों के संचालन और उनका हिसाब-किताब रखने के लिए कंप्यूटर का प्रयोग आरम्भ हो चुका है । प्राय: सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों ने चुंबकीय संख्याओं वाली पास बुक जारी की है ।
  2. प्रकाशन के क्षेत्र में :- समाचार-पत्रों तथा पुस्तकों के प्रकाशन में कंप्यूटर का विशेष योगदान है। अब तो कंप्यूटर से संचालित फोटो कम्पोजिंग मशीन के माध्यम से छपने वाली समग्री को टंकित किया जा सकता है। कंप्यूटर में संचित होने के बाद सारी सामग्री एक छोटी चुंबकीय डिस्क पर अंकित हो जाती है । फोटो कंपोजिंग मशीन इस डिस्क के अंकीय संकेतों को अक्षरीय संकेतों में बदल देती है जिससे उनका मुद्रण हो सके ।
  3. सूचना और समाचार-प्रेषण के क्षेत्र में :- दूरसंचार की दृष्टि से भी कंप्यूटर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है । अब तो कंप्यूटर नेटवर्क’ के माध्यम से देश के प्रमुख नगरों को एक-दूसरे से जोड़ने की व्यवस्था की जा रही है ।
  4. डिजायनिंग के क्षेत्र में :- प्राय: ऐसा माना जाता है कि कंप्यूटर अंकों और अक्षरों को ही प्रकट कर सकते हैं। आधुनिक कंप्यूटर के माध्यम से भवनों, मोटर-गाड़ियों, हवाई जहाजों आदि के डिजाइन तैयार करने में कंप्यूटर ग्राफिक’ का प्रयोग हो रहा है ।
  5. कला के क्षेत्र में :- कंप्यूटर अब कलाकार या चित्रकार की भूमिका भी निभा रहे हैं। अब कलाकार को न तो कैनवास की आवश्यकता है न रंग की, न ब्रुशों की । कंप्यूटर के सामने बैठा कलाकार अपने ‘नियोजित प्रोग्राम के अनुसार स्क्रीन पर चित्र बनाता है और स्क्रीन पर निर्मित यह चित्र प्रिंट की ‘कुँजी’ (Key) दबाते ही प्रिंटर द्वारा कागज पर अपने उन्हीं वास्तविक रंगों के साथ प्रिंट हो जाता है ।
  6. रेलवे के क्षेत्र में :- कंप्यूटर द्वारा रेलवे संपूर्ण देश के संपर्क में रहता है। कंप्यूटर से आप कहीं से कहीं तक का भी आरक्षण करा सकते हैं, उस आरक्षण को कहीं पर भी रद्द करा सकते हैं ।
  7. वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में :- कंप्यूटरों से वैज्ञानिक अनुसंधान का स्वरूप ही बदलता जा रहा है । अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में कंप्यूटर ने क्रान्ति पैदा कर दी है। उसके माध्यम से अंतरिक्ष के व्यापक चित्र उतारे जा रहे हैं तथा इन चित्रों का विश्लेषण भी कंप्यूटर के माध्यम से हो रहा है। आधुनिक वेधशालाओं के लिए कंप्यूटर सर्वाधिक आवश्यक हो गए हैं ।
  8. औद्योगिक क्षेत्र में :- विशाल कारखानों में मशीनों के संचालन का कार्य अब कंप्यूटर द्वारा किया जा रहा है । कंप्यूटरों से जुड़कर रोबोट ऐसी मशीनों का नियंत्रण कर रहे हैं, जिनका संचालन मानव के लिए अत्यधिक कठिन था। भयंकर शीत और जला देनेवाली गर्मी भी उन पर कोई प्रभाव नहीं डालती ।
  9. युद्ध क्षेत्र में :- वस्तुत: कंप्यूटर का अविष्कार युद्ध के एक साधन के रूप में ही हुआ था। अमेरिका में जो पहला इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर बना था, उसका उपयोग एटम-बम से संबंधित गणनाओं के लिए ही हुआ था। जर्मन सेना के गुप्त संदेशों को जानने के लिए अंग्रेजों ने ‘कोलोसस’ नामक कंप्यूटर का प्रयोग किया था । अमेरिका की ‘स्टार वार्स’ योजना कंप्यूटरों के नियन्त्रण पर ही आधारित हैं ।
कंप्यूटर और मानव-मस्तिष्क :- प्राय: मन में यह प्रश्न उठता है कि कंप्यूटर और मानव-मस्तिष्क में श्रेष्ठ कौन है ? मानव-मस्तिष्क की अपेक्षा कंप्यूटर समस्याओं को बहुत कम समय में हल कर सकता है, किंतु वह मानवीय संवेदनाओं, अभिरुचियों और चिन्तन से रहित यंत्र-पुरुष है। कंप्यूटर केवल वही कार्य कर सकता है जिसके लिए उसे निर्देशित (Programmed) किया गया हो ।
उपसंहार :- भारत तीव्र गति से कंप्यूटर-युग की ओर बढ़ रहा है। हम अपना जीवन कंप्यूटर के हवाले करते जा रहे हैं। कंप्यूटर द्वारा विदेशों में बैठे मित्रों से पत्र-व्यवहार हो रहा है, परीक्षा-परिणामों की जानकारी ले रहे हैं। कंप्यूटर हमें बोलना, व्यवहार करना, जीवन को जीने का ढंग, मित्रों से मिलना, उनके विषय में ज्ञान प्राप्त करना आदि सब कुछ बताएगा। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि कंप्यूटर द्वारा हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग दिया जा रहा है। अब कंप्यूटर हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग बन चुका है ।

प्रदूषण : समस्या और समाधान अथवा, प्रदूषण से मुक्ति के उपाय

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) प्रदूषण का अर्थ (3) प्रदूषण के प्रकार (4) प्रदूषण पर नियंत्रण (5) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- प्राचीनकाल से ही गंगाजल हमारी आस्था और हमारे विश्वास का प्रतीक इसी कारण से रहा है क्योंकि वह सभी प्रकार के प्रदूषणों से मुक्त था, किंतु आज अनियन्त्रित औद्योगिक वृद्धि के कारण अन्य नदियों की तरह गंगा भी प्रदूषित हो रही है । यदि प्रदूषण इसी प्रकार बढ़ता रहा तो ‘गंगा तेरा पानी अमृत’ वाला मुहावरा निरर्थक हो जाएगा ।
प्रदूषण का अर्थ :- विकास और व्यवस्थित जीवन-क्रम के लिए जीवधारियों को संतुलित वातावरण की आवश्यकता होती है। संतुलित वातावरण में प्रत्येक घटक एक निश्चित मात्रा में उपस्थित रहता है। कभी-कभी वातावरण में एक अथवा अनेक घटकों की मात्रा कम अथवा अधिक हो जाया करती है अथवा वातावरण में अनेक हानिकारक घटकों का प्रवेश हो जाता है। फलत: वातावरण दूषित हो जाता है, जो जीवधारियों के लिए किसी-न-किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है । इसे ही प्रदूषण कहते हैं ।
प्रदूषण के प्रकार :- प्रदूषण की समस्या का जन्म जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगिक एवं रासायनिक कचरों ने जल, वायु तथा पृथ्वी को भी प्रदूषित किया है।
विकसित एवं विकासशील सभी देशों में निम्न प्रकार के प्रदूषण विद्यमान हैं:-
  1. वायु प्रदूषण :- वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसें एक विशेष अनुपात में विद्यमान हैं, अपनी क्रियाओं द्वारा जीवधारी वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बन-डाई-आक्साइड छोड़ते रहते हैं। प्रकाश की उपस्थिति में हरे पौधे प्रकाश-संश्लेषण क्रिया द्वारा कार्बन-डाई-ऑक्साइड को ग्रहण करते हैं तथा ऑक्सीजन छोडते हैं। इस प्रकार ऑक्सीजन और कार्बन-डाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन-ऑक्साइड, कार्बन मोनो-ऑक्साइड, सल्फर डाई-ऑक्साइड तथा सिलिकॉन-टेट्राफ्लोराइड मुख्य हैं ।
  2. जल-प्रदूषण :- सभी जीवधारियों के लिए जल अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। पौधे अपना भोजन जल में घुली हुई अवस्था में ही प्राप्त करते हैं। जल में अनेक प्रकार के खनिज तत्व, कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं । यदि जल में ये पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाते हैं, तो जल प्रदूषित होकर हानिकारक हो जाता है ।
  3. ध्वनि प्रदूषण :- अनेक प्रकार के वाहनों, जैसे-कार, स्कूटर, मोटर, जेट विमान, ट्रैक्टर आदि तथा लाउडस्पीकर, बाजे, कारखानों के सायरन और मशीनों से भी ध्वनि प्रदूषण होता है। अधिक तेज ध्वनि से मनुष्य की सुनने की शक्ति भी कम हो जाती है तथा उसे ठीक प्रकार से नींद नहीं आती, यहाँ तक कि कभी-कभी पागलपन का रोग भी उत्पन्न हो जाता है ।
  4. रासायनिक प्रदूषण :- प्राय: कृषक अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक और रोगनाशक दवाइयों तथा रसायनों का प्रयोग करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। जब ये रसायन वर्षा के जल के साथ बहकर नदियों द्वारा सागर में पहुँच जाते हैं तो, ये वहाँ रहने वाले जीवों पर घातक प्रभाव डालते हैं। इतना ही नहीं मानव देह पर भी इसका प्रभाव पड़ता है|
  5. रेडियोधर्मी प्रदूषण :- परमाणु शक्ति उत्पादन केंद्रों तथा परमाणविक परीक्षण से भी जल, वायु तथा पृथ्वी का प्रदूषण होता है, जो देश की वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भावी पीढ़ी के लिए भी खतरनाक है । परमाणु विस्फोट के स्थान पर तापक्रम इतना अधिक बढ़ जाता है कि धातु भी पिघल जाती है । पोखरण में परमाणु परीक्षण के समय भारत में भी ऐसा ही हुआ था ।
प्रदूषण पर नियंत्रण :- पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण को रोकने तथा उसकी रक्षा के लिए गत वर्षों में सारे विश्व में एक चेतना पैदा हुई है। भारत सरकार ने 1947 ई० में ‘जल-प्रदूषण निवारण एवम् नियंत्रण अधिनियम’ लागू किया था। इसी के अंतर्गत एक ‘केंद्रीय बोर्ड’ तथा सभी प्रदेशों में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ गठित किए गए हैं। इन बोर्डों ने प्रदूषण नियंत्रण की योजनाएँ तैयार की हैं।
उपसंहार :- सरकार प्रदूषण की रोकथाम हेतु निरन्तर प्रयास कर रही है। पर्यावरण के प्रति जागरुकता से ही हम भविष्य में और अधिक अच्छा स्वास्थ्य तथा जीवन जी सकेंगे तथा भविष्य में आने वाली पीढ़ी को प्रदूषण के अभिशाप से मुक्ति दिला सकेंगे ।

एड्स: एक चुनौती

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) एड्स की जानकारी (3) एड्स के कारण (4) एड्स से बचाव के उपाय (5) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- H.I.V. (एच.आई.वी.) अर्थात् एड्स (Aids) भारत और पूरी दुनिया के लिए एक चुनौती बन चुका है। भारत में आज करोड़ों लोग एच.आई.वी. से संक्रमित हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों से पता चलता है कि दुनिया में 3 करोड़ 80 लाख वयस्क और करीब 15 लाख बच्चे एच.आई.वी. की चपेट में आ चुके हैं। सन् 1991 में इसकी संख्या आधी थी। भारत में H.I.V. संक्रमित लोगों की अनुमानित संख्या 3.85 मिलियन है। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र-प्रदेश, कर्नाटक, मणिपुर तथा नागालैंड में एक प्रतिशत से अधिक लोग H.I.V. संक्रमित हैं । इसने गत वर्ष विश्व में लगभग 30 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिए । आज विश्व का प्रत्येक देश एड्स की चपेट में है।
एड्स का अर्थ :- ‘एड्स’ का पूरा अर्थ है-
A-Acquired-एक्वायर्ड-प्राप्त किया हुआ ।
I-Immuno (इम्युनो)-शरीर के रोगों से लड़ने की क्षमता ।
D-Deficiency (डेफिसिएंसी)- कमी ।
S-Syndrome (सिंड्रोम)-लक्षणों का समूह ।
एड्स की जानकारी :- एड्स एक ऐसी भयंकर बीमारी है जो एच.आई.वी. (H.I.V.) नामक वायरस विषाणु के द्वारा फैलती है । ये वायरस अत्यंत सूक्ष्म तथा बीमारी पैदा करने वाले जीव हैं। इन्हें केवल अत्यंत शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से ही देखा जा सकता है IH.I.V. वायरस के शरीर में प्रवेश करने के बाद मरीज की रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता समाप्त होने लगती है। इस प्रकार रोगी साधारण रोगों से मुकाबला नहीं कर पाता है । एच.आई.वी. संक्रमण और एड्स के अंतर को आम व्यक्ति नहीं समझ पाता है। एच.आई.वी. संक्रमण उसे कहते हैं जब वायरस शरीर के अंदर प्रवेश कर जाता है । तब वह व्यक्ति एच.आई.वी. संक्रमित व्यक्ति कहलाता है तथा ऐसे व्यक्ति को 7 से लेकर 10 वर्षों तक कोई बीमारी नहीं होती । वह दूसरे लोगों की तरह सामान्य नज़र आता है । इसके बाद वह संक्रमित व्यक्ति एड्स की बीमारी से घिर जाता है। एक बार शरीर में वायरस प्रवेश कर जाए तो फिर इस बीमारी से मुक्ति सम्भव नहीं है ।
एड्स के कारण :- एड्स रोग मूल रूप से एक यौन रोग है । इसके प्रमुख कारण हैं-
(अ) एच.आई.वी. प्रस्त व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध रखने से । यौन संबंधों से यह रोग संक्रमिक पुरुष से महिला को, संक्रमित महिला से पुरुष को तथा संक्रमित पुरुष से पुरुष को हो सकता है ।
(ब) डॉक्टरों द्वारा प्रदूषित सुइयों का प्रयोग करने से, मादक पदार्थों का सेवन करने वालों द्वारा दूषित सुइयों के प्रयोग से. शरीर पर गुदाई करने वालों द्वारा अस्वच्छ औजारों का प्रयोग करने से तथा संक्रमित व्यक्ति के रेजर से बाल अथवा दाढी बनाने से ।
एड्स से बचाव के उपाय :- सरकार विभिन्न संचार माध्यमों के द्वारा जनता को एड्स की जानकारी दे रही है । एड्स के सामान्य लक्षणों की जानकारी सभी को होनी चाहिए । एड्स के रोग से ग्रस्त रोगी का वजन निरंतर कम होता जाता है। उसकी गर्दन, बगल अथवा जांघों की ग्रंथियों में सूजन आ जाती है। उसे लगातार बुखार भी रहता है । मुँह तथा जीभ पर सफेद चकत्ते पड़ जाते हैं, लेकिन इन लक्षणों का अर्थ यह नहीं है कि ऐसे लक्षणों वाले सभी व्यक्तियों को एड्स ही है । तपेदिक रोग में भी ऐसे लक्षण हो सकते हैं। एड्स रोग का निदान एलिसा टेस्ट (Elisa Test) तथा वेस्टर्न ब्लॉट (Western Blot) नामक रक्त जाँच से किया जाता है। लाल रिबन एड्स का अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न है। प्रतिवर्ष एक दिसम्बर को विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है । इस दिन सभी लोग एड्स का अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न पहनकर एड्स के विरुद्ध अपनी मुहिम चलाते हैं। एक दिसम्बर (विश्व एड्स दिवस) विश्व के सभी देशों के बीच आपसी विश्वास, करुणा, समझ और एकजुटता विकसित करने का संदेश देता है। एड्स के विरुद्ध विश्वव्यापी अभियान का प्रारंभ 1977 ई० से हुआ है। सभी देशों की यही धारणा है कि विश्व के लोग इस बीमारी की गंभीरता को समझें । संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक दिसंबर को ‘विश्व एड्स दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है ।
उपसंहार :- याद रहे अभी तक इसका कोई इलाज नहीं है, कोई दवा नहीं है । अत: इससे बचाव हेतु इसकी पूर्ण जानकारी जनता को होनी चाहिए । एड्स की जानकारी में ही बचाव है। व्यक्ति को रक्त चढ़वाते समय, इंजेक्शन लगवाते समय, नाई से बाल कटवाते समय नई सुई तथा ब्लेड का प्रयोग करना चाहिए। ऐसी जानकारी जनता को हो तथा वह शारीरिक संबंधों में सतर्कता रखें तो एड्स नहीं फैलेगा तथा सभी भारतवासी अथवा विश्व के लोग दुश्चिन्ताओं से मुक्त रहेंगे ।

इण्टरनेट और विश्व गाँव की संकल्पना (गलोबलाइजेशन)

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) कम्प्यूटर के माध्यम से समग्र विश्व और गाँव को जोड़ने का प्रयास। (3) इण्टरनेट की लोकप्रियता (4) उपसंहार ।

भौगोलिक सीमाओं से आबद्ध व्यक्ति सूचना प्रौद्योगिकी और संचार प्रौद्योगिकी के सदुपयोगी संगम से एक सुगम व्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है । यह व्यवस्था अपने विस्तृत आलिंगन से समूचे वसुधा को समेट रही है। वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी विकास के इस परिप्रेक्ष्य में इस पृथ्वी पर प्रत्येक व्यक्ति दूर-दराज के क्षेत्र में स्थित दूसरे व्यक्तियों से बौद्धिक सम्पर्क स्थापित कर रहा है। स्पष्टत: मानवीय सम्बन्ध एक आशाजनक उज्जवल परिवर्तन की स्थिति से गुजर रहा है। कम्प्यूटर के माध्यम से सूचना के राजमार्ग इण्टरनेट पर चलकर समस्त मानव-जाति एकीकरण के लिए प्रयत्नशील है । मानव-जीवन की सभी गतिविधियां यथा – राजनीतिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक आदि इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं से लाभान्वित हो रही हैं । नेटवर्क के इस विशाल पर्यावरण में कोई सीमा नहीं । कोई सरहद नहीं, कोई बंधन नहीं । विचारकों का उन्मुक्त संचालन-प्रसारण विश्व ग्राम योजना का प्रमुख चरित्र है और इण्टरनेट इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था है । इण्टरनेट व्यवस्था के अन्तर्गत लाखों-करोड़ों कम्प्यूटरों का संजाल बनता जा रहा है, जो सूचनाओं के आवागमन को सुलभ करता है । इसकी संरचना वस्तुत: प्रजातांत्रिक है, जो सूचना शक्ति को विकेन्द्रित करती है। दुनिया के किसी भी कोने में बैठा कोई भी व्यक्ति अपने कम्प्यूटर को इण्टरनेट से जोड़कर सूचना सम्राट् बन सकता है । इण्टेरनेट से जुड़ा कम्प्यूटर होस्ट कहलाता है। इस साम्राज्य में राजा व रंक सभी अपने होस्ट कम्प्यूटर से सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकते हैं । इण्टरनेट का जन्म शीत युद्ध के गर्भ से अमेरिका में हुआ है ।
1960 ई० में सोवियत संघ के परमाणु आक्रमण से चिंतित अमेरिकी सरकार ने एक ऐसी व्यवस्था की संरचना चाही, जिसमें अमेरिकी शक्ति किसी एक जगह पर केन्द्रित न रहे । विकेन्द्रित सत्ता वाले नेटवर्क से यह आशा थी कि शक्ति के बिखरे स्वरूप से उसे आक्रमण का शिकार होने से बचाया जा सकेगा। इस नेटवर्क में कम्प्यूटर शक्ति से सम्बन्धित समस्त सूचनाओं को संग्रहीत रखा जा सकेगा। इस प्रकार, कुछ कम्प्यूटरों के नष्ट हो जाने के बावजूद भी कुछ कम्प्यूटर, शेष कम्प्यूटर रक्षात्मक कदमों के लिए संग्रहीत सूचनाओं के साथ मार्गदर्शन करेंगे। सत्तर के दशक में अमेरिका की रक्षा उन्नत अनुसंधान परियोजना एजेंसी ने अपने प्रयत्न में सफलता प्राप्त की और इस नेटवर्क का उदय हुआ । जो कम्प्यूटरों के बीच संयोजित पैकेट संजालों में सूचनाओं का आदान-प्रदान कराने लगा । ये अंतर-नैटिंग परियोजना परिष्कृत होकर इण्टरनेट के नाम से विख्यात हुई । अनुसंधान से विकसित प्रोटोकोल को नियंत्रण प्रोटोकोल (टी.सी.पी.) और इण्टरनेट प्रोटोकोल (आई.बी.) कहा गया । इण्टरनेट से सम्बन्धित दस्तावेजों के प्रकाशन और प्रोटोकल संचालन के लिए इण्टरनेट कारवाई बोर्ड होता है जो प्रयोक्ताओं को इण्टरनेट रजिस्ट्री डोमेन नेम और उसके द्वारा डाटाबेस का आबंटन और वितरण करता है ।
विश्व समाज प्रौद्योगिकी सुविधाओं का सदुपयोग सभी पारम्परिक दूरियाँ खत्म करने के लिए कर रहा हैं। व्यक्तिगत लाभ से लेकर जनकल्याण तक की दृष्टि से इण्टरनेट एक उपयोगी उपलब्धि के रूप में प्रकट हो रहा है । भविष्य में इण्टरनेट से जुड़ा विश्व समुदाय एक प्रजातांत्रिक वैज्ञानिक व्यवस्था में सूचना शक्ति का बराबर हकदार होगा। लेकिन कठिनाई उन विकासशील देशों के लिए होगी, जहाँ आधारभूत संरचना का अभाव है। भारत जैसे देश में जहाँ अभी भी बिजली, पानी, टिकाऊ आवास, साक्षरता, स्वास्थ्य सुविधा, पोषक भोजन आदि की समस्या है, इलेक्ट्रॉनिक जीवन स्वप्नातीत हैं। गाँवों में सामुदायिक कम्प्यूटर के लिए भी निर्बाध बिजली की आवश्यकता होगी। ई-गवर्नेस के लिए भी उचित वातावरण चाहिए। यह आवश्यक है कि सूचना क्रान्ति के इस लाभदायक क्षण में लाभान्वित हो रहा धनाढ्य वर्ग अपने सामाजिक कर्त्तव्यों का निर्वाह करे। स्पष्ट है कि इण्टरनेट विश्व में सभी समुदायों से सम्बद्ध मामलों पर विचार-विमर्श के रूप में पूरी दुनिया में सूचना का कारगर प्रसारण बन सकता है। हम इण्टरनेट पर दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले अपने मित्र से बातचीत कर सकते हैं। विभिन्न दुकानों में बिकने वाली वस्तुओं को देख सकते हैं और ऑर्डर दे सकते हैं । मण्डियों और शेयर बाजार पर नजर रख सकते हैं। अपने उत्पादन और सेवाओं का विज्ञापन कर सकते हैं । इण्टरनेट पर हम न केवल अखबार पढ़ सकते हैं, बल्कि पुस्तकालयों से जरूरी सूचनाएं प्राप्त कर सकते हैं। दुनिया से हम सलाह मांग सकते हैं, और अपना विचार दुनिया के सामने रख सकते हैं। जिस प्रकार गाँव के अन्दर सूचना का आदान-प्रदान बड़ी तेजी से होता है, ठीक उसी प्रकार इण्टरनेट के द्वारा पूरे विश्व में कहीं से किसी कोने में सूचना तीव्र गति से दिया और लिया जा सकता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इण्टरनेट विश्व गाँव की संकल्पना को साकार कर सकता है।

दूरदर्शन (टेलिविज़न)

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) अविष्कार (3) कार्य-प्रणाली (4) उपयोगिता (5) उपसंहार ।

दूरदर्शन आधुनिक विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण विधा है मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा देने, जानकारी बढ़ाने, प्रचार और प्रसार का भी एक महत्त्वपूर्ण सशक्त माध्यम है। इस माध्यम में जैसे रेडियो और सिनेमा की श्रव्य-दृश्य विधियाँ मिल कर एक हो गई हैं। इसे बेतार-संवाद प्रेषण का अभी तक का सर्वोत्तम उपलब्ध वैज्ञानिक साधन माना जाता है । टेलिफोन और रेडियो के आविष्कार के पहले तक जैसे आम आदमी ने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि कभी वह दूर-दूराज़ स्थित लोगों की आवाज़ सुन कर उन्हें अपने समीप अनुभव कर सकेगा, उसी प्रकार बोलने वाले को कभी देख भी सकेगा, यह सोचना भी कल्पना से परे था। लेकिन दूरदर्शन के आविष्कार ने असम्भव या कल्पनातीत समझी जाने वाली उन सभी बातों को आज साकार एवं सम्भव कर दिखाया है ।
इस वैज्ञानिक चमत्कार यानि दूरदर्शन का आविष्कार सन् 1926 ई० में सम्भव हो पाया था। इस का आविष्कारकर्त्ता का नाम है जॉन एल० बेयर्ड । भारत में इस चमत्कारी दृश्य श्रव्य प्रसारण विधा का आगमन सन् 1964 ई० के बाद ही सम्भव हो पाया। भारत में पहले दूरदर्शन-प्रसारण केन्द्र की स्थापना सन् 1965 में ही हो पाई। धीरे-धीरे इसका प्रचलन और प्रसारण इस सीमा तक बड़ा कि आज दूर-पास सर्वत्र इसे देखा-सुना जा सकता है। राजभवन से लेकर झोंपड़ी तक में यह पहुँच चुका है। पहले इस का श्वेत-श्याम स्वरूप ही प्राप्त था, जबकि आज भारत-समेत सारे विश्व में दूरदर्शन रंगीन दुनिया में प्रवेश कर चुका है ।
आजकल भारत में उपग्रह की सहायता से दूरदर्शन के कार्यक्रम देश के प्रत्येक कोने में सरलता से पहुँचने लगे हैं। अब तक डेढ़-दो दर्जन तक प्रसारन केन्द्र तथा सैंकड़ों रिले केन्द्र स्थापित हो चुके हैं। दूरदर्शन-ट्राँसमिशन की संख्या भी दिन-प्रतिदिन लगातार बढ़ती ही जा रही है। आधुनिक विज्ञान ने टेलिविजन का प्रयोग भिन्न-भिन्न दिशाओं में सम्भव बना दिया है । दूरदर्शन अन्तरिक्ष-विज्ञान की भी कई तरह से सहायता कर रहा है। सुदूर ग्रहों की जानकारी इस के कैमरे सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। कृत्रिम उपग्रह अन्तरिक्ष में भेजने और वहाँ उन पर नियंत्रण रखने के कार्य में भी दूरदर्शन बड़ा सहायक सिद्ध हो रहा है ।
दूरदर्शन तरह-तरह के मनोरंजन का एक सर्वसुलभ घरेलू साधन है ही, इससे, शिक्षा के प्रचार-प्रसार, निरक्षरता हटाने जैसे कार्यों में भी पर्याप्त सहायता ली गई और ली जा रही है। विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को शिक्षा के साथ-साथ किसानों को कृषि कार्यों को शिक्षा के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार दूरदर्शन प्रचार-प्रसार का भी अच्छा माध्यम है। सो स्वास्थ्य-सुधार, जनसंख्या नियंत्रण, शिशु-संवर्द्धन-रक्षा जैसे कार्य भी यह कर रहा है। और भी कई प्रकार के घरेलू तथा व्यावसायिक शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए इस का व्यापक प्रयोग किया जा रहा है। देश-विदेश के समाचारों की दृश्य-श्रव्य योजना, समाचार-समीक्षा, गोष्ठियाँ, वार्त्ताएँ, कवि-सम्मेलन-मुशायरे, प्रदर्शनियाँ और तरह-तरह के उत्पादों के विज्ञापन जैसे अनेक कार्य इस से लिए जा रहे हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि आज दूरदर्शन हमारे व्यापक जीवन का एक व्यापक एवं व्यावहारिक अंग बन चुका है। हाँ, अपसंस्कृति के प्रचार का माध्यम बनने से इसे रोकना आवश्यक है, नहीं तो देश-काल के अनुरूप इस की वास्तविक उपयोगिता व्यर्थ हो कर रह जाएगी ।

कम्प्यूटर : मशीनी मस्तिष्क

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) कम्प्यूटर-प्रणाली (3) उपयोगिता (4) उपसंहार ।

आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने किस सीमा तक प्रगति एवं विकास कर लिया है, किस तरह वह एक-के बाद एक नए आविष्कार कर के मानव की सभी तरह की कार्य-शक्तियों के लिए एक चुनौती बनता जा रहा है ; कम्प्यूटर का आविष्कार इसका एक नवीनतम उदाहरण है।
कम्प्यूटर को आज प्रत्येक क्षेत्र की प्रगति एवं द्रुत विकास के लिए आवश्यक माना जाने लगा है। शिक्षा, व्यवसाय, शास्त्र – प्रशासन सभी में आज कम्प्यूटर प्रणाली की न केवल महती आवश्यकता ही अनुभव की जा रही है ; बल्कि यथासम्भव अपनाया भी जा रहा है। यहीं तक नहीं, देश की सुरक्षा प्रणाली की दृढ़ता के लिए भी आज कम्प्यूटर एक तरह की अनिवार्यता है । मानव-मस्तिष्क से भी बढ़ कर तीव्र गति से कार्य करने वाला कम्प्यूटर वास्तव में अंक-गणित- पद्धति के विकास की एक महत्त्वपूर्ण आधुनिक देन है । ईसा से लगभग चार हजार वर्ष पहले गणक-पटल नामक अंक गणित की जिस विद्या का विकास हुआ था, जिसके द्वारा तारों में मोती जैसे डालकर आज भी बच्चों को गिनती सिखाई जाती है, उसका विकसित एवं यंत्रीकृत परिवर्द्धित रूप है कम्प्यूटर । यह कम्प्यूटर प्रणाली मुख्यत: पाँच भागों में विभाजित रहा करती है – (1) स्मरणयंत्र, इसमें सभी तरह की सूचनाएँ भर दी जाती हैं। इन्हीं के आधार बनाकर कम्प्यूटरी-गिनती हुआ करती है। (2) नियंत्रणकक्ष, इसी से गिनती के गुण-दोष अर्थात् ठीक-गलत का पता चल पाता है। (3) अंक गणित भाग, इसमें यह भाग गिनती की सारी क्रियाप्रक्रिया को सम्पन्न किया करता है।(4) आन्तरिक यन्त्र भाग, इसमें सभी प्रकार के संकेत, निर्देश और जानकारियाँ संकलित एवं संचित रहा करती हैं। (5) बाह्य यंत्र भाग, उपर्युक्त अंगों के क्रिया-कलापों से प्राप्त निर्देशों-सूचनाओं का विवेचन-विश्लेषण का परिणाम बताने का कार्य यह भाग सम्पन्न किया करता है ।
कम्प्यूटर की अपनी एक अलग भाषा है । उसी में सभी तरह के संकेत, सूचनाएँ आदि उसमें भरे जाते हैं । कम्प्यूटर की तकनीकी भाषा में उन्हें क्रमश: आफ, आन, शून्य, एक या फिर द्विचर संख्या कहा जाता है। इन्हीं के द्वारा ही भाषा को अंकों में बदल दिया जाता है इन्हें ‘बिट्स’ भी कहा गया है। ये बिट्स छः होते हैं, जिन का प्रयोग करके ही किसी बात का अन्तिम परिणाम प्राप्त किया जाता है। इन सब की तकनीक सर्वथा भिन्न प्रकार की है।
आज सरकारी-गैरसरकारी प्रत्येक क्षेत्र में बड़े व्यापक स्तर पर कम्प्यूटर का प्रयोग किया जाने लगा है। प्रत्येक गणितीय हिसाब-किताब, लेखा-जोखा, अनुभव, परीक्षण आदि योजनाओं की रूपरेखा तैयार करने, उनकी परिणति का फलाफल जानने के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग अनिवार्यतः किया जाने लगा है। इतना ही नहीं, सामान्य जमा-तफरीक, गुणा या भाग, यहाँ तक कि अन्तरिक्ष और मौसम-विज्ञान की भविष्यवाणियाँ भी इसी के माध्यम से की जाने लगी हैं। चिकित्सा-प्रणालियों और ऑपरेशनों में भी इसकी सहायता ली जाती है। समाचारपत्रों के प्रकाशन और समूचे क्रिया- कलापों का आधार तो कम्प्यूटर बन ही चुका है, पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय भी धीरे-धीरे सम्पूर्णत: इसी पर आश्रित होता जा रहा है ।
आज कई प्रकार के अनुसन्धान कार्य भी कम्प्यूटर से किए जा रहे हैं। टेलिफोन, बिजली-विभाग, बैंक आदि भी बिल बनाने तथा अन्य लेन-देन के कार्यों में इस का प्रयोग करने लगे हैं। इस प्रकार आज कम्प्यूटर-प्रयोग व्यापक होता जा रहा है। इसके साथ कई तरह के खतरे भी बढ़ते जा रहे हैं। मानव-मस्तिष्क का व्यर्थ और बेकार हो जाना पहला खतरा है। इसी तरह के और भी कई खतरे हैं। तो चाहे कुछ भी हो जाए, यह मशीनी मस्तिष्क वास्तविक मानव-मस्तिष्क जैसा तो कतई नहीं बन सकता ।

धर्म और विज्ञान

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) धर्म और विज्ञान का पारस्परिक संबंध (3) दोनों में सामंज्यस (4) उपसंहार ।

जीवन को सत्य का पालन करने का आधार, आदर्श व्यवहार के प्रति आस्था और विश्वास जैसे सात्विक एवं उदात गुणों को धारण करने की प्रेरणा एवं शक्ति जिससे प्राप्त हुआ करती है, उसे धर्म कहते हैं ।
धर्म के विपरीत विज्ञान का मूल आधार भी विशेष प्रकार का ज्ञान ही हुआ करता है। विज्ञान भी मूल रूप से सत्य का अनवरत अन्वेषक होता है। लेकिन उस का आधार ठोस, नापे-तोले जा सकने वाले भौतिक पदार्थ हुआ करते हैं । वह धर्म की तरह अनैतिक आत्म तत्त्व का चिन्तक एवं विवेचक न होकर भौतिक तथ्यों का अन्वेषण किसी अन्य लोक में उद्धार पाने के लिए नहीं किया करता; बल्कि इस दृश्य और पंचभौतिक संसार की सुख-समृद्धि पाने के लिए ही किया करता है ।
धर्म और विज्ञान का प्रेरणा-स्रोत एक ही है । लक्षित उद्देश्य भी एक ही है और वह मानव-जीवन की सुख-समृद्धि की कामना और उस कामना को पूर्ण करने की चेष्टा । मानव-कल्याण की लक्ष्य-साधना एक समान दोनों में विद्यमान दोनों यानी धर्म और विज्ञान जब अपने मूल लक्ष्य की साधना की राह से भटक जाया करते हैं, तो स्वयं अपने लिए और पूरे जीवन-समाज के लिए तरह-तरह के व्यवधानों, संकटों, अपकृत्यों और अपरूपों की सृष्टि का कारण बन जाया करते हैं। इतना अन्तर अवश्य रहता है कि धर्म लक्ष्य से भ्रष्ट हो या अधर्म बनकर लोक-परलोक दोनों के नाश का कारण बन जाया करता है ; जबकि विज्ञान राह से भटक कर मुख्यत: भौतिक या इहलौकिक विनाश का कारण ही उपस्थित किया करता है ।
मानव-समाज की सर्वांगीण उन्नति तभी हो सकती है जब धर्म और विज्ञान में सामंज्यस हो । जिस प्रकार अकेलाविज्ञान संसार को शांति नहीं प्रदान कर सकता उसी प्रकार अकेला धर्म भी संसार को समृद्ध नहीं बना सकता । दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं । आवश्यकता इस बात का है कि धर्म और विज्ञान – दोनों का एक-दूसरे पर अंकुश रहे ।
इससे स्पष्ट है कि यदि मानव विवेक से काम ले, अपने आचरण-व्यवहार से विवेक को हाथ से न निकलने दे, तो धर्म और विज्ञान दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं ।

शिक्षा और विज्ञान

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) पारस्परिक संबंध (3) लक्ष्य-हित साधन (4) उपसंहार ।

शिक्षा का चरम लक्ष्य मानव जाति और समाज को हर प्रकार से विवेक सम्मत राह पर चलाना ही हुआ करता है। इस प्रकार विज्ञान का कार्य भी व्यक्ति और समाज के जीवन को विकास के नये-नये आयाम प्रदान कर उसे एक सुख-सुविधापूर्ण सन्तुलन प्रदान करना ही है। इसी प्रकार उसकी दृष्टि को व्यापक बनाना, मन-मस्तिष्क के बन्द पड़े या संकीर्ण द्वारों में खुलापन लाना भी विज्ञान का ही एक कार्य है ।
अब देखना यह है कि शिक्षा और विज्ञान में क्या कोई सीधा सम्बन्ध स्थापित भी किया जा सकता है ? इन प्रश्नों पर दो तरह से विचार करना सम्भव हो सकता है ।
पहली दृष्टि यानि कि समूची शिक्षा, उसके सभी विषयों को बाद में देकर केवल विज्ञान-सम्बन्धी शिक्षा को ही लागू किया जाए; यह उचित प्रतीत नहीं होता। जीवन में कोमलता, कोमल पक्षों और स्नेह-सम्बन्धों से पले रिश्ते-नातों का महत्त्व समाप्त हो जाएगा। दूसरे केवल विज्ञान पढ़ एवं सीख लेने से जीवन का काम भी नहीं चल सकता । जीवन और उसके व्यवहारों-व्यापारों को चलाने के लिए अन्याय विषयों की शिक्षा एवं जानकारी उतनी ही आवश्यक है कि जितनी वैज्ञानिक विषयों की । सभी की शिक्षा को उचित एवं व्यावहारिक सन्तुलन देने से ही उसका अपना और जीवन का वास्तविक महत्त्व बना रहा सकता है ।
अब दूसरी दृष्टि पर विचार करें। वह यह है कि समूची शिक्षा-पद्धति एवं पढ़ाए जाने विषयों को पढ़ाते समय वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि अपनायी जाए। हमारे अपने विचार में भी यह दृष्टि और धारणा उचित प्रतीत होती है। आज हम जिस युग-जीवन में जी रहे हैं, उसमें वैज्ञानिक दृष्टि अपनाए बिना ठीक ढंग से जी पाना कतई संम्भव नहीं। ऐसा होने पर ही एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति स्वयं जीवन के जीवन्त सन्दर्भों के साथ जुड़ कर जीवन को उचित दृष्टि से देख सकेगा ।
विज्ञान हो या शिक्षा, दोनों को सहयोगी बना कर या मान कर इन दोनों की सफलता-सार्थकता तभी प्रमाणित की जा सकती है, जब ये आत्यान्तिक तौर पर मानव-कल्याण करें। प्रोफेसर अल्बर्ट आइन्स्टीन का यह कथन यथार्थ है “हमारे इस जड़वादी युग में केवल जिज्ञासु वैज्ञानिक अन्वेषकों में ही गहरी धार्मिकता है ।” कुछ इसी प्रकार की बात स्वामी विवेकानंद ने भी कही थी – “आधुनिक विज्ञान सच्ची धार्मिक भावना का ही प्रकटीकरण है क्योंकि उसमें सत्य को सच्ची लगन से समझने की कोशिश है ।”

राष्ट्र की प्रगति में विज्ञान की भूमिका अथवा, भारत में विज्ञान के बढ़ते चरण

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) अणुशक्ति (3) विशेष शक्ति (4) उपलब्धियाँ (5) उपसंहार ।

स्वतंत्रता-प्राप्ति से पहले तक आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत की अपनी गति-दिशा शून्य थी। सूई से लेकर हवाई जहाज़, रेलवे इंजिन, यहाँ तक कि रेल के डिब्बे भी आयात किये जाते थे। उस आयात किए वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से ही इस देश का परिचय आधुनिक विज्ञान के साथ संभव हो पाया था। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद आज स्थिति यह है कि छोटे-बड़े प्रत्येक सामान, यंत्र, उपकरण आदि का निर्माण भारत में होने लगा है। इतना ही नहीं, आज़ भारत कई तरह की मशीनरी, यंत्रों एवं वैज्ञानिक उपकरणों का वैज्ञानिक तकनीक का भी आस-पास के अनेक छोटे-बडे देशों को निर्यात भी करने लगा है।
सर्वप्रथम भारत में सन् 1948 में एक अणुशक्ति आयोग स्थापित किया गया । सन् 1955 ई० में पहले परमाणु रिएक्टर का निर्माण किया। बिजली का उत्पादन अणुशक्ति से करने के लिए तारापुर परमाणु बिजली घर स्थापित किया । सन् 1974 में राजस्थान के पोखरण नामक स्थान पर प्रथम भूमिगत अणु-विस्फोट कर भारत ने सारे संसार को चकित-विस्मित कर दिया । इसके बाद भारतीय विज्ञान ने उपग्रह-निर्माण एवं उड़ान क्षेत्र में प्रवेश किया । सन् 1975 में ‘आर्यभट्ट’ नामक उपग्रह का प्रक्षेपण कर भारतीय विज्ञान ने संसार की आँखें खोल दीं । यह प्रमाणित कर दिया कि भारत इस क्षेत्र में भी निरन्तर आगे बढ़ते जाने की नीयत से कार्य कर रहा है। यह बात विशेष ध्यातव्य है कि भारतीय वैज्ञानिकों ने परमाणु शक्ति अर्जित कर ली है ।
अन्तरिक्ष अनुसन्धान के वैज्ञानिक क्षेत्र में भी भारत आज एक विशेष शक्ति के रूप में उभर कर सामने आया है । सन् 1975 में ‘आर्यभट्ट’ का और 1979 में ‘भास्कर’ का सफल प्रक्षेपण करने के बाद जब भारतीय रॉकेटों के माध्यम से ‘रोहिणी’ नामक उपग्रह कक्षा में स्थापित किया, तो विश्व ने एक बार फिर चौंक कर भारत की तरफ देखा । सन् 1984 में उपग्रह ‘रोहिणी डी-2’ छोड़ कर अपने अन्तरिक्ष-विज्ञान के कार्यक्रम को आगे बढाया। इसके बाद एप्पल, भास्कर-द्वितीय, इन्सेट प्रथम-ए, इन्सेट प्रथम-बी, एस० एल० वी-2 तथा 3, इन्सेट एफ-डी आदि अनेक उपग्रह अन्तरिक्ष में भेज चुका है और भी भेजने की कई तरह की योजनाओं पर भारतीय वैज्ञानिक नित नए प्रयत्न और प्रयोग कर रहे हैं। इस से भविष्य को परम उज्ज्वल कहा जा सकता है ।
बिजली, तार, दूर, संचार, टेलिविजन, सिनेमा और अब कम्प्यूटर आदि के निर्माण में भी भारत अन्य किसी देश से पीछे नहीं है । रेलवे इंजिन, डिब्बे, बस, ट्रक, कार सभी चीजों का निर्माण करके आज भारत अपनी हर प्रकार की आवश्यकताएँ पूरी कर रहा है। अन्य देशों से भी उसे ऐसी सब वस्तुओं के निर्माण के आर्डर लगातार प्राप्त होते रहते हैं। हर दिशा और क्षेत्र में भारत ने यथेष्ठ प्रगति और विकास किया है ।
यों भारत के पास अपनी प्राचीन परम्परागत वैज्ञानिक पद्धदियाँ भी अपने संस्कृत साहित्य में सुरक्षित हैं । लेकिन सखेद कहना पड़ता है कि आज भाषा की मारामारी के अभाव और विदेशी भाषा की मानसिकता बन जाने के कारण हम सब से लाभ उठा पाने की स्थिति में नहीं रह गए । जो हो, भारतीय वैज्ञानिकों ने आधुनिक विज्ञान और तकनीक के विकास में सी संसार को बहुत कुछ दिया और दे सकता है ।

पेड़-पौधे और पर्यावरण

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) उपयोगिता (3) वन-कटाई के दुष्परिणाम (4) उपसंहार ।

पेड़-पौधे प्रकृति की सुकुमार, सुन्दर, सुखदायक सन्तानें मानी जा सकती हैं। इन के माध्यम से प्रकृति अपने अन्य पुत्रों, मनुष्यों तथा अन्य सभी तरह के जीवों पर अपनी ममता के खज़ाने न्योछावर कर अनन्त उपकार तो किया ही करते हैं। उनके सभी तरह के अभावों को भरने, दूर करने के अक्षय साधन भी हैं। पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ हमें फल-फूल, औषधियाँ, छाया एवं अनन्त विश्राम तो प्रदान किया ही करते हैं, वे उस प्राण-वायु (ऑक्सीजन) का अक्षय भण्डार भी हैं कि जिस के अभाव में किसी प्राणी का एक पल के लिए जीवित रह पाना भी नितान्त असंभव है।
पेड़-पौधे हमारी ईंधन की समस्या का भी समाधान करते हैं। उनके अपने आप झड़ कर इधर-उधर बिखर जाने वाले पत्ते घास-फूँस, हरियाली और अपनी छाया में अपने पनपने वाली नई वनस्पतियों को मुफ्त की खाद भी प्रदान किया करते हैं। उनमें हमें इमारती और फर्नीचर बनाने के लिए कई प्रकार की लकड़ी तो प्राप्त होती ही है, कागज आदि बनाने के लिए कच्ची सामग्री भी उपलब्ध हुआ करती है। इसी प्रकार पेड़-पौधे हमारे पर्यावरण के भी बहुत बड़े संरक्षक हैं। यो ‘सूर्य-किरणें भी नदियों और सागर से जल-कणों का शोषण कर वर्षा का कारण बना करती हैं; पर उस से भी अधिक यह कार्य पेड़-पौधे किया करते हैं। सभी जानते हैं कि पर्यावरण की सुरक्षा, हरियाली वर्षा का होना कितना आवश्यक हुआ करता है ।
पेड़-पौधे वर्षा का कारण बन कर के तो पर्यावरण की रक्षा करते ही हैं, इनमें कार्बन डाई-ऑक्साइड जैसी विषैली, स्वास्थ्य-विरोधी और घातक कही जाने वाली प्राकृतिक गैसों का चोषण और शोषण करने की भी बहुत अधिक शक्ति रहा करती है। स्पष्ट है कि ऐसा करने पर भी वे हमारी धरती के पर्यावरण को सुरक्षित रखने में सहायता ही पहुँचाया करते हैं। पेड़-पौधे वर्षा के कारण होने वाली पहाड़ी चट्टानों के कारण, नदियों के तहों और माटी भरने से तलों की भी रक्षा करते हैं। आज नदियों का पानी जो उथला या कम गहरा होकर गन्दा तथा प्रदूषित होता जा रहा है, उसका एक बहुत बड़ा कारण उनके तटों, निकास-स्थलों और पहाड़ों पर से पेड़-पौधों की अन्धा-धुन्ध कटाई ही है । इस कारण जल स्रोत तो प्रदूषित हो ही रहे हैं, पर्यावरण भी प्रदूषित होकर जानलेवा बनता जा रहा है ।
धरती पर विनाश का यह ताण्डव कभी उपस्थित न होने पाए, इसी कारण प्राचीन भारत के वनों में आश्रम और तपोवनों, सुरक्षित अरण्यों की संस्कृति को बढ़ावा मिला। तब पेड़-पौधे उगाना भी एक प्रकार का सांस्कृतिक कार्य माना गया । सन्तान पालन की तरह उन का पोषण और रक्षा की जाती थी। इसके विपरीत आज हम, कांक्रीट के जंगल उगाने यानि बस्तियाँ बसाने, उद्योग-धन्धे लगाने के लिए पेड़-पौधौं को, आरक्षित वनों को अन्धाधुन्ध काटते तो जाते हैं पर उन्हें उगाने, नए पेड़-पौधे लगा कर उन की रक्षा और संस्कृति करने की तरफ कतई कोई ध्यान नहीं दे रही ।
यदि हम चाहते हैं कि हमारी यह धरती, इस पर निवास करने वाला प्राणी जगत् बना रहे है, तो हमें पेड़-पौधों की रक्षा और उन के नव-रोपण आदि की ओर प्राथमिक स्तर पर ध्यान देना चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि धरती हरी-भरी रहे, नदियाँ अमृत जल-धारा बहाती रहें और सब से बढ़ कर मानवता की रक्ष संभव हो सके, तो हमें पेड़-पौधे उगाने, संवर्द्धित और संरक्षित करने चाहिए; अन्य कोई उपाय नहीं ।

वन-संरक्षण की आवश्यकता

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) पौराणिक महत्व (3) वर्तमान स्थिति (4) उठाए गए कदम (5) उपसंहार ।

प्राचीन भारतीय संस्कृति में वृक्षों को देवता के समान स्थान दिया गया था तथा देवताओं की भांति उनकी पूजा की जाती थी । वृक्षों के सूख-दुख का ध्यान रखा जाता था तथा उनके साथ आत्मीयता का संबंध रखा जाता था। मौसम के प्रकोप से उन्हें उसी प्रकार बचाया जाता था, जिस प्रकार माँ-बाप अपने बच्चे को बचाते हैं। इतना ही नहीं, 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के मध्य वृक्ष काटना दण्डनीय अपराध था ।
मानव का जन्म, उस की सभ्यता-संस्कृति का विकास वनों में पल-पुसकर ही हुआ था। उस की खाद्य, आवास आदि सभी समस्याओं का समाधान करने वाले तो वन थे ही, उसकी रक्षा भी वन ही किया करते थे । वेदों, उपनिषदों की रचना तो वनों में हुई ही, आरण्यक जैसे ज्ञान-विज्ञान के भण्डार माने जाने वाले महान् ग्रन्थ भी अरण्यों यानि वनों में लिखे जाने के कारण ही ‘आरण्यक कहलाए। यहाँ तक कि संसार का आदि महाकाव्य माना जाने वाला, आदि महाकवि वाल्मीकि द्वारा रचा गया ‘रामायण’ नामक महाकाव्य भी एक तपोवन में ही लिखा गया ।
आज जिस प्रकार की नवीन परिस्थितियाँ बन गई हैं, जिस तेज़ी से नए-नए कल-कारखानों, उद्योग-धन्धों की स्थापना हो रही है, नए-नए रसायन, गैसें, अणु, उद्जन, कोबॉल्ट आदि बम्बों का निर्माण और निरन्तर परीक्षण जारी है, जैविक शस्त्रास्त्र बनाए जा रहे हैं; इन सभी ने धुएँ, गैसों और कचरे आदि के निरन्तर निसरण से मानव तो क्या सभी तरह के जीव-जन्तुओं का पर्यावरण अत्यधिक प्रदूषित हो गया है। केवल बम ही है, जो इस सारे विषैले और मारक प्रभाव से प्राणी जगत् की रक्षा कर सकते हैं। उन्हीं के रहते समय पर उचित मात्रा में वर्षा होकर धरती की हरियाली बनी रह सकती है हमारी सिंचाई और पेय जल की समस्या का समाधान भी वन-संरक्षण से ही सम्भव हो सकता है। वन हैं तो नदियाँ भी अपने भीतर जल की अमृतधारा संजो कर प्रवाहित कर रही हैं। जिस दिन वन नहीं रह जाएँगे, सारे प्राणी-प्रजातियों, अनेक वनस्पतियाँ एवं अन्य खनिज तत्त्व अतीत की भूली-बिसरी कहानी बन चुके हैं, यदि आग की तरह ही निहित स्वार्थों की पूर्ति, अपनी शानो-शौकत दिखाने के लिए वनों का कटाव होता रहा, तो धीरे-धीरे अन्य सभी का भी सुनिश्चित अन्त हो जाएगा।
वन-संरक्षण जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य वर्ष में वृक्षारोपण जैसे सप्ताह मना लेने से संभव नहीं हो सकता । इसके लिए वास्तव में आवश्यक योजनाएँ बनाकर कार्य करने की जरूरत है। वह भी एक-दो सप्ताह या मास-वर्ष भर नहीं; बल्कि वर्षों तक सजग रहकर प्रयत्न करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार बच्चे को मात्र जन्म देना ही काफी नहीं हुआ करता; बल्कि उसके पालन-पोषण और देख-रेख की उचित व्यवस्था करना-व भी दो-चार वर्षों तक नहीं, बल्कि उसके पालन-पोषण और देख-रेख की उचित व्यवस्था करना-वह भी दो-चार वर्षों तक नहीं; बल्कि उनके बालिग होने तक आवश्यक हुआ करती है ; उसी प्रकार की व्यवस्था, सतर्कता और सावधान वन उगाने, उनका संरक्षण करने के लिए भी किया जाना आवश्यक है। तभी धरती और उसके पर्यावरण की, जीवन एवं हरियाली की रक्षा संभव हो सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वृक्षों से हमारे देश की नैतिक, सामाजिक और आर्थिक समृद्धि भी होती है क्योंकि –
वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर ।
परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर ।।

महिला आरक्षण बिल

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) समाज में नारी-पुरुष की समानता (3) नारी की दुर्दशा (4) नारी की उपादेयता (5) बिल को मंजूरी (6) उपसंहार ।

हमारे देश में प्राचीनकाल से ही नारी को समाज में उच्च स्थान प्राप्त है। उस समय नारी के बिना कोई भी धार्मिक कार्य अधूरा माना जाता था । हमारे प्राचीन ग्रन्थों में भी कहा गया है कि – जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ नारी का निरादर होता है, वहाँ तरह-तरह की परेशानियाँ उत्पन्न होती हैं। देश में विदेशी आक्रमणों के कारण नारी का रूप बदल गया, उसे चहारदीवारी में बन्द होना पडा । इस कारण उसे अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ा । लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद फिर उसका पुराना समय लौटा । आज नारी का समाज में वही स्थान है जो पुरुष का है ।
भारतीय इतिहास नारियों के महान् कर्तव्यों, क्षमताओं तथा वीरता के कर्मों से भरा पड़ा है। नारी भारतीय समाज में हमेशा आदर व सम्मान का पात्र रही है । नारी ममता, प्रेम, वात्सल्य, पवित्रता तथा दया की मूर्ति है । उसने अनन्त कठिनाइयाँ सहते हुए परिवार तथा समाज एवं राष्ट्र की सेवा की है । दुःख का विषय यह है कि समाज में नारी को अबला’ व ‘बेचारी’ जैसे सम्बोधनों से पुकारा जाता है। उसकी इस हालत के लिये हमारा समाज जिम्मेदार है, जिसमें सामाजिक कुरीतियाँ और परम्परागत रूढ़िवादिता आज भी विद्यमान है ।
कुछ राजनीतिक दलों का तर्क है कि दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं को विशेष आरक्षण दिया जाना चाहिये । ऐसा कहकर ये आरक्षण में भी आरक्षण की बात कर रहे हैं। विडम्बना यह है कि महिला आरक्षण विधेयक के किसी भी स्वरूप पर आम सहमति नहीं हो पा रही है। सच्चाई तो यह है कि आम सहमति कायम करने के लिये अब तक कोई ठोस प्रयास भी नहीं किया गया। मार्च, 2003 के लोकसभा में किसी भी राजनीतिक दल ने इस बात के लिये प्रयास नहीं किया कि महिला आरक्षण विषय पर गम्भीर चर्चा हो सके। ऐसा लगता है कि सभी को, यहाँ तक कि महिला आरक्षण विधेयक पेश करने वालों को भी इस बात का इंतजार था कि इस विधेयक को लेकर हंगामा हो और इसी बहाने विधेयक को आगे के लिये टाल दिया जाये। लेकिन काफी राजनीतिक उठा-पटक के बाद आखिरकार संसद के सन् 2010 के बसंतकालीन सत्र में महिला आरक्षण विधेयक को बहुमत से पारित कर दिया गया। निश्चय ही भारत के संसद में इसे क्रांतिकारी कदम के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि इसके पहले तक महिला-हित की बातें करने वाले नेता भी विधेयक पारित करने के नाम पर बगलें झांकने लगते थे ।
महिला विधेयक का प्रारित होना इस बात को दर्शाता है कि नारी के प्रति परम्परागत धारणाओं में भी काफी परिवर्तन आया है, फिर भी अभी तक स्थितियाँ ऐसी नहीं बन पाई हैं कि आज की नारी अपनी हर प्रकार की क्षमता का परिचय खुलकर दे सके ।
हमें यह भी न भूलना चाहिए कि अगर महिला आरक्षण विधेयक पारित करने का उद्देश्य केवल महिलाओं के सब्जबाग दिखाना है तो फिर इस विधेयक के पारित होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उल्लेखनीय है कि महिला आरक्षण विधेयक इस मान्यता पर आधारित है कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिये33 प्रतिशत स्थान आरक्षित होने से देश की महिलाओं का कल्याण होगा । दुर्भाग्य से यह मान्यता सही नहीं है। इस सन्दर्भ में इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये आरक्षण की व्यवस्था होने के बावजूद उनकी स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आ सका है, फिर भी महिला-आरक्षण बिल एक क्रांतिकारी कदम अवश्य है ।

आतंकवाद और भारत अथवा आतंकवाद : एक चुनौती

रूपरेखा : (1) भूमिका (2) आतंकवाद एक जटिल समस्या के रूप में (3) आतंकवाद से मुक्ति के लिये उचित कदम (4) उपसंहार ।

आतंकवाद का इतिहास सम्भवतः उतनी ही पुरानी है, जितना पुरानी हमारी सभ्यता का इतिहास है । पूँजीवादी, लोकतान्त्रिक और साम्यवादी शासन व्यवस्थाओं के उदय के पूर्व समाज में उन्हीं का वर्चस्व रहता था जो वास्तव में बाहुबली होते थे। ऐसे लोगों में अधिकांश स्वेच्छाचारी होते थे। उनकी सत्ता को चुनौती देने वाली कोई ताकत कहीं सिर उठाने का साहस न कर बैठे, इसलिये वे हमेशा आतंकवाद का सहारा लेते थे । दहशत और आतंक प्रसारित करने के लिये वे लोग समय-समय पर निरीह जनपदों में हत्या, अपहरण, लूटपाट, आगजनी और विनाश का भैरव राग अलापते रहते थे । 19वीं शताब्दी के मध्य तक आतंकवाद को संरक्षण देने वाले अक्सर वे लोग होते थे, जिनके हाथों में सत्ता की नकेल होती थी, पर बीसवीं शताब्दी में आतंकवाद के केन्द्र में बदलाव दिखाई पड़ने लगा। बीसवीं शताब्दी में साम्प्रदायिकता, जातीय वैमनस्य, क्षेत्रीयता और आर्थिक वैषम्य से उत्पन्न वर्ग-संघर्ष की भावना से बुरी तरह ग्रस्त, बिकी हुई निष्ठा वाले अपने ही देश के कुछ लोग आतंकवादी संस्थाओं का गठन कर अपने ही राष्ट्र को खंडित करने का प्रयास करने लगे।
विदेशी शासन से मुक्ति की कामना करने वाले राष्ट्र के देशभक्त नवयुवक भी आतंकवाद का प्रयोग एक कारगर हथियार के रूप में करते थे । यद्यपि सभ्य संसार द्वारा अभी तक आतंकवाद की कोई सर्वमान्य परिभाषा तैयार नहीं की गई है, पर मोटे तौर पर इसकी परिसीमा में सभी अवैधानिक और हिंसापरक गतिविधियाँ आती हैं।
भारत में आतंकवादी आन्दोलन की शुरुआत सन् 1965 ई० के बाद हुई है । पूर्वी पाकिस्तान के बंगलादेश में परिवर्तित हो जाने के बाद पाकिस्तान के मन में यह बात आ गई कि युद्धभूमि में भारत का कुछ बिगाड़ सकने में वह सक्षम नहीं है। यही कारण है कि पाकिस्तान ने आतंकवाद का सहारा लिया ।
पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को पंजाब के आतंकवादी आन्दोलन के कारण अपनी जान गँवानी पड़ी। आतंकवादियों की दृष्टि में मानवता का कोई मूल्य नहीं है। आतंकवाद की आड़ में आज कई अपराधी-गिरोह सक्रिय होकर देश के लोगों की जान-माल को हानि पहुँचा रहे हैं । सरकारी शक्तियाँ अनेक प्रकार के प्रयास करके भी उन्हें काबू नहीं कर पायी हैं।
अभी भी देश के हर कोने में आतंकवाद का जाल फैला हुआ है, जिसके कारण अपहरण, हत्या और लूट-पाट आदि जैसी संगीन अपराध नित्य हुआ करते हैं। इस विषैली बेल का विनाश करना अति आवश्यक है। आतंकवादी संगठनों में जैशे-मुहम्मद, लश्करे-तोयबा और हिजबुल मुजाहिदीन मुख्य रूप से सक्रिय हैं ।
कश्मीरी आतंकवाद का साहस इस सीमा तक बढ़ चुका है कि उसने प्रतिवर्ष होने वाली अमरनाथ-यात्रा को तो बाधित करने का प्रयास किया ही है, वैष्णो देवी की यात्रा पर भी अपनी कुदृष्टि लगा रखी है। पाकिस्तानी खुफिया एजेन्सी की शह और सहायता से ही तस्करी, माफिया के जाने-माने लोग मुम्बई में विस्फोट करवाकर ढाई-तीन सौ लोगों की जानें लेने के साथ-साथ करोड़ों की सम्पत्ति भी स्वाहा कर चुके हैं। उनके लिए राष्ट्रीयता एवं मानवता का कोई भी मूल्य एवं महत्व नहीं है। देश के महत्त्वपूर्ण स्थलों, यहाँ तक कि राजधानी में भी उनके द्वारा विस्फोट किए जाने और कराए जाने की योजनाएँ अक्सर सामने आती रहती हैं। यद्यपि कश्मीरी जनता को अब वास्तविकता समझ में आने लगी है। यह भी पता चल चुका है कि उन्हें स्वतंत्रता के सुनहरे सपने दिखाने के नाम पर आतंकवादी किस प्रकार उनकी रोटियों, बेटियों पर भी अपनी बदनीयती के दाँत गड़ाये हुए हैं। यद्यपि आतंकवाद कुछ दबता हुआ प्रतीत हो रहा है, पर यह अब समाप्त ही हो जायेगा, ऐसा कह पाना बहुत कठिन है। कारण स्पष्ट है कि इसकी आड़ में पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध अघोषित युद्ध जो छेड़ रखा है । अतः जब तक भारत भी उसके लिये युद्ध जैसा वातावरण प्रस्तुत नहीं करता, इसे खत्म कर पाने की कल्पना करना सपनों की दुनिया में रहने और अपने आप को धोखा देने जैसा ही है ।

भारत के गौरव : स्वामी विवेकानन्द

रूपरेखा : (1) प्रस्तावना (2) जन्म (3) वंश-परिचय तथा शैक्षणिक जीवन (4) रामकृष्ण परमहंस देव का सान्निध्य (5) परिव्राजक विवेकानन्द (6) शिकागो विश्वधर्म सभा में विवेकानन्द (7) साहित्य कृति (8) उपसंहार ।

प्रस्तावना :- दंड-कमंडलु हाथ में लिए एक युवा सन्यासी भारत भ्रमण के लिए निकले हैं। उनका अभीष्ट है भारत की आत्मा के यथार्थ स्वरूप की खोज । पर यह कौन-सा भारतवर्ष देख रहे हैं? कहाँ गया भारत का वह गौरवमय अतीत? किस अन्धकार के गर्त में डूब गया भारत का उज्ज्वल मानव प्रेम का आदर्श ? भारत में सर्वत्र दारिद्रता, पराधीनता, अंधानुकरण प्रवृत्ति, दाससुलभ दुर्बलता और छूआछूत का कलंक देखकर युवा सन्यासी की आत्मा रो उठी। कौन है यह सन्यासी, जिसने दरिद्र में ही नारायण (ईश्वर) के अस्तित्व का अनुभव किया ? कौन है यह महासाधक, जिसने देशवासियों को बताया – “भूलना मत, नीच, मूर्ख, दरिद्र, भंगी, चमार आदि तुम्हारे ही अपने भाई हैं।”
जन्म, वंश-परिचय तथा शैक्षणिक जीवन :- उत्तर कलकत्ता के सिमलापाड़ा के विख्यात दत्त परिवार में सन् 1863 में विवेकानन्द का जन्म हुआ। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के नामी एटर्नी थे । माता थीं धर्मप्राण भुवनेश्वरी देवी । विवेकानन्द का बचपन का नाम था वीरेश्वर । बालक वीरेश्वर शुरू से ही बहुत साहसी था । अत्यन्त मेधावी था वह । बड़ा होने पर ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा प्रतिष्ठित मेट्रोपालीटन स्कूल में भर्ती हुआ । यहाँ उसका नाम था नरेन्द्रनाथ । प्रथम श्रेणी में प्रवेशिका (एन्ट्रेन्स) परीक्षा पास करके प्रेसीडेन्सी कॉलेज में दाखिल हुए। बाद में उसे छोड़कर जनरल एसेम्बली कॉलेज (स्कॉटिश चर्च कॉलेज) से एफ०ए० पास किया और दर्शनशास्त्र लेकर पढ़ने लगे थे। बड़े मधुर कंठ के अधिकारी थे तरुण नरेन्द्रनाथ । संगीत, खेलकूद, वाद-विवाद प्रतियोगिता और व्यायाम में बहुत रुचि थी उनकी ।
रामकृष्ण परमहंस का सान्निध्य :- नरेन्द्रनाथ के घर के पास ही रहते थे सुरेन्द्रनाथ मिश्र । एक दिन रामकृष्ण परमहंस वहाँ आये । भजन गाने के लिए नरेन्द्रनाथ को बुलाया गया। प्रथम दर्शन में ही विस्मय विमुग्ध हो गये ठाकुर रामकृष्ण । नरेन्द्रनाथ भी अभिभूत हुए परमहंस देव को देखकर । नरेन्द्रनाथ को दक्षिणेश्वर आने का आमंत्रण दिया ठाकुर ने । नरेन्द्रनाथ के मन में तब भगवान के विषय में तरह-तरह के प्रश्न उठ रहे थे और संशय भी जगा था। तभी ठाकुर रामकृष्ण के दिव्य सान्निध्य का लाभ हुआ । दक्षिणेश्वर का आकर्षण तीव्र हो उठा उनके लिए। उसी समय उनके पिता की अकस्मात् मृत्यु हो गयी । घोर अर्थ-संकट में पड़ गये । दक्षिणेश्वर मन्दिर में माँ काली से अर्थ माँगने जाकर भी उन्होंने श्रद्धा और भक्ति की याचना की। नरेन्द्रनाथ तब आधे संन्यासी बन चुके थे ।
परिव्राजक विवेकानन्द :- परमहंस देव का शिष्यत्व ग्रहण करके सन्यासी बन गये नरेन्द्रनाथ। नाम हुआ ‘विवेकानन्द’ । सन् 1886 में श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने महाप्रस्थान किया। भारत पर्यटन के लिए निकल पड़े परिव्राजक विवेकानन्द । हिमालय से कन्याकुमारी तक पूरे देश में घूमे। हिन्दू, मुसलमान, अछूत, दरिद्र, निरक्षर सबसे मिलकर निपीड़ित और पददलित लोगों की हृदय-पीड़ा को समझा । सोया भारत जाग उठा । भविष्य के भारत के स्वप्नद्रष्टा, विवेकानन्द ने देशवासियों को नवजीवन का जागरण मंत्र सुनाया।
शिकागो विश्वधर्म सभा में विवेकानन्द :- इसके बाद सन् 1893 का वह स्मरणीय दिन । अमेरिका के शिकागो शहर में विश्वधर्म सम्मेलन का आयोजन हुआ। विवेकानन्द के पास भी इस सम्मेलन की खबर पहुँची । पर वे अनाहूत थे वहाँ। कुछ भक्तों और प्रशंसकों के विशेष अनुरोध से अमेरिका चल पड़े। उनका उद्देश्य था वेदान्त धर्म का प्रचार । भगवा वस्त्र और पगड़ी पहने सन्यासी के वेश में वे शिकागो जा पहुँचे। लेकिन सम्मेलन में भाग लेने की अनुमति-पत्र नहीं था उनके पास । अन्त में कुछ सहृदय अमेरिकावासियों की सहायता से केवल पाँच मिनट के लिए भाषण देने की अनुमति लेकर विवेकानन्द ने सम्मेलन में प्रवेश किया। इसके बाद बड़ी आत्मीयता से उन्होंने श्रोताओं को इस प्रकार सम्बोधन किया, ‘अमेरिकावासी भाइयों और बहनों इस सम्बोधन को सुनकर श्रोताओं ने करतल ध्वनि से अभिनंदित किया प्राच्य के इस संन्यासी को। उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘ईसाइयों को हिन्दू या बौद्ध बनने की आवश्यकता नहीं, हिन्दुओं और बौद्धों को भी ईसाई बनने की जरूरत नहीं ।…… . आध्यात्मिकता, पवित्रता और उदारता पर केवल किसी विशेष एक धर्म का एकाधिकार नहीं है । प्रत्येक धर्म की पताका पर लिखना पड़ेगा, युद्ध नहीं सहयोग, ध्वंस नहीं आत्मीयकरण, भेद-द्वंद नहीं सामञ्जस्य और शान्ति ।’ धर्मसभा में उन्होंने दृढ़ विश्वास के साथ भविष्य में संसार के लोगों के महामिलन की घोषणा की। सुनकर अभिभूत हो गये श्रोतागण । संसार भर में उनकी शोहरत फैल गयी और चारों ओर से उन पर प्रशंसा की वर्षा होने लगी। शिष्या के रूप में उन्हें मिस मार्गरेट नोकल मिली जो बाद में भारत की भूमि पर ‘भगिनी निवेदिता’ बनीं । सन् 1896 में विवेकानन्द भारत लौटे।
साहित्य-कृति :- केवल कर्मक्षेत्र में ही नहीं, वैचारिक क्षेत्र में भी इनका अवदान महतवपूर्ण था। उनकी परिव्राजक’, ‘विचारणीय बातें’, ‘प्राच्य और पाश्चात्य’, ‘वर्तमान भारत’ आदि रचनायें उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा उनके बहुत से लेख और विभिन्न समय में विभिन्न व्यक्तियों को लिखे अनेक पत्रों का संकलन भी प्रकाशित हुए हैं।
उपसंहार :- आधुनिक भारत के भागीरथ थे स्वामी विवेकानन्द । दुर्बल और हीनता की ग्रन्थि से ग्रस्त लोगों को मानव-जाति के कल्याण मंच में दीक्षित करना ही उनके जीवन का लक्ष्य था। उन्होंने धर्मान्ध देशवासियों को स्पष्ट स्वर में कहा था, ‘दरिद्र, निपीड़ित, आर्त्त मनुष्यों की सेवा ही ईश्वर-साधना है। असहाय मनुष्य ही हमारे भगवान हैं । फिर, उन्होंने आदर्शहीन भारतीयों को स्मरण कराया था, ‘आज से पचास साल तक तुम्हारे उपास्य और कोई देव-देवी नहीं हैं, उपास्य है केवल जननी जन्मभूमि यह भारतवर्ष ।’

डॉ. अबुल पकीर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम

(डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम)

रूपरेखा : (1) परिचय (2) कर्म ही पूजा है -जीवन का मूल-मंत्र (3) शिक्षा-दीक्षा (4) वैज्ञानिक रूप में कार्य (5) इसरो (ISRO) की स्थापना (6) एस.एल.वी. के प्रबंधक के रूप में (7) भारत-रत्न की उपाधि से अलंकृत (8) राष्ट्रपति के रूप में कार्य करना (5) उपसंहार ।

परिचय :- 25 जुलाई, 2002 को राष्ट्रपति पद की शपथ लेने वाले डॉ०ए.पी.जे अब्दुल कलाम भारत के बारहवें राष्ट्रपति थे। वे भारत के ऐसे प्रथम राष्ट्रपति थे, जो इस पद पर आने से पूर्व ही भारत-रत्न से अलंकृत हो चुके थे। वे पहले ऐसे राष्ट्रपति थे, जो जीवन-भर राजनीति से दूर रहकर देश के सर्वोच्च सिंहासन पर आसीन हुए थे।
डॉ. अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्तूबर, सन् 1931 में रामेश्वरम् (तमिलनाडु) में हुआ। उनका बचपन माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रामेश्वरम् की मस्जिद गली स्थित अपने घर में ही बीता। उनके माता-पिता के विचार अत्यंत उच्च कोटि के थे तथा उनका परिवार मध्यमवर्गीय था। उनकी माता को लोग अन्नपूर्णा कहते थे, क्योंकि उनके यहाँ अतिथियों को उचित मान-सम्मान मिलता था । इनकी शिक्षा वहीं की एक प्रारंभिक पाठशाला में हुई।
‘कर्म ही पूजा है’ :- यह गुरुमंत्र कलाम को अपने पिता से विरासत में मिला था, जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों हेतु प्रात: चार बजे से ही अपनी दैनिकचर्या प्रारंभ करते थे। डॉ० कलाम ने अपनी आत्मकथा ‘विंग्स ऑफ फायर’ में लिखा है कि “मुझे विरासत में पिता से ईमानदारी और आत्मानुशासन तथा माता से भलाई में विश्वास तथा गहरी उदारता मिली है। मैं अपनी सृजनशीलता का श्रेय बिना किसी झिझक के बचपन में मिली उनकी संगति को देता हूँ।”
शिक्षा-दीक्षा :- हाई स्कूल की शिक्षा पूरी करते हुए कलाम ने पिता की इच्छा के अनुरूप विज्ञान विषय लेकर तिरुचिरापल्ली के सेंट जोसेफ कॉलेज में प्रवेश लिया। छात्रावास में रहते हुए उन्होंने अंग्रेजी साहित्य तथा भौतिक विज्ञान में विशेष रुचि दिखाई । बी.एस.सी. की डिग्री के बाद कलाम ने इंजीनियर बनने का मन बना लिया था। उस समय मद्रास (चेन्नई) स्थित मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी को दक्षिण भारत में तकनीकी शिक्षा का मुकुट मणि माना जाता था। कॉलेज में प्रतिभा के बल पर प्रवेश तो मिला, किंतु शुल्क के लिए उस समय एक हजार रुपए चाहिए थे जिसके लिए उनकी वहन जोहरा को अपने जेवर गिरवी रखने पड़े। इसी कारण कलाम साहब आज भी परिश्रमी तथा मितव्ययी हैं। इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष में उन्होंने ‘विमानिकी इंजीनियरिंग’ को चुना। प्रो. श्री निवासन् की इच्छा पर केवल तीन दिन के अंदर उन्होंने एक प्रोजेक्ट बनाकर पूर्ण किया था ।
वैज्ञानिक रूप में कार्य :- छात्र-जीवन से ही कलाम व्यस्त रहने के अभ्यस्त हो गए थे। इसी कारण सजने-संवरने का उनके पास न तो समय था और न ही ऐसे विचार थे। जब वे रक्षा प्रयोगशाला, डी. आर.डी.एल. हैदराबाद में निदेशक थे तो अपने एक कमरे के आवास से लगभग दो किलोमीटर दूर स्थित अपने कार्यालय पैदल ही जाते थे । साधारण कमीज़, खाकी हॉफ पेंट और चप्पल पहनकर वे मिसाईल संबंधी चर्चा करने किसी भी वैज्ञानिक के पास पहुँच जाते थे । एम.आई.टी. से शिक्षा ग्रहण कर कलाम एक प्रशिक्षु के रूप में एच.ए.एल बंगलौर (हिंदुस्तान एअरोनॉटिक्स लिमिटेड) पहुँचे । उनके अनुसार निपुणता तभी मिलती है जब हम व्यावहारिक धरातल पर कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसरो (ISRO) की स्थापना :- सन् 1958 में वे रक्षा मंत्रालय के तकनीकी विकास और उत्पादन निदेशालय (वायु) में वरिष्ठ वैज्ञानिक सहायक के पद पर नियुक्त हुए । तीन वर्ष बाद बंगलौर में एअरोनॉटिकल डिवलेपमेंट इस्टैब्लिशमेंट (ए.डी.ई.) की स्थापना हुई और इनका इस प्रयोगशाला में तबादला हो गया। ए.डी.ई. में उन्हें तीन वर्ष के अंदर ‘हॉवरक्राफ्ट’ विकसित करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया जिसे कलाम साहब की टीम ने समय से पहले ही पूरा कर दिया ।
इसी समय भारत में Indian Space Research Organisation (ISRO) (भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन) की स्थापना हुई। इस संगठन हेतु थुंबा में स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी सेंटर बनाया गया। दिसम्बर, 1971 में डॉ. साराभाई के निधन के बाद प्रोफेसर सतीश धवन इसरो के अध्यक्ष बने तथा अंतरिक्ष अनुसंधान संबंधी अनेक इकाइयों को मिलाकर ‘विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र की स्थापना की गई। इस केंद्र के प्रथम निदेशक के रूप में प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ० ब्रह्मप्रकाश की नियुक्ति हुई ।
एस. एल. वी. के प्रबंधक के रूप में :- प्रोफेसर धवन और डॉ० कलाम को उपग्रह प्रक्षेपण यान (सैटेलाइट लांच वीहिकल–एस.एल.वी.) विकसित करने संबंधी परियोजना के प्रबंधक के पद पर नियुक्त कर दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य एक मानक एस.एल.वी. प्रणाली का डिजाईन, विकास और संचालन करना था। डॉ. कलाम के नेतृत्व में तैयार एस.एल.वी-3 की प्रथम परीक्षण उड़ान 10 अगस्त, 1979 को थी। तेईस मीटर लंबा तथा सत्रह टन वजन वाला SLV-रॉकेट उस दिन प्रातः 7 बजकर 58 मिनट पर प्रमोचित (लांच किया गया। नियंत्रण व्यवस्था में खराबी आने के कारण यह नियत मार्ग से भटक कर बंगाल की खाड़ी में गिर गया। दूसरा परीक्षण 18 जुलाई, 1980 को प्रात: 8.03 बजे श्रीहरिकोटा के थार केंद्र से प्रमोचित भारत का एस.एल.वी-3 रॉकेट ‘रोहिणी’ उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने में सफल हुआ।
संपूर्ण राष्ट्र ने भारतीय वैज्ञानिक की सफलता पर गर्व महसूस किया तथा भारत ‘विश्व अन्तरिक्ष क्लब’ का सम्मानित सदस्य बन गया ।
भारत-रत्न की उपाधि से अलंकृत :- डॉ० कलाम की यात्रा जारी रही तथा भारत सरकार ने सन् 1998 में उन्हें राष्ट्र के सर्वोच्च नागरिक अलंकर ‘भारत-रत्न’ से सम्मानित किया। डॉ० कलाम को भारत सरकार ने सन्1981 में पद्मभूषण, सन् 1990 में पद्मविभूषण और सन् 1998 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। अनेक विश्वविद्यालय रॉकेट तथा मिसाइल कार्यक्रम की सफलता हेतु उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ तथा अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित कर चुके हैं।
उपसंहार :- डॉ० कलाम ऐसे आदर्श हैं जो युवा पीढ़ी के मस्तिष्क में राष्ट्र निर्माण की चिंगारी पैदा करने हेतु आतुर हैं। उनके अनुसार उच्च स्तर का चिंतन करो फिर उसकी पूर्ति हेतु कठिन परिश्रम करो । वे अपने वेतन का कुछ हिस्सा सामाजिक संस्थाओं को भी देते हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं – अग्नि की उड़ान, तेजस्वी मन, Wing of Fire, India 2020-A vision for the new millennium आदि । डॉ० कलाम यह मानते हैं कि जो हो रहा है अच्छे के लिए हो रहा है जो होगा वह भी अच्छा होगा । यही उनके जीवन दर्शन का आधार है ।

जीवन में स्वच्छता का महत्त्व

कुछ साल पहले इण्टरनेशनल हाइजीन काउंसिल ने अपने एक सर्वे में कहा था कि औसत भारतीय घर बेहद गंदे और अस्वास्थ्यकर होते हैं । उसके द्वारा जारी गन्दे देशों की सूची में पहला स्थान मलेशिया और दूसरा स्थान भारत को मिला था। हद तो तब हो गई जब हमारे ही देश के एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री ने यहाँ तक कह दिया कि यदि गंदगी के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाता तो वह निश्चित तौर पर भारत को ही मिलता । यह कितने शर्म की बात है कि पूरी दुनिया में भारत की छवि एक गंदे देश के रूप में है।
इस बात के उल्लेख से यह साफ पता चल जाता है कि स्वच्छता के मामले में हम कितने लापरवाह हैं। स्वच्छता का मतलब केवल शारीरिक या पोशाक की स्वच्छता से नहीं है । स्वच्छता का संबंध जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से है । आज पर्यावरण की समस्या हमारी स्वच्छता के प्रति लापरवाही से ही है। गंदगी के कारण हर प्रकार का प्रदूषण होता है । चाहे घर हो, सड़क हो, पिकनिक स्थल हो, स्टेशन हो, बस स्टैण्ड हो, स्कूल-कॉलेज हो चारों ओर गंदगी का अंबार नज़र, आता है । स्वच्छता की शिक्षा यदि हम घर से ही शुरू करें तो बच्चे जीवन में स्वच्छता के महत्व को अच्छी तरह समझ पाएंगे। अस्वच्छता या गंदगी के कारण अनेक प्रकार की बीमारियाँ भी फैलती हैं। यही कारण है कि भारत में निजी अस्पताल तथा औषधालयों के धंधे खूब फल-फूल रहे हैं। स्वच्छता के महत्व का अंदाजा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि यह कहा भी गया है – “एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है”।
साफ-सफाई को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी बहुत गंभीर हैं । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए2 अक्टूबर 2014 को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की शुरुआत की। उनकी इच्छा स्वच्छ भारत अभियान को एक जन आंदोलन बनाकर देशवासियों को इससे जोड़ने की है। उन्होंने भारत की जनता से अपील की —
“गाँधी जी ने आज़ादी से पहले नारा दिया था – ‘क्विट इण्डिया, क्लीन इण्डिया’, आज़ादी की लडाई में साथ देकर देशवासियों ने ‘क्विट इण्डिया’ के सपने को तो साकार कर दिया, लेकिन अभी उनका ‘क्लीन इण्डिया’ का सपना अधूरा ही है।”
प्रधानमंत्री जी ने पाँच साल में देश को साफ-सुथरा बनाने के लिए लोगों को शपथ दिलाई कि न मैं गंदगी करूँगा और न ही गन्दगी करने दूँगा। उन्होंने यह भी कहा कि “स्वच्छता का दायित्व सिर्फ सफाई कर्मियों का नहीं, सभी125 करोड़ भारतीयों का है।”
इन सारी बातों का असर अभी भी आंशिक रूप से ही दिख रहा है तथा ये बातें हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि इतने प्रयास के बावजूद हम भारतीय साफ-सफाई के मामले में आज भी पिछड़े हुए क्यों है ? हम जीवन में स्वच्छता के महत्व को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं ?

सूक्तिपरक निबंध

‘सादा जीवन, उच्च विचार’

‘सादा जीवन, उच्च विचार’, यह सूक्ति जीवन के दो अलग तथ्यों, रूपों को प्रदर्शित करने वाली होते हुए भी मूलत: एक ही सत्य को स्वरूपाकार देने या उजागर करने वाली है । सादा जीवन उन्हीं का हुआ करता है कि जो उच्च विचारशील व्यक्ति हुआ करते हैं या फिर उच्च विचार वाले व्यक्ति ही सादगी का रहस्य पहचान कर जीवन के रहन-सहन, खान-पान, कार्य-पद्धति आदि को सादा बना कर व्यवहार किया करते हैं। ऐसा कर के वे संसार के लिए आदर्श तो स्थापित करते ही हैं, आदरणीय एवं चिरस्मरणीय भी बन जाते हैं ।
सादा जीवन जीने पर विश्वास करने वाला व्यक्ति ईर्ष्या-द्वेष जैसे उन मनो-विकारों से भी बचा रहता है कि जिन्होंने आज पूरी मानवता को आक्रान्त कर रखा है। उन निहित स्वार्थों से भी सादगी पसन्द आक्रान्त नहीं हुआ करता कि जो अनेक प्रकार के भ्रष्टाचारों के कारण बन कर केवल अपने प्रति ही नहीं, सारे विश्व की मानवता के प्रति हीन और आक्रामक बना दिया करते हैं। स्पष्ट है कि सादे जीवन का मानवीय मूल्यों की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व है। इसीलिए हम प्रत्येक ज्ञानी सन्त के जीवन को एकदम सीधा-सादा पाते हैं । आधुनिक युग पुरुष महात्मा गाँधी से बढ़ कर सादगी का और अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है ?
बिना विचारों की उच्चता के न तो आदमी की आत्मा ही ऊँची उठ सकती है और न ही वह कोई ऊँचा या महत्वपूर्ण कर्म करने के लिए ही अनुप्राणित हो सकता है। उच्च विचारों से रहित व्यक्ति न तो स्वयं सामान्य स्तर से; सांसारिक ईर्ष्या-द्वेष, माया-मोह आदि के मनोविकारों और स्वार्थों से, दुनिया की झँझटों से छुटकारा पा सकता है । वह छोटी चीजों और बातों के लिए स्वयं तो झगड़ता रहेगा ही, दूसरों को भी लड़ाता-भिड़ाता रहेगा । इसी कारण सन्तजन सादगी के साथ-साथ विचार भी उच्च बनाए रखने की बात कहा और प्रेरणा दिया करते हैं ।
संसार ने आज तक आध्यात्मिक, भौतिक, वैज्ञानिक क्षेत्रों में जितनी और जिस प्रकार की भी प्रगति की हैं; वह उच्च विचार एवं धारणाएँ बना कर ही की है। धारणाओं और विचारों को उच्च बनाए बिना जीवन-संसार के छोटे-बड़े किसी भी तरह के किसी आदर्श को प्राप्त कर पाना कतई संभव नहीं हुआ करता । श्रेष्ठ एवं उच्च विचार होने पर सहज सामान्य को तो पाया ही जा सकता है। उच्च शिखर का लक्ष्य सामने रख कर चढ़ाई कर देने पर यदि उसे नहीं, तो उससे कम ऊँचे शिखर तक तो पहुँचा ही जा सकता है। इसलिए उन्नति और सफलता के इच्छुक व्यक्ति को अपनी चेतना को हीन भावों-विचारों से ग्रस्त कभी नहीं होने देना चाहिए ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि शीर्षक-सूक्ति के दोनों भाग ऊपर से अलग-अलग प्रतीत होते हुए भी अपनी अन्तरात्मा में एक ही सत्य को निहित किए हुए हैं। वह सत्य केवल इतना ओर यही है कि जीवन में सादगी अपना कर ही उच्च विचार बनाए और पाए जा सकते हैं। इस प्रकार के सादगी और उच्च विचारों से सम्पन्न कर्मयोगियों ने ही संसार को भिन्न आध्यात्मिक एवं भौतिक क्षेत्रों में हुई प्रगति के आदान दिए हैं।

‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई’

परहित सरिस धरम नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।
तुलसीदास की यह चौपाई इस कथन का रूपान्तर है –
अष्ठादश पुरापेषु व्यासस्य वचनद्वयम
परोपकार पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।
अठारह पुराणों में व्यास ने दो ही बातें कही हैं – “परोपकार से पुण्य प्राप्त होता है और दूसरों को कष्ट पहुँचाने से पाप होता है ।”
आज का नव धनाढ्य वर्ग परोपकार को घृणा की दृष्टि से देखता है फिर भी वह दिखावे के लिए कुछ परोपकार का कार्य करता है ताकि आयकर में चोटी की जा सके। धर्म का वास्तविक अर्थ हुआ करता है उदात्त मानवीय सद्गुणों का विकास कर उन्हें अपने में धारण करने की क्षमता अर्जित करना । तभी तो ‘धर्म’ की परिभाषा की जाती है कि ‘धारयते इतिह धर्म:’ अर्थात् जिसमें धारण कर पाने की शक्ति हो वही धर्म है, यह सफल-सार्थक हो सकती है ।
सभी तरह के उदात एवं उदार सुद्गुणों को धारण कर पाने की शक्ति । इस शक्ति से सम्पन्न रहने के कारण ही मनुष्य अपने भीतर भिन्न प्रकार की धार्मिक प्रवृत्तियों का विकास कर पाता है। उन वृत्तियों में एक महानतम वृत्त है परोपकार करने की । कविवर तुलसीदास ने इसी प्रवृत्ति को महत्व देते हुए, महत्वपूर्ण मानते हुए अपनी महानतम रचना ‘रामचरितमानस’ में एक विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न पात्र के मुख से यह कहलवाया है कि-‘पर-हित सरिस धर्म नहिं भाई ।’ अर्थात् हे भाई, परोपकार से बढ़ कर मनुष्य के लिए अन्य कोई धर्म नहीं । संस्कृत में भी इस प्रकार की एक सूक्ति मिलती है। उसके अनुसार – ‘परोपकाराय सत्तां विभूतयः’ अर्थात् सज्जनों द्वारा अर्जित सभी प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने सुख-भोग के लिए न होकर परोपकार या पर-हित-साधन के लिए ही हुआ करती है ।
मानव-जीवन की सार्थकता का वास्तविक मानदण्ड यही है कि वह पर-हित-साधन में इस सीमा तक आगे बढ़े कि दूसरों को भी अपने समान, अपने जैसा यानि साधन-सम्पन्न बना दे । शास्त्रीय शब्दों में मानवता का ऋण से मुक्ति पाने का प्रयास परोपकार है और परोपकार सब से बड़ा धर्म । ऐसा धर्म कि जिस की साधना के लिए कहीं जाने आने की कतई कोई जरूरत नहीं, जो सहज साध्य एवं सर्वसुलभ है ।
आज दुःखद स्थिति है कि परोपकार के नाम पर लोगों को उल्लू बनाया जा रहा है। इस भ्रष्ट व्यवस्था में परहित की बात कौन करे वश चले तो देश को भी बेच डालने में परहेज नहीं । शिकायत किससे की जाय क्योंकि –
बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था ।
अंजामे गुलिस्तां क्या होगा, हर शाख पे उल्लू बैठा है ।

‘जो तोकूँ काँटा बुए, ताही बोई तू फूल’

सूक्तिपरक शीर्षक पंक्ति सन्त कबीर के एक प्रसिद्ध दोहे की पंक्ति है –
“जो तोकू काँटा बुए, ताही बोई तू फूल ।
तोके फूल-तो-फूल हैं, वाको हैं तिरशूल ।।
अर्थात् यदि तेरी राह में कोई काँटे बोता है, तो भी तू बदला लेने की इच्छा से उसकी राह में काँटे मत बो; बल्कि काँटों के स्थान पर अपनी तरफ से फूल ही बोने का प्रयास कर । ऐसा करने पर तुझे तो फूल बोने के कारण बदले में फूल ही फूल प्राप्त होंगे, जबकि काँटे बोने वाले को बदले में काँटे ही मिल पाएँगे । इस सामान्य अर्थ से प्राप्त होने वाला व्याख्यापरक ध्वन्यर्थ यह है कि संसार में रहते हुए यदि कोई व्यक्ति तुम्हारा उपकार या बुरा करता है, तब भी तुम उसका अपनी ओर से भला ही करो । अन्ततोगत्वा भला करने वाले का भला होगा, जबकि बुरा करने वाला अपने बुरे किए का फल बुरा प्राप्त करेगा । इस उक्ति का अर्थ और प्रयोजन व्यक्ति की चेतना को बुरों और बुराइयों से विमुख कर अच्छों और अच्छाइयों की तरफ उन्मुख करना ही है। व्यक्ति को अपने भले के लिए, अन्तिम लाभ के लिए सन्मार्ग पर चलने, कुमार्ग का त्याग करने की प्रेरणा देना ही है ।
प्रकृति का सामान्य नियम भी यही है कि बबूल बोने पर आम खाने के लिए नही मिल सकते । आम खाने की इच्छा हो, तो आम के पौधे ही रोपने पड़ेंगे ।
आदमी स्वभाव, गुण और कर्म से वास्तव में बड़ा दुर्बल प्राणी है । उसपर बुराई का प्रभाव बड़ी जल्दी पड़ा करता है, जब अच्छाई का प्रभाव पड़ते-पड़ते ही पड़ा करता है। अच्छाई साधना और तत्पश्चर्या से प्राप्त हुआ करती है, जब की गण्डाई या दुष्टता यों ही प्राप्त हो जाया करती है । स्वभाव से पानी की तरह ढलान यानि सरलता की ओर अच्छा बन कर मौनभाव से अच्छाई करते जाने का मार्ग काफी कठिन एवं कष्ट साध्य है। इसी कारण व्यक्ति अच्छा करते-करते अकसर फिसल जाया करता है। बुरे मार्ग पर चलने और बुरा करने के लिए सरलता से तत्पर हो जाया करता है । सो सूक्तिकार व्यक्ति को चारित्रिक दृढ़ता का उपदेश देकर सभी के हित और सुख-साधन की कामना से अनुप्राणित होकर ही काँटे बोने अर्थात् बुरा करने वालों की राह में भी फूल बोने अर्थात् भलाई और प्यार करने की प्रेरणा देना चाहता है ।
कटुता से कटुता बढ़ती है, क्रोध से क्रोध बढ़ता है। बैर को प्रेम से ही जीता जा सकता है। जो किसी के बारे में बुरा नहीं सोचता, वही वास्तविक सुख और शांति का अनुभव करता है । ईष्या की आग और द्वेष का धुआँ उससे कोसों दूर रहता है। कवि रहीम ने भी लिखा है-
प्रीति रीति सब सों भली, बैर न हित मित गोत ।
रहिमन याही जनम में बहुरि न संगति होत ।।

‘नर हो, न निराश करो मन को ‘

जब हम महापुरुषों के जीवन-चरित को पढ़ते हैं तब हमें आश्चर्य होता है कि इन व्यक्तियों में ऐसी कौन-सी शक्ति थी जो उन्होंने कल्पनातीत कार्य कर दिखाया । पता चलता है कि वह शक्ति थी – उनका मनोबल, जिसने उन्हें असाधारण व्यक्तियों की श्रेणी में लाकर खड़ाकर दिया । अगर ऐसा नहीं होता तो क्या थोड़े से वीर मरहठों को लेकर वीर शिवाजी और कंकाल के पुतले महात्मा गाँधी वह सब कर पाते जो उन्होंने कर दिखाया। ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ करता है उसके पीछे उसकी मानसिक शक्ति ही होती है। अगर मानसिक शक्ति दृढ़ तो एक बार मौत भी हार जाती है ।
जिस दिन नर मनुष्य निराश या सन्तुष्ट होकर बैठ जाएगा, उस दिन वास्तव में सृष्टि का विकास ही रुक जाएगा, इस बात में तनिक भी सदेह नहीं। निराशा या उदासी यदि जीवन के तथ्य होते, तो आज तक विश्व में जो प्रगति एवं विकास संभव हो पाया है, कदापि न हो पाता । नरता का पहला और अनिवार्य लक्षण है हर हाल में, हर स्थिति में निरन्तर आगे- ही-आगे बढ़ते जाना ‘जिस तरह जल की नन्हीं, कोमल एवं स्वच्छ धारा अपने निकास-स्थान से निकलकर एक बार जब चल पड़ती है, तो सागर में मिले बिना कभी रुकती या विश्राम नहीं लिया करती; उसी प्रकार नरता भी कभी लक्ष्य पाए बिना रुका नहीं करती ।
नर प्राणी किसी बात से निराश होकर बैठ जाए, यह उसे कतई शोभा नहीं देता। निराश होकर बैठ जाना हार तो है ही, श्रेष्ठता से विमुख होना या उसे काल के हाथों गिरवी रखना भी है। किसी भी वस्तु को गिरवी रखने वाला व्यक्ति मान-सम्मान एवं आत्मविश्वास के साथ-साथ लोक विश्वास से भी हाथ धो बैठता है । ऐसा होना दूसरे शब्दों में निराशात्तिरेक में उसका नरता से पतित होना है। अपने-आप को कहीं का भी नहीं रहने देने जैसा है । सो नर मनुष्य होकर कभी भूल से भी इस तरह की स्थिति, पतन और गिरावट मत आने दो । बुद्धिमान व्यक्ति को आशावादी होना चाहिए, ताकि वह अपना और अपने देश का कल्याण कर सके । कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपना मनोबल बनाए रखना चाहिए क्योंकि मनोबल से ही सफलता कदम चूमती है । जिस व्यक्ति का मनोबल गिर जाता है, वह जीते-जी पशु के समान हो जाता है ।

‘मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे’

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा परिकल्पित एवं विरचित ‘रामचरितमानस’ में दी गई इस सूक्ति का सम्पूर्ण स्वरूप इस प्रकार है:
“जहाँ सुमति तहाँ सम्पत्ति नाना ।
जहाँ कुमति तहाँ विपत्ति निधाना ।।”
अर्थात् जहाँ यहा जिस व्यक्ति के हृदय एवं समस्त क्रिया-व्यापारों में सुमति या सुबुद्धि का निवास अथवा आग्रह रहा करता है, वहीं पर सभी तरह की सुख-सम्पत्तियाँ सुलभ रहा करती हैं ।
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
मनुष्य और पशु में यदि कोई अंतर है तो यह है कि पशु परहित की भावना से शून्य होता है। उसके जितने भी कार्य होते हैं वे सभी अपने तक सीमित रहते हैं। यदि मनुष्य भी मनुष्य के साथ ऐसा व्यवहार करे तो फिर मनुष्य और पशु में अंतर ही क्या रह जाएगा। हमारी संस्कृति में मानव-मात्र की कल्याण-भावना निहित है तथा यह संस्कृति ‘वसुधैव कुटंबकम्’ की पवित्र भावना पर आधारित है । सच तो यही है कि संसार में परोपकार के समान न कोई दूसरा धर्म है, न पुण्य ।
इस तथ्य को उजागर करने एवं सन्देश को प्रसारित करने के लिए तुलनात्मक दृष्टि अपना कर कवि ने परस्पर विलोम रहने वाले दो शब्दों का बारी-बारी से प्रयोग किया है। एक सुमति-कुमति, दूसरा सम्पत्ति-विपत्ति । ‘सुमति’ का सम्बन्ध ‘सम्पत्ति’ से बताया है; जबकि ‘कुमति’ का सम्बन्ध ‘विपत्ति’ से बताया गया है। मनुष्य क्योंकि सामाजिक, सर्वश्रेष्ठ एवं विचारवान् प्रणी है, इस कारण कवि ने उस से सुमति के द्वारा सम्पत्ति की ओर जाने का आग्रह किया है । व्यक्ति को कुमति का मार्ग त्याग देना चाहिए; क्योंकि वह तरह-तरह की विपत्तियों की ओर ले जाने वाला होता है ।
सुमति से काम लेकर सुविचारित ढंग से चलने का मार्ग कठिन हो सकता है, प्रायः हुआ भी करता है। लेकिन जब मनुष्य उस कठिन मार्ग पर साहस और सुविचार से चल कर उसे पार कर लिया करता है, तब जिस सुख एवं आनन्द की अनुभूति हुआ करती है । इसी तरह कुमति से प्रेरित हो और अविचार या कुविचार का दामन थाम कर चलने से अन्ततोगत्वा जिस प्रकार की आत्मपीड़ा ओर आत्मसंन्ताप झेलना पड़ा करता है, उसे भी शब्दों द्वारा आकार दे पाना संभव नही हुआ करता। वह तो मात्र झेलने वाला ही हर पल पश्चाताप की आग ने झुलसते रह कर अनुभव कर पाता है।
मानव जीवन का उद्देश्य केवल इतना नहीं है कि खाओ, पीओ और मस्त रहो । गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है-
“एहि तन कर फल विषय न भाई, सब छल छांड़ि भजिय रघुराई ।॥”
अर्थात् इस जीवन का लक्ष्य केवल विषय-वासनाओं में लिप्त नहीं, बल्कि निष्कपट होकर भगवान की भक्ति है । भक्ति भी तभी सफल हो सकती है जब हम दूसरे मानवमात्र के साथ सहानुभूति, सहयोग और संवेदना के साथ पेश आएं। अंग्रेजी का एक कथन है – “The best way to pray to God is to love His creation.”

‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’

हार-जीत तो आरम्भ से ही जीवन के साथ लगी हुई है, लगी रहती है और आगे भी लगी ही रहेगी। यह जीवन का एक निश्चित एवं परीक्षित सत्य है । सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा लक्ष्य को हासिल करने की गहरी इच्छा शक्ति से आती है । नेपोलियन ने लिखा था – “इंसान जो सोच सकता है और जिसमें यकीन करता है वह उसे हासिल भी कर सकता है ।”
सभी कामयाबियों की शुरुआत उन्हें पूरा करने की गहरी इच्छा शक्ति से ही होती है। जिस तरह थोड़ी-सी आग ज्यादा गर्मी नहीं दे सकती, उसी प्रकार कमजोर इच्छा से बड़ी कामयाबियाँ नहीं मिल सकती। असफलता के डर से कुछ लोग कोशिश ही नहीं करते, और साथ ही पीछे न छूट जायं इस डर से वे पीछे भी रहना नहीं चाहते। ऐसे लोग जीतना तो चाहते हैं लेकिन हारने के डर से अपनी मानसिक क्षमताओं का इस्तेमाल नहीं कर पाते । वे अपनी क्षमता इस चिंता में गंवाते हैं कि कहीं हार न जाएँ, बजाए इसके कि जीतने की कोशिश में उसे लगाएँ
मानव-समाज ने अपने आरम्भ काल से लेकर आज तक जितनी प्रगति, जितना विकास किया है, उसके लिए जाने कितनी विघ्न-बाधाएँ सहीं, कितनी-कितनी असफलताएँ झेली और कितनी बार असफल परीक्षण किए, कहाँ है उस सब का हिसाब-किताब ? यदि वह कुछ विघ्न-बाधाएँ देख कर, कुछ असफल परीक्षणों के बाद ही मन मार कर बैठ जाता, तो आज तक की उन्नत यात्रा भला कैसे और क्यों कर के कर पाता ? वहीं अन्धेरी गुफाओं और घने जंगलों के सघन वृक्षों की डालियों में ही उछल-कूद न मचा रहा होता ? पर नहीं, मनुष्य के लिए हार मान हाथ-पर-हाथ धर कर बैठ जाना कतई संभव ही नहीं हुआ करता । मानव-मन हार को हार मान ही नहीं सकता। सच्चे मनुष्य का मन तो हमेशा जीत के आनन्दोल्लास से भरा रहता है । उत्साह से भरे उसके कर्मठ मन को बढ़ाता हुआ हर कदम जीत या सफलता को निकटतर खींचता हुआ प्रतीत होता है। तभी तो वह गर्मी-सर्दी, वर्षा-बाढ़ आदि किसी की भी परवाह न करते हुए, वसन्त या शरद की सुन्दरता की ओर आकर्षित होते हुए भी उन की अपेक्षा करते हुए अपने गन्तव्य की ओर कदम-दर-कदम हमेशा बढ़ता रहता है-तब तक कि जब तक उस तक पहुँच कर अपना विजय-ध्वज नहीं फहरा देता ।
इन तथ्यों के आलोक में शीर्षक-सूक्ति में व्यंजित सत्य को नतमस्तक होकर स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि हार-जीत दोनों मन के व्यापार हैं ।

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