जैन और बौद्ध धर्म | Jainism and Buddhism
जैन और बौद्ध धर्म | Jainism and Buddhism
जैन और बौद्ध धर्म
ई पृ. छठी- पाँचवीं शताब्दी में मध्य गंगा के मैदानी इलाकों में कई धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हुआ, उनमें से लगभग बासठ धार्मिक सम्प्रदायों के बारे में जानकारी मिलती है। इनमे से कई सम्प्रदाय ऐसे थे जो पूर्वोत्तर भारत में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के प्रचलित धार्मिक अनुष्ठानों, रीति-रिवाजों और धार्मिक प्रथाओं पर आधारित थे। इनमें जैन और बौद्ध सबसे महत्त्वपूर्ण थे और इनका उदय सबसे शक्तिशाली धार्मिक सुधार
आन्दोलनों के रूप में हुआ।
उद्भव के कारण
उत्तर-वैदिक समाज स्पष्टत: चार वर्षों में विभाजित था-ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
प्रत्येक वर्ण का पेशा निर्धारित कर दिया गया था। हालाँकि, वर्ण जन्म पर आधारित था,
दोनों उच्च वर्णों ने तथा कथित निम्न वर्णों को दरकिनार करते हुए शक्ति, प्रतिष्ठा और
विशेषाधिकारों पर कब्जा कर लिया। ब्राह्मण, जिनका काम पूजा और शिक्षा प्रदान करना
था, उसने समाज में उच्चतम दर्जे का दावा किया। उन्होंने दान, कर और सजा से मुक्ति के
अलावा कई विशेषाधिकारों को अपने पास रखा। उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में इन विशेषाधिकारों
के प्रचलन के प्रमाण मिलते हैं। क्षत्रिय, जो वर्णक्रम में दूसरे स्थान पर थे, लड़ते थे और
शासन करते थे और किसानों से लिए गए करों पर आश्रित रहते थे। वैश्य, कृषिकर्म,
पशुपालन और व्यापार में लगे हुए थे। वे प्रमुख करदाता भी थे। हालाँकि, उन्हें दो उच्च
वर्णों के साथ ‘द्विज’ अर्थात् ‘दो बार जन्म लेने’ की श्रेणी में रखा गया था। ‘द्विज’ को
जनेऊ और वेदों के अध्ययन का अधिकार था। शूद्र वर्ण का तात्पर्य तीन उच्च वर्गों की
सेवा करने वालों से था और महिलाओं के साथ इन्हें भी वेद अध्ययन मना था। उत्तर-वैदिक
काल में वे घरेलू दास, खेतिहर दास, कारीगर और बंधुआ मजदूर की तरह काम करते थे।
उन्हें क्रूर, लालची और चोर बताया जाता था और उनमें से कुछ अस्पृश्यता के भी शिकार
थे। जिसका वर्ण जितना ऊँचा था, उसका महत्त्व भी उतना ही था; किसी अपराध के लिए
जिस अपराधी का वर्ण जितना निम्न था, उसके लिए उतने ही कठोर दण्ड का प्रावधान था।
वर्ण विभाजित समाज में तनाव स्वाभाविक रूप से पैदा हुए। वैश्यों और शूद्रों के संघर्षों
का कोई उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन क्षत्रिय, जो शासक थे, ब्राह्मणों के धार्मिक वर्चस्व
के विरुद्ध जबरदस्त प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे और जन्मना वर्ण व्यवस्था की महत्ता के
विरोध में आन्दोलन का भी नेतृत्व करते थे। क्षत्रियों ने वर्ण विशेषाधिकार का दावा करने
वाले ब्राह्मणों के वर्चस्व का विरोध किया, यह विरोध नए धर्मों की स्थापना के कई कारणों
में से एक था। जैन धर्म की स्थापना करने वाले वर्धमान महावीर और बौद्ध धर्म की स्थापना
करने वाले गौतम बुद्ध, क्षत्रिय कबीले के थे और दोनों ने ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी।
हालाँकि, उत्तर-पूर्वी भारत में इन धर्मों के उदय के असली कारण एक नई कृषि अर्थव्यवस्था
का विस्तार है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी एवं दक्षिणी बिहार के क्षेत्रों सहित पूर्वोत्तर भारत में,
लगभग 100 सेंटीमीटर बारिश होती है। बड़े पैमाने पर इन क्षेत्रों के उपनिवेश बनने से पहले
यहाँ घने जंगल थे, जिसे बिना लोहे के कुल्हाड़ी के आसानी से साफ नहीं किया जा सकता
था। यद्यपि, कुछ लोग इन क्षेत्रों में ई.पू. छठी शताब्दी से पहले रहते थे, उन्होंने हड्डी, पत्थर
और ताम्बे के औजारों का इस्तेमाल किया और झीलों एवं नदियों के किनारे या नदियों के
संगम इत्यादि पर एक घुमन्तू जीवन जीते थे, जहाँ भूमि अपरदन और बाढ़ की संभावना हमेशा
बनी रहती थी। मध्य गंगा के मैदानी इलाकों में, ई.पू. छठी शताब्दी के अन्त में बड़े पैमाने पर
बस्तियों की शुरुआत हुई, यह तब हुआ जब यहाँ लोहे का इस्तेमाल शुरू हुआ। इस क्षेत्र में
मिट्टी की नम प्रकृति के कारण प्रारम्भिक समय के कई लोहे के उपकरण नष्ट हो गए, लेकिन
ई.पू. 600-500 की मिली हुई परतों से अच्छी संख्या में कुल्हाड़ियाँ पाई गई हैं। लोहे के
औजारों के उपयोग से जंगलों की सफाई, कृषि और बड़ी बस्तियों का निर्माण सम्भव हुआ।
हल पर आधारित कृषि अर्थव्यवस्था के लिए बैलों की आवश्यकता थी, पशुपालन के बगैर
विकास सम्भव नहीं था। हालाँकि, वैदिक प्रथा के अनुसार मवेशियों की अप्रत्याशित हत्या से
नई कृषि को विकसित करने में बाधा उत्पन्न हुई। पशु धन धीरे-धीरे समाप्त हो गया, क्योंकि
कई वैदिक बलिदानों के समय गायों और बैलों की बलि दी जाती थी और मगध के दक्षिणी
और पूर्वी किनारे पर रहने वाले अवैदिक कबीले भी भोजन के लिए पशु बलि देते थे। हालाँकि,
इस नई कृषि अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए पशु बलि को रोकना आवश्यक था।
ई.पू. 500 के आस-पास, हम देखते हैं कि उत्तर-पूर्वी भारत में बड़ी संख्या में शहरों का उदय
हुआ। उदाहरण के लिए, हम इलाहाबाद के पास कौशाम्बी, कुशीनगर (उत्तर प्रदेश के देवरिया
जिले में), वाराणसी, वैशाली (उत्तर बिहार में इसी नाम से नव निर्मित। चिरन्द (सारण जिले
में), बोध गया में ताराडीह, पाटलिपुत्र, राजगीर (पटना जिले के लगभग 100 किलोमीटर
दक्षिण-पूर्व की दूरी पर स्थित) और भागलपुर जिले में चम्पा का नाम लिया जा सकता है।
वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध, दोनों का सम्बन्ध इन शहरों से था। इन शहरों में कई कारीगर
और व्यापारी काम करते थे, जिन्होंने पहली बार सिक्कों का इस्तेमाल किया। प्राचीनतम सिक्के
ई.पू. पाँचवीं शताब्दी से सम्बन्धित हैं और वे सामान्यत: पंच-चिह्नित प्रकार के थे। इनका
प्रसार पहली बार पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ। सिक्कों के इस्तेमाल ने स्वाभाविक रूप से व्यापार और वाणिज्य को सुविधाजनक बना दिया, जिससे वैश्य का महत्त्व बढ़ गया।
ब्राहमणवादी समाज में वैश्य, बारमण और क्षत्रिय के बाद तीसरे पायदान पर थे। जाहिर है, उन्हें
एक ऐसे धर्म की आवश्यकता थी, जिससे उनकी स्थिति सुधरे। क्षत्रिय के अलावा, वैश्य ने
महावीर और गौतम बुद्ध दोनों को अपार समर्थन प्रदान किया। व्यापारियों ने, जिन्हें सेठी कहा
जाता था, गौतम बुद्ध और उनके शिष्यों को सुन्दर उपहार दिये। इसके कई कारण थे। सबसे
पहले, प्रारम्भिक चरण में जैन और बौद्ध धर्म ने विद्यमान वर्ण व्यवस्था को कोई महत्त्व नहीं
दिया। दूसरा, उन्होंने अहिंसा का उपदेश दिया, जिससे विभिन्न राज्यों के बीच युद्ध का अन्त
होने के फलस्वरूप व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा मिला। तीसरा, ब्राह्मणवादी ग्रन्थों, जिसे
धर्मसूत्र कहा जाता था, ने ब्याज पर धन उधार देने और ब्याज पर जीने वाले लोगों की निन्दा
की। इसलिए, वैश्य, जो बढ़ते व्यापार और वाणिज्य के कारण पैसे उधार दे रहे थे, को कम
महत्त्व मिला, जबकि वे एक बेहतर सामाजिक स्थिति के लिए प्रयास कर रहे थे।
दूसरी तरफ, निजी सम्पत्ति के विभिन्न स्वरूपों के विरुद्ध कड़ी प्रतिक्रिया भी मिलती है।
पुराने जमाने के लोगों को चाँदी, ताम्बे और सम्भवत: सोने के सिक्कों का उपयोग और संचय
पसन्द नहीं था। उन्हें नए घर और कपड़े, परिवहन की आरामदायक व्यवस्था, युद्ध और हिंसा
इत्यादि पसन्द नहीं थे। सम्पत्ति के नए रूपों ने सामाजिक असमानताएँ पैदा की, जो सामान्य
लोगों के लिए दु:ख और पीड़ा का कारण बनी। इसलिए, आम लोग पुरानी जीवन-शैली,
सम्पत्ति के नए रूपों और नई शैली-जीवन से मुक्त एक आदर्श स्थिति की ओर लौट जाना
चाहते थे। जैन और बौद्ध-दोनों धर्मों ने सरल, शुद्ध, संयमित जीवन का प्रसार किया। बौद्ध
और जैन भिक्षुओं को जीवन की आराम पसन्द चीजें त्यागने को कहा गया; उन्हें सोने, चाँदी को
छूने की अनुमति नहीं थी। उन्हें अपने संरक्षकों से केवल उतना ही स्वीकार करने की इजाजत
थी, जो शरीर और आत्मा को साथ-साथ रख सके। इसलिए, उन्होंने गंगा घाटी की नई जीवन
शैली से उत्पन्न होने वाले भौतिक लाभों के विरुद्ध विद्रोह किया। दूसरे शब्दों में, हमें ई.पू.
छठी और पाँचवीं शताब्दी में मध्य गंगा के मैदान में भौतिक जीवन में हुए बदलावों के बारे में
वैसी प्रतिक्रिया मिलती है, जैसी आधुनिक समय में औद्योगिक क्रान्ति से हुए परिवर्तनों के बारे
में है। जैसे औद्योगिक क्रान्ति के आने से, बहुत से लोग मशीन-पूर्व काल की जीवनशैली में
लौट जाना चाहते थे, वैसे ही प्राचीन काल में, लोग लौह-पूर्व काल में वापस जाना चाहते थे।
वर्धमान महावीर और जैन धर्म
जैन लोगों का मानना था कि उनके सबसे महत्त्वपूर्ण धार्मिक गुरु महावीर के तेईस और
पूर्ववर्ती गुरू थे, जिन्हें तीर्थंकर कहा जाता था। यदि महावीर को आखिरी या चौबीसवाँ
तीर्थकर माना जाए, तो जैन धर्म का उद्भवकाल ई.पू. नौवीं शताब्दी है। कुछ जैनों
के अनुसार ऋषभदेव, पहले तीर्थंकर या जैन गुरु थे, लेकिन वे अयोध्या से जुड़े थे, जो
ई.पू. 500 में ही बसा था। पन्द्रहवीं सदी तक, अधिकांश तीर्थंकरों का जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ था, लेकिन उनकी ऐतिहासिकता बेहद सन्दिग्ध है। मध्य गंगा मैदानों का
कोई हिस्सा ई.पू. पाँचवीं शताब्दी के पहले किसी हाल में नहीं बस पाया था। जाहिर है कि
तीर्थंकरों की पौराणिक कथा, जिनमें से अधिकतर का जन्म मध्य गंगा घाटी में और निर्वाण
बिहार में प्राप्त हुआ, सम्भवतः प्राचीनता से जैन धर्म को जोड़ने के उद्देश्य से प्रेरित हो। जैन
धर्म की सबसे प्रारम्भिक महत्त्वपूर्ण शिक्षा का श्रेय पार्श्वनाथ को जाता है, जो तेईसवें तीर्थंकर
थे और बनारस के थे, उन्होंने शाही जीवन त्याग दिया और संन्यासी बन गए। हालाँकि,
उनके आध्यात्मिक उत्तरवर्ती वर्धमान महावीर, जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक थे।
महान सुधारक वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध के जन्म और मृत्यु का सही समय
बता पाना मुश्किल है। एक परम्परा के अनुसार, वर्धमान महावीर का जन्म ई.पू. 540 में
वैशाली के निकट एक गाँव में हुआ था, जो उत्तर बिहार के वैशाली जिले के बसढ़ के साथ
लगा हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ एक प्रसिद्ध क्षत्रिय कबीले के प्रमुख थे और उनकी माँ,
त्रिशला, लिच्छवी शासक चेतक की बहन थीं, जिनकी बेटी की शादी बिम्बिसार से हुई थी।
इस प्रकार, महावीर का परिवार मगध के शाही परिवार से जुड़ा था और इन शाही सम्बन्धों
ने उनकी उद्देश्य पूर्ति के लिए राजकुमारों और कुलीनों से सम्पर्क करना आसान बना दिया।
प्रारम्भ में, महावीर ने गृहस्थ जीवन बिताया, लेकिन सच की तलाश में वे 30 साल की
आयु में सांसारिक दुनिया छोड़कर संन्यासी बन गए। बारह वर्षों तक जगह-जगह घूमते
रहे, किसी एक गाँव में एक दिन से अधिक और किसी एक शहर में पाँच दिन से अधिक
नहीं ठहरे। कहा जाता है कि बारह वर्ष की अपनी लम्बी यात्रा के दौरान उन्होंने कभी अपने
कपड़े नहीं बदले; सर्वज्ञता (कैवल्य) प्राप्ति के बाद, 42 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने
शरीर के वस्त्र को पूरी तरह त्याग दिया। कैवल्य के माध्यम से उन्होंने अपने अवसाद और
प्रसन्नता पर विजय प्राप्त की। इस विजय के कारण उन्हें महावीर या महानायक या जिना,
जिसका अर्थ विजेता है, के रूप में जाना जाता है और उनके अनुयायियों को जैन कहा जाता
था। उन्होंने अपने धर्म को तीस साल तक प्रचारित किया और अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु वे
कोशल, मगध, मिथिला, चम्पा और अन्य जगहों पर गए। ई.पू. 468 में 72 साल की आयु
में आधुनिक राजगीर के निकट पावापुरी नामक स्थान पर उनका निधन हुआ।
एक अन्य परम्परा के अनुसार उनका निधन ई.पू. 527 में हुआ, लेकिन पुरातत्त्व ई.पू.
छठी शताब्दी में उनके अस्तित्व की पुष्टि नहीं करता। उनसे सम्बन्धित कस्बे और बस्तियाँ
ई.पू. 500 तक अस्तित्व में नहीं आए थे।
जैन धर्म के सिद्धान्त
जैन धर्म ने पाँच सिद्धान्त सिखाए-(i) हिंसा मत करो, (ii) झूठ मत बोलो, (iii) चोरी
मत करो, (iv) संचय मत करो और (v) इन्द्रिय-निग्रह (ब्रह्मचर्य) का पालन करो। कहा
जाता है कि महावीर ने केवल पाँचवाँ सिद्धान्त जोड़ा, अन्य चार उन्होंने अपने पूर्ववर्ती गुरुओं से लिया था। जैन धर्म ने अहिंसा या जीवित प्राणियों को घायल न करने पर बल
दिया। इसके परिणाम कभी-कभी बुरे हुए, क्योंकि कुछ जैन राजाओं ने जानवरों की हत्या
के दोषी व्यक्तियों को मृत्युदण्ड दिया।
हालाँकि, महावीर के पूर्ववर्ती, पार्श्वनाथ, ने अपने अनुयायियों से अपने शरीर के ऊपरी
और निचले हिस्से को ढंकने के लिए कहा था, महावीर ने उन्हें पूरी तरह से कपड़े त्यागने
को कहा। इसका अर्थ है कि महावीर ने अपने अनुयायियों को अधिक सादा जीवन जीने की
कहा। इसलिए, बाद के समय में, जैन धर्म दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया, श्वेताम्बा,
जो सफेद वस्त्र पहनते थे और दिगम्बर जो नग्न रहते थे।
जैन धर्म ने देवताओं के अस्तित्व को मान्यता दी, किन्तु उनका स्थान जिना से कमतर
आंका गया है। बौद्ध धर्म की तरह उसने वर्ण व्यवस्था की निन्दा नहीं की। महावीर के
अनुसार, एक व्यक्ति अपने पूर्वजन्मों के पापों या पुण्यों के फलस्वरूप निम्न वर्णों या
ऊँचे वर्गों में जन्म लेता है। चाण्डाल में भी महावीर मनुष्योचित गुण तलाशते हैं। उनके
अनुसार, शुद्ध और योग्यतापूर्ण जीवन के माध्यम से निम्न जातियों के लोग मुक्ति प्राप्त
कर सकते हैं। जैन धर्म का मुख्य उद्देश्य सांसारिक बन्धनों से स्वतन्त्रता प्राप्त करना है।
वैसे मुक्ति के लिए कोई अनुष्ठान आवश्यक नहीं है। यह सही ज्ञान, सही विश्वास और
सही अमल के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। ये तीन जैन धर्म के तीन गहने या
त्रिरत्न माने जाते हैं।
जैन धर्म ने अपने अनुयायियों को युद्ध और यहाँ तक कि कृषिकार्य से भी रोका; क्योंकि
दोनों में जीवित प्राणियों की हत्या होती थी। अन्ततः जैनों ने स्वयं को मुख्यत: वाणिज्य और
व्यापारिक गतिविधियों तक सीमित कर लिया।
जैन धर्म का प्रसार
जैन धर्म की शिक्षा के प्रसार के लिए, महावीर ने अपने अनुयायियों में ऐसी व्यवस्था
बनाई, जिसमें पुरुष एवं महिला दोनों शामिल हो सकते थे। उन्होंने आम लोगों की भाषा
प्राकृत में अपनी शिक्षाओं का प्रचार किया। कहा जाता है कि उनके अनुयायियों की
संख्या 14,000 थी, जो बहुत बड़ी संख्या नहीं है। चूँकि जैन धर्म ने ब्राह्मण धर्म से कोई
स्पष्ट भिन्नता नहीं रखी, इसलिए यह जनता को आकर्षित करने में विफल रहा। इसके
बावजूद, जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण और पश्चिम भारत में फैला, जहाँ ब्राह्मणवाद कमजोर
था। उत्तरवर्ती परम्परा के अनुसार, कर्नाटक में जैन धर्म के प्रसार का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य
(ई.पू.9322-298) को जाता है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म अपना लिया था, अपना
सिंहासन छोड़कर, कर्नाटक में अपने जीवन के आखिरी वर्ष जैन संन्यासी के रूप में
बिताया, लेकिन इस परम्परा की पुष्टि किसी अन्य स्रोत से नहीं हुई है। दक्षिण भारत में
जैन धर्म के प्रसार का दूसरा कारण महावीर की मृत्यु के 200 वर्षों के बाद मगध में हुआ महान अकाल था। यह अकाल बारह वर्षों तक चला और आत्मरक्षा के लिए कई जैन
भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण चले गए, हालाँकि बाकी जैन स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध
में ही रहे। प्रवासी जैन ने दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रसार किया। अकाल की समाप्ति पर,
वे मगध लौट आए, जहाँ उनका स्थानीय जैनों के साथ मतभेद हो गया। जो लोग
दक्षिण से लौटे थे, उन्होंने दावा किया कि अकाल के दौरान भी उन्होंने धार्मिक नियमों
का दृढ़तापूर्वक पालन किया। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि मगध में रहने वाले जैन
सन्तों ने उन नियमों का उल्लंघन किया और वे नियमों के प्रति ढीले हो गए। इन मतभेदों
को पाटने के लिए और जैन धर्म की मुख्य शिक्षाओं के संकलन के लिए, पाटलिपुत्र,
आधुनिक पटना, में एक परिषद बुलाई गई, लेकिन दक्षिण से लौटे जैनों ने इसका
बहिष्कार किया और इसके निर्णयों को मानने से इनकार कर दिया। इसके बाद, दक्षिण
से लौटे जैन दिगम्बर और मगध के जैन श्वेताम्बर कहलाए। जिस परम्परा में सूखे को इस
कारण के रूप में जिम्मेदार बताया गया है, वह उसके बाद की है और सन्देहास्पद मानी
जाती है। हालाँकि, इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैनों को दो सम्प्रदायों में विभाजित किया
गया, लेकिन कर्नाटक में जैन धर्म के प्रसार के पुरातात्विक साक्ष्य तीसरी शताब्दी ईस्वी
से प्राचीन नहीं हैं। परवर्ती शताब्दियों में, विशेष रूप से पाँचवीं शताब्दी के बाद, कई
जैन मठों की स्थापना हुई, जिन्हें बसादिस कहते हैं, कर्नाटक में इनका पर्याप्त विकास
हुआ; वहीं के राजाओं के समर्थन और उनके द्वारा दी गई जमीनों पर इनकी स्थापना हुई।
ई.पू. चौथी शताब्दी में जैन धर्म उड़ीसा के कलिंग में फैला, इसे ई.पू. पहली शताब्दी
में कलिंग राजा खारवेल का संरक्षण प्राप्त हुआ, जिन्होंने आन्ध्र और मगध के राजाओं को
हराया था। ई.पू. दूसरी और पहली शताब्दी में, यह तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों तक पहुँच
गया था। आने वाली शताब्दियों में मालवा, गुजरात और राजस्थान में जैन धर्म का प्रवेश
हुआ; इन क्षेत्रों में आज भी जैनों की बड़ी संख्या है, वहाँ जैन धर्मावलम्बी मुख्य रूप से
व्यापार और वाणिज्य में लगे हुए हैं। यद्यपि जैन धर्म को बौद्ध धर्म की तरह न तो अधिक
राज्य-संरक्षण प्राप्त हो सका और न ही यह प्राचीन समय में अधिक तेजी से फैल पाया,
फिर भी, जहाँ भी फैला, वहाँ आज भी बरकरार है। दूसरी ओर, भारतीय उपमहाद्वीप से
बौद्ध धर्म लगभग गायब हो गया।
जैन धर्म का योगदान
जैन धर्म ने वर्ण व्यवस्था और आनुष्ठानिक वैदिक धर्म की बुराइयों को कम करने का
पहला गम्भीर प्रयास किया। प्रारम्भिक जैनों ने ब्राह्मणों द्वारा संरक्षण प्राप्त संस्कृत भाषा को
त्याग दिया। उन्होंने अपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिए सामान्य लोगों की भाषा, प्राकृत को
अपनाया। उनका धार्मिक साहित्य अर्धमगधी में लिखा गया था और अन्तत: छठी शताब्दी में
गुजरात में शिक्षा के एक बड़े केन्द्र वल्लभी नामक एक स्थान पर ग्रन्थों को संकलित किया गया। जैनों द्वारा प्राकृत अपनाने से इस भाषा और साहित्य का विकास हुआ। प्राकृत से कई
क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हुआ, विशेषकर शौरसेनी, जिससे मराठी भाषा विकसित हुई।
जैनों ने अपभ्रंश में सबसे महत्त्वपूर्ण काम किए और इसके पहले व्याकरण की रचना की।
जैन साहित्य में महाकाव्य, पुराण, उपन्यास और नाटक शामिल हैं। जैन के लेखन का एक
बड़ा प्रतिशत अभी भी पाण्डुलिपि के रूप में है, जिसका अभी तक प्रकाशन नहीं हो पाया है
और ये गुजरात एवं राजस्थान के जैन मन्दिरों में पाए जाते हैं। प्रारम्भिक मध्ययुगीन काल में,
जैनों ने भी संस्कृत का पर्याप्त उपयोग किया और इसमें कई ग्रन्थ लिखे। यह उल्लेखनीय है
कि उन्होंने कन्नड़ के विकास में पर्याप्त योगदान दिया, जिसमें उन्होंने खूब लिखा।
प्रारम्भ में, बौद्धों की तरह, जैन, प्रतिमा पूजक नहीं थे। बाद में वे महावीर और तेईस
तीर्थंकरों की पूजा करने लगे। इस उद्देश्य से पत्थरों की खूबसूरत और बड़ी मूर्तियाँ निर्मित
हुई, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में खास तौर पर। प्राचीन काल में जैन
कला अपने समकक्षी बौद्ध कला से समृद्ध नहीं थी, लेकिन मध्ययुगीन काल में कला और
वास्तुकला में जैन धर्म ने पर्याप्त योगदान दिया।
गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म
गौतम बुद्ध, या सिद्धार्थ, महावीर के समकालीन थे। परम्परा के अनुसार, उनका जन्म
ई.पू. 567 में कपिलवस्तु के पास नेपाल के लुम्बिनी में शाक्य क्षत्रिय परिवार में हुआ था,
जिसे बस्ती जिले में पिपरहवा नाम से पहचाना जाता है और नेपाल की तराई के करीब है।
गौतम के पिता कपिलवस्तु के चुने हुए शासक थे, उन्होंने शाक्य गणतान्त्रिक कबीले का
नेतृत्व किया। उनकी माँ कोशल राजवंश की राजकुमारी थी। इस प्रकार, महावीर की तरह,
गौतम भी एक महान परिवार के थे। एक गणतांत्रिक कबीले में जन्म होने के कारण, उन्हें
समानतावादी विचार विरासत में मिला।
बचपन से ही गौतम चिंतनशील स्वभाव के थे। उनका विवाह जल्दी हो गया था, लेकिन
विवाहित जीवन में उन्हें दिलचस्पी नहीं थी। वे दुनिया के लोगों की पीड़ा देखकर पीड़ित थे,
जिसका वे हल चाहते थे। महावीर की तरह, उन्होंने 29 वर्ष की आयु में घर छोड़ दिया।
सात वर्षों तक जगह-जगह भटकते रहे और फिर 35 साल की आयु में बोधगया में पीपल
के पेड़ के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ। इसी के बाद से उन्हें बुद्ध कहा जाने लगा और आत्मज्ञानी
के रूप में जाना गया।
गौतम बुद्ध ने बनारस के सारनाथ में अपना पहला धर्मोपदेश दिया। उन्होंने लम्बी
यात्रा शुरू की और अपने सन्देश को दूर-दूर तक फैलाया। उनका शरीर बहुत मजबूत
था, वे प्रतिदिन 20 से 30 किलोमीटर तक चलते थे। वे चालीस वर्षों तक लगातार
भटकते रहे, उपदेश देते रहे और चिन्तन करते रहे, केवल वर्षा ऋतु में वे आराम करते
थे। इस लम्बी अवधि के दौरान उन्होंने ब्राह्मणों सहित प्रतिद्वन्द्वी सम्प्रदायों के कई कट्टर समर्थकों का सामना किया, बहस में उन्हें पराजित किया। उनकी प्रचारक गतिविधियाँ
अमीर-गरीब, उच्च-निम्न, एवं पुरुष-महिला के बीच भेदभाव नहीं करती थीं। कुशीनगर
नामक स्थान पर 80 वर्ष की आयु में ई.पू. 487 में गौतम बुद्ध का निधन हुआ, जो पूर्वी
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में कसिया नामक गाँव के रूप में जाना जाता है। हालांकि,
वर्धमान महावीर की तरह, ई.पू. छठी शताब्दी में गौतम बुद्ध के अस्तित्व का पुरातात्विक
साक्ष्य नहीं मिलता। बुद्ध ने कौशम्बी, श्रावस्ती, वाराणसी, वैशाली और राजगढ़… जिन
शहरों का दौरा किया था, ई.पू. पाँचवीं शताब्दी तक इनमे से कोई भी शहर के चरित्र
वाले स्थान नहीं बन पाए थे।
बौद्ध धर्म के सिद्धान्त
बुद्ध एक व्यावहारिक सुधारक थे, जिन्होंने उस काल की वास्तविकताओं का ख्याल रखा।
उन्होंने खुद को आत्मा और परमात्मा के निरर्थक विवाद में शामिल नहीं किया, जो उन
दिनों ज्वलन्त मुद्दा था, बल्कि वे सांसारिक समस्याओं से जूझते थे। उन्होंने कहा कि दुनिया
दुःख से भरी है और इच्छा ही लोगों के दुःख का कारण है। अगर इच्छाओं पर विजय
प्राप्त कर लिया जाए, तो निर्वाण प्राप्त होता है, यानि, मनुष्य जन्म और मृत्यु के चक्र से
मुक्त हो जाता है।
गौतम बुद्ध ने मानव दु:ख के उन्मूलन के लिए आठ गुणों वाले मार्ग (अष्टांगिक माग)
के बारे में बताया। ई.पू. तीसरी शताब्दी के ग्रन्थ में इसका श्रेय उन्हें दिया जाता है। इसमें
सही अवलोकन, सही निर्धारण, सही भाषण, सही अमल, सही आजीविका, सही प्रयास,
सही जागरूकता और सही चिन्ता शामिल हैं। यदि कोई व्यक्ति इस आठ गुणों वाले मार्ग का
अनुसरण करता है, तो वह स्वयं पुरोहितों के चंगुल से मुक्त हो जाएगा और अपने गन्तव्य
तक पहुँच जाएगा। गौतम ने बताया कि एक व्यक्ति को विलासिता और सादगी दोनों के
अति से बचना चाहिए, उन्होंने मध्य मार्ग अपनाने की सलाह दी।
बुद्ध ने भी अपने अनुयायियों के लिए जैन गुरुओं के समान आचरण संहिता बनाई। इसके
मुख्य सिद्धान्त हैं : (i) हिंसा मत करो (ii) दूसरों की सम्पत्ति का लालच मत रखो (iii)
नशीले पदार्थों का सेवन मत करो (iv) झूठ मत बोलो (v) यौन दुराचार और व्यभिचार में
शामिल मत हो। वस्तुत: सामाजिक आचरण के लिए सभी धर्मों में ये शिक्षाएँ आम हैं।
बौद्ध धर्म की विशेषताएँ और उसके प्रसार का कारण
ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को बौद्ध धर्म नहीं मानता। भारतीय धर्मों के इतिहास में इसे
एक तरह की क्रान्ति के रूप में देखा जा सकता है। प्रारम्भिक बौद्ध दार्शनिक चर्चा में नहीं
उलझते थे, आम लोगों से अपील करते थे, विशेष रूप से निम्नस्तरीय लोगों का समर्थन हासिल था, क्योंकि यह वर्ण व्यवस्था पर हमला करता था। बगैर किसी जातिगत भेदभाव
के बौद्ध संघ में लोगों को स्वीकृति थी; संघ में महिलाओं को भी पुरुषों के बराबर दर्जे से
शामिल किया जाता था। ब्राह्मणवाद की तुलना में बौद्ध धर्म उदार और लोकतान्त्रिक था।
गैर-वैदिक क्षेत्र के लोगों को बौद्ध धर्म ने विशेष रूप से आकर्षित किया, यहाँ इसके
प्रसार हेतु उर्वर वातावरण था। रूढ़िवादी ब्राह्मणों द्वारा अवमानना पाने से क्षुब्ध मगध के
लोग बौद्ध धर्म से सहजता से जुड़े। मगध क्षेत्र आधुनिक उत्तर प्रदेश तक फैले आर्यों की
पवित्र भूमि, आर्यवर्त की सीमा से बाहर था। पुरानी परम्परा आज भी बरकरार है; उत्तर
बिहार के लोग गंगा के दक्षिण, मगध में अन्तिम संस्कार करना पसन्द नहीं करते।
बौद्ध धर्म के प्रसार में बुद्ध का व्यक्तित्व और उनकी यह प्रविधि मददगार साबित हुई।
उन्होंने बुराई को भलाई से और नफरत को प्यार से जीतने को कहा; बदनामी और गालियों
से उत्तेजित होने से मना किया। उन्होंने कठिन परिस्थितियों में अपना सन्तुलन बनाए रखा;
अपनी वाक्पटुता एवं प्रत्युत्पन्नमति से अपने विरोधियों का सामना करते रहे। कहा जाता
है कि एक बार किसी अज्ञानी व्यक्ति ने उन्हें गाली दे दी। बुद्ध चुपचाप उसकी बात सुनते
रहे, जब उसने गाली देना बन्द किया, तब बुद्ध ने पूछा, ‘बन्धु, अगर कोई व्यक्ति किसी
का उपहार स्वीकार न करे, तो उसका क्या होगा?’ उस विरोधी ने जवाब दिया : ‘वह उस
व्यक्ति के पास रह जाएगा, जो देना चाहता है।’ बुद्ध ने फिर कहा, ‘बन्धु, मैं आपकी ये
गालियाँ अस्वीकृत करता हूँ।’
बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में, ई.पू. 500 के आस-पास शुरू हुई भाषा, पाली (प्राकृत
का एक रूप) ने बड़ा योगदान दिया। इससे आम लोगों के बीच बौद्ध सिद्धान्तों के प्रसार में
मदद मिली। संघ या धार्मिक व्यवस्था का संघटन गौतम बुद्ध ने भी किया, जिसके दरवाजे
प्रत्येक जाति, पन्थ और लिंग के लिए खुले थे। हालाँकि, दास, सैनिक और कर्जदार इसमें
भर्ती नहीं हो सकते थे। भिक्षुओं को संघ के नियमों और कानूनों का पालन ईमानदारी से
करना जरूरी था। एक बार उन्हें बौद्ध संघ के सदस्यों के रूप में शामिल कर लिया जाता,
तो उन्हें संयम, भिक्षाटन और विश्वास का शपथ लेना पड़ता था। इस प्रकार बौद्ध धर्म
में तीन प्रमुख तत्त्व हैं : बुद्ध, धम्म और संघ। संघ के तत्त्वावधान में संगठित प्रचार के
परिणामस्वरूप, बौद्ध धर्म ने बुद्ध के जीवन काल के दौरान ही तेजी से प्रगति की। मगध,
कोशल और कौशाम्बी के साम्राज्य और कई गणतान्त्रिक राज्यों और उनके लोगों ने इस
धर्म को अपनाया।
की मृत्यु के दो सौ साल बाद, प्रसिद्ध मौर्य राजा अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया।
यह एक युगान्तरकारी घटना थी। अपने प्रचारकों के माध्यम से अशोक ने बौद्ध धर्म को
मध्य एशिया, पश्चिम एशिया और श्रीलंका में प्रसारित किया और इस प्रकार इसे एक
विश्व-धर्म में बदल दिया। आज भी श्रीलंका, बर्मा (म्यांमार), तिब्बत, चीन और जापान
के कुछ हिस्सों में बौद्ध धर्म है। यद्यपि बौद्ध धर्म अपने जन्मभूमि से ही गायब हो गया, यह
दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्वी एशिया के देशों में आज भी बना हुआ है।
बौद्ध धर्म के पतन का कारण
बारहवीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म भारत से लगभग विलुप्त हो गया। ग्यारहवीं शताब्दी तक,
यह बंगाल और बिहार में परिवर्तित रूप में था, लेकिन उसके बाद बौद्ध धर्म लगभग पूरी
तरह से भारत से गायब हो गया, यह कैसे हुआ? हम पाते हैं कि शुरुआत में प्रत्येक धर्म
की भावना से प्रेरित होता है, लेकिन अन्तत: यह उसी रीति-रिवाजों और समारोहों
का हिस्सा हो जाता है, जिससे यह जूझ रहा होता है। बौद्ध धर्म में इसी प्रकार का बदलाव
हुआ। यह ब्राह्मणवाद की बुराई का शिकार बन गया, जिसके विरुद्ध उसने शुरू में संघर्ष
किया था। बौद्धों की चुनौती के अनुरूप, ब्राह्मणों ने अपने धर्म में सुधार किया। उन्होंने पशु
धन की रक्षा की आवश्यकता पर बल दिया और महिलाओं और शूद्रों को स्वर्ग-प्रवेश का
आश्वासन दिया। दूसरी ओर, बौद्ध धर्म, बदतर होता चला गया। बौद्ध भिक्षु क्रमश: लोगों
के जीवन की मुख्य धारा से कट गए; उन्होंने लोगों की भाषा, पाली, को छोड़ दिया और
बुद्धिजीवियों की भाषा संस्कृत को अपना लिया। पहली शताब्दी के बाद, वे बड़े पैमाने पर
मूर्ति पूजा करने लगे और भक्तों से कई प्रसाद लेने लगे। बौद्ध मठों के लिए उदार राजशाही
द्वारा प्रदत्त समृद्ध प्रसाद ने भिक्षुओं के जीवन को आसान बना दिया। नालन्दा जैसे कुछ
मठों ने 200 से अधिक गाँवों से राजस्व एकत्र किया। सातवीं शताब्दी तक, बौद्ध मठों में
आराम पसन्द लोगों का वर्चस्व बढ़ा और वे गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिबन्धित, भ्रष्ट प्रथाओं के
केन्द्र बन गए। बौद्ध धर्म का नया रूप वज्रयान के रूप में जाना जाता था। मठों में बढ़ते
अपार धन और यौनिक गतिविधियों से यह और पतन की ओर चला गया। महिला को
बौद्ध कामलोलुप दृष्टि से देखने लगे। कहा जाता है कि बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द
से कहा था-‘मठों में महिलाओं को भर्ती न किया जाता तो बौद्ध धर्म एक हजार साल
तक जारी रहता, लेकिन चूँकि उसे प्रवेश दिया गया है, इसलिए यह केवल पाँच सौ साल
में खत्म हो जाएगा।’
कहते हैं कि ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों का जनसंहार किया था। छठी-
सातवीं शताब्दियों में उत्पीड़न की कई घटनाएँ मिलती हैं। शिव के परम भक्त, हूण राजा
मिहिरकुल, ने सैकड़ों बौद्धों को मार डाला। गौड़ा के शैव शशांक ने बोधगया में बोधिवृक्ष
काट दिया, जहाँ बुद्ध ने आत्मज्ञान प्राप्त किया था। वेन साँग बताते हैं कि 1600 स्तूप और
मठों को नष्ट कर दिया गया और हजारों भिक्षुओं और अनुयायियों की हत्या कर दी गई; ये
सब बिना किसी तथ्य के नहीं हो सकते। बौद्ध प्रतिक्रियाओं को बौद्ध मन्दिरों में देखा जा
सकता है, जिसमें बौद्ध ब्राह्मणवादी हिन्दू देवताओं के ऊपर वर्चस्व करते दिखाया गया है।
दक्षिण भारत में शैव और वैष्णव ने शुरुआती मध्ययुगीन काल में जैनों और बौद्धों का कड़ा
विरोध किया। इन संघर्षों से बौद्ध धर्म कमजोर हुआ होगा।
अपार धन के कारण ये मठ तुर्की आक्रमणकारियों की नजर में आए और लालची
आक्रमणकारियों ने इसे निशाना बनाया। तुर्को ने बिहार में बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुओं की हत्या की, हालांकि कुछ भिक्षु नेपाल और तिब्बत भागने में कामयाब रहे। हर हाल
में, बारहवीं शताब्दी तक, बौद्ध धर्म वास्तव में अपनी जन्मभूमि भारत से गायब हो गया।
बौद्ध धर्म का महत्त्व और प्रभाव
एक संगठित धर्म के रूप में लुप्त होने के बावजूद, बौद्ध धर्म ने भारतीय समाज और
अर्थव्यवस्था पर अपना प्रभाव छोड़ा। ई.पू. 500 के आस-पास बौद्धों ने उत्तर-पश्चिम के
लोगों की समस्याओं के बारे में गहरी जागरूकता दिखाई। लोहे के हल से की जाने वाली
खेती, व्यापार, और सिक्कों के इस्तेमाल से व्यापारीगण और रईस लोग धन इकट्ठा करने में
सक्षम हुए सुना जाता है कि लोगों के पास अस्सी कोटि धन होते थे। इन सबसे स्वभावत:
सामाजिक और आर्थिक असमानताओं का निर्माण हुआ। बौद्ध धर्म ने इसलिए लोगों को
सलाह दी थी कि धन इकट्ठा न करें। इसके फलस्वरूप घृणा, क्रूरता और हिंसा, गरीबी
आदि व्यापक पैमाने पर बढ़ी। इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए, बुद्ध ने सिखाया कि
किसानों को अनाज एवं अन्य सुविधाएँ, व्यापारियों को पूँजी और बेरोजगारों को रोजगार की
सुविधाएँ दी जानी चाहिए। दुनिया भर से गरीबी उन्मूलन के लिए इन तरीकों को अपनाने
की सलाह दी गई। बौद्ध धर्म ने यह भी सिखाया कि भिक्षुओं को यदि कोई गरीब दान देते
हैं, तो वे अगले जन्म में धनी पैदा होंगे।
भिक्षुओं के लिए निर्धारित आचार संहिता ई.पू. पाँचवीं-चौथी शताब्दी में उत्तर-पूर्व
भारत की भौतिक स्थितियों के विरुद्ध उठी प्रतिक्रिया का द्योतक है। यह संहिता भिक्षुओं
के भोजन, वस्त्र एवं यौन-व्यवहार पर प्रतिबन्ध लगाती है। वे सोने, चाँदी स्वीकार नहीं
कर सकते थे, क्रय-विक्रय का सहारा नहीं ले सकते थे। बुद्ध की मृत्यु के बाद इन नियमों
को ढीला छोड़ दिया गया, लेकिन प्रारम्भिक नियम एक तरह के आदिम साम्यवाद,
व्यापार और उन्नत कृषि से परहेज रखने वाले कबीलाई समाज की विशेषता की वापसी
का संकेत देते हैं। भिक्षुओं के लिए निर्धारित आचार संहिता आंशिक रूप से धन, निजी
सम्पत्ति और विलासी जीवन के उपयोग के विरुद्ध विद्रोह का द्योतक है, जिस समय
ई.पू. पाँचवीं शताब्दी में उत्तर-पूर्व भारत में सम्पत्ति और पैसा विलासिता का सूचक
माना जाता था।
ई.पू. पाँचवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म ने नए भौतिक जीवन से उत्पन्न बुराइयों को नकारने
की कोशिश की, इसने लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन को भी बदलने की कोशिश
की। कर्जदारों को संघ में शामिल होने की मनाही से उन्हें साहूकारों और धनी लोगों के
चंगुल से छुड़ाना मुश्किल हो गया। इसी तरह, गुलामों के लिए संघ में शामिल न होने की
पद्धति से मालिकों को गुलाम बनाने में मदद मिली। इस प्रकार, गौतम बुद्ध के नियमों और
उपदेशों ने समय के साथ बदलते भौतिक जीवन को समझा और उन्हें वैचारिक रूप से
मजबूती प्रदान की।
हालाँकि बौद्ध भिक्षुओं ने सांसारिकता त्याग दी थी और वे बार-बार लालची ब्राह्मणों
की आलोचना करते थे, लेकिन कई तरह से वे ब्राह्मणों से मिलते भी थे। दोनों ने सीधे
उत्पादन में हिस्सा नहीं लिया; वे समाज द्वारा दिए गए दान या उपहारों पर आश्रित थे।
उन्होंने पारिवारिक दायित्वों, निजी सम्पत्ति की रक्षा और राजनीतिक अधिकार के सम्मान
करने के गुणों पर जोर दिया। दोनों ने वर्ग आधारित सामाजिक व्यवस्था का समर्थन किया;
हालाँकि, भिक्षुओं की दृष्टि में वर्ण, कर्मों और गुणों पर आधारित थे, जबकि ब्राह्मणों की
दृष्टि में वर्ण, जन्म पर आधारित था।
निःसन्देह बौद्ध शिक्षण का उद्देश्य व्यक्ति के मोक्ष या निर्वाण को सुरक्षित करना था।
पुराने समतावादी समाज के विघटन और निजी सम्पत्ति के कारण घोर सामाजिक असमानता
के उदय के कारण खुद को समायोजित करने में जिन लोगों को मुश्किल पड़ रहा था,
उनके लिए कुछ रास्ते बनाए गए, लेकिन ऐसा भिक्षुओं तक ही सीमित था। अनुयायियों के
लिए और कोई रास्ता नहीं था, अत: उन्हें मौजूदा स्थिति से समझौता कर लेने का उपदेश
दिया गया।
बौद्ध धर्म ने अपने दरवाजे को महिलाओं और शूद्रों के लिए खुला रखकर समाज पर
एक महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला। ब्राह्मणवाद के अन्तर्गत महिलाओं और शूद्रों को एक ही श्रेणी
में रखा गया था, वे न तो जनेऊ धारण कर सकते थे और न उन्हें वेद-पाठ की अनुमति थी।
बौद्ध धर्म अपनाने से उन्हें उनकी इस निम्न पहचान से मुक्ति मिली। बौद्ध धर्म ने मजदूर
श्रमिक का तिरस्कार नहीं किया। बोधगया से प्राप्त दूसरी शताब्दी की मूर्तिकला. में, बुद्ध
को बैल के साथ जुताई करते दर्शाया गया है।
अहिंसा और पशु जीवन की पवित्रता पर जोर देने के साथ, बौद्ध धर्म ने देश के पशु
धन को बढ़ाया। प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ सुत्तनिपात में मवेशी को भोजन, सौन्दर्य, शक्ति और
खुशी (अन्नदा, वन्नदा, बलदा, सुखदा) का दाता बताया गया है और इसलिए उनकी
सुरक्षा का आग्रह किया गया है। यह शिक्षा उल्लेखनीय रूप से तब आई, जब पशुओं की
हत्या, अनार्य लोग भोजन के लिए और आर्य धर्म के नाम पर करते थे। गाय की पवित्रता
और अहिंसा पर ब्राह्मणवादी आग्रह जाहिर तौर पर बौद्ध शिक्षा से ली गई थी।
बौद्ध धर्म ने ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में एक नई जागरूकता पैदा की और उसका
विकास किया। लोगों को सिखाया कि किसी भी बात को सहजता से स्वीकार मत करो;
उसके गुणों पर बहस करों, उसका मूल्यांकन करो। तर्कशीलता ने कुछ हद तक, लोगों
के बीच कार्य-कारण को बढ़ावा देते हुए अन्धविश्वास को समाप्त कर दिया। नए धर्म के
सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए, बौद्धों ने एक नए प्रकार के साहित्य को संकलित किया,
अपने लेखन द्वारा पाली को भी समृद्ध किया। प्रारम्भिक पाली साहित्य को तीन श्रेणियों
में विभाजित किया जा सकता है। सबसे पहले बुद्ध की बातें और शिक्षा शामिल हैं, दूसरा
संघ के सदस्यों द्वारा माने जाने वाले नियमों से सम्बन्धित हैं और तीसरा धम्म के दार्शनिक
प्रदर्शन को प्रस्तुत करता है।
ईसाई युग की पहली तीन शताब्दियों में, पाली और संस्कृत के मिश्रण से, बौद्ध ने एक
नई भाषा बनाई, जिसे संकर-संस्कृत (हाइब्रिड संस्कृत) कहा जाता है। बौद्ध भिक्षुओं की
साहित्यिक गतिविधियाँ मध्य युग में भी जारी रहीं और पूर्व भारत में उनके द्वारा कुछ प्रसिद्ध
अपभ्रंश लेखन किए गए। बौद्ध मठ शिक्षा के महान केन्द्र के रूप में विकसित हुए, उन्हें
आवासीय विश्वविद्यालय कहा जा सकता है। बिहार में नालन्दा और विक्रमशिला और गुजरात
में वल्लभी का उल्लेख किया जा सकता है।
बौद्ध धर्म ने प्राचीन भारत की कला पर अपना निशान छोड़ा। भारत में पूजा की जाने
वाली पहली मानव मूर्तियाँ सम्भवत: बुद्ध की थीं। बुद्ध धर्म के अनुयायियों और भक्तों ने
पत्थर में बुद्ध के जीवन के विभिन्न घटनाओं को चित्रित किया। बिहार में बोधगया और
मध्य प्रदेश में साँची एवं भरहुत की मूर्ति-श्रृंखला इन्हीं कलात्मक गतिविधियों के उदाहरणों
को उजागर करते हैं। पहली शताब्दी के बाद से, गौतम बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण
श्रृंखलाबद्ध रूप से शुरू हो गया। यूनानी और भारतीय शिल्पकारों ने एक साथ मिलकर
भारत के उत्तर-पश्चिम सीमाओं पर एक नई कला का सृजन किया जिसे गान्धार-कला के
रूप में जाना जाता है। इस क्षेत्र में बनाई गई छवियाँ भारतीय और विदेशी प्रभाव दोनों को
दर्शाती हैं। भिक्षुओं के निवास के लिए, चट्टानों से कमरे बनाए गए थे और इस प्रकार गया
से सटी हुई पहाड़ियों और पश्चिमी भारत में भी नासिक के आस-पास गुफा-वास्तुकला
की शुरुआत हुई। दक्षिण में कृष्णा नदी के किनारे और उत्तर में मथुरा में बौद्ध कला का
विकास हुआ।