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MP Board Class 9th Hindi Solutions Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति

MP Board Class 9th Hindi Solutions Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति

MP Board Class 9th Hindi Solutions Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति (श्यामाचरण दुबे )

लेखक – परिचय

जीवन परिचय – हिन्दी साहित्य जगत के मूर्धन्य मनीषी, प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक, मानव विकास के क्षेत्र में जाने-माने श्री श्यामाचरण दुबे का जन्म मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में सन् 1922 में हुआ। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर अनेक संस्थानों के प्रमुख पदों पर कार्य किया। उनका देहांत 1996 में हुआ।

रचनाएँ-दुबे जी की प्रमुख रचनाएँ हैं- संस्कृति तथा शिक्षा, मानव और संस्कृति, परंपरा और इतिहास-बोध, समाज और भविष्य, संक्रमण की पीड़ा, भारतीय ग्राम, समय और संस्कृति, विकास का समाजशास्त्र |
साहित्यिक विशेषताएँ – श्यामाचरण दुबे के लेखन में समाज, संस्कृति, और जीवन जैसे ज्वलंत विषयों पर तार्किक स्पष्टता दिखाई देती है। वे अपने विषय के मर्मज्ञ विद्वान रहे । उन्होंने भारतीय जन-जातियों तथा ग्रामीण समुदायों पर मार्मिक लेख लिखे हैं। उनके लेखन में सच्चाई उजागर होती है।
भाषा-शैली – श्यामाचरण दुबे की भाषा-शैली सहज एवं प्रभावशाली है। वे अपनी बात को स्पष्टता, क्रमिकता और सहजता से प्रस्तुत करते हैं। इनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का समावेश देखने को मिलता है। दुबे जी स्वयं प्रश्न करके उसका समाधान भी प्रस्तुत कर देते हैं। उनकी भाषा में निरंतरता, जोश और प्रवाह का संगम दिखाई देता है ।
पाठ का सार
प्रस्तुत निबंध ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ भोगवाद का प्रबल विरोध करने वाला, श्यामाचरण दुबे द्वारा रचित एक उच्चकोटि का निंबध है। इसमें समाज की उस वास्तविकता को प्रस्तुत किया गया है जिसके कारण हम वस्तुओं के गुण-दोष पर बिना विचार किए हुए उनकी खरीदारी कर बैठते हैं। आज हम सब वस्तुओं के विज्ञापित गुणों से भ्रमित होकर उनकी खरीदारी कर लेते है, जो सर्वथा गलत साबित होता है। आज अमीर लोगों द्वारा अपनाई जा रही जीवन-शैली साधारण मनुष्य अपने जीवन में उतारने का प्रयास कर रहे हैं जो उनके जीवन के लिए कष्ट का परिचायक है। दिखावे की प्रवृत्ति हमारी उन्नति में बाधक एवं घातक सिद्ध होगी। फलतः समाज में विषमता व अशांति का साम्राज्य स्थापित होगा।
किसी हद तक लेखक का मानना है कि उपभोक्तावाद के कारण हमारी जीवन-शैली में तीव्र गति से बदलाव आ रहा है। चारों ओर भोग-विलास उत्पन्न करने वाली वस्तुओं के उत्पादन पर जोर दिया जा रहा है। आज सुख का दूसरा रूप ‘उपभोग’ ही है। हम नए-नए उत्पादों के प्रति आकर्षित होते जा रहे हैं।
आज बाजार में विलासितापूर्ण वस्तुओं की भरमार है। सौंदर्य प्रसाधन के क्षेत्र में तो होड़ लगी है। विभिन्न प्रकार के विज्ञापनों से सराबोर उत्पाद हमें फैशन की ओर खींचे लिए जा रहे हैं। आज लोग एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर अपने जीवन को नरकीय बनाए जा रहे हैं। शांति तो जीवन से विलुप्त होती जा रही है।
आज लोग आवश्यकता के लिए नहीं प्रतिस्पर्धा में वस्तुएँ क्रय करते हैं। वे जीवन की वास्तविकता से काफी दूर जा रहे हैं। बच्चों को महँगी सुविधाएँ मुहैया करा रहे हैं। यहाँ तक कि आज लोग पैसे के बल पर शान-शौकत के लिए अंतिम संस्कार का भी शानदार प्रबंध करने लगे हैं।
उपभोक्तावाद का प्रचार एवं प्रसार सामंती संस्कृति के कारण हो रहा है। हमारी सांस्कृतिक पहचान, परम्पराएँ, आस्थाएँ सब नष्ट होती जा रही हैं।
हम पश्चिमी संस्कृति के वशीभूत होते जा रहे हैं। हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं। विज्ञापन हमें सम्मोहित कर रहे हैं। हमारे संसाधनों का अपव्यय हो रहा है। सामाजिक संस्कारों में कमी आ रही है, इससे आक्रोश और अशांति पनप रही है। मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मानंदड कमजोर हो रहा है। स्वार्थ परमार्थ पर भारी पड़ रहा है।
गाँधी जी का कथन है- हम सब ओर से स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभाव को अवश्य स्वीकार करें, अपनी बुनियाद पर कायम रहें। उपभोक्ता – वादी संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को हिला रही है, जो भविष्य के लिए बड़ा खतरा है।
पाठ्यपुस्तक पर आधारित प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ के अनुसार ‘सुख’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ में लेखक श्यामाचरण दुबे ‘सुख’ का अभिप्राय विभिन्न भ्रामक वस्तुओं तथा साधनों के उपभोग से मिलने वाली संतुष्टि को मानते हैं।
प्रश्न 2. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है?
उत्तर- आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को अनेक प्रकार से प्रभावित कर रही है। हमारी जीवंत परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है। आस्थाओं का क्षरण हुआ है। बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं. हम पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बनते जा रहे हैं। अनुकरण की संस्कृति को प्रधानता मिली है। प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्द्धा में स्वयं को खो रहे हैं। सांस्कृतिक नियंत्रण शक्तियाँ नष्ट हो रही हैं। हम अन्य द्वारा निर्देशित होते जा रहे हैं। हमारे संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। जीवन की गुणवत्ता दिन-प्रतिदिन गिरती जा रही है। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच दूरी बढ़ रही है। नैतिक मापदंड तथा मर्यादाएँ लगभग समाप्त हो गई हैं। यह सब भविष्य में खतरे के पूर्व संकेत हैं।
प्रश्न 3. लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?
उत्तर- लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती कहा है। कारण हमारा समाज सादा जीवन, उच्च विचार की परिपाटी पर आधारित है। हम हमेशा सामाजिक तथा नैतिकता को सर्वोपरि मानते आए हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति ठीक इसके विपरीत आचरण करती है। यह हमारी एकता और अखंडता, संस्कृति तथा सामाजिक समानता को नष्ट कर रही है। इस नयी संस्कृति से बचकर अपने परंपरागत नैतिक एवं सामाजिक मानदंडों को अपनाना वर्तमान में कठिन है। अतः लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए एक बड़ी चुनौती कहा है।
प्रश्न 4. “जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- उपर्युक्त पंक्तियों में लेखक ने उपभोक्तावादी संस्कृति को अपनाने के फलस्वरूप मनुष्य में आए चारित्रिक परिवर्तन के कारणों को उल्लेखित किया है। आज का मानव उपभोग-भोग को ही सच्चा सुख बहुप्रचारित उत्पादों के पीछे मान बैठा है। वह विभिन्न आँख बंदकर भागे जा रहा है। मनुष्य का चरित्र इसके प्रभाव से धीरे-धीरे परिवर्तन की ओर अग्रसर है। नहीं चाहते हुए भी वह बाजार की चकाचौंध में स्वयं को नहीं रोक पा रहा। अन्य सभी की तरह वह भी उपभोग को जीवन का लक्ष्य मानकर उनके पीछे भागने को तत्पर है।
प्रश्न 5. “प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो।” आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- उपर्युक्त पंक्ति में लेखक ने वर्तमान समाज में प्रचलित उपभोक्तावादी समाज की एक छोटी-सी झलक प्रस्तुत की है। लेखक के मतानुसार उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव में हम आज वहाँ पहुँच गए हैं, जहाँ उचित-अनुचित का भेदभाव करना अत्यंत दुरूह कार्य है। में प्रतिष्ठा के अनेक प्रतिमान आज इस युग में प्रचलित हैं। जो जितना समाज अधिक खर्च कर अपने उपभोग की वस्तुएँ खरीदता है, वह उतना ही संपन्न माना जाता है। इसी संपन्नता तथा दिखावे की अंधी दौड़ में कई बार हम ऐसी प्रतिष्ठापरक वस्तुओं को अपना लेते हैं, जो अत्यंत हास्यास्पद होती हैं।
प्रश्न 6. “कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी. वी. पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं।” क्यों?
उत्तर- उपयोगी- अनुपयोगी की बातें अब प्राचीन बातें प्रतीत होती हैं। कारण, उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे ऊपर हावी है। इसी का प्रभाव है कि हम टी.वी. पर विज्ञापन देखते ही अभीष्ट वस्तु खरीदने के लिए मचल उठते हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति में उत्पादक अपने उत्पादों के गुणों को अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर समृद्धशाली जीवन शैली के साथ जोड़कर प्रस्तुत करते हैं, जिसका प्रभाव हमारे मस्तिष्क पर तेजी से पड़ता है। हम उसे खरीदने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। कभी बच्चों तथा कभी प्रियजनों की जिद भी हमें उस संस्कृति की ओर धकेलती है। भ्रामक छूट योजनाएँ तथा प्रसिद्ध व आदर्श व्यक्तियों को उत्पाद के साथ जोड़कर दिखाया जाना भी मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालता है। साधारणत: टी.वी. हम सामूहिक रूप से देखते हैं। अगर हम चार आदमी बैठकर टी.वी. पर किसी विज्ञापन को देख रहे हैं, तो वह चार में से किसी-न-किसी को जरूर प्रभावित करेगा और उसी के दबाव में हम विज्ञापित वस्तु खरीदने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
प्रश्न 7. आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन ? तर्क देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- मेरे विचारों के अनुसार किसी भी वस्तु को खरीदने का आधार विज्ञापन न होकर उसकी गुणवत्ता होनी चाहिए । कारण, विज्ञापित वस्तु हमेशा अच्छी नहीं होती। विज्ञापनों में वस्तुओं के गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है, जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं । विज्ञापनों का एकमात्र उद्देश्य उत्पादों के विक्रय को बढ़ाना होता है, चाहे वे जैसे हो । विज्ञापन उपभोक्ता का हित न सोचकर उत्पादक के लिए हितकर होता है।
प्रश्न 8 आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीतिरिवाजों और त्योहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर- उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को बड़ी बुरी तरह से प्रभावित करती है। त्योहार आते ही सभी विज्ञापन एजेंसियाँ तथा उद्योगपति सक्रिय हो जाते हैं और त्योहार से संबंधित विभिन्न वस्तुओं के आकर्षक विज्ञापनों और भ्रामक छूट योजनाओं द्वारा बाजार पर छा जाते हैं। भोलेभाले उपभोक्ता जब त्योहार मनाने या शादी के लिए विभिन्न वस्तुएँ खरीदने बाजार में जाते हैं, तो वे स्वयं को उस संस्कृति से बचा नहीं पाते और ठगे जाते हैं। खुशी और त्योहार के नाम पर बाजार में लूट मची होती है। त्योहार मनाने का ढंग भी उनके अनुसार ही परिवर्तित हो गया है। जैसे- दीवाली में दीप की जगह इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रोनिक लाइटों ने ले ली है। होली में रासायनिक रंगों का प्रयोग हो रहा है। यहाँ तक कि मिठाइयों के लिए प्रयुक्त मावा भी बाजार में मिलावटी और कृत्रिम उपलब्ध है।
प्रश्न 9. उपभोक्तावाद की संस्कृति में उत्पादक लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए क्या-क्या कर रहे हैं?
उत्तर- उपभोक्तावादी समाज में उत्पादक लोगों को अपनेअपने उत्पाद की तरफ आकर्षित करने के लिए अनेक उपाय अपनाते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- विभिन्न माध्यमों से उत्पाद का विज्ञापन, उत्पाद की सच्ची झूठी कई विशेषताओं का प्रलोभन, आकर्षक पैकिंग, कर्णप्रिय स्लोगन, भ्रामक छूट योजनाएँ आदि।
प्रश्न 10. दिखावे की संस्कृति से समाज को क्या हानि है?
उत्तर- दिखावे की संस्कृति हमारी सामाजिक एकता को खंडित कर रही है। इस संस्कृति के फलस्वरूप हम दिग्भ्रमित होकर आधुनिकता की चकाचौंध में बुरी तरह फँस गए हैं। आज की संस्कृति के अनुसार सर्वाधिक सुख अधिकतम उपभोग में है। आप चाहे प्रतिष्ठित हों, या नहीं हो, पर अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना प्रत्येक मानव की मनोवृत्ति बन गई है। प्राचीन समय में धर्म, कर्म तथा मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले लोग आज चमक-दमक और आकर्षक वस्तुओं के मोह में फँसकर रह गए हैं। दिखावे की संस्कृति हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति की कब्र खोदने का काम कर रही है। समय रहते हमें इससे बचने का कठिन संकल्प करना होगा।
वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. सही विकल्प चुनकर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –
(i) उपभोक्तावादी में ……… प्रत्यय प्रयुक्त है। (उप/वादी)
(ii) उपभोक्तावाद ……… संस्कृति से जुड़ा है। (सामन्ती/आध्यात्मिक)
(iii) परमार्थ का अर्थ ……..है
 (दूसरों की भलाई / स्वयं की भलाई)
 (iv) उपभोक्तावादी संस्कृति भारतीय संस्कृति के लिए …… है । (लाभकारी / हानिकारक)
उत्तर- (i) वादी, (ii) सामन्ती, (iii) दूसरों की भलाई, (iv) हानिकारक ।
प्रश्न 2. सत्य/ असत्य बताइए –
(i) उपभोक्तावादी संस्कृति सामन्ती है।
(ii) नयी संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है।
(iii) खरीदने का आधार गुणवत्ता होना चाहिए।
(iv) उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक बुनियाद को हिला रही है।
उत्तर- (i) सत्य, (ii) सत्य, (iii) सत्य, (iv) सत्य।
प्रश्न 3. एक वाक्य में उत्तर दीजिए –
(i) सामन्ती संस्कृति किससे सम्बन्धित है ?
(ii) नयी संस्कृति की क्या विशेषता है ?
(iii) बाजार में किस तरह की वस्तुएँ उपलब्ध हैं?
(iv) ‘बौद्धिक’ शब्द का मूल शब्द क्या है?
उत्तर- (i) सामन्ती संस्कृति उपभोक्तावाद से सम्बन्धित है।
(ii) नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है।
(iii) बाजार में विलासिता की वस्तुएँ अधिक उपलब्ध हैं।
(iv) बौद्धिक शब्द का मूल शब्द ‘बुद्धि’ है।
महत्वपूर्ण गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर
गद्यांश 1. “धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। एक नयी जीवन-शैली अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है। उसके साथ आ रहा है एक नया जीवन-दर्शन-उपभोक्तावाद का दर्शन। उत्पादन बढ़ाने पर जोर है चारों ओर। यह उत्पादन आपके लिए हैं; आपके भोग के लिए है, आपके सुख के लिए है। ‘सुख’ की व्याख्या बदल गई है। उपभोग भोग ही सुख है। एक सूक्ष्म बदलाव आया है नई स्थिति में । उत्पाद तो आपके लिए हैं, पर आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।”
प्रश्न 1. गद्यांश में किस नए दर्शन की चर्चा है? नए दर्शन के अंतर्गत किस चीज पर अत्यधिक बल दिया गया है?
उत्तर- गद्यांश में उपभोक्तावादी दर्शन की चर्चा है। नए दर्शन के अंतर्गत उत्पादन बढ़ाने पर अत्यधिक बल दिया गया है।
प्रश्न 2. गद्यांश में सुख की व्याख्या किस रूप में की गई है? हमारे चरित्र में कैसा परिवर्तन हो रहा है?
उत्तर- उक्त गद्यांश में सुख की व्याख्या भोग-उपभोग के रूप में की गई है। चारित्रिक परिवर्तन के कारण हम उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
प्रश्न 3. धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। वाक्य में रेखांकित शब्द क्या है?
उत्तर- वाक्य में रेखांकित शब्द क्रिया विशेषण है।
गद्यांश 2. “विलासिता की सामग्रियों से बाजार भरा पड़ा है, जो आपको लुभाने की जी तोड़ कोशिश में निरंतर लगी रहती हैं। दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं को ही लीजिए। टूथ-पेस्ट चाहिए? यह दाँतों को मोती जैसा चमकीला बनाता है। यह मुँह की दुर्गंध हटाता है। यह मसूड़ों को मजबूत करता है और यह ‘पूर्ण सुरक्षा’ देता है। वह सब करके जो तीन-चार पेस्ट अलग-अलग करते हैं, किसी पेस्ट का ‘मैजिक’ फार्मूला है। कोई बबूल या नीम के गुणों से भरपूर है। कोई ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत तथा मान्य वनस्पति और खनिज तत्वों के मिश्रण से बना है। जो चाहे चुन लीजिए। यदि पेस्ट अच्छा है, तो ब्रश भी अच्छा होना चाहिए। आकार, रंग, बनावट, पहुँच और सफाई की क्षमता में अलग-अलग, एक से बढ़कर एक । मुँह की दुर्गंध से बचने के लिए माउथवाश भी चाहिए। सूची और भी लंबी हो सकती है। पर इतनी चीजों का बिल काफी बड़ा हो जाएगा, क्योंकि आप शायद बहुविज्ञापित और कीमती ब्रांड खरीदना ही पसंद करें।”
प्रश्न 1. बाजार में किस तरह की वस्तुएँ अत्यधिक उपलब्ध है? गद्यांश में किस चीज की विशेषताओं का वर्णन है?
उत्तर- बाजार में विलासिता संबंधी वस्तुएँ अत्यधिक उपलब्ध हैं। गद्यांश में टूथ पेस्ट की विशेषताओं का वर्णन किया गया है।
प्रश्न 2. निर्माताओं द्वारा वस्तुओं के गुणों को बढ़ाचढ़ाकर बतलाने का क्या उद्देश्य होता है?
उत्तर- निर्माताओं द्वारा वस्तुओं के गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने का उद्देश्य उत्पाद के प्रति उपभोक्ताओं की जिज्ञासा बढ़ाकर अत्यधिक विक्रय कर लाभ कमाना होता है।
प्रश्न 3. उत्पाद को विभिन्न सम्मानित व्यक्तियों यथा ऋषि-मुनियों, अभिनेताओं, खिलाड़ियों से जोड़ने का क्या उद्देश्य है?
उत्तर- उत्पाद को विभिन्न सम्मानित व्यक्तियों; यथा ऋषिमुनियों, अभिनेताओं, खिलाड़ियों से जोड़ने का उद्देश्य विक्रय संवर्द्धन करना है।
गद्यांश 3. “भारत में तो यह स्थिति अभी नहीं आई, पर अमरीका और यूरोप में कुछ देशों में आप मरने के पहले अपने अंतिम संस्कार और अनंत विश्राम का प्रबंध भी कर सकते हैं- एक कीमत पर। आपकी कब्र के आसपास सदा हरी घास होगी, मनचाहे फूल होंगे। चाहे तो वहाँ फव्वारे . होंगे और मंद ध्वनि में निरंतर संगीत भी। कल भारत में भी यह संभव हो सकता है। अमरीका में आज जो हो रहा है, कल वह भारत में भी आ सकता है। प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं। चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों। यह है एक छोटी-सी झलक उपभोक्तावादी समाज की। यह विशिष्टजन का समाज है। पर सामान्यजन भी इसे ललचाई निगाहों से देखते हैं। उनकी दृष्टि में, एक विज्ञापन की भाषा में, यही है राइट च्वाइस बेबी।”
प्रश्न 1. भारत में कौन-सी स्थिति अभी नहीं आई है? किस देश में आप मरने से पहले अंतिम संस्कार का प्रबंध कर सकते हैं?
उत्तर – मरने से पहले अंतिम संस्कार का प्रबंध कर लिया जाए, भारत में अभी ऐसी स्थिति नहीं आई है। अमरीका और यूरोप के देशों में मरने से पहले अंतिम संस्कार का प्रबंध किया जा सकता है।
प्रश्न 2. लेखक गद्यांश में किस समाज की झलक प्रस्तुत कर रहा है? यह समाज किसका है?
उत्तर- लेखक गद्यांश में उपभोक्तावादी समाज की झलक प्रस्तुत कर रहा है। यह समाज विशिष्ट जनों का है।
प्रश्न 3. उपभोक्तावादी में कौन-सा प्रत्यय प्रयुक्त है?
उत्तर- ‘वादी’ प्रत्यय प्रयुक्त है।
गद्यांश 4. “सामंती संस्कृति के तत्व भारत में पहले भी रहे हैं। उपभोक्तावाद इस संस्कृति से जुड़ा रहा है। आज सामंत बदल गए हैं, सामंती संस्कृति का मुहावरा बदल गया है। हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात कितनी ही करें; परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है। कड़वा सच तो यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं। पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपनाते जा रहे हैं। प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो अपना है, उसे खोकर छद्म आधुनिकता की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। संस्कृति की नियंत्रक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं। हमारा समाज ही अन्य निर्देशित होता जा रहा है। विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म तंत्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं। उनमें सम्मोहन की शक्ति है, वशीकरण की भी।”
प्रश्न 1. उपभोक्तावाद किस संस्कृति से जुड़ा है?
उत्तर- उपभोक्तावाद सामंती संस्कृति से जुड़ा है।
प्रश्न 2. उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारी संस्कृति को कैसे नुकसान पहुँचाया है?
उत्तर- उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हमारी परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है। हमारी आस्थाओं का क्षरण हुआ है। हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं।
प्रश्न 3. हमारी नई संस्कृति की क्या विशेषता है?
उत्तर- हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है।
प्रश्न 4. ‘बौद्धिक’ शब्द किस मूल शब्द से बना है?
उत्तर- बौद्धिक शब्द का मूल शब्द ‘बुद्धि’ है।
प्रश्न 5. हम दिग्भ्रमित क्यों हो रहे हैं?
उत्तर- संस्कृति की नियंत्रक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं।
गद्यांश 5. “अंततः इस संस्कृति के फैलाव का परिणाम क्या होगा? यह गंभीर चिंता का विषय है। हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधरती। न बहुविज्ञापित शीतल पेयों से। भले ही वे अंतर्राष्ट्रीय हों। पीजा और बर्गर कितने ही आधुनिक हों, हैं वे कूड़ा खाद्य। समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है। सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है। जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का क्षरण तो हो ही रहा है, हम लक्ष्य भ्रम से भी पीड़ित हैं। विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं। हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति केंद्रकता बढ़ रही है। स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं। किस बिंदु पर रुकेगी यह दौड़?”
प्रश्न 1. गद्यांश में किस गंभीर चिंता की चर्चा है? लेखक ने कूड़ा खाद्य किसे कहा है ?
उत्तर- गद्यांश में उपभोक्तावाद की बढ़ती संस्कृति की चर्चा है। लेखक ने पीजा-बर्गर को कूड़ा खाद्य कहा है ।
प्रश्न 2. समाज के विभिन्न वर्गों के बीच दूरी का क्या कारण है? समाज में अशांति क्यों है?
उत्तर- दिखावे की संस्कृति और असमानता समाज के विभिन्न वर्गों के बीच दूरी का मूल कारण है। उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग का अंतर समाज में अशांति का एक बड़ा कारण है ।
प्रश्न 3. ‘परमार्थ’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ‘परमार्थ’ से अभिप्राय दूसरों की भलाई है।

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