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कावर झील पक्षी विहार

कावर झील पक्षी विहार

कावर झील पक्षी विहार

बिहार के बेगूसराय जिला मुख्यालय से कोई 30 किमी. दूर मंझौल अनुमण्डल के अंतर्गत मां मंगला देवी का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल जयमंगला गढ़ है। इसके चारों ओर लगभग 2500 एकड़ में फैली कावर झील, जिसे बिहार का सबसे बड़ा पक्षी अभयारण्य होने का गौरव प्राप्त है, की स्थिति वर्तमान में काफी दयनीय होती जा रही है। प्रावासी पक्षियों की लगातार घटती संख्या के कारण झील अपनी लोकप्रियता खो रही है। कावर झील प्रवासी पक्षियों का एक मुख्य पड़ाव है। प्रसिद्ध पक्षी वैज्ञानिक डॉ सलिम अली ने इसे प्रवासी पक्षियों का स्वर्ग कहा था। सन् 1971 में डॉ. सालिम अली भी यहां आए और उन्होंने पूरा सत्र यहां रहकर अपना शोध कार्य पूरा किया था। उनके अनुसार इस झील में 300 प्रजातियों के पक्षियों का अध्ययन एक साथ संभव है तथा पक्षी अवलोकन एवं शोध कार्य के दृष्टिकोण से यह एक अनुकूलतम स्थल है।
कावर झील ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टिकोण से ही नहीं, अपनी जैव विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है। सम्पूर्ण भारत में प्रवासी पक्षियों के दो प्रमुख पड़ाव हैं : एक राजस्थान में भरतपुर स्थित केवलादेव (घाना) राष्ट्रीय उद्यान तथा दूसरा उत्तरी बिहार में बेगूसराय जिलांतर्गत प्रसिद्ध कावर झील। आकार में कावर झील (66.13 वर्ग किमी.) केवलादेव (29 वर्ग किमी.) से काफी बड़ा तथा विस्तृत है। अपनी उत्कृष्ट जलवायु, जैव विविधता तथा संतुलित आहारयुक्त वातावरण के कारण ही कावर झील हमेशा से ही प्रवासी पक्षियों को आकर्षित करती रहा है। यहां विभिन्न प्रजातियों के पक्षी प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में पहुंचते हैं। इन मेहमान पक्षियों का आगमन जाड़ा प्रारंभ होने के साथ ही शुरू हो जाता है एवं वसंत ऋतु के समाप्त होते-होते वे अपने गंतव्य स्थान को लौट जाते हैं।
आगन्तुक पक्षियों में बत्तख (डॅक), चाहा (स्नाइप), खंजन (वेगटेल), गीज (हंस), सारस (क्रेन), स्टार्क (लगलग, सारंग आदि) तथा वुज्जा (आइविस) की विभिन्न प्रजातियां शामिल हैं। ये पक्षी एक निश्चित समय पर अपने मूल देश से एक लम्बी उड़ान भरते हैं और दिन-रात अथाह समुद्रों, लम्बे मार्ग, रेतीले मरूस्थलों तथा बर्फ से ढंके ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के बीच से रास्ता ढूंढते हुए हजारो मील का सफर तय करते हुए किसी अन्य देश में पहुंच जाते हैं। वह 3-4 महीने तक रहते हैं और फिर अपने देश लौट जाते हैं।
ये पक्षी प्राय: उन्हीं देशों के मूल निवासी होते हैं, जहां वर्ष भर ठण्ड पड़ती है, जैसे- साइबेरिया, अलास्का, रूस, मंगोलिया आदि। लेकिन साल के कुछ महीनों में तो वहां इतनी ठण्ड पड़ती है कि जलाशयों और झीलों में बर्फ जम जाती है और इसी
के साथ दिन भी काफी छोटे हो जाते है। बर्फ जम जाने से इनका भोजन भी बर्फ के नीचे दब जाता है। यानि वातावरण उनके एकदम प्रतिकूल हो जाता है। ऐसे में इनको वहां उस देश को छोड़कर किसी ऐसी जगह पहुंचना होता है, जहां पर इन्हें वही
अनुकूल वातावरण तथा भोजन मिल सके जैसा कि उन्हें अपने देश में उपलब्ध था। इस दृष्टिकोण से हमारे भारत की नदियां, झीलें तथा जलाशय इनके लिए उपयुक्त शरणस्थली बन जाते हैं। दरअसल इस अद्भुत झील को अतुलनीय खूबसूरती, इसका शांत वातावरण एवं रमणीक स्थल के कारण ही स्थानीय पक्षियों के अलावा विभिन्न प्रवासी पक्षी यहां पहुंचते हैं। ये पक्षी इस झील में वे सभी तत्व प्राप्त करते हैं, जो उनकी जीवन रक्षा, शारीरिक तथा आनुवंशिक परिवर्तन एवं प्रजनन के लिए आवश्यक हैं। झील के बीचों बीच मां मंगला देवी का पवित्र स्थल इसकी शोभा में चार चांद लगा देता है। पर्यावरण संरक्षण के लिए वर्षों से कार्यरत भागलपुर (बिहार) की चर्चित संस्था मंदार नेचर क्लब के जनवरी 2001 के सर्वेक्षण के अनुसार कावर झील की स्थिति काफी गंभीर और चिन्ताजनक होती जा रही है। इस झील की वर्तमान स्थिति सिर्फ पक्षियों के लिए ही नहीं उस झील में
पलने वाले विभिन्न जीव- जंतुओं के लिए भी त्रासद है। कावर झील के 6611. 63 हेक्टेयर (66.13 वर्ग किमी.) क्षेत्र को (सरकारी
अनुज्ञप्ति वर्ष 1989) संरक्षित क्षेत्र (प्रोटेक्टेड एरिया) घोषित किया गया है। कावर झील में विभिन्न प्रकार के फ्लोरा जैसे कमल, पुरइन, कीटमली, शैवाल की विभिन्न प्रजातियां, जैसे- स्पाइरोगायरा आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।
इसके अलावा अन्य जंतु जैसे- घोंघा, सीप, केंकड़ा, कीड़े, वायु श्वासी मछलियां, जैसे- गरई, कवई, शोरी, कुचिया, सींधी, मांगुर तथा अन्य प्रजातियों की मछलियां यहां बहुतायत में पायी जाती हैं। ये जीवनदायी तत्व पक्षियों की शारीरिक वृद्धि एवं प्रजनन में सहायक होते हैं। लेकिन वर्तमान में कावर झील में प्रवासी पक्षियों का शिकार अब भी चोरी छुपे चल रहा है। आगन्तुक पक्षियों की संख्या लगातार घटती जा रही है। पूर्व में जहां 300 प्रजातियों के पक्षी यहां पहुंचते थे, सन् 1990 में इनकी संख्या घटकर मात्र 230 हो गयी थी।
विश्वस्त सूत्रों के अनुसार दुर्लभ पक्षी साइबेरियाई सारस भी कभी यहां झुण्डों में आया करते थे लेकिन अब नहीं आते। कावर झील में पदस्थापित वन विभाग के काफी अनुभवी गार्ड एवं पक्षियों के जानकर कहते हैं कि सन 1990 में 5 और सन् 1991 में मात्र 2 साइबेरियाई सारस देखे गये थे जो उसके बाद से अब तक नहीं देखे गये हैं। इन्हीं सूत्रों ने यह भी बताया कि पहले सारस
ही नही राजहंस (फ्लेमिंग) और सारंग जैसे बड़े पक्षी भी यहां आकर कावर झील की शोभा बढ़ाते थे पर अब हम उनको देखने के लिए तरसते है। झील में जहाँ घोंघिल (ओपेनबिल स्टार्क), पनकौआ (कारमोन्ट), बगुला, चाहा (स्नाइप) एवं खंजन पर्याप्त
संख्या में थे, वहीं लालसर (रेड क्रेस्टेड पोचार्ड), सिखपर (पिनटेल) चकवा तथा अन्य बत्तखों की नगण्य संख्या को देखकर निराशा हुई।
सर्वेक्षण से पता चला कि यहां पक्षियों के आगमन में निरन्तर ह्वास के कई कारण हैं। एक तो यहां मल्लाह निर्भय होकर मछलियों को पकड़ने के लिए जाल डालते हैं। उसी क्रम में प्रवासी पक्षी भी जाल में फंस जाते हैं, जिन्हें चोरी छिपे ऊंचे दामों में बेच दिया जाता है। इसके अलावा नजदीक के इलाके के लोग पक्षियों का शिकार रात में करते हैं। वन विभाग की ओर से इतनी बड़ी झील में मात्र दो गार्ड पदस्थापित हैं, शिकारी जिसका फायदा उठा रहे हैं। प्रवासी पक्षियों के गर्म गोश्त के सौदागरों की भी यहां कमी नहीं है। ये लोग ऊंचे दामों पर इन्हें खरीद लेते हैं। लालसर तथा दिघींच की जोड़ी 200-250 रुपये में बेची जाती है। हालांकि कुछ शिकारियों को रंगे हाथ पकड़ा भी गया पर शिकार का सिलसिला अब भी जारी है। यूट्रोफिकेशन के कारण कांवर झील का क्षेत्र काफी तेजी से सिमटता जा रहा है। झील में उगे लरकट तथा अन्य जलीय घासों (हाइडिला) के
कारण तेजी से झील की गहराई भी घटती जा रही है। झील का खुला क्षेत्र कम हो जाने के कारण बत्तखों को झील में तैरने में असुविधा होती है। आगुन्तक पक्षियों के साथ दुर्व्यवहार तथा उनकी आवास स्थली के साथ छेड़-छाड़ के कारण भी प्रवासी पक्षी कांवर झील को अपने लिए अब असुरक्षित समझने लगे हैं। इन सब कारणों के अलावा सबसे बड़ा कारण जो इस बार के सर्वेक्षण से पता चला, वह चौंकाने वाला है। कांवर झील में पक्षियों का पकड़ने के लिए शिकारी विषयुक्त पदार्थ (चारा) का इस्तेमाल करते है।
शिकारी भोज्य पदार्थों में विष मिलाकर पुरइन (निम्फिया) के पत्ते पर रख देते है। जल में तैरते हुए ये पक्षी उन विषैले पदार्थों को खाकर बेहोश हो जाते हैं, जिन्हें शिकारी आसानी से अपने कब्जे में कर लेते हैं। शिकारी विष के रूप में ‘फ्युरोडॉन’ नामक कीटनाशक का उपयोग करते है। मंझौल के एक प्रसिद्ध चिकित्सक ने झील में इस कीटनाशक दवाई के प्रयोग पर चिन्ता व्यक्त करते हुए बताया कि इसके प्रयोग से मात्र जल ही विषाक्त नहीं होता है बल्कि मछलियां एवं अन्य जैविक प्रजातियों
के अस्तित्व पर भी खतरा उत्पन्न हो जाएगा। यह विष आहार श्रृंखला द्वारा मनुष्यों तक पहुंचेगा तथा उनमें भयानक रोगों का
फैलाव होगा। धीरे-धीरे यह विष आसपास के चापाकलों तथा कुओं में भी पहुंच सकता है, जिसके कारण भविष्य में महामारी फैल सकती है। उन्होंने कहा कि इस भयानक तथ्य से इस क्षेत्र के लोगों को आगाह करना होगा।
कांवर झील और पक्षी दोनों का संवर्धन आवश्यक है। दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। प्रवासी पक्षियों की सुरक्षा के लिए जरूरत है जनसाधारण में वन्य जीवों की सुरक्षा के प्रति जागरूकता करने की। सिर्फ वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम, 1972 में लागू हो जाने से ही वन्य जीवों या पक्षियों की सुरक्षा संभव नहीं है। जरूरत है प्रकृति में उनकी उपयोगिता तथा प्राकृतिक संतुलन के बारे में जनसाधारण को समझाने की। कांवर झील में गाईस की संख्या बढ़ानी होगी।
फिलहाल झील में दो फाइबर नौकाएं गतिशील हैं। दो पैडल बोट्स वन विभाग के गेस्ट हाउस में ज्यों की त्यों पड़ी हुई हैं। झील में उग आये जलीय खर-पतवार (हाइड्रिला) इतने अधिक है कि पैडल बोटों की वहां कोई उपयोगिता नहीं हैं। अनावश्यक
जलीय पौधों को अविलम्ब हटाना आवश्यक है। इस दिशा में सरकार को पहल करनी होगी। जनसाधारण में पक्षियों तथा कांवर झील की सुरक्षा के प्रति हमेशा जागरूकता बनी रहे। इसके लिए जरूरी है कि समय-समय पर या जाड़े में यहां नेचर कैम्प या संगोष्ठियों का आयोजन किया जाय। स्वयंसेवी संगठनों को भी आगे आना होगा।
ये पक्षी किसानों के मित्र होते हैं। हानिकारक कीड़ों को खाकर ये फसलों की रक्षा करते हैं तथा संक्रामक बीमारियों को फैलने से रोकते हैं। इनकी विष्ठा में पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन रहता है जो झील तथा इसके आसपास के खेतों को उपजाऊ बनाता
है। ये मेहमान पक्षी हमें बहुत कुछ दे जाते हैं। इतना ही नहीं झील की सुन्दरता प्रदान करने में भी ये अहम् भूमिका अदा करते हैं। इन प्रवासी पक्षियों के बगैर झीलों की सुन्दरता की परिकल्पना भी करना बेगानी होगी। झील के ऊपर कलरव करते, मछलियों का शिकार करते तथा झील के किनारे सुस्ताते ये पक्षी काफी आकर्षक लगते हैं। शीतकाल में रंग-बिरंगी चिड़ियों के कारण दर्शनीय स्थल हो जाती है ये झील। अगर हम चाहते हैं कि कांवर आश्रयणी की महत्ता बनी रहे तो हमें इन मेहमान पक्षियों को बचाना होगा। इन बेजुबान परिन्दों की निर्ममता से हत्या करके हम अपनी संस्कृति और सभ्यता को धूमिल करते जा रहे हैं। बहरहाल कांवर झील की जो वर्तमान स्थिति है, यह उसके स्वस्थ पर्यावरण का शुभ संकेत नहीं देता। कांवर झील तथा पक्षियों की सुरक्षा तथा संवर्धन की दिशा में मंदार नेचर क्लब, भागलपुर का लगातार प्रयास सराहनीय है, पर सरकारी तंत्र इसे शिकारियों के चंगुल से कितना बचा पाएगा, यह कहना मुश्किल है।
जनसाधारण तथा प्रकृति प्रेमियों से आग्रह है कि वे यथासंभव पौधों तथा वन्य प्राणियों को सुरक्षा प्रदान करें ताकि आने वाले दिनों में प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति पैदा न हो और आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ एवं प्रदूषण मुक्त वातावरण मिल सके।

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